भगवान नाम के कीर्तन में शुध्दाशुध्दि की अपेक्षा नहीं होती।

 

भगवान नाम के कीर्तन में
शुध्दाशुध्दि की अपेक्षा नहीं होती।


श्लोक....

न देशकालनियमः शौचाशौचविनिर्णयः।
परं सङ्कीर्तनादेव राम रामेति मुच्यते।।


अर्थ….भगवन्नाम संकीर्तन में न स्थान का, न समय का, और न शुद्धि या अशुद्धि अवस्था का ही नियम है, केवल "राम- राम" ये संकीर्तन करने मात्र से जीव मुक्त हो जाता है।

श्लोक...

न देशनियमो राजन्न कालनियमस्तथा।
विद्यते नात्र संदेहो विष्णोर्नामानुकीर्तने।।


अर्थ….हे राजन्! भगवान् के नाम का संकीर्तन करने में न देश का नियम है और न तो काल का, इसमें कोई संदेह नहीं।

श्लोक...

कालोऽस्ति यज्ञे दाने वा स्राने कालोऽस्ति सज्जपे।
विष्णुसङ्कीर्तने कालो नास्त्यत्र पृथिवीपते।।


अर्थ... यज्ञ में, दान में, तीर्थस्नान में अथवा विधि-पूर्वक जप करने के लिए शुद्ध काल की अपेक्षा है, परंतु भगवन्नाम संकीर्तन में काल शुद्धि की कोई आवश्यकता नहीं है।

श्लोक...
गच्छंस्तिष्ठन्स्वपन्वापि पिबन्भुञ्जञ्जपंस्तथा।
कृष्ण कृष्णेति संकीर्त्य मुच्यते पापकञ्चुकात्।।


अर्थ …. चलते- फिरते, खड़े रहते, सोते, खाते-पीते और बोलते हुए भी "कृष्ण-कृष्ण" ऐसा संकीर्तन करके मनुष्य पाप के केंचुल से छूट जाता है।

श्लोक...
अपवित्रः पवित्रो वा सर्वावस्थां गतोपि वा।
यः स्मरेत्पुण्डरीकाक्षं स बाह्याभ्यन्तरः शुचिः।।


अर्थ….अपवित्र हो या पवित्र सभी अवस्थाओं में (चाहे किसी भी अवस्था में) जो कमल-नयन भगवान् का स्मरण करता है, वह बाहर- भीतर पवित्र हो जाता है।

चौपाई...
भायँ कुभायँ अनख आलसहूँ।
नाम जपत मंगल दिसि दसहूँ।। (मानस)


श्लोक...
कृष्णेति मङ्गलं नाम यस्य वाचि प्रवर्तते।
भस्मीभवन्ति सद्यस्तु महापातककोटयः।।


अर्थ…. जिसकी जिह्वा पर 'कृष्ण-कृष्ण-कृष्ण' ये मङ्गल-मय नाम नृत्य करता रहता है, उसकी कोटि-कोटि महापातक राशि तत्काल भस्म हो जातीं हैं।

श्लोक...
सर्वेषामपि यज्ञानां लक्षणानि व्रतानि च।
तीर्थस्नानानि सर्वाणि तपांस्यनशनानि च।।


श्लोक...
वेदपाठसहस्राणि प्रादक्षिण्यं भुवः शतम्।
कृष्णनामजपस्यास्य कलां नार्हन्ति षोडशीम्॥


अर्थ... सारे यज्ञ, लाखों व्रत, सर्वतीर्थ-स्नान, तप, अनेकों उपवास, हजारों वेद-पाठ, पृथ्वी की सैकड़ों प्रदक्षिणा कृष्ण नाम-जप के सोलहवें हिस्से के बराबर भी नहीं हो सकतीं।

नाम संकीर्तन में वर्णाश्रमादि का भी नियम नहीं है।

श्लोक...
ब्राह्मणाः क्षत्रिया वैश्याः स्त्रियः शूद्रान्त्यजातयः।
यत्र तत्रानुकुर्वन्ति विष्णोर्नामानुकीर्तनम्।
सर्वपापविनिर्मुक्तास्तेऽपि यान्ति सनातनम्।।


अर्थ... ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र, और अंत्यजादि जहां-तहां विष्णुभगवान के नाम का बारंबार कीर्तन करते रहते हैं, वे भी समस्त पापों से मुक्त होकर सनातन परमात्मा को प्राप्त होते हैं।

भगवन्नाम के कीर्तन में ही यह फल हो, सो बात नहीं। उनके श्रवण और स्मरण में भी वही फल है। दशम स्कन्ध के अन्त में कहेंगे जिनके नाम का स्मरण और उच्चारण अमङ्गमय है।

शिवगीता_और_पद्मपुराणमें_कहा_है...
श्लोक...
आश्चर्य वा भये शोके क्षते वा मम नाम यः।
व्याजेन वा स्मरेद्यस्तु स याति परमां गतिम्॥

श्लोक...
प्रयाणे चाप्रयाणे च यन्नाम स्मरतां नृणाम्।
सद्यो नश्यति पापौघो नमस्तस्मै चिदात्मने।

अर्थ...भगवान् कहते है कि आश्चर्य, भय, शोक, क्षत (चोट लगने) आदि के अवसर पर जो मेरा नाम बोल उठता है, या किसी व्याज से स्मरण करता है, वह परम-गति को प्राप्त होता है।
मृत्यु या जीवन-चाहे जब कभी भगवान का नाम स्मरण करने वाले मनुष्यो की पाप-राशि तत्काल नष्ट हो जाती है। उन चिदात्मा प्रभु को नमस्कार है।

श्लोक....
श्रुत्वा नामानि तत्रस्थास्तेनोक्तानि हरेर्द्विज।
नारका नरकान्मुक्ताः सद्य एव महामुने॥

अर्थ... महामुनि ब्राह्मणदेव ! भक्तराज के मुख से नरक मे रहने वाले प्राणियों ने श्रीहरि के नाम का श्रवण किया और वे तत्काल नरक से मुक्त हो गये।

श्लोक...
न गङ्गा न गया सेतुर्न काशी न च पुष्करम्।
जिह्वाग्रे वर्तते यस्य हरिरित्यक्षरद्वयम्॥


श्लोक...
ऋग्वेदोऽथ यजुर्वेद: सामवेदो ह्यथर्वणः।
अधीतास्तेन येनोक्तं हरिरित्यक्षरद्वयम्॥
अश्वमेधादिभिर्यज्ञैर्नरमेधैः सदक्षिणैः।
यजितं तेन येनोक्तं हरिरित्यक्षरद्वयम्॥
प्राणप्रयाणपाथेयं संसारव्याधिभेषजम्।
दु:खक्लेशपरित्राणं हरिरित्यक्षरद्वयम्॥


अर्थ... जिसकी जिह्वा के नोक पर "हरि" ये दो अक्षर बसते हैं, उसे गंगा, गया, सेतुबंध, काशी और पुष्कर की कोई आवश्यकता नहीं, अर्थात् उनकी यात्रा, स्नान आदि का फल भगवन्नाम से ही प्राप्त हो जाता है। जिसने "हरि" इन दो अक्षरों का उच्चारण कर लिया उसने ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद का अध्ययन कर लिया। जिसने "हरि" ये दो अक्षर उच्चारण किए उसने दक्षिणा के सहित अश्वमेध आदि यज्ञों का आयोजन कर लिया। "हरि" ये दो अक्षर मृत्यु के पश्चात् परलोक के मार्ग में प्रयाण करने वाले प्राणों के लिए पाथेय (मार्ग के लिए भोजन सामग्री) हैं, संसार रूप रोग के लिए सिद्ध औषधि हैं और जीवन के दुख और क्लेशों के लिए परित्राण हैं।

श्लोक...
साङ्केत्यं पारिहास्यं वा स्तोभं हेलनमेव वा।
वैकुण्ठनामग्रहणमशेषाघहरं विदु: ||

अर्थ…. बड़े-बड़े महापुरुष यह बात जानते हैं कि संकेत में अर्थात् किसी दूसरे अभिप्राय से, परिहास में, तान अलापने में, अथवा किसी की अवहेलना करने में भी यदि कोई भगवान के नामों का उच्चारण करता है तो, उसके सारे पाप नष्ट हो जाते हैं।

श्लोक...
पतितः स्खलितो भग्नः संदष्टस्तप्त आहतः |
हरिरित्यवशेनाह पुमान्नार्हति यातनाम् ||

अर्थ….जो मनुष्य गिरते समय, पैर फिसलते समय, अंग भंग होते समय और सांप के डँसते, आग में जलते तथा चोट लगते समय भी विवशता से "हरि- हरि" कहकर भगवान के नाम का उच्चारण कर लेता है, वह यमयातना का पात्र नहीं रह जाता।

श्लोक...
तैस्तान्यघानि पूयन्ते तपोदानजपादिभिः।
नाधर्मजं तद्धृदयं तदपीशाङ्घ्रिसेवया।।

अर्थ….महर्षियों ने पापों से छूटने के लिए शास्त्रों में प्रायश्चित्त बतलाए हैं।

इसमें संदेह नहीं कि उन तपस्या, दान, जप आदि प्रायश्चित्तों के द्वारा वे पाप नष्ट हो जाते हैं। परंतु उन पापों से मलिन हुआ उसका हृदय शुद्ध नहीं होता, भगवान के चरणों की सेवा से, वह भी शुद्ध हो जाता है।

श्लोक...
अर्थवादं हरेर्नाम्नि संभावयति यो नरः।
स पापिष्टो मनुष्याणां नरके पतति स्फुटम् ।।

अर्थ. जो मनुष्य भगवान के नाम में अर्थवाद की संभावना करता है अर्थात् उस महिमा को वास्तव में नहीं मानता है, वह मनुष्यों में अत्यंत पापी है और उसे नरक में गिरना पड़ता है।

चौपाई...
कहौं कहाँ लगि नाम बड़ाई।
रामु न सकहिं नाम गुन गाई।।(मानस)


दोहा...
ब्रह्म राम तें नामु बड़
    बर दायक बर दानि।
रामचरित सत कोटि महँ
    लिए महेस जियँ जानि।। (मानस)

विशेष... भगवान्नाम की कलयुग में विशेष महिमा होने के कारण समस्त स्त्री और शूद्रों को सदैव भगवान्नाम स्मरण करते रहना चाहिए तथा ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्यों को जिन्हें संध्यादि वैदिक कर्म करने का अधिकार है, उनको भी स्नान, संध्या, जपादि कर्म करके भगवान्नाम संकीर्तन अवश्य ही करना चाहिए।

यह लेख श्रीमद्भागवत के अजामिल-प्रसंग की श्रीधरी, श्रीवंशीधरी आदि टीकाओं पर आधारित है।

1 टिप्पणी:

Madan Mohan Saxena ने कहा…

बहुत ही सुन्दर शब्दों से सजाया गया है लिखते रहिये और कुछ अपने विचारो से हमें भी अवगत करवाते रहिये.

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