श्रीमद्भागवत महापुराण: षष्ठ स्कन्ध: चतुर्थ अध्यायः श्लोक 28-35 का हिन्दी अनुवाद

 

(लगातार-सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत पुराण)

श्रीमद्भागवत महापुराण:
षष्ठ स्कन्ध: चतुर्थ अध्यायः
श्लोक 28-35 का हिन्दी अनुवाद


जगत् में जितनी भिन्नताएँ देख पड़ती हैं, वे सब माया की ही हैं। माया का निषेध कर देने पर केवल परमसुख के साक्षात्कारस्वरूप आप ही अवशेष रहते हैं। परन्तु जब विचार करने लगते हैं, तब आपके स्वरूप में माया की उपलब्धि-निर्वचन नहीं हो सकता। अर्थात् माया भी आप ही हैं। अतः सारे नाम और सारे रूप आपके ही हैं।

प्रभो! आप मुझ पर प्रसन्न होइये। मुझे आत्मप्रसाद से पूर्ण कर दीजिये। प्रभो! जो कुछ वाणी से कहा जाता है अथवा जो कुछ मन, बुद्धि और इन्द्रियों से ग्रहण किया जाता है, वह आपका स्वरूप नहीं है; क्योंकि वह तो गुणरूप है और आप गुणों की उत्पत्ति और प्रलय के अधिष्ठान हैं। आपमें केवल उनकी प्रतीतिमात्र है।

भगवन्! आपमें ही यह सारा जगत् स्थित है; आपसे ही निकला है और आपने-और किसी के सहारे नहीं-अपने-आप से ही इसका निर्माण किया है। यह आपका ही है और आपके लिये ही है। इसके रूप में बनने वाले भी आप हैं और बनाने वाले भी आप ही हैं। बनने-बनाने की विधि भी आप ही हैं। आप ही सबसे काम लेने वाले भी हैं। जब कार्य और कारण का भेद नहीं था, तब भी आप स्वयंसिद्ध स्वरूप से स्थित थे। इसी से आप सबके कारण भी हैं। सच्ची बात तो यह है कि आप जीव-जगत के भेद और स्वगत भेद से सर्वथा रहित एक, अद्वितीय हैं। आप स्वयं ब्रह्म हैं। आप मुझ पर प्रसन्न हों।

प्रभो! आपकी ही शक्तियाँ वादी-प्रतिवादियों के विवाद और संवाद (ऐकमत्य) का विषय होती हैं और उन्हें बार-बार मोह में डाल दिया करती हैं। आप अनन्त अप्राकृत कल्याण-गुणगणों से युक्त एवं स्वयं अनन्त हैं। मैं आपको नमस्कार करता हूँ। भगवन्! उपासक लोग कहते हैं कि हमारे प्रभु हस्त-पादादि से युक्त साकार-विग्रह हैं और सांख्यवादी कहते हैं कि भगवान् हस्त-पादादि विग्रह से रहित-निराकार हैं। यद्यपि इस प्रकार वे एक ही वस्तु के दो परस्पर विरोधी धर्मों का वर्णन करते हैं, परन्तु फिर भी उसमें विरोध नहीं है। क्योंकि दोनों एक ही परमवस्तु में स्थित हैं। बिना आधार के हाथ-पैर आदि का होना सम्भव नहीं और निषेध की भी कोई-न-कोई अवधि होनी ही चाहिये। आप वही आधार और निषेध की अवधि हैं। इसलिये आप साकार, निराकार दोनों से ही अविरुद्ध सम परब्रह्म हैं।

प्रभो! आप अनन्त हैं। आपका न तो कोई प्राकृत नाम है और न कोई प्राकृत रूप; फिर भी जो आपके चरणकमलों का भजन करते हैं, उन पर अनुग्रह करने के लिये आप अनेक रूपों में प्रकट होकर अनेकों लीलाएँ करते हैं तथा उन-उन रूपों एवं लीलाओं के अनुसार अनेकों नाम धारण कर लेते हैं। परमात्मन्! आप मुझ पर कृपा-प्रसाद कीजिये। लोगों की उपासनाएँ प्रायः साधारण कोटि की होती हैं। अतः आप सबके हृदय में रहकर उनकी भावना के अनुसार भिन्न-भिन्न देवताओं के रूप में प्रतीत होते रहते हैं-ठीक वैसे ही जैसे हवा गन्ध का आश्रय लेकर सुगन्धित प्रतीत होती है; परन्तु वास्तव में सुगन्धित नहीं होती। ऐसे सबकी भावनाओं का अनुसरण करने वाले प्रभु मेरी अभिलाषा पूर्ण करें।

श्रीशुकदेव जी कहते हैं- परीक्षित! विन्ध्याचल के अघमर्षण तीर्थ में जब प्रजापति दक्ष ने इस प्रकार स्तुति की, तब भक्तवत्सल भगवान् उनके सामने प्रकट हुए।

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