गजकेशरी योग. (ज्योतिष)

 

गजकेशरी योग.
(ज्योतिष)


जब कुण्डली में गुरू और चन्द्र पूर्ण कारक प्रभाव सहित होते हैं, तब यह योग बनता है। लग्न स्थान में कर्क, धनु, मीन, मेष या वृश्चिक हो तब ही कारक प्रभाव माना जाता है। यद्दपि अकारक होने पर भी फलदायी माना जाता हैं, परंतु योग मध्यम दर्जे का होता है।


चन्द्रमा से केन्द्र स्थान में 1, 4, 7, 10 बृहस्पति होने से गजकेशरी योग बनता है।

इसके अलावा अगर चन्द्रमा के साथ बृहस्पति हो तब भी यह योग बनता है।
बृहत्पाराशरहोराशास्त्र में कहा गया है कि चन्द्रमा और गुरू के बीच संबंध नहीं भी हो और केवल गुरू चौथे, सातवें या दसवें घर में शुभ स्थिति में बैठा हो तब भी गजकेशरी योग बनता है।

यह योग जिस व्यक्ति की कुण्डली में उपस्थित होता है, वह जन्म से ही सारे सुख अर्जित करता है| इस योग के साथ जन्म लेने वाले व्यक्ति की ओर धन, यश, कीर्ति स्वत: खींची चली आती है।

इस योग की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि इस योग में जन्म लेने वाले होशियार होते हैं और तर्क शक्ति तेज होती हैं।
इस योग वाले व्यक्ति उच्च पद को भी प्राप्त होते हैं।

मेष लग्न :- इस लग्न में गुरू व चन्द्र की युति शुभ फलदायी होती है, इस लग्न में इन दोनों ग्रहों की सबसे शुभ स्थिति चतुर्थ भाव में होती है| द्वितीय एवं पंचम में भी गुरू-चन्द्र की युति शुभकारी मानी जाती है|

वृष लग्न :- इस लग्न में चन्द्र उच्च का एवं आठवें घर का भी स्वामी होता है इसलिए इस लग्न में इन दोनों ग्रहों का योग बनने से गजकेशरी योग का शुभ फल प्राप्त है| लग्न में इस योग का शुभत्व इसलिए भी बढ़ जाता है क्योंकि, इससे विपरीत राजयोग भी निर्मित होता है|

मिथुन लग्न :- इस लग्न में गुरू अगर धनु राशि में होता है तो गजकेशरी योग फलित होता है क्योंकि त्रिकोण राशि में होने से गुरू का केन्द्राधिपति व सप्तमाधिपति दोष प्रभावहीन हो जाता है|

कर्क लग्न :- इस लग्न में गुरू षष्ठेश एवं भाग्येश होता है| अगर लग्न का स्वामी चन्द्रमा लग्न में बैठा हो और गुरू मेष में स्थित हो या फिर गुरू कर्क में हो और चन्द्र मेष में तब भी उत्तम गजकेशरी योग बनता है, जो व्यक्ति के लिए शुभ फलदायी होता है.

सिंह लग्न :- सिंह लग्न की कुण्डली में गजकेशरी योग तब शुभफलदायी होता है जब गुरू मीन राशि में बैठा हो और चन्द्रमा धनु राशि में बैठा हो| अन्य स्थितियों में इस योग के फलों में कमी आती है|

कन्या लग्न :- इस लग्न में गुरू अगर स्व-राशि में बैठा होता है, तो केन्द्राधिपति दोष से मुक्त हो जाता है| इस स्थिति में गुरू अगर मीन राशि में हो तथा चन्द्रमा धनु या मीन में बैठा हो तो इसे शुभ फलदायी गजकेशरी योग माना जाता है, जो व्यक्ति को गुणवान व वैभवशाली बनाता है|

तुला लग्न :- इस लग्न की कुण्डली में गजकेशरी योग का पूर्ण फल नहीं मिल पाता है फिर भी यदि कर्क राशि में गुरू हो और मकर राशि में चन्द्रमा तो कुछ हद तक शुभ फल की आशा की जा सकती है, लेकिन इसमें एक अच्छी बात यह होती है कि गुरू चन्द्र की इस स्थिति से हंस योग बनता है , जिसका जातक शुभ फल मिलता है|

वृश्चिक लग्न :- इस लग्न की कुण्डली में गुरू द्वितीय व पांचवें घर का स्वामी होता है जबकि चन्द्रमा भाग्य स्थान का स्वामी होता है| गुरू इस कुण्डली में अगर लग्न में हो और चन्द्रमा सातवें घर में वृष राशि में तो दोनों के बीच दृष्टि सम्बन्ध बनता है, जिससे यह योग बहुत ही शुभकारी हो जाता है|

धनु लग्न :- इस लग्न में चन्द्र अष्टमेश होने के कारण गजकेशरी योग का पूर्ण फल नहीं मिलता है, लेकिन गुरू अगर वृश्चिक राशि में हो और चन्द्रमा वृष राशि में तो इस योग के शुभ फल की आशा की जा सकती है|

मकर लग्न :- मकर लग्न की कुण्डली में गजकेशरी योग सामान्य फलदायी होता है क्योंकि इस लग्न में गुरू तीसरे व बारहवें घर का स्वामी होता है जबकि चन्द्रमा सातवें घर का|

कुम्भ लग्न :- कुम्भ लग्न की कुण्डली में भी गजकेशरी योग सामान्य फलदायी होता क्योंकि इस राशि में चन्द्रमा छठे भाव का स्वामी होता है| ज्योतिषशास्त्र में इस घर को शुभ स्थान नहीं माना जाता है|

मीन लग्न :- गुरू की इस राशि में गजकेशरी योग बने तो बहुत ही शुभकारी होता है| इसका कारण यह है कि इस लग्न में गुरू लग्नेश व दशमेश होता है जबकि चन्द्रमा पांचवें घर का स्वामी होता है|

सभी लग्नों में मिथुन, कन्या, वृश्चिक एवं मीन लग्न में बनने वाला गजकेशरी योग सबसे श्रेष्ठ माना जाता है| अन्य लग्नों में इसका प्रभाव अपेक्षाकृत कम होता है|

श्रीमद्भागवत महापुराण: सप्तम स्कन्ध: नवम अध्यायः श्लोक 12-20 का हिन्दी अनुवाद

 

(लगातार-सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत पुराण)

श्रीमद्भागवत महापुराण:
सप्तम स्कन्ध: नवम अध्यायः
श्लोक
12-20 का हिन्दी अनुवाद


इसलिये सर्वथा अयोग्य और अनधिकारी होने पर भी मैं बिना किसी शंका के अपनी बुद्धि के अनुसार सब प्रकार से भगवान् की महिमा का वर्णन कर रहा हूँ। इस महिमा के गान का ही ऐसा प्रभाव है कि अविद्यावश संसारचक्र में पड़ा हुआ जीव तत्काल पवित्र हो जाता है।

भगवन! आप सत्त्वगुण के आश्रय हैं। ये ब्रह्मा आदि देवता आपके आज्ञाकारी भक्त हैं। ये हम दैत्यों की तरह आपसे द्वेष नहीं करते। प्रभो! आप बड़े-बड़े सुन्दर-सुन्दर अवतार ग्रहण करके इस जगत् के कल्याण एवं अभ्युदय के लिये तथा उसे आत्मानन्द की प्राप्ति कराने के लिये अनेकों प्रकार की लीलाएँ करते हैं। जिस असुर को मारने के लिये आपने क्रोध किया था, वह मारा जा चुका। अब आप अपना क्रोध शान्त कीजिये। जैसे बिच्छू और साँप की मृत्यु से सज्जन भी सुखी ही होते हैं, वैसे ही इस दैत्य के संहार से सभी लोगों को बड़ा सुख मिला है। अब सब आपके शान्त स्वरूप के दर्शन की बाट जोह रहे हैं।

नृसिंहदेव! भय से मुक्त होने के लिये भक्तजन आपके इस रूप का स्मरण करेंगे। परमात्मान्! आपका मुख बड़ा भयावना है। आपकी जीभ लपलपा रही है। आँखें सूर्य के समन हैं। भौंहें चढ़ी हुई हैं। बड़ी पैनी दाढ़ें हैं। आँतों की माला, खून से लथपथ गरदन के बाल, बर्छे की तरह सीधे खड़े कान और दिग्गजों को भी भयभीत कर देने वाला सिंहनाद एवं शत्रुओं को फाड़ डालने वाले आपके इन नखों को देखकर मैं तनिक भी भयभीत नहीं हुआ हूँ। दीनबन्धों! मैं भयभीत हूँ तो केवल इस असह्य और उग्र संसारचक्र में पिसने से। मैं अपने कर्मपाशों से बँधकर इन भयंकर जंतुओं के बीच में डाल दिया गया हूँ। मेरे स्वामी! आप प्रसन्न होकर मुझे कब अपने उन चरणकमलों में बुलायेंगे, जो समस्त जीवों की एकमात्र शरण और मोक्षस्वरूप हैं?

अनन्त! मैं जिन-जिन योनियों में गया, उन सभी योनियों में प्रिय के वियोग और अप्रिय के संयोग से होने वाले शोक की आग में झुलसता रहा। उन दुःखों को मिटाने की जो दवा है, वह भी दुःख रूप ही है। मैं न जाने कब से अपने से अतिरिक्त वस्तुओं को आत्मा समझकर इधर-उधर भटक रहा हूँ। अब आप ऐसा साधन बतलाइये जिससे कि आपकी सेवा-भक्ति प्राप्त कर सकूँ। प्रभो! आप हमारे प्रिय हैं। अहैतुक हितैषी सुहृद् हैं। आप ही वास्तव में सबके परमाराध्य हैं। मैं ब्रह्मा जी के द्वारा गायी हुई आपकी लीला-कथाओं का गान करता हुआ बड़ी सुगमता से रागादि प्राकृत गुणों से मुक्त होकर इस संसार की कठिनाइयों को पार कर लाऊँगा; क्योंकि आपके चरण युगलों में रहने वाले भक्त परमहंस महात्माओं का संग तो मुझे मिलता ही रहेगा।

भगवान् नृसिंह! इस लोक में दुःखी जीवों का दुःख मिटाने के लिये जो उपाय माना जाता है, वह आपके उपेक्षा करने पर एक क्षण के लिये ही होता है। यहाँ तक कि माँ-बाप बालक की रक्षा नहीं कर सकते, ओषधि रोग नहीं मिटा सकती और समुद्र में डूबते हुए को नौका नहीं बचा सकती। सत्त्वादि गुणों के कारण भिन्न-भिन्न स्वभाव के जितने भी ब्रह्मादि श्रेष्ठ और कालादि कनिष्ठ कर्ता हैं, उनको प्रेरित करने वाले आप ही हैं। वे आपकी प्रेरणा से जिस आधार में स्थित होकर जिस निमित्त से जिन मिट्टी आदि उपकरणों से जिस समय जिन साधनों के द्वारा जिस अदृष्ट आदि की सहायता से जिस प्रयोजन के उद्देश्य से जिस विधि से जो कुछ उत्पन्न करते हैं या रूपान्तरित करते हैं, वे सब और वह सब आपका ही स्वरूप है।

श्रीमद्भागवत महापुराण: सप्तम स्कन्ध: नवम अध्यायः श्लोक 1-11 का हिन्दी अनुवाद

 

(लगातार-सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत पुराण)

श्रीमद्भागवत महापुराण:
सप्तम स्कन्ध: नवम अध्यायः
श्लोक 1-11 का हिन्दी अनुवाद


प्रह्लाद जी के द्वारा नृसिंह भगवान् की स्तुति.

 नारद जी कहते हैं- इस प्रकार ब्रह्मा, शंकर आदि सभी देवगण नृसिंह भगवान् के क्रोधावेश को शान्त न कर सके और न उनके पास जा सके। किसी को उसका ओर-छोर नहीं दीखता था। देवताओं ने उन्हें शान्त करने के लिये स्वयं लक्ष्मी जी को भेजा। उन्होंने जाकर जब नृसिंह भगवान् का वह महान् अद्भुत रूप देखा, तब भयवश वे भी उनके पास तक न जा सकीं। उन्होंने ऐसा अनूठा रूप न कभी देखा और न सुना ही था।

तब ब्रह्मा जी ने अपने पास ही खड़े प्रह्लाद को यह कहकर भेजा कि ‘बेटा! तुम्हारे पिता पर ही तो भगवान् कुपित हुए थे। अब तुम्हीं उनके पास जाकर उन्हें शान्त करो’। भगवान् के परम प्रेमी प्रह्लाद ‘जो आज्ञा’ कहकर और धीरे से भगवान् के पास जाकर हाथ जोड़ पृथ्वी पर साष्टांग लोट गये। नृसिंह भगवान् ने देखा कि नन्हा-सा बालक मेरे चरणों के पास पड़ा हुआ है। उनका हृदय दया से भर गया। उन्होंने प्रह्लाद को उठाकर उनके सिर पर अपना वह करकमल रख दिया, जो कालसर्प से भयभती पुरुषों को अभयदान करने वाला है।

भगवान् के करकमलों का स्पर्श होते ही उनके बचे-खुचे अशुभ संस्कार भी झड़ गये। तत्काल उन्हें परमात्मतत्त्व का साक्षात्कार हो गया। उन्होंने बड़े प्रेम और आनन्द में मग्न होकर भगवान् के चरणकमलों को अपने हृदय में धारण किया। उस समय उनका सारा शरीर पुलकित हो गया, हृदय में प्रेम की धारा प्रवाहित होने लगी और नेत्रों से आनन्दाश्रु झरने लगे। प्रह्लाद जी भावपूर्ण हृदय और निर्निमेष नयनों से भगवान् को देख रहे थे। भाव समाधि से स्वयं एकाग्र हुए मन के द्वारा होने भगवान् के गुणों का चिन्तन करते हुए प्रेमगद्गद वाणी से स्तुति की।

प्रह्लाद जी ने कहा- ब्रह्मा आदि देवता, ऋषि-मुनि और सिद्ध पुरुषों की बुद्धि निरन्तर सत्त्वगुण में ही स्थित रहती है। फिर भी वे अपनी धारा-प्रवाह स्तुति और अपने विविध गुणों से आपको अब तक भी सन्तुष्ट नहीं कर सके। फिर मैं तो घोर असुर-जाति में उत्पन्न हुआ हूँ। क्या आप मुझसे सन्तुष्ट हो सकते हैं? मैं समझता हूँ कि धन, कुलीनता, रूप, तप, विद्या, ओज, तेज, प्रभाव, बल, पौरुष, बुद्धि और योग- ये सभी गुण परमपुरुष भगवान् को सन्तुष्ट करने में समर्थ नहीं हैं- परन्तु भक्ति से तो भगवान् गजेन्द्र पर भी सन्तुष्ट हो गये थे। मेरी समझ से इन बारह गुणों से युक्त ब्राह्मण भी यदि भगवान् कमलनाभ के चरणकमलों से विमुख हो तो उससे वह चाण्डालश्रेष्ठ है, जिसने अपने मन, वचन, कर्म, धन और प्राण भगवान् के चरणों में समर्पित कर रखे हैं; क्योंकि वह चाण्डाल तो अपने कुल तक को पवित्र कर देता है और बड़प्पन का अभिमान रखने वाला वह ब्राह्मण अपने को भी पवित्र नहीं कर सकता। सर्वशक्तिमान् प्रभु अपने स्वरूप के साक्षात्कार से ही परिपूर्ण हैं। उन्हें अपने लिये क्षुद्र पुरुषों की पूजा ग्रहण करने की आवश्यकता नहीं है। वे करुणावश ही भोले भक्तों के हित के लिये उनके द्वारा की हुई पूजा स्वीकार कर लेते हैं। जैसे अपने मुख का सौन्दर्य दर्पण में दीखने वाले प्रतिबिम्ब को भी सुन्दर बना देता है, वैसे ही भक्त भगवान् के प्रति जो-जो सम्मान प्रकट करता है, वह उसे ही प्राप्त होता है।

श्रीमद्भागवत महापुराण: सप्तम स्कन्ध: षष्ठ अध्यायः श्लोक 45-56 का हिन्दी अनुवाद

 

(लगातार-सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत पुराण)

श्रीमद्भागवत महापुराण:
सप्तम स्कन्ध: षष्ठ अध्यायः
श्लोक 45-56 का हिन्दी अनुवाद


सिद्धों ने कहा- 'नृसिंह देव! इस दुष्ट ने अपने योग और तपस्या के बल से हमारी योगसिद्धि गति छीन ली थी। अपने नखों से आपने उस घमंडी को फाड़ डाला है। हम आपके चरणों में विनीतभाव से नमस्कार करते हैं।'

विद्याधरों ने कहा- 'यह मूर्ख हिरण्यकशिपु अपने बल और वीरता के घमंड में चूर था। यहाँ तक कि हम लोगों ने विविध धारणाओं से जो विद्या प्राप्त की थी, उसे इसने व्यर्थ कर दिया था। आपने युद्ध में यज्ञपशु की तरह इसको नष्ट कर दिया। अपनी लीला से नृसिंह बने हुए आपको हम नित्य-निरन्तर प्रणाम करते हैं।'

नागों ने कहा- 'इस पापी ने हमारी मणियों और हमारी श्रेष्ठ और सुन्दर स्त्रियों को छीन लिया था। आज उसकी छाती फाड़कर आपने हमारी पत्नियों को बड़ा आनन्द दिया है। प्रभो! हम आपको नमस्कार करते हैं।'

मनुओं ने कहा- 'देवाधिदेव! हम आपके आज्ञाकारी मनु हैं। इस दैत्य ने हम लोगों की धर्म मर्यादा भंग कर दी थी। आपने उस दुष्ट को मारकर बड़ा उपकार किया है। प्रभो! हम आपके सेवक हैं। आज्ञा कीजिये, हम आपकी क्या सेवा करें?'

प्रजापतियों ने कहा- 'परमेश्वर! आपने हमें प्रजापति बनाया था। परन्तु इसके रोक देने से हम प्रजा की सृष्टि नहीं कर पाते थे। आपने इसकी छाती फाड़ डाली और यह जमीन पर सर्वदा के लिये सो गया। सत्त्वमय मूर्ति धारण करने वाले प्रभो! आपक यह अवतार संसार के कल्याण के लिये है।'

गन्धर्वों ने कहा- 'प्रभो! हम आपके नाचने वाले, अभिनय करने वाले और संगीत सुनाने वाले सेवक हैं। इस दैत्य ने अपने बल, वीर्य और पराक्रम से हमें अपना गुलाम बना रखा था। उसे आपने इस दशा में पहुँचा दिया। सच है, कुमार्ग से चलने वाले का भी क्या कभी कल्याण हो सकता है?'

चारणों ने कहा- 'प्रभो! आपने सज्जनों के हृदय को पीड़ा पहुँचाने वाले इस दुष्ट को समाप्त कर दिया। इसलिये हम आपके उन चरणकमलों की शरण में हैं, जिनके प्राप्त होते ही जन्म-मृत्युरूप संसारचक्र से छुटकारा मिल जाता है।'

यक्षों ने कहा- 'भगवन्! अपने श्रेष्ठ कर्मों के कारण हम लोग आपके सेवकों में प्रधान गिने जाते थे। परन्तु हिरण्यकशिपु ने हमें अपनी पालकी ढोने वाला कहार बना लिया। प्रकृति के नियामक परमात्मा! इसके कारण होने वाले अपने जिनजनों के कष्ट जानकर ही आपने इसे मार डाला है।'

किम्पुरुषों ने कहा- 'हम लोग अत्यन्त तुच्छ किम्पुरुष हैं और आप सर्वशक्तिमान् महापुरुष हैं। जब सत्पुरुषों ने इसका तिरस्कार किया- इसे धिक्कारा, तभी आज आपने इस कुपुरुष- असुराधम को नष्ट कर दिया।'

वैतालिकों ने कहा- 'भगवन्! बड़ी-बड़ी सभाओं और ज्ञानयज्ञों में आपके निर्मल यश का गान करके हम बड़ी प्रतिष्ठा-पूजा प्राप्त करते थे। इस दुष्ट ने हमारी वह आजीविका ही नष्ट कर दी थी। बड़े सौभाग्य की बात है कि महारोग के समान इस दुष्ट को आपन जड़मूल से उखाड़ दिया।'

किन्नरों ने कहा- 'हम किन्नरगण आपके सेवक हैं। यह दैत्य हमसे बेगार में ही काम लेता था। भगवन्! आपने कृपा करके आज इस पापी को नष्ट कर दिया। प्रभो! आप इसी प्रकार हमारा अभ्युदय करते रहें।'

भगवान् के पार्षदों ने कहा- 'शरणागतवत्सल! सम्पूर्ण लोकों को शान्ति प्रदान करने वाला आपका यह अलौकिक नृसिंह रूप हमने आज ही देखा है। भगवन्! यह दैत्य आपका वही आज्ञाकारी सेवक था, जिसे सनकादि ने शाप दे दिया था। हम समझते हैं, आपने कृपा करके इसके उद्धार के लिये ही इसका वध किया है।'

श्रीमद्भागवत महापुराण: सप्तम स्कन्ध: षष्ठ अध्यायः श्लोक 33-44 का हिन्दी अनुवाद

 

(लगातार-सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत पुराण)

श्रीमद्भागवत महापुराण:
सप्तम स्कन्ध: षष्ठ अध्यायः
श्लोक
33-44 का हिन्दी अनुवाद


उनके गरदन के बालों से टकराकर देवताओं के विमान अस्त-व्यस्त हो गये। स्वर्ग डगमगा गया। उनके पैरों की धमक से भूकम्प आ गया, वेग से पर्वत उड़ने लगे और उनके तेज की चकाचौंध से आकाश तथा दिशाओं का दीखना बंद हो गया। इस समय नृसिंह भगवान् का सामना करने वाला कोई दिखायी न पड़ता था। फिर भी उनका क्रोध अभी बढ़ता ही जा रहा था। वे हिरण्यकशिपु की राजसभा में ऊँचें सिंहासन पर जाकर विराज गये। उस समय उनके अत्यन्त तेजपूर्ण और क्रोध भरे भयंकर चेहरे को देखकर किसी का भी साहस न हुआ कि उनके पास जाकर उनकी सेवा करे।

युधिष्ठिर! जब स्वर्ग की देवियों को यह शुभ समाचार मिला कि तीनों लोकों के सिर की पीड़ा मूर्तिमान् स्वरूप हिरण्यकशिपु युद्ध में भगवान् के हाथों मार डाला गया, तब आनन्द के उल्लास से उनके चेहरे खिल उठे। वे बार-बार भगवान् पर पुष्पों की वर्षा करने लगीं। आकाश में विमानों से आये हुए भगवान् के दर्शनार्थी देवताओं की भीड़ लग गयी। देवताओं के ढोल और नगारे बजने लगे। गन्धर्वराज गाने लगे, अप्सराएँ नाचने लगीं। तात! इसी समय ब्रह्मा, इन्द्र, शंकर आदि देवता, ऋषि, पितर, सिद्ध, विद्याधर, महानाग, मनु, प्रजापति, गन्धर्व, अप्सराएँ, चारण, यक्ष, किम्पुरुष, वेताल, सिद्ध, किन्नर और सुनन्द-कुमुद आदि भगवान् के सभी पार्षद उनके पास आये। उन लोगों ने सिर पर अंजलि बाँधकर सिंहासन पर विराजमान अत्यन्त तेजस्वी नृसिंह भगवान् की थोड़ी देर से अलग-अलग स्तुति की।

ब्रह्मा जी ने कहा- 'प्रभो! आप अनन्त हैं। आपकी शक्ति का कोई पार नहीं पा सकता। आपका पराक्रम विचित्र और कर्म पवित्र हैं। यद्यपि गुणों के द्वारा आप लीला से ही सम्पूर्ण विश्व की उत्पत्ति, पालन और प्रलय यथोचित ढंग से करते हैं-फिर भी आप उनसे कोई सम्बन्ध नहीं रखते, स्वयं निर्विकार रहते हैं। मैं आपको नमस्कार करता हूँ।'

श्रीरुद्र ने कहा- 'आपके क्रोध करने का समय तो कल्प के अन्त में होता है। यदि इस तुच्छ दैत्य को मारने के लिये ही आपने क्रोध किया है तो वह भी मारा जा चुका। उसका पुत्र आपकी शरण में आया है। भक्तवत्सल प्रभो! आप अपने इस भक्त की रक्षा कीजिये।'

इन्द्र ने कहा- 'पुरुषोत्तम! आपने हमारी रक्षा की है। आपने हमारे जो यज्ञभाग लौटाये हैं, वे वास्तव में आप (अन्तर्यामी) के ही हैं। दैत्यों के आतंक से संकुचित हमारे हृदयकमल को आपने प्रफुल्लित कर दिया। वह भी आपका ही निवासस्थान है। यह जो स्वर्गादि का राज्य हम लोगों को पुनः प्राप्त हुआ है, यह सब काल का ग्रास है। जो आपके सेवक हैं, उनके लिये यह है कि क्या? स्वामिन्! जिन्हें आपकी सेवा की चाह है, वे मुक्ति का भी आदर नहीं करते। फिर अन्य भोगों की तो उन्हें आवश्यकता ही क्या है।'

ऋषियों ने कहा- 'पुरुषोत्तम! आपने तपस्या के द्वारा ही अपने में लीन हुए जगत् की फिर से रचना की थी और कृपा करके उसी आत्मतेजःस्वरूप श्रेष्ठ तपस्या का उपदेश आपने हमारे लिये भी किया था। इस दैत्य ने उसी तपस्या का उच्छेद कर दिया था। शरणागतवत्सल! उस तपस्या की रक्षा के लिये फिर से उसी उपदेश का अनुमोदन किया है।'

पितर ने कहा- 'प्रभो! हमारे पुत्र हमारे लिये पिण्डदान करते थे, यह उन्हें बलात् छीनकर खा जाया करता था। जब वे पवित्र तीर्थों में या संक्रान्ति आदि के अवसर पर नैमित्तिक तर्पण करते या तिलांजलि देते, तब उसे भी यह पी जाता। आज आपने अपने नखों से उसका पेट फाड़कर वह सब-का-सब लौटाकर मानो हमें दे दिया। आप समस्त धर्मों के एकमात्र रक्षक हैं। नृसिंहदेव! हम अपको नमस्कार करते हैं।'

श्रीमद्भागवत महापुराण: सप्तम स्कन्ध: षष्ठ अध्यायः श्लोक 24-32 का हिन्दी अनुवाद

 

(लगातार-सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत पुराण)

श्रीमद्भागवत महापुराण:
सप्तम स्कन्ध: षष्ठ अध्यायः
श्लोक
24-32 का हिन्दी अनुवाद


इस प्रकार कहता और सिंहनाद करता हुआ दैत्यराज हिरण्यकशिपु हाथ में गदा लेकर नृसिंह भगवान् पर टूट पड़ा। परन्तु जैसे पतिंगा आग में गिरकर अदृश्य हो जाता है, वैसे ही वह दैत्य भगवान् के तेज के भीतर जाकर लापता हो गया। समस्त शक्ति और तेज के आश्रय भगवान् के सम्बन्ध में ऐसी घटना कोई आश्चर्यजनक नहीं है; क्योंकि सृष्टि के प्रारम्भ में उन्होंने अपने तेज से प्रलय के निमित्तभूत तमोगुणरूपी घोर अन्धकार को भी पी लिया था।

तदनन्तर वह दैत्य बड़े क्रोध से लपका और अपनी गदा को बड़े जोर से घुमाकर उसने नृसिंह भगवान् पर प्रहार किया। प्रहार करते समय ही-जैसे गरुड़ साँपों को पकड़ लेते हैं, वैसे ही भगवान् ने गदा सहित उस दैत्य को पकड़ लिया। वे जब उसके साथ खिलवाड़ करने लगे, तब वह दैत्य उनके हाथ से वैसे ही निकल गया, जैसे क्रीड़ा करते हुए गरुड़ के चंगुल से साँप छूट जाये।

युधिष्ठिर! उस समय सब-के-सब लोकपाल बादलों में छिपकर इस युद्ध को देख रहे थे। उनका स्वर्ग तो हिरण्यकशिपु ने पहले ही छीन लिया था। जब उन्होंने देखा कि वह भगवान् के हाथ से छूट गया, तब वे और भी डर गये। हिरण्यकशिपु ने भी यही समझा कि नृसिंह ने मेरे बलवीर्य से डरकर ही मुझे अपने हाथ से छोड़ दिया है। इस विचार से उसकी थकान जाती रही और वह युद्ध के लिये ढाल-तलवार लेकर फिर उनकी ओर दौड़ पड़ा। उस समय वह बाज की तरह बड़े वेग से ऊपर-नीचे उछल-कूदकर इस प्रकार ढाल-तलवार के पैंतरे बदलने लगा कि जिससे उन पर आक्रमण करने का अवसर ही न मिले। तब भगवान् ने बड़े ऊँचे स्वर में प्रचण्ड और भयंकर अट्टहास किया, जिससे हिरण्यकशिपु की आँखें बंद हो गयीं। फिर बड़े वेग से झपटकर भगवान् ने उसे वैसे ही पकड़ लिया, जैसे साँप चूहे को पकड़ लेता है।

जिस हिरण्यकशिपु के चमड़े पर वज्र की चोट से भी खरोंच नहीं आयी थी, वही अब उनके पंजे से निकलने के लिये जोर से छटपटा रहा था। भगवान् ने सभा के दरवाजे पर ले जाकर उसे अपनी जाँघों पर गिरा लिया और खेल-खेल में अपने नखों से उसे उसी प्रकार फाड़ डाला, जैसे गरुड़ महाविषधर साँप को चीर डालते हैं। उस समय उनकी क्रोध से भरी विकराल आँखों की ओर देखा नहीं जाता था। वे अपनी लपलपाती हुई जीभ से फैले हुए मुँह के दोनों कोने चाट रहे थे। खून के छींटों से उनका मुँह और गरदन के बाल लाल हो रहे थे। हाथी को मारकर गले में आँतों की माला पहले हुए मृगराज के समान उनकी शोभा हो रही थी। उन्होंने अपने तीखे नखों से हिरण्यकशिपु का कलेजा फाड़कर उसे जमीन पर पटक दिया। उस समय हजारों दैत्य-दानव हाथों में शस्त्र लेकर भगवान् पर प्रहार करने के लिये आये। पर भगवान् ने अपनी भुजारूपी सेना से, लातों से और नखरूपी शस्त्रों से चारों ओर खदेड़-खदेड़ कर उन्हें मार डाला।

युधिष्ठिर! उस समय भगवान् नृसिंह के गरदन के बालों की फटकार से बादल तितर-बितर होने लगे। उनके नेत्रों की ज्वाला से सूर्य आदि ग्रहों का तेज फीका पड़ गया। उनके श्वास के धक्के से समुद्र क्षुब्ध हो गये। उनके सिंहनाद से भयभीत होकर दिग्गज चिग्घाड़ने लगे।

श्रीमद्भागवत महापुराण: सप्तम स्कन्ध: अष्टम अध्यायः श्लोक 14-23 का हिन्दी अनुवाद

 

(लगातार-सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत पुराण)

श्रीमद्भागवत महापुराण:
सप्तम स्कन्ध: अष्टम अध्यायः
श्लोक
14-23 का हिन्दी अनुवाद


अच्छा, तुझे इस खंभे में भी दिखायी देता है! अरे, तू क्यों इतनी डींग-हाँक रहा है? मैं अभी-अभी तेरा सिर धड़ से अलग किये देता हूँ। देखता हूँ तेरा सर्वस्व हरि, जिस पर तुझे इतना भरोसा है, तेरी कैसे रक्षा करता है।'

इस प्रकर वह अत्यन्त बलवान् महादैत्य भगवान् के परमप्रेमी प्रह्लाद को बार-बार झिड़कियाँ देता और सताता रहा। जब क्रोध के मारे वह अपने को रोक न सका, तब हाथ में खड्ग लेकर सिंहासन से कूद पड़ा और बड़े जोर से उस खंभे को एक घूँसा मारा। उसी समय उस खंभे में एक बड़ा भयंकर शब्द हुआ। ऐसा जान पड़ा मानो यह ब्रह्माण्ड ही फट गया हो। वह ध्वनि जब लोकपालों के लोक में पहुँची, तब उसे सुनकर ब्रह्मादि को ऐसा जान पड़ा, मानो उनके लोकों का प्रलय हो रहा हो। हिरण्यकशिपु प्रह्लाद को मार डालने के लिये बड़े जोर से झपटा था; परन्तु दैत्य सेनापतियों को भी भय से कँपा देने वाले उस अद्भुत और अपूर्व घोर शब्द को सुनकर वह घबराया हुआ-सा देखने लगा कि यह शब्द करने वाला कौन है? परन्तु उसे सभा के भीतर कुछ भी दिखायी न पड़ा।

इसी समय अपने सेवक प्रह्लाद और ब्रह्मा की वाणी सत्य करने और समस्त पदार्थों में अपनी व्यापकता दिखाने के लिये सभा के भीतर उसी खंभे में बड़ा ही विचित्र रूप धारण करके भगवान् प्रकट हुए। वह रूप न तो पूरा-पूरा सिंह का था और न मनुष्य का ही। जिस समय हिरण्यकशिपु शब्द करने वाले की इधर-उधर खोज कर रहा था, उसी समय खंभे के भीतर से निकलते हुए उस अद्भुत प्राणी को उसने देखा। वह सोचने लगा- 'अहो, यह न तो मनुष्य है और न पशु; फिर यह नृसिंह के रूप में कौन-सा अलौकिक जीव है।'

जिस समय हिरण्यकशिपु इस उधेड़-बुन में लगा हुआ था, उसी समय उसके बिलकुल सामने ही नृसिंह भगवान् खड़े हो गये। उनका वह रूप अत्यधिक भयावना था। तपाये हुए सोने के समान पीली-पीली भयानक आँखें थीं। जँभाई लेने से गरदन के बाल इधर-उधर लहरा रहे थे। दाढ़ें बड़ी विकराल थीं। तलवार की तरह लपलपाती हुई छूरे की धार के समान तीखी जीभ थी। टेढ़ी भौंहों से उनका मुख और भी दारुण हो रहा था। कान निश्चल एवं ऊपर की ओर उठे हुए थे। फूली हुई नासिका और खुला हुआ मुँह पहाड़ की गुफा के समान अद्भुत जान पड़ता था। फटे हुए जबड़ों से उसकी भयंकरता बहुत बढ़ गयी थी। विशाल शरीर स्वर्ग का स्पर्श कर रहा था। गरदन कुछ नाटी और मोटी थी। छाती चौड़ी और कमर बहुत पतली थी। चन्द्रमा की किरणों के समान सफ़ेद रोएँ सारे शरीर पर चमक रहे थे, चारों ओर सैकड़ों भुजाएँ फैली हुई थीं, जिनके बड़े-बड़े नख आयुध का काम देते थे। उनके पास फटकने तक का साहस किसी को न होता था। चक्र आदि अपने निज आयुध तथा वज्र आदि अन्य श्रेष्ठ शस्त्रों के द्वारा उन्होंने सारे दैत्य-दानवों को भगा दिया। हिरण्यकशिपु सोचने लगा- 'हो-न-हो महामायावी विष्णु ने ही मुझे मार डालने के लिये यह ढंग रचा है; परन्तु इसकी इन चालों से हो ही क्या सकता है।'

श्रीमद्भागवत महापुराण: सप्तम स्कन्ध: अष्टम अध्यायः श्लोक 1-13 का हिन्दी अनुवाद.

 

(लगातार-सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत पुराण)

श्रीमद्भागवत महापुराण:
सप्तम स्कन्ध: अष्टम अध्यायः
श्लोक 1-13 का हिन्दी अनुवाद.


नृसिंह भगवान् का प्रादुर्भाव, हिरण्यकशिपु का वध एवं
                                        ब्रह्मादि देवताओं द्वारा भगवान् की स्तुति.

नारद जी कहते हैं—प्रह्लाद का प्रवचन सुनकर दैत्य बालकों ने उसी समय से निर्दोष होने के कारण, उनकी बात पकड़ ली। गुरु जी की दूषित शिक्षा की ओर उन्होंने ध्यान ही न दिया।

जब गुरु जी ने देखा कि उन सभी विद्यार्थियों की बुद्धि एकमात्र भगवान् में स्थिर हो रही है, तब वे बहुत घबराये और तुरंत हिरण्यकशिपु के पास जाकर निवेदन किया। अपने पुत्र प्रह्लाद की इस असह्य और अप्रिय अनीति को सुनकर क्रोध के मारे उसका शरीर थर-थर काँपने लगा। अन्त में उसने यही निश्चय किया कि प्रह्लाद को अब अपने ही हाथ से मार डालना चाहिये।

मन और इन्द्रियों को वश में रखने वाले प्रह्लाद जी बड़ी नम्रता से हाथ जोड़कर चुपचाप हिरण्यकशिपु के सामने खड़े थे और तिरस्कार के सर्वथा अयोग्य थे। परन्तु हिरण्यकशिपु स्वभाव से ही क्रूर था। वह पैर की चोट खाये हुए साँप की तरह फुफकारने लगा। उसने उनकी ओर पाप भरी टेढ़ी नजर से देखा और कठोर वाणी से डाँटते हुए कह- ‘मूर्ख! तू बड़ा उदण्ड हो गया है। स्वयं तो नीच है ही, अब हमारे कुल के और बालकों को भी फोड़ना चाहता है। तूने बड़ी ढिठाई से मेरी आज्ञा का उल्लंघन किया है। आज ही तुझे यमराज के घर भेजकर इसका फल चखाता हूँ। मैं तनिक-सा क्रोध करता हूँ तो तीनों लोक और उनके लोकपाल काँप उठते हैं। फिर मूर्ख! तूने किसके बल-बूते पर निडर की तरह मेरी आज्ञा के विरुद्ध काम किया है?'

प्रह्लाद ने कहा- दैत्यराज! ब्रह्मा से लेकर तिनके तक सब छोड़े-बड़े, चर-अचर जीवों को भगवान् ने ही अपने वश में कर रखा है। न केवल मेरे और आपके, बल्कि संसार के समस्त बलवानों के बल भी केवल वही हैं। वे ही महापराक्रमी सर्वशक्तिमान् प्रभु काल हैं तथा समस्त प्राणियों के इन्द्रियबल, मनोबल, देहबल, धैर्य एवं इन्द्रिय भी वही हैं। वह परमेश्वर अपनी शक्तियों के द्वारा इस विश्व की रचना, रक्षा और संहार करते हैं। वे ही तीनों गुणों के स्वामी हैं। आप अपना यह आसुर भाव छोड़ दीजिये। अपने मन को सबके प्रति समान बनाइये। इस संसार में अपने वश में न रहने वाले कुमार्गगामी मन के अतिरिक्त और कोई शत्रु नहीं है। मन में सबके प्रति समता का भाव लाना ही भगवान् की सबसे बड़ी पूजा है। जो लोग अपना सर्वस्व लूटने वाले इन छः इन्द्रियरूपी डाकुओं पर तो पहले विजय नहीं प्राप्त करते और ऐसा मानने लगते हैं कि हमने दासों दिशाएँ जीत लीं, वे मूर्ख हैं। हाँ, जिस ज्ञानी एवं जितेन्द्रिय महात्मा ने समस्त प्राणियों के प्रति समता का भाव प्राप्त कर लिया, उसके अज्ञान से पैदा होने वाले काम-क्रोधादि शत्रु भी मर-मिट जाते हैं; फिर बाहर के शत्रु तो रहें ही कैसे।

हिरण्यकशिपु ने कहा- 'रे मन्दबुद्धि! तेरे बहकने की भी अब हद हो गयी है। यह बात स्पष्ट है कि अब तू मरना चाहता है। क्योंकि जो मरना चाहते हैं, वे ही ऐसी बेसिर-पैर की बातें बका करते हैं। अभागे! तूने मेरे सिवा जो और किसी को जगत् का स्वामी बतलाया है, सो देखूँ तो तेरा वह जगदीश्वर कहाँ है। अच्छा, क्या कहा, वह सर्वत्र है? तो इस खंभे में क्यों नहीं खता?

श्रीमद्भागवत महापुराण: सप्तम स्कन्ध: सप्तम अध्यायः श्लोक 43-55 का हिन्दी अनुवाद

 

(लगातार-सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत पुराण)

श्रीमद्भागवत महापुराण:
सप्तम स्कन्ध: सप्तम अध्यायः
श्लोक
43-55 का हिन्दी अनुवाद


मनुष्य इस लोक में सकाम कर्मों के द्वारा जिस शरीर के लिये भोग प्राप्त करना चाहता है, वह शरीर ही पराया-स्यार-कुत्तों का भोजन और नाशवान् है। कभी वह मिल जाता है तो कभी बिछुड़ जाता है। जब शरीर की ही यह दशा है-तब इससे अलग रहने वाले पुत्र, स्त्री, महल, धन, सम्पत्ति, राज्य, खजाने, हाथी-घोड़े, मन्त्री, नौकर-चाकर, गुरुजन और दूसरे अपने कहलाने वालों की तो बात ही क्या है। ये तुच्छ विषय शरीर के साथ ही नष्ट हो जाते हैं। ये जान तो पड़ते हैं पुरुषार्थ के समान, परन्तु हैं वास्तव में अनर्थरूप ही। आत्मा स्वयं ही अनन्त आनन्द का महान् समुद्र है। उसके लिये इन वस्तुओं की क्या आवश्यकता है?

भाइयों! तनिक विचार तो करो-जो जीव गर्भाधान से लेकर मृत्यु पर्यन्त सभी अवस्थाओं में अपने कर्मों के अधीन होकर क्लेश-ही-क्लेश भोगत है, उसका इस संसार में स्वार्थ ही क्या है। यह जीव सूक्ष्म शरीर को ही अपना आत्मा मानकर उसके द्वारा अनेकों प्रकार के कर्म करता है और कर्मों के कारण ही फिर शरीर ग्रहण करता है। इस प्रकार कर्म से शरीर और शरीर से कर्म की परम्परा चल पड़ती है। और ऐसा होता है अविवेक के कारण। इसलिये निष्कामभाव से निष्क्रिय आत्मस्वरूप भगवान् श्रीहरि का भजन करना चाहिये। अर्थ, धर्म और काम-सब उन्हीं के आश्रित हैं, बिना उनकी इच्छा के नहीं मिल सकते। भगवान् श्रीहरि समस्त प्राणियों के ईश्वर, आत्मा और परम प्रियतम हैं। वे अपने ही बनाये हुए पंचभूत और सूक्ष्मभूत आदि के द्वारा निर्मित शरीरों में जीव के नाम से कहे जाते हैं। देवता, दैत्य, मनुष्य, यक्ष अथवा गन्धर्व- कोई भी क्यों न हो-जो भगवान् के चरणकमलों का सेवन करता है, वह हमारे ही समान कल्याण का भाजन होता है।

दैत्यबालको! भगवान् को प्रसन्न करने के लिये ब्राह्मण, देवता या ऋषि होना, सदाचार और विविध ज्ञानों से सम्पन्न होना तथा दान, तप, यज्ञ, शारीरिक और मानसिक शौच और बड़े-बड़े व्रतों का अनुष्ठान पर्याप्त नहीं है। भगवान् केवल निष्काम प्रेम-भक्ति से ही प्रसन्न होते हैं। और सब तो विडम्बना-मात्र हैं। इसलिये दानव-बन्धुओं! समस्त प्राणियों को अपने समान ही समझकर सर्वत्र विराजमान, सर्वात्मा, सर्वशक्तिमान् भगवान् की भक्ति करो। भगवान् की भक्ति के प्रभाव से दैत्य, यक्ष, राक्षस, स्त्रियाँ, शूद्र, गो पालक अहीर, पक्षी, मृग और बहुत-से पापी जीव भी भगवद्भाव को प्राप्त हो गये हैं। इस संसार में या मनुष्य-शरीर में जीव का सबसे बड़ा स्वार्थ अर्थात् एकमात्र परमार्थ इतना ही है कि वह भगवान् श्रीकृष्ण की अनन्य भक्ति प्राप्त करे। उस भक्ति का स्वरूप है सर्वदा, सर्वत्र जब वस्तुओं में भगवान् का दर्शन।

श्रीमद्भागवत महापुराण: सप्तम स्कन्ध: सप्तम अध्यायः श्लोक 32-42 का हिन्दी अनुवाद

 

(लगातार-सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत पुराण)

श्रीमद्भागवत महापुराण:
सप्तम स्कन्ध: सप्तम अध्यायः
श्लोक
32-42 का हिन्दी अनुवाद


सर्वशक्तिमान् भगवान् श्रीहरि समस्त प्राणियों में विराजमान हैं-ऐसी भावना से यथाशक्ति सभी प्राणियों की इच्छा पूर्ण करे और हृदय से उनका सम्मान करे। काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद और मत्सर-इन छः शत्रुओं पर विजय प्राप्त करके जो लोग इस प्रकार भगवान् की साधन-भक्ति का अनुष्ठान करते हैं, उन्हें उस भक्ति के द्वारा भगवान् श्रीकृष्ण के चरणों में अनन्य प्रेम की प्राप्ति हो जाती है।

जब भगवान् के लीला शरीरों से किये हुए अद्भुत पराक्रम, उनके अनुपम गुण और चरित्रों को श्रवण करके अत्यन्त आनन्द के उद्रेक से मनुष्य का रोम-रोम खिल उठता है, आँसुओं के मारे कण्ठ गद्गद हो जाता है और वह संकोच छोड़कर जोर-जोर से गाने-चिल्लाने और नाचने लगता है; जिस समय वह ग्रहग्रस्त पागल की तरह कभी हँसता है, कभी करुण-क्रन्दन करने लगता है, कभी ध्यान करता है तो कभी भगवद्भाव से लोगों की वन्दना करने लगता है; जब वह भगवान् में ही तन्मय हो जाता है, बार-बार लंबी साँस खींचता है और संकोच छोड़कर ‘हरे! जगत्पते!! नारायण’!! कहकर पुकारने लगता है-तब भक्तियोग के महान् प्रभाव से उसके सारे बन्धन कट जाते हैं और भगवद्भाव की ही भावना करते-करते उसका हृदय भी तदाकार-भगवन्मय हो जाता है। उस समय उसके जन्म-मृत्यु के बीजों का खजाना ही जल जाता है और वह पुरुष श्रीभगवान् को प्राप्त कर लेता है।

इस अशुभ संसार के दलदल में फँसकर अशुभमय हो जाने वाले जीव के लिये भगवान् की यह प्राप्ति संसार के चक्कर को मिटा देने वाली है। इसी वस्तु को कोई विद्वान् ब्रह्म और कोई निर्वाण-सुख के रूप में पहचानते हैं। इसलिये मित्रो! तुम लोग अपने-अपने हृदय में हृदयेश्वर भगवान् का भजन करो।

असुरकुमारो! अपने हृदय में ही आकाश के समान नित्य विराजमान भगवान् का भजन करने में कौन-सा विशेष परिश्रम है। वे समान रूप से समस्त प्राणियों के अत्यन्त प्रेमी मित्र हैं; और तो क्या, अपने आत्मा ही हैं। उनको छोड़कर भोग सामग्री इकट्ठी करने के लिये भटकना-राम! राम! कितनी मूर्खता है। अरे भाई! धन, स्त्री, पशु, पुत्र, पुत्री, महल, पृथ्वी, हाथी, खजाना और भाँति-भाँति की विभूतियाँ-और तो क्या, संसार का समस्त धन तथा भोग सामग्रियाँ इस क्षणभंगुर मनुष्य को क्या सुख दे सकती हैं। वे स्वयं ही क्षणभंगुर हैं। जैसे इस लोक की सम्पत्ति प्रत्यक्ष ही नाशवान् है, वैसे ही यज्ञों से प्राप्त होने वाले स्वर्गादि लोक भी नाशवान् और आपेक्षिक-एक-दूसरे से छोटे-बड़े, नीचे-ऊँचे हैं। इसलिये वे भी निर्दोष नहीं हैं। निर्दोष हैं केवल परमात्मा। न किसी ने उनमें दोष देखा है और न सुना है; अतः परमात्मा की प्राप्ति के लिये अनन्य भक्ति से उन्हीं परमेश्वर का भजन करना चाहिये।

इसके सिवा अपने को बड़ा विद्वान् मानने वाला पुरुष इस लोक में जिस उद्देश्य से बार-बार बहुत-से कर्म करता है, उस उद्देश्य की प्रप्ति तो दूर रही-उलटा उसे उसके विपरीत ही फल मिलता है और निस्सदेह मिलता है। कर्म में प्रवृत्त होने के दो ही उद्देश्य होते हैं-सुख पाना और दुःख से छूटना। परन्तु जो पहले कामना न होने के कारण सुख में निमग्न रहता था, उसे ही अब कामना के कारण यहाँ सदा-सर्वदा दुःख ही भोगना पड़ता है।

श्रीमद्भागवत महापुराण: सप्तम स्कन्ध: सप्तम अध्यायः श्लोक 17-31 का हिन्दी अनुवाद

 

(लगातार-सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत पुराण)

श्रीमद्भागवत महापुराण:
सप्तम स्कन्ध: सप्तम अध्यायः
श्लोक
17-31 का हिन्दी अनुवाद


यदि तुम लोग मेरी इस बात पर श्रद्धा करो तो तुम्हें भी वह ज्ञान हो सकता है। क्योंकि श्रद्धा से स्त्री और बालकों की बुद्धि भी मेरे समान शुद्ध हो सकती है। जैसे ईश्वरमूर्ति काल की प्रेरणा से वृक्षों के फल लगते, ठहरते, बढ़ते, पकते, क्षीण होते और नष्ट हो जाते हैं-वैसे ही जन्म, अस्तित्व की अनुभूति, वृद्धि, परिणाम, क्षय और विनाश-ये छः भाव-विकार शरीर में ही देखे जाते हैं, आत्मा से इनका कोई सम्बन्ध नहीं है। आत्मा नित्य, अविनाशी, शुद्ध, एक, क्षेत्रज्ञ, आश्रय, निर्विकार, स्वयंप्रकाश, सबका कारण, व्यापक, असंग तथा आवरणरहित है। ये बारह आत्मा के उत्कृष्ट लक्षण हैं। इनके द्वारा आत्मतत्त्व को जानने वाले पुरुष को चाहिये कि शरीर आदि में अज्ञान के कारण जो ‘मैं’ और ‘मेरे’ का झूठा भाव हो रहा है, उसे छोड़ दे। जिस प्रकार सुवर्ण की खानों में पत्थर में मिले हुए सुवर्ण को उसके निकालने की विधि जानने वाला स्वर्णकार उन विधियों से उसे प्राप्त कर लेता है, वैसे ही अध्यात्मतत्त्व को जानने वाला पुरुष आत्मप्राप्ति के उपायों द्वारा अपने शरीररूप क्षेत्र में ही ब्रह्मपद का साक्षात्कार कर लेता है।

आचार्यों ने मूल प्रकृति, महत्तत्त्व, अहंकार और पंचतन्मात्राएँ-इन आठ तत्त्वों को प्रकृति बतलाया है। उनके तीन गुण हैं-सत्त्व, रज और तम तथा उनके विकार हैं सोलह-दस इन्द्रियाँ, एक मन और पंचमहाभूत। इन सबमें एक पुरुषतत्त्व अनुगत है। इस सबका समुदाय ही देह है। यह दो प्रकार का है-स्थावर और जंगम। इसी में अन्तःकरण, इन्द्रिय आदि अनात्मवस्तुओं का ‘यह आत्मा नहीं है’-इस प्रकार बाध करते हुए आत्मा को ढूंढना चाहिये। आत्मा सबमें अनुगत है, परन्तु है वह सबसे पृथक्। इस प्रकार शुद्ध बुद्धि से धीरे-धीरे संसार की उत्पत्ति, स्थिति और उसके प्रलय पर विचार करना चाहिये। उतावली नहीं करनी चाहिये। जाग्रत्, स्वप्न और सुषुप्ति-ये तीनों बुद्धि की वृत्तियाँ हैं। इन अतीत, सबका साक्षी परमात्मा है। जैसे गन्ध से उसके आश्रय वायु का ज्ञान होता है, वैसे ही बुद्धि की इन कर्मजन्य एवं बदलने वाली तीनों अवस्थाओं के द्वारा इनमें साक्षीरूप से अनुगत आत्मा को जाने। गुणों और कर्मों के कारण होने वाला जन्म-मृत्यु का यह चक्र आत्मा को शरीर और प्रकृति से पृथक् न करने के कारण ही है। यह अज्ञानमूलक एवं मिथ्या है। फिर भी स्वप्न के समान जीव को इसकी प्रतीति हो रही है।

इसलिये तुम लोगों को सबसे पहले इन गुणों के अनुसार होने वाले कर्मों का बीज ही नष्ट कर देना चाहिये। इससे बुद्धि-वृत्तियों का प्रवाह निवृत्त हो जाता है। इसी को दूसरे शब्दों में योग या परमात्मा से मिलन कहते हैं। यों तो इन त्रिगुणात्मक कर्मों की जड़ उखाड़ फेंकने के लिये अथवा बुद्धि-वृत्तियों का प्रवाह बंद कर देने के लिये सहस्रों साधन हैं; परन्तु जिस उपाय से और जैसे सर्वशक्तिमान् भगवान् में स्वाभाविक निष्काम प्रेम हो जाये, वही उपाय सर्वश्रेष्ठ है। यह बात स्वयं भगवान् ने कही है। गुरु की प्रेमपूर्वक सेवा, अपने को जो कुछ मिले वह सब प्रेम से भगवान् को समर्पित कर देना, भगवत्प्रेमी महात्माओं का सत्संग, भगवान् की आराधना, उनकी कथावार्ता में श्रद्धा, उनके गुण और लीलाओं का कीर्तन, उनके चरणकमलों का ध्यान और उनके मन्दिर, मूर्ति आदि का दर्शन-पूजन आदि साधनों से भगवान् में स्वाभाविक प्रेम हो जाता है।

श्रीमद्भागवत महापुराण: सप्तम स्कन्ध: सप्तम अध्यायः श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद.

 

(लगातार-सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत पुराण)

श्रीमद्भागवत महापुराण:
सप्तम स्कन्ध: सप्तम अध्यायः
श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद.

प्रह्लाद जी द्वारा माता के गर्भ में प्राप्त हुए नारद जी के उपदेश का वर्णन.

नारद जी कहते हैं- युधिष्ठिर! जब दैत्य बालकों ने इस प्रकार प्रश्न किया, तब भगवान् के परमप्रेमी भक्त प्रह्लाद जी को मेरी बात का स्मरण हो आया। कुछ मुसकराते हुए उन्होंने उनसे कहा।

प्रह्लाद जी ने कहा- जब हमारे पिताजी तपस्या करने के लिये मन्दराचल पर चले गये, तब इन्द्रादि देवताओं ने दानवों से युद्ध करने का बहुत बड़ा उद्योग किया। वे इस प्रकार कहने लगे कि जैसे चींटियाँ साँप को चाट जाती हैं, वैसे ही लोगों को सताने वाले पापी हिरण्यकशिपु को उसका पाप ही खा गया। जब दैत्य सेनापतियों को देवताओं की भारी तैयारी का पता चला, तब उनका साहस जाता रहा। वे उनका सामना नहीं कर सके। मार खाकर स्त्री, पुत्र, मित्र, गुरुजन, महल, पशु और साज-सामान की कुछ चिन्ता न करके वे अपने प्राण बचाने के लिये बड़ी जल्दी में सब-के-सब इधर-उधर भाग गये। अपनी जीत चाहने वाले देवताओं ने राजमहल में लूट-खसोट मचा दी। यहाँ तक कि इन्द्र ने राजरानी मेरी माता कयाधु को भी बन्दी बना लिया। मेरी मा भय से घबराकर कुररी पक्षी की भाँति रो रही थी और इन्द्र उसे बलात् लिये जा रहे थे। दैववश देवर्षि नारद उधर आ निकले और उन्होंने मार्ग में मेरी माँ को देख लिया। उन्होंने कहा- ‘देवराज! यह निरपराध है। इसे ले जाना उचित नहीं। महाभाग! इस सती-साध्वी परनारी का तिरस्कार मत करो। इसे छोड़ दो, तुरंत छोड़ दो!'

इन्द्र ने कहा- 'इसके पेट में देवद्रोही हिरण्यकशिपु का अत्यन्त प्रभावशाली वीर्य है। प्रसवपर्यन्त यह मेरे पास रहे, बालक हो जाने पर उसे मारकर मैं इसे छोड़ दूँगा।'

नारद जी ने कहा- ‘इसके गर्भ में भगवान् का साक्षात् परमप्रेमी भक्त और सेवक, अत्यन्त बली और निष्पाप महात्मा है। तुममें उसको मारने की शक्ति नहीं है।’

देवर्षि नारद की यह बात सुनकर उसका सम्मान करते हुए इन्द्र ने मेरी माता को छोड़ दिया और फिर इसके गर्भ में भगवद्भक्त है, इस भाव से उन्होंने मेरी माता की प्रदक्षिणा की तथा अपने लोक में चले गये।

इसके बाद देवर्षि नारद जी मेरी माता को अपने आश्रम पर लिवा ले गये और उसे समझा-बुझाकर कहा कि- ‘बेटी! जब तक तुम्हारा पति तपस्या करके लौटे, तब तक तुम यहीं रहो।’ ‘जो आज्ञा’ कहकर वह निर्भयता से देवर्षि नारद के आश्रम पर ही रहने लगी और तब तक रही, जब तक मेरे पिता घोर तपस्या से लौटकर नहीं आये। मेरी गर्भवती माता मुझ गर्भस्थ शिशु की मंगल कामना से और इच्छित समय पर (अर्थात् मेरे पिता के लौटने के बाद) सन्तान उत्पन्न करने की कामना से बड़े प्रेम तथा भक्ति के साथ नारद जी की सेवा-शुश्रूषा करती रही।

देवर्षि नारद जी बड़े दयालु और सर्वसमर्थ हैं। उन्होंने मेरी माँ को भागवत धर्म का रहस्य और विशुद्ध ज्ञान- दोनों का उपदेश किया। उपदेश करते समय उनकी दृष्टि मुझ पर भी थी। बहुत समय बीत जाने के कारण और स्त्री होने के कारण भी मेरी माता को तो अब उस ज्ञान की स्मृति नहीं रही, परन्तु देवर्षि की विशेष कृपा होने के कारण मुझे उसकी विस्मृति नहीं हुई।

श्रीमद्भागवत महापुराण: सप्तम स्कन्ध: षष्ठ अध्यायः श्लोक 25-30 का हिन्दी अनुवाद

 

(लगातार-सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत पुराण)

श्रीमद्भागवत महापुराण:
सप्तम स्कन्ध: षष्ठ अध्यायः
श्लोक 25-30 का हिन्दी अनुवाद


आदि नारायण अनन्त भगवान् के प्रसन्न हो जाने पर ऐसी कौन-सी वस्तु है, जो नहीं मिल जाती? लोक और परलोक के लिये जिन धर्म, अर्थ आदि की आवश्यकता बतलायी जाती है-वे तो गुणों के परिणाम से बिना प्रयास के स्वयं ही मिलने वाले हैं। जब हम श्रीभगवान् के चरणामृत का सेवन करने और उनके नाम-गुणों का कीर्तन करने में लगे हैं, तब हमें मोक्ष की भी क्या आवश्यकता है। यों शास्त्रों में धर्म, अर्थ और काम- इन तीनों पुरुषार्थों का भी वर्णन है।

आत्मविद्या, कर्मकाण्ड, न्याय (तर्कशास्त्र), दण्डनीति और जीविका के विविध साधन- ये सभी वेदों के प्रतिपाद्य विषय हैं; परन्तु यदि ये अपने परम हितैषी, परम पुरुष भगवान् श्रीहरि को आत्मसमर्पण करने में सहायक हैं, तभी मैं इन्हें सत्य (सार्थक) मानता हूँ। अन्यथा ये सब-के-सब निरर्थक हैं।

यह निर्मल ज्ञान जो मैंने तुम लोगों को बतलाया है, बड़ा ही दुर्लभ है। इसे पहले नर-नारायण ने नारद जी को उपदेश किया था और यह ज्ञान उन सब लोगों को प्राप्त हो सकता है, जिन्होंने भगवान् के अनन्य प्रेमी एवं अकिंचन भक्तों के चरणकमलों की धूलि से अपने शरीर को नहला लिया है। यह विज्ञान सहित ज्ञान विशुद्ध भागवत धर्म है। इसे मैंने भगवान् का दर्शन कराने वाले देवर्षि नारद जी के मुँह से ही पहले-पहल सुना था।

प्रह्लाद जी के सहपाठियों ने पूछा- प्रह्लाद जी! इन दोनों गुरुपुत्रों को छोड़कर और किसी गुरु को तो न तुम जानते हो और न हम। ये ही हम सब बालकों के शासक हैं। तुम एक तो अभी छोटी अवस्था के हो और दूसरे जन्म से ही महल में अपनी माँ के पास रहे हो। तुम्हारा महात्मा नारद जी से मिलना कुछ असंगत-सा जान पड़ता है। प्रियवर! यदि इस विषय में विश्वास दिलाने वाली कोई बात हो तो तुम उसे कहकर हमारी शंका मिटा दो।

श्रीमद्भागवत महापुराण: सप्तम स्कन्ध: षष्ठ अध्यायः श्लोक 13-24 का हिन्दी अनुवाद

 

(लगातार-सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत पुराण)

श्रीमद्भागवत महापुराण:
सप्तम स्कन्ध: षष्ठ अध्यायः
श्लोक 13-24 का हिन्दी अनुवाद


जो जननेन्द्रिय और रसनेन्द्रिय के सुखों को ही सर्वस्व मान बैठा है, जिसकी भोगवासनाएँ कभी तृप्त नहीं होतीं, जो लोभवश कर्म-पर-कर्म करता हुआ रेशम के कीड़े की तरह अपने को और भी कड़े बन्धन में जकड़ता जा रहा है और जिसके मोह की कोई सीमा नहीं है- वह उनसे किस प्रकार विरक्त हो सकता है और कैसे उनका त्याग कर सकता है। यह मेरा कुटुम्ब है, इस भाव से उसमें वह इतना रम जाता है कि उसी के पालन-पोषण के लिये अपनी अमूल्य आयु को गवाँ देता है और उसे यह भी नहीं जान पड़ता कि मेरे जीवन का वास्तविक उद्देश्य नष्ट हो रहा है। भला, इस प्रमाद की भी कोई सीमा है। यदि इन कामों में कुछ सुख मिले तो भी एक बात है; परन्तु यहाँ तो जहाँ-जहाँ वह जाता है, वहीं-वहीं दैहिक, दैविक और भौतिक ताप उसके हृदय को जलाते ही रहते हैं। फिर भी वैराग्य का उदय नहीं होता। कितनी विडम्बना है। कुटुम्ब की ममता के फेर में पड़कर वह इतना असावधान हो जाता है, उसका मन धन के चिन्तन में सदा इतना लवलीन रहता है कि वह दूसरे का धन चुराने के लौकिक-पारलौकिक दोषों को जानता हुआ भी कामनाओं को वश में न कर सकने के कारण इन्द्रियों के भोग की लालसा से चोरी कर ही बैठता है।

भाइयों! जो इस प्रकार अपने कुटुम्बियों के पेट पालने में ही लगा रहता है- कभी भगवद्भजन नहीं करता- वह विद्वान् हो, तो भी उसे परमात्मा की प्राप्ति नहीं हो सकती। क्योंकि अपने-पराये का भेद-भाव रहने के कारण उसे भी अज्ञानियों के समान ही तमःप्रधान गति प्राप्त होती है। जो कामिनियों के मनोरंजन का सामान- उनका क्रीड़ामृग बन रहा है और जिसने अपने पैरों में सन्तान की बेड़ी जकड़ ली है, वह बेचारा गरीब-चाहे कोई भी हो, कहीं भी हो- किसी भी प्रकार से अपना उद्धार नहीं कर सकता। इसलिये भाइयों! तुम लोग विषयासक्त दैत्यों का संग दूर से ही छोड़ दो और आदिदेव भगवान् नारायण की शरण ग्रहण करो। क्योंकि जिन्होंने संसार की आसक्ति छोड़ दी है, उन महात्माओं के वे ही परम प्रियतम और परम गति हैं।

मित्रो! भगवान् को प्रसन्न करने के लिये कोई बहुत परिश्रम या प्रयत्न नहीं करना पड़ता। क्योंकि वे समस्त प्राणियों के आत्मा हैं और सर्वत्र सबकी सत्ता के रूप में स्वयं सिद्ध वस्तु हैं। ब्रह्मा से लेकर तिनके तक छोड़े-बड़े समस्त प्राणियों में, पंचभूतों से बनी हुई वस्तुओं में, पंचभूतों में, सूक्ष्म तन्मात्राओं में, महत्तत्त्व में, तीनों गुणों में और गुणों की साम्यावस्था प्रकृति में एक ही अविनाशी परमात्मा विराजमान हैं। वे ही समस्त सौन्दर्य, माधुर्य और ऐश्वर्यों की खान हैं। वे ही अन्तर्यामी द्रष्टा के रूप में हैं और वे ही दृश्य जगत् के रूप में भी हैं। सर्वथा अनिर्वचनीय तथा विकल्परहित होने पर द्रष्टा और दृश्य, व्याप्य और व्यापक के रूप में उनका निर्वचन किया जाता है। वस्तुतः उनमें एक भी विकल्प नहीं है। वे केवल अनुभवस्वरूप, आनन्दस्वरूप एकमात्र परमेश्वर ही हैं। गुणमयी सृष्टि करने वाली माया के द्वारा ही उनका ऐश्वर्य छिप रहा है। इसके निवृत्त होते ही उनके दर्शन हो जाते हैं। इसलिये तुम लोग अपने दैत्यपने का, आसुरी सम्पत्ति का त्याग करके समस्त प्राणियों पर दया करो। प्रेम से उनकी भलाई करो। इसी से भगवान् प्रसन्न होते हैं।

श्रीमद्भागवत महापुराण: सप्तम स्कन्ध: षष्ठ अध्यायः श्लोक 1-12 का हिन्दी अनुवाद

 (लगातार-सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत पुराण)

श्रीमद्भागवत महापुराण:
सप्तम स्कन्ध: षष्ठ अध्यायः
श्लोक 1-12 का हिन्दी अनुवाद


प्रह्लाद जी का असुर-बालकों को उपदेश.

 प्रह्लाद जी ने कहा- मित्रो! इस संसार में मनुष्य-जन्म बड़ा दुर्लभ है। इसके द्वारा अविनाशी परमात्मा की प्राप्ति हो सकती है। परन्तु पता नहीं कब इसका अन्त हो जाये; इसलिये बुद्धिमान् पुरुष को बुढ़ापे या जवानी के भरोसे न रहकर बचपन में ही भगवान् की प्राप्ति कराने वाले साधनों का अनुष्ठान कर लेना चाहिये। इस मनुष्य-जन्म में श्रीभगवान् के चरणों की शरण लेना ही जीवन की एकमात्र सफलता है। क्योंकि भगवान् समस्त प्राणियों के स्वामी, सुहृद्, प्रियतम और आत्मा हैं। भाइयों! इन्द्रियों से जो सुख भोगा जाता है, वह तो- जीव चाहे जिस योनि में रहे- प्रारब्ध के अनुसार सर्वत्र वैसे ही मिलता रहता है, जैसे बिना किसी प्रकार का प्रयत्न किये, निवारण करने पर भी दुःख मिलता है। इसलिये सांसारिक सुख के उद्देश्य से प्रयत्न करने की कोई आवश्यकता नहीं है। क्योंकि स्वयं मिलने वाली वस्तु के लिये परिश्रम करना आयु और शक्ति को व्यर्थ गँवाना है। जो इनमें उलझ जाते हैं, उन्हें भगवान् के परम कल्याणस्वरूप चरणकमलों की प्राप्ति नहीं होती। हमारे सिर पर अनेकों प्रकार के भय सवार रहते हैं। इसलिये यह शरीर-जो भगवत्प्राप्ति के लिये पर्याप्त है-जब तक रोग-शोकादि ग्रस्त होकर मृत्यु के मुख में नहीं चला जाता, तभी तक बुद्धिमान् पुरुष को अपने कल्याण के लिये प्रयत्न कर लेना चाहिये। मनुष्य की पूरी आयु सौ वर्ष की है। जिन्होंने अपनी इन्द्रियों को वश में नहीं कर लिया है, उनकी आयु का आधा हिस्सा तो यों ही बीत जाता है। क्योंकि वे रात में घोर तमोगुण-अज्ञान से ग्रस्त होकर सोते रहते हैं। बचपन में उन्हें अपने हित-अहित का ज्ञान नहीं रहता, कुछ बड़े होने पर कुमार अवस्था में वे खेल-कूद में लग जाते हैं। इस प्रकार बीस वर्ष का तो पता ही नहीं चलता। जब बुढ़ापा शरीर को ग्रस लेता है, तब अन्त के बीस वर्षों में कुछ करने-धरने की शक्ति ही नहीं रह जाती। रह गयी बीच की कुछ थोड़ी-सी आयु। उसमें कभी न पूरी होने वाली बड़ी-बड़ी कामनाएँ हैं, बलात् पकड़ रखने वाला मोह है और घर-द्वार की वह आसक्ति है, जिससे जीव इतना उलझ जाता है कि उसे कुछ कर्तव्य-अकर्तव्य का ज्ञान ही नहीं रहता। इस प्रकार बची-खुची आयु भी हाथ से निकल जाती है। दैत्य बालकों! जिसकी इन्द्रियाँ वश में नहीं हैं, ऐसा कौन-सा पुरुष होगा, जो घर-गृहस्थी में आसक्त और माया-ममता की मजबूत फाँसी में फँसे हुए अपने-आपको उससे छुड़ाने का साहस कर सके। जिसे चोर, सेवक एवं व्यापारी अपने अत्यन्त प्यारे प्राणों की भी बाजी लगाकर संग्रह करते हैं और इसलिये उन्हें जो प्राणों से भी अधिक वांछनीय है-उस धन की तृष्णा को भला कौन त्याग सकता है। जो अपनी प्रियतमा पत्नी के एकान्त सहवास, उसकी प्रेम भरी बातों और मीठी-मीठी सलाह पर अपने को निछावर कर चुका है, भाई-बन्धु और मित्रों के स्नेह-पाश में बँध चुका है और नन्हें-नन्हें शिशुओं की तोतली बोली पर लुभा चुका है- भला, वह उन्हें कैसे छोड़ सकता है। जो अपनी ससुराल गयी हुई प्रिय पुत्रियों, पुत्रों, भाई-बहिनों और दीन अवस्था को प्राप्त पिता-माता, बहुत-सी सुन्दर-सुन्दर बहुमूल्य सामग्रियों से सजे हुए घरों, कुलपरम्परागत जीविका के साधनों तथा पशुओं और सेवकों के निरन्तर स्मरण में रम गया है, वह भला-उन्हें कैसे छोड़ सकता है।

श्रीमद्भागवत महापुराण: सप्तम स्कन्ध: पंचम अध्यायः श्लोक 42-57 का हिन्दी अनुवाद

 

(लगातार-सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत पुराण)

श्रीमद्भागवत महापुराण:
सप्तम स्कन्ध: पंचम अध्यायः
श्लोक 42-57 का हिन्दी अनुवाद


युधिष्ठिर! जब शूलों की मार से प्रह्लाद के शरीर पर कोई असर नहीं हुआ, तब हिरण्यकशिपु को बड़ी शंका हुई। अब वह प्रह्लाद को मार डालने के लिये बड़े हठ से भाँति-भाँति के उपाय करने लगा। उसने उन्हें बड़े-बड़े मतवाले हाथियों से कुचलवाया, विषधर साँपों से डंसवाया, पुरोहितों से कृत्या राक्षसी उत्पन्न करायी, पहाड़ की चोटी से नीचे डलवा दिया, शम्बरासुर से अनेकों प्रकार की माया का प्रयोग करवाया, अँधेरी कोठरियों में बंद करा दिया, विष पिलाया और खाना बंद कर दिया। बर्फीली जगह, दहकती हुई आग और समुद्र में बारी-बार से डलवाया, आँधी में छोड़ दिया तथा पर्वतों के नीचे दबवा दिया; परन्तु इनमें से किसी भी उपाय से वह अपने पुत्र निष्पाप प्रह्लाद का बाल भी बाँका न कर सका। अपनी विवशता देखकर हिरण्यकशिपु को बड़ी चिन्ता हुई। उसे प्रह्लाद को मारने के लिये और कोई उपाय नहीं सूझ पड़ा। वह सोचने लगा- ‘इसे मैंने बहुत कुछ बुरा-भला कहा, मार डालने के बहुत-से उपाय किये। परन्तु यह मेरे द्रोह और दुर्व्यवहारों से बिना किसी की सहायता से अपने प्रभाव से ही बचता गया। यह बालक होने पर भी समझदार है और मेरे पास ही निःशंक भाव से रहता है। हो-न-हो इसमें कुछ सामर्थ्य अवश्य है। जैसे शुनः-शेप अपने पिता की करतूतों से उसका विरोधी हो गया था, वैसे ही यह भी मेरे किये अपकारों को न भूलेगा। न तो यह किसी से डरता है और न इसकी मृत्यु ही होती है। इसकी शक्ति की थाह नहीं है। अवश्य ही इसके विरोध से मेरी मृत्यु होगी। सम्भव है, न भी हो’।

इस प्रकार सोच-विचार करते-करते उसका चेहरा कुछ उतर गया। शुक्राचार्य के पुत्र शण्ड और अमर्क ने जब देखा कि हिरण्यकशिपु तो मुँह लटकाकर बैठा हुआ है, तब उन्होंने एकान्त में जाकर उससे यह बात कही- ‘स्वामी! आपने अकेले ही तीनों लोकों पर विजय प्राप्त कर ली। आपके भौंहें टेढ़ी करने पर ही लोकपाल काँप उठते हैं। हमारे देखने में तो आपके लिये चिन्ता की कोई बात नहीं है। भला, बच्चों के खिलवाड़ में भी भलाई-बुराई सोचने की कोई बात है। जब तक हमारे पिता शुक्राचार्य जी नहीं आ जाते, तब तक यह डरकर कहीं भाग न जाये। इसलिये उसे वरुण पाशों से बाँध रखिये। प्रायः ऐसा होता है कि अवस्था की वृद्धि के साथ-साथ और गुरुजनों की सेवा से बुद्धि सुधर जाया करती है’।

हिरण्यकशिपु ने ‘अच्छा, ठीक है’ कहकर गुरुपुत्रों की सलाह मान ली और कहा कि ‘इसे उन धर्मों का उपदेश करना चाहिये, जिनका पालन गृहस्थ नरपति किया करते हैं’।

युधिष्ठिर! इसके बाद पुरोहित उन्हें लेकर पाठशाला में गये और क्रमशः धर्म, अर्थ और काम- इन तीन पुरुषार्थों की शिक्षा देने लगे। प्रह्लाद वहाँ अत्यन्त नम्र सेवक की भाँति रहते थे। परन्तु गुरुओं की वह शिक्षा प्रह्लाद को अच्छी न लगी। क्योंकि गुरु जी उन्हें केवल अर्थ, धर्म और काम की ही शिक्षा देते थे। यह शिक्षा केवल उन लोगों के लिये है, जो राग-द्वेष आदि द्वन्द और विषय भोगों में रस ले रहे हों।

एक दिन गुरु जी गृहस्थी के काम से कहीं बाहर चले गये थे। छुट्टी मिल जाने के कारण समवयस्क बालकों ने प्रह्लाद जी को खेलने के लिये पुकारा। प्रह्लाद जी परम ज्ञानी थे, उनका प्रेम देखकर उन्होंने उन बालकों को ही बड़ी मधुर वाणी से पुकारकर अपने पास बुला लिया। उनसे उनके जन्म-मरण की गति भी छिपी नहीं थी। उन पर कृपा करके हँसते हुए-से उन्हें उपदेश करने लगे। युधिष्ठिर! वे सब अभी बालक ही थे, इसलिये राग-द्वेषपरायण विषय भोगी पुरुषों के उपदेशों से और चेष्टाओं से उनकी बुद्धि अभी दूषित नहीं हुई थी। इसी से, और प्रह्लाद के प्रति आदर-बुद्धि होने से उन सबने अपनी खेल-कूद सामग्रियों को छोड़ दिया तथा प्रह्लाद जी के पास जाकर उनके चारों ओर बैठ गये और उनके उपदेश में मन लगाकर बड़े प्रेम से एकटक उनकी ओर देखने लगे। भगवान् के परमप्रेमी भक्त प्रह्लाद का हृदय उनके प्रति करुणा और मैत्री के भाव से भर गया तथा वे उनसे कहने लगे।
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टिप्पणी ...
शुनःशेप अजीगर्त का मँझला पुत्र था। उसे पिता ने वरुण के यज्ञ में बलि देने के लिये हरिश्चन्द्र के पुत्र रोहिताश्व के हाथ बेच दिया था। तब उसके मामा विश्वामित्र जी ने उसकी रक्षा की; और वह अपने पिता के विरुद्ध होकर उनके विपक्षी विश्वामित्र जी के ही गोत्र में हो गया। यह कथा आगे ‘नवम स्कन्ध’ के सातवें अध्याय में आवेगी।

श्रीमद्भागवत महापुराण: सप्तम स्कन्ध: पंचम अध्यायः श्लोक 30-41 का हिन्दी अनुवाद

 

(लगातार-सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत पुराण)

श्रीमद्भागवत महापुराण:
सप्तम स्कन्ध: पंचम अध्यायः
श्लोक 30-41 का हिन्दी अनुवाद


प्रह्लाद ने कहा- पिताजी! संसार के लोग तो पिसे हुए को पीस रहे हैं, चबाये हुए को चबा रहे हैं। उनकी इन्द्रियाँ वश में न होने के कारण वे भोगे हुए विषयों को ही फिर-फिर भोगने के लिये संसाररूप नरक की ओर जा रहे हैं। ऐसे गृहासक्त पुरुषों की बुद्धि अपने-आप किसी के सिखाने से अथवा अपने ही जैसे लोगों के संग से भगवान् श्रीकृष्ण में नहीं लगती। जो इन्द्रियों से दीखने वाले बाह्य विषयों को परम इष्ट समझकर मूर्खतावश अन्धों के पीछे अन्धों की तरह गड्ढ़े में गिरने के लिये चले जा रहे हैं और वेदवाणीरूप रस्सी के-काम्यकर्मों के दीर्घ बन्धन में बँधे हुए हैं, उनको यह बात मालूम नहीं कि हमारे स्वार्थ और परमार्थ भगवान् विष्णु ही हैं-उन्हीं की प्राप्ति से हमें सब पुरुषार्थों की प्राप्ति हो सकती है। जिनकी बुद्धि भगवान् के चरणकमलों का स्पर्श कर लेती है, उनके जन्म-मृत्युरूप अनर्थ का सर्वथा नाश हो जाता है। परन्तु जो लोग अकिंचन भगवत्प्रेमी महात्माओं के चरणों की धूल में स्नान नहीं कर लेते, उनकी बुद्धि काम्यकर्मों का पूरा सेवन करने पर भी भगवच्चरणों का स्पर्श नहीं कर सकती।

प्रह्लाद जी इतना कहकर चुप हो गये। हिरण्यकशिपु ने क्रोध के मारे अन्धा होकर उन्हें अपनी गोद से उठाकर भूमि पर पटक दिया। प्रह्लाद की बात को वह सह न सका। रोष के मारे उसके नेत्र लाल हो गये। वह कहने लगा- ‘दैत्यों! इसे यहाँ से बाहर ले जाओ और तुरंत मार डालो। यह मार ही डालने योग्य है। देखो तो सही- जिसने इसके चाचा को मार डाला, अपने सुहृद्-स्वजनों को छोड़कर यह नीच दास के समान उसी विष्णु के चरणों की पूजा करता है। हो-न-हो, इसके रूप में मेरे भाई को मारने वाला विष्णु ही आ गया है। अब यह विश्वास के योग्य नहीं है। पाँच बरस की अवस्था में ही जिसने अपने माता-पिता के दुस्त्यज वात्सल्य स्नेह को भुला दिया- वह कृतघ्न भला विष्णु का ही क्या हित करेगा। कोई दूसरा भी यदि औषध के समान भलाई करे तो वह एक प्रकार से पुत्र ही है। पर यदि अपना पुत्र भी अहित करने लगे तो रोग के समान वह शत्रु है। अपने शरीर के ही किसी अंग से सारे शरीर को हानि होती हो तो उसको काट डालना चाहिये। क्योंकि उसे काट देने से शेष शरीर सुख से जी सकता है। यह स्वजन का बाना पहनकर मेरा कोई शत्रु ही आया है। जैसे योगी की भोग लोलुप इन्द्रियाँ उसका अनिष्ट करती हैं, वैसे ही यह मेरा अहित करने वाला है। इसलिये खाने, सोने, बैठने आदि के समय किसी भी उपाय से इसे मार डालो’।

जब हिरण्यकशिपु ने दैत्यों को इस प्रकार आज्ञा दी, तब तीखी दाढ़, विकराल वदन, लाल-लाल दाढ़ी-मूँछ एवं केशों वाले दैत्य हाथों में त्रिशूल ले-लेकर ‘मारो, काटो’- इस प्रकार बड़े जोर से चिल्लाने लगे। प्रह्लाद चुपचाप बैठे हुए थे और दैत्य उनके सभी मर्मस्थानों में शूल से घाव कर रहे थे। उस समय प्रह्लाद जी का चित्त उन परमात्मा में लगा हुआ था, जो मन-वाणी के अगोचर, सर्वात्मा, समस्त शक्तियों के आधार एवं परब्रह्म हैं। इसलिये उनके सारे प्रहार ठीक वैसे ही निष्फल हो गये, जैसे भाग्यहीनों के बड़े-बड़े उद्योग-धंधे व्यर्थ होते हैं।

श्रीमद्भागवत महापुराण: सप्तम स्कन्ध: पंचम अध्यायः श्लोक 15-29 का हिन्दी अनुवाद

 

(लगातार-सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत पुराण)

श्रीमद्भागवत महापुराण:
सप्तम स्कन्ध: पंचम अध्यायः
श्लोक 15-29 का हिन्दी अनुवाद


नारद जी कहते हैं- परमज्ञानी प्रह्लाद अपन गुरु जी से इतना कहकर चुप हो गये। पुरोहित बेचारे राजा के सेवक एवं पराधीन थे। वे डर गये। उन्होंने क्रोध से प्रह्लाद को झिड़क दिया और कहा- ‘अरे, कोई मेरा बेंत तो लाओ। यह हमारी कीर्ति में कलंक लगा रहा है। इस दुर्बुद्धि कुलांगार को ठीक करने के लिये चौथा उपाय दण्ड ही उपयुक्त होगा। दैत्यवंश के चन्दनवन में यह काँटेदार बबूल कहाँ से पैदा हुआ? जो विष्णु इस वन की जड़ काटने में कुल्हाड़े का काम करते हैं, यह नादान बालक उन्हीं की बेंट बन रहा है; सहायक हो रहा है। इस प्रकार गुरु जी ने तरह-तरह से डाँट-डपटकर प्रह्लाद को धमकाया और अर्थ, धर्म एवं काम सम्बन्धी शिक्षा दी।

कुछ समय के बाद जब गुरु जी ने देखा कि प्रह्लाद ने साम, दान, भेद और दण्ड के सम्बन्ध की सारी बातें जान ली हैं, तब वे उन्हें उनकी मा के पास ले गये। माता ने बड़े लाड़-प्यार से उन्हें नहला-धुलाकर अच्छी तरह गहने कपड़ों से सजा दिया। इसके बाद वे उन्हें हिरण्यकशिपु के पास ले गये। प्रह्लाद अपने पिता में चरणों में लोट गये। हिरण्यकशिपु ने उन्हें आशीर्वाद दिया और दोनों हाथों से उठाकर बहुत देर तक गले से लगाये रखा। उस समय दैत्यराज का हृदय आनन्द से भर रहा था।

युधिष्ठिर! हिरण्यकशिपु ने प्रसन्नमुख प्रह्लाद को अपनी गोद में बैठाकर उनका सिर सूँघा। उनके नेत्रों से प्रेम के आँसूं गिर-गिरकर प्रह्लाद के शरीर को भिगोने लगे। उसने अपने पुत्र से पूछा।

हिरण्यकशिपु ने कहा- चिरंजीव बेटा प्रह्लाद! इतने दिनों में तुमने गुरु जी से जो शिक्षा प्राप्त की है, उसमें से कोई अच्छी-सी बात हमें सुनाओ।

प्रह्लाद जी ने कहा- "पिताजी! विष्णु भगवान् की भक्ति के नौ भेद हैं- भगवान् के गुण-लीला-नाम आदि का श्रवण, उन्हीं का कीर्तन, उनके रूप-नाम आदि का स्मरण, उनके चरणों की सेवा, पूजा-अर्चा, वन्दन, दास्य, सख्य और आत्मनिवेदन। यदि भगवान् के प्रति समर्पण के भाव से यह नौ प्रकार की भक्ति की जाये, तो मैं उसी को उत्तम अध्ययन समझता हूँ।"

प्रह्लाद की यह बात सुनते ही क्रोध के मारे हिरण्यकशिपु के ओठ फड़कने लगे। उसने गुरुपुत्र से कहा- 'रे नीच ब्राह्मण! यह तेरी कैसी करतूत है; दुर्बुद्धि! तूने मेरी कुछ भी परवाह न करके इस बच्चे को कैसी निस्सार शिक्षा दे दी? अवश्य ही तू हमारे शत्रुओं के आश्रित है। संसार में ऐसे दुष्टों की कमी नहीं है, जो मित्र का बाना धारण कर छिपे-छिपे शत्रु का काम करते हैं। परन्तु उनकी कलई ठीक वैसे ही खुल जाती है, जैसे छिपकर पाप करने वालों का पाप समय पर रोग के रूप में प्रकट होकर उनकी पोल खोल देता है।'

गुरुपुत्र ने कहा- 'इन्द्रशत्रो! आपका पुत्र जो कुछ कह रहा है, वह मेरे या और किसी के बहकाने से नहीं कह रहा है। राजन्! यह तो इसकी जन्मजात स्वाभाविक बुद्धि है। आप क्रोध शान्त कीजिये। व्यर्थ में हमें दोष न लगाइये।'

नारद जी कहते हैं- युधिष्ठिर! जब गुरु जी ने ऐसा उत्तर दिया, तब हिरण्यकशिपु ने फिर प्रह्लाद से पूछा- ‘क्यों रे! यदि तुझे ऐसी अहित करने वाली खोटी बुद्धि गुरुमुख से नहीं मिली तो बता, कहाँ से प्राप्त हुई?

श्रीमद्भागवत महापुराण: सप्तम स्कन्ध: पंचम अध्यायः श्लोक 1-14 का हिन्दी अनुवाद

 

(लगातार-सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत पुराण)

श्रीमद्भागवत महापुराण:
सप्तम स्कन्ध: पंचम अध्यायः
श्लोक 1-14 का हिन्दी अनुवाद

हिरण्यकशिपु के द्वारा प्रह्लाद के वध का प्रयत्न.

 नारद जी कहते हैं- युधिष्ठिर! दैत्यों ने भगवान् श्रीशुक्राचार्य जी को अपना पुरोहित बनाया था। उनके दो पुत्र थे- शण्ड और अमर्क। वे दोनों राजमहल के पास ही रहकर हिरण्यकशिपु के द्वारा भेजे हुए नीति निपुण बालक प्रह्लाद को और दूसरे पढ़ाने योग्य दैत्य-बालकों को राजनीति, अर्थनीति आदि पढ़ाया करते थे। प्रह्लाद गुरु जी का पढ़ाया हुआ पाठ सुन लेते थे और उसे ज्यों-का-त्यों उन्हें सुना भी दिया करते थे। किन्तु वे उसे मन से अच्छा नहीं समझते थे। क्योंकि उस पाठ का मूल आधार था अपने और पराये का झूठा आग्रह।

युधिष्ठिर! एक दिन हिरण्यकशिपु ने अपने पुत्र प्रह्लाद को बड़े प्रेम से गोद में लेकर पूछा- ‘बेटा! बताओ तो सही, तुम्हें कौन-सी बात अच्छी लगती है?'

प्रह्लाद जी ने कहा- "पिताजी! संसार के प्राणी ‘मैं’ और ‘मेरे’ के झूठे आग्रह में पड़कर सदा ही अत्यन्त उद्विग्न रहते हैं। ऐसे प्राणियों के लिये मैं यही ठीक समझता हूँ कि वे अपने अधःपतन के मूल कारण, घास से ढके हुए अँधेरे कुएँ के समान इस घर को छोड़कर वन में चले जायँ और भगवान् श्रीहरि की शरण ग्रहण करें।"

नारद जी कहते हैं- प्रह्लाद जी के मुँह से शत्रुपक्ष की प्रशंसा से भरी बात सुनकर हिरण्यकशिपु ठठाकर हँस पड़ा। उसने कहा- ‘दूसरों के बहकाने से बच्चों की बुद्धि यों ही बिगड़ जाया करती है। जान पड़ता है गुरु जी एक घर पर विष्णु के पक्षपाती कुछ ब्राह्मण वेष बदलकर रहते हैं। बालक की भलीभाँति देख-रेख की जाये, जिससे अब इसकी बुद्धि बहकने ने पाये।'

जब दैत्यों ने प्रह्लाद को गुरु जी के घर पहुँचा दिया, तब पुरोहितों ने उनको बहुत पुचकारकर और फुसलाकर बड़ी वाणी से पूछा- 'बेटा प्रह्लाद! तुम्हारा कल्याण हो। ठीक-ठीक बतलाना। देखो, झूठ न बोलना। यह तुम्हारी बुद्धि उलटी कैसे हो गयी? और किसी बालक की बुद्धि तो ऐसी नहीं हुई। कुलनन्दन प्रह्लाद! बताओ तो बेटा! हम तुम्हारे गुरुजन यह जानना चाहते हैं कि तुम्हारी बुद्धि स्वयं ऐसी हो गयी या किसी ने सचमुच तुमको बहका दिया है?'

प्रह्लाद ने कहा- "जिन मनुष्यों की बुद्धि मोह से ग्रस्त हो रही है, उन्हीं को भगवान् की माया से यह झूठा दुराग्रह होता देखा गया है कि यह ‘अपना’ है और यह ‘पराया’। उन मायापति भगवान् को मैं नमस्कार करता हूँ। वे भगवान् ही जब कृपा करते हैं, तब मनुष्यों की पाशविक बुद्धि नष्ट होती है। इस पशु बुद्धि के कारण ही तो ‘यह मैं हूँ और यह मुझसे भिन्न है’ इस प्रकार का झूठा भेदभाव पैदा होता है। वही परमात्मा यह आत्मा है। अज्ञानी लोग अपने और पराये का भेद करके उसी का वर्णन किया करते हैं। उनका न जानना भी ठीक ही है; क्योंकि उसके तत्त्व को जानना बहुत कठिन है और ब्रह्मा आदि बड़े-बड़े वेदज्ञ भी उसके विषय में मोहित हो जाते हैं। वही परमात्मा आप लोगों के शब्दों में मेरी बुद्धि ‘बिगाड़’ रहा है। गुरुजी! जैसे चुम्बक के पास लोहा स्वयं खिंच आता है, वैसे ही चक्रपाणि भगवान् की स्वच्छन्द इच्छाशक्ति से मेरा चित्त भी संसार से अलग होकर उनकी ओर बरबस खिंच जाता है।

श्रीमद्भागवत महापुराण: सप्तम स्कन्ध: चतुर्थ अध्यायः श्लोक 33-46 का हिन्दी अनुवाद

 

(लगातार-सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत पुराण)

श्रीमद्भागवत महापुराण:
सप्तम स्कन्ध: चतुर्थ अध्यायः
श्लोक 33-46 का हिन्दी अनुवाद


बड़े-बड़े दुःखों में भी वे तनिक भी घबराते न थे। लोक-परलोक के विषयों को उन्होंने देखा-सुना तो बहुत था, परन्तु वे उन्हें निःसार और असत्य समझते थे। इसलिये उनके मन में किसी भी वस्तु की लालसा न थी। इन्द्रिय, प्राण, शरीर और मन उनके वश में थे। उनके चित्त में कभी किसी पाकर की कामना नहीं उठती थी। जन्म से असुर होने पर भी उनमें आसुरी सम्पत्ति का लेश भी नहीं था। जैसे भगवन के गुण अनन्त हैं, वैसे ही प्रह्लाद के श्रेष्ठ गुणों की भी कोई सीमा नहीं है। महात्मा लोग सदा से उनका वर्णन करते और उन्हें अपनाते आये हैं। तथापि वे आज भी ज्यों-के-त्यों बने हुए हैं।

युधिष्ठिर! यों तो देवता उनके शत्रु हैं; परन्तु फिर भी भक्तों का चरित्र सुनने के लिये जब उन लोगों की सभा होती है, तब वे दूसरे भक्तों को प्रह्लाद के समान कहकर उनका सम्मान करते हैं। फिर आप-जैसे अजातशत्रु भगवद्भक्त उनका आदर करेंगे, इसमें तो सन्देह ही क्या है। उनकी महिमा का वर्णन करने के लिये अगणित गुणों के कहने-सुनने की आवश्यकता नहीं। केवल ही एक गुण भगवान् श्रीकृष्ण के चरणों में स्वाभाविक, जन्मजात प्रेम उनकी महिमा को प्रकट करने के लिये पर्याप्त है।

युधिष्ठिर! प्रह्लाद बचपन में ही खेल-कूद छोड़कर भगवान् के ध्यान में जडवत् तन्मय हो जाया करते। भगवान् श्रीकृष्ण के अनुग्रहरूप ग्रह ने उनके हृदय को इस प्रकार खींच लिया था कि उन्हें जगत् की कुछ सुध-बुध ही न रहती। उन्हें ऐसा जान पड़ता कि भगवान् मुझे अपनी गोद में लेकर आलिंगन कर रहे हैं। इसलिये उन्हें सोते-बैठते, खाते-पीते, चलते-फिरते और बातचीत करते समय भी इन बातों का ध्यान बिलकुल न रहता। कभी-कभी भगवान् मुझे छोड़कर चले गये, इस भावना में उनका हृदय इतना डूब जाता कि वे जोर-जोर से रोने लगते। कभी मन-ही-मन उन्हें अपने सामने पाकर आनन्दोद्रेक से ठठाकर हँसने लगते। कभी उनके ध्यान के मधुर आनन्द का अनुभव करके जोर से गाने लगते। वे कभी उत्सुक हो बेसुरा चिल्ला पड़ते। कभी-कभी लोक-लज्जा का त्याग करके प्रेम में छककर नाचने भी लगते थे। कभी-कभी उनकी लीला के चिन्तन में इतने तल्लीन हो जाते कि उन्हें अपनी याद ही न रहती, उन्हीं का अनुकरण करने लगते। कभी भीतर-ही-भीतर भगवान् का कोमल संस्पर्श अनुभव करके आनन्द में मग्न हो जाते और चुपचाप शान्त होकर बैठ रहते। उस समय उनका रोम-रोम पुलकित हो उठता। अधखुले नेत्र अविचल प्रेम और आनन्द के आँसुओं से भरे रहते। भगवान् श्रीकृष्ण के चरणकमलों की यह भक्ति अकिंचन भगवत्प्रेमी महात्माओं के संग से ही प्राप्त होती है। इसके द्वारा वे स्वयं तो परमानन्द में मग्न रहते ही थे; जिन बेचारों का मन कुसंग के कारण अत्यन्त दीन-हीन हो रहा था, उन्हें भी बार-बार शान्ति प्रदान करते थे। युधिष्ठिर! प्रह्लाद भगवान् के परमप्रेमी भक्त, परम भाग्यवान् और ऊँची कोटि के महात्मा थे। हिरण्यकशिपु ऐसे साधुपुत्र को भी अपराधी बतलाकर उनका अनिष्ट करने की चेष्टा करने लगा।

युधिष्ठिर ने पूछा- नारद जी! आपका व्रत अखण्ड है। अब हम आपसे यह जानना चाहते हैं कि हिरण्यकशिपु ने पिता होकर भी ऐसे शुद्धहृदय महात्मा पुत्र से द्रोह क्यों किया। पिता तो स्वभाव से ही अपने पुत्रों से प्रेम करते हैं। यदि पुत्र कोई उलटा काम करता है, तो वे उसे शिक्षा देने के लिये ही डाँटते हैं, शत्रु की तरह वैर-विरोध तो नहीं करते। फिर प्रह्लाद जी-जैसे अनुकूल, शुद्ध हृदय एवं गुरुजनों में भगवद्भाव करने वाले पुत्रों से भला, कोई द्वेष कर ही कैसे सकता है। नारद जी! आप सब कुछ जानते हैं। हमें यह जानकर बड़ा कौतूहल हो रहा है कि पिता ने द्वेष के कारण पुत्र को मार डालना चाहा। आप कृपा करके मेरा यह कौतूहल शान्त कीजिये।

कर्म, भक्ति और ज्ञान के समन्वय से आत्म-दर्शन.

                    कर्म, भक्ति और ज्ञान के
समन्वय से आत्म-दर्शन.


संसार के समस्त पदार्थों में जो ‘सत्य’ पाया जाता है, वह समस्त हमारे भीतर आ जाय, और यहाँ तक कि हमारा शरीर भी उसी से भर उठे, यह हमारा उद्देश्य है। हमारा “अन्तः ज्ञान” पहले दिमाग में ही उत्पन्न होता है। पर यदि वह इसी स्थान पर बना रहे तो जब तक हम ऊपर रहेंगे तभी तक वह काम देगा और ज्यों ही हम नीचे के स्तरों में आये कि उसका सम्बन्ध विच्छिन्न हो जायगा। इसीलिए हमारे प्राचीन ऋषि-मुनियों ने समाधि पर इतना जोर दिया था। इस उपाय से वे उस ज्ञान शक्ति को मनोमय क्षेत्र में ले आते थे। वहीं पर सूक्ष्म इन्द्रियों की सृष्टि होती है। ये सूक्ष्म इन्द्रियाँ बाहर की इन्द्रियों की सहायता के बिना भी दर्शन, स्पर्शन करने में समर्थ होती हैं।

जब तक शरीर का रूपांतर न होगा (इसका अर्थ यह नहीं है कि शरीर और मुख आदि की आकृति बदल जायगी) तब तक हमें अपनी विजय पूर्ण और सारयुक्त न समझनी चाहिये। पर ऐसा होने पर शरीर की कार्य-शक्ति में अन्तर आ जायगा। तब शरीर अमृतमय हो जायगा, रोग और बुढ़ापा दूर हो जायगा। हमारी आँखें इस समय जिस प्रकार देखती हैं उस समय उस तरह से न देखकर सृष्टि के असंख्यों रूपों, गुणों, आत्मिक शक्तियों के खेलों को देखने में समर्थ होंगी। हमारे कान सृष्टि के मूल शब्द को सुन सकेंगे। इसी प्रकार सब इन्द्रियाँ सृष्टि के गूढ़ और वास्तविक तत्व को ग्रहण करने लगेंगी। यह अन्तरंग ज्ञान की शक्ति मानव इन्द्रियों को प्राप्त हो सकती है इसमें कुछ भी संदेह नहीं है।

वैदिक-युग के ऋषि देवताओं की सृष्टि करते थे, उपनिषद्-युग के ज्ञानी व्यक्ति भी इस तथ्य को जानते थे। वे समस्त चैतन्य और ज्ञान-शक्ति को साररूप करके उद्दीप्त करते थे। उस समय वैज्ञानिक यंत्र न थे और ज्ञानीजन अन्तःज्ञान के द्वारा ही सृष्टि के रहस्य से अवगत होते थे। जवाला के पुत्र सत्यकाम ने गायें चराते-चराते ही अनन्त प्रकृति के स्वरूप को समझ लिया था, जिससे उसका अन्तरंग मधुमय हो उठा था। उनको पशु, पक्षी, वृक्ष, लता सभी से ज्ञान दान प्राप्त हुआ था। यही सनातन ज्ञान-पथ है और यही ज्ञान की मुक्त प्रणाली है। पर आजकल की वैज्ञानिक धारणा क्या है? इसके अनुसार अनुभव के साथ पदार्थ का मिलान करना ही ज्ञान प्राप्त करने का एकमात्र साधन है। हम जो कुछ देखते-सुनते हैं अथवा अन्य लोग जो देखते-सुनते हैं, पढ़ते हैं, समझते हैं उतना ही ज्ञान हम मनुष्य के बारे में सत्य मानते हैं, उसके सिवा और कुछ हम नहीं जानते न मानते हैं। पर अब विज्ञान के क्षेत्र में भी कुछ नवीन विचारक आगे बढ़ रहे हैं और वे कहने लगे हैं कि “अन्यःज्ञान” (इंट्यूशन) एक बहुत बड़ी शक्ति है।

“शक्ति ही सब कुछ करती है और हम उसके यन्त्र अथवा मशीन हैं—योग का केवल इतना ही आशय नहीं है। साधक को यह अनुभव करना होगा कि शक्ति तो हमारी ही है। पुरुष (परमात्मा) की इच्छा से साधक ही कार्य किया करता है। शक्ति के साथ साधन का अगाँगी परिचय होने पर ही ज्ञान का विकास होता है। साधक सर्वप्रथम शक्ति के सम्मुख ही आत्म-समर्पण करता है, शक्ति की क्रीड़ा को ही वह देखता है, जगत को शक्ति का कौतुक ही अनुभव करता है। शक्ति के साथ में अपने को शक्ति के साथ मिलाकर, घुलाकर ही साधक यह देख सकता है कि अनन्त, विराट शक्ति के पीछे पुरुष विद्यमान है। पुरुष का दर्शन न होने से योग का पूर्ण विकास नहीं हो सकता। पुरुष का प्रत्यक्ष साक्षात्कार होने पर हमको यह अनुभव होता है कि उसकी इच्छा ही हमसे कार्य कराती है। तब फिर “यन्त्र अथवा मशीन” होने की भावना उत्पन्न नहीं होती और साधक स्वयं को ही शक्ति स्वरूप समझने लगता है।

जब तक इस ‘पुरुष’ को नहीं जाना जाता—प्राप्त किया जाता तब तक अपने को यंत्र न समझने की साधना अपूर्ण ही रहती है। शक्ति ही सब कुछ कराती है, शक्ति ही विचार उत्पन्न करती है, शक्ति के स्पर्श से ही मशीन हिलती डुलती है, ऐसा भाव बहुत श्रेष्ठ होने पर भी, पूर्ण योगी के लिये अपर्याप्त है, उसे इससे और आगे बढ़ना है। हमारे यहाँ भाव अथवा शक्ति की कमी नहीं है। देश में सर्वत्र भक्ति में पागल हुये व्यक्ति मिल सकते हैं, पर भक्ति के साथ ज्ञान का होना भी परमावश्यक है। यह सत्य है कि भक्ति होने से भगवान का कार्य करने में शक्ति का अभाव न रहेगा, पर इसके द्वारा ज्ञान का विकास नहीं हो सकता। ज्ञान प्राप्त न होने से वृहत् सृष्टि में प्रवेश असंभव है, ज्ञान द्वारा ही भगवान के अनंत स्वरूप को ग्रहण किया जा सकता है। अनन्त विचित्रताओं-भेदों में ऐक्यता स्थापन किये बिना हमको क्षुद्र सृष्टि में रहना पड़ेगा और ऐसी क्षुद्रता भगवान की इच्छा के विरुद्ध है। इसलिये तुम सबको वृहत् होना चाहिये, ज्ञान के वास्तविक रूप को ग्रहण करना चाहिये। ज्ञान का ही अनुगामी समता का भाव है—समता ही वृहत सृष्टि का बीज मन्त्र है।

योगी को पूर्ण ज्ञान की आवश्यकता इस कारण से भी है कि उसके बिना पतन की बहुत आशंका रहती है। हमारे देश के आधुनिक साधकों में कर्म और भक्ति की कमी नहीं है, इसलिये उनको इन दोनों के साथ ज्ञान की भी साधना करनी चाहिये। हमारे देश में इस समय वैश्यत्व और क्षत्रियत्व का भाव परिस्फुटित हो उठा है, पर अभी ब्राह्मणत्व का परिस्फुरण नहीं हुआ है। अब जो इस त्रुटि को दूर करके ज्ञान की प्रतिष्ठा द्वारा ब्राह्मणत्व का विकास करेगा वही देश का मार्ग प्रदर्शक बन सकेगा।

इस सब का अभ्यास काम करने से क्रमशः होगा। भगवान के समक्ष आत्म समर्पण करके एक दूसरे का ध्यान रखकर, संघबद्ध होकर काम करते जाओ। मन में स्पष्टतः समझ लो कि कर्म ही जीवन का उद्देश्य नहीं है, ज्ञान का प्रकाश सृष्टि का सर्वोच्च अंग है। जब शक्ति और भक्ति के सम्मिश्रण से ज्ञान रूप धारण करेगा, तभी समस्त सृष्टि सार्थक हो जायगी। हमको हजारों बार उत्थान और पतन के भीतर होकर चलना पड़ेगा। पर आधे मार्ग में अवसाद (आलस्य) आकर जीवन का प्रसाद नष्ट न हो जाय, इस तरफ तीक्ष्ण दृष्टि रखना आवश्यक है। इसी दर्शन का अनुसरण करने से ज्ञान का अवतरण होना निश्चित है, इसमें निराशा अथवा संशय की कोई बात नहीं है।
 

(श्री अरविन्द)
(अखंड ज्योति मई,1959)

श्रीमद्भागवत महापुराण: सप्तम स्कन्ध: चतुर्थ अध्यायः श्लोक 17-32 का हिन्दी अनुवाद

 

(लगातार-सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत पुराण)

श्रीमद्भागवत महापुराण:
सप्तम स्कन्ध: चतुर्थ अध्यायः
श्लोक
17-32 का हिन्दी अनुवाद


इसी प्रकार खारे पानी, सुरा, घृत, इक्षुरस, दधि, दुग्ध और मीठे पानी के समुद्र भी अपनी पत्नी नदियों के साथ तरंगों के द्वारा उसके पास रत्नराशि पहुँचाया करते थे। पर्वत अपनी घाटियों के रूप में उसके लिये खेलने का स्थान जुटाते और वृक्ष सब ऋतुओं में फूलते-फलते। वह अकेला ही सब लोकपालों के विभिन्न गुणों को धारण करता। इस प्रकार दिग्विजयी और एकच्छत्र सम्राट् होकर वह अपने को प्रिय लगने वाले विषयों का स्वच्छन्द उपभोग करने लगा। परन्तु इतने विषयों से भी उसकी तृप्ति न हो सकी। क्योंकि अन्ततः वह इन्द्रियों का दास ही तो था।

युधिष्ठिर! इस रूप में भी वह भगवान् का वही पार्षद है, जिसे सनकादिकों ने शाप दिया था। वह ऐश्वर्य के मद से मतवाला हो रहा था तथा घमंड में चूर होकर शास्त्रों की मर्यादा का उल्लंघन कर रहा था। देखते-ही-देखते उसके जीवन का बहुत-सा समय बीत गया। उसके कठोर शासन से सब लोक और लोकपाल घबरा गये। जब उन्हें और कहीं किसी का आश्रय न मिला, तब उन्होंने भगवान् की शरण ली। (उन्होंने मन-ही-मन कहा-) ‘जहाँ सर्वात्मा जगदीश्वर श्रीहरि निवास करते हैं और जिसे प्राप्त करके शान्त एवं निर्मल संन्यासी महात्मा फिर लौटते नहीं, भगवान् के उस परमधाम को हम नमस्कार करते हैं’। इस भाव से अपनी इन्द्रियों का संयम और मन को समाहित करके उन लोगों ने खाना-पीना और सोना छोड़ दिया तथा निर्मल हृदय से भगवान् की आराधना की।

एक दिन उन्हें मेघ के समान गम्भीर आकाशवाणी सुनायी पड़ी। उसकी ध्वनि से दिशाएँ गूँज उठीं। साधुओं को अभय देने वाली वह वाणी यों थी-‘श्रेष्ठ देवताओं! डरो मत। तुम सब लोगों का कल्याण हो। मेरे दर्शन से प्राणियों को परम कल्याण की प्राप्ति हो जाती है। इस नीच दैत्य की दुष्टता का मुझे पहले से ही पता है। मैं इसको मिटा दूँगा। अभी कुछ दिनों तक समय की प्रतीक्षा करो। कोई भी प्राणी जब देवता, वेद, गाय, ब्राह्मण, साधु, धर्म और मुझसे द्वेष करने लगता है, तब शीघ्र ही उसका विनाश हो जाता है। जब यह अपने वैरहीन, शान्त और महात्मा पुत्र प्रह्लाद से द्रोह करेगा-उसका अनिष्ट करना चाहेगा, तब वर के कारण शक्तिसम्पन्न होने पर भी इसे मैं अवश्य मार डालूँगा।’

नारद जी कहते हैं- सबके हृदय में ज्ञान का संचार करने वाले भगवान् ने जब देवताओं को यह आदेश दिया, तब वे उन्हें प्रणाम करके लौट आये। उनका सारा उद्वेग मिट गया और उन्हें ऐसा मालूम होने लगा कि हिरण्यकशिपु मर गया।

युधिष्ठिर! दैत्यराज हिरण्यकशिपु के बड़े ही विलक्षण चार पुत्र थे। उनमें प्रह्लाद यों तो सबसे छोटे थे, परन्तु गुणों में सबसे बड़े थे। वे बड़े संत सेवी थे। ब्राह्मण भक्त, सौम्य स्वभाव, सत्य प्रतिज्ञ एवं जितेन्द्रिय थे तथा समस्त प्राणियों के साथ अपने ही समान समता का बर्ताव करते और सबके एकमात्र प्रिय और सच्चे हितैषी थे। बड़े लोगों के चरणों में सेवक की तरह झुककर रहते थे। ग़रीबों पर पिता के समान स्नेह रखते थे। बराबरी वालों से भाई के समान प्रेम करते और गुरुजनों में भगवद्भाव रखते थे। विद्या, धन, सौन्दर्य और कुलीनता से सम्पन्न होने पर भी घमंड और हेकड़ी उन्हें छू तक नहीं गयी थी।

श्रीमद्भागवत महापुराण: सप्तम स्कन्ध: अथ चतुर्थ अध्यायः श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद

 

(लगातार-सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत पुराण)

श्रीमद्भागवत महापुराण:
सप्तम स्कन्ध: अथ चतुर्थ अध्यायः
श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद


हिरण्यकशिपु के अत्याचार और प्रह्लाद के गुणों का वर्णन.

नारद जी कहते हैं- युधिष्ठिर! जब हिरण्यकशिपु ने ब्रह्मा जी से इस प्रकार के अत्यन्त दुर्लभ वर माँगे, तब उन्होंने उसकी तपस्या से प्रसन्न होने के कारण उसे वे वर दे दिये।

ब्रह्मा जी ने कहा- बेटा! तुम जो वर मुझसे माँग रहे हो, वे जीवों के लिये बहुत ही दुर्लभ हैं; परन्तु दुर्लभ होने पर भी मैं तम्हें वे सब वर दिये देता हूँ।

नारद जी कहते हैं- ब्रह्मा जी के वरदान कभी झूठे नहीं होते। वे समर्थ एवं भगवदरूप ही हैं। वरदान मिल जाने के बाद हिरण्यकशिपु ने उनकी पूजा की। तत्पश्चात् प्रजापतियों से अपनी स्तुति सुनते हुए वे अपने लोक को चले गये। ब्रह्मा जी से वर प्राप्त करने पर हिरण्यकशिपु का शरीर सुवर्ण के समान कान्तिमान् एवं हृष्ट-पुष्ट हो गया। वह अपने भाई की मृत्यु का स्मरण करके भगवान् से द्वेष करने लगा। उस महादैत्य ने समस्त दिशाओं, तीनों लोकों तथा देवता, असुर, नरपति, गन्धर्व, गरुड़, सर्प, सिद्ध, चारण, विद्याधर, ऋषि, पितरों के अधिपति, मनु, यक्ष, राक्षस, पिशाचराज, प्रेत, भूतपति एवं समस्त प्राणियों के राजाओं को जीतकर अपने वश में कर लिया। यहाँ तक कि उस विश्व-विजयी दैत्य ने लोकपालों की शक्ति और स्थान भी छीन लिये।

अब वह नन्दन वन आदि दिव्य उद्यानों के सौन्दर्य से युक्त स्वर्ग में ही रहने लगा था। स्वयं विश्वकर्मा का बनाया हुआ इन्द्र का भवन ही उसका निवासस्थान था। उस भवन में तीनों लोकों का सौन्दर्य मूर्तिमान् होकर निवास करता था। वह सब प्रकार की सम्पत्तियों से सम्पन्न था। उस महल में मूँगे की सीढ़ियाँ, पन्ने की गचें, स्फटिकमणि की दीवारें, वैदूर्यमणि के खंभे और माणिक की कुर्सियाँ थीं। रंग-बिरंगे चँदोवे तथा दूध के फेन के समान शय्याएँ, जिन पर मोतियों की झालरें लगी हुई थीं, शोभायमान हो रही थीं। सर्वांगसुन्दरी अप्सराएँ अपने नूपुरों से रुन-झुन ध्वनि करती हुई रत्नमय भूमि पर इधर-उधर टहला करती थीं और कहीं-कहीं उसमें अपना सुन्दर मुख देखने लगती थीं। उस महेन्द्र के महल में महाबली और महामनस्वी हिरण्यकशिपु सब लोकों को जीतकर, सबका एकच्छत्र सम्राट् बनकर बड़ी स्वतन्त्रता से विहार करने लगा। उसका शासन इतना कठोर था कि उससे भयभीत होकर देव-दानव उसके चरणों की वन्दना करते रहते थे।

युधिष्ठिर! वह उत्कट गन्ध वाली मदिरा पीकर मतवाला रहा करता था। उसकी आँखें लाल-लाल और चढ़ी हुई रहतीं। उस समय तपस्या, योग, शारीरिक और मानसिक बल का वह भंडार था। ब्रह्मा, विष्णु और महादेव के सिवा और सभी देवता अपने हाथों में भेंट ले-लेकर उसकी सेवा में लगे रहते। जब वह अपने पुरुषार्थ से इन्द्रासन पर बैठ गया, तब युधिष्ठिर! विश्वावसु, तुम्बुरु तथा हम सभी लोग उसके सामने गान करते थे। गन्धर्व, सिद्ध, ऋषिगण, विद्याधर और अप्सराएँ बार-बार उसकी स्तुति करती थीं।

युधिष्ठिर! वह इतना तेजस्वी था कि वर्णाश्रम धर्म का पालन करने वाले पुरुष जो बड़ी-बड़ी दक्षिणा वाले यज्ञ करते, उनके यज्ञों की आहुति वह स्वयं छीन लेता। पृथ्वी के सातों द्वीपों में उसका अखण्ड राज्य था। सभी जगह बिना ही जोते-बोये धरती से अन्न पैदा होता था। वह जो कुछ चाहता, अन्तरिक्ष से उसे मिल जाता तथा आकाश उसे भाँति-भाँति की आश्चर्यजनक वस्तुएँ दिखा-दिखाकर उसका मनोरंजन करता था।