(लगातार-सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत पुराण)
श्रीमद्भागवत महापुराण:
षष्ठ स्कन्ध: तृतीय अध्यायः
श्लोक 27-35 का हिन्दी अनुवाद
जो समदर्शी साधु भगवान् को ही अपना साध्य और साधन दोनों समझकर उन पर निर्भर हैं, बड़े-बड़े देवता और सिद्ध उनके पवित्र चरित्रों का प्रेम से गान करते रहते हैं। मेरे दूतों! भगवान् की गदा उनकी सदा रक्षा करती रहती है। उनके पास तुम लोग कभी भूलकर भी मत फटकना। उन्हें दण्ड देने की सामर्थ्य न हममें है और न साक्षात् काल में ही। बड़े-बड़े परमहंस दिव्य रस के लोभ से सम्पूर्ण जगत् और शरीर आदि से भी अपनी अहंता-ममता हटाकर, अकिंचन होकर निरन्तर भगवान् मुकुन्द के पादारविन्द का मकरन्द-रस पान करते रहते हैं। जो दुष्ट उस दिव्य रस से विमुख हैं और नरक के दरवाजे घर-गृहस्थी की तृष्णा का बोझा बाँधकर उसे ढो रहे हैं, उन्हीं को मेरे पास बार-बार लाया करो। जिनकी जीभ भगवान् के गुणों और नामों का उच्चारण नहीं करती, जिनका चित्त उनके चरणारविन्दों का चिन्तन नहीं करता और जिनका सिर एक बार भी भगवान् श्रीकृष्ण के चरणों में नहीं झुकता, उन भगवत्सेवा-विमुख पापियों को ही मेरे पास लाया करो। आज मेरे दूतों ने भगवान् के पार्षदों का अपराध करके स्वयं भगवान् का ही तिरस्कार किया है। यह मेरा ही अपराध है। पुराणपुरुष भगवान् नारायण हम लोगों का यह अपराध क्षमा करें। हम अज्ञानी होने पर भी हैं उनके निजजन और उनकी आज्ञा पाने के लिये अंजलि बाँधकर सदा उत्सुक रहते हैं। अतः परम महिमान्वित भगवान् के लिये यही योग्य है कि वे क्षमा कर दें। मैं उन सर्वान्तर्यामी एकरस अनन्त प्रभु को नमस्कार करता हूँ। श्रीशुकदेव जी कहते हैं- परीक्षित! इसलिये तुम ऐसा समझ लो कि बड़े-से-बड़े पापों का सर्वोत्तम, अन्तिम और पाप-वासनाओं को भी निर्मूल कर डालने वाला प्रायश्चित यही है कि केवल भगवान् के गुणों, लीलाओं और नामों का कीर्तन किया जाये। इसी से संसार का कल्याण हो सकता है। जो लोग बार-बार भगवान् के उदार और कृपापूर्ण चरित्रों का श्रवण-कीर्तन करते हैं, उनके हृदय में प्रेममयी भक्ति का उदय हो जाता है। उस भक्ति से जैसी आत्मशुद्धि होती है, वैसी कृच्छ्र-चान्द्रायण आदि व्रतों से नहीं होती। जो मनुष्य भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र के चरणारविन्द-मकरन्द-रस का लोभी भ्रमर है, वह स्वभाव से ही माया के आपातरम्य, दुःखद और पहले से ही छोड़े हुए विषयों में फिर नहीं रमता। किन्तु जो लोग उस दिव्य रस से विमुख हैं, कामनाओं ने जिनकी विवेकबुद्धि पर पानी फेर दिया है, वे अपने पापों का मार्जन करने के लिये पुनः प्रायश्चितरूप कर्म ही करते हैं। इससे होता यह है कि उनके कर्मों की वासना मिटती नहीं और वे फिर वैसे ही दोष कर बैठते है। परीक्षित! जब यमदूतों ने अपने स्वामी धर्मराज के मुख से इस प्रकार भगवान् की महिमा सुनी और उसका स्मरण किया, तब उनके आश्चर्य की सीमा न रही। तभी से वे धर्मराज की बात पर विश्वास करके अपने नाश की आशंका से भगवान् के आश्रित भक्तों के पास नहीं जाते और तो क्या, वे उनकी ओर आँख उठाकर देखने में भी डरते हैं। प्रिय परीक्षित! यह इतिहास परम गोपनीय-अत्यन्त रहस्यमय है। मलय पर्वत पर विराजमान भगवान् अगस्त्य जी ने श्रीहरि की पूजा करते समय मुझे यह सुनाया था।
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