‘नानी बाई का मायरा’?
‘नानी बाई का मायरा’ भक्त नरसी की भगवान कृष्ण की भक्ति पर आधारित कथा है। जिसमें ’मायरो’ अर्थात ’भात’ जोकि मामा या नाना द्वारा कन्या को उसकी शादी में दिया जाता है। वह भात स्वयं श्री कृष्ण लाते हैं।
‘नानी बाई’ नरसी जी की पुत्री थी और सुलोचना बाई उनकी माँ थी। नानी बाई का विवाह जब तय हुआ था, तब नानी बाई के ससुराल वालों ने यह सोचा कि नरसी एक गरीब व्यक्ति है, वह शादी की रस्म ‘भात’ नहीं भर पायेगा। उनको लगा कि अगर वह साधुओं की टोली को लेकर पहुँचे तो उनकी बहुत बदनामी हो जायेगी, इसलिये उन्होंने एक बहुत लम्बी सूची भात के सामान की बनाई। उस सूची में करोड़ों का सामान लिख दिया गया, जिससे कि नरसी उस सूची को देखकर खुद ही न आये।
नरसी जी को निमंत्रण भेजा गया साथ ही मायरा भरने की सूची भी भेजी गई परन्तु नरसी के पास केवल एक चीज़ थी-श्री कृष्ण की भक्ति, इसलिये भगवान् श्रीकृष्ण पर भरोसा करते हुए अपने संतों की टोली के साथ बेटी को आर्शिवाद देने के लिये अंजार नगर पहुँच गये। उन्हें आता देख नानी बाई के ससुराल वाले भड़क गये और उनका अपमान करने लगे। इस अपमान से नरसी जी व्यथित हो, रोते हुए श्रीकृष्ण को यादकरते हुए, वहां से चल दिए।
नानी बाई भी अपने पिता के इस अपमान को बर्दाश्त नहीं कर पाई और आत्महत्या करने दौड़ पड़ी परन्तु श्री कृष्ण ने नानी बाई को रोक दिया और उससे कहा कि कल वह स्वयं नरसी के साथ मायरा भरने के लिये आयेंगे।
दूसरे दिन नानी बाई बड़ी ही उत्सुकता के साथ श्री कृष्ण और नरसी जी का इंतज़ार करने लगी, तभी सामने देखती है कि नरसी जी संतों की टोली और कृष्ण जी एक सेठ का रूप धारण करके साथ चले आ रहे हैं और उनके पीछे ऊँटों और घोड़ों की लम्बी कतार आ रही है जिनमें सामान लदा हुआ है। दूर-दूर तक बैलगाड़ियाँ ही बैलगाड़ियाँ नज़र आ रही थी, जिनमें वह सब दुगना भरा था, जिसकी मांग पत्र में लिखी गई थी। ऐसा मायरा न अभी तक किसी ने देखा नहीं था।
यह सब देखकर ससुराल वाले अपने किये पर पछताने लगे। कहते हैं भगवान् द्वारिकाधीश ने स्वर्ण मुद्राओं की ऐसी वर्षा की, जिससे गाँव वाले भी धनी हो गए।
नानी बाई के ससुराल वाले उस सेठ को देखते ही रहे और सोचने लगे कि कौन है ये सेठ और ये क्यों नरसी जी की मदद कर रहा है, जब उनसे रहा न गया तो उन्होंने पूछा कि कृपा करके अपना परिचय दीजिये और आप क्यों नरसी जी की सहायता कर रहे हैं।
उनके इस प्रश्न का जवाब सेठ ने दिया, वही इस कथा का सम्पूर्ण सार है। सेठजी का उत्तर था ’मैं नरसी जी का सेवक हूँ, इनका अधिकार चलता है, मुझ-पर। जब कभी भी ये मुझे पुकारते हैं, मैं दौड़ा चला आता हूँ, इनके पास। जो ये चाहते हैं, मैं वही करता हूँ। इनके कहे कार्य को पूर्ण करना ही मेरा कर्तव्य है।
ये उत्तर सुनकर सभी हैरान रह गये और किसी के समझ में कुछ नहीं आ रहा था, बस नानी बाई ही समझती थी कि उसके पिता की भक्ति के कारण ही श्री कृष्ण उनसे बंध गये हैं और उनका दुख अब देख नहीं पा रहे हैं इसलिये मायरा भरने के लिये स्वयं ही आ गये हैं। भगवान केवल अपने भक्तों के वश में होते हैं।
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