श्रीमद्भागवत महापुराण: षष्ठ स्कन्ध: षोडश अध्यायः श्लोक 55-65 का हिन्दी अनुवाद.

 

(लगातार-सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत पुराण)

श्रीमद्भागवत महापुराण:
षष्ठ स्कन्ध: षोडश अध्यायः
श्लोक 55-65 का हिन्दी अनुवाद.


सोया हुआ पुरुष जिसकी सहायता से अपनी निद्रा और उसके अतीन्द्रिय सुख का अनुभव करता है, वह ब्रह्म मैं ही हूँ; उसे तुम अपनी आत्मा समझो। पुरुष निद्रा और जागृति-इन दोनों अवस्थाओं का अनुभव करने वाला है। वह उन अवस्थाओं में अनुगत होने पर भी वास्तव में उनसे पृथक् है। वह सब अवस्थाओं में रहने वाला अखण्ड एक रस ज्ञान ही ब्रह्म है, वही परब्रह्म है। जब जीव मेरे स्वरूप को भूल जाता है, तब वह अपने को अलग मान बैठता है; इसी से उसे संसार के चक्कर में पड़ना पड़ता है और जन्म-पर-जन्म तथा मृत्यु-पर-मृत्यु प्राप्त होती है। यह मनुष्य योनि ज्ञान और विज्ञान का मूल स्त्रोत है। जो इसे पाकर भी अपने आत्मस्वरूप परमात्मा को नहीं जान लेता, उसे कहीं किसी भी योनि में शान्ति नहीं मिल सकती।

राजन्! सांसारिक सुख के लिये जो चेष्टाएँ की जाती हैं, उसमें श्रम है, क्लेश है और जिस परमसुख के उद्देश्य से वे की जाती हैं, उसके ठीक विपरीत परमदुःख देती हैं; किन्तु कर्मों से निवृत्त हो जाने में किसी प्रकार का भय नहीं है-यह सोचकर बुद्धिमान् पुरुष को चाहिये कि किसी प्रकार के कर्म अथवा उनके फलों का संकल्प न करे। जगत् के सभी स्त्री-पुरुष इसलिये कर्म करते हैं कि उन्हें सुख मिले और उनका दुःखों से पिण्ड छूटे; परन्तु उन कर्मों से न तो दुःख दूर होता है और न उन्हें सुख की ही प्राप्ति होती है।

जो मनुष्य अपने को बहुत बड़ा बुद्धिमान् मानकर कर्म के पचड़ों में पड़े हुए हैं, उनको विपरीत फल मिलता है-यह बात समझ लेनी चाहिये; साथ ही यह भी जान लेना चाहिये कि आत्मा का स्वरूप अत्यन्त सूक्ष्म है, जाग्रत्, स्वप्न, सुषुप्ति-इन तीनों अवस्थाओं तथा इनके अभिमानियों से विलक्षण है। यह जानकर इस लोक में देखे और परलोक के सुने हुए विषय-भोगों से विवेक बुद्धि के द्वारा अपना पिण्ड छुड़ा ले और ज्ञान तथा विज्ञान में ही सन्तुष्ट रहकर मेरा भक्त हो जाये। जो लोग योग मार्ग का तत्त्व समझने में निपुण हैं, उनको भलीभाँति समझ लेना चाहिये कि जीव का सबसे बड़ा स्वार्थ और परमार्थ केवल इतना ही है कि वह ब्रह्म और आत्मा की एकता का अनुभव कर ले।

राजन्! यदि तुम मेरे इस उपदेश को सावधान होकर श्रद्धाभाव से धारण करोगे तो ज्ञान एवं विज्ञान से सम्पन्न होकर शीघ्र ही सिद्ध हो जाओगे।

श्रीशुकदेव जी कहते हैं- राजन्! जगद्गुरु विश्वात्मा भगवान् श्रीहरि चित्रकेतु को इस प्रकार समझा-बुझाकर उनके सामने ही वहाँ से अन्तर्धान हो गये।

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