वेदों में मूर्ति पूजा.

 

वेदों में मूर्ति पूजा.

कुछ विध्द्वानों का मत हैं कि वेदों में कहीं भी मूर्ति पूजा का वर्णन नहीं मिलता और उनकी भ्रामक बातों का वो सनातन धर्मी भी समर्थन कर लेते हैं, जिन्हें वेद अध्ययन का संयोग प्राप्त नहीं हुआ हैं                       

अनन्त  वेद केवल चार पुस्तकों में ही सिमित नहीं हैं उनसे इतर वेद की हजारों शाखाएं हैं और हर शाखा का एक उपनिषद है

वेद में  जो भी श्लोक हैं, उसे श्लोक नहीं, मंत्र कहते है और हर मंत्र का कोई ऋषि दृष्टा होता है

"अथर्ववेद" की शाखा " गणपत्युपनिषद " का 18 वाँ मंत्र है, यथा...

 " यो मोदकसहस्त्रेण यजति स वाञ्छितफलमवाप्नोति। 
 यः साज्यसमिद्भिर्यजति स सर्वं लभते।  स सर्वं लभते। 
अष्टौ ब्राह्मणान्सम्यग्ग्राहयित्वा सूर्यवर्चस्वी भवति। 
सूर्यग्रहणे महानद्यां प्रतिमासन्नि-धौ  वा जप्त्वा सिद्ध मंत्रों भवति। 
महाविघ्नात्प्रमुच्यते। महापापात्प्रमुच्यते। महादोषात्प्रमुच्यते॥18"

आशय... जो कोई एक हजार लड्डुओं से (गणेश जी का) पूजा करता हैवह अपने इच्छित फल को प्राप्त करता हैघी सहित काष्ठों से पूजा करता हैवह सब कुछ पा लेता हैसभी कुछ प्राप्त कर लेता है-(वाक्य की पुनरावृत्ति बात की प्रमाणिकता का सूचक है) जो आठ ब्राह्मणों को अच्छी तरह से यह विद्या सिखाकर तैयार कर देता हैवह सूर्य के समान तेजस्वी हो जाता है, सूर्य-ग्रहण के समय बडी नदी में  अथवा  प्रतिमा के समक्ष  जप करने से मंत्र सिद्ध होता है, वह बडे विघ्नों से मुक्त हो जाता है

मंत्र -2 :-

     यह अथर्ववेद की शाखा   "गोपालोत्तरतापिन्युपनिषत्" का 32 वाँ  मंत्र है...

    योऽर्चयेत् प्रतिमां मां च ह मे प्रियतरो भुवि ।
          तस्यामधिष्ठितः कृष्णरूपी पूज्यस्त्वया सदा ।।

आशय... उस प्रतिमा को यदि कोई मनुष्य पूजता हैतो वह मेरा बहुत प्रिय बन जाता है तुमको भी उस मूर्ति में प्रतिष्ठित कृष्ण रूप की ही पूजा करनी चाहिए।

उपरोक्तानुसार स्पष्ट हैं कि वेद में मूर्ति पूजा का संकेत हैं

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