(लगातार-सम्पूर्ण
श्रीमद्भागवत पुराण)
श्रीमद्भागवत
महापुराण:
षष्ठ
स्कन्ध: एकादश अध्यायः
श्लोक
14-24 का हिन्दी अनुवाद.
वीर इन्द्र! यह भी सम्भव है कि तू मेरी सेना को छिन्न-भिन्न करके अपने वज्र से मेरा सिर काट ले। तब तो मैं अपने शरीर की बलि पशु-पक्षियों को समर्पित करके, कर्म-बन्धन से मुक्त हो महापुरुषों की चरणरज का आश्रय ग्रहण करूँगा-जिस लोक में महापुरुषों जाते हैं, वहाँ पहुँच जाऊँगा। देवराज! मैं तेरे सामने खड़ा हूँ, तेरा शत्रु हूँ; अब तू मुझ पर अपना अमोघ वज्र क्यों नहीं छोड़ता? तू यह सन्देह न कर कि जैसे तेरी गदा निष्फल हो गयी, कृपण पुरुष से की हुई याचना के समान यह वज्र भी वैसे ही निष्फल हो जायेगा।
इन्द्र! तेरा यह वज्र श्रीहरि के तेज और दधीचि ऋषि की तपस्या से शक्तिमान् हो रहा है। विष्णु भगवान् ने मुझे मारने के लिये तुझे आज्ञा भी दी है। इसलिये अब तू उसी वज्र से मुझे मार डाल। क्योंकि जिस पक्ष में भगवान् श्रीहरि हैं, उधर ही विजय, लक्ष्मी और सारे गुण निवास करते हैं। देवराज! भगवान् संकर्षण के आज्ञानुसार मैं अपने मन को उनके चरणकमलों में लीन कर दूँगा। तेरे वज्र का वेग मुझे नहीं, मेरे विषय-भोगरूप फंदे को काट डालेगा और मैं शरीर त्यागकर मुनिजनोचित गति प्राप्त करूँगा। जो पुरुष भगवान् से अनन्य प्रेम करते हैं-उनके निजजन हैं-उन्हें वे स्वर्ग, पृथ्वी अथवा रसातल की सम्पत्तियाँ नहीं देते। क्योंकि उनसे परमानन्द की उपलब्धि होती ही नहीं; उलटे द्वेष, उद्वेग, अभिमान, मानसिक पीड़ा, कलह, दुःख और परिश्रम ही हाथ लगते हैं।
इन्द्र! हमारे स्वामी अपने भक्त के अर्थ, धर्म एवं काम सम्बन्धी प्रयास को व्यर्थ कर दिया करते हैं और सच पूछो तो इसी से भगवान् की कृपा का अनुमान होता है। क्योंकि उनका ऐसा कृपा-प्रसाद अकिंचन भक्तों के लिये ही अनुभवगम्य है, दूसरों के लिये तो अत्यन्त दुर्लभ ही है। (भगवान् को प्रत्यक्ष अनुभव करते हुए वृत्रासुर ने प्रार्थना की-) ‘प्रभो! आप मुझ पर ऐसी कृपा कीजिये कि अनन्य भाव से आपके चरणकमलों के आश्रित सेवकों की सेवा करने का अवसर मुझे अगले जन्म में भी प्राप्त हो। प्राणवल्लभ! मेरा मन आपके मंगलमय गुणों का स्मरण करता रहे, मेरी वाणी उन्हीं का गान करे और शरीर आपकी सेवा में ही सलंग्न रहे।
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