श्रीमद्भागवत महापुराण: षष्ठ स्कन्ध: सप्तदश अध्यायः श्लोक 33-41 का हिन्दी अनुवाद

(लगातार-सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत पुराण)

श्रीमद्भागवत महापुराण:
षष्ठ स्कन्ध: सप्तदश अध्यायः
श्लोक
33-41 का हिन्दी अनुवाद


भगवान् को न कोई प्रिय है और न अप्रिय। उनका न कोई अपना है न पराया। वे सभी प्राणियों के आत्मा हैं, इसलिये सभी प्राणियों के प्रियतम हैं। प्रिये! यह परम भाग्यवान् चित्रकेतु उन्हीं का प्रिय अनुचर, शान्त और समदर्शी है और मैं भी भगवान् श्रीहरि का ही प्रिय हूँ। इसलिये तुम्हें भगवान् के प्यारे भक्त, शान्त, समदर्शी, महात्मा पुरुषों के सम्बन्ध में किसी प्रकार आश्चर्य नहीं करना चाहिये। श्रीशुकदेव जी कहते हैं- परीक्षित! भगवान् शंकर का यह भाषण सुनकर भगवती पार्वती की चित्तवृत्ति शान्त हो गयी और उनका विस्मय जाता रहा। भगवान् के परम प्रेमी भक्त चित्रकेतु भी भगवती पार्वती को बदले में शाप दे सकते थे, परन्तु उन्होंने उन्हें शाप न देकर उनका शाप सिर चढ़ा लिया। यही साधु पुरुष का लक्षण है। यही विद्याधर चित्रकेतु दानव योनि का आश्रय लेकर त्वष्टा के दक्षिणाग्नि से पैदा हुए। वहाँ इनका नाम वृत्रासुर हुआ और वहाँ भी ये भगवत्स्वरूप के ज्ञान एवं भक्ति से परिपूर्ण ही रहे। तुमने मुझसे पूछा था कि वृत्रासुर का दैत्ययोनि में जन्म क्यों हुआ और उसे भगवान् की ऐसी भक्ति कैसे प्राप्त हुई। उसका पूरा-पूरा विवरण मैंने तुम्हें सुना दिया। महात्मा चित्रकेतु का यह पवित्र इतिहास केवल उनका ही नहीं, वह समस्त विष्णुभक्तों का माहात्म्य है; इसे जो सुनता है, वह समस्त बन्धनों से मुक्त हो जाता है। जो पुरुष प्रातःकाल उठकर मौन रहकर श्रद्धा के साथ भगवान् का स्मरण करते हुए इस इतिहास का पाठ करता है, उसे परमगति की प्राप्ति होती है।

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