आन्तरिक शत्रुओं से भी लड़ा जाए.



आन्तरिक शत्रुओं से भी लड़ा जाए.

जब किसी मनुष्य का शरीर कमजोर हो जाता है तो उस पर नाना प्रकार की बीमारियाँ आक्रमण करने लगती हैं। मन कमजोर हो जाय तो चिन्ता, भय, शोक, घबराहट, वासना आदि का प्रकोप होने लगता है। आर्थिक कमजोरी में अभाव अपमान और अव्यवस्था का सामना करना होता है। इस संसार में कमजोरी सबसे बड़ा अपराध है। कमजोरी को मिटा डालने के लिए प्रकृति के विविध विधि कुचक्र चलते रहते हैं। यहाँ देर तक वे ही ठहर पाते हैं जो अपने को सुदृढ़, सफल एवं समर्थ सिद्ध कर सकते हैं। कमजोरी का पता चलने पर उसका शोषण करने के लिए आस-पास के दुष्ट दुरात्माओं के मन में अनायास ही लालच पैदा होता है, दुर्बल को हड़प जाने के लिए दुरभिसंधियाँ बनने लगती हैं।

आन्तरिक दुर्बलता की भयंकरता-

पिछली शताब्दियों में भारत को अपनी आन्तरिक कमजोरियों का भारी दंड भुगतान पड़ा है। आंतरिक फूट और पारस्परिक ईर्ष्या-द्वेष का पता जब पड़ोसियों को लगा तो डाकुओं के छोटे-छोटे गिरोह हमलावर हो गये और उन्होंने बात की बात में देखते-देखते इतने बड़े देश को लूटने और पैरों तले दबाने में सफलता प्राप्त कर ली। यदि आन्तरिक फूट न होती, एकता, देशभक्ति और संगठन की शक्तियाँ जागृत रही होतीं तो इतने वर्षों तक गुलामी की जंजीरों में जकड़े रहने की अनहोनी बात हो सकने का कोई कारण न था।

इतनी बड़ी संख्या में जो मुसलमान आज दिखाई पड़ते हैं उनके पूर्वजों ने जान बूझ कर धर्म त्याग नहीं किया था। उनमें से किसी को झूठा पानी पिला दिया, छुआ खिला दिया तो उसका धर्म भ्रष्ट मान लिया गया, तो उसे जाति बहिष्कृत करके विधर्मी बने रहने को विवश किया गया। स्त्रियों से कोई चूक हो गई तो उन्हें विधर्मियों की ही शरण में स्थल मिल सका। जहाँ संसार में सब धर्म, दूसरे धर्म वालों को अपने में मिलाने का सहर्ष स्वागत करते हैं वहाँ हमने इसके लिए द्वार बन्द रखे, इतना ही नहीं अपनों को भी धकेल-धकेल कर विधर्मियों की गोद में पटकते रहे। उनकी संख्या बढ़ते-बढ़ते इतनी पहुँच गई कि देश का दिया गुल हो गया। छोटी सी संकीर्णता का कितना बड़ा दंड हमें भुगतना पड़ रहा है।

आक्रमण का प्रलोभन-
चीन का आक्रमण उसकी इसी कल्पना पर आधारित था कि भारत आज भी आन्तरिक दृष्टि से अत्यन्त दुर्बल देश है। इसे छोटे से आक्रमण में ही झकझोरा, परास्त किया और अपने पैरों तल रौंदा जा सकता है। सौभाग्य से उसका मनचीता नहीं हो पाया। सामरिक संतुलन की दृष्टि से जो कमी थी वह मित्र राष्ट्रों की उदार सहायता से पूरी हो गई और देश में भी अनेकों कारखाने आधुनिक अस्त्र शस्त्रों का निर्माण करने में लगे हुए हैं। इस प्रकार शस्त्र बल की कमी जल्दी ही पूरी हो जायगी। पर इतने से ही काम चलने वाला नहीं है। हमें अपनी दुर्बलताओं पर भी ध्यान देना होगा जिनके कारण भीतर ही भीतर हम खोखले होते चले जा रहे हैं। यदि ये कमियाँ पूरी न की गईं तो स्थायी रूप से आजादी कायम रखना और समय की प्रतिस्पर्धा में खड़े रह सकना अन्ततः दुर्लभ ही हो जायगा।

सामाजिक कुरीतियाँ

सामाजिक कुरीतियाँ को ही लीजिए- जाति पाँति के नाम पर हम कितने अधिक खंडों में, उपराष्ट्रों में बंटे हुए हैं? अलगाव की यह मान्यतायें कभी एक जाति एक समाज के रूप में हमें सोचने नहीं देतीं। चुनावों में, नौकरियों में, संस्थाओं में भीतर ही भीतर जातीय पक्षपात काम करता रहता है। जातियों के बीच परस्पर घृणा और फूट के बीज पनपते रहते हैं। प्रान्तीयता, भाषावाद, सम्प्रदायवाद अनेक निमित्तों को लेकर फूट के बीज हमारे मनों में घुसे बैठे रहते हैं और वे कोई न कोई ऐसे अवसर उत्पन्न करते रहते हैं जिनसे परस्पर लड़ाई झगड़ों में, ईर्ष्या द्वेष में शक्ति का एक बड़ा भाग बर्बाद होता रहे। एक उदीयमान राष्ट्र के नागरिकों में जो परस्पर प्रेम, एकता, सौजन्य, सहयोग और मिलजुल कर आगे बढ़ने का उत्साह होना चाहिए, उसे पूर्ण रूप से जागृत करना आवश्यक है। इसके बिना हम सच्चे अर्थों में एक राष्ट्र न बन सकेंगे।

महिलाओं को पर्दे में रखने की, शिक्षा और स्वावलम्बन की दृष्टि से उन्हें पिछड़ा रखने की कुरीति हमारे आधे राष्ट्र को पक्षाघात की बीमारी होने के समान है। आधी जनसंख्या कैदी की तरह पराधीन, परमुखापेक्षी, परावलम्बी, अशिक्षित और अविकसित स्थिति में पड़ी रहे तो राष्ट्र के लिए वे भारभूत ही रहेंगी। ये न तो अच्छा पारिवारिक जीवन निर्माण कर सकेंगी और न संस्कारवान नई पीढ़ी पैदा कर सकने की क्षमता उनमें होगी। यह बुराई राष्ट्र को दुर्बल बनाने वाली एक प्रमुख कमजोरी है।

अपव्यय की विभीषिका -

विवाह शादियों में अन्धाधुन्ध अपव्यय दहेज प्रथा, जेवर , चढ़ाव आदि की कुरीतियों में हिन्दू गृहस्थ की प्रायः आधी कमाई खर्च हो जाती है। इससे जीवन विकास का आवश्यक क्रम टूटता है। कर्जदारी बढ़ती है और चोरी बेईमानी करने के लिए लोगों को विवश होना पड़ता है। झूठी शेखी-खोरी की लत पड़ती है। अपव्यय से अनुपयोगी कार्यों को प्रोत्साहन मिलता है। विवाह शादी आज हमारे लिए आर्थिक स्थिति को अस्त−व्यस्त करने वाली कुरीतियों के केन्द्र बने हुए हैं। आर्थिक उन्नति के छोटे मोटे प्रयत्नों से देश की स्थिति जितनी सुधरने की आशा की जाती है उससे कई गुनी तो इन कुरीतियों में ही नष्ट हो जाती है। यदि समाज सुधारकों के प्रयत्न से अथवा कानूनी प्रतिबंध से विवाह एक हल्की सी महत्वहीन बात मान ली जाय तो देश की आर्थिक स्थिति उससे अधिक सुधर सकती है जितनी पंचवर्षीय योजनाओं से भी नहीं बढ़ सकती। अपव्यय होने वाला यह धन यदि उत्पादन कार्यों में लगे तो बिना विदेशी मुद्रा के हम आर्थिक दृष्टि से काफी समृद्ध और सम्पन्न हो सकते हैं।

नशेबाजी में बेहिसाब धन बर्बाद होता है। प्रायः कई लाख रुपया प्रतिदिन का हम तमाखू पीते हैं। अन्य नशे इतनी ही कीमत के माने जायें तो दस पाँच लाख प्रतिदिन की बचत, वर्ष में 10-15 करोड़ रुपया वार्षिक की बचत और स्वास्थ्य की बर्बादी की रक्षा दोनों मिला कर इतनी बड़ी बचत बन सकती है जिसका उपयोग यदि कृषि और उद्योग धन्धों के बढ़ाने में किया जाय तो धन समृद्धि की कोई कमी देश में न रहे।

यह भी उपेक्षणीय नहीं-

अशिक्षा का प्रश्न बहुत बड़ा मालूम पड़ता है। पर यदि प्रत्येक शिक्षित व्यक्ति देशभक्ति की दृष्टि से एक वर्ष में पाँच प्रौढ़ों को शिक्षित बनाने का उत्तर दायित्व अपने कंधे पर ले ले तो दो वर्ष में एक भी भारतीय नागरिक अशिक्षित न रहे और इसके लिए सरकार पर किसी प्रकार का आर्थिक बोझ भी न पड़े।

धार्मिक क्षेत्र में एक निठल्ली पलटन मुफ्त का माल चरती है। यह देश की आर्थिक कमर तोड़े डालती है। 56 लाख भिक्षुकों का पालन पोषण इस गरीब देश को करना पड़ता है। फिर वे मुफ्त का माल खाने वाले लोग अपनी उपयोगिता सिद्ध करने के लिए नाना प्रकार के प्रपंच रचते और बुद्धि-भ्रम फैलाते है जिसके कारण जनता की अपार हानि होती है। 56 लाख सेना तो भारत और चीन दोनों की मिल कर भी नहीं हैं। फिर इतनी बड़ी निठल्लों की सेना पर होने वाला खर्च और उनके काम की क्षति देश की भारी बर्बादी का कारण बनी हुई है। इन लोगों को कुछ उपयोगी काम करने में लगाया जा सके और धर्म के लिए व्यय होने वाले धन को लोक हित के कार्यों में लगाया जा सके तो यह आन्तरिक दुर्बलता दूर करने वाली एक बहुत बड़ी बात हो सकती है।

स्वार्थपरता और दुष्प्रवृत्तियाँ-

सामूहिक हित की परवा न करके व्यक्ति गत स्वार्थ के लिए उत्सुक रहना यह हमारी एक आम प्रवृत्ति बनी हुई है। सभी वर्गों के लोग यह सोचते हैं कि मेरा व्यक्ति गत स्वार्थ किसी भी प्रकार पूरा हो भले ही उससे दूसरों को या सारे समाज को कितनी ही बड़ी क्षति पहुँचे। खाद्य पदार्थों में मिलावट, नकली औषधियाँ, रिश्वतखोरी, धोखेबाजी, हराम खोरी आदि बेईमानी आदतें हर क्षेत्र में पनपती दिखाई पड़ी हैं। उससे परस्पर अविश्वास और विक्षोभ बढ़ता है। सामूहिक उन्नति में भारी बाधा पड़ती है और इन दुष्प्रवृत्तियों में लगे हुए लोगों का आत्म बल दिन-दिन क्षीण होते चले जाने से वे अपराधी और कायर मनोवृत्ति के बन जाते हैं। ऐसे लोगों की बुरी आदतें अन्य अनेकों प्रकार के अनैतिक कार्यों को जन्म देती हैं। बुरे रास्ते से कमाया हुआ पैसा सदा ही कोई न कोई कुकर्म करने की प्रेरणा करता है। जुआ, सट्टा, लाटरी आदि के द्वारा या चोरी, बेईमानी, छल, शोषण आदि के आधार पर इकट्ठा हुआ बिना मेहनत का धन जहाँ कहीं भी रहेगा वहाँ दुष्टता ही पनपेगी। इसलिए श्रमपूर्वक, ईमानदारी के साथ, उचित आवश्यकताओं की पूर्ति भर के लिए, सीमित मात्रा में धन कमाने की आदत यदि लोगों को पड़ेगी तो ही राष्ट्रीय चरित्र का विकास होगा। समाज को हानि पहुँचा कर व्यक्ति गत स्वार्थ के लिए किये जाने वाले कार्यों से जब लोग हृदय से घृणा करना सीखेंगे तो ही हम स्वस्थ विकास के द्वारा होने वाले लाभों से लाभान्वित हो सकेंगे।

उच्च चरित्र की महान शक्ति-

आदर्शवादी विचार धाराओं का अन्तःकरण में प्रतिष्ठापित होना मनुष्य का सबसे बड़ा बल है। सत्य, धर्म, आस्तिकता और कर्तव्यपरायणता की भावनाओं से ओतप्रोत दया, मैत्री, उदारता प्रेम परोपकार और संयम पर आस्था रखने वाला व्यक्ति हजार हाथियों से अधिक बलवान होता है। इसके विपरीत स्वार्थी, कायर, लोभी और दुर्गुणी व्यक्ति चाहे कितना ही धनी, बली या साधन सम्पन्न क्यों न हो वस्तुतः अत्यन्त दुर्बल रहेगा। अवसर आने पर उसकी स्थिति तिनके के समान तुच्छ सिद्ध होगी। चरित्रवान नागरिकों के निर्माण का प्रयत्न बारूद और हथियारों के कारखाने बनाने समान ही युद्ध विजय की दृष्टि से आवश्यक है।

चीन के बर्बर आक्रमण ने हमारा ध्यान उन आन्तरिक दुर्बलताओं की ओर आकृष्ट किया है जिनके कारण हमें पिछली शताब्दियों में यंत्रणाओं और लाँछनाओं का शिकार होना पड़ा। इनसे छुटकारा पाने के लिए भी हमें शत्रु से लड़ने के समान ही संघर्ष करना होगा। यह भीतरी चाओ माओ और भी अधिक घृणित हैं क्योंकि बाहरी शत्रु तो अवसर पर ही आक्रमण करते हैं यह भीतरी शत्रु तो चौबीसों घंटे अपनी जड़ खोखली करते रहते हैं।

उपरोक्त पंक्तियों में कुछ थोड़े से आन्तरिक शत्रुओं की चर्चा की गई है। ऐसों अनेकों दुर्बलताएँ हमारे वैयक्तिक और सामाजिक जीवन में घुसी हुई हैं। इन्हें बारीकी से देखना और समझना होगा और उनके उन्मूलन का भी युद्ध स्तर पर ही प्रयत्न करना होगा। अखंड ज्योति की युग निर्माण योजना इसी आधार पर अग्रसर होने जा रही है।

(अखंड ज्योति,जनवरी, 1963)

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