मनुष्य अपने भाग्य का निर्माता आप है.


मनुष्य अपने भाग्य
का निर्माता आप है.
(डॉ. प्रणव पण्ड्या)

भाग्य और पुरुषार्थ जिन्दगी के दो छोर हैं। जिसका एक सिरा वर्तमान में है तो दूसरा हमारे जीवन के सुदूर व्यापी अतीत में अपना विस्तार लिए हुए है। यह सच है कि भाग्य का दायरा बड़ा है, जबकि वर्तमान के पाँवों के नीचे तो केवल दो पग धरती है। भाग्य के कोष में संचित कर्मों की विपुल पूँजी है, संस्कारों की अकूत राशि है, कर्म बीजों, प्रवृत्तियों एवं प्रारब्ध का अतुलनीय भण्डार है। जबकि पुरुषार्थ के पास अपना कहने के लिए केवल एक पल है। जो अभी अपना होते हुए भी अगले ही पल भाग्य के कोष में जा गिरेगा। 


भाग्य के इस व्यापक आकार को देखकर ही सामान्य जन सहम जाते हैं। अरे यही क्यों? सामान्य जनों की कौन कहे कभी-कभी तो विज्ञ, विशेषज्ञ और वरिष्ठ जन भी भाग्य के बलशाली होने की गवाही देते हैं। बुद्धि के सभी तर्क, ज्योतिष की समस्त गणनाएँ, ग्रह-नक्षत्रों का समूचा दल-बल इसी के पक्ष में खड़ा दिखाई देता है। ये सभी कहते हैं कि भाग्य अपने अनुरूप शुभ या अशुभ परिस्थितियों का निर्माण करता है। और ये परिस्थतियाँ अपने आँचल में सभी व्यक्तियों-वस्तुओं एवं संयोगों-दुर्योगों को लपेट लेती हैं। ये सब अपना पृथक् अस्तित्त्व खोकर केवल भाग्य की छाया बनकर उसी की भाषा बोलने लग जाते हैं।
लेकिन इतने पर भी पुरुषार्थ की महिमा कम नहीं होती। आत्मज्ञानी, तत्त्वदर्शी, अध्यात्मवेत्ता सामान्य जनों के द्वारा कही-सुनी और बोली जाने वाली उपरोक्त सभी बातों को एक सीमा तक ही स्वीकारते हैं। क्योंकि वे जानते हैं कि पुरषार्थ आत्मा की चैतन्य शक्ति है, जबकि भाग्य केवल जड़ कर्मों का समुदाय। और जड़ कर्मों का यह आकार कितना ही बड़ा क्यों न हो चेतना की नन्हीं चिन्गारी इस पर भारी पड़ती है। जिस तरह अग्नि की नन्हीं सी चिन्गारी फूस के बड़े से बड़े ढेर को जलाकर राख कर देती है। जिस तरह छोटे से दिखने वाले सूर्य मण्डल के उदय होते ही तीनों लोकों का अँधेरा भाग जाता है। ठीक उसी तरह पुरुषार्थ का एक पल भी कई जन्मों के भाग्य पर भारी पड़ता है। 


पुरुषार्थ की प्रक्रिया यदि निरन्तर अनवरत एवं अविराम जारी रहे तो पुराने भाग्य के मिटने व मनचाहे नए भाग्य के बनने में देर नहीं। पुरुषार्थ का प्रचण्ड पवन आत्मा पर छाए भाग्य के सभी आवरणों को छिन्न-भिन्न कर देता है। तब ऐसे संकल्प निष्ठ पुरुषार्थी की आत्मशक्ति से प्रत्येक असम्भव सम्भव और साकार होता है। तभी तो ऋषि वाणी कहती है- मनुष्य अपने भाग्य का निर्माता आप है।

‘नानी बाई का मायरा’?


नानी बाई का मायरा’?

‘नानी बाई का मायरा’ भक्त नरसी की भगवान कृष्ण की भक्ति पर आधारित कथा है। जिसमें ’मायरो’ अर्थात ’भात’ जोकि मामा या नाना द्वारा कन्या को उसकी शादी में दिया जाता है। वह भात स्वयं श्री कृष्ण लाते हैं।

‘नानी बाई’ नरसी जी की पुत्री थी और सुलोचना बाई उनकी माँ थी। नानी बाई का विवाह जब तय हुआ था, तब नानी बाई के ससुराल वालों ने यह सोचा कि नरसी एक गरीब व्यक्ति है, वह शादी की रस्म ‘भात’ नहीं भर पायेगा। उनको लगा कि अगर वह साधुओं की टोली को लेकर पहुँचे तो उनकी बहुत बदनामी हो जायेगी, इसलिये उन्होंने एक बहुत लम्बी सूची भात के सामान की बनाई। उस सूची में करोड़ों का सामान लिख दिया गया, जिससे कि नरसी उस सूची को देखकर खुद ही न आये।

नरसी जी को निमंत्रण भेजा गया साथ ही मायरा भरने की सूची भी भेजी गई परन्तु नरसी के पास केवल एक चीज़ थी-श्री कृष्ण की भक्ति, इसलिये भगवान् श्रीकृष्ण पर भरोसा करते हुए अपने संतों की टोली के साथ बेटी को आर्शिवाद देने के लिये अंजार नगर पहुँच गये। उन्हें आता देख नानी बाई के ससुराल वाले भड़क गये और उनका अपमान करने लगे। इस अपमान से नरसी जी व्यथित हो, रोते हुए श्रीकृष्ण को यादकरते हुए, वहां से चल दिए।

नानी बाई भी अपने पिता के इस अपमान को बर्दाश्त नहीं कर पाई और आत्महत्या करने दौड़ पड़ी परन्तु श्री कृष्ण ने नानी बाई को रोक दिया और उससे कहा कि कल वह स्वयं नरसी के साथ मायरा भरने के लिये आयेंगे।​

दूसरे दिन नानी बाई बड़ी ही उत्सुकता के साथ श्री कृष्ण और नरसी जी का इंतज़ार करने लगी, तभी सामने देखती है कि नरसी जी संतों की टोली और कृष्ण जी एक सेठ का रूप धारण करके साथ चले आ रहे हैं और उनके पीछे ऊँटों और घोड़ों की लम्बी कतार आ रही है जिनमें सामान लदा हुआ है। दूर-दूर तक बैलगाड़ियाँ ही बैलगाड़ियाँ नज़र आ रही थी, जिनमें वह सब दुगना भरा था, जिसकी मांग पत्र में लिखी गई थी। ऐसा मायरा न अभी तक किसी ने देखा नहीं था।

यह सब देखकर ससुराल वाले अपने किये पर पछताने लगे। कहते हैं भगवान् द्वारिकाधीश ने स्वर्ण मुद्राओं की ऐसी वर्षा की, जिससे गाँव वाले भी धनी हो गए।

नानी बाई के ससुराल वाले उस सेठ को देखते ही रहे और सोचने लगे कि कौन है ये सेठ और ये क्यों नरसी जी की मदद कर रहा है, जब उनसे रहा न गया तो उन्होंने पूछा कि कृपा करके अपना परिचय दीजिये और आप क्यों नरसी जी की सहायता कर रहे हैं।​

उनके इस प्रश्न का जवाब सेठ ने दिया, वही इस कथा का सम्पूर्ण सार है। सेठजी का उत्तर था ’मैं नरसी जी का सेवक हूँ, इनका अधिकार चलता है, मुझ-पर। जब कभी भी ये मुझे पुकारते हैं, मैं दौड़ा चला आता हूँ, इनके पास। जो ये चाहते हैं, मैं वही करता हूँ। इनके कहे कार्य को पूर्ण करना ही मेरा कर्तव्य है।


ये उत्तर सुनकर सभी हैरान रह गये और किसी के समझ में कुछ नहीं आ रहा था, बस नानी बाई ही समझती थी कि उसके पिता की भक्ति के कारण ही श्री कृष्ण उनसे बंध गये हैं और उनका दुख अब देख नहीं पा रहे हैं इसलिये मायरा भरने के लिये स्वयं ही आ गये हैं। भगवान केवल अपने भक्तों के वश में होते हैं।

भक्त नरसी मेहता


भक्त नरसी मेहता

नरसी मेहता ऐसे ही एक महान भक्त थे, नरसी मेहता का जन्म गुजरात राज्य में गिरपर्वत के पास जुनागढ़ नगर के एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था। जब ये बहुत ही छोटे थे, तब ही इनके माता पिता का देहांत हो गया था।​

नरसी मेहता का पालन पोषण नरसी जी के बड़े भाई ने किया था। नरसी मेहता को साधुओं की सेवा करने में बड़ा आनन्द आता था। उन्हीं साधुओं की सेवा करते करते नरसी जी ने भी सत्संग में भगवान की भक्ति शुरू कर दी। उनकी भाभी ने उन्हें कई बार इसके लिये ताने देती थी। नरसी मेहता का विवाह भी बहुत छोटी आयु में माणिकबाई से करा दिया गया था।​ ​

एक दिन नरसी जी की भाभी ने उन्हें खूब खरी खोटी सुनाई क्योंकि वह घर देर से आये थे। यह अपमान वह सह नहीं पाये और उन्होंने अपने घर का ही त्याग कर दिया तथा वह गिर पर्वत के घने जंगल में कहीं चले गये। वहीं कहीं उन्हें एक शिवालय दिखाई दिया। नरसी जी वहीं रहने लगे और वहीं शिवजी की आराधना में लीन हो गये। सात दिनों बाद स्वयं भगवान शंकर ने दर्शन दिये और कहा कि जो तुम्हारी इच्छा हो वो वरदान मांग लो।​

नरसी मेहता को किसी भी प्रकार के फल की कामना में नहीं की थी, इसलिये उन्होंने कहा जो आपकी इच्छा हो वह मुझे दे दीजिये। उनके इस वचन से प्रसन्न होकर भगवान शिव उन्हें गौलोक ले गये। गौलोक में भगवान कृष्ण गोपियों के संग रासलीला रचा रहे थे, ऐसा मनमोहित दृश्य देखकर नरसी मेहता उसी में खोकर रह गये।​

वह इस दृष्य को बिना पलकें झपकाए देखते रह गये और भक्ति रस में लीन हो गये, तब ही भगवान कृष्ण ने नरसी जी की ओर देखा और उन्हें आर्शिवाद प्रदान किया और कहा जैसे भक्ति रस में तुम डूबे हो, वैसे ही रसपान का आनन्द सारे जगत को कराओ, नरसी जी ने इसे ही अपने जीवन का लक्ष्य बना लिया और पृथ्वी पर जगह जगह कृष्ण भजन गाते हुए मग्न रहने लगे।​​

नरसी मेहता की ऐसी भक्ति से प्रेरित होकर बहुत से साधु संत उनके साथ भक्ति में लग गये, मगर कुछ लोगों को नरसी जी का प्रसिद्ध होना अच्छा नहीं लगता था, वह लोग नरसी जी को परेशान करने के नित नए बहाने ढूंढते थे, परन्तु नरसी जी उनकी बातों पर ध्यान नहीं दिया करते थे।​

एक समय द्वारिका जाने वाले यात्री जूनागढ़ आये। उन यात्रियों के पास कुछ धन रखा हुआ था, जिन्हें वह डाकुओं के भय के कारण अपने पास नहीं रखना चाहते थे, इसलिये वे सब एक ऐसे साहुकार को ढूंढ रहे थे, जो उस धन के बदले में एक हुंडी दे दे। उस समय हुंडी एक पत्र होता था, उस हुंडी में रकम और दूसरे सेठ का नाम लिखा होता था और हुंडी लिखने वाले की मोहर तथा हस्ताक्षर होते थे, उसे दूसरे नगर में सेठ को देने पर वह सेठ लिखी हुई रकम दे देता था, इससे रास्ते में हो रही चोरी का खतरा नहीं रहता था, जब यात्रियों ने किसी नगर सेठ का नाम पूछा तो कुछ शरारती व्यक्तियों ने नरसी जी का नाम दे दिया। यात्री गण, नरसी जी के पास जाकर उनसे प्रार्थना करने लगे कि वह उनकी हुंडी लिख दे, नरसी जी ने उनसे कहा कि वह तो एक विरक्त भक्त है, उनके पास कुछ भी नहीं है कि वह हुंडी लिख दें, परन्तु वह यात्री समझ रहे थे कि नरसी जी यह सब केवल उन्हें टालने के लिये कह रहे हैं।​

यात्रियों के बहुत आग्रह करने के बाद नरसी मेहता हुंडी लिखने के लिये राज़ी हो गये। नरसी जी ने श्री कृष्ण पर भरोसा किया और सांवल शाह गिरधारी के नाम की हुंडी लिखी, यात्री गण श्रद्धा पूर्वक हुंडी लेकर द्वारिका चले गये। वहाँ नरसी जी कृष्ण भजन गाते हुए श्री कृष्ण से लाज रखने की प्रार्थना करने लगे, जब यात्री द्वारिका पहुँचे तो स्वयं द्वारिकाधीश ने सांवल शाह सेठ बनकर हुंडी के बदले में धन दे दिया।​

उनके जीवन की अनेक घटनाएँ भक्ति से ओतप्रोत और भगवान् की विचित्र लीला से युक्त रही हैं। उन्हें कारावास में भी डलवाया गया किन्तु भगवान् श्रीकृष्ण के साक्षीभाव से वे आदर सहित मुक्त हुये।

कहते हैं जीवन के अंत समय में भजन करते करते, उनकी देह श्रीकृष्ण की प्रतिमा में समाविष्ट हो गई थी।

श्रीमद्भागवत महापुराण: चतुर्थ स्कन्ध: सप्तविंश अध्यायः श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद


(लगातार-सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत पुराण)
श्रीमद्भागवत महापुराण:
चतुर्थ स्कन्ध: सप्तविंश अध्यायः श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद

पुरंजनपुरी पर चण्डवेग की चढ़ाई तथा कालकन्या का चरित्र

श्रीनारद जी कहते हैं- महाराज! इस प्रकार वह सुन्दरी अनेकों नखरों से पुरंजन को पूरी तरह अपने वश में कर उसे आनन्दित करती हुई विहार करने लगी। उसने अच्छी तरह स्नान कर अनेक प्रकार के मांगलिक श्रृंगार किये तथा भोजनादि से तृप्त होकर वह राजा के पास आयी। राजा ने उस मनोहर मुख वाली राजमहिषी का सादर अभिनन्दन किया। पुरंजनी ने राजा का आलिंगन किया और राजा ने उसे गले लगाया। फिर एकान्त में मन के अनुकूल रहस्य की बातें करते हुए वह ऐसा मोहित हो गया कि उस कामिनी में ही चित्त लगा रहने के कारण उसे दिन-रात के भेद से निरन्तर बीतते हुए काल की दुस्तर गति का भी कुछ पता न चला। मद से छका हुआ मनस्वी पुरंजन अपनी प्रिया की भुजा पर सिर रखे महामूल्य शय्या पर पड़ा रहता। उसे तो वह रमणी ही जीवन का परम फल जान पड़ती थी। आज्ञान से आवृत्त हो जाने के कारण उसे आत्मा अथवा परमात्मा का कोई ज्ञान न रहा।

राजन्! इस प्रकार कामातुर चित्त से उसके साथ विहार करते-करते राजा पुरंजन की जवानी आधे क्षण के समान बीत गयी। प्रजापते! उस पुरंजनी से राजा पुरंजन के ग्यारह सौ पुत्र और एक सौ दस कन्याएँ हुईं, जो सभी माता-पिता का सुयश बढ़ाने वाली और सुशीलता, उदारता आदि गुणों से सम्पन्न थीं। ये पौरंजनी नाम से विख्यात हुईं। इतने में भी उस सम्राट् की लंबी आयु का आधा भाग निकल गया। फिर पांचालराज पुरंजन ने पितृवंश की वृद्धि करने वाले पुत्रों का वधुओं के साथ और कन्याओं का उनके योग्य वरों के साथ विवाह कर दिया। पुत्रों में से प्रत्येक के सौ-सौ पुत्र हुए। उनसे वृद्धि को प्राप्त होकर पुरंजन का वंश सारे पांचाल देश में फैल गया। इन पुत्र, पौत्र गृह, कोश, सेवक और मन्त्री आदि में दृढ़ ममता हो जाने से वह इन विषयों में ही बँध गया।

फिर तुम्हारी तरह उसने भी अनेक प्रकार के भोगों की कामना से यज्ञ की दीक्षा ले तरह-तरह के पशुहिंसामय घोर यज्ञों से देवता, पितर और भूपतियों की आराधना की। इस प्रकार वह जीवन भर आत्मा का कल्याण करने वाले कर्मों की ओर से असावधान और कुटुम्बपालन में व्यस्त रहा। अन्त में वृद्धावस्था का वह समय आ पहुँचा, जो स्त्रीलंपट पुरुषों को बड़ा अप्रिय होता है।

राजन्! चण्डवेग नाम का एक गन्धर्वराज है। उसके अधीन तीन सौ साठ महाबलवान् गन्धर्व रहते हैं। इनके साथ मिथुनभाव से स्थित कृष्ण और शुक्ल वर्ण की उतनी ही गंधार्वियाँ भी हैं। ये बारी-बारी से चक्कर लगाकर भोग-विलास की सामग्रियों से भरी-पूरी नगरी को लूटती रहती हैं। गन्धर्वराज चण्डवेग के उन अनुचरों ने जब राजा पुरंजन का नगर लूटना आरम्भ किया, तब उन्हें पाँच फन के सर्प प्रजागर ने रोका। यह पुरंजनपुरी की चौकसी कंरने वाला महाबलवान् सर्प सौ वर्ष तक अकेला ही उन सात सौ बीस गन्धर्व-गन्धर्वियों से युद्ध करता रहा। बहुत-से वीरों के साथ अकेले ही युद्ध करने के कारण अपने एकमात्र सम्बन्धी प्रजागर को बलहीन हुआ देख राजा पुरंजन को अपने राष्ट्र और नगर में रहने वाले अन्य बान्धवों के सहित बड़ी चिन्ता हुई।


साभार krishnakosh.org

श्रीमद्भागवत महापुराण: चतुर्थ स्कन्ध: षड्-विंश अध्यायः श्लोक 17-26 का हिन्दी अनुवाद


(लगातार-सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत पुराण)
श्रीमद्भागवत महापुराण:
चतुर्थ स्कन्ध: षड्-विंश अध्यायः श्लोक 17-26 का हिन्दी अनुवाद

स्त्रियों ने कहा- नरनाथ! मालूम नहीं आज आपकी प्रिया ने क्या ठानी है। शत्रुदमन! देखिये, वे बिना बिछौने के पृथ्वी पर ही पड़ी हुई हैं।

श्रीनारद जी कहते हैं- राजन्! उस स्त्री के संग से राजा पुरंजन का विवेक नष्ट हो चुका था; इसलिये अपनी रानी को पृथ्वी पर अस्त-व्यस्त अवस्था में पड़ी देखकर वह अत्यन्त व्याकुल हो गया। उसने दुःखित हृदय से उसे मधुर वचनों द्वारा बहुत कुछ समझाया, किन्तु उसे अपनी प्रेयसी के अंदर अपने प्रति प्रणय-कोप का कोई चिह्न नहीं दिखायी दिया। वह मनाने में भी बहुत कुशल था, इसलिये अब पुरंजन ने उसे धीरे-धीरे मनाना आरम्भ किया। उसने पहले उसके चरण छुए और फिर गोद में बिठाकर बड़े प्यार से कहने लगा।

पुरंजन बोला- सुन्दरि! वे सेवक तो निश्चय ही बड़े अभागे हैं, जिनके अपराध करने पर स्वामी उन्हें अपना समझकर शिक्षा के लिये उचित दण्ड नहीं देते। सेवक को दिया हुआ स्वामी का दण्ड तो उस पर बड़ा अनुग्रह ही होता है। जो मूर्ख हैं, उन्हीं को क्रोध के कारण अपने हितकारी स्वामी के किये हुए उस उपकार का पता नहीं चलता।

सुन्दर दन्तावली और मनोहर भौहों से शोभा पाने वाली मनस्विनि! अब यह क्रोध दूर करो और एक बार मुझे अपना समझकर प्रणय-भार तथा लज्जा से झुका हुआ एवं मधुर मुसकानमयी चितवन से सुशोभित अपना मनोहर मुखड़ा दिखाओ। अहो! भ्रमरपंक्ति के समान नीली अलकावली, उन्नत नासिका और सुमधुर वाणी के कारण तुम्हारा वह मुखारविन्द कैसा मनमोहक जान पड़ता है।

वीरपत्नी! यदि किसी दूसरे ने तुम्हारा कोई अपराध किया हो तो उसे बताओ; यदि वह अपराधी ब्राह्मण कुल का नहीं है, तो मैं उसे अभी दण्ड देता हूँ। मुझे तो भगवान् के भक्तों को छोड़कर त्रिलोकी में अथवा उससे बाहर ऐसा कोई नहीं दिखायी देता जो तुम्हारा अपराध करके निर्भय और आनन्दपूर्वक रह सके। प्रिये! मैंने आज तक तुम्हारा मुख कभी तिलकहीन, उदास, मुरझाया हुआ, क्रोध के कारण डरावना, कान्तिहीन और स्नेहशून्य नहीं देखा; और न कभी तुम्हारे सुन्दर स्तनों को ही शोकाश्रुओं से भीगा तथा बिम्बाफलसदृश अधरों को स्निग्ध केसर की लीला से रहित देखा है। मैं व्यसनवश तुमसे बिना पूछे शिकार खेलने चला गया, इसलिये अवश्य अपराधी हूँ। फिर भी अपना समझकर तुम मुझ पर प्रसन्न हो जाओ; कामदेव के विषम बाणों से अधीर होकर जो सर्वदा अपने अधीन रहता है, उस अपने प्रिय पति को उचित कार्य के लिये भला और कौन कामिनी स्वीकार नहीं करती।

श्रीमद्भागवत महापुराण: चतुर्थ स्कन्ध: षड्-विंश अध्यायः श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद


(लगातार-सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत पुराण)
श्रीमद्भागवत महापुराण:
चतुर्थ स्कन्ध: षड्-विंश अध्यायः श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद 
राजा पुरंजन का शिकार खेलने वन में जाना और रानी का कुपित होना.

श्रीनारद जी कहते हैं—राजन्! एक दिन राजा पुरंजन अपना विशाल धनुष, सोने का कवच और अक्षय तरकस धारण कर अपने ग्यारहवें सेनापति के साथ पाँच घोड़ों के शीघ्रगामी रथ में बैठकर पंचप्रस्थ नाम के वन में गया। उस रथ में दो ईषादण्ड (बंब), दो पहिये, एक धुरी, तीन ध्वजदण्ड, पाँच डोरियाँ, एक लगाम, एक सारथि, एक बैठने का स्थान, दो जुए, पाँच आयुध और सात आवरण थे। वह पाँच प्रकार की चालों से चलता था तथा उसका साज-बाज सब सुनहरा था। यद्यपि राजा के लिये अपनी प्रिया को क्षण भर भी छोड़ना कठिन था, किन्तु उस दिन उसे शिकार का ऐसा शौक लगा कि उसकी भी परवा न कर वह बड़े गर्व से धनुष-बाण चढ़ाकर आखेट करने लगा। इस समय आसुरीवृत्ति बढ़ जाने से उसका चित्त बड़ा कठोर और दयाशून्य हो गया था, इससे उसने अपने तीखे बाणों से बहुत-से निर्दोष जंगली जानवरों का वध कर डाला। जिसकी मांस में अत्यन्त आसक्ति हो, वह राजा केवल शास्त्रप्रदर्शित कर्मों के लिये वन में जाकर आवश्यकतानुसार अनिषिद्ध पशुओं का वध करे; व्यर्थ पशुहिंसा न करे। शास्त्र इस प्रकार उच्छ्रंखल प्रवृत्ति को नियन्त्रित करता है।

राजन्! जो विद्वान् इस प्रकार शास्त्रनियत कर्मों का आचरण करता है, वह उस कर्मानुष्ठान से प्राप्त हुए ज्ञान के कारणभूत कर्मों से लिप्त नहीं होता। नहीं तो, मनमाना कर्म करने से मनुष्य अभिमान के वशीभूत होकर कर्मों में बँध जाता है तथा गुण-प्रवाहरूप संसारचक्र में पड़कर विवेक-बुद्धि के नष्ट हो जाने से अधम योनियों में जन्म लेता है। पुरंजन के तरह-तरह के पंखों वाले बाणों से छिन्न-भिन्न होकर अनेकों जीव बड़े कष्ट के साथ प्राण त्यागने लगे। उसका वह निर्दयतापूर्ण जीव-संहार देखकर सभी दयालुपुरुष बहुत दुःखी हुए। वे इसे सह नहीं सके। इस प्रकार वहाँ खरगोश, सूअर, भैंसे, नीलगाय, कृष्णमृग, साही तथा और भी बहुत-से मेध्य पशुओं का वध करते-करते राजा पुरंजन बहुत थक गया। तब वह भूख-प्यास से अत्यन्त शिथिल हो वन से लौटकर राजमहल में आया। वहाँ उसने यथायोग्य रीति से स्नान और भोजन से निवृत्त हो, कुछ विश्राम करके थकान दूर की। फिर गन्ध, चन्दन और माला आदि से सुसज्जित हो सब अंगों में सुन्दर-सुन्दर आभूषण पहने। तब उसे अपनी प्रिया की याद आयी। वह भोजनादि से तृप्त, हृदय में आनन्दित, मद से उन्मत्त और काम से व्यथित होकर अपनी सुन्दरी भार्या को ढूँढने लगा; किन्तु उसे वह कहीं भी दिखायी न दी।

प्राचीनबर्हि! तब उसने चित्त में कुछ उदास होकर अन्तःपुर की स्त्रियों से पूछा, ‘सुन्दरियों! अपनी स्वामिनी के सहित तुम सब पहले की ही तरह कुशल से हो न? क्या कारण है आज इस घर की सम्पत्ति पहले-जैसी सुहावनी नहीं जान पड़ती? घर में माता अथवा पतिपरायणा भार्या न हो, तो वह घर बिना पहिये के रथ के समान हो जाता है; फिर उसमे कौन बुद्धिमान् दीन पुरुषों के समान रहना पसंद करेगा। अतः बताओ, वह सुन्दरी कहाँ है, जो दुःख-समुद्र में डूबने पर मेरी विवेक-बुद्धि को पद-पद पर जाग्रत् करके मुझे उस संकट से उबार लेती है?

साभार krishnakosh.org

श्रीमद्भागवत महापुराण: चतुर्थ स्कन्ध: पञ्चाविंश अध्यायः श्लोक 48-62 का हिन्दी अनुवाद


(लगातार-सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत पुराण)
श्रीमद्भागवत महापुराण:
चतुर्थ स्कन्ध: पञ्चाविंश अध्यायः श्लोक 48-62 का हिन्दी अनुवाद

इसी प्रकार उस ओर नलिनी और नालिनी नाम के द्वार और भी एक ही जगह बनाये गये थे। उनसे होकर वह अवधूत के साथ सौरभ नामक देश को जाता था। पूर्व दिशा की ओर मुख्या नाम का जो पाँचवाँ द्वार था, उसमें होकर वह रसज्ञ और विपन के साथ क्रमशः बहूदन और आपण नाम के देशों को जाता था। पुरी के दक्षिण की ओर जो पितृहू नाम का द्वार था, उसमें होकर राजा पुरंजन श्रुतधर के साथ दक्षिण पांचाल देश को जाता था। उत्तर की ओर जो देवहू नाम का द्वार था, उससे श्रुतधर के ही साथ वह उत्तर पांचाल देश को जाता था। पश्चिम दिशा में आसुरि नाम का दरवाजा था, उसमें होकर वह दुर्मद के साथ ग्रामक देश को जाता था तथा निर्ऋति नाम का जो दूसरा पश्चिम द्वार था, उससे लुब्धक के साथ वह वैशस नाम के देश को जाता था। इस नगर के निवासियों में निर्वाक् और पेशस्कृत्-ये दो नागरिक अन्धे थे। राजा पुरंजन आँख वाले नागरिकों का अधिपति होने पर भी इन्हीं की सहायता से जहाँ-तहाँ जाता और सब प्रकार के कार्य करता था। जब कभी अपने प्रधान सेवक विषूचीन के साथ अन्तःपुर में जाता, तब उसे स्त्री और पुत्रों के कारण होने वाले मोह, प्रसन्नता एवं हर्ष आदि विकारों का अनुभव होता। उसका चित्त तरह-तरह के कर्मों में फँसा हुआ था और काम-परवश होने के कारण वह मूढ़ रमणी के द्वारा ठगा गया था। उसकी रानी जो-जो काम करती थी, वही वह भी करने लगता था। वह जब मद्यपान करती, तब वह भी मदिरा पीता और मद से उन्मत्त हो जाता था; जब वह भोजन करती, तब आप भी वही वस्तु चबाने लगता था। इसी प्रकार कभी उसके गाने पर गाने लगता, रोने पर रोने लगता, हँसने पर हँसने लगता और बोलने पर बोलने लगता। वह दौड़ती तो आप भी दौड़ने लगता, खड़ी होती तो आप भी खड़ा हो जाता, सोती तो आप भी उसी के साथ सो जाता और बैठती तो आप भी बैठ जाता। कभी वह सुनने लगती तो आप भी सुनने लगता, देखती तो देखने लगता, सूँघती तो सूँघने लगता और किसी चीज को छूती तो आप भी छूने लगता। कभी उसकी प्रिया शोकाकुल होती तो आप भी अत्यन्त दीन के समान व्याकुल हो जाता; जब वह प्रसन्न होती, आप भी प्रसन्न हो जाता और उसके आनन्दित होने पर आप भी आनन्दित हो जाता। (इस प्रकार) राजा पुरंजन अपनी सुन्दरी रानी के द्वारा ठगा गया। सारा प्रकृतिवर्ग-परिकर ही उसको धोखा देने लगा। वह मूर्ख विवश होकर इच्छा न होने पर भी खेल के लिए घर पर पाले हुए बंदर के समान अनुकरण करता रहता।

साभार krishnakosh.org

श्रीमद्भागवत महापुराण: चतुर्थ स्कन्ध: पञ्चाविंश अध्यायः श्लोक 32-47 का हिन्दी अनुवाद


(लगातार-सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत पुराण)
श्रीमद्भागवत महापुराण:
चतुर्थ स्कन्ध: पञ्चाविंश अध्यायः श्लोक 32-47 का हिन्दी अनुवाद

श्रीनारद जी कहा- वीरवर! जब राजा पुरंजन ने अधीर-से होकर इस प्रकार याचना की, तब उस बाला ने भी हँसते हुए उसका अनुमोदन किया। वह भी राजा को देखकर मोहित हो चुकी थी। वह कहने लगी, ‘नरश्रेष्ठ! हमें अपने उत्पन्न करने वाले का ठीक-ठीक पता नहीं है और न हम अपने या किसी दूसरे के नाम या गोत्र को ही जानती हैं। वीरवर! आज हम सब इस पुरी में हैं- इसके सिवा मैं और कुछ नहीं जानती; मुझे इसका भी पता नहीं है कि हमारे रहने के लिये यह पुरी किसने बनायी है। प्रियवर! ये पुरुष मेरे सखा और स्त्रियाँ मेरी सहेलियाँ हैं तथा जिस समय मैं सो जाती हूँ, यह सर्प जागता हुआ इस पुरी की रक्षा करता रहता है। शत्रुदमन! आप यहाँ पधारे, यह मेरे लिये सौभाग्य की बात है। आपका मंगल हो। आपको विषय-भोगों-की इच्छा है, उसकी पूर्ति के लिये मैं अपने साथियों सहित सभी प्रकार के भोग प्रस्तुत करती रहूँगी। प्रभो! इस नौ द्वारों वाली पुरी में मेरे प्रस्तुत किये हुए इच्छित भोगों को भोगते हुए आप सैकड़ों वर्षों तक निवास कीजिये। भला, आपको छोड़कर मैं और किसके साथ रमण करुँगी? दूसरे लोग तो न रति सुख को जानते हैं, न विहित भोगों को ही भोगते हैं, न परलोक का ही विचार करते हैं और न कल क्या होगा- इसका ही ध्यान रखते हैं, अतएव पशुतुल्य हैं। अहो! इस लोक में गृहस्थाश्रम में ही धर्म, अर्थ, काम, सन्तान-सुख, मोक्ष, सुयश और स्वर्गादि दिव्य लोकों की प्राप्ति हो सकती है। संसारत्यागी यतिजन तो इन सबकी कल्पना भी नहीं कर सकते। महापुरुषों का कथन है कि इस लोक में पितर, देव, ऋषि, मनुष्य तथा सम्पूर्ण प्राणियों के और अपने भी कल्याण का आश्रय एकमात्र गृहस्थाश्रम ही है।

वीरशिरोमणे! लोक में मेरी-जैसी कौन स्त्री होगी, जो स्वयं प्राप्त हुए आप-जैसे सुप्रसिद्ध, उदारचित्त और सुन्दर पति को वरण न करेगी। महाबाहो! इस पृथ्वी पर आपकी साँप-जैसी गोलाकार सुकोमल भुजाओं में स्थान पाने के लिये किस कामिनी का चित्त न ललचावेगा? आप तो अपनी मधुर मुसकानमयी करुणापूर्ण दृष्टि से हम-जैसी अनाथाओं के मानसिक सन्ताप को शान्त करने के लिये ही पृथ्वी में विचर रहे हैं’।

श्रीनारद जी कहते हैं- राजन्! उन स्त्री-पुरुषों ने इस प्रकार एक-दूसरे की बात का समर्थन कर फिर सौ वर्षों तक उस पुरी में रहकर आनन्द भोगा। गायक लोग सुमधुर स्वर में जहाँ-तहाँ राजा पुरंजन की कीर्ति गाया करते थे। जब ग्रीष्म-ऋतु आती, तब वह अनेकों स्त्रियों के साथ सरोवर में घुसकर जलक्रीड़ा करता। उस नगर में जो नौ द्वार थे, उनमें से सात नगरी के ऊपर और दो नीचे थे। उस नगर का जो कोई राजा होता, उसके पृथक्-पृथक् देशों में जाने के लिये ये द्वार बनाये गये थे। राजन्! इनमें से पाँच पूर्व, एक दक्षिण, एक उत्तर और दो पश्चिम की ओर थे। उनके नामों का वर्णन करता हूँ। पूर्व की ओर खाद्योत और आविर्मुखी नाम के दो द्वार एक ही जगह बनाये गये थे। उनमें होकर राजा पुरंजन अपने मित्र द्युमान् के साथ विभ्राजित नामक देश को जाया करता था।

साभार krishnakosh.org

श्रीमद्भागवत महापुराण: चतुर्थ स्कन्ध: पञ्चाविंश अध्यायः श्लोक 19-31 का हिन्दी अनुवाद


(लगातार-सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत पुराण)
श्रीमद्भागवत महापुराण:
चतुर्थ स्कन्ध: पञ्चाविंश अध्यायः श्लोक 19-31 का हिन्दी अनुवाद

वहाँ के वन्य पशु भी मुनिजनोचित अहिंसादि व्रतों का पालन करने वाले थे, इसलिये उनसे किसी को कोई कष्ट नहीं पहुँचता था। वहाँ बार-बार जो कोकिल की कुहू-ध्वनि होती थी, उससे मार्ग में चलने वाले बटोहियों को ऐसा भ्रम होता था, मानो यह बगीचा विश्राम करने के लिये उन्हें बुला रहा है।

राजा पुरंजन ने उस अद्भुत वन में घूमते-घूमते एक सुन्दरी को आते देखा, जो अकस्मात् उधर चली आयी थी। उसके साथ दस सेवक थे, जिनमें से प्रत्येक सौ-सौ नायिकाओं का पति था। एक पाँच फन वाला साँप उसका द्वारपाल था, वही उसकी सब ओर से रक्षा करता था। वह सुन्दरी भोली-भाली किशोरी थी और विवाह के लिये श्रेष्ठ-पुरुष की खोज में थी। उसकी नासिका, दन्तपंक्ति, कपोल और मुख बहुत सुन्दर थे। उसके समान कानों में कुण्डल झिलमिला रहे थे। उसका रंग साँवला था। कटि प्रदेश सुन्दर था। वह पीले रंग की साड़ी और सोने की करधनी पहने हुए थी तथा चलते समय चरणों से नूपुरों की झनकार करती जाती थी। अधिक क्या, वह साक्षात् कोई देवी-सी जान पड़ती थी। वह गजगामिनी बाला किशोरावस्था की सूचना देने वाले अपने गोल-गोल समान और परस्पर सटे हुए स्तनों को लज्जावश बार-बार अंचल से ढकती जाती थी। उसकी प्रेम से मटकती भौंह और प्रेमपूर्ण तिरछी चितवन के बाण से घायल होकर वीर पुरंजन ने लज्जायुक्त मुस्कान से और भी सुन्दर लगने वाली उस देवी से मधुर वाणी में कहा- ‘कमलदललोचने! मुझे बताओ तुम कौन हो, किसकी कन्या हो? साध्वी! इस समय आ कहाँ से रही हो, भीरु! इस पुरी के समीप तुम क्या करना चाहती हो? सुभ्रु! तुम्हारे साथ इस ग्यारहवें महान् शुरवीर से संचालित ये दस सेवक कौन हैं और ये सहेलियाँ तथा तुम्हारे आगे चलने वाला यह सर्प कौन है? सुन्दरि! तुम साक्षात् लज्जादेवी हो अथवा उमा, रमा और ब्राह्मणी में से कोई हो? यहाँ वन में मुनियों की तरह एकान्तवास करके क्या अपने पतिदेव को खोज रही हो? तुम्हारे प्राणनाथ तो ‘तुम उनके चरणों की कामना करती हो’, इतने से ही पूर्णकाम हो जायेंगे। अच्छा, यदि तुम साक्षात् कमलादेवी हो, तुम तुम्हारे हाथ का कीड़ाकमल कहाँ गिर गया। सुभगे! तुम इनमें से कोई हो नहीं; क्योंकि तुम्हारे चरण पृथ्वी का स्पर्श कर रहे हैं। अच्छा, यदि तुम कोई मानवी ही हो, तो लक्ष्मी जी जिस प्रकार भगवान् विष्णु के साथ वैकुण्ठ की शोभा बढाती हैं, उसी प्रकार तुम मेरे साथ इस श्रेष्ठ पुरी को अलंकृत करो। देखो, मैं बड़ा ही वीर और पराक्रमी हूँ। परंतु आज तुम्हारे कटाक्षों ने मेरे मन को बेकाबू कर दिया है। तुम्हारी लजीली और रतिकाम से भरी मुस्कान के साथ भौंहों के संकेत पाकर यह शक्तिशाली कामदेव मुझे पीड़ित कर रहा है। इसलिये सुन्दरि! अब तुम्हें मुझ पर कृपा करनी चाहिये। शुचिस्मिते! सुन्दर भौहें और सुघड़ नेत्रों से सुशोभित तुम्हारा मुखारविन्द इन लंबी-लंबी काली अलकावलियों से घिरा हुआ है; तुम्हारे मुख से निकले हुए वाक्य बड़े ही मीठे और मन हरने वाले हैं, परंतु वह मुख तो लाज के मारे मेरी ओर होता ही नहीं। जरा ऊँचा करके अपने उस सुन्दर मुखड़े का मुझे दर्शन तो कराओ’।


साभार krishnakosh.org

श्रीमद्भागवत महापुराण: चतुर्थ स्कन्ध: त्रयोविंश अध्यायः श्लोक 29-39 का हिन्दी अनुवाद


 (लगातार-सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत पुराण)
श्रीमद्भागवत महापुराण:
चतुर्थ स्कन्ध: त्रयोविंश अध्यायः श्लोक 29-39 का हिन्दी अनुवाद

श्रीमैत्रेय जी कहते हैं- विदुर जी! जिस समय देवांगनाएँ इस प्रकार स्तुति कर रही थीं, भगवान् के जिस परमधाम को आत्मज्ञानियों में श्रेष्ठ भगवत्प्राण महाराज पृथु गये, महारानी अर्चि भी उसी पतिलोक को गयीं। परम भागवत पृथु जी ऐसे ही प्रभावशाली थे। उनके चरित बड़े उदार हैं, मैंने तुम्हारे सामने उनका वर्णन किया। जो पुरुष इस परम पवित्र चरित्र को श्रद्धापूर्वक (निष्काम भाव से) एकाग्रचित्त से पढ़ता, सुनता अथवा सुनाता है-वह भी महाराज पृथु के पद-भगवान् के परमधाम को प्राप्त होता है। इसका सकाम भाव से पाठ करने से ब्राह्मण ब्रह्मतेज प्राप्त करता है, क्षत्रिय पृथ्वीपति हो जाता है, वैश्य व्यापारियों में प्रधान हो जाता है और शूद्र में साधुता आ जाती है। स्त्री हो अथवा पुरुष-जो कोई उसे आदरपूर्वक तीन बार सुनता है, वह सन्तानहीन हो तो पुत्रवान्, धनहीन हो तो महाधनी, कीर्तिहीन हो तो यशस्वी और मूर्ख हो तो पण्डित हो जाता है। यह चरित मनुष्यमात्र का कल्याण करने वाला और अमंगल को दूर करने वाला है। यह धन, यश और आयु की वृद्धि करने वाला, स्वर्ग की प्राप्ति कराने वाला और कलियुग के दोषों का नाश करने वाला है। यह धर्मादि चतुर्वर्ग की प्राप्ति में भी बड़ा सहायक है; इसलिये जो लोग धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष को भलीभाँति सिद्ध करना चाहते हों, उन्हें इसका श्रद्धापूर्वक श्रवण करना चाहिये। जो राजा विजय के लिये प्रस्थान करते समय इसे सुनकर जाता है, उसके आगे आ-आकर राजा लोग उसी प्रकार भेंटें रखते हैं, जैसे पृथु के सामने रखते थे। मनुष्य को चाहिये कि अन्य सब प्रकार कि आसक्ति छोड़कर भगवान् में विशुद्ध निष्काम भक्ति-भाव रखते हुए महाराज पृथु के इस निर्मल चरित को सुने, सुनावे और पढ़े।

विदुर जी! मैंने भगवान् के माहात्म्य को प्रकट करने वाला यह पवित्र चरित्र तुम्हें सुना दिया। इसमें प्रेम करने वाला पुरुष महाराज पृथु की-सी गति पाता है। जो पुरुष इस पृथु-चरित का प्रतिदिन आदरपूर्वक निष्काम भाव से श्रवण और कीर्तन करता है; उसका जिनके चरण संसार सागर को पार करने के लिये नौका के समान हैं, उन श्रीहरि में सुदृढ़ अनुराग हो जाता है।


साभार krishnakosh.org