श्रीमद्भागवत महापुराण: चतुर्थ स्कन्ध: षड्-विंश अध्यायः श्लोक 17-26 का हिन्दी अनुवाद


(लगातार-सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत पुराण)
श्रीमद्भागवत महापुराण:
चतुर्थ स्कन्ध: षड्-विंश अध्यायः श्लोक 17-26 का हिन्दी अनुवाद

स्त्रियों ने कहा- नरनाथ! मालूम नहीं आज आपकी प्रिया ने क्या ठानी है। शत्रुदमन! देखिये, वे बिना बिछौने के पृथ्वी पर ही पड़ी हुई हैं।

श्रीनारद जी कहते हैं- राजन्! उस स्त्री के संग से राजा पुरंजन का विवेक नष्ट हो चुका था; इसलिये अपनी रानी को पृथ्वी पर अस्त-व्यस्त अवस्था में पड़ी देखकर वह अत्यन्त व्याकुल हो गया। उसने दुःखित हृदय से उसे मधुर वचनों द्वारा बहुत कुछ समझाया, किन्तु उसे अपनी प्रेयसी के अंदर अपने प्रति प्रणय-कोप का कोई चिह्न नहीं दिखायी दिया। वह मनाने में भी बहुत कुशल था, इसलिये अब पुरंजन ने उसे धीरे-धीरे मनाना आरम्भ किया। उसने पहले उसके चरण छुए और फिर गोद में बिठाकर बड़े प्यार से कहने लगा।

पुरंजन बोला- सुन्दरि! वे सेवक तो निश्चय ही बड़े अभागे हैं, जिनके अपराध करने पर स्वामी उन्हें अपना समझकर शिक्षा के लिये उचित दण्ड नहीं देते। सेवक को दिया हुआ स्वामी का दण्ड तो उस पर बड़ा अनुग्रह ही होता है। जो मूर्ख हैं, उन्हीं को क्रोध के कारण अपने हितकारी स्वामी के किये हुए उस उपकार का पता नहीं चलता।

सुन्दर दन्तावली और मनोहर भौहों से शोभा पाने वाली मनस्विनि! अब यह क्रोध दूर करो और एक बार मुझे अपना समझकर प्रणय-भार तथा लज्जा से झुका हुआ एवं मधुर मुसकानमयी चितवन से सुशोभित अपना मनोहर मुखड़ा दिखाओ। अहो! भ्रमरपंक्ति के समान नीली अलकावली, उन्नत नासिका और सुमधुर वाणी के कारण तुम्हारा वह मुखारविन्द कैसा मनमोहक जान पड़ता है।

वीरपत्नी! यदि किसी दूसरे ने तुम्हारा कोई अपराध किया हो तो उसे बताओ; यदि वह अपराधी ब्राह्मण कुल का नहीं है, तो मैं उसे अभी दण्ड देता हूँ। मुझे तो भगवान् के भक्तों को छोड़कर त्रिलोकी में अथवा उससे बाहर ऐसा कोई नहीं दिखायी देता जो तुम्हारा अपराध करके निर्भय और आनन्दपूर्वक रह सके। प्रिये! मैंने आज तक तुम्हारा मुख कभी तिलकहीन, उदास, मुरझाया हुआ, क्रोध के कारण डरावना, कान्तिहीन और स्नेहशून्य नहीं देखा; और न कभी तुम्हारे सुन्दर स्तनों को ही शोकाश्रुओं से भीगा तथा बिम्बाफलसदृश अधरों को स्निग्ध केसर की लीला से रहित देखा है। मैं व्यसनवश तुमसे बिना पूछे शिकार खेलने चला गया, इसलिये अवश्य अपराधी हूँ। फिर भी अपना समझकर तुम मुझ पर प्रसन्न हो जाओ; कामदेव के विषम बाणों से अधीर होकर जो सर्वदा अपने अधीन रहता है, उस अपने प्रिय पति को उचित कार्य के लिये भला और कौन कामिनी स्वीकार नहीं करती।

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