अति भावुकता से बचे.



अति भावुकता से बचे.

आप शांत  मन और  बुद्धि से आगा-पीछा सोच कर ही अपना निर्णय किया करें। दिखावटी  संवेदनाओ  और भ्रम में डालने  में वाली दया से सावधान रहें। ईश्वर ने बुद्धि और विवेक नाम की दो शक्तियां दी हैं, उन्हें जगाकर बात को तय करना ठीक रहेगा।

विवेक नीर-क्षीर, सुख-दुःख, हानि-लाभ, जय-पराजय का अन्तर बताने वाली शक्ति है। जब आदमी उसके अनुसार जीवन चलाता है तो कोमल भावों को गलत स्थान पर दबा लेने से सुरक्षित रहता है।

कोई बड़ी बात तय करने से पूर्व यह देखिये कि मन में अनावश्यक भाव तो नहीं भरे हुए हैं। आदमी जिसके प्रति प्रेम, दया, करुणा, ममत्व, स्नेह रखता है उसके पक्ष में निर्णय करते हुये पक्षपात कर बैठता है। अनावश्यक दया और बिना जरूरी करुणा से अनर्थ भी सम्भव है। सजा ताड़ना और अपराधियों को जरूरी मार कूट मिलनी जरूरी है। दुष्ट बिना सख्ती किए अपनी दुष्टता नहीं छोड़ते हैं।

आपके जीवन में विवेक, बुद्धि, कर्तव्य-भावना और स्थाई कर्म का प्राधान्य होना चाहिए। धैर्यपूर्वक आप यह सोचें कि कहीं क्षणिक भावुकता में तो आप कोई गैर जिम्मेदारी से भरा निर्णय नहीं कर रहे हैं? उसके अन्तिम परिणाम क्या हो सकते हैं और क्या आप उन्हें संभाल सकेंगे।

आप दयावान्, सहानुभूतिपूर्ण, प्रेममय बनें, पर इतने कोमल न बन जायें कि दूसरे आपको हड़प डालें, आपको कर्ज में फंसा दें या आपके सद्भाव, प्रेम, मित्रता का नाजायज फायदा उठायें। आपका मन भावोद्रेक से बचकर पूर्ण-धैर्यवान्, पूर्ण-शान्त और पूर्ण सन्तुलित रहे। भावनाग्रस्त मनुष्य की विवेक-बुद्धि मन्द पड़ जाती है। उन भावुक क्षणों में वह एक पागल की तरह परिणाम सोचे बिना ही काम कर डालता है। आप इस कमजोरी से सुरक्षित रहें और आवेश के क्षणों में शान्ति एवं सन्तुलन बनाये रखें।

भावुकता, अति कोमलता, तनिक सी बात में घबरा उठना उत्तेजित हो उठना, क्रोध, आवेग, ईर्ष्या अथवा प्रतिशोध से परिपूर्ण हो उठना मानसिक कमजोरियां हैं। भावुक व्यक्ति का विवेक शिथिल हो उठता है। माताएं और पत्नियां प्रायः अति भावुकता में पड़कर पुत्रों और पतियों की अनुचित बातें मान लेती हैं और उन्हें खुद ममता और प्रेमवश बिगाड़ डालती हैं। जरा सी अप्रियता होते ही वह पराकाष्ठा तक उत्तेजित हो उठती है, आंखों को गर्म-गर्म आंसुओं से भर लेती हैं। आवेश की मनः स्थिति में रहती है। यह सब पागलपन पैदा करने वाली मनः स्थितियां हैं। इन से बचे रहने में ही मनुष्य का हित है। अति कोमलता, अति दया, अति प्रेम, भय, क्रोध, उत्तेजना, अहंकार, बुद्धि विवेक के मार्ग में रोड़े हैं।

पूर्ण शान्त और सन्तुलित रहा कीजिए। सदाचारी, शान्त, विवेकी और सहिष्णु व्यक्ति ही इस कमजोर संसार में जीवित हैं। मानसिक कष्ट, दूसरों की कटु आलोचनायें और कठिनाई को सौ बार सहन करके भी सहिष्णुता का अभ्यास करना चाहिए।

आप न इतने नर्म बनें कि हर स्थान पर दबे-दबे रहें, न इतने गर्म कि हर एक आप से नफरत करे।

आप दूसरों पर दया, करुणा, स्नेह, ममता, प्यार, दिखावें। पर इतने मुलायम न बन जायें कि हर कोई आप को ठग ले। जो लोग प्रायः आपको भावुक बनाते हैं, उनमें अनेक दुष्ट और मक्कार भी छिपे रहते हैं, उनसे सदा सावधान रहना चाहिये। आपकी दया सीमित रहे। आपका प्यार संयमित रहे और आपकी करुणा विवेकपूर्ण हो, आप जब किसी को दान दें, तो शांत चित्त से अच्छाई बुराई पर खूब विचार करलें। आप कहीं मित्रता के सम्बन्ध स्थापित करें, तो भावुकता में न बहकर यथार्थ की ठोस आधार भूमि पर खड़े होकर निर्णय करें। आप दूसरों से सहानुभूति करें, पर सोच समझकर। आप सौहार्द प्रदर्शित करें, पर ऐसा न हो कि कोई आपसे अनुचित फायदा उठाये। आप इतने मीठे न बनें कि लोग आपको निगल ही डालें। थोड़ी-सी प्रशंसा करके मक्कार आदमी आपको ठग न लें। मामूली खुशामद से आप इतराने न लगें। आपकी तारीफ कर, आपके मातहत अनुचित लाभ न उठाने लगें।

कहा भी है—

यः सपत्नो योऽसपत्नो यश्च द्विषञ्छपाति नः ।
देवास्तं सर्वे धूर्वन्तु ब्रह्म वर्म ममान्तरम् ।।
अथर्ववेद 1।19।4

आशय —जो हमारे हितों को नष्ट करना चाहता हो, हम उस मक्कार छद्मवेशी को नष्ट करदें। दुष्ट पुरुषों में से जो हमें भावुक बना कर अपना उल्लू सीधा करना चाहते हैं हमें उससे सदैव आत्मरक्षा करनी चाहिए। (भावुकता में बहकर) बुरे लोगों की ठीक तरह पहचान न कर पाने से ही प्रायः लोगों का अहित हो जाता है इसलिए (झूठी भावुकता छोड़ कर) भले बुरे का विवेक हम सर्वदा बनाये रहें। अति भावुकता जैसी मानसिक दुर्बलता से सावधान रहें।

मक्कार और चालबाज़ आदमी आपको धोखा देने की दृष्टि से झूठी प्रशंसा कर आपको दयार्द्र या अपने पर कृपालु बना लेते हैं। वे मौका देखकर दगा दे जाते हैं। वे जो तारीफ करते और बातें बनाते हैं, अपने छिपे स्वार्थों को पूर्ण करने की दृष्टि से ही किया करते हैं। ऐसे खुशामदी और दुमुंहे व्यक्तियों से सावधान रहने की जरूरत है। कहा है—

यो मा पाकेन मानव चरन्तमभिचष्ठे अनृतोभिवचोभिः ।
आप इवकाशिना सङ्गभीता असन्नस्त्वासत इन्द्र वक्ता ।।
ऋग्वेद 7।10।4।8

आशय ‘‘जो व्यक्ति आपकी कोमलता, दया, करुणा, दानशीलता, मित्रता, प्रेम आदि भावुक बनाने वाली वृत्तियों का अनुचित लाभ उठाना चाहते हैं, ऐसे मिथ्यावादी और असत्य भाषण करने वाले दुराचारियों, मक्कारों से घृणा करनी चाहिए।’’

मन की अति कोमलता एक दुर्गुण है। आदमी को मुसीबतें और हर प्रकार की कठिनाइयां सहने को हर समय तैयार रहना चाहिए। हर स्थिति में मन को शान्त और सन्तुलित रखने का अभ्यास करना चाहिए।

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