अहंकार छोड़ें अहंभाव अपनाएं.



अहंकार छोड़ें अहंभाव अपनाएं.

अहंकार और अहंभाव देखने में एक जैसे लगते हैं और उनको निन्दास्पद समझा जाता है पर वस्तुतः ऐसी बात है नहीं। दोनों में से केवल अहंकार ही निन्दनीय है। अहंभाव तो जीवन का मेरुदण्ड है, यदि वह न हो तो सीधा खड़ा रहना ही कठिन हो जाय।

अहंकार कहते हैं- भौतिक वस्तुओं और शारीरिक क्षमता पर इतराने को- इन कारणों से अपनों को दूसरों से श्रेष्ठ समझने को- अपनी इस उपलब्धि का ऐसा भौंड़ा प्रदर्शन करने को जिससे औरों पर अपने बड़प्पन की छाप पड़े। यह प्रवृत्ति यह जताती है कि यह व्यक्ति सम्पदाओं को हजम नहीं कर पा रहा है और वे ओछेपन के रूप में फूट कर निकल रही हैं।

अन्न जब पचता नहीं तो उलटी और दस्त के रूप में फूटता है। अन्न श्रेष्ठ था पर जब वह इस प्रकार घिनौना होकर बाहर निकलता है तो देखने वाले का जी बिगड़ता है और उस रोगी को भी कष्ट होता है। अन्न बुरा नहीं है और न उसका खाया जाना है। चिन्ता का विषय ‘हैजा’ है। सम्पदाएं बुरी नहीं, उनका होना हेय नहीं, पर उनका नशा बुरा है- जिसे अहंकार कहते हैं।

चावल, जौ, गुड़ इनमें से कोई भी बुरा नहीं। इन्हें हविष्यान्न कहते हैं। पर इन्हें सड़ा कर जब शराब बनाई जाती है तो वह अहितकर और अवाँछनीय बन जाती है। सम्पदा जब विकृत होकर किसी व्यक्ति के मन पर छाती है तो वह नशे जैसा प्रभाव करती है और मनुष्य उन्मत्त होकर उद्धत आचरण करने लगता है। सम्पदाओं की जब ऐसी ही प्रतिक्रिया होती है तो उसे अहंकार कहा जाता है।

अहंकारी व्यक्ति इस भ्रम में पड़ जाता है कि वह उपलब्धियों के कारण दूसरों से बहुत बड़ा हो गया। उसकी तुलना में और सब तुच्छ हैं। सबको उसकी सम्पदाओं का विवरण जानना चाहिए और उस आधार पर उसकी श्रेष्ठता स्वीकार करके सम्मान प्रदान करना चाहिए। इस प्रयोजन के लिए वह विविध विधि ऐसे आचरण करता-ऐसे प्रदर्शन करता है जिससे लोग उसका बड़प्पन भूल न जायें। भूल गये हों तो फिर याद कर लें। उसके वार्तालाप में आधे से अधिक भाग आत्म प्रशंसा का होता है। बात-बात में अपने वैभव, पराक्रम और बुद्धिमत्ता की चर्चा करता है और अपने को सफल सिद्ध करता है। यद्यपि ऐसा करने की कोई आवश्यकता नहीं होती।

शारीरिक बलिष्ठता गुण्डागर्दी में उभरती है। इसमें यही प्रवृत्ति काम करती है कि लोग उसके बल पर अपना ध्यान केन्द्रित करें, उसे सराहें। यह प्रयोजन अच्छे-सत्कार्य करके भी पूरा किया जा सकता था पर ओछे मनुष्य का दृष्टिकोण उतना परिष्कृत होता कहाँ है? उसे यह बात सूझती कब है। उसमें उस प्रकार की योग्यता भी कब रहती है। सरल उद्दण्डता पड़ती है। किसी का अपमान कर देना, सताना, तोड़ फोड़, अपशब्द, अवज्ञा, उच्छृंखलता, मर्यादाओं का व्यतिक्रम यही बातें ओछे व्यक्ति आसानी से कर सकते हैं। सो ही वे करते हैं। यह विकृत अहंकार ही गुण्डागर्दी के रूप में फूटता है।

किसी का रंग गोरा हो- छवि सुन्दर हो, तो उसके इतराने के लिये यह भी बहुत है। फिर उसके नखरे देखते ही बनते हैं। छवि को सजाने में ऐसा लगा रहता है मानो शृंगार का देवता वही हो। अन्य लोग उसे अष्टावक्र की तरह काले कुरूप दीखते हैं और कामदेव का अवतार अपने में ही उतरा दीखता है। उसकी इस विशेषता को लोग देखें तो- समझें तो-सराहें तो यही धुन हर घड़ी लगी रहती है। तरह तरह के वेश विन्यास, शृंगार सज्जा की ही उधेड़बुन छाई रहती है। दर्पण को क्षण भर के लिए छोड़ने को भी जी नहीं करता। यह रूप का प्रदर्शन करने की प्रवृत्ति भिन्न लिंग वालों को आकर्षित करने की ओर बढ़ती है। पुरुष स्त्रियों के सामने और स्त्रियाँ पुरुषों के सामने इस तरह बन-ठन कर निकलते हैं जिससे उन्हें ललचाई आँखों से देखा जाय। वर्तमान शृंगारिकता इसी ओछेपन को लेकर बढ़ रही है और उसकी प्रतिक्रिया मानसिक व्यभिचार से आरम्भ होकर शारीरिक व्यभिचार में परिणत हो रही है। अहंकार की यह रूप परक प्रवृत्ति उस सुसज्जा शृंगारी को ऐसे जाल-जंजाल में फँसा देती है जिससे वह अपनी प्रतिष्ठा और शालीनता गँवाकर विपत्ति ही मोल लेता है।

धन का अहंकार ऐसे ठाट-बाट खड़े करता है जिससे उसकी अमीरी सबको विदित हो। मोटर, बँगले, जेवर, वस्त्र ठाट-बाट का इतना बवण्डर जमा कर लिया जाता है जिसके बिना आसानी से काम चलता रह सकता था। विवाह शादियों में लोग अन्धाधुन्ध पैसा फूँकते हैं। उसके पीछे अपनी अमीरी का विज्ञापन करने के अतिरिक्त और कोई लाभ नहीं होता। महँगी चीजें सुरुचि के नाम पर अनावश्यक मात्रा में खरीदी जाती हैं पर वस्तुतः उसका कारण अमीरी की छाप डालना ही होता है। कई व्यक्ति दान पुण्य का ढोंग भी बनाते हैं। यद्यपि उदारता और परमार्थ का नाम भी उनके भीतर नहीं होता पर लोग उनकी अमीरी की बात जानें यह प्रयोजन जिनसे पूरा होता है- उन्हीं दान पुण्यों को अपनाते हैं। ऐसे लोगों का आधा धन प्रायः इन्हीं विडम्बनाओं में खर्च हो जाता है इस प्रकार उस अहंकार की पूर्ति का वे महँगा मूल्य चुकाते रहते हैं।

विद्या का अभिमान और भी अधिक विचित्र है। विद्या का फल ‘विनय’ होना चाहिए। पर यदि विद्वान अविनय शील हो जाय। पग-पग पर अपना सम्मान माँगे और चाहे, उसमें कहीं रत्ती भर कमी दीखे तो पारा चढ़ जाय इस विचित्र मनःस्थिति में ही आज के विद्वान कलाकार देखे जाते हैं। कहीं बुलायें जायें तो ऊँचे दर्जे के वाहन, महँगे निवास, कीमती व्यवस्था की शर्त पहले लगाते हैं। उन्हें सम्मानित स्थान मिला कि नहीं, पुरस्कार उनके गौरव जैसा हुआ कि नहीं, आदि नखरे देखते ही बनते हैं परस्पर कुढ़ते और एक दूसरे की काट करते हैं- इसलिए कि उनका बड़प्पन, सम्मान कहीं दूसरे दर्जे पर न आ जाए। जिन्हें सभा सम्मेलनों में कभी ऐसे लोग बुलाने पड़ते हैं वे देखते हैं कि जो बाहर से विद्वान कलाकार दीखते थे, भीतर अहंकार से ग्रस्त होने से वस्तुतः वे कितने छोटे हो गये हैं। विद्वानों का संगठन इसी कारण बन पाता है, न टिक पाता है, न चल पाता है। अहंकार की ऐंठ में वे सहयोगी बन ही नहीं पाते- प्रतिद्वन्द्वी ही रहते हैं।

सत्ता का मद पहले से ही बहुत था, ओछापन जैसे जैसे बढ़ता जा रहा है वह अहंकार और भी बढ़ रहा है। ऐसे सरकारी कर्मचारी जो जनता का हित अहित कर सकते हैं- जिनके हाथ में लोगों को सुविधा देना या असुविधा बढ़ाना है उनकी शान और नाक देखते ही बनती है। बेकार मनुष्य समय गँवाते रहेंगे पर लोगों की बात सुनने में व्यस्तता का बहाना करेंगे। सीधे मुँह बोलेंगे नहीं। बात अकड़ कर और अपमानजनक ढंग से करेंगे। इस ऐंठ से आतंकित जनता अपना काम पूरा न होते देखकर रिश्वत के लिये विवश होती है। शासन में या अन्यत्र बड़े संस्थानों में बड़े पदों पर अवस्थित लोगों का रूखा, असहानुभूति पूर्ण और निष्ठुर व्यवहार देखकर उन पर छाये हुए अहंकार के पद का कितना प्रभाव छाया हुआ है इसे भली प्रकार देखा जा सकता है। 


(अखंड ज्योति-July 1972)

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