ईश्वर प्रार्थना और आत्मोन्नति.


ईश्वर प्रार्थना और आत्मोन्नति.

(पं.श्रीरामजी उपाध्याय, एमए)

संसार में कदाचित ही कोई मनुष्य होगा जो सुख न चाहता हो। ऐसा होने पर भी हममें से इने-गिने व्यक्ति ऐसे मिलेंगे, जिनको वास्तव में सुखी कहा जा सके। सभी लोग अधिक से अधिक परिश्रम करते हैं, किन्तु प्रायः पचास प्रतिशत जनसंख्या के सन्मुख प्रातः और सायंकाल के भोजन की समस्या गम्भीर रूप से खड़ी रहती है, पारस्परिक वैर-विरोध का तो कुछ पूछता ही नहीं। कोई किसी का विश्वास नहीं करता। पुत्र का माता-पिता के प्रति, भृत्य का स्वामी के प्रति, स्त्री के पुरुष के प्रति-उपेक्षा का भाव है। मानव-समाज घृणा के रोग से बुरी तरह पीड़ित है। सर्वत्र दुःख का ही प्रसार है। कहीं शान्ति देखने को नहीं मिलती। सौजन्य, सहानुभूति, त्याग और सत्य का दर्शन भी दुर्लभ है। मानव-मस्तिष्क की जितनी भी बुराइयाँ कोई देखना चाहें, अपने में ही देख ले, अथवा घर से बाहर निकलकर भी सर्वत्र देख सकेगा।

अब प्रश्न यह उठता है कि हमारी ऐसी दुर्दशा क्यों हैं? क्या हम इन बुराइयों के प्रेमी हैं? क्या हम जानते नहीं कि इस भयंकर परिस्थिति से संसार को किस प्रकार मुक्त किया जा सकता है? इसमें कोई सन्देह नहीं कि हम अपनी दुर्दशा से पूर्णतया परिचित हैं और उससे मुक्त होना चाहते हैं। इससे मुक्त होने के उपायों से भी हम अनभिज्ञ नहीं हैं। दर्शन और उपनिषद्-ग्रन्थों में सर्वत्र इसके उपायों का उल्लेख मिलता है, किन्तु ऐसा होने पर भी हम उस कुंए के मेढ़क की तरह आचरण करते हैं, जो कभी किसी के पात्र में पड़कर बाहर तो चला आता है किन्तु बाहर के प्रकाश को मूर्खतावश दुःखमय जानकर पुनः उसी कुंए में कूद जाता है। हमें सभी अच्छे साधन ज्ञात हैं, किन्तु उनका उपयोग हम इसलिये नहीं करते कि हमें विश्वास नहीं है कि वे साधन वास्तव में हमारे परम कल्याण के लिये हैं।

हम में से कुछ लोग दर्शन-शास्त्र के प्रकाण्ड पण्डित है, किन्तु उनका भी आचरण साधारण मनुष्यों की तरह ही है। वे धन और विषय-वासनाओं में लिप्त हैं। यदि कोई उनसे बातचीत करे तो वे गीता उपनिषद् और पुराणों के श्लोक धड़ाधड़ कहते जायेंगे। उनका ज्ञान यदि उनके आचरण पर तनिक भी प्रभाव डालता तो वे महापुरुष हो जाते। किन्तु लज्जा की बात तो यही है कि सन्मार्ग जानते हुए भी उस पर आजकल के वाचनिक ज्ञानी चलते नहीं। यही दशा साधारण जनों की भी है। हम अपने सद्ज्ञान के आधार पर आचरण करने से डरते हैं। परिणाम यह होता है कि ऊँचे उठने के बदले हम प्रतिदिन गिरते जा रहे हैं। हमें विश्वास नहीं होता कि हमारे सद्ग्रन्थों में जिन मार्गों का आदेश किया गया है वे वास्तव में हमें सुख दे सकते हैं। संसार के महापुरुषों में भी हमारा वैसा ही अविश्वास है। कृष्ण और राम की शिक्षाओं और आदर्शों पर चलने वाला हम में से कदाचित ही कोई हो। आज भी हम राम और कृष्ण की पूजा करते हैं, किसी महान संन्यासी के सामने नतमस्तक हो जाते हैं और उसका आदर करते हैं किन्तु उसका आदर हम तभी तक करते हैं जब तक उसके सामने रहते हैं, उसकी नजर से हटते ही फिर पहले की ही भाँति गिर जाते हैं। ऐसी दशा में मनुष्य को क्षणिक श्रद्धा न करने के शाश्वत श्रद्धा करने के लिए अपना जीवन महापुरुषों के जीवन के समान ही बनाने की चेष्टा करनी चाहिये, यही मनुष्यत्व का प्रथम लक्षण है। ऊँचा उठने के लिए महापुरुषों में शाश्वत श्रद्धा रखना पहली सीढ़ी पर चढ़ जाना है, इसके पश्चात तो इस मार्ग से पीछे हटने को जी ही न चाहेगा।

हम सभी लोग कहते हैं कि हम मनुष्य हैं, हिन्दू हैं, ब्राह्मण या क्षत्रिय आदि हैं, किन्तु वास्तव में हम में कोई गुण नहीं, जिसके आधार पर हम अपने को मनुष्य भी कह सकें। व्यर्थ के लिये ही हम अपने को हिन्दू और ब्राह्मण आदि नामों से पुकारते हैं। किसी भी धर्म का अनुयायी होने के पहले अपने को मनुष्य बना लेना आवश्यक है। मनुष्यता के आधार सत्य और सहानुभूति हैं। यदि किसी में सत्य और सहानुभूति हो तो वह अवश्य ही मनुष्य कहलाने योग्य है। यदि उसमें ये दो रत्न नहीं चमकते तो वह मनुष्य नहीं है।

सत्य के अभाव में ही मानव-समाज का यह विकृत स्वरूप हो गया है। जितने लड़ाई - झगड़े, कलह और वैमनस्य मनुष्य-समाज में हैं, उनकी जड़ असत्य ही है। हम यहाँ सत्य का व्यापक रूप नहीं लेते, क्योंकि सत्य के व्यापक रूप में तो माननीय उन्नति का निःशेष तत्व ही निहित है। मेरा तात्पर्य सत्य से पारस्परिक व्यवहार के सत्य से है हम वो हैं, वही अपने को बाहर से भी दिख जाने की चेष्टा करें। बाह्याडम्बर से हम दूसरों को धोखा देते हुए अपनी आत्मा को भी कलुषित करते हैं। जो बात हृदय में हो वही मुख से भी निकलनी चाहिये। इस प्रकार सत्य का आचरण करते हुए मनुष्य अपने उत्साह को बढ़ाता है और अपने सहवासियों का भी परम उपकार करता है। हमें परमात्मा से प्रतिदिन विनय करनी चाहिये कि हमें नित्यप्रति सत्य का ही दर्शन हो।

सहानुभूति का सिद्धान्त सत्य की ही भाँति मनुष्यता का परिचायक है। जिस पुरुष में सहानुभूति होगी उसके व्यवहार में घृणा और क्रोध को स्थान नहीं मिलेगा। आधुनिक युग में मनुष्य अपने को दूसरों से अलग समझने लगा है। उसके मन में स्वार्थ की भावना ही प्रधान रूप से कार्यशील है। परिणाम यह होता है कि वह दूसरों के सुख-दुःख का विचार न करके अपना स्वार्थ साधने की चेष्टा करता है। इस स्वार्थ-साधना के लिए उसे दूसरों की हानि करनी पड़ती है-दूसरों को वह अपना शत्रु मान लेता है, किन्तु वह गलत मार्ग पर है। मनुष्य को अपने को दूसरों से भिन्न व्यक्ति न समझना चाहिये। जिसका स्वार्थ परार्थ ही हो, वही पुरुष वास्तव में ‘पुरुष’ नाम को सार्थक करता है। हम सभी लोग एक परमात्मा के अंश हैं- यही भावना हमको सदैव अपने मन में रखनी चाहिए। यह भावना प्रत्येक मनुष्य को इस योग्य बना देगी कि वह दूसरों को सुख दे सके। जैसे कोई फूल किसी से कुछ नहीं लेता किन्तु सबको समान रूप से आनन्द देता है, उसी प्रकार सज्जन अपने सदाचार से सबको प्रसन्न करता है। यदि किसी मनुष्य को रोटी न मिलती हो तो इस बात को यह समझकर नहीं टाल देना चाहिए कि इससे मेरा क्या सरोकार है। दूसरों की कठिनाईयों को अपनी ही कठिनाई समझना चाहिए। दूसरों के दुःख को अपना ही दुःख समझकर उसे दूर करने की चेष्टा करनी चाहिए। यह दया केवल मनुष्य के ही प्रति नहीं, किन्तु पशु-पक्षियों के प्रति भी होनी चाहिए। जो ईश्वर हमारा पिता है, वह उनका भी पिता है।

आध्यात्मिक उन्नति के लिए हमें श्रद्धापूर्वक ईश्वर की प्रार्थना करनी चाहिए कि वह हमें सत्मार्ग पर प्रवृत्त करें। अपनी सारी शक्तियों को परमात्मा के ही अर्पण कर देना सबसे बड़ी बात है। वही जो कुछ चाहे, हमसे कराये। हम जो कुछ करें, उसे ईश्वर का कार्य समझकर करें। ऐसी दशा में हम कोई भी बुरा काम कर ही नहीं सकते। ईश्वर सदैव हमारे पास है। वह हमारे कार्यों की परीक्षा करता है। हमारा सहायक है वह सबसे अधिक सहायता तभी करता है, जब हम सतत उनको अपने पास समझें। यदि ऐसा हमने समझ लिया तो हमारी आध्यात्मिक उन्नति होकर रहेगी और हम संसार के सुख और शान्ति का कारण बन सकेंगे।

(अखंड ज्योति-8/1952)

शरीर नहीं, सुन्दर तो है आत्म तत्व.


शरीर नहीं,
सुन्दर तो है आत्म तत्व.

युवराज भद्रबाहु अपने समय के सभी युवकों में सर्वश्रेष्ठ, सुन्दर और सुगठित काया का स्वामी था। उसे अपनी सुन्दर काया और अतुल रूप यौवन का गर्व भी था। इस गर्व के कारण वह अन्य राजकुमारों के सामने दर्प भरी बातें कहता रहता था। एक दिन युवराज महामंत्री के पुत्र सुकेशी के साथ बजरा से बाहर सरिता के तट पर भ्रमण कर रहा था। भ्रमण करते हुए युवराज और मंत्री नगर से कुछ दूर चले गए।

एक स्थान पर जहाँ सरिता के दूसरे तट पर श्मशान था, कुछ लोग शवदाह कर रहे थे। युवराज ने मंत्री से पूछा-”वहाँ क्या हो रहा है?”

वहाँ खड़े लोगों का कोई स्नेही जन मर गया है सुकेशी ने कहा-”वे लोग उसके मृत शरीर का दाह संस्कार कर रहे हैं।”

“अवश्य ही वह कोई कुरूप व्यक्ति रहा होगा।” भद्रबाहु यहाँ भी टिप्पणी किए बिना नहीं रह सका-”यदि वह सुन्दर होता तो कोई क्यों जलाना चाहता। अपने पास नहीं रखता।”

“नहीं ऐसी बात नहीं है, शरीर सुन्दर हो या असुन्दर, मर जाने पर सभी शरीर सड़ने-गलने लगते हैं। अतः उन शरीरों को जला देना पड़ता है।” सुकेशी ने कहा।

यह बात युवराज के न जाने किस मर्मस्थल को स्पर्श कर गयी। उसे अपना रूप, यौवन, सौंदर्य का दर्प टूटे हुए काँच के टुकड़ों की तरह बिखर गया प्रतीत होने लगा। लौटकर आने पर वह उदास रहने लगा। उदासी ने उसे इस बुरी तरह आ घेरा कि उसका सुन्दर चेहरा म्लान दिखाई पड़ने लगा। राजा ने अनेक प्रकार युवराज की उदासी और म्लानता का कारण जानना और उसे दूर करना चाहा पर कोई परिणाम नहीं निकला।

युवराज को इस प्रकार चिन्तित और उदास देखकर मंत्री पुत्र सुकेशी भी व्यथित हुआ। वह भद्रबाहु को हर तरह से बहलाने का प्रयत्न करता, पर युवराज के चेहरे पर छायी रहने वाली म्लानता मिटती ही नहीं थी। राजगुरु कालाचार्य को एक विधि सूझी और वे भद्रबाहु को अपने गुरु महाचार्य के पास ले गए।

सिद्ध योगी अपने योग बल से युवराज की मनोव्यथा, खिन्नता का कारण जान लिया और कहा-”भद्र! तुम इस शरीर के अन्तिम परिणाम की चिन्ता करते हो।”

लगा किसी ने दुःखित रोग को पहचान लिया हो। भद्रबाहु ने अपनी सारी व्यथा उड़ेल दी। महाचार्य ने कहा-”अच्छा बताओ! आज तुम भवन के स्वामी हो-उस भवन में निवास करते हो। कल को वह भवन रहने योग्य नहीं रह जाता तो उस भवन को छोड़कर किसी अन्य भवन में जाओगे अथवा नहीं।”

“सो जाना ही पड़ेगा महात्मन्!” भद्रबाहु ने कहा। कालाचार्य बोले-”इसके बाद वह भवन गिर जाता है या उसमें आग लग जाती है, तो इससे तुम्हारा क्या बिगड़ा?” “कुछ नहीं गुरुदेव।”

वही नियम शरीर के लिए भी लागू होता है। इसमें निवास करने वाली आत्मा के लिए जब तक यह रहने योग्य है, तभी तक यह सुन्दर है। जराजीर्ण हो जाने पर आत्मा द्वारा इसका त्याग और इसका नाश स्वाभाविक ही है। शरीर नहीं सुन्दर तो वह आत्म तत्व है, जिसके कारण इसकी प्रतिष्ठा है, इसलिए आत्मा के प्रीत्यर्थ उसके हित व विकास के लिए शरीर को एक उपकरण मात्र समझो। उसके लिए चिंतित मत होओ।”



(अखंड ज्योति-3/1993)

कैसे जाने कि व्यक्तित्व रुग्ण है या स्वस्थ?


कैसे जाने कि व्यक्तित्व
रुग्ण है या स्वस्थ?

शरीर और परिवार के निर्वाह हेतु धन की आये दिन सभी को आवश्यकता पड़ती है। इसे शारीरिक और मानसिक श्रम के आधार पर सहज ही जुटाया जा सकता है;पर इन दिनों आर्थिक तंगी की पुकार सर्वत्र सुनाई पड़ती है, उसके दो प्रमुख कारण हैं-एक आलस्य-प्रमाद से ग्रस्त अनगढ़ता। दूसरा है-विलास संग्रह और बड़प्पन जताने के लिए निमित्त उभरी महत्वाकाँक्षा। यह दोनों ही मानसिक विकार हैं। यदि इन पर नियन्त्रण स्वीकार किया जा सके तो अभावों की जो त्राहि-त्राहि सर्वत्र मची हुई है उसमें से 10 प्रतिशत का सहज समाधान हो जाय। लोगों को अधिकाधिक मात्रा में धन अर्जित करने की ललक है। भले ही वह किसी भी उचित-अनुचित तरीकों से उपलब्ध क्यों न किया गया हो। इस प्रचलित चिन्तन में आमूल चूल परिवर्तन किये बिना अर्थ संकट से छुटकारा पा सकना किसी भी प्रकार संभव नहीं हो सकता।

उपार्जन करते समय ध्यान रखा जाना चाहिए कि वह कठोर परिश्रम-पूर्वक, ईमानदारी के सहारे उन माध्यमों से अर्जित किया गया है या नहीं, जो समाज का किसी भी प्रकार अनर्थ नहीं करते। औचित्य ही ग्रह होना चाहिए। न्याय नीति का सर्वदा ध्यान रखा जाना चाहिए। इन उपायों से निर्वाह के योग्य धन सरलतापूर्वक कमाया जा सकता है।

कमाने से भी अधिक बुद्धिमत्ता के उपयोग की आवश्यकता उसके खर्चने में पड़ते है। दुर्बुद्धि के आवेश में यदि धन का दुरुपयोग क्रम चल पड़े तो उसकी हानि दरिद्रता की अपेक्षा कहीं अधिक भारी पड़ेगी। निर्वाह के साथ परिश्रम और कौशल के सहारे कोई भी व्यक्ति कहीं भी जुटा सकता है। कठिनाई तब पड़ती है जब मनुष्य बड़प्पन की लम्बी-चौड़ी महत्वाकाँक्षाएँ बटोर कर सिर पर लाद लेता है। वे सहज रीति से पूरी नहीं हो सकती। उनके लिए ललक के अनुरूप ही लम्बी छलाँग लगानी पड़ती है। कहीं गड़ा धन मिलने लाटरी खुलने के दिवा स्वप्न देखने वाले तो प्रायः रंगीन उड़ाने भरकर ही रह जाते हैं; पर व्यावहारिक तरीका अनाचार पर उतरने का ही सूझ पड़ता है। इसके लिए चोरी ठगी से लेकर अनाचार,अत्याचार के वे उपाय अपनाने पड़ते है जो अपनी योग्यता और परिस्थिति के साथ तालमेल खाते हों। देखा गया है कि जिनके पास अधिक धन संग्रहित है उनमें से कम ही ऐसे मिलेंगे जिन्होंने न्यायोचित नीति से सम्पदा जमा करने में सफलता पाई हो।

परिश्रमपूर्वक, ईमानदारी से किये गये उपार्जन के साथ यह बुद्धि भी उत्पन्न होती है कि इस श्रम साधना को किसी उपयोगी कार्य में ही नियोजित कार्य में ही नियोजित किया जाय। यदि कमाई अत्यधिक मात्रा में संग्रह हो रही है तो उसके सदुपयोग का विवेक फिर रह नहीं जाता। कमाई में प्रयुक्त हुआ अतिवाद व्यय करने की घड़ी में फिजूलखर्ची बनकर उभरता है। बढ़े हुए धन का पिछड़ों को उठाने और उठों को उछालने जैसे महान प्रयोजनों में लगा सकने की उदार दूरदर्शिता आतुर लोगों के पास रह नहीं जाती, वे विलास, संग्रह और प्रदर्शन के अतिरिक्त और कोई राह ऐसी खोज नहीं पाते, जिसमें आवश्यकता से अधिक धन का नियोजन बन पड़े। परमार्थ उनके लिए पर्वत उठाने की तरह भारी पड़ता है। अनीति उपार्जन प्रायः दुर्व्यसनों में ही खर्च होता है। दुर्व्यसन अपने आप में अभिशाप है, जो जिसके भी पीछे लगते है उसे अनेकानेक दुर्गुणों के शिकार बना लेते हैं। उद्धत आचरण करने के लिए उकसाते रहते हैं। इन प्रेरणाओं को चरितार्थ करने वाला अपनी ओर दूसरों की दृष्टि में अप्रमाणिक, तिरस्कृत एवं घृणास्पद ही बनाता चला जाता है। पतन के मार्ग पर चलने वाला पग-पग पर ठोकरें खाता है और आन्तरिक विक्षोभ तथा असहयोग-अपमान के सहते-सहते व्यक्तित्व की दृष्टि से इतना गिर जाता है जिसके कहीं ऊँचे मध्यवर्गी औसत गुजारा करने वाले होते हैं। हराम की कमाई किसी को हजम नहीं होती। न उसके रहते उपार्जनकर्ता चैन से बैठ पाते हैं और न उत्तराधिकार में उसे पाने वाले ही उसका सदुपयोग कर सकते है। हानि इन उपभोक्ताओं को भी कम नहीं होती।

अपनी शारीरिक, मानसिक शक्ति को समग्र तत्परता और तन्मयता के साथ हाथ में लिए हुए कामों में पूरी तरह लगाये रहना चाहिए। उसके किए हुए काम का स्तर ऊँचा रहता है। इसका मूल्य भी अच्छा मिलता है। कर्त्ता की प्रमाणिकता और कुशलता पर विश्वास करते हुए लोग उसे श्रेय देते हैं। ऐसों को सहयोग देने और सहयोग पाने के लिए विचारशील वर्ग सदा तैयार रहता है, फलतः ऊँचे उठने, आगे बढ़ने का पथ सहज ही प्रशस्त होता जाता है। सफलताएँ निकट से निकटतम आती-जाती है। महानता ऐसों के ही पल्ले बँधती है।

अर्थ संतुलन को महत्व देने वाले व्यक्ति को अपने ऊपर असाधारण भार नहीं बढ़ाना चाहिए। सन्तानोत्पादन के संबंध में अत्याधिक संतान की होना सौभाग्य माना जाता रहा होगा; पर आज की स्थिति में वह अत्यधिक बोझिल, खर्चीला और अगणित समस्याओं से भरा-पूरा है। इस दिशा में लापरवाही बरतने पर बच्चे बढ़ जाते है और वे अपनी संख्या के अनुरूप माता-पिता तथा परिवार के हर सदस्य की समस्याओं में कटौती करते जाते हैं। माता का स्वास्थ्य, पिता का अर्थ संतुलन बुरी तरह गड़बड़ा देते है। अभावग्रस्त परिस्थितियों के बीच पलकर वे समुचित देख-रेख के के अभाव में दुर्गुणी बनते जाते है और अंधकारमय भविष्य के कीचड़ में क्रमशः धँसते ही चले जाते है। व्यापक परिस्थितियों को देखते हुए तो यह उचित प्रतीत होता है कि पचास-चालीस वर्ष तक तो कोई इन परिस्थितियों में बच्चे उत्पन्न करने की बात ही न सोचे। सोचे भी तो एक पर्याप्त माना जाता चाहिए। बहुत कुछ तो दो। अधिक बच्चों वाला परिवार अब कदाचित ही कोई समुन्नत और सुसंस्कारी रह सके, कदाचित ही सुख-चैन के दिन बिता सके।

कोई समय था जब परिवार का एक सदस्य कमाता था और सारा घर मजे में गुजारा करता था, पर अब इस घोर महँगाई के जमाने में स्थिति सर्वदा बदल गई है। अब घर के हर सदस्य को अपनी-अपनी शक्ति और सामर्थ्य के अनुरूप कुछ न कुछ कमाने की-बचाने की बात सोचनी चाहिए। अच्छा हो हर परिवार में कोई गृहउद्योग चले, जिसमें अर्थ लाभ से ही अपना कौशल बढ़ाते रहना और व्यस्त रहने की सुविधा प्राप्त होती रहे। ठाली बैठे रहने वाले आमतौर से कुसंग में अपने लिए जगह बनाते हैं, आवारागर्दी में घूमते रहते है। बुरी आदतों के शिकार बनते है और अन्ततः अपने को, संपर्क -क्षेत्र को अपार हानि पहुँचाते है। इसलिए आत्म विकास की, परमार्थ की ललक न जगा सके तो भी अधिक उपार्जन को आगे रखकर हर वयस्क सदस्य को कुछ कमाने में, उत्पादन बढ़ाने में संलग्न रहना चाहिए। खाली समय में ही शैतान का आक्रमण होता है इस उक्ति को ध्यान में रखते हुए सफाई से लेकर आजीविका बढ़ाने तक के किसी न किसी सृजनात्मक कार्य में लगे रहने का अभ्यास डालना चाहिए। जहाँ यह बोध होगा कि पैसा किस प्रकार कितने परिश्रम से कमाया जाता है, उनका फिजूलखर्ची के लिए हाथ बढ़ेगा नहीं, कुमार्ग पर पैर बढ़ेगा नहीं। अर्थ संतुलन की दृष्टि से इस प्रवृत्ति का पनपना हर दृष्टि से श्रेयस्कर है। घर के हर सदस्य को स्वावलंबी और सुसंस्कारी बनाने का समुचित ध्यान रखा जाय, तो बड़ी पूँजी छोड़ मरने की अपेक्षा कहीं अधिक दूरदर्शिता की बात होगी।

उचित तरीकों से अधिक कमाने में हर्ज नहीं। हानि तो अपव्यय में है। अधिक कमाई राशि को

पुण्य-परमार्थ में लगाना चाहिए। इन दिनों सत्प्रवृत्तियों का संवर्धन और दुष्प्रवृत्तियों का उन्मूलन व्यक्ति और समाज के हित को देखते हुए नितान्त आवश्यक है। इन प्रयोजनों में जितना अधिक लगाया जा सके उतना ही कम है।

खर्च की सीमा निर्धारण उस अनुपात में होना चाहिए जितनी आमदनी है। खर्चे में यदि आमदनी बढ़ाना संभव न हो, तो खर्चे तो निश्चित रूप से घटाये जा सकते है। भोजन, वस्त्र जैसी भौतिक आवश्यकताएँ यदि औसत नागरिक स्तर पर नियन्त्रित रखी जा सकें तो उतनी राशि से काम सकता है, जिसे समर्थ लोग समग्र लोग समग्र परिश्रम के सहारे आसानी से जुटा सके। कठिनाई तब खड़ी होती है जब संपन्नों की नकल करने का मन चलता है और वैसे ही ठाटबाट खड़े करने के लिए जो मचलता है। खर्चीली रीति-नीति अपना लेना तो अति सरल है; पर उसके लिए आवश्यक साधन जुटाने का मानस भी तो बनना चाहिए। अनीति से कमाने और ठाट-बाट में खर्च करने की अपेक्षा और कहीं अधिक अच्छा है कि सादा जीवन उच्च विचार की नीति अपनाई जाय। जितना संभव है उतने उपार्जन को ध्यान में रखते हुए खर्च करने की सीमा मर्यादा निर्धारित की जाय। बुद्धिमानी और दूरदर्शिता इसी में है।

काम की गति धीमी होना, लापरवाही बरतना, समय को ज्यों-त्यों गुजारना, अन्यमनस्क रहना, काम को कम महत्व देना, आलस्य और उपेक्षा अपनाये रहना जैसे दुर्गुणों के रहते कोई सुसंपन्न नहीं बन सकता, उसेस दरिद्रता घेरे रहेगी। साथ ही पिछड़ापन भी सिर पर चढ़ा रहेगा। जिन्हें आर्थिक स्थिति सही रखने का सचमुच ही मन है। उन्हें अपनी अनगढ़ आदतें सुधारनी चाहिए। सही स्तर का व्यक्ति अपनी स्थिति हर क्षेत्र में सही बनाये रहता है। आर्थिक क्षेत्र में तंगी उन्हें उठानी पड़ती है जो उत्पादन में उपेक्षा और फिजूलखर्ची में उत्साह दिखाते रहते है। आदतें सुधर जाने पर हर किसी का आर्थिक स्थिति सही बन सकती है। न उसे किसी के आगे हाथ पसारना पड़ेगा और न चोरी ठगी जैसी अनीतियों पर उतरना पड़ेगा। औसत स्तर का निर्वाह किसी भी परिश्रमी और सुनियोजित जीवन जीने का निश्चय किए हुए व्यक्ति के लिए तनिक भी कठिन नहीं पड़ना चाहिए दरिद्रता मनुष्य पर कोई लादता नहीं है। वह तो दुर्गुणी द्वारा निमन्त्रण देकर बुलाई हुई अतिथि भी होती है। स्मरण रहे दरिद्रता की तरह अमीरी भी इन दिनों अभिशाप मानी जाती है। दोनों की ही गणना असंतुलित परिणतियों में की जाती है। दुर्बलता बुरी है; पर शरीर का असाधारण रूप से फूलकर भारभूत बन जाना भी तो कम बुरा नहीं है। इस संदर्भ में शास्त्रकारों का वह परामर्श पूरी तरह सटीक बैठता है जिसमें कहा गया है कि कमाने की अपेक्षा खर्चने में सौगुनी बुद्धिमत्ता चाहिए। किसी व्यक्ति के खर्च करने का ढंग देखकर चरित्र और स्तर का अनुमान कोई भी सरलतापूर्वक लगा सकता है।

अर्थ को धुरी मानकर जीवन के अनगिनत संदर्भों को भी उसके साथ जोड़ा जा सकता है और सर्वतोमुखी प्रगति का अभ्यास किया जा सकता है। अर्थ संयम सध सके तो इन्द्रिय संयम, समय और विचार संयम भी सध सकता है। इस आधार पर सामान्य जीवन में सरल जीवन सधने का उपक्रम चलाया जा सकता है। समय की बरबादी और दरिद्रता का सीधा सम्बन्ध है। जो नियमित दिनचर्या बनाकर व्यस्तता को अपना प्रिय बनायेगा, उसका उत्पादन समग्र प्रगति को ढाँचा खड़ा करता रहेगा। सुविकसित व्यक्तियोँ ने इसी आधार पर अपनी जीवनचर्या का ढाँचा और अनेकानेक अवाँछनीयताओं से बचते हुए ऐसी प्रगति का सरंजाम जुटाया है जिस पर अपने को गर्व और दूसरों को हर्ष की अभिव्यक्ति का अवसर मिल सके।

पतन और पराभव के अनेकानेक निमित्त कारण उन दुर्गुणों की ही उपज है, जिन्हें अनगढ़ लोग आलस्य और प्रमाद से ग्रस्त रह कर उत्कर्ष के खेल में विषबेल की तरह उगाते है और फिर समयानुसार उनके कारण अनेक अनर्थों का सामना करते है, इस जिए पिछड़ेपन की तरह उद्धत अपव्यय को भी समान रूप से ‘निन्दनीय’ माना गया है। दरिद्री और अर्थ संयमी में अन्तर है। आदर्शवादी लोकसेवी दरिद्री नहीं, संयमी होते है। अर्थ दैनिक जीवन की अनिवार्य आवश्यकता है उसके लिए आवश्यक उत्पादन और साथ ही श्रेष्ठतम सदुपयोग का ध्यान रखकर योजनाबद्ध जीवन-चर्चा अपनाने वाले अन्य क्षेत्रों में भी सद्गुणी बनते है। उनकी शालीनता हर दिशा में, हर घड़ी बढ़ती ही जाती है। नाड़ी देखकर रुग्णता और स्वस्थता की जाँच की जाती है। किसी के कमाने और खर्चने का ढंग बारीकी से देखने पर यह जाना जा सकता कि इसका व्यक्तित्व रुग्ण है या स्वस्थ। इस का भविष्य उत्कर्ष की ओर चला रहा है या आये दिन अधःपतन के गर्त में गिर रहा है।



(अखंड ज्योति-3/1993)

गीता प्रवचन- भाग-1 (राष्ट्र-संत श्री विनोबा भावे जी)

राष्ट्र-संत आदरणीय श्री विनोबा भावे जी का गीता पर दिया गया प्रवचन क्रमश: पोस्ट किया जा रहा हैं|

गीता-प्रवचन –विनोबा जी ...पहला अध्याय...प्रास्ताविक आख्यायिका: अर्जुन का विषाद1.मध्ये-महाभारतम्.

गीता प्रवचन- भाग-1
(राष्ट्र-संत श्री विनोबा भावे जी)
प्रिय भाइयो,

1.आज से मै श्रीमद्भगवद्गीता के विषय में कहने वाला हूँ। गीता का और मेरा सम्बन्ध तर्क से परे है। मेरा शरीर मां के दूध पर जितना पला है, उससे कहीं अधिक मेरे हृदय और बुद्धि का पोषण गीता के दूध पर हुआ है। जहाँ हार्दिक सम्बन्ध होता है, वहाँ तर्क की गुंजाइश नहीं रहती। तर्क को काटकर श्रद्धा और प्रयोग, इन दो पंखों से ही मैं गीता-गगन में यथाशक्ति उड़ान भरता रहता हूँ। मैं प्रायः गीता के वातावरण में रहता हूँ। गीता मेरा प्राणतत्त्व है। जब मैं गीता के सम्बन्ध में किसी से बात करता हूँ, तब गीता-सागर पर तैरता हूँ और जब अकेला रहता हूँ तब उस अमृत-सागर में गहरी डुबकी लगाकर बैठ जाता हूँ। ऐसे इस गीता माता का चरित्र मै हर रविवार को आपको सुनाऊं, यह तय हुआ है।

2.गीता की योजना महाभारत में की गयी है। गीता महाभारत के मध्य भाग में एक ऊँचे दीपक की तरह स्थित है, जिसका प्रकाश पूरे महाभारत पर पड़ रहा है। एक ओर छह पर्व और दूसरी ओर बारह पर्व, इनके मध्यभाग में; उसी तरह एक ओर सात अक्षौहिणी सेना और दूसरी ओर ग्यारह अक्षौहिणी, इनके भी मध्य भाग में गीता का उपदेश दिया जा रहा है।

3.महाभारत और रामायण हमारे राष्ट्रीय ग्रन्थ हैं। उनमें वर्णित व्यक्ति हमारे जीवन में एकरूप हो गये हैं। राम, सीता, धर्मराज, द्रौपदी, भीष्म, हनुमान आदि रामायण-महाभारत के चरित्रों ने सारे भारतीय जीवन को हज़ारों वर्षों से मंत्रमुग्ध सा कर रखा है। संसार के अन्य महाकाव्यों के पात्र इस तरह लोक जीवन में घुले-मिले नहीं दिखायी देते। इस दृष्टि से महाभारत और रामायण निस्संदेह अद्भुत गन्थ हैं। रामायण यदि एक मधुर नीतिकाव्य है, तो महाभारत एक व्यापक समाजशास्त्र। व्यास देव ने एक लाख संहिता लिखकर असंख्य चित्रों, चरित्रों और चारित्र्यों का यथावत चित्रण बड़ी कुशलतासे किया है। बिल्कुल निर्दोष तो सिवा एक परमेश्वर के कोई नहीं है, यह बात महाभारत बहुत स्पष्टता से बता रहा है। एक और जहाँ भीष्म, युधिष्ठिर जैसों के दोष दिखाये हैं, तो दूसरी और कर्ण-दुर्योधनादि के भी गुणों पर प्रकाश डाला गया है। महाभारत बतलाता है कि मानव-जीवन सफेद और काले तंतुओं का एक पट है। अलिप्त रहकर भगवान व्यास जगत के-विराट संसार के-छाया-प्रकाशमय चित्र दिखलाते हैं। व्यासदेव के इस अत्यंत अलिप्त और उदात्त ग्रंथन-कौशल के कारण महाभारत ग्रंथ मानो एक सोने की बड़ी भारी खान बन गया है। उसका शोधन करके भरपूर सोना लूट लिया जाये।



(साभार krishnakosh.org)

ज्योतिष विषय – भाग 1.


ज्योतिष विषय भाग 1.

लोकानामन्तकृत्कालः कालोन्यः कल्नात्मकः |
स द्विधा स्थूल सुक्ष्मत्वान्मूर्त श्चामूर्त उच्यते ||

अर्थात – एक प्रकार का काल संसार का नाश करता है और दूसरे प्रकार का कलानात्मक है, अर्थात जाना जा सकता है| यह भी दो प्रकार का होता है (१) स्थूल और (२) सूक्ष्म| स्थूल नापा जा सकता है इसलिए मूर्त कहलाता है और जिसे नापा नहीं जा सकता इसलिए अमूर्त कहलाता है|

ज्योतिष में प्रयुक्त काल (समय) के विभिन्न प्रकार.

प्राण (असुकाल) – स्वस्थ्य मनुष्य सुखासन में बैठकर जितनी देर में श्वास लेता व छोड़ता है, उसे प्राण कहते हैं|

६ प्राण = १ पल (१ विनाड़ी)
६० पल = १ घडी (१ नाडी)
६० घडी = १ नक्षत्र अहोरात्र (१ दिन रात)
अतः १ दिन रात = ६०*६०*६ प्राण = २१६०० प्राण


इसे यदि आज के परिप्रेक्ष्य में देखें तो

१ दिन रात = २४ घंटे = २४ x ६० x ६० = ८६४०० सेकण्ड्स
अतः १ प्राण = 86400/२१६०० = ४ सेकण्ड्स

अतः एक स्वस्थ्य मनुष्य को सुखासन में बैठकर श्वास लेने और छोड़ने में ४ सेकण्ड्स लगते हैं|

प्राचीन काल में पल का प्रयोग तोलने की इकाई के रूप में भी किया जाता था|

१ पल = ४ तोला(जिस समय में एक विशेष प्रकार के छिद्र द्वारा घटिका यंत्र में चार तोले  जल चढ़ता है, उसे पल कहते हैं)|

जितने समय में मनुष्य की पलक गिरती है, उसे निमेष कहते हैं|

१८ निमेष = १ काष्ठा
३० काष्ठा = १ कला = ६० विकला
३० कला = १ घटिका
२ घटिका = ६० कला = १ मुहूर्त
३० मुहूर्त = १ दिन
इस प्रकार १ नक्षत्र दिन = ३० x २ x ३० x ३० x १८  = ९७२००० निमेष|

उपरोक्त गणना सूर्य सिद्धांत से ली गयी है; किन्तु स्कन्द पुराण में इसकी संरचना कुछ भिन्न मिलती है | उसके अनुसार...

१५ निमेष = १ काष्ठा
३० काष्ठा = १ कला
३० कला = १ मुहूर्त
३० मुहूर्त = १ दिन रात

इसके अनुसार...
१ दिन रात = ३० x ३० x ३० x १५ = ४०५०० निमेष होते हैं|

यहाँ हम सूर्य सिद्धांत को ज्यादा प्रमाणित मानते हैं, क्योंकि वो विशुद्ध ज्योतिष ग्रन्थ है और उसकी गणना भी ज्योतिषी द्वारा ही की गयी है, जबकि स्कन्द पुराण में मात्र अनुवाद मिलता है, जो गलत भी हो सकता है; क्योंकि कोई आवश्यक नहीं की अनुवादक ज्योतिषी भी हो|

अब
१ दिन = २१६०० प्राण = ८६४०० सेकण्ड्स = ९७२००० निमेष
१ प्राण = ९७२०००/२१६०० = ४५ निमेष
१ सेकंड = ९७२०००/८६४०० = ११.२५ निमेष.

सौर मास, चन्द्र मास, नाक्षत्रमास और सावन मास – ये ही मास के चार भेद हैं। सौरमास का आरम्भ सूर्य की संक्रांति से होता है। सूर्य की एक संक्रांति से दूसरी संक्रांति का समय ही सौरमास है। (सूर्य मंडल का केंद्र जिस समय एक राशि से दूसरी राशि में प्रवेश करता है, उस समय दूसरी राशि की संक्रांति होती है| एक संक्रांति से दूसरी संक्राति के समय को सौर मास कहते हैं| १२ राशियों के हिसाब से १२ ही सौर मास होते हैं )| यह मास प्रायः तीस-एकतीस दिन का होता है। कभी कभी उनतीस और बत्तीस दिन का भी होता है। चन्द्रमा की ह्र्वास वृद्धि वाले दो पक्षों का जो एक मास होता है, वही चन्द्र मास है। यह दो प्रकार का होता है – शुक्ल प्रतिपदा से आरम्भ होकर अमावस्या को पूर्ण होने वाला ‘जमांत’ मास मुख्य चंद्रमास है। कृष्ण प्रतिपदा से पूर्णिमा तक पूरा होने वाला गौण चंद्रमास है। यह तिथि की ह्र्वास वृद्धि के अनुसार २९, २८, २७ एवं ३० दिनों का भी हो जाता है।

सूर्य जब पृथ्वी के पास होता है-(जनवरी के प्रारंभ में) तब उसकी कोणीय गति तीव्र होती है और जब पृथ्वी से दूर होता है-(जुलाई के आरम्भ में) तब इसकी कोणीय गति मंद होती है| जब कोणीय गति तीव्र होती है, तब वह एक राशि शीघ्र पार कर लेता है और सौर मास छोटा होता है, इसके विपरीत जब कोणीय गति मंद होती है, तब सौर मास बड़ा होता है|

सौर मास का औसत मान = ३०.४४ औसत सौर दिन.

जितने दिनों में चंद्रमा अश्वनी से लेकर रेवती के नक्षत्रों में विचरण करता है, वह काल नक्षत्रमास कहलाता है। यह लगभग २७ दिनों का होता है। सावन मास तीस दिनों का होता है। यह किसी भी तिथि से प्रारंभ होकर तीसवें दिन समाप्त हो जाता है। प्रायः व्यापार और व्यवहार आदि में इसका उपयोग होता है। इसके भी सौर और चन्द्र ये दो भेद हैं। सौर सावन मास सौर मास की किसी भी तिथि को प्रारंभ होकर तीसवें दिन पूर्ण होता है। चन्द्र सावन मास, चंद्रमा की किसी भी तिथि से प्रारंभ होकर उसके तीसवें दिन समाप्त माना जाता है।

नोट १ - यहाँ पर नक्षत्र एवं राशियों को संक्षेप में लिखा गया है, इनके बारे में विस्तृत चर्चा खगोल अध्ययन में की जाएगी, जहाँ पर इनके बारे में सम्पूर्ण व्याख्या दी जाएगी|

तिथि – चन्द्रमा आकाश में चक्कर लगाता हुआ, जिस समय सूर्य के बहुत पास पहुच जाता है, उस समय अमावस्या होती है| (जब चंद्रमा सूर्य और पृथ्वी के बिलकुल मध्य में स्थित होता है तब वह सूर्य के निकटतम होता है) | अमावस्या के बाद चंद्रमा सूर्य से आगे पूर्व की ओर बढ़ता जाता है और जब १२० कला आगे हो जाता है, तब पहली तिथि (प्रथमा) बीतती है| १२० से २४० कला का जब अंतर रहता है, तब दूज रहती है| २४० से २६० तक जब चंद्रमा सूर्य से आगे रहता है, तब तीज रहती है| इसी प्रकार जब अंतर १६८०-१८O० तक होता है, तब पूर्णिमा होती है, १८O०-१९२० तक जब चंद्रमा आगे रहता है, तब १६ वी तिथि (प्रतिपदा) होती है| १९२०- २O४० तक दूज होती है, इत्यादि| पूर्णिमा के बाद चंद्रमा सूर्यास्त से प्रतिदिन कोई २ घडी (४८ मिनट) पीछे निकालता है|

चन्द्र मासों के नाम इस प्रकार हैं – चैत्र, वैशाख, ज्येष्ठ, आषाढ़, श्रावण, भाद्रपद, अश्विन, कार्तिक, मार्गशीर्ष या मृगशिरा, पौष, माघ और फाल्गुन|

देवताओं का एक दिन – मनुष्यों के एक वर्ष को देवताओं के एक दिन माना गया है। उत्तरायण तो उनका दिन है और दक्षिणायन रात्रि। पृथ्वी के उत्तरी ध्रुव पर देवताओं के रहने का स्थान तथा दक्षिणी ध्रुव पर राक्षसों के रहने का स्थान बताया गया है| साल में २ बार दिन और रात सामान होती है| ६ महीने तक सूर्य विषुवत के उत्तर और ६ महीने तक दक्षिण रहता है| पहली छमाही में उत्तरी गोल में दिन बड़ा और रात छोटी तथा दक्षिण गोल में दिन छोटा और रात बड़ी होती है| दूसरी छमाही में ठीक इसका उल्टा होता है| परन्तु जब सूर्य विषुवत वृत्त के उत्तर रहता है, तब वह उत्तरी ध्रुव (सुमेरु पर्वत पर) ६ महीने तक सदा दिखाई देता है और दक्षिणी ध्रुव पर इस समय में नहीं दिखाई पड़ता| इसलिए इस छमाही को देवताओ का दिन तथा राक्षसों की रात कहते हैं | जब सूर्य ६ महीने तक विषुवत वृत्त के दक्षिण रहता है, तब उत्तरी ध्रुव पर देवताओं को नहीं दिख पड़ता और राक्षसों को ६ महीने तक दक्षिणी ध्रुव पर बराबर दिखाई पड़ता है| इसलिए हमारे १२ महीने देवताओं अथवा राक्षसों के एक अहोरात्र के समान होते हैं|

देवताओं का १ दिन (दिव्य दिन) = १ सौर वर्ष

दिव्य वर्ष – जैसे ३६० सावन दिनों से एक सावन वर्ष की कल्पना की गयी है, उसी प्रकार ३६० दिव्य दिन का एक दिव्य वर्ष माना गया है| यानी ३६० सौर वर्षों का देवताओं का एक वर्ष हुआ| अब आगे बढ़ते हैं|

१२०० दिव्य वर्ष = १ चतुर्युग = १२०० x ३६० = ४३२००० सौर वर्ष.

चतुर्युग में सतयुग, त्रेता, द्वापर और कलियुग होते हैं| चतुर्युग के दसवें भाग का चार गुना सतयुग (४०%), तीन गुना (३०%) त्रेतायुग, दोगुना (२०%) द्वापर युग और एक गुना (१०%) कलियुग होता है|

अर्थात १ चतुर्युग (महायुग) = ४३२०००० सौर वर्ष.

१ कलियुग = ४३२००० सौर वर्ष

१ द्वापर युग = ८६४६०० सौर वर्ष

१ त्रेता युग = १२९६००० सौर वर्ष

१ सतयुग = १७२८००० सौर वर्ष

जैसे एक अहोरात्र में प्रातः और सांय दो संध्या होती हैं, उसी प्रकार प्रत्येक युग के आदि में जो संध्या होती है, उसे आदि संध्या और अंत में जो संध्या आती है, उसे संध्यांश कहते हैं| प्रत्येक युग की दोनों संध्याएँ उसके छठे भाग के बराबर होती हैं, इसलिए एक संध्या (संधि काल) बारहवें भाग के सामान हुई| इसका तात्पर्य यह हुआ कि..

कलियुग की आदि व अंत संध्या = ३६०० सौर वर्ष वर्ष,

द्वापर की आदि व् अंत संध्या = ७२००० सौर वर्ष,

त्रेता युग की आदि व अंत संध्या = १०८००० सौर वर्ष,

सतयुग की आदि व अंत संध्या = १४४००० सौर वर्ष.

अब और आगे बढ़ते हैं|

७१ चतुर्युगों का एक मन्वंतर होता है, जिसके अंत में सतयुग के समान संध्या होती है| इसी संध्या में जलप्लव् होता है| संधि सहित १४ मन्वन्तरों का एक कल्प होता है, जिसके आदि में भी सतयुग के समान एक संध्या होती है, इसलिए एक कल्प में १४ मन्वंतर और १५ सतयुग के सामान संध्या हुई|

अर्थात १ चतुर्युग में २ संध्या.

१ मन्वंतर = ७१ x ४३२०००० = ३०६७२०००० सौर वर्ष

मन्वंतर के अंत की संध्या = सतयुग की अवधि = १७२८००० सौर वर्ष.

= १४ x ७१ चतुर्युग + १५ सतयुग.

= ९९४ चतुर्युग + (१५ x ४)/१० चतुर्युग (चतुर्युग का ४०%)

= १००० चतुर्युग = १००० x १२००० = १२०००००० दिव्य वर्ष

= १००० x ४३२०००० = ४३२००००००० सौर वर्ष

ऐसा मनुस्मृति में भी मिलता है. किन्तु आर्यभट की आर्यभटीय के अनुसार

१ कल्प = १४ मनु (मन्वंतर)

१ मनु = ७२ चतुर्युग

और आर्यभट्ट के अनुसार

१४ x ७२ = १००८ चतुर्युग = १ कल्प

जबकि सूर्य सिद्धांत से १००० चतुर्युग = १ कल्प

जो की ब्रह्मा के १ दिन के बराबर है| इतने ही समय की ब्रह्मा की एक रात भी होती है| इस समय ब्रह्मा की आधी आयु बीत चुकी है, शेष आधी आयु का यह पहला कल्प है| इस कल्प के संध्या सहित ६ मनु बीत गए हैं और सातवें मनु वैवस्वत के २७ महायुग बीत गए हैं तथा अट्ठाईसवें महायुग का भी सतयुग बीत चूका है|

इस समय २०१३ में कलियुग के ५०४७ वर्ष बीते हैं|

महायुग से सतयुग के अंत तक का समय = १९७०७८४००० सौर वर्ष.

यदि कल्प के आरम्भ से अब तक का समय जानना हो तो ऊपर सतयुग के अंत तक के सौर वर्षों में त्रेता के १२८६००० सौरवर्ष, द्वापर के ८६४००० सौर वर्ष तथा कलियुग के ५०४७ वर्ष और जोड़ देने चाहिए|

बीते हुए ६ मन्वन्तरों के नाम हैं – (१) स्वायम्भुव (२) स्वारोचिष (३) औत्तमी (४) तामस (५) रैवत (६) चाक्षुष| वर्तमान मन्वंतर का नाम वैवस्वत है| वर्तमान कल्प को श्वेत कल्प कहते हैं, इसीलिए हमारे संकल्प में कहते हैं –

"प्रवर्तमानस्याद्य ब्राह्मणों द्वितीय प्रहरार्धे श्री श्वेतवराहकल्पे वैवस्वत मन्वन्तरे अष्टाविंशति तमे कलियुगे कलि प्रथम चरणे ……………बौद्धावतारे वर्तमानेस्मिन वर्तमान संवत्सरे अमुकनाम वत्सरे अमुकायने अमुक ऋतु अमुकमासे अमुक पक्षे अमुक तिथौ अमुकवासरे अमुकनक्षत्रे संयुक्त चन्द्रे …. ….. तिथौ ………" 

एक सौर वर्ष में १२ सौर मास तथा ३६५.२५८५ मध्यम सावन दिन होते हैं परन्तु १२ चंद्रमास ३५४.३६७०५ मध्यम सावन दिन का होता है, इसलिए १२ चंद्रमासों का एक वर्ष सौर वर्ष से १०.८९१७० मध्यम सावन दिन छोटा होता है| इसलिए कोई तैंतीस महीने में ये अंतर एक चंद्रमास के समान हो जाता है| जिस सौर वर्ष में यह अंतर १ चंद्रमास के समान हो जाता है, उस सौर वर्ष में १३ चंद्रमास होते हैं| उस मास को अर्धमास या मलमास कहा जाता है| यदि ऐसा न किया जाये तो चंद्रमास के अनुसार मनाये जाने वाले त्यौहार पर्व इत्यादि भिन्न भिन्न ऋतुओं में मुसलमानी त्यौहारों की तरह भिन्न भिन्न ऋतुओं में पड़ने लगे|

किस घंटे (होरा) का स्वामी कौन ग्रह है, यह जानने के लिए वह क्रम समझ लेना चाहिए, जिस क्रम से घंटे के स्वामी बदलते हैं| शनि ग्रह पृथ्वी से सब ग्रहों से दूर है, उस से निकटवर्ती बृहस्पति है, बृहस्पति से निकट मंगल, मंगल से निकट सूर्य, सूर्य से निकट शुक्र, शुक्र से निकट बुध और बुध से निकट चंद्रमा है|

इसी क्रम से होरा के स्वामी बदलते हैं| यदि पहले घंटे का स्वामी शनि है, तो दूसरे घंटे का स्वामी बृहस्पति, तीसरे घंटे का स्वामी मंगल, चौथे का सूर्य, पांचवे का शुक्र, छठे का बुध, सातवें का चन्द्रमा, आठवें का फिर शनि इत्यादि क्रमानुसार हैं| परन्तु जिस दिन पहले घंटे का स्वामी शनि होता है, उस दिन का नाम शनिवार होता हैं| इसलिए शनिवार के दूसरे घंटे का स्वामी बृहस्पति, तीसरे घंटे का स्वामी मंगल इत्यादि हैं| इस प्रकार सात सात घंटे के बाद स्वामियों का वही क्रम फिर आरम्भ होता है| इसलिए शनिवार के २२वें घंटे का स्वामी शनि, २३वें का बृहस्पति, २४वें का मंगल और २४वें के बाद वाले घंटे का स्वामी सूर्य होना चाहिए| परन्तु यहाँ २५वां घंटा अगले दिन का पहला घंटा है, जिसका स्वामी सूर्य है इसलिए शनिवार के बाद रविवार आता है| इसी प्रकार रविवार के २५वें घंटे यानी अगले दिन के पहले घंटे का स्वामी चन्द्रमा होगा, इसलिए उसे चंद्रवार या सोमवार कहते हैं| इसी प्रकार और वारों का नामकरण हुआ है|

इससे यह स्पष्ट होता है कि शनिवार के बाद रविवार और रविवार के बाद सोमवार और सोमवार के बाद मंगलवार क्यों होता है| शनि से रवि चौथा ग्रह है और रवि से चंद्रमा चौथा ग्रह है, अतः प्रत्येक दिन का स्वामी उसके पिछले दिन के स्वामी से चौथा ग्रह है|

मैटोनिक चक्र – मिटन ने ४३३ ई.पू. में देखा कि २३५ चंद्रमास और १९ सौर वर्ष अर्थात १९x१२ = २२८ सौर मासों में समय लगभग समान होता है, इनमें लगभग १ घंटे का अंतर होता है|

१९ सौर वर्ष = १९ x ३६५.२५ = ६९३९.७५ दिवस

२३५ चन्द्र मास = २३५x२९.५३१ = ६९३९.७८५ दिवस

इस प्रकार हम देखते हैं कि प्रत्येक १९ वर्ष में २२८ सौर मास और लगभग २३५ चन्द्र मास होते हैं, अर्थात ७ चन्द्र मास अधिक होते हैं| चन्द्र और सौर वर्षों का अगर समन्वय नहीं करे तब लगभग ३२.५ सौर वर्षों में, ३३.५ चन्द्र वर्ष हो जायेंगे| अगर केवल चन्द्र वर्ष से ही चलें तब अगर दीपावली नवम्बर में आती है, तब १९ वर्षों में यह ७ मास पहले अर्थात अप्रेल में आ जाएगी और इन धार्मिक त्यौहारों का ऋतुओं से कोई सम्बन्ध नहीं रह जायेगा| इसलिये भारतीय पंचांग में इसका ख्याल रखा जाता है|

क्षयमास – मलमास या अधिमास की भांति क्षयमास भी होता है| सूर्य की कोणीय गति नवम्बर से फरवरी तक तीव्र हो जाती है और इसकी इसकी संक्रांतियों के मध्य समय का अंतर कम हो जाता है| इन मासों में कभी कभी जब संक्रांति से कुछ मिनट पहले ही अमावस्या का अंत हुआ हो, तब मास का क्षय हो जाता है|

जिस चंद्रमास (एक अमावस्या के अंत से दूसरी अमावस्या के अंत तक) में दो संक्रांतियों आ जाएँ, उसमें एक मास का क्षय हो जाता है| यह कार्तिक, मार्गशीर्ष, पौष और माघ इन चार मास में ही होता है. अर्थात नवम्बर से फरवरी तक ही हो सकता है|

अब संक्षिप्त में राशियों और नक्षत्रों के बारे में चर्चा करते हैं ताकि आगे जब ग्रहों और नक्षत्रों के बारे में कोई सन्दर्भ आये तो हमें उसमें कोई उलझन न हो|

राशिचक्र – सूर्य जिस मार्ग से चलता हुआ आकाश में प्रतीत होता है उसे कान्तिवृत्त कहते हैं| अगर इस कान्तिवृत्त को बारह भागों में बांटा जाये तो हर एक भाग को राशि कहते हैं, अतः ऐसा वृत्त जिस पर नौ ग्रह घूमते हुए प्रतीत होते हैं (ज्योतिष में सूर्य को भी ग्रह ही माना गया है) राशीचक्र कहलाता है| इसे हम ऐसे भी कह सकते हैं कि पृथ्वी के पूरे गोल परिपथ को बारह भागों में विभाजित कर उन भागों में पड़ने वाले आकाशीय पिंडों के प्रभाव के आधार पर पृथ्वी के मार्ग में बारह किमी के पत्थर काल्पनिक रूप से माने गए हैं|

अब हम जानते हैं की एक वृत्त ३६० अंश में बांटा जाता है| इसलिए एक राशी जो राशिचक्र का बारहवां भाग है, ३० अंशों की हुई| यानी एक राशि ३० अंशो की होती है| राशियों का नाम उनकी अंशो सहित इस प्रकार है|



अंश
राशी
०-३०
मेष
३०-६०
वृष
६०-९०
मिथुन
९०-१२०
कर्क
१२०-१५०
सिंह
१५०-१८०
कन्या
१८०-२१०
तुला
२१०-२४०
वृश्चिक
२४०-२७०
धनु
२७०-३००
मकर
३००-३३०
कुम्भ
३३०-३६०
मीन


नक्षत्र – आकाश में तारों के समुदाय को नक्षत्र कहते हैं| आकाश मंडल में जो असंख्य तारिकाओं से कही अश्व, शकट, सर्प, हाथ आदि के आकार बन जाते हैं, वे ही नक्षत्र कहलाते हैं| (जिस प्रकार पृथ्वी पर एक स्थान से दूसरे स्थान की दूरी मीलों में या कोसों में नापी जाती है, उसी प्रकार आकाश मंडल की दूरी नक्षत्रों में नापी जाती है) | राशि चक्र (वह वृत्त जिस पर ९ ग्रह घूमते हुए प्रतीत होते हैं), को २७ भागों में विभाजित करने पर २७ नक्षत्र बनते हैं|

पृथ्वी के कुल ३६० कला के परिपथ को नक्षत्रों के लिए २७ भागों में बांटा गया है (जैसे राशियों के लिए १२ भागों में बांटा गया है)| अतः प्रत्येक नक्षत्र ३६०/२७ = १३ मिनट २० सेकंड = ८०० अंश का होगा| इसके उपरान्त भी नक्षत्रों को चार चरणों में बांटा गया है| प्रत्येक चरण १३ मिनट २० सेकंड/ ४ = ३ मिनट २० सेकंड = २०० अंश का होगा| क्योंकि एक राशि ३० अंश की होती है, अतः हम कह सकते हैं कि सवा दो नक्षत्र अर्थात ९ चरण अर्थात ३० अंश की एक राशि होती है|

नक्षत्रों के नाम

१. अश्विनी २. भरिणी   ३. कृत्तिका ४. रोहिणी  ५. मृगशिरा ६. आर्द्रा ७. पुनर्वसु 
८. पुष्य   ९. आश्लेषा १०. मघा   ११. पूर्वा फाल्गुनी   १२. उत्तरा फाल्गुनी      
१३. हस्त  १४. चित्रा   १५. स्वाति १६. विशाखा    १७. अनुराधा   १८. ज्येष्ठा
१९. मूल  २०. पूवाषाढा २१. उत्तराषाढा  २२. श्रवण  २३. धनिष्ठा  २४. शतभिषा 
२५. पूर्वाभाद्रपद   २६.उत्तराभाद्रपद    २७.रेवती..और .. 
अभिजीत को २८वां नक्षत्र माना गया है| उत्तराषाढ़ की आखिरी १५ घाटियाँ और श्रवण की प्रारंभ की ४ घाटियाँ, इस प्रकार १९ घटियों के मान वाला अभिजीत नक्षत्र होता है| यह समस्त कार्यों में शुभ माना जाता है|

सूक्ष्मता से समझाने के लिए नक्षत्र के भी ४ भाग किये गए हैं, जो चरण कहलाते हैं| प्रत्येक नक्षत्र का एक स्वामी होता है|

अश्विनी   ..... अश्विनी कुमार, 
भरणी    ..... काल 
कृत्तिका   ..... अग्नि, 
रोहिणी    ..... ब्रह्मा,   
मृगशिरा   ..... चन्द्रमा,
आर्द्रा     ..... रूद्र
पुनर्वसु   ...... अदिति 
पुष्य     .....  बृहस्पति 
आश्लेषा  .....  सर्प
मघा   ......   पितर 
पूर्व फाल्गुनी ...  भग 
उत्तराफाल्गुनी ....अर्यता
हस्त  ......    सूर्य 
चित्रा  ......   विश्वकर्मा 
स्वाति ......   पवन
विशाखा ......  शुक्राग्नि 
अनुराधा ......  मित्र 
ज्येष्ठा ......    इंद्र 
मूल ......     निऋति 
पूर्वाषाढ़ ......  जल 
उत्तराषाढ़ ...... विश्वेदेव 
श्रवण ......    विष्णु 
धनिष्ठा ......   वसु 
शतभिषा ...... वरुण 
पूर्वाभाद्रपद .....आजैकपाद 
उत्तराभाद्रपद ....अहिर्बुधन्य 
रेवती ......    पूषा 
अभिजीत ...... ब्रह्मा

नक्षत्रों के फलादेश भी स्वामियों के स्वभाव गुण के अनुसार जानना चाहिए|

क्रमशः..

सिद्धि सर्वोपरि या सेवा?

सिद्धि सर्वोपरि या सेवा?

 
नहीं, नहीं मरुत! श्रेष्ठता का आधार वह तपश्चर्या नहीं, जो व्यक्ति को मात्र सिद्धियाँ और सामर्थ्य प्रदान करे। ऐसा तप तो शक्ति तपस्वी तो वह है जो अपने लिए कुछ चाहे बिना समाज के शोषित, उत्पीड़न, दलित और असहाय जनों को निरन्तर ऊपर उठाने के लिए परिश्रम किया करता है। इस दृष्टि से महर्षि कण्व की तुलना राजर्षि विश्वामित्र से नहीं कर सकते। कण्व की सर्वोच्च प्रतिष्ठा इसीलिए है कि वह समाज और संस्कृति, व्यष्टि और समष्टि के उत्थान के निरन्तर घुलते रहते है।” देवराज इन्द्र ने सहज भाव से मरुत की बात का प्रतिवाद किया।

पर मरुत अपनी बात पर दृढ़ थे। उनका कहना था-”तपस्वियों में तो श्रेष्ठ विश्वामित्र ही है। उन दिनों विश्वामित्र शिवालिक शिखर पर सविकल्प समाधि अवस्था में थे और कण्व वहाँ से कुछ दूर आश्रम में जीवन यापन कर रहे थे। उनके आरण्यक में बालकों को ही नहीं बालिकाओं को भी समानान्तर धार्मिक एवं साधनात्मक प्रशिक्षण प्रदान किया जाता था।”

मरुत ने फिर वहीं व्यंग करते हुए कहा-”देवेश! आपको तो स्पर्धा का भय बना रहता है किंतु आप विश्वास रखिए विश्वामित्र त्यागी सर्व प्रथम हैं तपस्वी बाद में। उन्हें इन्द्रासन का कोई लाभ नहीं, तप तो वह आत्म कल्याण के लिए कर रहे हैं। उन्होंने न चुकने वाली सिद्धियाँ अर्जित की हैं। उन सिद्धियों का लाभ समाज को कभी भी दिया जा सकता है। “

“विश्वामित्र की सिद्धियों को मैं समझता हूँ मरुत। “ इन्द्र ने पुनः अपनी बात को प्रतिष्ठापित करते हुए कहा-”किन्तु सिद्धियाँ प्राप्त कर लेने के बाद यह आवश्यक नहीं कि वह व्यक्ति उनका उपयोग लोक कल्याण में करे। शक्ति में अहं भाव का जो दोष है, वह सेवा में नहीं। इसलिए सेवा को मैं अहं भाव का जो दोष है, वह सेवा में नहीं। इसलिए सेवा को मैं शक्ति से श्रेष्ठ मानता हूँ। इसी कारण कण्वत्त्-विश्वामित्र से श्रेष्ठ हैं।”

बात आगे बढ़ती किन्तु महारानी शची के आ जाने से विवाद रुक गया। रुका नहीं-एक नया मोड़ ले लिया। शची ने हँसते हुए कहा-”अनुचित क्या है? क्यों न इस बात की हाथों हाथ परीक्षा कर ली जाय।”

बात निश्चित हो गई। कण्व और विश्वामित्र की परीक्षा होगी यह बात कानों-कान स्वर्गपुरी में फैल गई। देव गण उत्सुकतापूर्वक प्रतीक्षा करने लगे, देखें सिद्धि की विजय होती या सेवा की।

निशा देवी ने पहला पाँव रखा। दीप जले-स्पष्ट की आरती से उनका स्वागत किया गया। दिव्य ज्योतियों से सारा इंद्रपुर जगमग-जगमग करने लगा। ऐसे समय देवेन्द्र ने अनुचर को बुलाकर रूपसी अप्सरा मेनका को उपस्थित करने की आज्ञा दी। अविलम्ब आज्ञा का पालन किया गया। थोड़ी ही देर में मेनका वहाँ आ गई। इन्द्र ने उसे सारी बातें समझा दीं। वह रात इस तरह इन्द्रपुर में अनेक प्रकार की मंत्रणाओं में ही बीती।

सवेरा हुआ। ऊषा की लालिमा ढलने लगी। सूर्य देव प्राची में अपनी दिव्य प्रभा के साथ उगने लगे। भगवती गायत्री की आराधना का यह सर्वोत्कृष्ट समय होता है। तपस्वी विश्वामित्र आसन बन्ध और हृदय में वैराग्य की धारा अहिर्निशि बहा करती थी। जप और ध्यान में कोई व्याघात नहीं होता था। बैठते ही बैठते चित्त भगवान सविता के भर्ग से आच्छादित हो गया। एक प्राण आद्यशक्ति गायत्री और राजर्षि विश्वामित्र में दिव्य तेज फूट रहा था उनकी मुखाकृति से। पक्षी और वन्य जीव भी उनकी साधना देखकर मुग्ध हो जाते थे।

उनकी इस गहन शान्ति और स्थिरता को देखकर पक्षियों को कलरव करने का साहस न होता। जन्तु चरमर नहीं करते थे, उन्हें भय का कहीं ध्यान न टूट जाये और तपस्वी के कोप का भाजन न बनना पड़े। सिंह तब दहाड़ना भूल जाते वे दिन के तृतीय प्रहर में ही दहाड़ते और वह भी विश्वामित्र की प्रसन्नता बढ़ाने के लिए क्योंकि उस समय वन विहार के लिए आश्रम छोड़ चुके होते थे।

किंतु आज उस स्तब्धता को तोड़ने का साहस किया किसी अबला ने। अबला नहीं अप्सरा। मेनका। समूचा इंद्रपुर जिसकी छवि पर दीपक की लौ पर शलभ की भाँति जल पाने के लिए आतुर रहता था। आज उसने अप्रतिम श्रृंगार कर विश्वामित्र के आश्रम में प्रवेश किया था। पायल की मधुर झंकार से वहाँ का प्राण-पूत वातावरण भी सिहर उठा। लोध पुष्प की सुगंध सारे आश्रम में छा गई। जहाँ अब तक शान्ति थी, साधना थी, वहाँ देखते-देखते मादकता, वैभव विलास खेलने लगा।

पर विश्वामित्र की समाधि निश्चल, अविचल। अन्तरिक्ष में गए प्राण जिस सुख और शान्ति की अनुभूति में निमग्न थे, यह नयापन उसकी तुलना में नगण्य था। लेकिन जैसे-जैसे मेनका के पावों की थिरकन, कण्ठ का संगीत और अंगराग वहाँ तीव्रता से बिखरने लगा, विश्वामित्र की चेतना में आकुलता बढ़ने लगी। रूप और सौंदर्य के इन्द्रजाल ने आकाश में विलीन तपस्वी की एकाग्रता को आश्रम में ला पटका। मेनका नृत्य में खो गई और विश्वामित्र की स्थिरता खो गई उसके अंग सौष्ठव, रूप सज्जा में।

दण्ड और कमण्डलु ऋषि ने एक ओर रख दिए। कस्तूरी मृग जिस तरह बहेलिये की संगीत ध्वनि से मोहित होकर काल-कवलित होने के लिए चल पड़ता है। सर्प जिस तरह वेणुनाद सुनकर लहराने लगता है। राजर्षि विश्वामित्र ने अपना सर्वस्व उस रूपसी अप्सरा के अंचल में न्यौछावर कर दिया। सारे भारतवर्ष में कोलाहल मच गया कि विश्वामित्र का तप भंग हो गया।

एक दिन-दो दिन, सप्ताह, पक्ष और मास बीतते गए और उनके साथ ही विश्वामित्र का तप और तेज स्खलित होता गया। तपस्वी का अर्जित तप काम दो कौड़ी दाम बिक गया और जप तप के साथ उनकी शाँति, उनका यश और सिद्धि वैभव भी नष्ट हो गया, तब उन्हें पता चला कि भूल नहीं अपराध हो गया। विश्वामित्र प्रायश्चित की ज्वाला में दहकने लगे।

क्रोधोन्माद में ऋषि ने मेनका को दण्ड देने का निश्चय किया पर प्रातःकाल होने तक मेनका उनके आश्रम से जा चुकी थी। इतने दिन की योग-साधना का परिणाम एक कन्या के रूप में छोड़कर। विश्वामित्र ने बिलखती आत्मजा के पास भी मेनका को नहीं देखा तो उनकी देह क्रोध से जलने लगी, पर अब हो ही क्या सकता था? मेनका तो इन्द्रपुरी पहुँच चुकी थी।

रोती-बिलखती आंसुओं से भीगी, क्षुधा से कलपती कन्या को देखकर भी विश्वामित्र को दया नहीं आयी। पाप उन्होंने किया था, पश्चाताप भी उन्हें ही करना चाहिए था। लेकिन उनकी आँखों में तो प्रतिशोध छाया हुआ था। ऐसे समय मनुष्य को इतना विवेक कहाँ कि वह यह सोचे कि अपनी भूलें सुधार भी सकता है और नहीं तो अपनी संतान, अपने आगे आने वाली पीढ़ी के मार्ग दर्शन के लिए तथ्य और सत्य को उजागर ही रख सकता है। विश्वामित्र को तो बस अपने आत्म कल्याण की चिन्ता सता रही थी, इसलिए उन्हें इतनी भी दया नहीं आयी कि वह बालिका को उठाकर दूध और जल की व्यवस्था करते। बालिका को वहीं बिलखता छोड़कर वे वहाँ से चले गए।

दोपहर के समय ऋषि कण्व लकड़ियाँ काटकर लौट रहे थे। मार्ग में विश्वामित्र का आश्रम पड़ता था। बालिका के रोने का स्वर सुनकर कण्व ने निर्जन आश्रम में प्रवेश किया। आश्रम सूना पड़ा था। अकेली बालिका दोनों हाथों के अंगूठे मुँह में चूसती भूख को धोखा देने का असफल प्रयत्न कर रही थी।

कण्व ने भोली बालिका को देखा, स्थिति का अनुमान करते ही उनकी आंखें छलक उठीं। उन्होंने बालिका को उठाया, चूमा और प्यार किया और गले लगाकर अपने आश्रम की ओर चल पड़े। पीछे-पीछे उनके सब शिष्य चल रहे थे।

इन्द्र ने मरुत से पूछा- ”तात! बोलो, जिस व्यक्ति के हृदय में पाप करने वाले के प्रति कोई दुर्भाव नहीं, पाप से उत्पीड़ित के लिए इतना गहन प्यार, कि उसकी सेवा माता की तरह करने को तैयार वह कण्व श्रेष्ठ हैं या विश्वामित्र?”

मरुत आगे कुछ न बोला सके। उन्होंने लज्जावश अपना सिर नीचे झुका लिया।
(अखंड ज्योति-3/1993)

भगवान् है या नहीं?


भगवान् है या नहीं?

बुद्धिश्च हायते पुंसां नाचैत्तगह समागमात |
मध्यस्थेमध्यताम याति श्रेष्ठताम याति चौत्तमे ||


नारद जी कहते हैं – नन्दभद्र नाम का एक वणिक था| धर्मों के विषय में जो कुछ कहा गया है, उसमें कोई भी ऐसी बात नहीं थी, जो नन्दभद्र को ज्ञात न हो| किसी के साथ उसका द्वेष नहीं था, न राग, न अनुरोध था, न विरोध था| पत्थर और सुवर्ण को समान समझते तथा अपनी निंदा और स्तुति में समान भाव रखते थे| वे स्वभाव से ही धीर थे| सम्पूर्ण भूतों से निर्भय रहते थे और अपनी आकृति ऐसी बनाए रखते थे, मानो अंधे और बहरे हों| कर्मों के फल की उन्हें कोई आकांक्षा नहीं थी; अतः यह फल उनके लिए भगवान् सदाशिव की आराधना बन जाता था|

उनके मत से, प्रतिदिन अपनी शक्ति के अनुसार देवताओं, पितरों, मनुष्यों (अतिथि), ब्राह्मणों तथा पशु पक्षी, कीट-पतंगों के लिए अन्न देना चाहिए| सदा इन सब को अन्न देकर ही भोजन करना उचित है| उनके मत में जो धन और पद के मद में उन्मत्त होता है, वह पतित होकर विवेक खो बैठता है| अतः सम्पूर्ण भूतों को अपना स्वरुप मान कर उनके प्रति अपने ही जैसा बर्ताव करना चाहिए| जिसकी सर्वत्र आत्मदृष्टि है, वह ऐश्वर्य से मतवाला नही हो सकता| इस प्रकार इधर उधर प्रकट हुए सारभूत सदाचार का संग्रह करके साधू शिरोमणि बुद्धिमान नन्दभद्र उसी का पालन करते थे|

इसी स्थान में एक शूद्र भी रहता था, जो नन्दभद्र का पडोसी था| उसका नाम तो था-सत्यव्रत, किन्तु वह बड़ा भारी नास्तिक और दुराचारी था| धर्मपरायण नन्दभद्र पर बार बार दोषारोपण किया करता था और सदा उसके दोष ही ढूंढता रहता था| उसकी इच्छा थी कि यदि इसका कोई छिद्र (कमी) देख पाऊं तो उन्हें धर्म से गिरा दूं| खोटे ह्रदय वाले क्रूर नास्तिकों का यह स्वभाव ही होता है कि ये अपने को तो नीचा गिराते ही हैं, दूसरों को भी गिराने की चेष्टा करते हैं|

धार्मिक वृत्ति से रहने वाले बुद्धिमान नन्दभद्र के वृद्धावस्था में बड़े कष्ट से एक पुत्र हुआ, किन्तु वह चल बसा| इसे प्रारब्ध का फल मान कर उस महामति वैश्य ने शोक नहीं किया| देवता हो या मनुष्य प्रारब्ध विधान से कौन छूट सकता है| तदनंतर नन्दभद्र की प्यारी पत्नी कनका, जो बड़ी ही पतिव्रता और गृहस्थ धर्म की साक्षात् मूर्ती थी, सहसा मृत्यु को प्राप्त हो गयी| नन्दभद्र जितेन्द्रिय थे; फिर भी पत्नी के न रहने से गृहस्थ धर्म का नाश होगा, यह सोचकर उन्हें शोक हुआ|

नन्दभद्र का यह अंतर देख कर सत्यव्रत को बहुत दिनों के बाद बड़ी प्रसन्नता हुई| वह ‘हाय-हाय ! बड़े कष्ट की बात हुई’ ऐसा कहता हुआ शीघ्र ही नन्दभद्र के पास आया और मित्र की भाँती मिलकर, उस से बोला – ‘ हा नन्दभद्र ! यदि तुम जैसे धर्मात्मा को भी ऐसा फल मिला, तो इससे मेरे मन में यही आता है कि यह धर्म-कर्म व्यर्थ ही है| भाई नन्दभद्र ! मैं सदा तुमसे कुछ कहना चाहता था, किन्तु तुम्हारी ओर से कोई प्रस्ताव न होने के कारण मैंने कभी कुछ नहीं कहा, क्योंकि बिना किसी प्रस्ताव के बृहस्पति जी भी कोई बात कहें, तो उनकी बुद्धि की अवहेलना होती है और उन्हें नीच पुरुष की भाँती अपमान प्राप्त होता है| मैं वाणी के अठारह और बुद्धि के नौ दोषों से रहित सर्वथा निर्दोष वाक्य बोलूँग| वाणी के अट्ठारह दोषों कर वर्णन सुनो| अपेतार्थ, अभिन्नार्थ, अप्रवृत्त, अधि, अश्लक्षण, संदिग्ध, पदांत अक्षर का गुरु होना, परांग्मुख, अनृत एवं असंस्कृत, त्रिवर्गविरुद्ध, न्यून, कष्ट्शब्द, अतिशब्द, ब्युत्क्र्माभिहृत, सशेष, अहेतुक तथा निष्कारण – ये वाणी के दोष हैं | अब बुद्धि के दोष सुनो| काम, क्रोध, भय, लोभ, दैन्य, अनार्जव (कुटलिता) – इन छह दोषों से युक्त होकर तथा दया, सम्मान और धर्म – इन तीनो गुणों से हीन होकर मैं कोई बात न कहूँगा (उक्त छह दोषों के साथ, दयाहीनता, सम्मानहीनता और धर्महीनता – ये तीन दोष और मिल जाने से नौ दोष होते हैं)| जब वक्ता, श्रोता और वाक्य तीनो अविकल रह कर, बोलने की इच्छा में समान अवस्था को प्राप्त हों, तभी वक्ता का अभिप्राय यथावत रूप से प्रकट होता है| बातचीत करते समय जब वक्ता श्रोता की अवहेलना करता है अथवा श्रोता ही वक्ता की उपेक्षा करने लगता है, तब बोला हुआ वाक्य बुद्धि पर नहीं चढ़ता| इसके सिवा, जो सत्य का परित्याग करके अपने को अथवा श्रोता को प्रिय लगने वाला वचन बोलता है, उसके उस वाक्य में संदेह उत्पन्न होने लगता है, अतः वह वाक्य भी सदा सदोष ही है| इसलिए जो अपने को या श्रोता को प्रिय लगने वाली बात छोड़कर केवल सत्य ही बोलता है, वही इस पृथ्वी पर यथार्थ वक्ता है, दूसरा नहीं| शास्त्रों के जाल से पृथक हो मिथ्यावाद को छोड़कर केवल सत्य कहना ही मेरा व्रत है, इसलिए मैं ‘सत्यव्रत’ कहलाता हूँ| में तुमसे सही बात कहूँगा और तुम्हें भी उसे सत्य मान कर स्वीकार करना चाहिए|

भलेमानुस ! जबसे तुम पत्थर पूजने में लग गए, तब से तुम्हें कोई अच्छा फल मिला हो, ऐसा मैं नहीं देखता| तुम्हारे एक ही तो पुत्र था, वह भी नष्ट हो गया| पतिव्रता पत्नी थी, सो भी संसार से चल बसी| साधो ! झूठे तथा कपटपूर्ण कर्मों का ही ऐसा फल हुआ करता है| भैया ! देवता कहाँ हैं? सब मिथ्या है? यदि होते तो दिखाई न देते? यह सब कुछ कपटी ब्राह्मणों की झूठी कल्पना है| लोग पितरों के उद्देश्य से दान देते हैं, यह देखकर मुझे तो हंसी आती है| मेरी दृष्टी में यह अन्न की बर्बादी है| भला, मरा हुआ मनुष्य क्या खायेगा? मूर्ख एवं नीच ब्राह्मण, जो समस्त संसार की दृष्टी का अनेक प्रकार से वर्णन किया करते हैं, उसमें भी जो यथार्थ बात है, उसे सुनो| संसार सृष्टि और संहार – ये दोनों बातें झूठी हैं| वास्तव में, यह जगत सत्य है और इसी रूप में सदा बना रहता है| यह विश्व स्वभाव से ही सदा वर्तमान रहता है, ये सूर्य आदि ग्रह स्वभाव से ही आकाश में विचरण करते हैं, स्वभाव से ही निरंतर वायु चलती है, स्वभाव से ही मेघ पानी बरसता है और स्वभाव से ही बोया हुआ धान्य जमता है| स्वभाव से ही पृथ्वी स्थिर है, स्वभाव से ही नदियाँ बहती हैं, स्वभाव से ही पर्वत अविचल भाव से सुशोभित हैं और स्वभाव से ही समुद्र अपनी मर्यादा में स्थित है| स्वभाव से ही गर्भवती स्त्री पुत्र पैदा करती है, स्वभाव से ही ये बहुतेरे जीव उत्पन्न होते हैं| जैसे स्वभाव से ही टेढ़े लोग होते हैं, ऋतु के प्रभाव से ही बेरों में कांटे पैदा होते हैं – इसी प्रकार स्वभाव से ही यह सम्पूर्ण जगत प्रकाशित होता है| इसका कोई प्रत्यक्ष दिखाई देने वाला कर्ता नहीं है| इस प्रकार स्वभाव से ही सम्पूर्ण लोक स्थित है| ऐसी अवस्था में भी मूर्ख मनुष्य इस विषय को लेकर मतवाले की भाँती व्यर्थ मोह में पड़ा रहता है|

धूर्त लोग इस मनुष्य योनी को भी जो सबसे श्रेष्ठ बतलाते हैं, इसकी भी पोल खोलता हूँ, सुनो| मनुष्य योनी से बढ़कर दूसरी किसी योनी में कष्ट नहीं है| मनुष्यों को जो कष्ट हैं, वह हमारे शत्रुओं को भी न हो| मनुष्यों के समक्ष क्षण क्षण में शोक के सहस्त्रों स्थान आते हैं| यह मानव योनी क्या है, बंदीगृह है| कोई बडभागी पुरुष ही इससे छुटकारा पाता है| ये पशु पक्षी, कीड़े-मकोड़े बिना किसी बंधन के सुख पूर्वक विहार करते हैं; इनकी योनि अत्यंत दुर्लभ है| ये स्थावर (वृक्ष-पर्वत आदि) कितने निश्चिन्त हैं| पृथ्वी पर इन्ही का सुख महान है| अधिक क्या कहें, मनुष्यों की अपेक्षा अन्य योनियों में उत्पन्न होने वाले सभी जीव धन्य हैं| कोई स्थावर है, कोई कीड़े हैं, कोई पतंग है और कोई मनुष्य आदि जीवों में उत्पन्न होने वाले सभी जीव धन्य हैं| इसमें स्वभाव ही प्रधान कारण समझो| पुण्य और पाप आदि तो कल्पनामात्र है| इसलिए नन्दभद्र ! तुम मिथ्याधर्म का परित्याग करके मौज से खाओ, पीओ, खेलो और भोग भोगो| पृथ्वी पर, बस यही सत्य है|

नारद जी ने कहा – सत्यव्रत के इन वाक्यों से, जो अशुभकर, अयुक्तिसंगत तथा असमंजस (दोषपूर्ण) थे, महाबुद्धिमान नन्दभद्र तनिक भी विचलित नहीं हुए| वे क्षोभरहित समुन्द्र के भांति गंभीर थे| उन्होंने हँसते हुए उत्तर दिया – ‘सत्यव्रत जी ! आपने जो यह कहा कि धर्मनिष्ठ मनुष्य सदा दुःख के भागी होते हैं, यह झूठ है| हम तो पापियों पर भी बहुतेरे दुःख आते देखते हैं| संसार बंधन जनित क्लेश तथा पुत्र और स्त्री आदि की मृत्यु के दुःख, पापी मनुष्यों के यहाँ भी देखे जाते हैं| इसलिए मेरे मत में धर्म ही श्रेष्ठ है| किसी पुण्यात्मा साधुपुरुष पर संकट आया देखकर बड़े बड़े लोग सहानुभूति प्रदर्शित करते हुए, यह कहते हैं कि ‘अहो ! ये तो साधु पुरुष है, इन पर कष्ट आया, यह तो हमारे लिए बड़े दुःख की बात है’ इत्यादि| पापियों को तो यह सहानुभूति भी दुर्लभ है | स्त्री तथा धन आदि के लोभ से जब कोई पापी लुटेरा घर में घुसता है, तो आप भी उस से डर जाते हैं; उसके प्रति द्वेष का परिचय देते हैं और उसके ऊपर क्रोध भी करते हैं| यह सब व्यर्थ ही तो है|

दूसरी बात जो आप यह कहते हैं कि इस संसार का कारण कोई महान ईश्वर नहीं है, यह भी बच्चों की सी बात है| क्या प्रजा बिना राजा के रह सकती है? इसके सिवा जो आप यह कहते हैं कि तुम झूठे ही पत्थर के लिंग की पूजा करते हो, इसके उत्तर में मुझे इतना ही निवेदन करना है कि आप शिवलिंग की महिमा को नहीं जानते हैं| ठीक उसी तरह, जैसे अँधा सूर्य के स्वरुप को नहीं जानता| ब्रह्मा आदि समस्त देवता, बड़े बड़े समृद्धिशाली राजा, साधारण मनुष्य तथा मुनि भी शिवलिंग की पूजा करते हैं| उनके द्वारा स्थापित किये हुए शिवलिंग उन्हीं के नाम से प्रसिद्ध हैं, क्या ये सब के सब मूर्ख ही थे और अकेले आप सत्यव्रत ही बुद्धिमानी का ठेका लिए बैठा है? भगवान् विष्णु (राम) ने समुन्द्र के किनारे रामेश्वर लिंग की स्थापना कर युद्ध में रावण को मारा है, क्या वह भी झूठा ही है? प्राचीन काल में इंद्र ने वृत्तासुर का वध करके महेंद्र पर्वत पर शिवलिंग को स्थापित किया, जिससे वृत्तवध के पाप से मुक्त होकर इंद्र आज भी स्वर्गलोक का आनंद भोगते हैं! चंद्रमा ने पश्चिम समुन्द्र के तट पर प्रभास क्षेत्र में भगवान् सोमनाथ की स्थापना करके आरोग्यलाभ किया था| यमराज और कुबेर ने काशी में, गरुण और कश्यप ने सह्य पर्वत पर तथा वायु और वरुण ने नैमिषारण्य में शिवलिंग को स्थापित किया है| जिस से वे सदा आनंदमग्न रहते हैं|

आप जो यदि यह कहते हैं कि देवता नहीं है और यदि हैं तो कहीं भी दिखाई क्यों नहीं देते? आपके इस प्रश्न से मुझे बड़ा आश्चर्य हो रहा है| जैसे दरिद्र लोग द्वार द्वार जा कर कुलथी मांगते हैं, उसी प्रकार क्या देवता भी आपके पास आकर याचना करें? भैया ! आप बड़े बुद्धिमान हैं, आप जो चाहते हैं, उसकी सिद्धि तो आपके गुरु ही कर सकते हैं| यदि आपके मत में सब पदार्थ स्वभाव से ही सिद्ध होते हैं, तो बताइये, कर्ता के बिना भोजन क्यों नहीं तैयार हो जाता? इसलिए जो भी निर्माण कार्य है, वह अवश्य किसी न किसी कर्ता का ही है| जिस पदार्थ में जितनी निर्माण शक्ति विधाता ने भर दी है, वह वैसा ही है, और आपने जो यह कहा है कि पशु आदि प्राणी ही सुखी तथा धन्य हैं, यह बात आपके सिवा और किसी ने न तो कही है और न सुनी ही है| तमोगुणी और अनेक इन्द्रियों से रहित जो पशु पक्षी आदि प्राणी है तथा उनके जो कष्ट हैं, वे भी यदि स्प्रुह्नीय और धन्य हैं, तो सम्पूर्ण इन्द्रियों से युक्त मनुष्य श्रेष्ठ और धन्य क्यों नहीं है? मैं तो समझता हूँ कि आपका जो यह अद्भुत सत्यव्रत है, इसे आपने नरक जाने के लिए ही संग्रह किया है| आपने पहले ही जो आडम्बरपूर्ण भूमिका बाँध कर अपने ज्ञान का परिचय देना आरम्भ किया है, उसी में आपके इन वचनों की सारहीनता व्यक्त हो गई है|

आपने प्रतिज्ञा तो की थी कुछ और कहने के लिए, परन्तु कह डाला कुछ और ही| इसमें आपका कोई दोष नहीं है, सब दोष मेरा ही है, जो मैं आपकी बात सुनता हूँ| नास्तिक, सर्प और विष इनका तो यह गुण ही है कि ये दूसरे को मोहित करते हैं| प्रतिदिन साधुपुरुषों का संग करना धर्म का कारण है| इसलिए विद्वान्, वृद्ध, शुद्ध भाव वाले तपस्वी तथा शान्तिपरायण संत महात्माओं के साथ संपर्क स्थापित करना चाहिए| दुष्ट पुरुषों के दर्शन, स्पर्श, वार्तालाप, एक आसन पर बैठने तथा एक साथ भोजन करने से धार्मिक आचार नष्ट होते हैं| नीचों के संग से पुरुषों की बुद्धि नष्ट होती है, मध्यम श्रेणी के लोगों के साथ उठने बैठने से बुद्धि मध्यम स्थिति को प्राप्त होती है और श्रेष्ठ पुरुषों के साथ समागम होने से बुद्धि श्रेष्ठ हो जाती है| इस धर्म का स्मरण करके मैं पुनः आपसे मिलने की इच्छा नहीं रखता, क्योंकि आप सदा ब्राह्मणों की ही निंदा करते हैं| वेद प्रमाण है, स्मृतियाँ प्रमाण है तथा धर्म और अर्थ से युक्त वचन प्रमाण है, परन्तु जिसकी दृष्टी में ये तीनो ही प्रमाण नहीं है, उसकी बात को कौन प्रमाण मानेगा|

महात्मा नन्दभद्र, सत्यव्रत से ऐसा कह कर उसी समय सहसा घर से निकल पड़े और भगवान् भट्टादित्य के परम पावन बहूदक तीर्थ में जा पहुचे|

ज्ञान का अनुपान संवेदना.

ज्ञान का अनुपान संवेदना.


धर्म प्रचार के लिए समर्थ रामदास ने अपने प्रिय शिष्य कल्याण को भेजते हुए आशीर्वाद देकर कहा−” वत्स! संसार बड़ा दुःखी है, लोग अज्ञानवश कुरीतियों में जकड़े पड़े हैं, जाओ उन्हें जाग्रति का सन्देश दो। इससे बढ़कर और कोई पुण्य नहीं कि तुम उन्हें आत्म कल्याण का मार्ग दिखाओ”।

कल्याण ने समर्थ गुरु की चरण−रज मस्तक से लगाई और वहाँ से विदा हो लिए। दिन छिपने में अभी देर थी। कल्याण महाराष्ट्र के एक छोटे गाँव पहुँचे। उसमें अनेक लोग कृशकाय बीमार पड़े थे। बच्चों के शरीर सूखे थे। लगता था, इनको न भर पेट अन्न मिलता है और न बीमारियाँ से लड़ने को औषधियाँ। शिक्षा की दृष्टि से उनमें कोई चेतना दिखाई नहीं दे रही थी। सब म्लान, मलीन और क्लाँत दिखाई दे रहे थे।

कल्याण को अपनी सेवा का स्थान मिल गया। एक झोपड़ी के सहारे अपना समान टिकाकर वह विश्राम की मुद्रा में बैठ गए और सारे गाँव में समाचार फैल दिया−”समर्थ स्वामी रामदास के शिष्य कल्याण तुम लोगों के दुःख दूर करने आए हैं, मुक्ति का मार्ग बताने पधारे है।”

बिच्छू का विष जिस तेज गति से फैलकर चुभन, तड़पन, बेचैनी की अनुभूति कराता है, उसी तेजी से यह बात सारे गाँव में फैल गई। ग्रामीणों के हर्ष का ठिकाना न रहा−चलो अब हमारे दुःख दूर हुए। किसी को तो भेजा विधाता ने हमारा त्राणदाता बनाकर। सबने कल्याण के विश्राम के लिए सुन्दर स्थान की व्यवस्था कर दी। रात बड़ी शाँति और प्रसन्नता में बीती।

प्रातःकाल कल्याण जब तक ध्यान, पूजन समाप्त करें,

तब तक द्वार ग्रामवासियों की भीड़ से भर गया। कल्याण बाहर निकले। अशिक्षा, रूढ़िग्रस्तता और दरिद्र से ग्रसित चेहरे देखते ही उनके मन में घृणा फैल गई पर उन्होंने उसकी कोई प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं कीँ आखिर धर्मचर्चा करने आए थे। इतनी सहिष्णुता भी न होती तो समर्थ उन्हें इस कार्य के लिए कैसे भेजे देते?

सबको सामने बैठाकर कल्याण ने प्रवचन प्रारम्भ किया। कभी ब्रह्म सूत्रों की तात्त्विक व्याख्या सुनाते, तो गीता के सुललित श्लोक उनके मुख के झरने लगते। पांडित्य और विद्वता उनके मुख से झरने लगी। पर आश्चर्य −भीड़ के चेहरे पर उदासी और गहरी हो गई, दुःख सघन हो गया, वेदना तीव्र हो उठी, आकुलता बढ़ने लगी। लगा−उन सब पर अनेकों प्रहार हो रहे हैं−और वे सब सहने में असमर्थ हैं। बेचारगी, असहायपन का भाव लिए, एक−एक कर उठने लगे। मैदान खाली हो गया।

अब कल्याण के निराश होने की बारी थी। इतना पांडित्य, इतनी प्रतिभा, इतना कौशल, जिसके सामने काशी के पंडितों को अनेकों बार मुंह की खानी पड़ी। न जाने कितने दिग्विजयी शास्त्रज्ञ उनके सामने नतमस्तक हुए। पर आज−−−−−−−−।

वे हताश हो समर्थ के पास लौट आए−बोले “निष्फल भगवान्! हमारा उपदेश कुछ कामा भी न सुनी।” समर्थ हँस पड़े−बोले−”वे अनपढ़ हैं और तुम कुपढ़ हो कल्याण।” कल्याण आश्चर्य से गुरु का चेहरा निहार रहे थे। समर्थ कह रहे थे−”तुम उनकी विवशता, उनकी भावना को नहीं पढ़ सके−तब तुमको और क्या कहें।” देखो तुम उस ग्राम में जाओ -औषधि और शिक्षा का प्रबन्ध करो।”

समर्थ का आज्ञा शिरोधार्य कर दोनों चल पड़े। तब कल्याण ने पूछा। “आपने तत्त्वज्ञान की बात ही नहीं की।” समर्थ कुछ देर चुप रहे, अन्तःकरण की करुणा विगलित हो वाणी से फूट पड़ी −”औषधि बिना अनुपान के लाभदायक नहीं होती। ज्ञान का अनुपान संवेदना है। समाज के हृदय को स्पर्श किए बगैर उसकी प्राथमिक जरूरतों को पूरा किए बिना तत्त्वज्ञान की चर्चा संभव नहीं। आज की आवश्यकतानुसार −मुरझाए जीवन को संवेदना से सींचना है। अभी जीवन के प्रति आशा जगानी होगी, साहस पौरुष को प्रकट करना होगा। यही युग धर्म है।”

कल्याण को अब यथार्थता का बोध हुआ। अब वे पांडित्य का मोह त्याग कर समाज में नव प्राणों का संचार करने लगे।



(अखंड ज्योति-3/1993)


ईश्वर की सत्ता हमारे रोम−रोम में संव्याप्त हो.


ईश्वर की सत्ता हमारे
रोमरोम में संव्याप्त हो.

ईश्वर अतंतः है−क्या व किस प्रकार की सत्ता? कैसे उसे जाना जाय व कैसे यह माना जाय कि उसके ही कारण यह सारा क्रिया व्यापार−जगती के क्रिया कलाप चल रहे हैं, शब्दार्थ के नाते ऐश्वर्यवान −सर्व शक्तिमान सत्ता का नाम है। “ऐश्वर्य “ से यहाँ तात्पर्य उस वैभव से है जो समूची सृष्टि−इकोसिस्टम में विद्यमान नजर आता है। हम प्रार्थना द्वारा ऐश्वर्य−समृद्धि भगवान से सतत् माँगते हैं। पर कभी हमने विचारा कि ऐश्वर्य सही मायने में होता क्या है? संपूर्ण सृष्टि ही जिसका कार्यक्षेत्र हो तथा जिसका अस्तित्व इसके रोम−रोम में, कण−कण में समाया हो, ऐसी अधीश्वर सत्ता को ही ईश्वर मानकर उसकी आराधना−पूजा−उपासना द्वारा स्वयं को आस्तिक बनाया जाता हैँ उस सत्ता के क्रिया−कलापों को आगे बढ़ना, सृष्टि के उद्यान को सुरम्य बनाना और उसके ऐश्वर्य में सतत् निरन्तर वृद्धि करते रहना ही आस्तिकता है−ईश्वर की आराधना है।

ईश्वर शब्द से एक और अर्थ निकलता है−हम उस सर्वोच्च शक्तिमान सत्ता को जो ईश के रूप में सर्वव्यापी है, अचिंत्य −अगोचर−अगम्य है, का वरण करें। वरण उसी का किया जाता है जो सर्वश्रेष्ठ है, आदर्शों का समुच्चय है, समस्त सद्गुणों, सत्प्रवृत्तियों का समूह है। ईश्वर हमें उतना ही प्रिय लगे, जितना कि वरण करने वाले स्त्री के लिए उसका प्रियतम पति। समर्पण उसके प्रति हमारा वैसा ही हो जो भाव−संवेदना से भरी −पूरी किसी स्त्री का होता है। ईश्वर को यदि सही अर्थों में जीवन में ओत−प्रोत किया जा सके, उसका तत्त्वदर्शन हमारे कर्तृत्त्व में दृष्टिगोचर होने लगे तो समझना चाहिए कि ईश्वर उपासना किसी आस्तिक द्वारा सच्चे मायनों में संपन्न की गयी।

(अखंड ज्योति-3/1993)

जीवन के संदेहों का निवारण.


जीवन के संदेहों का निवारण.

शोकस्थान शस्त्राणी हर्ष स्थानि शतानि च,
दिवसे दिवसे मूढ़माविशन्ति न पंडितम।

अर्थात – मूर्ख मनुष्य को ही प्रतिदिन शोक के सहस्त्रों और हर्ष के सैकड़ो स्थान(अवसर) प्राप्त होते हैं, विद्वान पुरुष को नहीं।

नारद जी कहते हैं – तदनन्तर परम बुद्धिमान नंदभद्र, बहूदक कुण्ड के तट पर वर्तमान कपिलेश्वर लिंग की पूजा करके प्रणाम--पूर्वक हाथ जोड़ कर, भगवान् के आगे खड़े हुए। संसार के चरित्रों से उनके मन में दुःख हो गया था। इसलिए उन्होंने दुखी होकर यह कहा – यदि इस संसार की सृष्टि करने वाले भगवान् सदाशिव को मैं देख पाऊं, तो अनेक प्रश्नों के साथ तुरंत यह प्रश्न करूँगा कि भगवन। क्या आपके उत्पन्न किये बिना ही यह अनेक रूपों में उपलब्ध होने वाला निरीह संसार भरता चला जा रहा है? आप चेतन हैं, शुद्ध हैं और राग आदि दोषों से रहित हैं, तो भी आपने जो अखिल विश्व की सृष्टि की है, उसे आपने अपने सामान ही चेतन, विशुद्ध एवं राग आदी दोषों से रहित क्यों नहीं बनाया? आप तो निर्वेर और समदर्शी हैं; फिर आपका बनाया हुआ, यह जगत सुख दुःख और जन्म मरण आदि क्लेश क्यों पा रहा है? संसार के ऐसे चरित्र से मैं मोहित हो गया हूँ। अतः अब किसी दुसरे स्थान नहीं जाऊंगा; भोजन भी नहीं करूँगा और पानी भी नहीं पीऊंगा। उपर्युक्त बातों का चिंतन करता हुआ मृत्युपर्यंत यही खड़ा रहूँगा | इस प्रकार विचार करते हुए नंदभद्र वहीँ खड़े रहे।

तत्पश्चात उसके चौथे दिन कोई सात वर्ष का बालक पीड़ा से पीड़ित होकर बहूदक के सुन्दर तट पर आया। वह बहुत ही दुर्बल तथा गलित कुष्ठ का रोगी था। उसे पग पग पर पीड़ा के मारे मूर्छा आ जाती थी। उस बालक ने बड़े क्लेश से अपने को संभाल कर नंदभद्र से कहा – ‘अहो ! आपके तो सभी अंग सुन्दर और स्वस्थ हैं, फिर भी आप दुखी क्यों है?’ उसके पूछने पर नन्दभद्र ने अपने दुःख का सब कारण कह सुनाया। यह सब सुनकर बालक ने दुखी होकर कहा – ‘अहो ! इस बात से मुझे बड़ा भयंकर कष्ट हो रहा है कि विद्वान पुरुष भी अपने कर्तव्य को नहीं समझ पाते हैं। जिसका सम्पूर्ण शरीर इन्द्रियों से युक्त और स्वस्थ्य है, वह भी व्यर्थ मरने की इच्छा रखता है। जहां राजा खटवांग ने दो ही घडी में मोक्ष का मार्ग प्राप्त कर लिया, उसी भारतवर्ष को आयु रहते कौन त्याग सकता है? मैं तो अपने को ही दृढ़ मानता हूँ; क्योंकि मेरे माता पिता कोई नहीं है, मुझमे चलने की शक्ति भी नहीं है, तथापि मैं मरना नहीं चाहता हूँ। धैर्यवान को सभी लाभ प्राप्त होते हैं; यह श्रुति का वचन सत्य है। आपको तो श्रुति के इस कथन से संतोष धारण करना ही उचित है; क्योंकि आपका यह शरीर अभी दृढ़ है। यदि मेरा भी शरीर किसी प्रकार नीरोग हो जाय, तो मैं एक एक क्षण में वह सत्कर्म करू, जिसको एक एक युग में भोगा जा सकता है। इन्द्रियां जिसके वश में हों और शरीर जिसका दृढ़ हो, वह भी यदि साधन के सिवा और किसी वस्तु की इच्छा करे, तो उससे बढ़कर मूर्ख कौन हो सकता है? मूर्ख मनुष्य को ही प्रतिदिन शोक के सहस्त्रों और हर्ष के सैकड़ों स्थान (अवसर) प्राप्त होते हैं, विद्वान् पुरुष को नहीं। जो ज्ञान के विरुद्ध हों, जिनमे नाना प्रकार के विनाशकारी विघ्न प्राप्त हों तथा जो मूल का ही उच्छेद कर डालने वाले हों, ऐसे कर्मों में आप जैसे बुद्धिमान पुरुषों की आसक्ति नहीं होती। आठ अंगों वाली जिस बुद्धि को सम्पूर्ण श्रेय की सिद्धि करने वाली बताया गया है, वह वेदों और स्मृतियों के अनुकूल चलने वाली निर्मल बुद्धि आपके भीतर मौजूद है। इसलिए आप जैसे लोग दुर्गम संकटों में तथा स्वजनों की विपत्तियों में भी शारीरिक और मानसिक दुःख से पीड़ित नहीं होते।

पंडितों की सी बुद्धि वाले विवेकी मनुष्य प्राप्त होने योग्य वस्तु की अभिलाषा नहीं करते, नष्ट हुई वस्तु के लिए शोक भी नहीं चाहते तथा आपत्तियों में मोहित नहीं होते हैं। सम्पूर्ण जगत मानसिक और शारीरिक दुखों से पीड़ित है। उन दोनों प्रकार के दुखों की शान्ति का उपाय विस्तारपूर्वक संक्षेप में ही सुनिए। रोग, अनिष्ट वस्तु की प्राप्ति, परिश्रम तथा अभिष्ठ वस्तु का वियोग – यह चार कारणों से शारीरिक और मानसिक दुःख उत्पन्न होते हैं। अप्रिय का संयोग और प्रिय का वियोग ये दो प्रकार का मानसिक महाकष्ट बताया गया है। इस प्रकार यहाँ शारीरिक और मानसिक दोनों प्रकार का दुःख बताया गया। जैसे लोहपिण्ड के तप जाने से उस पर रखा हुआ घड़े का जल भी गरम हो जाता है, उसी प्रकार मानसिक दुःख से शरीर को भी संताप होता है। अतः शीघ्र ही औषध आदि के द्वारा उचित प्रतिकार करने से व्याधि अर्थात शारीरिक दुःख का शमन होता है और सर्वदा परित्याग करने से आधि अर्थात मानसिक दुःख का शमन होता है। इन दो क्रिया योगों से व्याधि और आधि की शांति बताई गयी है। इसलिए जैसे जल से आग को बुझाया जाता है, उसी प्रकार ज्ञान से मानसिक दुःख को शांत करे। मानसिक दुःख के शांत होने पर मनुष्य का शारीरिक दुःख भी शांत हो जाता है। मन के दुःख की जड़ है- स्नेह। स्नेह से ही प्राणी आसक्त होता है और दुःख पाता है। स्नेह से ही दुःख और स्नेह से ही भय उत्पन्न होते हैं। शोक, हर्ष तथा आवास – सब कुछ स्नेह से ही होता है। स्नेह से इन्द्रियराग तथा विषयराग का जन्म हुआ है, वे दोनों ही श्रेय के विरोधी हैं। इनमें पहला अर्थात इन्द्रियराग भारी माना गया है। इसलिए जो स्नेह या या आसक्ति का त्यागी, निर्वेर तथा निष्परिग्रह होता है, वह कभी दुखी नहीं होता। जो त्यागी नहीं है, वह इस संसार में बार बार जन्म मृत्यु को प्राप्त होता है। इस कारण मित्रों से तथा धनसंग्रह से होने वाले स्नेह में कभी लिप्त न हों और अपने शरीर के प्रति होने वाले स्नेह का ज्ञान द्वारा निवारण करें।

ज्ञानी, सिद्ध, शास्त्रज्ञ और जितात्मा – इनमें स्नेहजनित आसक्ति नहीं होती। ठीक वैसे ही, जैसे कमल के पत्तों में पानी नहीं सटता। राग के वशीभूत हुए पुरुष को काम अपनी ओर खींचता है, फिर उसके मन में भोग की इच्छा उत्पन्न होती है, उस इच्छा से ही तृष्णा या लोभ की उत्पत्ति होती है। तृष्णा सबसे बढ़कर पापिष्ठ औ सदा उद्वेग में डालने वाली मानी गयी है। इसके द्वारा बहुत से अधर्म होते हैं। तृष्णा का रूप भी बड़ा भयंकर है। यह सबके मन को बींधने वाली है। खोटी बुद्धि वाले पुरुषों के द्वारा बड़ी कठिनाई से जिसका त्याग हो पाता है, जो इस शरीर के वृद्ध होने पर भी स्वयं बूढी नहीं होती तथा जो प्राणान्ताकारी रोग के सामान है, उस तृष्णा का त्याग करने वाले को ही सुख मिलता है। तृष्णा का आदि और अंत नहीं है। जैसे लोहे का मेल लोहे का नाश करता है, उसी प्रकार तृष्णा मनुष्यों के शरीर के भीतर रह कर उनका विनाश करती है।

नन्दभद्र बोले – शुद्ध बुद्धि वाले बालक! यह क्या बात है कि पापी मनुष्य भी निरापद होकर स्त्री और धन के साथ आनंदमग्न देखे जाते हैं?

बालक ने कहा – यह तो बहुत स्पष्ट है। जिन्होंने पूर्वजन्मो में तामसिक भाव से दान दिया है, उन्होंने इस जन्म में उसी दान का फल प्राप्त किया है, परन्तु तामस-भाव से जो कर्म किया गया है, उसके प्रभाव से उन लोगों का धर्म में कभी अनुराग नहीं होता। ऐसे मनुष्य पुण्य-फल को भोग कर अपने तामसिक भाव के कारण नरक में ही जाते हैं, इसमें संदेह नहीं है। इस संशय के विषय में मार्कंडेय जी ने पूर्वकाल में जो बात कही है, वह इस प्रकार सुनी जाती है – एक मनुष्य ऐसा है, जिसके लिए इस लोक में तो सुख का भोग सुलभ है, परन्तु परलोक में नहीं। दूसरा ऐसा है, जिसके लिए परलोक में सुख का भोग सुलभ है, किन्तु इस लोक में नहीं। तीसरा ऐसा है, जिसके लिए इस लोक में और परलोक में भी सुखभोग प्राप्त होता है और एक चौथे प्रकार का मनुष्य ऐसा है, जिसके लिए न तो इस लोक में सुख है और न परलोक में ही। जिसका पूर्व जन्म में किया हुआ पुण्य शेष है, उसी को वह भोगता है और नूतन पुण्य का उपार्जन नहीं करता, उस मंदबुद्धि एवं भाग्यहीन मानव को प्राप्त हुआ वह सुखभोग केवल इसी लोक के लिए बताया गया है। जिसका पूर्वजन्मोपार्जित पुण्य नहीं है, किन्तु वह तपस्या करके नूतन पुण्य का उपार्जन करता है, उस बुद्धिमान को परलोक में सदा ही सुख का भोग प्राप्त होता है। जिसका पहले का किया हुआ पुण्य भी वर्तमान है और तपस्या से नूतन पुण्य का भी उपार्जन हो रहा है, ऐसा बुद्धिमान कोई कोई ही होता है, जिसे इहलोक में और परलोक में भी सुख भोग प्राप्त होता है। जिसका पहले का भी पुण्य नहीं है और इस लोक में भी जो पुण्य का उपार्जन नही करता, ऐसे मनुष्यों का न इहलोक में सुख मिलता है न परलोक में ही। उस नराधम को धिक्कार है। हे महाभाग ! ऐसा जानकर सब कार्यों का त्याग करके भगवान् सदाशिव का भजन और वर्णधर्म का पालन कीजिये। इससे बढ़कर दूसरा कोई कर्म नहीं है। जो अपने मनोरथों के नष्ट होने तथा प्राप्त होने पर भी शोक करता है अथवा जो अथवा जो भोगों से तृप्त नहीं होता, वह निश्चय ही दुसरे जन्म में बंधन में पड़ता है।

नन्दभद्र बोले – हे बालक ! आप बालरूप में उपस्थित होने पर भी वास्तव में बालक नहीं है, बड़े बुद्धिमान है, मैं आपको नमस्कार करता हूँ। मैं बड़े विस्मय में पड़ा हूँ और आप कौन हैं, यह यथार्थरूप से जानना चाहता हूँ। मैंने बहुत से वृद्ध पुरुषों का दर्शन और सत्संग लाभ किया है, किन्तु उन सबकी ऐसी बुद्धि न तो मैंने देखी है और न सुनी ही है। आपने तो मेरे जन्मभर के संदेह खेल खेल में ही नष्ट कर दिए। अतः आप कोई साधारण बालक नहीं है, यह मेरा निश्चित मत है।