पंचवटी.


पंचवटी.

पंचवटी का अर्थ हैं- पांच पवित्र छायादार वृक्षों के समूह को पंचवटी कहते हैं।

पाँच का महत्व- हमारे पौराणिक ग्रन्थों में ''पंच" (पांच) शब्द का बड़ा महत्व है। ''पंचभूत" (पांच तत्वों) पृथ्वी, जल, तेज (अग्री), वायु और आकाश से सृष्टि का निर्माण हुआ है। मानव शरीर को पांच ज्ञानेन्द्रियाँ, त्वचा, चक्षु, नासिका, जिह्वा श्रोत (कान) एवं पांच कर्मेन्द्रियाँ पूर्ण करती हैं। ठीक इसी प्रकार पंचवटी का पांच प्रजातियों पीपल, बरगद, बेल अशोक व आंवला पर्यावरणीय पूर्णता की प्रतीक है।

रामायण की पंचवटी: रामायण में एक पवित्र स्थल (वन क्षेत्र) को पंचवटी के रूप में निरूपित किया गया है। जहां श्री राम ने सीता एवं लक्ष्मण के साथ पर्ण कुटीर का निर्माण कर वनवास का समय व्यतीत किया। वर्तमान में यह स्थान नासिक के पास है।

''कम्बन रामायण" में गोदावरी नदी के दक्षिण तट पर एक वृत्तीय घेरे में स्थित पाँच विशाल वट वृक्ष (बरगद के वृक्ष) को पंचवटी कहा गया है। वनवास के समय श्री राम, सीता व लक्ष्मण ने इन पांच वृक्षों के मध्य पर्णकुटीर का निर्माण किया था। श्री राम पंचवटी में ही निवास करते हुए पाप एवं अनीति के वाहकों का विनाश किया।

पुराण में वर्णित पंचवटी पौराणिक ग्रन्थ 'स्कन्द पुराण' के हेमाद्रीय व्रत खण्ड के अनुसार पंचवटी का वर्णन निम्रानुसार है:- 

पीपल, बेल, वट, धातृ (आंवला) व अशोक ये पांचों वृक्ष पंचवटी कहे गये हैं। इनकी स्थापना पांच दिशाओं में करना चाहिए। अश्वत्थ (पीपल) पूर्व दिशा में, बेल उत्तर दिशा में, वट (बरगद) पश्चिम दिशा में, धातृ (आंवला) दक्षिण दिशा में तपस्या के लिए स्थापना करनी चाहिए। पांच वर्षों के पश्चात् चार हाथ की सुन्दर व सुमनोहर वेदी की स्थापना बीच में कराना चाहिए। यह अनन्त फलों को देने वाली व तपस्या का फल प्रदान करने वाली है।'

'वृहद् पंचवटी के मध्य भाग में चार बेल वृक्ष की स्थापना चारों दिशाओं में करना चाहिए। तत्पश्चात् चार वट वृक्ष का रोपण चारों कोनों में करना चाहिए। इसके बाद पच्चीस अशोक के वृक्ष गोलाकार रूप में रोपित करें। दक्षिण दिशा में दो आललकी (आँवला) के वृक्षों का रोपण करना चाहिए एवं पीपल के चार वृक्षों को चारों दिशाओं में स्थापित करना चाहिए। इस प्रकार वृहद पंचवटी का निर्माण होता है।'

कैसे लगायें?

(पंचवटी) सर्वप्रथम किसी समतल स्थान का चयन करना चाहिए। फिर केन्द्र से चारों दिशाओं में बीस- बीस हाथ (10-10 मीटर) पर निशान लगायें तथा पूरब एवं दक्षिण दिशा के मध्य अर्थाथ अग्रि कोण पर भी बीस हाथ (10 मीटर) पर मध्य में एक निशान लगा लें। इन चिन्हित किये गये जगहों पर गड्ढा बना लें। इनमें पूरब दिशा में पीपल, दक्षिण दिशा में आंवला, उत्तर दिशा में बेल, पश्चिम दिशा में वट वृक्ष (बरगद) एवं अग्रिकोण पर अशोक वृक्ष की स्थापना पवित्र मन से करें। पांच वर्ष पश्चात केन्द्र में चार हाथ लम्बा एवं चार हाथ चौड़ा (2.&2 मी.) का वर्गाकार सुन्दर वेदी का निर्माण करना चाहिए। वेदी सब ओर समतल होना चाहिए एवं चारों दिशाओं में इसका मुख होना चाहिए।

(वृहद् पंचवटी) यदि अधिक स्थान उपलब्ध हो तो वृहद् पंचवटी की स्थापना करें। पौधों का रोपण विधि उपरोक्तानुसार ही होगा। परन्तु इसकी परिकल्पना वस्तुत: वृत्ताकार है। सुन्दर वेदी की स्थापना पूर्ववत ही होगी। सर्वप्रथम केन्द्र से चारों तरफ 5 मी. त्रिज्या, 10 मी. त्रिज्या, 20 मी. त्रिज्या, 25 मी. एवं तीस मीटर त्रिज्या के पाँच वृत्त (परिधि) बनायें। अन्दर के प्रथम 5 मी. त्रिज्या के वृत्त पर चारों दिशाओं में चार बेल के वृक्ष की स्थापना करें। इसके बाद 10 मी. त्रिज्या के द्वितीय वृत्त पर चारों कोनों में चार बरगद वृक्ष स्थापित करें। 20 मी. त्रिज्या की तृतीय परिधि पर समान दरी पर (लगभग 5 मी.) के अन्तराल पर 25 अशोक के वृक्ष का रोपण करें। चतुर्थ वृत्त जिसकी 25 मी. त्रिज्या है, के परिधि पर पर दक्षिण दिशा के लम्ब से पांच-पांच मीटर पर दोनो तरफ दक्षिण दिशा में आंवला के दो वृक्ष चित्रानुसार स्थापित करने का विधान है। आंवला के दो वृक्षों की परस्पर दूरी 10 मी. रहेगी। पांचवें व अन्तिम 30 मी. त्रिज्या के वृत्त पर परिधि पर चारों दिशाओं में पीपल के चार वृक्ष का रोपण करें। इस प्रकार कुल उन्तालिस (36) वृक्ष की स्थापना होगी। जिसमें चार वृक्ष बेल, चार बरगद, 25 वृक्ष अशोक, दो वृक्ष आंवला एवं चार वृक्ष पीपल के होंगे।

महत्त्व.

स्कन्द पुराण में वर्णित पंचवटी का वैज्ञानिक विश्लेषण करने से यह स्पष्ट होता है कि इसकी संरचना में गम्भीर आयुर्वेद, मनोविज्ञान, औद्यानिकी वानिकी, वास्तुशास्त्र एवं पर्यावरण संरक्षण के ज्ञान का उपयोग हुआ है।

औषधीय महत्व.

इन पांचों वृक्षों में अद्वितीय औषधीय गुण है। इनमें वे समस्त गुण निहित हैं, जिससे मनुष्य दीर्घायु रहकर अपने समस्त रोगों का निदान कर सकता है। आंवला विटामिन सी का सबसे समृद्ध स्त्रोत है एवं शरीर को रोग प्रतिरोधी बनाने की महाऔषधि है। बरगद का दूध बहुत बलदायी होता है। इसके प्रतिदिन सेवन से शरीर का कायाकल्प हो जाता है। जीवनी शक्ति में विलक्षण अभिवृद्धि होती है एवं शरीर में नवचेतना का संचार होता है। पीपल रक्त विकार दूर करने वाला वेदना-शामक एवं शोथहर होता है। बेल पेट सम्बन्धी बीमारियॉ की अचूक औषधि है, तो अशोक स्त्री विकारों को करने वाला प्रमुख औषधीय वृक्ष है।

पर्यावरणीय महत्व.

बरगद शीतल छाया प्रदान करने वाला एक विशाल वृक्ष है। गर्मी के दिनो में अपरान्ह में जब सूर्य की प्रचंड किरणें असह्य गर्मी प्रदान करती हैं एवं तेज लू चलती है, तब पंचवटी में पश्चिम के तरफ स्थित वटवृक्ष सघन छाया उत्पन्न कर पंचवटी को ठंडा व वातानुकूलित रखता है।

पीपल प्रदूषण शोषण करने एवं प्राण वायु उत्पन्न करने का सर्वोत्तम वृक्ष है। प्रात: काल जब नवीन आभा लिए अरुणोदय होता है तो सूर्य की निर्मल रश्मियों से पीपल का वृक्ष आध्यात्मिक वातारण उत्पन्न करता है एवं इसके प्रभाव में आने वाले प्राणियों की मेधा प्रखर होती है। संभवत: इसी प्रभाव के कारण भगवान बुद्ध को इसी वृक्ष के नीचे 'बोधज्ञान' प्राप्त हुआ एवं इसका नाम ''बोधि-वृक्ष" पड़ा।

अशोक सदाबहार वृक्ष है, यह कभी पर्ण- रहित नहीं रहता एवं सदैव छाया प्रदान करता।

बेंल की पत्तियों काष्ठ एवं फल में तेल ग्रन्थियाँ होती हैं, जो वातावरण को सुगन्धित रखती है।

लू से भरी पछुआ एवं पुरुवा दोनों की तेज हवाओं से वातावरण में धूल की मात्रा बढृती है, जिसको पूरब व पश्चिम में स्थित पीपल एवं बरगद के विशाल वृक्ष अवशोषित कर वातावरण को शुद्ध रखते हैं।

धार्मिक महत्त्व.

बेल व बरगद मे भगवान शंकर का निवास माना गया है, तो पीपल और आँवले में विष्णु का। अशोक, शोक नाशक व सीताजी की स्मृति से जुड़ा है।

जैव विविधता संरक्षण.

पंचवटी में निरन्तर फल उपलब्ध होने से पक्षियों एवं अन्य जीव- जन्तुओं के लिए सदैव भोजन उपलब्ध रहता है, एवं वे इस पर स्थाई निवास करते हैं। पीपल व बेल का फल ग्रीष्म ऋतिु में पकता है, तो बरगद का वर्षाकाल एवं आंवला का जाड़े में। पीपल व बरगद कोमल काष्ठीय वृक्ष हैं, जो पक्षियों के घोंसला बनाने के लिए उपयुक्त हैं। कोटर एवं खोखल प्राकृतिक रूप से इनमें प्रचुरता से उपलब्ध होता है, जिनमें पक्षी एवं अन्य जीव जन्तु निवास करते है, जिनके कलरव से पंचवटी सदैव गुंजायमान रहकर मानसिक प्रफुल्लता प्रदान करती है।

श्रेष्ठ छाया मिश्रण.

पंचवटी की संरचना के पीछे कदाचित ''समिश्रण" की अवधारणा भी रही हो। जैसे कि भिन्न- भिन्न धातुओं को सुनिश्चित अनुपात, ताप व निश्चित वातावरण में समिश्रण से एक नयी धातु ''मिश्र धातु" (एलॉय) बनता है, जो विशिष्ट गुण लिए होता है। आधुनिक विज्ञान में ऐसी मिश्रधातु का विशेष योगदान है, एवं इनका उपयोग सर्वाधिक कठिन प्रयोगों, अन्तरिक्ष यान, वायुयान एवं रक्षा उपकरण बनाने में होता है। कई रसायनों एवं दवाओं को एक निश्चित अनुपात में मिलाने से चमत्कारिक औषधियां प्राप्त होती हैं। हमारे मनीषियों द्वारा भी प्राचीन काल में अनेक प्रयोगों, अनुभवों द्वारा इस प्रकार का मानव कल्याणकारी बहुपयोगी ''वृक्ष समूह" पंचवटी अन्वेषित किया गया है। पंचवटी की पांच वृक्षों की छाया तेजोवलय, औषधीय गुण, पर्यावरणीय एवं अन्य विशिष्ट गुणों का समन्वय एक निश्चित अनुपात, मात्रा एवं तीव्रता के साथ सूर्य व चन्द्र के प्रकाश में होने से विशिष्टता प्राप्त करता है।

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