संतोष है, सबसे बड़ा धन.


संतोष है, सबसे बड़ा धन
शुक्राचार्य के शाप से राजा ययाति युवावस्था में ही वृद्ध हो गए। बाद में प्रार्थना करने पर उन्होंने राजा को यह शक्ति प्रदान की कि वे चाहें तो अपने पुत्रों को अपनी वृद्धावस्था देकर उनकी युवावस्था ले सकते हैं। सिर्फ छोटे पुत्र पुरु अपना यौवन देकर पिता का वृद्धावस्था लेने को तैयार हुए। पुन: युवा होकर ययाति सांसारिक सुखों को भोगने में लग गए। एक दिन उनके मन में यह विचार आया कि अत्यधिक सुख भोगने के बावजूद मुझे अभी तक संतुष्टि नहीं मिल पाई है। सच्चा सुख नहीं मिल पाया है। इससे वे सांसारिक सुखों के प्रति उदासीन हो गए। उन्होंने अपने बचे हुए यौवन पुरु को लौटाते हुए कहा कि विषयों की कामना उनके उपभोग से कभी शात नहीं होती, अपितु घी की आहुति पड़ने पर अग्नि की भांति वह बढ़ती ही जाती है। यदि किसी इंसान को रत्‍‌नों से जड़ी हुई सारी पृथ्वी और संसार के सभी सुख मिल भी जाएं, तो भी वे पर्याप्त नहीं होंगे। इसलिए तृष्णा का तुरंत त्याग कर देना चाहिए। भले ही यह कार्य अत्यंत कठिन है, लेकिन सच्चा सुख तभी मिल पाता है।

ययाति पुरु से अपनी आगे की योजना बताते हुए कहते हैं कि अब मैं ब्रह्माभ्यास में मन लगाऊंगा। निर्द्वंद तथा ममतारहित होकर वन में मृगों के साथ भ्रमण करूंगा। हे पुत्र! मैं तुम पर प्रसन्न हूं। अब तुम अपनी युवावस्था पुन: प्राप्त करो। मैं अपना राच्य भी तुम्हें सौंपता हूं। इस तरह पुरु को राज्य देकर ययाति तपस्या के लिए वन चले गए।

इच्छाएं अनंत हैं। ज्ञान और संतोष का भाव विकसित होने पर ही सच्चा सुख प्राप्त होता है।

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