(लगातार-सम्पूर्ण
श्रीमद्भागवत पुराण)
श्रीमद्भागवत
महापुराण:
षष्ठ
स्कन्ध: सप्तदश अध्यायः
श्लोक
17-32 का हिन्दी अनुवाद.
चित्रकेतु ने कहा- माता पार्वती जी! मैं बड़ी प्रसन्नता से अपने दोनों हाथ जोड़कर आप का शाप स्वीकार करता हूँ। क्योंकि देवता लोग मनुष्यों के लिये जो कुछ कह देते हैं, वह उनके प्रारब्धानुसार मिलने वाले फल की पूर्व सूचना मात्र होती है।
देवि! यह जीव अज्ञान से मोहित हो रहा है और इसी कारण इस संसारचक्र में भटकता रहता है तथा सदा-सर्वदा सर्वत्र सुख और दुःख भोगता रहता है। माताजी! सुख और दुःख को देने वाला न तो अपना आत्मा है और न कोई दूसरा। जो अज्ञानी हैं, वे ही अपने को अथवा दूसरे को सुख-दुःख का कर्ता माना करते हैं। यह जगत् सत्त्व, रज आदि गुणों का स्वाभाविक प्रवाह है। इसमें क्या शाप, क्या अनुग्रह, क्या स्वर्ग, क्या नरक और क्या सुख, क्या दुःख। एकमात्र परिपूर्णतम भगवान् ही बिना किसी की सहायता के अपनी आत्मस्वरूपिणी माया के द्वारा समस्त प्राणियों की तथा उनके बन्धन, मोक्ष और सुख-दुःख की रचना करते हैं।
माताजी! भगवान् श्रीहरि सबमें सम और माया आदि मल से रहित हैं। उनका कोई प्रिय-अप्रिय, जाति-बन्धु, अपना-पराया नहीं है। जब उनका सुख में राग ही नहीं है, तब उनमें रागजन्य क्रोध तो हो ही कैसे सकता है। तथापि उनकी मायाशक्ति के कार्य पाप और पुण्य ही प्राणियों के सुख-दुःख, हित-अनहित, बन्ध-मोक्ष मृत्यु-जन्म और आवागमन के कारण बनते हैं। पतिप्राणा देवि! मैं शाप से मुक्त होने के लिए आपको प्रसन्न नहीं कर रहा हूँ। मैं तो यह चाहता हूँ कि आपको मेरी जो बात अनुचित प्रतीत हुई हो, उसके लिये क्षमा करें।
श्रीशुकदेव जी कहते हैं- परीक्षित! विद्याधर चित्रकेतु भगवान् शंकर और पार्वती जी को इस प्रकार प्रसन्न करके उनके सामने ही विमान पर सवार होकर वहाँ से चले गये। इससे उन लोगों को बड़ा विस्मय हुआ। तब भगवान् शंकर ने देवता, ऋषि, दैत्य, सिद्ध और पार्षदों के सामने ही भगवती पार्वती जी से यह बात कही।
भगवान् शंकर ने कहा- सुन्दरि! दिव्यलीला-विहारी भगवान् के निःस्पृह और उदारहृदय दासानुदासों की महिमा तुमने अपनी आँखों देख ली। जो लोग भगवान् के शरणागत होते हैं, वे किसी से नहीं डरते। क्योंकि उन्हें स्वर्ग, मोक्ष और नरकों में भी एक ही वस्तु के-केवल भगवान् के ही समान भाव से दर्शन होते हैं। जीवों को भगवान् की लीला से ही देह का संयोग होने के कारण सुख-दुःख, जन्म-मरण और शाप-अनुग्रह आदि द्वन्द प्राप्त होते हैं। जैसे स्वप्न में भेद-भ्रम से सुख-दुःख आदि की प्रतीति होती है और जाग्रत्-अवस्था में भ्रमवश माला में ही सर्प बुद्धि हो जाती है- वैसे ही मनुष्य अज्ञानवश आत्मा में देवता, मनुष्य आदि का भेद तथा गुण-दोष आदि की कल्पना कर लेता है।
जिनके पास ज्ञान और वैराग्य का बल है और जो भगवान् वासुदेव के चरणों में भक्तिभाव रखते हैं, उनके लिये इस जगत् में ऐसी कोई वस्तु नहीं है, जिसे वे हेय या उपादेय समझकर राग-द्वेष करें। मैं, ब्रह्मा जी, सनकादि, नारद, ब्रह्मा जी के पुत्र भृगु आदि मुनि और बड़े-बड़े देवता- कोई भी भगवान् की लीला का रहस्य नहीं जान पाते। ऐसी अवस्था में जो उनके नन्हे-से-नन्हे अंश हैं और अपने को उनसे अलग ईश्वर मान बैठे हैं, वे उनके स्वरूप जान ही कैसे सकते हैं?
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