बुद्धि.

बुद्धि.

हम परमपिता से एक वस्तु प्राप्त करना चाहते है, वह हैं-ज्ञान द्वारा बुद्धि का निर्माण। जब मानव के पास बुद्धि होती है तो उसके लिए संसार को जानना सहज हो जाता है। बुद्धि उस काल में ऊँची बनती है, जब हमारे अंदर ज्ञान होता है और मन की स्थिरता होती है। जब बुद्धि होती है, तो हम कार्य करने में दक्ष हो जाते है। बुद्धि से ही मानव अपनी इन्द्रियों का मंथन करता हुआ, चित – मन दोनों को अपना माध्यम बनाकर, उसमे अपने को समाहित कर देता है, तब चित केवल आत्मा के सन्निधान से अपनी गति आरम्भ कर देता है।

बुद्धि चार प्रकार की होती है;

1) बुद्धि,
2) मेधा बुद्धि,
3) ऋतम्भरा बुद्धि और
4) प्रज्ञा बुद्धि।

बुद्धि वह होती है, जो यथार्थ निर्णय देने वाली हो। हमारे नेत्र के पिछले भाग में पीला पटल है, इस पीले पटल में तन्मात्राएँ लगी है। तन्मात्राओं के पश्चात मन है। मन का सम्बन्ध बुद्धि से है। इस प्रकार जो पदार्थ नेत्रों के समक्ष आता है, वह मन के द्वारा बुद्धि तक पहुचता है और हम यथार्थ निर्णय लेते है। इन्द्रिय जो भी कार्य करती है, तो वह सब विषय मन के द्वारा बुद्धि तक पहुँचते है और बुद्धि उनका निर्णयात्मक उत्तर देती है। जब मानव के ह्रदय में यह विचार आता है कि सब कुछ प्रभु का रचाया हुआ है और वह सर्वव्यापक हैं, तो इन्द्रिय किसी प्रकार का पाप नहीं कर सकती। परन्तु जो प्रभु को सर्वव्यापक कहते तो है, पर विश्वास नहीं करते, उनसे यह आशा नहीं की जा सकती कि वे पाप नहीं करेंगे।

मेधावी बुद्धि उसको कहते है, जिसके आने के पश्चात मानव के जन्म जन्मान्तरों के संस्कार जाग्रत हो जाते है। मेधावी बुद्धि का सम्बन्ध अंतरिक्ष से होता है। जो वाणी अंतरिक्ष में रमण करती है, मेधावी बुद्धि प्राप्त होने पर उसको जान लिया जाता है। मेधावी बुद्धि अंतरिक्ष में संसार के ज्ञान विज्ञान को देखा करती है कि यह संसार का विज्ञान और कौन कौन से वाक्य अंतरिक्ष में रमण कर रहे है। मेधावी बुद्धि उस विवेक का नाम है, जब मानव संसार से विवेकी होकर परमात्मा के रचाये हुए तत्वों पर विवेकी बनकर जाता है।

इस मेधावी बुद्धि का क्षेत्र है, पृथ्वी के गर्भ में नाना प्रकार की धाराए तथा खनिज, समुद्रो की तरंगो में रमण करने वाली धातुए तथा प्राणी, वायुमंडल में रमण करने वाले रजोगुणी, तमोगुणी तथा सतोगुणी परमाणु, इन परमाणुओ तथा वाणी का मंथन करना इसका क्षेत्र है। मानव मेधावी बुद्धि का विवेकी बनकर परमात्मा के रचाये हुए विज्ञान को जानता हुआ, यह आत्मा ऋतम्भरा बुद्धि के द्वार चली जाती है।

ऋतम्भरा बुद्धि उसको कहते है, जब मानव योगी और जिज्ञासु बनने के लिए परमात्मा की गोद में जाने के लिए लालयित होता है, तो वही मेधावी बुद्धि, ऋतम्भरा बुद्धि बन जाती है। पांचो प्राण ऋतम्भरा बुद्धि के अधीन हो जाते है। योगी जब इन पांचो प्राण को अपने अधीन करके उनसे मिलान कर लेता है, तो आत्मा इन प्राणो पर सवार हो जाती है और सर्वप्रथम मूलाधार में रमण करती है।

1. मूलाधार में लगभग 6 ग्रन्थियां लगी है, आत्मा के यहाँ पहुचने पर ये ग्रन्थियां स्पष्ट हो जाती है, इस आत्मा का प्राणो के सहित आगे को उत्थान हो जाता है।

2. आगे चलकर यह आत्मा नाभि चक्र में आती है, जिसमें 12 ग्रथिया होती है, यह ग्रथि 72 करोड़ 72 लाख 10 हज़ार 2 सौ 2 नाड़ियों का समूह है। आत्मा के यहाँ पहुचने पर वे भी स्पष्ट हो जाती है।

3. इसके आगे यह आत्मा गंगा, यमुना, सरस्वती में स्नान करती हुई, ह्रदय चक्र में पहुचती है। इसको स्वाधिष्ठान चक्र या अविनाश चक्र भी कहते है। यह 24 ग्रथियो का समूह माना जाता है, आत्मा के यहाँ पहुचने पर ये भी स्पष्ट हो जाता है।

4. इसके आगे यह आत्मा कंठ चक्र में जाती है, जिसे उदान चक्र या ब्राह्यी चक्र भी कहते है। इसमें लगभग 47 ग्रन्थियां होती है, आत्मा के यहाँ पहुचने पर ये भी स्पष्ट हो जाता है।

5. इसके आगे यह आत्मा घ्राण चक्र में जाती है, आत्मा के यहाँ पहुचने पर ये भी स्पष्ट हो जाती है।

6. आगे वह स्थान आता है जहाँ इड़ा, पिंगला, सुषुम्ना नाम की नाड़ियां, जिन्हे गंगा, यमुना, सरस्वती भी कहते है, का मिलान होता है, इसे त्रिवेणी या आज्ञाचक्र भी कहते है।

7. आत्मा प्राणो सहित त्रिवेणी में स्नान करती हुई ब्रह्मरंध्र में पहुँचती है, उस स्थान पर सूर्य का प्रकाश भी फीका पड़ जाता है।

इतने प्रबल प्रकाश से आगे चलकर आत्मा रीढ़ में जाकर जहाँ कुंडली जाग्रत हो जाती है। इस कुंडली के जाग्रत होने का नाम ही परमात्मा से मिलान होना है।

प्रज्ञा बुद्धि, उस ऋषि को प्राप्त होती है, जो मुक्ति को प्राप्त कर लेता है। हमारे कंठ के निचले भाग में ह्रदय चक्र होता है, उस चक्र में मेधावी बुद्धि का संक्षेप रमण रहता है। उसमें ब्रह्माण्ड के सारे के सारे ज्ञान और विज्ञान रमण करते है। जैसे अंतरिक्ष में हमारे वाक्य रमण करते है, उस विद्या से जो वाक्य हम उच्चारण करना चाहते है, वही वाक्य अंतरिक्ष से हमारे समीप आने लगते है। उसी वाक्य के आरम्भ होने को मेधावी बुद्धि का ” ऋद्धि भूषणम ” कहा जाता है। इस भूषण को धारण करने से मानव का जीवन विकाश-दायक बनता है। वह नाना प्रकार के छल, दम्भ, आडम्बर आदि से दूर हो जाता है और वह योगी त्रिकालदर्शी यानि भूत, भविष्यत् और वर्तमान तीनो कालों का ज्ञाता हो जाता है।

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