जस काशी, तस उसर मगहर. (संत कबीर)


जस काशी, तस उसर मगहर. 
(संत कबीर)

संत कबीर विश्व के ऐसे अनूठे व्यक्तित्व के महापुरूष हैं। जो एक साथ कब्र में दफन भी हैं और समाधिस्थ भी। वे हिन्दू और मुसलमान को हीं नहीं अपितु सभी धर्मावलम्बियों को अपनी निर्वाण स्थली की ओर आकर्षित करते हैं। विश्व का यह अद्वितीय स्थान संतकबीर नगर की निर्वाण स्थली मगहर के नाम से विख्यात है। जहां पर एक ऐसी समाधि है, जो मानव मात्र को एकता का संदेश देते हुए विश्व नेतत्व की क्षमता रखती है।
संत कबीर की समाधि और मजार दोनों एक ही जगह स्थित है।
मगहर का नाम मार्ग़ “हर” से मगहर पडा था। बोध गया, राजगीर, कुशीनगर से होते हुए बौध भिक्षु इसी रास्ते से कोपिया, कपिलवस्तु, लुम्बिनी और श्रावस्ती के लिए जाते थे। मगहर असुरक्षित था। यहां मार्ग में वें लूट लिए जाते थे। बौध्द भिक्षुओं ने इस स्थान को मार्गहर नाम दे दिया। यही मार्गहर बाद में मगहर नाम से प्रसिध्द हुआ। मार्गहर यानि मार्ग में ही हर अर्थात हरण कर लिया जाता था, राहगीर का सामान। इसलिए उसे मार्गहर कहने लगे थे।

मगहर में सूखा पडने की घटना-

यहां एक तपस्वी ऋषि संत के जल मांगने पर विचारहीन चरवाहों ने उनके कमण्डल में धूल भर कर दे दिया था। तब संत के मुंह से निकला था – जल की जगह यहां धूल ही उडेगी। बारह वर्षों तक यहां अकाल पड गया। मगहर अभिशप्त हो गया। नदी, तालाब, कूएं सूख चुके थे। लोग प्यासे और भूखों मरने लगे थे। जनता की त्राहि त्राहि से उद्वेलित हो कर नवाब बिजली खां पठान ने मगहर में रह रहे, श्रद्धेय सूफी फकीर से वर्षा का उपाय पूछा! फकीर ने कहा कि हमारे अन्दर तो वह शक्ति नहीं है, पर एक फकीर काशी में रहते है, वे सर्व समर्थ हैं। उनकी बात खुदा से होती है। फकीर के निर्देश पर नवाब बिजली खां ससमाज काशी गये। वे जानते थे कि कबीर साहब हिन्दु-मुस्लिम दोनों वर्गों में अत्यन्त लोकप्रिय और श्रद्धास्पद है।

बडे बडे नाथों, शेखों, सूफियों, पंडितों, बादशाहों और धर्माचार्यों की पराभवगाथा भी सुन चुके थे। वे एक भक्त और सेवक की तरह कबीर साहेब के पास गये तथा इस अंचल और कबीर साहेब की पूर्व परिचित कर्मक्षेत्र मगहर की जनता की पीडा और अकाल के बारे में निवेदन किया। जनता की पीडा को सुनकर करुणा वत्सल सदगुरु कबीर मगहर आने का सहर्ष निश्चय किया। प्रेमियों और भक्तों ने मोहबश काशी छोडकर कबीर साहब को मगहर न जाने देने का हठ किया और कहा था-’’काशी मरे तो जाय मुकुति; मगहर गदहा होय;।

काशी महातम्य के सम्बंघ में यह विश्वास प्रचलित रहा कि जिस प्राणी का देहपात काशी क्षेत्र में होगा वह सधः मुक्त हो जाता है। कबीर साहब इस विश्वास को खंडित करने कि लिए मगहर रवाना हुये. उनके लिए तो ’’जस काशी तस उसर मगहर ’’को मानकर, पर जन सामान्य के मन की भावना ’’मगहर मरे सो गदहा होय’’ को खंडित करने लिए मगहर आये थे।

संत कबीर साहब मगहर कब आये इस बारे में कोई निश्चित तिथि कह पाना संभव नहीं है। कबीर पंथी परम्परा के अनुसार कबीर साहब काशी में एक सौ सतरह वर्ष रहे और अंत में मगहर पधारे। मगहर में वे तीन वर्ष रहे और 1518 ई. में 119 वर्ष सात महीने और ग्यारह दिन की अवस्था पूर्ण कर माघ शुक्ल पक्ष एकादशी के दिन सम्बवत 1575 को निर्वाण को प्राप्त हुए। गुरूग्रन्थ साहिब में एक वाणी आती है।’’पहिल दर्शन मगहर पायो; पुनि कासी वस्यो आयी; इस पंक्ति के आधार पर बहुत से विद्वान मगहर से कबीर साहब का सम्बंध जन्म से होने की बात करते है, परन्तु कबीर साहब की कुछ वाणियाँ पूर्व पक्ष का ही समर्थन करते पायी जाती हैं।

सकल जन्म तप किया काशी, मरन भईया मगहर को वासी।
सकल जन्म सिवपुरी गवाया, मरन बार मगहर उठि धाया।


’’गुरु साहब का इतिहास’’ नामक पुस्तक के अनुसार गुरु नानक साहब सन 1515 में काशी होते हुए ऐतिहासिक जटाशंकर गुरुद्वारा गोरखपुर आये थे। वहां से वे मगहर गये थे। यहां कसरवल नामक स्थान पर वैष्णव सिध्द संत केसरदास के भण्डारे में गुरुनानक देव का कबीर साहब से मिलन हुआ था। इस अवसर पर गुरु गोरखनाथ भी वहां उपस्थित थे। इन चार सदगुरुओं का मिलन स्थल ’’’कबीर धूनी -गोरखतलैया नाम से प्रसिध्द हैं।

मगहर में कबीर साहब की अवस्था 119 वर्ष की हो चुकी थी। यधपि उनका शरीर वद्ध्र हो गया था, परन्तु वह तेज पुंज ज्योर्तिमान था। उनकी वाणी में ओज था। मुखमण्डल आभा, सौम्यता एवं कान्ति से पूर्ण था। मत्यु के कोई संकेत दष्टब्य नहीं थे। एक दिन कबीर साहब ने अपने अनुयायी श्रुतिगोपाल साहब, नवाब बिजली खां पठान, कमाल साहब कमाली, कमाली साहिबा तथा भक्तों को बुलाकर अपने देहावसान की पूर्व सूचना दी। अन्तिम उपदेश दिया और मौन हो गये। लोगों पर जैसे तुषारापात हो गया। साहब! हमें छोडकर न जायें। वह आवाज चारों ओर गूंजने लगी। सभी रोने बिलखने लगे। माघ शुक्ल पक्ष की एकादशी का दिन, सन 1518ई0 एक विशाल पुष्प गुच्छ बनाकर उसी के भीतर कबीर साहब साधना के लिए प्रविष्ट हो गये। जब स्पष्ट हो गया कि कबीर साहब आत्मदेह का त्याग कर गये तो पर्णकुटी खोली गयी।

फूलों में शव की खोज होने लगी। पर शव नहीं मिला। हिन्दु और मुस्लिम के बीच शव को जलाने और दफनाने को लेकर कलह शुरु हो गई थी। तभी अदृश्य वाणी हुई, जिस शव को लेकर तुम लड़ रहे हो,वह मुर्दा नहीं है। फिर फूल बांटकर हिन्दुओं ने समाधि बनायी और मुसलमानों ने मजार बनाया। दोनों स्मारक अगल बगल विद्यमान है।

समाधि स्थान से पीछे थोड़ी दूरी पर कबीर साहब की गुफा है। अपनी रहस्य साधना एवं एकान्त वास के लिए कबीर साहब कभी कभी गुफा में प्रवेश करते थे। गुफा का यह रुप सम्भवतः दो शताब्दी पुराना है। जिसे मूल गुफा के जीर्र्णोद्वार के रुप में निर्मित किया गया था। पुनःजीर्ण हो जाने के कारण 1980 में गुफा द्वार बन्द कर दिया गया।

इस महान सूफी संत के अविर्भाव के सम्बन्ध में कहा जाता है। कबीर दास काशी के लहरतारा तालाब में सन 1398 ई0 को बालक के रुप में जुलाहे की दम्पति नीरु नीमा को प्राप्त हुए थे। नीरू का घर काशी में नरहरपुरा था। जिसे अब कबीर चैरा के नाम से जाना जाता है। नीमा का घर मांडूर गांव, वर्तमान में मडुवाडीह में था। नीरु नीमा के साथ अपने घर नरहरपुरा लौट रहे थे। रास्ते में लहरपुरा तालाब पडता है। वहां उन्हे नन्हे बच्चे की आवाज सुनाई पड़ी। नीमा ने देखा कि कमलों के गुच्छ पर एक छोटा बच्चा हाथ पांव मार रहा है। नीमा ने बच्चे को उठा लिया। घर लाये और पालन पोषण किया। नीरु टीले पर नीरु और नीमा की समाधियां अवस्थित है।

संत कबीर जैसे संत दुनिया के लिए मिसाल है। शायद ही किसी एक संत की समाधि और मजार एक साथ हो। जो अपने आप में साम्पद्रायिक एकता और आपसी भाई चारा को प्रत्यक्ष रुप से रास्ता दिखाती है। वास्तव में कबीर साहब ने हमारे समाज में व्याप्त उस समय की विसंगतियों और कुरीतियों आदि के बारे में देखकर जिस निडरता से कहा था। वे समस्याएं आज भी विधमान है। इसलिए कहने में संकोच नहीं कि कबीर साहब आज भी प्रासंगिक है और उनके संदेशों हमारे देश व समाज को जरुरत है। उनके आदर्शों को अपनाकर समाज को स्वच्छ और आदर्श बनाया जा सकता है।

संत कबीर जैसे स्पष्टवादी और निडर संत कम ही देखने को मिलते है। वे जो कुछ कहते थे,सच कहते थे, और बोलते थे तो डंके की चोट पर बोलते थे। फटकारने में भी वे परहेज नहीं करते थे। तभी तो उन्हें वाणी का ’’डिक्टेटर’’ भी कहा जाता है। काश! कबीर का संदेश जन-जन तक पहुंच जाता तो निःसंदेह हमारा समाज बदल जाता, जिसकी आज जरुरत है।

संत कबीर के संदेश को जन जन तक पहुंचाने के उदेश्य से यहां पर हर वर्ष पांच दिवसीय ’’मगहर महोत्सव’’ का आयोजन जनवरी माह में किया जाता है और सदगुरु कबीर निर्वाण दिवस पर तीन दिवसीय समारोह माघ शुक्ल पक्ष एकादशी को किया जाता है। प्रदेश सरकार भी यहां के विकास के लिए प्रयत्नशील तो हैं लेकिन शायद असली अमली जामा पहनाने में रफतार धीमी है। पुरातत्व विभाग और संतकबीर नगर उधान के साथ यहां पर संतकबीर नगर शोध संस्थान, साहित्य प्रसार एवं शोध साहित्य की उपलब्धता, सदगुरु कबीर बाल मंदिर सत्संग साधना, संगीत प्रशिक्षण आदि सुविधाएं उपलब्ध तो है लेकिन बस दिखावा है। काम कम! जरुरत है, वर्तमान समय में आवश्यकता को देखते हुए विशेष रुप से यहां के कार्यों को अन्जाम दिया जाए!

पर्यटन एवं सांस्कतिक दष्टिकोण से विकसित किया जाए! कबीर के संदेश को जन जन तक पहुंचाने के उददेश्य से विशेष रुप से कार्यक्रम चलाने की आवश्यकता है; क्योंकि कबीर का संदेश निश्चित रुप से समाज बदलने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है।

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