सुभाषित संस्कृत श्लोक-भाग-२



सुभाषित संस्कृत श्लोक-भाग-२


श्लोक-
विद्या वित्तं शिल्पं तावन्नाप्नोति मानवः सम्यक्।
यावद् ब्रजति भूमौ देशाद्देशाँतरं दृष्टः ।।
अर्थ- जब तक मनुष्य देश देशान्तरों में भ्रमण नहीं करता, तब तक वह विद्या, धन और कलाकौशल का ज्ञान नहीं प्राप्त कर सकता।

श्लोक-
व्यापाराँतमुत्सज्य वीक्षमाणो वधूमुखम्।
यो गृहष्वब दरिद्रात दुर्मतिः।।
अर्थ- जो मनुष्य कारोबार को छोड़ कर स्त्री का मुख देखता हुआ घर में बैठा रहता है, वह मूर्ख दरिद्री होता है।

श्लोक-
वृदेद् वृद्धानुकूलं यन्न बालसदृशं क्वचित।
परवेश्मगतस्तत्स्त्री वीक्ष्णं कारयेत।।
अर्थ- सदा ज्ञान में वृद्ध पुरुषों के अनुकूल बोले, बालकों की भाँति बक बक करे। दूसरे के घर जाकर वहां की स्त्रियों की ओर कभी देखे।

श्लोक-
अयं निजः परोवेति गणना लघु चेतसाम्।
उदाचरितानाँ तु वसुधैव कुटुम्बकम्।।
अर्थ- यह मेरा है और यह पराया हैऐसा तुच्छ चित्तवालों का विचार है। उदार पुरुषों के लिये तो सारी पृथ्वी ही कुटुम्ब के समान है।

श्लोक-
अपकारिषु यः साधुः साधुः सद्भिरुच्यते।
उपकारिषु यः साधुः साधुत्य तस्य का गुणः।।
अर्थ- जो अपकार करने वाले के साथ भी उपकार करता है, वही सज्जन है, और उपकार करने वाले के साथ उपकार करने में क्या सज्जनता है? (वह तो बदला चुकाना है)

श्लोक-
जीवामि शतवर्ष तु नन्दामि धनेन वै।
इति बुद्ध्या संचिनुयाद्धनं विद्यादिकं सदा।।
अर्थ- मैं सौ वर्ष तक जीऊंगा और धन से आनन्द भोगूँगा, यह निश्चय करके धन और विद्या का उपार्जन करे।

श्लोक-
प्रथमे नार्जिता विद्या द्वितीये नार्जितं धनम्।
तृतीये नार्जितं पुण्यं चतुर्थे किं करिष्यति।।
अर्थ- बाल्यावस्था में जिसने विद्या नहीं पढ़ी, युवावस्था में धन नहीं पैदा किया और वृद्धावस्था में धर्म नहीं किया, वह मरने के समय क्या करेगा?

श्लोक-
यात्यधोऽधो व्रजत्युच्चौर्नरः स्वैरेव कर्मभिः।
कूपस्य खनिता यद्वत्प्राकारस्येव कारकः।।
अर्थ- अपने ही कर्मों से मनुष्य ऊंचा चढ़ता है और गिर जाता है। जैसे कुएं का खोदने वाला नीचे जाता है और दीवार का बनाने वाला ऊंचा चढ़ता है।

श्लोक-
उद्यमेन हि सिद्धयन्ति कार्याणि मनोरथैः।
कातरा इति जल्पंति यद्भाव्यं तदभविष्यति।।
अर्थ- कार्य परिश्रम करने से ही पूरे होते हैं, केवल इच्छा करने से नहीं। जो होनहार है, वह होगाऐसा आलसी मनुष्य कहते है।

श्लोक-
उद्यमः, साहस, धैर्य, बुद्धिः, शक्तिः पराक्रमः।
षडेते यत्र वर्त्तते तत्र दैव सहाय कृत्।।
अर्थ- उद्योग, साहस, धैर्य, बुद्धि, शक्ति और पराक्रम ये छः गुण जिसमें होते हैं, भाग्य भी उसी की सहायता करता है।

श्लोक-
विद्या विवादाय धनं मदाय। शक्तिः परेषाँ परिपीडनाय।।
खलस्य साधोर्विपरीतमेतत्। ज्ञानाय दानाय रक्षणाय।।
अर्थ- दुष्टों की विद्या विवाद करने के लिये, धन अभिमान करने के लिये और शक्ति दूसरों को कष्ट पहुँचाने के लिये होती है, परन्तु सज्जनों की विद्या ज्ञान के लिए, धन दान के लिए और शक्ति दूसरों की रक्षा करने के लिए होती है।

श्लोक-
गुणिनागुणेषुसत्स्वपिपिशुनजनोदोषमात्रभादत्ते।
पुष्पे फले विरागी क्रमेलकः कण्टकोघमिव।।
अर्थ- जैसे ऊंट फल फूलों को छोड़कर केवल काँटों को खाता है, इसी प्रकार दुष्ट मनुष्य गुणियों में गुण के रहते हुए भी उनके दोष ही को देखता है।

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