ब्राहमण की खोज के
लिए
नारद जी के बारह प्रश्न.
मातृकाम को विजानाति कतिधा किद्रशक्षराम।पञ्चपंचाद्भुतम गेहं को विजानाति वा द्विजः।।
बहुरूपाम स्त्रियं कर्तुमेकरुपाम च वेत्ति कः।को वा चित्रकथं बन्धं वेत्ति संसारगोचरः।।
को वार्णव महाग्राहम वेत्ति विद्यापरायणः। को वाष्टविधं ब्रह्मंयम वेत्ति ब्राह्मणसत्तमः।।
युगानाम च चतुर्णां वा को मूल दिवसान वदेत । चतुर्दशमनूनाम व;मूलवारम च वेत्ति कः ।।
कस्मिश्चैव दिने प्राप् पूर्व वा भास्करो रथं। उद्वेजयती भूतानि कृष्णाहिरिव वेत्ति कः।।
को वास्मिन घोर संसारे दक्ष दक्षतमो भवेत्। पंथानावपी द्वौ कश्चिद्वेती वक्ती च ब्राह्मणः।।
इति में द्वादश प्रश्नान ये विदुब्राह्मणोत्तमाः। ते में पूज्यत्मास्तेषा मह्माराधकश्चिरम।।
राजा धर्म वर्मा से भूमि प्राप्त होने के बाद नारद जी ने मन ही मन विचार किया – स्थान तो मैंने प्राप्त कर लिया है, जो अत्यंत दुर्लभ था। अब में उत्तम ब्राह्मण की प्राप्ति के लिए प्रयत्न प्रारम्भ करूँ। मुझे ऐसा ब्राह्मण देखना चाहिए, जो सर्वश्रेष्ठ हों। इस बारे में वेदवादी विद्वानों के वचन इस प्रकार सुने जाते हैं – जैसे खेने वाले के बिना कोई नाव किसी प्राणी को पार उतारने में समर्थ नहीं है, उसी प्रकार जाती से श्रेष्ठ ब्राह्मण भी दुराचारी हो तो वह किसी का उद्धार नहीं कर सकता। जिसने शास्त्रों का अध्ययन नहीं किया है, वह ब्राह्मण तिनके की आग की आग के समान शीघ्र बुझ जाता है– तेजहीन हो जाता है। अतः उसे द्रव्य प्रदान नहीं करना चाहिए, क्योंकि राख में आहुति नहीं दी जाती। दान में ली हुई भूमि विद्याहीन ब्राह्मण के अंतःकरण को नष्ट करती है। इसी प्रकार गाय उसके भोगों का, सुवर्ण उसके शरीर का, घोडा उसके नेत्र का, वस्त्र उसकी स्त्री का, घृत उसके तेज का और तिल उसकी संतान का नाश करते हैं। अतः अविद्वान ब्राह्मण को सदैव प्रतिग्रह से डरना चाहिए। मूर्ख ब्राह्मण थोडा प्रतिग्रह लेकर भी कीचड में फँसी हुई गाय की भाँती कष्ट पाता है। इसलिए जो मूढ़ तपस्या से युक्त और गुप्त रूप से स्वाध्याय करने वाले हैं तथा जो शांत चित्त वाले हैं, उन्ही को दिया हुआ दान सदा अक्षय होता है। केवल विद्या अथवा तपस्या से सुपात्रता नहीं आती। जहाँ सदाचार है और उसके साथ ये दोनों भी हैं, उसी को उत्तम पात्र कहा गया है।
मैं देश-देश घूम कर विद्या रुपी नेत्र वाले ब्राहमण की परीक्षा करता हूँ। यदि वे मेरे प्रश्नों के उत्तर दे देंगे; तब मैं उन्हें दान करूँगा। ऐसा विचार करके मैं उस स्थान से उठा और प्रश्न रूपी श्लोकों का गान करते हुए विचरण करने लगा। वे प्रश्न इस प्रकार हैं –
1. मातृका को कौन विशेषरूप से जानता है? वह मातृका कितने प्रकार की और कैसे अक्षरों वाली है?
2. कौन द्विज पचीस वस्तुओं के बने हुए गृह को अच्छी तरह जानता है?
3. अनेक रूप वाली स्त्री को एक रूप वाली बनाने की कला किसको ज्ञात है?
4. संसार में रहने वाला कौन पुरुष विचित्र कथावाली वाक्यरचना को जानता है?
5. कौन स्वाध्यायशील ब्राह्मण समुन्द्र में रहने वाले महान ग्राह की जानकारी रखता है?
6. किस श्रेष्ठ ब्राह्मण को आठ प्रकार के ब्राह्मणत्त्व का ज्ञान है?
7. चारों युगों के मूल दिनों को कौन बता सकता है?
8. चौदह मनुओं के मूल दिवस का किसको ज्ञान है?
9. भगवान् सूर्य किस दिन पहले पहल रथ पर सवार हुए?
10. जो काले सर्प की भाति सब प्राणियों को उद्वेग में डाले रहता है,उसे कौन जानता है?
11. इस भयंकर संसार में कौन दक्ष मनुष्यों से भी अत्यधिक दक्ष माना गया है?
12. कौन ब्राह्मण दोनों मार्गों को जानता और बतलाता है?
इस प्रकार नारद जी के बारह प्रश्नों को जिस जिस ने सुना, उसने इन्हें अत्यंत कठिन मानते हुए, नमस्कार ही किया और कोई इसका समाधान नहीं कर पाया। इस प्रकार नारद जी को कोई भी उपयुक्त ब्राह्मण नहीं मिला। तब उन्होंने कलाप आश्रम जाने का निश्चय किया जहां सभी वेदाध्ययन से सुशोभित ब्राह्मण रहते हैं। यह सोच कर नारद जी ने कलाप आश्रम की ओर प्रस्थान किया।
मन में अपने बारह प्रश्नों को लेकर ब्राह्मण की खोज के लिए नारद जी कलाप ग्राम पहुचे। कलाप ग्राम वह स्थान है, जहां सतयुग के लिए सूर्य वंश, चन्द्र वंश और ब्राह्मण वंश के बीज सुरक्षित हैं। वहां जाकर मैंने ब्राह्मणों से अपने प्रश्नों के समाधान के लिए कहा। वहां के विद्वान ब्राहमण “पहले मैं उत्तर दूंगा, पहले मैं उत्तर दूंगा ” ऐसा कह कर एक दुसरे को मना करने लगे। तब मैंने उनके सामने अपने बारह प्रश्न उपस्थित किये । सुन कर वे मुनीश्वर उन प्रश्नों को खिलवाड़ समझते हुए मुझसे कहने लगे – ” विप्रवर! आपके प्रश्न तो बालकों से हैं। इन छोटे छोटे प्रश्नों से यहाँ क्या होने वाला है? आप हम लोगों में जिसे सबसे छोटा और ज्ञानहीन समझते हों, वही इन प्रश्नों का उत्तर दे।” यह सुन कर मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ! मैंने अपने को कृतार्थ माना और उनमें से एक बालक को सबसे हीन समझ कर कह – ‘ यह मेरे प्रश्नों का उत्तर दे।’
उस बालक का नाम सुतनु था। उसने मेरे प्रश्नों का उत्तर देते हुए कहा–
1.मातृका को कौन विशेषरूप से जानता है? वह मातृका कितने प्रकार की और कैसे अक्षरों वाली है?
मातृका में बावन अक्षर बताये गए हैं। इनमें सबसे प्रथम अक्षर ॐकार है। उसके सिवा चौदह स्वर, तैतीस व्यंजन, अनुस्वर, विसर्ग, जिव्हामूलीय तथा उप्षमानीय – ये सब मिला कर बावन मातृका वर्ण माने गए हैं। द्विजवर! यह तो मैंने आपसे अक्षरों की संख्या बतायी है । अब इनका अर्थ सुनिए। इस अर्थ के विषय में पहले आपसे एक इतिहास कहूँगा। पूर्व काल की बात है, मिथिला नगरी में कौथुम नाम से प्रसिद्ध एक ब्राह्मण रहते थे। उन्होंने इस पृथ्वी पर प्रचलित सभी विद्याओं को पढ़ लिया था। अध्ययन कर के जब वे गृहस्थ हुए तब कुछ काल के बाद उनका एक पुत्र हुआ। उस पुत्र के सारे कार्य जड़ की भाँती होते थे। उसने केवल मातृका पढ़ी। मातृका पढने के बाद वह किसी प्रकार की कोई दूसरी बात याद ही नहीं करता था। उसके पिता उसकी इस बात से बड़े खिन्न हुए और उस जड़ बालक से कहने लगे – ” बेटा! पढो, पढो, मैं तुम्हें मिठाई दूंगा और नहीं पढोगे तो, यह मिठाई दुसरे को दे दूंगा और तुम्हारे दोनों कान उखाड़ लूँगा।”
यह सुन कर पुत्र ने कहा – पिताजी! क्या मिठाई लेने के लिए पढ़ा जाता है? क्या लोभ की पूर्ती ही अध्ययन का उद्देश्य है? अध्ययन तो उसका नाम है, जो मनुष्यों को परलोक में लाभ पहुचाने वाला हो।
कौथुम बोले – वत्स! ऐसी बातें कहने वाले तेरी आयु बढे। तेरी यह बुद्धि बहुत अच्छी है। पर तू पढता क्यों नहीं है?
पुत्र ने कहा – पिताजी! जानने योग्य जितनी भी बातें हैं, वे सब तो मैंने मातृका में ही जान ली। बताइए, इसके बाद अब कंठ किसलिए सुखाया जाये?
पिता बोले – वत्स ! तू तो आज बड़ी विचित्र बात कहता है। मातृका में तूने किस ज्ञातव्य अर्थ का ज्ञान प्राप्त किया है? बता बता। मैं तेरी बात फिर सुनना चाहता हूँ।
पुत्र ने कहा – पिताजी! आपने इकतीस हजार वर्षों तक नाना प्रकार के तर्कों का अध्ययन करते हुए भी अपने मन में केवल भ्रम का ही साधन किया है। ‘ यह धर्म है, यह धर्म है ‘ ऐसा कह कर शास्त्रों में जो धर्म बताया गया है, उसमें चित्त भ्रांत सा हो जाता है। आप उपदेश को केवल पढ़ते हैं, उसके वास्तविक अर्थ की जानकारी नहीं रखते। जो ब्राह्मण केवल पाठ मात्र करते हैं, अर्थ नहीं समझते, वे दो पैर वाले पशु हैं । अतः मैं आपसे मोह्नाशक वचन सुनाता हूँ। अकार ब्रह्मा कहे गए हैं, भगवान् विष्णु उकार बतलाये गये हैं, मकार को भगवान् महेश्वर का प्रतीक माना गया है। ये तीन गुणमय स्वरुप बताये गये हैं। ॐकार के मस्तक पर जो अनुस्वार रूप अर्द्धमात्रा है, वह सर्वोत्कृष्ट भगवान् सदाशिव का ही प्रतीक है। यह है, ॐकार की महिमा, जिसका वर्णन कोटि कोटि ग्रंथो द्वारा दस हजार वर्षों में भी नहीं किया जा सकता।
पुनः जो मातृका का सारसर्वस्व बताया गया है, उसे सुनिए – अकार से लेकर औकार तक जो चौदह स्वर हैं, वे चौदह मनुस्वरूप हैं । स्वायम्भुव, स्वारोचिष, औत्तम, रैवत, तामस, छठे चाक्षुष, सातवें वैवस्वत – जो इस समय वर्तमान है, सावार्णि, ब्रह्मसावार्णि, रुद्रसावार्णि, दक्षसावार्णि, धर्मसावार्णि, रौच्य तथा भौत्य – ये चौदह मनु हैं। श्वेत, पाण्डु, लोहित, ताम्र, पीत , कपिल, कृष्ण, श्याम, धूम्र, अधिक पिंगल, थोडा पिंगल, तिरंगा, बहुरंगा तथा कबरा – ये चौदह मनुओं के रंग हैं। पिताजी! वैवस्तव मनु ऋकार स्वरुप हैं। उनका रंग काला बताया गया है। ‘क’ से लेकर ‘ह’ तक तैंतीस देवता हैं। ‘क’ से लेकर ‘ठ’ तक तो बारह आदित्य माने गये हैं। ‘ड’ से लेकर ‘ब’ तक जो अक्षर हैं, वे ग्यारह रूद्र हैं। ‘भ’ से लेकर ‘ष’ तक आठ वसु माने गये हैं। ‘स’ और ‘ह’ – ये दोनों अश्विनी कुमार बताये गये हैं। इस प्रकार ये तैतीस देवता कहे गये हैं। पिताजी! अनुस्वार, विसर्ग, जिव्हा मूलिय और उपध्मानीय – ये चार अक्षर जरायुज, अंडज, स्वेदज और उद्विज्ज नामक चार प्रकार के जीव बताये गये हैं।
पिताजी! ये भावार्थ बताया गया है, अब तत्वार्थ सुनिए। जो पुरुष इन देवताओं का आश्रय लेकर कर्मानुष्ठान में तत्पर होते हैं, वे ही सदाशिव में लीन होते हैं। जिस शास्त्र में पापी मनुष्यों के द्वारा ये देवता नहीं माने गये हैं, उस शास्त्र को साक्षात् ब्रह्मा जी भी कहें तो नहीं मानना चाहिये। अजितेन्द्रिय मनुष्यों के मोह की महिमा तो देखो, वे पापी मातृका पढ़ते तो हैं, परन्तु इन देवताओं को नहीं मानते।
इस प्रकार मैंने आपके प्रथम प्रश्न का उत्तर दिया है, अब आप दुसरे प्रश्न के बारे में कहें।
2.कौन द्विज पचीस वस्तुओं के बने हुए गृह को अच्छी तरह जानता है?
अब पच्चीस वस्तुओं से बने हुए गृह सम्बन्धी द्वितीय प्रश्न का उत्तर सुनिये। पांच महाभूत (पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश), पांच कर्मेन्द्रिय (वाक्, हाथ, पैर, गुदा और लिंग), पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ (कान, नेत्र, रसना, नासिक और त्वचा), पाँच विषय – शब्द, रूप, रस, गंध और स्पर्श तथा मन, बुद्धि, अहंकार, प्रकृति और पुरुष – ये पच्चीस तत्व हैं। पच्चीसवां तत्व पुरुष है, जो सदशिवस्वरुप है। इन पच्चीस तत्वों से संपन्न हुआ यह शरीर ही घर कहलाता है। जो इस शरीर को इस प्रकार तत्वतः जानता है, वह कल्याणमय परमात्मा को प्राप्त होता है।
3.अनेक रूप वाली स्त्री को एक रूप वाली बनाने की कला किसको ज्ञात है?
वेदान्तवादी विद्वान बुद्धि को ही अनेक रूपों वाली स्त्री कहते हैं, क्योंकि यही नाना प्रकार के विषयों अथवा पदार्थों का सेवन करने से अनेक रूप ग्रहण करती है। किन्तु अनेकरूपा होने पर भी वह एकमात्र धर्म के संयोग से एक रूपा ही रहती है। जो इस तत्वार्थ को जानता है, वह (धर्म का आश्रय लेने के कारण) कभी नरक में नहीं पड़ता।
4.संसार में रहने वाला कौन पुरुष विचित्र कथावाली वाक्यरचना को जानता है?
मुनियों ने जिसे नहीं कहा है तथा जो वचन देवताओं की मान्यता नहीं स्वीकार करता, उसे विद्वानों ने विचित्र कथा से मुक्त बन्ध (वाक्य विन्यास) कहा है तथा जो काम युक्त वचन है, वह भी इसी श्रेणी में हैं। (ऐसा वचन सुनने और मानने योग्य नहीं हैं। वास्तव में वह बंधन ही है।
5.कौन स्वाध्यायशील ब्राह्मण समुन्द्र में रहने वाले महान ग्राह की जानकारी रखता है?
एक मात्र लोभ ही इस संसार समुन्द्र के भीतर महान ग्राह है। लोभ से पाप में प्रवृति होती है, लोभ से क्रोध प्रकट होता है, लोभ से कामना होती है, लोभ से ही मोह, माया (शठता), अभिमान, स्तम्भ (जड़ता), दुसरे के धन की स्पृहा, अविद्या और मूर्खता होती है। यह सब कुछ लोभ से ही उत्पन्न होता है। दूसरे के धन का अपहरण, पराई स्त्री के साथ बलात्कार, सब प्रकार के दुस्साहस में प्रवृत्ति तथा न करने योग्य कार्यों का अनुष्ठान भी लोभ की ही प्रेरणा से होता है। अपने मन को जीतने वाले संयमी पुरुष को उचित है कि वह उस लोभ को मोह सहित जीते। जो लोभी और अजितात्मा है, उन्ही में दंभ, द्रोह, निंदा, चुगली और दूसरों से डाह – यह सब दुर्गुण प्रकट होते हैं। जो बड़े बड़े शास्त्रों को याद रखते हैं और दूसरों की शंकाओं का निवारण करते हैं, ऐसे बहुज्ञ विद्वान भी लोभ के वशीभूत होकर नीचे गिर जाते हैं। लोभ और क्रोध में आसक्त मनुष्य सदाचार से दूर हो जाते हैं। उनका अंतःकरण छुरे के समान तीखा होता है। परन्तु ऊपर से वे मीठी बातें करते हैं। ऐसे लोग तिनकों से ढके हुए कुँए के सामान भयंकर होते हैं। वे ही लोग केवल युक्तिवाद का सहारा लेकर अनेकों पंथ चलाते हैं। लोभवश मनुष्य समस्त धर्म मार्गों का लोप कर देते हैं। लोभ से ही कुटुम्बी जनों के प्रति निष्ठुरता पूर्वक वर्ताव करते हैं। कितने ही नीच मनुष्य लोभवश धर्म को अपना वाह्य आभूषण बना धर्मज्ञ होकर जगत को लूटते हैं। वे सदा लोभ में डूबे रहने वाले महान पापी हैं। राजा जनक, वृषादर्भी, प्रसेनजित तथा और भी बहुत से राजा लोभ का नाश करके स्वर्गलोक में गए हैं। इसलिए जो लोग लोभ का परित्याग करते हैं, वे ही इस संसार समुन्द्र के पार जाते हैं। इनसे भिन्न लोभी मनुष्य ग्राह के चंगुल में ही फंसे हुए हैं। इसमें संशय नहीं है।
6.किस श्रेष्ठ ब्राह्मण को आठ प्रकार के ब्राह्मणत्त्व का ज्ञान है?
विप्रवर! अब आप ब्राह्मण के आठ भेदों का वर्णन सुने – मात्र, ब्राह्मण, श्रोत्रिय, अनुचान, भ्रूण, ऋषिकल्प, ऋषि और मुनि – ये आठ प्रकार के ब्राह्मण श्रुति में पहले बताये गए हैं। इनमें विद्या और सदाचार की विशेषता से क्रमशः उत्तरोत्तर श्रेष्ठ हैं।
जिसका जन्म मात्र ब्राह्मण कुल में हुआ है, वह जब जाति मात्र से ब्राह्मण हो कर ब्राह्मणोचित उपनयन संस्कार तथा वैदिक कर्मों से हीन रह जाता है, तब उसको ‘मात्र’ कहते हैं। जो एक उद्देश्य को त्याग कर – व्यक्तिगत स्वार्थ की उपेक्षा करके वैदिक आचार का पालन करता है, सरल एकान्तप्रिय, सत्यवादी तथा दयालु है, उसे ‘ब्राह्मण’ कहा गया है। जो वेद की किसी एक शाखा को कल्प और छहों अंगो सहित पढ़कर ब्राह्मणोचित छह कर्मों में सलंग्न रहता है, वह धर्मज्ञ विप्र ‘श्रोत्रिय’ कहलाता है। जो वेदों और वेदांगों का तत्वग्य, पापरहित, शुद्ध चित्त, श्रेष्ठ, श्रोत्रिय विद्यार्थियों को पढ़ाने वाला और विद्वान है, वह ‘अनुचान’ माना गया है। जो अनुचान के समस्त गुणों से युक्त होकर केवल यज्ञ और स्वाध्याय में ही संलग्न रहता है, यग्याशिष्ठ भोजन करता है और इन्द्रियों को अपने वश में रखता है, ऐसे ब्राह्मण को श्रेष्ठ पुरुष ‘भ्रूण’ कहते हैं। जो सम्पूर्ण वैदिक और लौकिक विषयों का ज्ञान प्राप्त करके मन और इन्द्रियों को वश में रखते हुए सदा आश्रम में निवास करता है, वह ‘ऋषिकल्प’ माना गया है। जो पहले नैष्ठिक ब्रह्मचारी होकर नियमित भोजन करता है, जिसको किसी भी विषय में कोई संदेह नहीं है तथा जो श्राप और अनुग्रह में समर्थ और सत्यप्रतिज्ञ हैं, ऐसा ब्राह्मण ‘ऋषि’ माना गया है। जो निवृति मार्ग में स्थित, सम्पूर्ण तत्वों का ज्ञाता, काम-क्रोध से रहित, ध्याननिष्ठ, जितेन्द्रिय तथा मिटटी और सुवर्ण को समान समझने वाला है, ऐसे ब्राह्मण को ‘मुनि’ कहते हैं। इस प्रकार वंश, विद्या और सदाचार से ऊंचे उठे हुए ब्राह्मण ‘त्रिशुक्ल’ कहलाते हैं। ये ही यज्ञ आदि में पूजे जाते हैं। इस प्रकार आठ भेदों वाले ब्राह्मण का वर्णन किया गया है।
7.चारों युगों के मूल दिनों को कौन बता सकता है?
अब युगादि तिथियाँ बतलाई जाती हैं। कार्तिक मॉस के शुक्ल पक्ष की नवमी तिथि सतयुग की आदि तिथि बताई गयी है। वैशाख शुक्ल पक्ष की जो तृतीया है, वह त्रेतायुग की आदि तिथि कही जाती है। माघ कृष्ण पक्ष की अमावस्या को विद्वानों ने द्वापर की आदि तिथि माना है और भाद्र कृष्ण त्रयोदशी कलियुग की प्रारंभ तिथि कही गयी है। ये चार युगादि तिथियाँ है, इनमें किया हुआ दान और होम अक्षय जानना चाहिए। प्रत्येक युग में सौ वर्षों तक दान करने से जो फल होता है, वह युगादि-काल में एक दिन के दान से प्राप्त हो जाता है ।
8.चौदह मनुओं के मूल दिवस का किसको ज्ञान है?
ये युगादि तिथियाँ बताई गयी हैं, अब मन्वन्तर की प्रारंभिक तिथियों का श्रवण कीजिये। अश्विन शुक्ल नवमी, कार्तिक की द्वादशी, चैत्र और भाद्र की तृतीया, फाल्गुन की अमावस्या, पौष की एकादशी, आषाढ़ की पूर्णिमा, कार्तिक की पूर्णिमा, फाल्गुन, चैत्र और ज्येष्ठ की पूर्णिमा – ये मन्वन्तर की आदि तिथियाँ हैं, जो दान के पुण्य को अक्षय करने वाली हैं।
9.भगवान् सूर्य किस दिन पहले पहल रथ पर सवार हुए?
भगवान् सूर्य जिस तिथि को पहले पहल रथ पर आरूढ़ हुए, वह ब्राह्मणों द्वारा माघ मॉस की सप्तमी बताई गयी है, जिसे रथ सप्तमी भी कहते हैं। उस तिथि को दिया हुआ दान और किया हुआ यज्ञ सब अक्षय माना गया है। वह सब प्रकार की दरिद्रता को दूर करने वाला और भगवान् सूर्य की प्रसन्नता का साधक बताया गया है।
10.जो काले सर्प की भाति सब प्राणियों को उद्वेग में डाले रहता है,उसे कौन जानता है?
विद्वान पुरुष जिसे सदा उद्वेग में डालने वाला बताते हैं, उसका यथार्थ परिचय सुनिए – जो प्रतिदिन याचना करता है, वह स्वर्ग में जाने का अधिकारी नहीं है। जैसे चोर सब जीवों को उद्वेग में डाल देता है, उसी प्रकार वह भी है। वह पापत्मा सबके लिए सदा उद्वेग कारक होने के कारण नरक में पड़ता है।
11.इस भयंकर संसार में कौन दक्ष मनुष्यों से भी अत्यधिक दक्ष माना गया है?
ब्राह्मण! “इस लोक में किस कर्म से मुझे सिद्धि प्राप्त हो सकती है और (मृत्यु के पश्चात) यहाँ से मुझे कहाँ और किस लोक में जाना है!” इस बात का भली भाँती विचार करके जो मनुष्य भावी क्लेश के निराकरण के समुचित उपाय करता है, विद्वानों ने उसी को दक्ष पुरुषों से भी अधिक दक्ष (चतुर शिरोमणि) कहा है। पुरुष अपनी आयु में से आठ मास, एक दिन अथवा सम्पूर्ण पूर्वावस्था में अथवा पूरी आयु भर ऐसा कर्म अवश्य करे, जिस से अंत में वह परम सुखी हो और निरंतर उन्नति के पथ पर बढ़ता रहे।
12.कौन ब्राह्मण दोनों मार्गों को जानता और बतलाता है?
वेदान्तवादी विद्वानो ने अर्चि और धूम – ये दो मार्ग बतलाते हैं। अर्चि मार्ग से जाने वाला पुरुष मोक्ष को प्राप्त होता है और धूम मार्ग से जाने वाला जीव स्वर्ग में पुण्य फल भोग कर पुनः इस संसार में लौट आता है। सकाम भाव से किये हुए यज्ञ आदि द्वारा धूम मार्ग की प्राप्ति होती है और नैष्कर्म (कर्मफल त्याग एवं ज्ञान) से अर्चिः मार्ग प्राप्त होता है। इन दोनों से भिन्न अशास्त्रीय मार्ग है, वह पाखंड कहलाता है। जो देवताओं तथा मनुप्रोक्त धर्मों को नहीं मानता, वह उक्त दोनों मार्गों को प्राप्त नहीं होता। इस प्रकार यह तत्वार्थ का निरूपण किया गया है।
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