कोई यह अनुदान ग्रहण भी तो करे.


        कोई यह अनुदान
           ग्रहण भी तो करे.

यों बाल-विधवा पिसनहारी ने दो-दो पैसा बचा कर बुढ़ापे तक एक पक्का कुँआ बना सकने जितना पैसा इकट्ठा कर लिया था। उसी प्रकार कोई चाहे तो अन्य सम्पदाएँ एवं विभूतियाँ भी अपने बलबूते क्रमशः जमा करता रह सकता है और उस संचय के बल पर कोई बड़ा काम कर सकता है, पर यह अपवाद है, सामान्य या विशिष्ट रीति नहीं। आमतौर से होता यह है कि समर्थों का आश्रय लेकर असमर्थ तेजी से ऊँचे उठते और आगे बढ़ते हैं।

बेल अपने आप ही इधर-उधर बढ़ती-फैलती रहती है। उसे पानी में गलने, धूप में सूखने और जानवरों द्वारा चरे जाने का खतरा भी रहता है, किन्तु जब वह किसी ऊँचे पेड़ का आश्रय पकड़ लेती है तो उतनी ऊँची उठ जाती है, जितना कि लम्बा वाला बिल्व वृक्ष। बाढ़, धूप, पशु भी उसका कुछ बिगाड़ नहीं पाते। “अमर बेल” तो पूरी तरह उस पेड़ से ही अपनी खुराक आजीवन प्राप्त करती रहती है, जिस पर कि वह फैलती है। यह तरीका और भी अधिक सरल है।

जीव की मूल सत्ता शुक्राणु के रूप में इतनी छोटी होती है कि आँख से देखी भी नहीं जा सकती, किंतु भ्रूण में प्रवेश करने के बाद माता की शरीर-सम्पदा उसे मिलने लगती है और नौ महीने में वह इस योग्य हो जाता है कि बाह्य संसार में प्रवेश कर सके। इसके बाद भी माता दूध पिलाने, खिलाने, पहनाने, सफाई रखने जैसी अनेकों सुरक्षात्मक सावधानियाँ रखती है। यदि ऐसा न करे, तो बालक का जीवित रह सकना संभव नहीं। अब पिता की बारी आती है। पोषण, शिक्षण, स्वावलम्बन, विवाह आदि के लिए वह अपनी कमाई का अधिकाँश भाग खर्च कर देता है। अध्यापक भी अपना दायित्व पूरा करता है और सभ्य-शिक्षित बनाने में योगदान देता है। इन सहायताओं के बल पर मनुष्य आगे बढ़ता है। यदि उसे उपरोक्त सभी प्रसंगों में अपने पैरों खड़ा होना पड़े, तो वह क्या कुछ बन सकेगा?, इस संबंध में असमंजस और संदेह ही बना रहेगा।

सुसभ्य छत्रछाया में सभी को विकसित होने का असाधारण अवसर मिलता है। चतुर माली बगीचे को ऐसा नयनाभिराम और लाभदायक बना देता है, उसे देखकर दर्शकों तक को प्रशंसा करनी पड़ती है। सुव्यवस्थित गुरुकुलों में पढ़कर छात्र अत्यन्त मेधावी नर-रत्न बन कर निकलते रहे। यह कार्य कोई विद्यार्थी अपने आप पोथी पढ़ कर सम्पन्न नहीं कर सकता है। पहलवान अखाड़ों में ही बना जाता है। अभिनेता बनने के लिए रंगमंच चाहिए। प्रगति के लिए आवश्यक वातावरण, मार्गदर्शन एवं अनुदान- इन सभी की आवश्यकता पड़ती है। स्वउत्पादित् तो जंगलों के झाड़-झंखाड़ ही होते हैं। अनगढ़ चट्टानें देव प्रतिमाओं का कलेवर धारण नहीं कर सकतीं, इसके लिए निर्माता, कलाकार चाहिए। आभूषण भी हर कोई नहीं बना सकता। यह स्वर्णकार का ही कौशल है, जो अनगढ़ धातु-खण्डों को अपनी कलाकारिता से ऐसे आभूषणों में बदल देता है, जिससे सिर और गले तक की शोभा बढ़ती है, नाक-कान तक सजते हैं, उँगली के पोरवे भी।

व्यक्ति की भौतिक अथवा आत्मिक प्रगति के लिए किसी सहायक मार्गदर्शक की आवश्यकता पड़ती है। गायक, वादक, मूर्तिकार, चित्रकार आदि को किसी-न-किसी निष्णात के यहाँ शिक्षा प्राप्त करनी पड़ती है। आत्मिक क्षेत्र में तो यह एक प्रकार से अनिवार्य है, नितान्त आवश्यक। जिस प्रकार भ्रूण बिन्दु को माता का रस-रक्त चाहिए, उसी प्रकार आत्मिक प्रगति के लिए ऐसे संरक्षण परिपोषक की आवश्यकता पड़ती है, जो अपने विषय का प्रवीण पारंगत भी हो और साथ ही उतना उदार भी कि अपनी उपार्जित सम्पदा को बिना संकोच के ‘इच्छुक’ को उदारतापूर्वक हस्तान्तरित करता रहे।

चर्चा गुरु-शिष्य संयोग-सुयोग की हो रही है। उसमें प्रमुखता एवं वरिष्ठता गुरु की है, क्योंकि वह अपने विषय का धनी भी होता है और दानी भी। इतिहास साक्षी है कि जहाँ कहीं, जब कभी कोई महत्वपूर्ण प्रसंग सामने आया है, तब उसमें गुरु की प्रत्यक्ष या परोक्ष भूमिका अपना चमत्कार प्रस्तुत करती दिखाई दी है। यों भटकते-पूछते भी पथिक देर-सबेर में ठिकाने तक जा पहुँचते हैं, पर उन्हें वह सुगमता और सफलता नहीं मिलती, जो गुरु और शिष्य का संयोग बनने पर संभव होती है। इस तथ्य को समझते हुए निराश एकलव्य को द्रोणाचार्य की प्रतिमा मिट्टी से बनानी पड़ी थी। श्रद्धा के बल पर उसने उस खिलौने को असली द्रोणाचार्य से कहीं अधिक सुयोग्य एवं सहायक शिक्षक बना लिया था।

विश्वामित्र यज्ञ रक्षा के बहाने राम-लक्ष्मण को अपने तपोवन में ले गये थे। वहाँ उन्हें बला और अतिबला-गायत्री और सावित्री की रहस्यमयी जानकारी दी थी। फलतः सीता स्वयंवर जीतने, लंका विजय करने, राम राज्य की प्रतिष्ठा करने एवं भगवान कहे जाने की स्थिति तक वे पहुँचे थे। ऐसा सुयोग भरत, शत्रुघ्न को नहीं मिला था। उन्हें सामान्य स्थिति में रहना पड़ा। वे विश्व विख्यात न बन सके।

नारद के परामर्श से भगीरथ गंगावतरण में प्रवृत्त हुए थे। उन्हीं का निर्देशन परशुराम को मिला था कि संव्याप्त अनीति के धुर्रे बिखेर दें। वे परामर्श मात्र देकर चले नहीं गये थे, वरन् आदि से अन्त तक उनकी साज-संभाल करते और कठिनाइयों का समाधान करते रहे थे। नचिकेता ने यमाचार्य से पंचाग्नि विद्याएँ प्राप्त की थीं और वे उस आधार पर ऊर्जा विज्ञान की समग्रता एवं प्रवीणता उपलब्ध कर सके थे। गुरुकुल की महत्ता इसी दृष्टि से थी कि वहाँ पुस्तकें ही नहीं पढ़ाई जाती थीं, वरन् छात्र में नये प्राण फूँकने और तुच्छ से महान बनाने की प्रक्रिया भी सम्पन्न की जाती थी।

भारतीय संस्कृति की पुण्य परम्परा में माता-पिता के अतिरिक्त संरक्षकों की तीसरी पदवी गुरु की है। यही प्रत्यक्ष त्रिदेव हैं। शिव के बिना जिस प्रकार देव समुच्चय अधूरा रहता है, उसी प्रकार उच्चस्तरीय शिक्षार्थी भी उपयुक्त गुरु के अभाव में अनाथ-अपंग की स्थिति में पड़ा रहता है। अभाव, अज्ञान एवं अशक्ति से उफनते इस भवसागर जैसे महानद को सुरक्षित रूप से पार करने के लिए जिस मजबूत पतवार वाले जहाज की जरूरत है, उसे ही गुरु कहा गया है।

महानता के पुरातन इतिहास में गुरु गरिमा की जितनी बड़ी भूमिका रही है, उतनी किसी और की नहीं। इसलिए भावनाशील शिक्षार्थी गुरुदक्षिणा में आचार्य को मुँह माँगा अनुदान अपनी समूची सामर्थ्य को भी न्यौछावर करते हुए हर संभावना को साकार कर दिखाते थे। हरिश्चंद्र ने अपना राजपाट ही नहीं, शरीर और परिवार तक इस गुरु दक्षिणा के निमित्त समर्पित कर दिया था। वाजिश्रवा, हरिश्चंद्र और बिम्बसार की भी ऐसी ही कथाएँ हैं। जो पाया था, उसका मूल्य चुकाते समय इन भावनाशील शिष्यों ने कृपणता का परिचय नहीं दिया। आरुणी, उद्दालक, सत्यकेतु और द्रुपद की कथाएँ सुप्रसिद्ध हैं और उनके गुरु ने अनुदानों को देखते हुए शिष्यों के लिए उपयुक्त प्रतिदान प्रस्तुत करने में भी कोताही नहीं की थी।

कुछ ही शताब्दियों के बीच घटित हुई घटनाओं में कई ऐसी हैं जो रहस्यमय तथ्यों का उद्घाटन करती हैं। भगवान बुद्ध ने अपने तपोबल से अनेकों को भागीदार बनाया और उनसे बड़े काम कराये। कुमार जीव को उन्होंने समूचे चीन का धर्मगुरु बना दिया। मंचूरिया, मंगोलिया, कोरिया, जापान तक में वह दूसरा बुद्ध माना जाने लगा था। तथागत का कार्यक्रम एक केन्द्र से धर्मचक्र प्रवर्तन की धुरी घुमाना था। वे स्वयं समूचे संसार और एशिया में किस प्रकार भ्रमण करते? उन्होंने अंगुलिमाल, अम्बपाली जैसों का कायाकल्प किया और उनके द्वारा पूर्वी-दक्षिणी एशिया में नवीन चेतना जगाई। एक दुर्दान्त डाकू उच्चकोटि का धर्म प्रचारक बन गया और अनेकों की पर्यंक शायिनी नर्तकी अम्बपाली ने सुविस्तृत क्षेत्र के नारी समुदाय में ऐसा प्राण फूँका मानो किसी ने उसे तपती जमीन पर अमृत बरसा दिया हो। वह देवी में बदल गई, साध्वी हो गयी। क्या यह पतित समझा जाने वाला परिकर बिना गुरु -कृपा के ऐसी स्थिति में पहुँच सकता था कि उनके चरणों पर कोटि-कोटि जन समुदाय के पलक पाँवड़े बिछे। बिम्बसार ने राज्यकोष बौद्ध विहार बनाने में चुका दिया और हर्षवर्धन ने तक्षशिला विश्वविद्यालय का समूचा भार उठाया। लगता है कि इन शिष्यों को घाटे में रहना पड़ा। पर उस घाटे पर कुबेर जैसे रतन भण्डारों को न्यौछावर किया जा सकता है, जिसने मनुष्यों को देवताओं से बढ़कर सम्माननीय बना दिया। कोटि-कोटि कण्ठों से गदगद कण्ठ में जिनकी यशोगाथा गाई गयी। ऐसा सौभाग्य क्या किसी छोटी मोटी धनराशि और सुख सम्पदा से लाखों गुना बढ़कर नहीं है? बुद्ध के अवतार होने का सबसे बड़ा प्रमाण यह है कि उनने सामान्य स्तर के लोगों को लाखों की संख्या में महामानवों की पंक्ति में बिठाया। समर्थ गुरु के अभाव में यह लाखों भिक्षुओं और भिक्षुणियों की धर्म सेवा विश्वमानस का नवनिर्माण करने के लिए निकल न पाती।

तपस्वी चाणक्य की तप सम्पदा गाय के दूध भरे थनों की तरह निस्सृत हो रही थी, पर प्रश्न यह था कि सत्पात्र ढूंढ़े बिना यह अमृत किस पर लुटाया जाय। आखिर चन्द्रगुप्त मिल गया। एक क्षुद्र जाति के बालक को राजपूतों के बीच वरिष्ठता कैसे मिलती? पर चाणक्य की योजना, दक्षता और तप-सम्पदा थी जिसे लेकर चन्द्रगुप्त भारत के गौरव में चार चाँद लगा देने में समर्थ हुआ। यह मिला तब था जब उसने अपने पराक्रम का लाभ अपने निज के लिए नहीं, समस्त राष्ट्र के लिए अर्पित करने का व्रत लिया और आश्वासन दिया था।

समर्थ गुरु रामदास और छत्रपति शिवाजी की ऐसी ही गाथाएँ हैं। गुरु ने शिष्य को और शिष्य ने गुरु को अपना निजत्व पूरी तरह समर्पित कर दिया था। रामकृष्ण परमहंस ने अपनी तप साधना विश्व संस्कृति में नई हलचल पैदा करने के लिए प्रदान की और शिष्य ने अनुभव किया कि उनके प्राण और शरीर में गुरु ही काम कर रहा है। उनने संसार भर में रामकृष्ण मिशन मठों की स्थापना की। निजी महत्वाकाँक्षा से प्रेरित होकर विवेकानन्द नाम की एक कुटिया भी कहीं नहीं बनाई।

महायोगी और उद्भट विद्वान विरजानन्द की पाठशाला में ढेरों विद्यार्थी संस्कृत पढ़ते थे और पढ़ाई पूरी करके कथा बाँचने, जन्मपत्री बनाने का धन्धा करते थे। गुरु को आवश्यकता ऐसे शिष्य की थी जो पेट पालने और मनोकामना पूरी कराने का आशीर्वाद न माँगकर अपने को देश, धर्म, समाज और संस्कृति के लिए समर्पित करे। अगणित छात्र आए और चले गए। पर एक छात्र मिला- दयानन्द, जिसने आचार्य से गुरु दक्षिणा माँगने के लिए कहा और जब उन्होंने तन, मन, धन पाखण्ड खण्डन करने के निमित्त समर्पित करने की माँग की तो शिष्य ने गुरु आदेश के लिए सर्वस्य समर्पित कर दिया। वे ब्रह्मचारी से संन्यासी बन गए और जब तक जिए, एक निष्ठ भाव से वेद धर्म का प्रचार करने में लगे रहे। आर्य समाज के रूप में उनका दिवंगत शरीर अभी भी जीवित है। उन्हें राष्ट्रीय आन्दोलन के- समाज सुधार अभियान के जन्मदाता के रूप में स्मरण किया जाता है।

ऊपर की पंक्तियों में कुछ ऐसे नेतृत्व करने वाले शिष्यों का उल्लेख है जिन्होंने पुरुष से पुरुषोत्तम, नर से नारायण बनने की दिशा में कदम बढ़ाये और असंख्यों के हृदय पटलों पर अपने आसन जमाए।

आज ऐसे ही नेताओं का, शिष्यों का आह्वान हो रहा है जिन्हें विपुल सहायता प्रदान करने के लिए देव सत्ता व्याकुल है। तलाशा उन्हें जा रहा है जो इस अनुदान को पाकर अपने को और गुरु परंपरा को धन्य बनावें। ढूंढ़ना गुरु को नहीं, शिष्यों को इस तरह पड़ रहा है मानो भारत माता की बहुमूल्य रत्न-राशि कहीं मिट्टी धूलि में गुम हो गई हो।

यह तथ्य याद रखा जाना चाहिए कि टंकी में पानी जब तक भरा रहता है, तब तक उसके साथ जुड़े हुए नल का प्रवाह चलता ही रहता है। बिजली घर के साथ जुड़े हुए बल्ब, पंखे, मोटर गतिशील रहते ही हैं। समर्थ गुरु सत्ता के साथ जो जुड़ सके, उसे थकने, हारने या निराश होने की कोई आशंका नहीं। नेतृत्व के शिक्षार्थी किसी प्रकार हताश न हों, अपने आपको समर्थता के साथ जोड़े रहने का संकल्प भर सुदृढ़ बनाये रहें।

युग नेतृत्व के उदाहरणों की शृंखला में निकटवर्ती, अभी तक जीवित व्यक्ति को तलाशना हो तो प्रज्ञा अभियान के सूत्र संचालक को उलट पुलट कर परखा जा सकता है। उनने ऐसे अनेक काम किए हैं जिनसे असंभव शब्द को संभव में बदलने की नेपोलियन वाली उक्ति को चरितार्थ होते देखा जा सकता है। यह हाड़ माँस से बनी काया के व्यक्ति का कर्त्तव्य नहीं हो सकता। मनुष्य की कार्यक्षमता सीमित है, कौशल और साधन भी सीमित हैं पर जब असीम साधनों की आवश्यकता पड़े और वे सभी यथा समय जुटते चले जायँ तो एक शब्द में यही कहना होगा कि यह किसी दैवी शक्ति का पृष्ठ पोषण है। इसके उपलब्ध प्रत्यक्ष प्रमाणों में से हर एक यही कहता है कि इस प्रत्यक्ष के पीछे परोक्ष भूमिका गुरु तत्व की है।

एक लाख “नेता”, सच्चे अर्थों में नेता विनिर्मित करने का संकल्प अकेला ही इतना भारी है जिसे तराजू के एक पलड़े में रखने के बाद दूसरे में पुरातन काल के नालन्दा और तक्षशिला विश्वविद्यालयों को रखते हुए बराबरी की बात सोचनी पड़ेगी। क्या यह सम्भव है? क्या यह सब हो सकेगा? क्या एक लाख युग शिल्पी नवसृजन में संलग्न होकर सतयुग की वापसी का वह प्रयोजन पूरा कर सकेंगे जिसे समुद्र सेतु बाँधने के समतुल्य माना जा सके। बात अचंभे की है, पर तब-जब सामान्य मनुष्य की सामर्थ्य से इतने बड़े उत्तरदायित्व को तौला जाय। जब स्थिति ऐसी हो कि प्रस्तुत संकल्प की प्रेरणा, निर्धारणा, योजना ही नहीं, उसकी सफलता की जिम्मेदारी भी किसी महान शक्ति ने उठाई हो तो उसकी सफलता में किसी प्रकार का सन्देह यह असमंजस करने की गुँजाइश नहीं है। इस अवसर का लाभ उठाने पर वही उक्ति लागू होगी जिसमें कृष्ण ने अर्जुन से कहा था कि “शत्रु को मैंने पहले ही मार कर रख दिया है, तुझे तो विजय का श्रेय भर लूटना है”।



(अखंड ज्योति-9/1986)

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