जीवन के संदेहों का निवारण.


जीवन के संदेहों का निवारण.

शोकस्थान शस्त्राणी हर्ष स्थानि शतानि च,
दिवसे दिवसे मूढ़माविशन्ति न पंडितम।

अर्थात – मूर्ख मनुष्य को ही प्रतिदिन शोक के सहस्त्रों और हर्ष के सैकड़ो स्थान(अवसर) प्राप्त होते हैं, विद्वान पुरुष को नहीं।

नारद जी कहते हैं – तदनन्तर परम बुद्धिमान नंदभद्र, बहूदक कुण्ड के तट पर वर्तमान कपिलेश्वर लिंग की पूजा करके प्रणाम--पूर्वक हाथ जोड़ कर, भगवान् के आगे खड़े हुए। संसार के चरित्रों से उनके मन में दुःख हो गया था। इसलिए उन्होंने दुखी होकर यह कहा – यदि इस संसार की सृष्टि करने वाले भगवान् सदाशिव को मैं देख पाऊं, तो अनेक प्रश्नों के साथ तुरंत यह प्रश्न करूँगा कि भगवन। क्या आपके उत्पन्न किये बिना ही यह अनेक रूपों में उपलब्ध होने वाला निरीह संसार भरता चला जा रहा है? आप चेतन हैं, शुद्ध हैं और राग आदि दोषों से रहित हैं, तो भी आपने जो अखिल विश्व की सृष्टि की है, उसे आपने अपने सामान ही चेतन, विशुद्ध एवं राग आदी दोषों से रहित क्यों नहीं बनाया? आप तो निर्वेर और समदर्शी हैं; फिर आपका बनाया हुआ, यह जगत सुख दुःख और जन्म मरण आदि क्लेश क्यों पा रहा है? संसार के ऐसे चरित्र से मैं मोहित हो गया हूँ। अतः अब किसी दुसरे स्थान नहीं जाऊंगा; भोजन भी नहीं करूँगा और पानी भी नहीं पीऊंगा। उपर्युक्त बातों का चिंतन करता हुआ मृत्युपर्यंत यही खड़ा रहूँगा | इस प्रकार विचार करते हुए नंदभद्र वहीँ खड़े रहे।

तत्पश्चात उसके चौथे दिन कोई सात वर्ष का बालक पीड़ा से पीड़ित होकर बहूदक के सुन्दर तट पर आया। वह बहुत ही दुर्बल तथा गलित कुष्ठ का रोगी था। उसे पग पग पर पीड़ा के मारे मूर्छा आ जाती थी। उस बालक ने बड़े क्लेश से अपने को संभाल कर नंदभद्र से कहा – ‘अहो ! आपके तो सभी अंग सुन्दर और स्वस्थ हैं, फिर भी आप दुखी क्यों है?’ उसके पूछने पर नन्दभद्र ने अपने दुःख का सब कारण कह सुनाया। यह सब सुनकर बालक ने दुखी होकर कहा – ‘अहो ! इस बात से मुझे बड़ा भयंकर कष्ट हो रहा है कि विद्वान पुरुष भी अपने कर्तव्य को नहीं समझ पाते हैं। जिसका सम्पूर्ण शरीर इन्द्रियों से युक्त और स्वस्थ्य है, वह भी व्यर्थ मरने की इच्छा रखता है। जहां राजा खटवांग ने दो ही घडी में मोक्ष का मार्ग प्राप्त कर लिया, उसी भारतवर्ष को आयु रहते कौन त्याग सकता है? मैं तो अपने को ही दृढ़ मानता हूँ; क्योंकि मेरे माता पिता कोई नहीं है, मुझमे चलने की शक्ति भी नहीं है, तथापि मैं मरना नहीं चाहता हूँ। धैर्यवान को सभी लाभ प्राप्त होते हैं; यह श्रुति का वचन सत्य है। आपको तो श्रुति के इस कथन से संतोष धारण करना ही उचित है; क्योंकि आपका यह शरीर अभी दृढ़ है। यदि मेरा भी शरीर किसी प्रकार नीरोग हो जाय, तो मैं एक एक क्षण में वह सत्कर्म करू, जिसको एक एक युग में भोगा जा सकता है। इन्द्रियां जिसके वश में हों और शरीर जिसका दृढ़ हो, वह भी यदि साधन के सिवा और किसी वस्तु की इच्छा करे, तो उससे बढ़कर मूर्ख कौन हो सकता है? मूर्ख मनुष्य को ही प्रतिदिन शोक के सहस्त्रों और हर्ष के सैकड़ों स्थान (अवसर) प्राप्त होते हैं, विद्वान् पुरुष को नहीं। जो ज्ञान के विरुद्ध हों, जिनमे नाना प्रकार के विनाशकारी विघ्न प्राप्त हों तथा जो मूल का ही उच्छेद कर डालने वाले हों, ऐसे कर्मों में आप जैसे बुद्धिमान पुरुषों की आसक्ति नहीं होती। आठ अंगों वाली जिस बुद्धि को सम्पूर्ण श्रेय की सिद्धि करने वाली बताया गया है, वह वेदों और स्मृतियों के अनुकूल चलने वाली निर्मल बुद्धि आपके भीतर मौजूद है। इसलिए आप जैसे लोग दुर्गम संकटों में तथा स्वजनों की विपत्तियों में भी शारीरिक और मानसिक दुःख से पीड़ित नहीं होते।

पंडितों की सी बुद्धि वाले विवेकी मनुष्य प्राप्त होने योग्य वस्तु की अभिलाषा नहीं करते, नष्ट हुई वस्तु के लिए शोक भी नहीं चाहते तथा आपत्तियों में मोहित नहीं होते हैं। सम्पूर्ण जगत मानसिक और शारीरिक दुखों से पीड़ित है। उन दोनों प्रकार के दुखों की शान्ति का उपाय विस्तारपूर्वक संक्षेप में ही सुनिए। रोग, अनिष्ट वस्तु की प्राप्ति, परिश्रम तथा अभिष्ठ वस्तु का वियोग – यह चार कारणों से शारीरिक और मानसिक दुःख उत्पन्न होते हैं। अप्रिय का संयोग और प्रिय का वियोग ये दो प्रकार का मानसिक महाकष्ट बताया गया है। इस प्रकार यहाँ शारीरिक और मानसिक दोनों प्रकार का दुःख बताया गया। जैसे लोहपिण्ड के तप जाने से उस पर रखा हुआ घड़े का जल भी गरम हो जाता है, उसी प्रकार मानसिक दुःख से शरीर को भी संताप होता है। अतः शीघ्र ही औषध आदि के द्वारा उचित प्रतिकार करने से व्याधि अर्थात शारीरिक दुःख का शमन होता है और सर्वदा परित्याग करने से आधि अर्थात मानसिक दुःख का शमन होता है। इन दो क्रिया योगों से व्याधि और आधि की शांति बताई गयी है। इसलिए जैसे जल से आग को बुझाया जाता है, उसी प्रकार ज्ञान से मानसिक दुःख को शांत करे। मानसिक दुःख के शांत होने पर मनुष्य का शारीरिक दुःख भी शांत हो जाता है। मन के दुःख की जड़ है- स्नेह। स्नेह से ही प्राणी आसक्त होता है और दुःख पाता है। स्नेह से ही दुःख और स्नेह से ही भय उत्पन्न होते हैं। शोक, हर्ष तथा आवास – सब कुछ स्नेह से ही होता है। स्नेह से इन्द्रियराग तथा विषयराग का जन्म हुआ है, वे दोनों ही श्रेय के विरोधी हैं। इनमें पहला अर्थात इन्द्रियराग भारी माना गया है। इसलिए जो स्नेह या या आसक्ति का त्यागी, निर्वेर तथा निष्परिग्रह होता है, वह कभी दुखी नहीं होता। जो त्यागी नहीं है, वह इस संसार में बार बार जन्म मृत्यु को प्राप्त होता है। इस कारण मित्रों से तथा धनसंग्रह से होने वाले स्नेह में कभी लिप्त न हों और अपने शरीर के प्रति होने वाले स्नेह का ज्ञान द्वारा निवारण करें।

ज्ञानी, सिद्ध, शास्त्रज्ञ और जितात्मा – इनमें स्नेहजनित आसक्ति नहीं होती। ठीक वैसे ही, जैसे कमल के पत्तों में पानी नहीं सटता। राग के वशीभूत हुए पुरुष को काम अपनी ओर खींचता है, फिर उसके मन में भोग की इच्छा उत्पन्न होती है, उस इच्छा से ही तृष्णा या लोभ की उत्पत्ति होती है। तृष्णा सबसे बढ़कर पापिष्ठ औ सदा उद्वेग में डालने वाली मानी गयी है। इसके द्वारा बहुत से अधर्म होते हैं। तृष्णा का रूप भी बड़ा भयंकर है। यह सबके मन को बींधने वाली है। खोटी बुद्धि वाले पुरुषों के द्वारा बड़ी कठिनाई से जिसका त्याग हो पाता है, जो इस शरीर के वृद्ध होने पर भी स्वयं बूढी नहीं होती तथा जो प्राणान्ताकारी रोग के सामान है, उस तृष्णा का त्याग करने वाले को ही सुख मिलता है। तृष्णा का आदि और अंत नहीं है। जैसे लोहे का मेल लोहे का नाश करता है, उसी प्रकार तृष्णा मनुष्यों के शरीर के भीतर रह कर उनका विनाश करती है।

नन्दभद्र बोले – शुद्ध बुद्धि वाले बालक! यह क्या बात है कि पापी मनुष्य भी निरापद होकर स्त्री और धन के साथ आनंदमग्न देखे जाते हैं?

बालक ने कहा – यह तो बहुत स्पष्ट है। जिन्होंने पूर्वजन्मो में तामसिक भाव से दान दिया है, उन्होंने इस जन्म में उसी दान का फल प्राप्त किया है, परन्तु तामस-भाव से जो कर्म किया गया है, उसके प्रभाव से उन लोगों का धर्म में कभी अनुराग नहीं होता। ऐसे मनुष्य पुण्य-फल को भोग कर अपने तामसिक भाव के कारण नरक में ही जाते हैं, इसमें संदेह नहीं है। इस संशय के विषय में मार्कंडेय जी ने पूर्वकाल में जो बात कही है, वह इस प्रकार सुनी जाती है – एक मनुष्य ऐसा है, जिसके लिए इस लोक में तो सुख का भोग सुलभ है, परन्तु परलोक में नहीं। दूसरा ऐसा है, जिसके लिए परलोक में सुख का भोग सुलभ है, किन्तु इस लोक में नहीं। तीसरा ऐसा है, जिसके लिए इस लोक में और परलोक में भी सुखभोग प्राप्त होता है और एक चौथे प्रकार का मनुष्य ऐसा है, जिसके लिए न तो इस लोक में सुख है और न परलोक में ही। जिसका पूर्व जन्म में किया हुआ पुण्य शेष है, उसी को वह भोगता है और नूतन पुण्य का उपार्जन नहीं करता, उस मंदबुद्धि एवं भाग्यहीन मानव को प्राप्त हुआ वह सुखभोग केवल इसी लोक के लिए बताया गया है। जिसका पूर्वजन्मोपार्जित पुण्य नहीं है, किन्तु वह तपस्या करके नूतन पुण्य का उपार्जन करता है, उस बुद्धिमान को परलोक में सदा ही सुख का भोग प्राप्त होता है। जिसका पहले का किया हुआ पुण्य भी वर्तमान है और तपस्या से नूतन पुण्य का भी उपार्जन हो रहा है, ऐसा बुद्धिमान कोई कोई ही होता है, जिसे इहलोक में और परलोक में भी सुख भोग प्राप्त होता है। जिसका पहले का भी पुण्य नहीं है और इस लोक में भी जो पुण्य का उपार्जन नही करता, ऐसे मनुष्यों का न इहलोक में सुख मिलता है न परलोक में ही। उस नराधम को धिक्कार है। हे महाभाग ! ऐसा जानकर सब कार्यों का त्याग करके भगवान् सदाशिव का भजन और वर्णधर्म का पालन कीजिये। इससे बढ़कर दूसरा कोई कर्म नहीं है। जो अपने मनोरथों के नष्ट होने तथा प्राप्त होने पर भी शोक करता है अथवा जो अथवा जो भोगों से तृप्त नहीं होता, वह निश्चय ही दुसरे जन्म में बंधन में पड़ता है।

नन्दभद्र बोले – हे बालक ! आप बालरूप में उपस्थित होने पर भी वास्तव में बालक नहीं है, बड़े बुद्धिमान है, मैं आपको नमस्कार करता हूँ। मैं बड़े विस्मय में पड़ा हूँ और आप कौन हैं, यह यथार्थरूप से जानना चाहता हूँ। मैंने बहुत से वृद्ध पुरुषों का दर्शन और सत्संग लाभ किया है, किन्तु उन सबकी ऐसी बुद्धि न तो मैंने देखी है और न सुनी ही है। आपने तो मेरे जन्मभर के संदेह खेल खेल में ही नष्ट कर दिए। अतः आप कोई साधारण बालक नहीं है, यह मेरा निश्चित मत है।

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