श्रीमद्भागवत महापुराण: तृतीय स्कन्ध: त्रयोदश अध्यायः श्लोक 42-50 का हिन्दी अनुवाद


 (लगातार-सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत पुराण)
श्रीमद्भागवत महापुराण:
तृतीय स्कन्ध: त्रयोदश अध्यायः श्लोक 42-50 का हिन्दी अनुवाद

नाथ! चराचर जीवों के सुखपूर्वक रहने के लिये आप अपनी पत्नी इन जगन्माता पृथ्वी को जल पर स्थापित कीजिये। आप जगत् के पिता हैं और अरणि में अग्निस्थापन के समान आपने इसमें धारण शक्तिरूप अपना तेज स्थापित किया है। हम आपको और इस पृथ्वीमाता को प्रणाम करते हैं। प्रभो! रसातल में डूबी हुई इस पृथ्वी को निकालने का साहस आपके सिवा और कौन कर सकता था। किंतु आप तो सम्पूर्ण आश्चर्यों के आश्रय हैं, आपके लिये यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है। आपने ही तो अपनी माया से इस अत्याश्चार्यमय विश्व की रचना की। जब आप अपने वेदमय विग्रह को हिलाते हैं, तब हमारे ऊपर आपकी गरदन के बालों से झरती हुई शीतल बूँदें गिरती हैं। ईश! उनसे भीगकर हम जनलोक, तपलोक और सत्यलोक में रहने वाले मुनिजन सर्वथा पवित्र हो जाते हैं। जो पुरुष आपके कर्मों का पार पाना चाहता है, अवश्य ही उसकी बुद्धि नष्ट हो गयी है; क्योंकि आपके कर्मों का कोई पार ही नहीं है। आपकी योगमाया के सात्वादि गुणों से यह सारा जगत् मोहित हो रहा है। भगवन्! आप इसका कल्याण कीजिये। श्रीमैत्रेय जी कहते हैं- विदुर जी! उन ब्रह्मवादी मुनियों के इस प्रकार स्तुति करने पर सबकी रक्षा करने वाले वराह भगवान् अपने खुरों से जल को स्तम्भित कर उस पर पृथ्वी को स्थापित कर दिया। इस प्रकार रसातल से लीलापूर्वक लायी हुई पृथ्वी को जल पर रखकर वे विष्वक्सेन प्रजापति भगवान् श्रीहरि अन्तर्धान हो गये। विदुर जी! भगवान् के लीलामय चरित्र अत्यन्त कीर्तनिय हैं और उनमें लगी हुई बुद्धि सब प्रकार के पाप-तापों को दूर कर देती है। जो पुरुष उनकी इस मंगलमयी मंजुल कथा को भक्तिभाव से सुनता या सुनाता है, उसके प्रति भक्तवत्सल भगवान् अन्तस्तल से बहुत शीघ्र प्रसन्न हो जाते हैं। भगवान् तो सभी कामनाओं को पूर्ण करने में समर्थ हैं, उनके प्रसन्न होने पर संसार में क्या दुर्लभ है। किन्तु उन तुच्छ कामनाओं की आवश्यकता ही क्या है? जो लोग उनका अनन्यभाव से भजन करते हैं, उन्हें तो वे अन्तर्यामी परमात्मा स्वयं अपना परमपद ही दे देते हैं। अरे! संसार में पशुओं को छोड़कर अपने पुरुषार्थ का सार जानने वाला ऐसा कौन पुरुष होगा, जो आवागमन से छुड़ा देने वाली भगवान् की प्राचीन कथाओं में से एक बार पान करके फिर उनकी ओर से मन हटा लेगा।
साभार krishnakosh.org

श्रीमद्भागवत महापुराण: तृतीय स्कन्ध: त्रयोदश अध्यायः श्लोक 31-41 का हिन्दी अनुवाद


 (लगातार-सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत पुराण)
श्रीमद्भागवत महापुराण:
तृतीय स्कन्ध: त्रयोदश अध्यायः श्लोक 31-41 का हिन्दी अनुवाद

फिर वे जल में डूबी हुई पृथ्वी को अपनी दाढ़ों पर लेकर रसातल से ऊपर आये। उस समय उनकी बड़ी शोभा हो रही थी। जल से बाहर आते समय उनके मार्ग में विघ्न डालने के लिये महापराक्रमी हिरण्याक्ष ने जल के भीतर ही उन पर गदा से आक्रमण किया। इससे उनका क्रोध चक्र के समान तीक्ष्ण हो गया और उन्होंने उसे लीला से ही इस प्रकार मार डाला, जैसे सिंह हाथी को मार डालता है। उस समय उसके रक्त से थूथनी तथा कनपटी सन जाने के कारण वे ऐसे जान पड़ते थे मानो कोई गजराज लाल मिट्टी के टीले में टक्कर मारकर आया हो। तात! जैसे गजराज अपने दाँतों पर कमल-पुष्प धारण कर ले, उसी प्रकार अपने सफ़ेद दाँतों की नोक पर पृथ्वी को धारण कर जल से बाहर निकले हुए, तमाल के समान नीलवर्ण वराह भगवान् को देखकर ब्रह्मा, मरीचि आदि को निश्चय को हो गया कि ये भगवान् ही हैं। तब वे हाथ जोड़कर वेदवाक्यों से उनकी स्तुति करने लगे। ऋषियों ने कहा- भगवान् अजित्! आपकी जय हो, जय हो। यज्ञपते! आप अपने वेदत्रयीरूप विग्रह को फटकार रहे हैं; आपको नमस्कार हैं। आपके रोम-कूपों में सम्पूर्ण यज्ञ लीन हैं। आपसे पृथ्वी का उद्धार करने के लिये ही यह सूक्ष्मरूप धारण किया है; आपको नमस्कार है। देव! दुराचारियों को आपके इस शरीर का दर्शन होना अत्यन्त कठिन है; क्योंकि यह यज्ञरूप है। इसकी त्वचा में गायत्री आदि छन्द, रोमावली में कुश, नेत्रों में घृत तथा चारों चरणों में होता, अध्वर्यु, उद्गाता और ब्रह्मा- इन चारों ऋत्विजों के कर्म हैं। ईश! आपकी थूथनी (मुख के अग्रभाग) में स्त्रुक् है, नासिका-छिद्रों में स्रुवा है, उदार में इडा (यज्ञीय भक्षण पात्र) है, कानों में चमस है, मुख में प्राशित्र (ब्रह्म भाग पात्र) है और कण्ठछिद्र में ग्रह (सोमपात्र) है। भगवन्! आपका जो चबाना है, वही अग्निहोत्र है। बार-बार अवतार लेना यज्ञस्वरूप आपकी दीक्षणीय इष्टि है, गरदन उपसद (तीन इष्टियाँ) हैं; दोनों दाढ़ें प्रायणीय (दीक्षा के बाद की इष्टि) और उदयनीय (यज्ञसमाप्ति की इष्टि हैं; जिह्वा प्रवर्ग्य (प्रत्येक उपसद के पूर्व किया जाने वला महावीर नामक कर्म) है, सिर सभ्य (होमरहित अग्नि) और आवसभ्य (औपासनाग्नि) हैं तथा प्राण चिति (इष्टकाचयन) हैं। देव! आपका वीर्य सोम है; आसन (बैठना) प्रातःसवनादि तीन सवन हैं; सातों धातु अग्निष्टोम, अत्यग्निष्टोम, उक्थ, षोडशी, वाजपेय, अतिरात्र और आप्तोर्याम नाम की सात संस्थाएँ हैं तथा शरीर की सन्धियाँ (जोड़) सम्पूर्ण सत्र हैं। इस प्रकार आप सम्पूर्ण यज्ञ (सोमरहित याग) और क्रतु (सोमरहित याग) रूप है। यज्ञानुष्ठानरूप इष्टियाँ आपके अंगों को मिलाये रखने वाली मांसपेशियाँ हैं। समस्त मन्त्र, देवता, द्रव्य, यज्ञ और कर्म आपके ही स्वरूप हैं; आपको नमसकर है। वैराग्य, भक्ति और मन की एकाग्रता से जिस ज्ञान का अनुभव होता है, वह आपका स्वरूप ही है तथा आप ही सबके विद्यागुरु है; आपको पुनः-पुनः प्रणाम है। पृथ्वी को धारण करने वाले भगवन्! आपकी दाढ़ों की नोक पर रखी हुई यह पर्वतादि-मण्डित पृथ्वी ऐसी सुशोभित हो रही है, जैसे वन में से निकलकर बाहर आये हुए किसी गजराज के दाँतों पर पत्रयुक्त कमलिनी रखी हो। आपके दाँतों पर रखे हुए भूमण्डल के सहित आपका यह वेदमय वराहविग्रह ऐसा सुशोभित हो रहा है, जैसे शिखरों पर छायी हुई मेघमाला से कुलपर्वत की शोभा होती है।

साभार krishnakosh.org

श्रीमद्भागवत महापुराण: तृतीय स्कन्ध: त्रयोदश अध्यायः श्लोक 18-30 का हिन्दी अनुवाद


(लगातार-सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत पुराण)
श्रीमद्भागवत महापुराण:
तृतीय स्कन्ध: त्रयोदश अध्यायः श्लोक 18-30 का हिन्दी अनुवाद

निष्पाप विदुर जी! ब्रह्मा जी इस प्रकार विचार कर ही रहे थे कि उनके नासिकाछिद्र से अकस्मात् अँगूठे के बराबर आकार का एक वाराह-शिशु निकला। भारत! बड़े आश्चर्य की बात तो यही हुई कि आकाश में खड़ा हुआ वह वाराह-शिशु ब्रह्मा जी के देखते-ही-देखते बड़ा होकर क्षण भर में हाथी के बराबर हो गया। उस विशाल वाराह-मूर्ति को देखकर मरीचि आदि मुनिजन, सनकादि और स्वायम्भुव मनु के सहित श्रीब्रह्मा जी तरह-तरह के विचार करने लगे- अहो! सूकर के रूप में आज यह कौन दिव्य प्राणी यहाँ प्रकट हुआ है? कैसा आश्चर्य है! यह अभी-अभी मेरी नाक से निकला था। पहले तो यह अँगूठे के पोरुए के बराबर दिखायी देता था, किन्तु एक क्षण में ही बड़ी भारी शिला के समान हो गया। अवश्य ही यज्ञमूर्ति भगवान् हम लोगों के मन को मोहित कर रहे हैं। ब्रह्मा जी और उनके पुत्र इस प्रकार सोच ही रहे थे कि भगवान् यज्ञपुरुष पर्वताकार होकर गरजने लगे। सर्वशक्तिमान् श्रीहरि ने अपनी गर्जना से दिशाओं को प्रतिध्वनित करके ब्रह्मा और श्रेष्ठ ब्राह्मणों को हर्ष से भर दिया। अपना खेद दूर करने वाली मायामय वराह भगवान् की घुरघुराहट को सुनकर वे जनलोक, तपलोक और सत्यलोक निवासी मुनिगण तीनों वेदों के परम पवित्र मन्त्रों से उनकी स्तुति करने लगे। भगवान् के स्वरूप का वेदों में विस्तार से वर्णन किया गया है; अतः उन मुनीश्वरों ने जो स्तुति की, उसे वेदरूप मानकर भगवान् बड़े प्रसन्न हुए और एक बार फिर गरजकर देवताओं के हित के लिये गजराज की-सी लीला करते हुए जल में घुस गये। पहले से सूकररूप भगवान् पूँछ उठाकर बड़े वेग से आकाश में उछले और अपनी गर्दन के बालों को फटकारकर खुरों के आघात से बादलों को छितराने लगे। उनका शरीर बड़ा कठोर था, त्वचा पर कड़े-कड़े बाल थे, दाढ़े सफ़ेद थीं और नेत्रों से तेज निकल रहा था, उस समय उनकी बड़ी शोभा हो रही थी। भगवान् स्वयं यज्ञपुरुष हैं तथापि सूकर रूप धारण करने के कारण अपनी नाक से सूँघ-सूँघकर पृथ्वी का पता लगा रहे थे। उनकी दाढ़े बड़ी कठोर थीं। इस प्रकार यद्यपि वे बड़े क्रूर जान पड़ते थे, तथापि अपनी स्तुति करने वाले मरीचि आदि मुनियों की और बड़ी सौम्य दृष्टि से निहारते हुए उन्होंने जल में प्रवेश किया। जिस समय उनका वज्रमय पर्वत के समान कठोर कलेवर जल में गिरा, तब उसके वेग से मानो समुद्र का पेट फट गया और उसमें बादलों की गड़गड़ाहट के समान बड़ा भीषण शब्द हुआ। उस समय ऐसा जान पड़ता था मानो अपनी उत्ताल तरंग रूप भुजाओं को उठाकर वह बड़े आर्तस्वर से ‘हे यज्ञेश्वर! मेरी रक्षा करो।’ इस प्रकार पुकार रहा है। तब भगवान् यज्ञमूर्ति अपने बाण के समान पैने खुरों से जल को चीरते हुए उस अपार जलराशि के उस पार पहुँचे। वहाँ रसातल में उन्होंने समस्त जीवों की आश्रयभूता पृथ्वी को देखा, जिसे कल्पान्त में शयन करने के लिये उद्यत श्रीहरि ने स्वयं अपने ही उदर में लीन कर लिया था।

साभार krishnakosh.org

आत्मचिंतन के क्षण.


आत्मचिंतन के क्षण.

👉 धर्म ग्रन्थों में मामूली से कर्म काण्ड के फल बहुत ही बढ़ा-चढ़ा कर लिखे गये हैं। जैसे गंगा स्नान से सात जन्मों के पाप नष्ट होना, व्रत उपवास रखने से स्वर्ग मिलना, गौदान से वैतरणी तर जाना, मूर्ति पूजा से मुक्ति प्राप्त होना, यह सब बातें तत्व ज्ञान की दृष्टि से असत्य हैं; क्योंकि इन कर्मकाण्डों से मन में पवित्रता का संचार होना और बुद्धि का धर्म की ओर झुकना तो समझ में आता है, पर यह समझ में नहीं आता कि इतनी सी मामूली क्रियाओं का इतना बड़ा फल कैसे हो सकता है? यदि होता तो योग यज्ञ और तप जैसे महान साधनों की क्या आवश्यकता रहती? टके सेर मुक्ति का बाजार गर्म रहता। 

👉 भिक्षा अनैतिक है। भिक्षा व्यवसायी की मनोभूमि दिन-दिन पतित होती जाती है। उसका शौर्य, साहस, पौरुष, गौरव सब कुछ नष्ट हो जाता है और दीनता मस्तिष्क पर बुरी तरह छाई रहती है। अपराधी की तरह उसका सिर नीचा रहता है। अपनी स्थिति का औचित्य सिद्ध करने के लिए उसे हजार ढोंग रचने पड़ते हैं और लाख तरह की मूढ़ताएँ फैलानी पड़ती हैं। यह भार जनमानस को विकृत बनाने की दृष्टि से और भी अधिक भयावह है। हर विचारशील का कर्त्तव्य है कि भिक्षा व्यवसाय को निरुत्साहित करे। कुपात्रों को वाणी मात्र से भी उत्साह न दें।

👉 यह नहीं देखना चाहिए कि बुराई से वैभव बढ़ता है। यदि ऐसा हुआ भी तो वह क्षणिक ही होगा। बुराई जितनी जल्दी बढ़ती है, उतनी ही जल्दी नष्ट हो जाती है, साथ ही कर्त्ता को भी नष्ट कर डालती है। आकाश तक फैलती है और अंत में सिकुड़कर स्वयं बुराई करने वाले के सिर पर आकर पड़ती है।

👉 दुष्ट विचार हमारा सबसे बड़ा शत्रु है। पाप का विचार, चोरी, कपट, ईर्ष्या, निराशा का विचार, हमारा सर्वनाश कर सकता है। ईश्वर का एक मानसिक चित्र अंतःकरण में तैयार कर लें और सत्य, प्रेम, न्याय से अपना हृदय नित्य विकसित करते रहें। स्वतंत्रता, स्वच्छन्दता और शान्ति के विचार हमारे दोस्त हैं। ये हमें सिखाएँगे कि जीवन पूर्ण सुखमय है तथा उसके अनुभवों से झगड़ना मूर्खता में शामिल है।

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बोझ.


बो.


एक महात्मा ने पूछा कि सबसे ज्यादा बोझ कौन सा जीव उठा कर घुमता है? 


किसी ने कहा गधा तो किसी ने बैल तो किसी ने ऊंट अलग अलग प्राणियों के नाम बताए। 


लेकिन महात्मा किसी के भी जवाब से संतुष्ट नहीं हुए।

महात्मा ने हंसकर कहा- गधे, बैल और ऊट के ऊपर हम एक मंजिल तक बोझ रखकर उतार देते हैं, लेकिन इंसान अपने मन के ऊपर मरते दम तक विचारों का बोझ लेकर घूमता है। किसी ने बुरा किया है, उसे न भूलने का बोझ, आने वाले कल का बोझ, अपने किये पापों का बोझ। इस तरह कई प्रकार के बोझ लेकर इंसान जीता है।

जिस दिन इस बोझ को इंसान उतार देगा, तब सही मायने मे जीवन जीना सीख जाएगा।

श्रीमद्भागवत महापुराण: तृतीय स्कन्ध: त्रयोदश अध्यायः श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद


(लगातार-सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत पुराण)
श्रीमद्भागवत महापुराण:
तृतीय स्कन्ध: त्रयोदश अध्यायः श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद


वाराह-अवतार की कथा श्रीशुकदेव जी ने कहा- राजन्! मुनिवर मैत्रेय जी के मुख से यह परम पुण्यमयी कथा सुनकर श्रीविदुर जी ने फिर पूछा; क्योंकि भगवान् की लीला-कथा में इनका अत्यन्त अनुराग हो गया था। विदुर जी ने कहा- मुने! स्वयम्भू ब्रह्मा जी के प्रिय पुत्र महाराज स्वायम्भु मनु ने अपनी प्रिय पत्नी शतरूपा को पाकर फिर क्या किया? आप साधुशिरोमणि हैं। आप मुझे आदिराज राजर्षि स्वायम्भुव मनु का पवित्र चरित्र सुनाइये। वे श्रीविष्णु भगवान् के शरणापन्न थे, इसलिये उनका चरित्र सुनने में मेरी बहुत श्रद्धा है। जिनके हृदय में श्रीमुकुन्द के चरणारविन्द विराजमान हैं, उन भक्तजनों के गुणों को श्रवण करना ही मनुष्यों के बहुत दिनों तक किये हुए शास्त्राभ्यास के श्रम का मुख्य फल है, ऐसा विद्वानों का श्रेष्ठ मत है। श्रीशुकदेव जी कहते हैं- राजन्! विदुर जी सहस्रशीर्षा भगवान् श्रीहरि के चरणाश्रित भक्त थे। उन्होंने जब विनयपूर्वक भगवान् की कथा के लिये प्रेरणा की, तब मुनिवर मैत्रेय का रोम-रोम खिल उठा। उन्होंने कहा। श्रीमैत्रेय जी बोले- जब अपनी भार्या शतरूपा के साथ स्वायम्भुव मनु का जन्म हुआ, तब उन्होंने बड़ी नम्रता से हाथ जोड़कर श्रीब्रह्मा से कहा। ‘भगवन्! एकमात्र आप ही समस्त जीवों के जन्मदाता और जीविका प्रदान करने वाले पिता हैं। तथापि हम आपकी सन्तान ऐसा कौन-सा कर्म करें, जिससे आपकी सेवा बन सके? पूज्यपाद! हम आपको नमस्कार करते हैं। आप हमसे हो सकने योग्य किसी ऐसे कार्य के लिये हमें आज्ञा दीजिये, जिससे इस लोक में हमारी सर्वत्र कीर्ति हो और परलोक में सद्गति प्राप्त हो सके’। श्रीब्रह्मा जी ने कहा- तात! पृथ्वीपते! तुम दोनों का कल्याण हो। मैं तुमसे बहुत प्रसन्न हूँ; क्योंकि तुमने निष्कपट भाव से ‘मुझे आज्ञा दीजिये’ यों कहकर मुझे आत्मसमर्पण किया है। वीर! पुत्रों को अपने पिता की इसी रूप में पूजा करनी चाहिये। उन्हें उचित है कि दूसरों के प्रति ईर्ष्या का भाव न रखकर जहाँ तक बने, उनकी आज्ञा का आदरपूर्वक सावधानी से पालन करें। तुम अपनी इस भार्या से अपने ही समान गुणवती सन्तति उत्पन्न करके धर्मपूर्वक पृथ्वी का पालन करो और यज्ञों द्वारा श्रीहरि की आराधना करो। राजन्! प्रजापालन से मेरी बड़ी सेवा होगी और तुम्हें प्रजा का पालन करते देखकर भगवान् श्रीहरि भी तुमसे प्रसन्न होंगे। जिन पर यज्ञमूर्ति जनार्दन भगवान् प्रसन्न नहीं होते, उनका सारा श्रम व्यर्थ ही होता है; क्योंकि वे तो एक प्रकार से अपने आत्मा का ही अनादर करते हैं। मनु जी ने कहा- पाप का नाश करने वाले पिताजी! मैं आपकी आज्ञा का पालन अवश्य करूँगा; किन्तु आप इस जगत् में मेरे और मेरी भावी प्रजा के रहने के लिये स्थान बतलाइ। देव! सब जीवों का निवास स्थान पृथ्वी इस समय प्रलय के जल में डूबी हुई है। आप इस देवी के उद्धार का प्रयत्न कीजिए। श्रीमैत्रेय जी ने कहा- पृथ्वी को इस प्रकार अथाह जल में डूबी देखकर ब्रह्मा जी बहुत देर तक मन में यह सोचते रहे कि ‘इसे कैसे निकालूँ। जिस समय मैं लोक रचना में लगा हुआ था, उस समय पृथ्वी जल में डूब जाने से रसातल में चली गयी। हम लोग सृष्टि कार्य में नियुक्त हैं, अतः इसके लिये हमें क्या करना चाहिये? अब तो, जिनके संकल्पमात्र से मेरा जन्म हुआ है, वे सर्वशक्तिमान् श्रीहरि ही मेरा यह काम पूरा करें।'
साभार krishnakosh.org

श्रीमद्भागवत महापुराण: तृतीय स्कन्ध: द्वादश अध्यायः श्लोक 38-56 का हिन्दी अनुवाद


 (लगातार-सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत पुराण)
श्रीमद्भागवत महापुराण:
तृतीय स्कन्ध: द्वादश अध्यायः श्लोक 38-56 का हिन्दी अनुवाद


इसी प्रकार आयुर्वेद (चिकित्सा शास्त्र), धनुर्वेद (शस्त्र विद्या), गान्धर्ववेद (संगीत शास्त्र) और स्थापत्यवेद (शिल्प विद्या)- इन चार उपवेदों को भी क्रमशः उन पूर्वादी मुखों से ही उत्पन्न किया। फिर सर्वदर्शी भगवान् ब्रह्मा ने अपने चारों मुखों से इतिहास-पुराणरूप पाँचवाँ वेद बनाया। इसी क्रम से षोडशी और उक्थ, चयन और अग्निष्टोम, आप्तोर्याम और अतिरात्र तथा वाजपेय और गोसव- ये दो-दो याग भी उनके पूर्वादी मुखों से ही उत्पन्न हुए। विद्या, दान, तप और सत्य- ये धर्म के चार पाद और वृत्तियों के सहित चार आश्रम भी इसी क्रम से प्रकट हुए। सावित्र, प्राजापत्य, ब्राह्म और बृहत्,- ये चार वृत्तियाँ ब्रह्मचारी की हैं तथा वार्ता, संचय, शालीन और शिलोञ्छ- ये चार वृत्तियाँ ग्रहस्थ की हैं। इसी प्रकार वृत्ति भेद से वैखानस, वालखिल्य, औदुम्बर और फेनप- ये चार भेद वानप्रस्थों के तथा कुटीचक, बहूदक, हंस और निष्क्रिय (परमहंस- ये चार भेद संन्यासियों के हैं। इसी क्रम से आन्वीक्षिकी, त्रयी, वार्ता और दण्डनीति- ये चार विद्याएँ तथा चार व्याहृतियाँ भी ब्रह्मा जी के चार मुखों से उत्पन्न हुईं तथा उनके हृदयाकाश से ॐकार प्रकट हुआ। उनके रोमों से उष्णिक्, त्वचा से गायत्री, मांस से त्रिष्टुप्, स्नायु से अनुष्टुप्, अस्थियों से जगती, मज्जा से पंक्ति और प्राणों से बृहती छन्द उत्पन्न हुआ। ऐसे ही उनका जीव स्पर्शवर्ण (कवर्गादि पंचवर्ग) और देह स्वर वर्ण (अकारादि) कहलाया। उनकी इन्द्रियों को उष्मवर्ण (श ष स ह) और बल को अन्तःस्थ (य र ल व) कहते हैं, तथा उनकी क्रीड़ा से निषाद, ऋषभ, गान्धार, षड्ज, मध्यम, धैवत और पंचम- ये सात स्वर हुए। हे तात! ब्रह्मा जी शब्दब्रह्मस्वरूप हैं। वे वैखरीरूप से व्यक्त और ओंकार रूप से अव्यक्त हैं तथा उनसे परे जो सर्वत्र परिपूर्ण परब्रह्म है, वही अनेकों प्रकार की शक्तियों से विकसित होकर इन्द्रादि रूपों में भास रहा है। विदुर जी! ब्रह्मा जी ने पहला कामासक्त शरीर जिससे कुहरा बना था-छोड़ने के बाद दूसरा शरीर धारण करके विश्व विस्तार का विचार किया; वे देख चुके थे कि मरीचि आदि महान् शक्तिशाली ऋषियों से भी सृष्टि का विस्तार अधिक नहीं हुआ, अतः वे मन-ही-मन पुनः चिन्ता करने लगे- ‘अहो! बड़ा आश्चर्य है, मेरे निरन्तर प्रयत्न करने पर भी प्रजा की वृद्धि नहीं हो रही है। मालूम होता है इसमें दैव ही कुछ विघ्न डाल रहा है। ‘जिस समय यथोचित क्रिया करने वाले श्रीब्रह्मा जी इस प्रकार दैव के विषय में विचार कर रहे थे, उसी समय अकस्मात् उनके शरीर के दो भाग हो गये। ‘क’ ब्रह्मा जी का नाम है, उन्हीं से विभक्त होने के कारण शरीर को ‘काय’ कहते हैं। उन दोनों विभागों से एक स्त्री-पुरुष का जोड़ा प्रकट हुआ। उनमें जो पुरुष था, वह सार्वभौम सम्राट् स्वायम्भुव मनु हुए और जो स्त्री थी, वह उनकी महारानी शतरूपा हुई। तब से मिथुन धर्म (स्त्री-पुरुष-सम्भोग) से प्रजा की वृद्धि होने लगी। महाराज स्वायम्भुव मनु ने शतरूपा से पाँच सन्तानें उत्पन्न कीं। साधुशिरोमणि विदुर जी! उनमें प्रियव्रत और उत्तानपाद दो पुत्र थे तथा आकूति, देवहूति और प्रसूति- तीन कन्याएँ थीं। मनु जी ने आकूति का विवाह रुचि प्रजापति से किया, मझली कन्या देवहूति कर्दम जी को दी और प्रसूति दक्ष प्रजापति को। इन तीनों कन्याओं की सन्तति से सारा संसार भर गया।

श्रीमद्भागवत महापुराण: तृतीय स्कन्ध: द्वादश अध्यायः श्लोक 21-37 का हिन्दी अनुवाद


(लगातार-सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत पुराण)
श्रीमद्भागवत महापुराण:
तृतीय स्कन्ध: द्वादश अध्यायः श्लोक 21-37 का हिन्दी अनुवाद

इसके पश्चात् जब भगवान् की शक्ति से सम्पन्न ब्रह्मा जी ने सृष्टि के लिए संकल्प किया, तब उनके दस पुत्र और उत्पन्न हुए। उनसे लोक की बहुत वृद्धि हुई। उनके नाम मरीचि, अत्रि, अंगिरा, पुलस्त्य, पुलह, क्रतु, भृगु, वसिष्ठ, दक्ष और दसवें नारद थे। इसमें नारद जी प्रजापति ब्रह्मा जी की गोद से, दक्ष अँगूठे से, वसिष्ठ प्राण से, भृगु त्वचा से, क्रतु हाथ से, पुलह नाभि से, पुलस्त्य ऋषि कानों से, अंगिरा मुख से, अत्रि नेत्रों से और मरीचि मन से उत्पन्न हुए। फिर उनके दायें स्तन से धर्म उत्पन्न हुआ, जिनकी पत्नी मूर्ति से स्वयं नारायण अवतीर्ण हुए तथा उनकी पीठ से अधर्म का जन्म हुआ और उससे संसार को भयभीत करने वाला मृत्यु उत्पन्न हुआ। इसी प्रकार ब्रह्मा जी के हृदय से काम, भौहों से क्रोध, नीचे के होंठ से लोभ, मुख से वाणी की अधिष्ठात्री देवी सरस्वती, लिंग से समुद्र, गुदा से पाप का निवास स्थान (राक्षसों का अधिपति) निर्ऋति। छाया से देवहूति के पति भगवान् कर्दमजी उत्पन्न हुए। इस तरह यह सारा जगत् जगत्कर्ता ब्रह्मा जी के शरीर और मन से उत्पन्न हुआ। विदुर जी! भगवान् ब्रह्मा की कन्या सरस्वती बड़ी ही सुकुमारी और मनोहारी थी। हमने सुना है-एक बार उसे देखकर ब्रह्मा जी काममोहित हो गये थे, यद्यपि वह स्वयं वासनाहीन थीं। उन्हें ऐसा अधर्ममय संकल्प करते देख, उनके पुत्र मरीचि आदि ऋषियों ने उन्हें विश्वासपूर्वक समझाया। ‘पिताजी! आप समर्थ हैं, फिर भी अपने मन में उत्पन्न हुए काम के वेग को न रोककर पुत्रीगमन्-जैसा दुस्तर पाप करने का संकल्प कर रहे हैं। ऐसा तो आपसे पूर्ववर्ती किसी भी ब्रह्मा ने नहीं किया और न आगे ही कोई करेगा। जगद्गुरो! आप-जैसे तेजस्वी पुरुषों को भी ऐसा काम शोभा नहीं देता; क्योंकि आप लोगों के आचरणों का अनुसरण करने से ही तो संसार का कल्याण होता है। जिन भगवान् ने अपने स्वरूप में स्थित इस जगत् को अपने ही तेज से प्रकट किया है, उनें नमस्कार है। इस समय वे ही धर्म की रक्षा कर सकते हैं’। अपने पुत्र मरीचि आदि प्रजापतियो को अपने सामने इस प्रकार कहते देख प्रजापतियों के पति ब्रह्मा जी बड़े लज्जित हुए और उन्होंने उस शरीर को उसी समय छोड़ दिया। तब उस घोर शरीर को दिशाओं ने ले लिया। वही कुहरा हुआ, जिसे अन्धकार भी कहते है। एक बार ब्रह्मा जी यह सोच रहे थे कि ‘मैं पहले की तरह सुव्यवस्थित रूप से सब लोकों की रचना किस प्रकार करूँ?’ इसी समय उनके चार मुखों से चार वेद प्रकट हुए। इनके सिवा उपवेद, न्यायशास्त्र, होता, उद्गाता, अध्वर्यु और ब्रह्मा- इन चार ऋत्विजों के कर्म, यज्ञों का विस्तार, धर्म के चार चरण और चारों आश्रम तथा उनकी वृत्तियाँ-ये सब भी ब्रह्मा जी के मुखों से ही उत्पन्न हुए। विदुर जी ने पूछा- तमोधन! विश्व रचयिताओं के स्वामी श्रीब्रह्मा जी ने जब अपने मुखों से इन वेदादि को रचा, तो उन्होंने अपने किस मुख से कौन वस्तु उत्पन्न की-यह आप कृपा करके मुझे बतलाइये। श्रीमैत्रेय जी ने कहा- विदुर जी! ब्रह्मा ने अपने पूर्व, दक्षिण, पश्चिम और उत्तर के मुख से क्रमशः ऋक्, यजुः, साम और अथर्ववेदों को रचा तथा इसी क्रम से शस्त्र (होता का कर्म), इज्या (अध्वर्यु अक कर्म), स्तुतिस्तोम (उद्गाता का कर्म) और प्रायश्चित (ब्रह्मा का कर्म) इन चारों की रचना की।
साभार krishnakosh.org

विश्वास की दौलत.


विश्वास की दौलत.

सऊदी अरब में बुखारी नामक एक विद्वान रहते थे। वह अपनी ईमानदारी के लिए मशहूर थे। एक बार वह समुद्री जहाज से लंबी यात्रा पर निकले। उन्होंने सफर के खर्च के लिए एक हजार दीनार अपनी पोटली में बांध कर रख ली। यात्रा के दौरान बुखारी की पहचान दूसरे यात्रियों से हुई। बुखारी उन्हें ज्ञान की बातें बताते।

एक यात्री से उनकी नजदीकियां कुछ ज्यादा बढ़ गईं। एक दिन बातों-बातों में बुखारी ने उसे दीनार की पोटली दिखा दी। उस यात्री को लालच आ गया। उसने उनकी पोटली हथियाने की योजना बनाई। एक सुबह उसने जोर-जोर से चिल्लाना शुरू कर दिया, ‘हाय मैं मर गया। मेरा एक हजार दीनार चोरी हो गया।’ वह रोने लगा। जहाज के कर्मचारियों ने कहा, ‘तुम घबराते क्यों हो। जिसने चोरी की होगी, वह यहीं होगा। हम एक-एक की तलाशी लेते हैं। वह पकड़ा जाएगा।’

यात्रियों की तलाशी शुरू हुई। जब बुखारी की बारी आई तो जहाज के कर्मचारियों और यात्रियों ने उनसे कहा, ‘अरे साहब, आपकी क्या तलाशी ली जाए। आप पर तो शक करना ही गुनाह है।’ यह सुन कर बुखारी बोले, ‘नहीं, जिसके दीनार चोरी हुए है, उसके दिल में शक बना रहेगा। इसलिए मेरी भी तलाशी भी जाए।’ बुखारी की तलाशी ली गई। उनके पास से कुछ नहीं मिला।

दो दिनों के बाद उसी यात्री ने उदास मन से बुखारी से पूछा, ‘आपके पास तो एक हजार दीनार थे, वे कहां गए?’ बुखारी ने मुस्करा कर कहा, ‘उन्हें मैंने समुद्र में फेंक दिया। तुम जानना चाहते हो क्यों? क्योंकि मैंने जीवन में दो ही दौलत कमाई थीं- एक ईमानदारी और दूसरा लोगों का विश्वास। अगर मेरे पास से दीनार बरामद होते और मैं लोगों से कहता कि ये मेरे हैं तो लोग यकीन भी कर लेते, लेकिन फिर भी मेरी ईमानदारी और सच्चाई पर लोगों का शक बना रहता। मैं दौलत तो गंवा सकता हूं, लेकिन ईमानदारी और सच्चाई को खोना नहीं चाहता।



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प्रेम का अमरत्व और उसकी व्यापकता.


प्रेम का अमरत्व और उसकी व्यापकता.

कोई व्यक्ति जीवन भर प्राइमरी पाठशाला में ही पढ़ते रहने की जिद करे और अगले बड़े स्कूल में जाने के लिए तैयार न हो तो "उसे बाल बुद्धि ही कहा जाएगा।" "प्रेम" का प्रशिक्षण घर-परिवार में हो या किसी वस्तु अथवा व्यक्ति से प्रारम्भ हो, उसकी स्वाभाविकता समझ में आती है, पर जब कोई उतने तक ही सीमाबद्ध होकर रह जाएगा, "आगे न बढ़ेगा तो रुके हुए पानी की तरह सड़न पैदा हुए बिना न रहेगी।'

जो "प्यार" सीमा बद्ध होकर रह जाता है, उसे "मोह" कहते हैं, "मोह" में पक्षपात जुड़ जाता है, औचित्य का ध्यान नहीं रहता। प्रिय पात्र की त्रुटियों का परिमार्जन करने की इच्छा नहीं होती वरन "उन्हें भी प्रिय मानकर समर्थन किया जाने लगता है।" इससे "प्रेम" की महत्ता ही नष्ट हो जाती है।

"प्रेम" गंगाजल है, जिसे जहाँ छिड़का जाए, वहीं पवित्रता पैदा करे," पर यदि वह गंदे नाले में गिरकर अपनी पवित्रता खो दे तो इसे दुर्भाग्य ही कहा जाएगा।

"प्रेम" लगाव का पात्र नहीं है और न पक्षपात के अथवा हर प्रकार के समर्थन-सहयोग का। "उसमें आदर्शो की अविच्छिन्नता जुड़ी रहती है।" "आदर्श विहीन प्यार को "मोह" कहेंगे।" "मोह" अपने प्रिय पात्र के अनुचित कार्यों का भी समर्थन करने लगता है, तब उसकी ऊँचा उठने की क्षमता नष्ट हो जाती है "मोह" को "प्रेम" की विकृति ही कह सकते हैं," इसलिए उसकी प्रशंसा नहीं की जा सकती है।



(अखण्ड ज्योति जनवरी 1972)