आत्म निरीक्षण से मानसोपचार.


आत्म निरीक्षण से मानसोपचार.


शरीर और मन का सम्बन्ध अटूट है। मन विकृत हुआ तो शरीर भी सुखी न रहेगा। इसी प्रकार शारीरिक दुर्बलता, रोग और पीड़ा का मन पर भी प्रभाव पड़ता है। शरीर की अपेक्षा मन अधिक शक्तिशाली है। मनुष्य का सम्पूर्ण क्रिया- व्यापार मन की विचार - स्थिति के अनुरूप होता है। जो सोचते हैं, वहीं करते है। मन में जैसे विचार उठते हैं, वैसी ही क्रियाएं व्यवहार में आती हैं। बाह्य कर्म का आधार मन है, इसलिए स्वास्थ्य पर मन की असंयत प्रवृत्तियों का प्रभाव अवश्य पड़ता है। साधारणतया बीमारी और स्वास्थ्य की खराबी को शारीरिक विकार समझ कर उपचार की व्यवस्था की जाती है किन्तु इसका प्रधान कारण मन है। अतः मानसोपचार की उपयोगिता सर्व-प्रथम है।

मानसिक वृत्तियों का शारीरिक स्थिति पर जो प्रभाव पड़ता है, वह अधिक अस्पष्ट नहीं है। धन और पद की अनियन्त्रित इच्छाओं के कारण आज लोगों में महामारी की तरह मानसिक बेचैनी उठ खड़ी हुई है। इसका यह प्रभाव हुआ कि लोग दिन भर आफिस में, घर के बाहर काम करते हैं। सायंकाल हारे-थके लौटते हैं तो दुकान, ट्यूशन, सभा-सोसायटी, सिनेमा-नाच- घरों की ओर भागते फिरते हैं। मन की इस असंयत-स्थिति के कारण पर्याप्त विश्राम तक नहीं कर पाते। फलतः शरीर गिरने लगता है, थकावट शरीर के अंग-अंग में समा जाती है। दिल की धड़कन, अनिद्रा की शिकायत प्रायः ऐसे ही लोगों को होती है, जो अत्यधिक व्यस्तता के कारण पर्याप्त विश्राम तक नहीं कर पाते।

हमारे गुर्दों के ऊपर दो ग्रंथियाँ होती हैं। इन्हें “ग्लैण्ड्स आफ फ्लाइट “ कहा जाता है। यह शरीर को आने वाले भय से सावधान करती हैं। अत्यधिक व्यस्तता, बेचैनी, और श्रम के कारण इन्हें विश्राम न मिले तो शारीरिक विकार के लक्षण दिखाई देने लगते हैं। नींद आनी बन्द हो जाती है, पाचन क्रिया खराब होने लगती है। माँस पेशियाँ थोड़े से मानसिक तनाव से बुरी तरह उत्तेजित हो उठती हैं और उनकी सारी अवरोधक शक्ति समाप्त हो जाती है। यह हलचल इसलिए होती है कि ‘ग्लैण्ड्स आफ फ्लाइट’ से निकलने वाले एक विशेष प्रकार के तत्व का स्राव बन्द हो जाता है। इससे ये सारे उपद्रव उठ खड़े होते हैं।

भय, घृणा, ईर्ष्या, क्रोध, कुढ़न, जलन आदि प्रत्येक मानसिक आवेश का प्रभाव शारीरिक अवयवों पर स्पष्ट रूप से पड़ता है। अत्यधिक भय की अवस्था में हृदय धड़कने लगता है और दम फूल जाता है। हृदय की धड़कन की तीव्रता के फलस्वरूप रक्त-शुद्धि का कार्य शिथिल पड़ जाता है, जिससे शरीर में दूषित तत्व कार्बोनिक एसिड की मात्रा बढ़ने लगती है और एकाएक दम फूल जाने से फेफड़ों में तेज धक्का लगता है, जिसका स्वास्थ्य पर अनिष्टकारी असर पड़ता है। यह उत्तेजना यदि निश्चित सीमा को पार कर गई तो लोगों की मृत्यु तक हो जाती है। भूत-व्याधा के भय से मरने वालों की मानसिक शक्ति इतनी निर्बल रही होती है कि उनका शरीर भय के कारण उठी उत्तेजना को सहन नहीं कर पाता और मृत्यु हो जाती है। इस उत्तेजना का प्रमुख कारण मानसिक तनाव की स्थिति को ही माना जाता है।

यह कार्य हमारे मस्तिष्क के अधीन होता है। वह यदि इन आवेशों, भयों या उत्तेजनाओं को उपेक्षित कर दे तो शरीर के स्नायु केन्द्र पर पड़ने वाली हानिकारक प्रतिक्रिया से बच सकते है। जैसे कोई व्यक्ति यदि आपको गाली दे देता है या ऐसे अपशब्द कह देता है जिसे आप सहन नहीं कर सकते। ऐसी दशा में आपका स्नायु संस्थान भी उत्तेजित होगा ही। अतः आप उसके अपशब्दों को हँसकर टाल दीजिए। यह समझिए कि वह व्यक्ति मूर्ख है, नासमझ है, हम भी वैसे ही क्यों बनें, तो आप क्षणिक आवेश से उत्पन्न भारी दुष्परिणाम से बच जायेंगे।

यह भी देखा गया है कि आवेश के समय आहार का पौष्टिक अंश माँस - पेशियों की उत्तेजना से हुई क्षति की पूर्ति के लिए चला जाता है। यह कार्य एक झटके से सम्पन्न होता है, जिसका पाचन क्रिया पर बुरा प्रभाव पड़ता है। इससे पाचन संयंत्र शिथिल पड़- जाते हैं। चूहों के ऊपर प्रयोग करके देखा गया है कि शान्त वातावरण में वजन बढ़ता और स्वास्थ्य स्थिर रहता है जब कि भयावह और कोलाहलपूर्ण स्थानों में शरीर गिरने लगता है और आयु कम हो जाती है।

आत्म- निरीक्षण की प्रवृत्ति को कड़ाई से लागू करने से ही सम्भव है कि सही बात का पता चले। अन्यथा ऐसी स्थिति में भी हम पक्षपात कर सकते हैं। कारण यह है कि मन इतना जबर्दस्त वकील है कि वह अपने पक्ष में अनेकों प्रमाण प्रस्तुत करके रख देता है। हम जिसे स्नेह करते हैं उसमें हजार बुराइयाँ हैं तो भी एक भी नहीं दिखाई पड़ती किन्तु किसी से द्वेष हो तो वह अनेकों दुर्गुण उसमें दूर से ही दिखाई देने लगते हैं। अपनी प्रत्येक वस्तु को उदार दृष्टि से देखने और दूसरों के कार्यों में खामियाँ निकालने की लोगों में आम धारणा होती है। इससे वस्तु के सही दृष्टिकोण का पता नहीं लग पाता। दूसरों के अधिक धन कमाने को यह कहकर ईर्ष्या करने लगते हैं कि उसने डटकर मुनाफाखोरी, चोरबाजारी, ठगी और धोखादेही की है। वही कार्य स्वयं करें तो इसे अपनी बुद्धि का कौशल मानते हैं। इससे सचाई छुपती है और पक्षपात बढ़ता है। ईर्ष्या, विद्वेष, क्रोध और कलह का अधिकाँश कारण यही है कि हमारा परखने का दृष्टिकोण स्वार्थपूर्ण होता है।

आत्म - निरीक्षण का यह कार्य इस दृष्टि से करें कि गलत अन्दाज लगाने से उठने वाली दुर्भावनायें हमारे स्वास्थ्य को खराब करेंगी। इससे हमारी सामाजिक प्रतिष्ठा गिर जाएगी, लोग बुरा कहेंगे और हमसे कोई भी आत्मीयतापूर्ण व्यवहार नहीं करेंगे। इस प्रकार सोचने से आपको सही बात का समर्थन करने में किंचित हिचक व संकोच नहीं होगा। इससे आपका मनोबल बढ़ेगा, शक्ति आयेगी, प्रसन्नता होगी और स्वास्थ्य भी स्थिर बना रहेगा।

आप दूसरों से जैसे व्यवहार की अपेक्षा करते हैं वैसा ही आचरण दूसरों के साथ भी कीजिए। दुःख और चिंता से बचाने वाला इससे अच्छा कोई दूसरा उपाय नहीं है। जो दूसरों को दुःख देगा या अभद्र व्यवहार करेगा, उसे सामाजिक दण्ड - प्रतिकार, घृणा, निन्दा का पात्र बनना ही पड़ेगा। अपनी आत्मा भी उसके लिए धिक्कारती ही रहेगी। इनसे बचने का सीधा रास्ता और सरल उपाय यही है कि सबके साथ आत्मीयतापूर्ण व्यवहार करें। सहयोग सहानुभूति और सहृदयता के सद्गुणों के कारण दूसरों से भी प्रेम, स्नेह, प्रशंसा एवं सम्मान प्राप्त होता है, इससे प्रसन्नता होती है, सुख मिलता है।

निराशा मनुष्य की शारीरिक व मानसिक गिरावट का प्रबल कारण होती है। इससे सफलता का मार्ग ही अवरुद्ध हो जाता है, इसलिए आशावादी बनने का प्रयत्न करना चाहिए। आशा आध्यात्मिक जीवन का शुभ आरम्भ है। आशावादी व्यक्ति सर्वत्र परमात्मा की सत्ता विराजमान देखता है। उसे सर्वत्र मंगलमय परमात्मा की मंगलदायक कृपा बरसती दिखाई देती है। सच्ची शान्ति, सुख और सन्तोष मनुष्य की निराशावादी प्रवृत्ति के कारण नहीं, अपने ऊपर अपनी शक्ति पर विश्वास करने से होता है। पुरुषार्थ से बड़े - बड़े प्रारब्ध भी वश किये जाते हैं। जिसमें स्फूर्ति है, शक्ति है और आलस्य जिसे छू नहीं गया, वे ही आशावान् व्यक्ति जीवन में सफल होते हैं।

काम शक्ति भी इसी प्रकार जीवन शक्ति का प्रतीक है किन्तु गर्भ धारण तक ही सीमित रखने की इसकी एक सुनिश्चित मर्यादा है। अमर्यादित कामेच्छा एक प्रकार की आग है, जो आदमी को जलाया करती है। कामलिप्सा के साथ ही शरीर की गर्मी बढ़ने लगती है। साँस की गर्मी बढ़ती और त्वचा का तापमान बढ़ जाता है। इस गर्मी के दाह से कुछ जीवन तत्व व शारीरिक धातुएं पिघलने लगती हैं और मूत्र के साथ स्रवित होने लगती हैं। इसका शरीर और मन पर तुरन्त प्रभाव होता है। शारीरिक शिथिलता और अशक्तता के साथ ही आत्म - हीनता, आलस्य, निराशा और दुर्बुद्धि जागृत होने लगती है। जो लोग अधिक विषयी होते हैं, उनकी शारीरिक शक्ति का इस प्रकार पतन होता है कि सर्दी, जुकाम जैसे हल्के रोग सहन करने की शक्ति तक चली जाती है।

अपनी सम्पूर्ण चेष्टायें ब्रह्मचर्य, संयम और पवित्र जीवन जीने के विविध कार्यक्रमों में लगी रहें। नारी के प्रति अपनी भावनायें आदरपूर्ण रहें। विचारोत्तेजक नृत्य गाने और अश्लील सिनेमा आदि से अधिक से अधिक बचने का पवित्र प्रयत्न करें तो ही यह आशा रखी जा सकती है कि व्यक्ति का शरीर बल ऊँचा होगा, आत्मबल उच्च स्तर का चढ़ा - बढ़ा होगा।

क्रोध भी शरीर और मन पर विषैला प्रभाव डालने वाली महा व्याधि है। डॉक्टर आरोली और केनन का कथन है कि क्रोध के कारण अनिवार्य रूप से उत्पन्न होने वाली विषैली शर्करा पाचन - क्रिया को शिथिल कर देती है, इससे हाजमा खराब हो जाता है। “15 मिनट क्रोध से उत्पन्न शक्ति को यदि बचा लें तो इससे 71/2 घन्टे अनवरत श्रम किया जा सकता है। “ डॉक्टर जेस्टर के इस कथन से क्रोध के भीषण परिणामों का सहज ही में अन्दाज किया जा सकता है।

क्रोध का अधिकाँश कारण अपना झूठा अहंकार होता है। अतः सदैव शिष्ट, उदार, मित-भावी और नम्र बनने का प्रयत्न करना चाहिए। जो स्वयं को सबसे छोटा मानता है, उसे इस दुष्ट महारोग से बिना औषधि छुटकारा मिल जाता हैं।

इसी प्रकार लोभ, मोह, ईर्ष्या, द्वेष, कलह और कटुता की दुर्भावनायें भी मनुष्य को नीचे गिराती हैं। इनकी हरघड़ी अपने मस्तिष्क की प्रयोगशाला में निगरानी बनाये रखना चाहिए। इन्हें असंयत, अमर्यादित छोड़ देंगे तो मानसिक शारीरिक विग्रह उत्पन्न होते देर न लगेगी। इनकी भयंकरता से जीवन का सम्पूर्ण उल्लास और आनन्द समाप्त हो जाता है।



(अखंड ज्योति-9/1964)


संघर्ष के समर्थक-महर्षि परशुराम.

संघर्ष के समर्थक-महर्षि परशुराम.


परशुराम उन दिनों शिवजी से शिक्षा प्राप्त कर रहे थे। अपने शिष्यों की मनोभूमि परखने के लिए शिवजी समय-समय पर उनकी परीक्षा लिया करते थे। एक दिन गुरु ने कुछ अनैतिक काम करके छात्रों की प्रतिक्रिया जाननी चाही। अन्य छात्र तो संकोच में दब गए पर परशुराम से न रहा गया। वे गुरु के विरुद्ध लड़ने को खड़े हो गये और साधारण समझाने-बुझाने से काम न चला, तो फरसे का प्रहार कर डाला।

चोट गहरी लगी। शिवजी का सिर फट गया। पर उन्होंने बुरा न माना। वरन् सन्तोष व्यक्त करते हुए गुरुकुल के समस्त छात्रों को सम्बोधन करते हुए कहा-अन्याय के विरुद्ध संघर्ष करना, प्रत्येक धर्म-शील व्यक्ति का मनुष्योचित कर्त्तव्य है। फिर अन्याय करने वाला चाहे कितनी ही ऊँची स्थिति का क्यों न हो। संसार से अधर्म इसी प्रकार मिट सकता है। यदि उसे सहन करते रहा जायेगा, तो इससे अनीति बढ़ेगी और इस सुन्दर संसार में अशान्ति उत्पन्न होगी। परशुराम ने धर्म-रक्षा के लिए जो दर्प प्रदर्शित किया, उससे मैं बहुत प्रसन्न हूँ।

शंकरजी ने अपने इस प्रिय शिष्य को उठाकर छाती से लगा लिया। उन्हें अव्यर्थ शस्त्र ‘परशु’ उपहार में दिया और आशा प्रकट की कि उनके द्वारा संसार में फैले हुए अधर्म का उन्मूलन करने की एक भारी लोक सेवा बन पड़ेगी। शिवजी ने अपने शिष्यों को और भी कहा- बालकों! केवल दान, धर्म, जप, तप, व्रत, उपवास ही धर्म के लक्षण नहीं हैं, अनीति से लड़ने का कठोर व्रत लेना भी धर्म साधना का एक अंग है। अधर्म का उन्मूलन और धर्म का संस्थापना एक ही रथ के दो पहिये होते हैं। दोनों का क्रम-चक्र ठीक चलते रहने से सृष्टि का सन्तुलन ठीक रहता है, इसलिए धर्म की रक्षा के लिए एक उपाय पर निर्भर न रहकर दोनों का ही अवलम्बन करना चाहिये। परशुराम की धर्म-संघर्ष-वृत्ति अनुचित तनिक भी नहीं। उसमें आदि से अन्त तक औचित्य ही भरा पड़ा है। परीक्षा के लिए ही मैंने अनुचित आचरण किया था। और तुम सब पर उसकी प्रतिक्रिया देखनी चाही थी। परशुराम सफल हुआ। इसका मुझे गर्व है। इस गर्व को प्रख्यात करने के लिए परशु प्रहार के चिन्ह को शिवजी ने सदा दीखते रहने वाला ही बनाये रखा। उनके सहस्र नामों में एक नाम ‘खण्ड परशु’ अर्थात् ‘फरसे से जिसका सिर फट गया हो’ - भी विख्यात है। विष्णु ने भी भृगु की लात छाती पर खाई थी और औचित्य का अनुमोदन करने के रूप में उस चिन्ह को सदा छाती पर बनाए रखा था।

उन दिनों हैहयवन्शी क्षत्रिय राजमद से मदाँध हो रहे थे। रावण, कंस, हिरण्यकश्यप की तरह उन्होंने स्वेच्छाचारिता अपना रखी थी। स्वार्थवश चाहे जिसके साथ जघन्य व्यवहार करने पर उतारू हो जाते। भृगुवंशी पुरोहितों ने ऐसा न करने के लिए उन्हें समझाया तो कुपित होकर उल्टे आक्रमणकारी बन गये। घर खोदकर फेंक दिये, स्त्रियों के गर्भ फाड़ डाले और जिसने उन्हें समझाया था, उनके सिर काट लिए। जो बच गये वह महिष्मती छोड़कर सरस्वती तट पर जा बसे।

इन्हीं विस्थापित पुरोहितों में एक बालक था- परशुराम। वह शिवजी से शिक्षा तो प्राप्त करता, पर साथ ही अत्याचारी के विरुद्ध उसके मन में निरन्तर आग जलती रहती। वह सोचता गुरु के द्वारा जो शक्ति उसे मिलेगी उसे अनाचार के विरुद्ध संघर्ष करने में प्रयुक्त करेगा। बालक की निष्ठा परखने को शिवजी ने वैसा प्रसंग उत्पन्न किया था। जब बालक ने गुरु का ही सिर फोड़ दिया तो उन्हें विश्वास हो गया कि बालक में लौह पुरुष के गुण मौजूद हैं और वह अधर्म के उन्मूलन की जन- आकाँक्षा को पूरा करके रहेगा। शिवजी का आशीर्वाद पाकर उनकी शिक्षा और विभूतियों से सुसज्जित होकर परशुराम अनाचार विरोधी एक महान अभियान की तैयारी करने लगे।

परशुराम के इरादों का उस समय के शासक कार्तवीर्य सहस्रार्जुन को पता लगा तो वह आग बबूला हो गया और उन्हें पकड़ने आश्रम में सैन्य समेत जा पहुँचा। वे न मिले तो उनके पिता जमदग्नि का भाँति- भाँति से अपमान किया और उनके आश्रम तथा पुस्तकालय को नष्ट-भ्रष्ट कर डाला। परशुराम जब घर आये और आश्रम की यह दुर्दशा देखी तो उनके क्षोभ का ठिकाना न रहा। वे अपना दुर्दान्त परशु लेकर अकेले ही महिष्मती पहुँचे और सहस्रार्जुन को धर दबाया। उसकी भुजायें फरसे से काट डालीं और सेना को धनुषबाण से विचलित कर दिया। प्रतिशोध की आग और बढ़ी। सहस्रार्जुन के वंशजों ने अन्य अनेक राजाओं को लेकर चढ़ाई कर दी और परशुराम के पिता जमदग्नि को 21 स्थानों से घायल करके उन्हें मार डाला।

कहने वालों ने कहा -- एक साधु या ब्राह्मण के लिये इस प्रकार हिंसात्मक कार्य करना उचित नहीं। उनने दृढ़ स्वर में उत्तर दिया कि अनीति ही वस्तुतः हिंसा है। उसका प्रतिकार करने के लिए जब अहिंसा समर्थ न हो तो हिंसा भी अपनाई जा सकती है। शास्त्र ने वैदिक हिंसा को हिंसा नहीं माना है। क्रोध वह वर्जित है, जो स्वार्थ या अहंकार की रक्षा के लिए किया जाय। अन्याय के विरुद्ध क्रुद्ध होना तो मानवता का चिन्ह है। मानवता की मूलभूत आस्था को खोकर क्रोध- अक्रोध जैसे नीति नियमों में उलझे रहना व्यर्थ है। मेरा क्रोध धर्मयुक्त है और मेरी हिंसा भी अनीति के प्रतिकार में प्रयुक्त होने के कारण उचित है। धर्म की स्थापना और अधर्म के विनाश के लिये सदा से यही क्रम अपनाया भी जाता रहा है। ऐसे तर्कयुक्त वचनों को सुनकर कहने - सुनने वाले चुप हो जाते। वे संघर्ष की आग सुलगाये हुए देश- देशान्तरों में भ्रमण करने लगे। जन सहयोग से उन्होंने अत्याचारियों के विनाश में आशाजनक सफलता पाई। व्यक्तियों के पास कितनी ही बड़ी शक्ति क्यों न हो, जनता की संगठित सामर्थ्य से वह कम ही रहती है। परशुराम के नेतृत्व में भड़का हुआ विद्रोह एक नहीं इक्कीस बार नृशंस लोगों के अनाचारों का उन्मूलन करने तक चलता रहा और जब अवाँछनीय तत्व समाप्त हो गए तभी वह शान्त हुआ।

अनाचार को समाप्त करने की उद्दात्त भावनाओं से प्रेरित होकर यद्यपि परशुरामजी को हिंसात्मक नीति अपनानी पड़ी, पर उन्होंने इसे कभी अनुचित न समझा। शान्ति की स्थापना के लिये प्रयुक्त हुई अशान्ति सराहनीय है और अहिंसा की परिस्थितियाँ उत्पन्न करने के लिए की गई हिंसा में पाप नहीं माना जाता। स्वार्थ और अन्याय के लिये ही आक्रमण वर्जित है पर यदि आत्म रक्षा या अनाचार की रोकथाम के लिए प्रतिरोधात्मक उपाय के समय में हिंसा अपनानी पड़े तो न अनुचित माना जाता है और न हेय। परशुरामजी शास्त्र और धर्म के गूढ़ तत्वों को भली भाँति समझते थे इसलिए आवश्यकता पड़ने पर काँटे से काँटा निकालने, विष से विष मारने की नीति के अनुसार ऋषि होते हुए भी उन्होंने धर्म रक्षा के लिए सशस्त्र अभियान आरम्भ करने में तनिक भी संकोच न किया।

जब प्रयोजन पूर्ण हो गया तो उन्होंने अनावश्यक रक्तपात को एक क्षण के लिए भी जारी रखना उचित न समझा। फरसे को उन्होंने समुद्र में फेंक दिया-जो राज्य छीने थे वह सारी भूमि महर्षि कश्यप को दान कर दी ताकि वे उन प्रदेशों में सुराज्य स्थापना की व्यवस्था कर सकें। पितरों ने प्रसन्न होकर जब उनके इस धर्म संघर्ष के लिए प्रसन्नता प्रकट की तो उनने यही कहा-यदि आप लोग प्रसन्न हैं तो पहले की तरह ही मेरी तपस्या, स्वाध्याय, और धर्म रक्षा के मार्ग में प्रीति उत्पन्न हो जाए।

जन- कल्याण के लिये परशुरामजी ज्ञान और विग्रह दोनों को ही आवश्यक मानते थे। नम्रता और ज्ञान से सज्जनों को और प्रतिरोध तथा दण्ड से दुष्टों को जीता जा सकता है, ऐसी उनकी निश्चित मान्यता थी। इसलिए वे उभय पक्षीय सन्तुलित नीति लेकर चलने से ही धर्म रक्षा की सम्भावना स्वीकार करते थे। उनकी मान्यता उनके शब्दों में ही इस प्रकार है :--

अग्रतश्चतुरो वेदाः पृष्टतः शसरंधनु।
इदंब्राह्म इदं क्षार्त्रशास्त्रादपि शरादपि॥

अर्थात् “मुख से चारों वेदों का प्रवचन करके और पीठ पर धनुषबाण लेकर चला जाए। ब्रह्म-शक्ति और शस्त्र-शक्ति दोनों ही आवश्यक हैं। शास्त्र से भी और शस्त्र से भी धर्म का प्रयोजन सिद्ध करना चाहिए।”

वैशाख सुदी 3 अक्षय तृतीया को परशुराम जी की जन्म जयन्ती मनाई जाती है। इन्हें भगवान का अवतार माना जाता है और वे शरीर समेत अमर हैं, ऐसा कहा जाता है। कोंकण और केरल में उनकी पूजा अधिक होती हैं। समुद्र तट पर कितने ही उनके मन्दिर बने हैं और वहाँ कितने ही मेले भी इसी पर्व पर लगते हैं।

सज्जनता और दुष्टता की अति कहीं भी नहीं होनी चाहिए। दोनों का ही समुचित प्रयोग किया जाना चाहिए। दुष्टों के साथ सज्जनता और सज्जनों के साथ दुष्टता को व्यर्थ ही नहीं अनुपयुक्त समझने की मान्यता परशुरामजी के जीवन और आदर्शों में कूट - कूट कर भरी थी। अहिंसा के इसी स्वरूप का वे प्रतिपादन करते रहे। हिंसा और अहिंसा का अद्भुत समन्वय करने वाले परशुराम अभी भी हमारे विचार क्षेत्र में एक पहेली की तरह विद्यमान रहते हैं

(अखंड ज्योति-9/1964)


आत्मविश्वास की शक्ति.


आत्मविश्वास की शक्ति.


जब संसार में सभी साथी मनुष्य का साथ छोड़ दें, पराजय और पीड़ाओं के दंश मनुष्य को घायल कर दें, पैरों के नीचे से सभी आधार खिसक जायें, जीवन के अन्धकार युक्त बीहड़ पथ पर यात्री अकेला पड़ जाय तो भी क्या वह जीवित रह सकता है? कुछ कर सकता है? पथ पर आगे बढ़ सकता है? अवश्यमेव। यदि वह स्वयं अपने साथ है तो कोई शक्ति उसकी गति को नहीं रोक सकती। कोई भी अभाव उसकी जीवन यात्रा को अपूर्ण नहीं रख सकता। मनुष्य का अपना आत्म-विश्वास ही अकेला इतना शक्तिशाली साधन है जो उसे मंजिल पर पहुँचा सकता है। विजय की सिद्धि प्राप्त करा सकता है।

कवीन्द्र रवीन्द्र का ‘अकेला चल’ शीर्षक वाला गीत आपने पढ़ा या सुना होगा। उस गीत के भाव हैं - “यदि कोई तुझसे कुछ न कहे, तुझे भाग्यहीन समझ कर सब तुझसे मुँह फेर लें और सब तुझसे डरें - तो भी तू अपने खुले हृदय से अपना मुँह खोल कर अपनी बात कहता चल।”

“अगर तुझसे सब विमुख हो जायें, यदि गहन पथ प्रस्थान के समय कोई तेरी ओर फिर कर भी न देखे तब पथ के कांटों को अपने लहू- लुहान पैरों से दलता हुआ अकेला चल।”

“यदि प्रकाश न हो, झंझावात और मूसलाधार वर्षा की अंधेरी रात में जब अपने घर के दरवाजे भी तेरे लिए लोगों ने बन्द कर दिए हों तब उस वज्रानल में अपने वक्ष के पिंजर को जलाकर उस प्रकाश में अकेला ही जलता रह।”

निःसंदेह हर परिस्थिति में मनुष्य का एक मात्र साथी उसका अपना आपा ही है। स्वामी विवेकानन्द के शब्दों में “आत्म-विश्वास सरीखा दूसरा मित्र नहीं, आत्म-विश्वास ही भावी उन्नति की प्रथम सीढ़ी है।” सचमुच आत्म- विश्वास के कारण दुर्गम पथ भी सुगम बन जाता है, बाधायें भी मंजिल पर पहुँचाने वाली सीढ़ियाँ बन जाती है। एमर्सन ने कहा है -- “आत्म- विश्वास सफलता का मुख्य रहस्य है।”

आत्म-विश्वास मनुष्य को तुच्छता से महानता की ओर अग्रसर करता है। सामान्य से असामान्य बना देता है। स्वेट मार्डेन ने कहा है-- “आत्म-विश्वास की मात्रा हममें जितनी अधिक होगी उतना ही हमारा सम्बन्ध अनन्त - जीवन और अनन्त - शक्ति के साथ गहरा होता जायगा।” जब चारों ओर विपत्तियों के काले बादल मंडराते हों, जब सागर में कहीं भी जीवन नैया को खड़ा करने का किनारा न मिल रहा हो, भयंकर तूफान उठ रहे हों, नाव अब डूबे की स्थिति में हो तो कैसे उद्धार हो सकता है? आत्म-विश्वास ही ऐसी स्थिति में मनुष्य को बचा सकता है। इसी तथ्य को व्यक्त करते हुए कार्लाइल ने लिखा है -- “आत्म विश्वास में वह शक्ति है, जो सहस्रों विपत्तियों का सामना कर उनमें विजय प्राप्त करा सकती है।”

आत्म विश्वास--परमात्मा पर विश्वास करना है, जिसकी शक्ति अजेय है, अनन्त है। जो अपने आप पर विश्वास करता है, अपनी बागडोर उस के हाथों सौंप देता है, उस पर संसार विश्वास करता है। संसार भर में नेतृत्व, शासन पथप्रदर्शन वे ही करते हैं जिन्हें अपने आप पर महान् विश्वास होता है। अपने ऊपर अपार विश्वास रखकर ही वे संसार को प्रभावित करते हैं। आत्म- विश्वास के बल पर एक मनुष्य अफ्रीका के जंगलों में से भी भयंकर जंगली शेर को पकड़ लाता है। हिंसक जन्तुओं के बीच खड़ा होकर उन्हें नचाता है। लेकिन आत्म-विश्वासहीन व्यक्ति शहर के बीच एक कुत्ते से भी डर जाता है। बन्दर भी उसे भयभीत कर देता है। वस्तुतः सभी मनुष्यों का शरीर एक - सा ही होता है किन्तु जिस व्यक्ति के चेहरे से, आँखों से आत्म- विश्वास का अपार तेज प्रवाहित होता है, जिसके हृदय में आत्म-विश्वास का सम्बन्ध है, उसके समक्ष हिंसक जन्तु भी पालतू - सा बनकर दुम हिलाने लगता है। उसका वह तेज ही दूसरों पर जादू का सा असर डाल देता है।

कोलम्बस जब पृथ्वी की परिक्रमा करने चला था, उसके दुर्बल हृदय साथियों ने उसका साथ छोड़ दिया, उसे बुरा-भला कहकर वापिस लौट जाने की सलाह दी, लेकिन उसका एक अजेय आत्म- विश्वास नहीं टूटा और उसने नई दुनिया की खोज की। पृथ्वी को गोल सिद्ध किया। नैपोलियन की सेना रुक गई आल्पस पर्वत को देखकर। उसके सेनानियों को कोई मार्ग नहीं मिला, लेकिन यह दुर्भेद्यता नैपोलियन के अथाह आत्म-विश्वास के लिए बाधा नहीं बन सकी। उसने कहा -- “कुछ भी हो हमें आल्पस पर होकर मार्ग निकालना है” और सचमुच उस विशाल पहाड़ को काट -छाँट कर मार्ग बना लिया गया।

भगवान राम अपने अजेय आत्म-विश्वास के बल पर ही वनवास की विपत्तियों को सह सके, रावण से लोहा ले सके। महात्मा गाँधी के अथाह आत्म - विश्वास ने विशाल ब्रिटिश शासन को उखाड़ फेंका। इसके विपरीत ऐसे भी लोग हैं जो अपने ऊपर होने वाले सामाजिक राजनैतिक जुल्मों को चुपचाप सहन कर लेते हैं। नपुँसक की तरह उनमें कोई पौरुष नहीं रहता, बुराइयों से लड़ने के लिए, इसका कारण आत्म विश्वास का अभाव ही है।

महर्षि दयानन्द ने उस समय जबकि सारा देश रूढ़िवाद, अन्ध-विश्वास, कुरीतियों, आडम्बरों में डूबा हुआ था, इनके विरुद्ध क्रान्ति की आवाज उठाई। उस समय अपने मिशन के लिए वे अकेले ही थे लेकिन उनके अपार आत्म-विश्वास ने राष्ट्र को नया मार्ग दिखाया। संसार का एक भी महापुरुष, यदि उसके जीवन से आत्म -विश्वास की सामर्थ्य निकाल दी जाय तो वह कुछ भी नहीं बचता।

मनुष्य कितना ही विद्वान, गुणवान, शक्तिशाली क्यों न हो लेकिन यदि उसमें आत्म-विश्वास की भावना नहीं है तो वह विद्वान होकर भी मूर्खों का सा जीवन बितायेगा। शक्तिशाली होकर भी कायर सिद्ध होगा।

आत्म-विश्वास मनुष्य के कार्यकलाप, उसके जीवन, व्यवहार, गति आदि में एक प्रकार की चैतन्यता, जीवट भर देता है। उसके समस्त जीवन को प्राणवान बना देता है। ऐसा व्यक्ति दूसरों को देखने मात्र से अपना प्रभाव डालता है और लोग उस पर विश्वास करने लगते हैं। उसमें एक प्रकार की दिव्यता महानता सी मालूम पड़ती है। यह और कुछ नहीं, उसका अपना अपार आत्म-विश्वास ही होता है। जो अपने पर विश्वास नहीं रख सकता, उस पर दूसरे भी विश्वास नहीं करते, न उसे कोई महत्व देते हैं।

एक सी परिस्थितियों, एक-से साधन सम्पत्ति, शिक्षा शक्ति होने पर भी कुछ व्यक्ति महान् बन जाते हैं और उनके दूसरे साथी जीवन की सामान्य आवश्यकताओं को भी पूरी नहीं कर पाते, उन्हें दर-दर भटकना पड़ता है, पराधीनता, तिरस्कार का जीवन बिताना पड़ता है। इसका कारण आत्म-विश्वास का अभाव ही है। जब कि पहले प्रकार के व्यक्तियों में यही शक्ति प्रधान होती है। आत्म-विश्वास वह ज्योति है जिससे मनुष्य का व्यक्तित्व उसके गुण, कर्म, स्वभाव, जीवन सब प्रकाशयुक्त बन जाते हैं और सर्वत्र अपनी आभा छिटकाते हैं जब कि आत्म- विश्वास हीन व्यक्ति निर्वीर्य, निस्तेज, हीन जीवन बिताता है।

एक शक्तिशाली, सामर्थ्यवान् व्यक्ति के मन से जब आत्म विश्वास नष्ट होने लगता है तो संसार में उसके जमे हुए पैर भी उखड़ने लगते हैं। सुरक्षित चट्टान पर खड़ा होते हुए भी वह वहाँ से लुढ़कने लगता है। भवसागर के थपेड़ों से वह आहत होकर उसकी लहरों में ही डूबने उतराने लगता है। इसके विपरीत एक आत्म-विश्वासी, पलटे हुए पासे को भी एक दिन सीधा कर लेता है, जीवन की झंझावातों में दृढ़ खड़ा रहता है, विपरीतताओं में भी सन्तुलित और शान्त रहकर जीवन पथ पर निरन्तर आगे बढ़ता रहता है। वह अभाव, विरोध सहन करके अकेला ही मंजिल तक पहुँचता है।

निस्सन्देह आत्म-विश्वास अपने उद्धार का एक महान् सम्बल हैं। निराशा में ही आशा का संचार करने वाला, दुःख को भी सुख में बदल डालने वाला, विपत्तियों में भी आगे बढ़ने की प्रेरणा देने वाला, असफलताओं में भी सफलता की ओर अग्रसर करने वाला, तुच्छ से महान्, सामान्य से असामान्य बनाने वाला कौन - सा तत्व है? वह है -- मनुष्य का अपने ऊपर भरोसा, अपनी आत्म- शक्ति पर अटूट विश्वास?

निर्धन का धन, असहाय का सहायक, अशक्त की सामर्थ्य यदि कोई है तो वह उसका आत्म- विश्वास ही हो सकता है। यही सब परिस्थितियों में मनुष्य का साथ देकर उसे विजयी बनाता है जीवन के समराँगण में ? यह आत्म-विश्वास ही मनुष्य का उद्धार करने वाला है और इसका अभाव ही पतन की ओर धकेलने वाला है। अन्य कोई भी शक्ति नहीं जो मनुष्य को बना सके या बिगाड़ सके।

आत्म-विश्वास मनुष्य की शक्तियों को संगठित करके उन्हें एक दिशा में लगाता है। शारीरिक, मानसिक शक्तियाँ आत्म-विश्वासी के इशारे पर नाचती हैं और काम करती हैं। जो अपनी शक्तियों का स्वामी है, नियन्त्रण कर्ता है उसे संसार में कोई भी कमी नहीं रहती। सिद्धि, सफलतायें स्वयं आकर उसके दरवाजे खटखटाती हैं।

निर्बल, असहाय, दीन, दुःखी, दरिद्री कौन? जिसका आत्म- विश्वास मर चुका है। भाग्यहीन कौन? जिसका अपने विश्वास ने साथ छोड़ दिया है। वस्तुतः आत्म- विश्वास जीवन नैया का एक शक्तिशाली समर्थ मल्लाह है जो डूबती नाव को पतवार के सहारे ही नहीं वरन् अपने हाथों से उठाकर प्रबल लहरों से पार कर देता है। आत्म - विश्वासहीन व्यक्ति जीवित होता हुआ भी मृत तुल्य है। क्योंकि उत्साह, तेज, शक्ति, साहस, स्फूर्ति, आशा, उमंग के साथ जीना ही जीवन और ये सब वहीं रहते हैं, जहाँ आत्म-विश्वास होता है।

(अखंड ज्योति-9/1964)


संयम की आवश्यकता.


संयम की आवश्यकता.


राम रावण युद्ध का प्रथम दौर प्रारम्भ हुआ। रावण ने अपने सर्वोच्च सेनापति मेघनाद को ही सबसे पहले लड़ने भेजा। वह मेघनाद जिस पर रावण के युद्ध का, उसकी विजय का पूरा-पूरा दारोमदार था। मेघनाद को आता देख राम पीछे हट गये और बोले- “लक्ष्मण तुम्हें ही मेघनाद से युद्ध करना है।” 

कैसी विचित्र बात थी। अपार शक्तिशाली राम को पीछे क्यों हटना पड़ा मेघनाद से और अकेले लक्ष्मण को ही क्यों उसका सामना करने भेजा? इसका स्पष्टीकरण करते हुए राम ने ही कहा है, “लक्ष्मण, मेघनाद बारह वर्षों से तप कर रहा है, ब्रह्मचारी है। और तुमने चौदह वर्षों से स्त्री का मुँह तक नहीं देखा। मेरे साथ रहकर तपस्वी, संयमी जीवन बिताया। इसलिये तुम ही मेघनाद को हरा सकते हो। मैं तो गृहस्थ हूँ।” और सचमुच लक्ष्मण ही उसे हरा सके। मेघनाद को इन्द्रजीत कहा जाता है। इसका तात्पर्य वस्तुतः अपनी इन्द्रियों पर विजय प्राप्त कर लेने से है।

पितामह भीष्म के बारे में कौन हिन्दू जानता न होगा। महाभारत का वह घनघोर युद्ध जिसमें श्रीकृष्ण को भी अपनी प्रतिज्ञा भंग करनी पड़ी उनके समक्ष। हनुमान से लेकर महर्षि दयानन्द, विवेकानन्द तथा बहुत से महापुरुष संसार में जो कुछ कार्य कर सके उसका मूलाधार उनका संयमी ब्रह्मचर्यपूर्ण जीवन ही था। स्वयं महात्मा गाँधी का जीवन उस समय से प्रकाश में आया जब से उन्होंने अखण्ड संयम, ब्रह्मचर्य की धारणा की।

मनुष्य का शरीर एक शक्ति उत्पादक डायनेमो की तरह है। इससे नित्य निरन्तर महत्वपूर्ण शक्तियों का उद्वेग होता रहता है। जब इन्हें रोककर संग्रहीत कर लिया जाता है और उचित दिशा में लगा दिया जाता है तो महान् कार्य सम्पन्न होते हैं। और जब इसे विषय भोगों के छिद्रों से नष्ट कर दिया जाता है तो मनुष्य दीन−हीन, असहाय, परतन्त्र- परावलम्बी बन जाता है। अपने शक्ति धन को लुटा देने के बाद मनुष्य थोथा है, रोता है। अपनी शक्ति को संचित रखकर उसका सदुपयोग करने से ही मनुष्य का जीवन प्रभावशाली, महत्वपूर्ण बनता है।

इसीलिए हमारे मनीषियों ने संयम - ब्रह्मचर्य को जीवन का आवश्यक अंग बताया। उसे आवश्यक धर्म कर्तव्य बताया। धर्म का एक अंग बना दिया। वस्तुतः ब्रह्मचर्य ही जीवन है, तेज है, शक्ति है, सामर्थ्य है। ब्रह्मचर्य के अभाव में उत्कृष्ट - जीवन की कल्पना ही नहीं की जा सकती। मनुष्य जितना संयमी होगा उतना ही उसका व्यक्तित्व उतना ही प्रखर तेजस्वी, सामर्थ्यवान बनेगा। दूसरों को प्रभावित कर सकेगा।

यह ध्रुव सत्य है, और हमारे प्राचीन मनीषियों से लेकर आधुनिक महापुरुषों का अनुभव सिद्ध तथ्य है कि भोगों में मनुष्य को सुख नहीं मिल सकता। गीताकार ने कहा है:--

ये हि संस्पर्शजाः भोगा दुःख योनय एवते।
आद्यन्तवन्तः कौन्तेय न तेषु रमते बुधः ॥


“जो ये इन्द्रिय तथा विषयों के संयोग से उत्पन्न होने वाले सब भोग हैं वे निःसन्देह दुःख के ही हेतु हैं और अनित्य हैं। हे अर्जुन। बुद्धिमान विवेकी पुरुषों को उसमें रमण नहीं करना चाहिए।”

मनुष्य जब सुख की खोज में इन्द्रिय और विषयों को साधन बनाकर प्रयत्न प्रारम्भ करता है। मन, बुद्धि को भी इसी ओर लगाता है तो इसी प्रयत्न में अनेकों दुःखों का सूत्रपात हो जाता है उसके लिए। मनुष्य जब शरीर की आवश्यकता के लिए नहीं वरन् रसना के माध्यम से अनेक स्वाद के आनन्द के लिए भोजन करता है तो भोजन की मात्रा और उसके स्वरूप का निर्णय पेट न करके जिव्हा करने लगती है। जीभ की तृप्ति के लिए मनुष्य तरह-तरह से सुस्वादु भोजन करता है। और परिणाम रोग, शारीरिक कष्टों के रूप में ही प्राप्त होता है। यही बात जननेन्द्रिय के सम्बन्ध में है। उसका उपयोग सन्तानोत्पादन के लिये होता है। उसके साथ जुड़ा हुआ सुख तो प्रकृति का एक पारितोषिक और वरदान है। लेकिन जब मनुष्य सन्तानोत्पादन के लिए नहीं वरन् उस सुख को प्रधान मानकर विषयों में प्रवृत्त होता है और प्रकृति की मर्यादा का उल्लंघन करता है तो परिणाम में अपनी शक्तियों का ह्रास करता है और दुःखों को निमन्त्रण देता है। अपनी जीवनी शक्ति का नाश करके मृत्यु की ओर अग्रसर होता है।

विषय भोगों में इन्द्रिय, मन, बुद्धि में संसार और इसके पदार्थों में मनुष्य को सुख मिल ही नहीं सकता। जिसे हम सुख समझते हैं उसके बदले वस्तुतः बड़े दुःख के रूप में मूल्य चुकाना पड़ता है। जब तक वह सुख नहीं मिलता तो उसे प्राप्त करने की बेचैनी, फिर भोगते ही वह समाप्त हो जाता है फिर नये सिरे से उसकी प्राप्ति के लिये मन बुद्धि इन्द्रियों को संचालित करना पड़ता है। और कोल्हू के बैल की तरह एक अन्धी दौड़ में मनुष्य को इनके पीछे दौड़ते रहना पड़ता है। दुःख पश्चाताप, क्लेश, आत्मग्लानि, आसक्ति न जाने कितनी ही हानियाँ उठानी पड़ती हैं इनके लिए। इसमें कोई सन्देह नहीं कि विषय - भोगों में हम जितने लिप्त रहते हैं, उतने ही मृत्यु और विनाश की ओर ही अग्रसर होते जाते हैं।

क्या आपको उस व्यक्ति की घटना याद है जिसने एक सुन्दर फूल देखा? देखकर उसका मन ललचाया। उसने उसे तोड़कर नाक से सूँघा ही था कि वह दर्द में मारे चिल्ला उठा। क्यों ? उस फूल के अन्दर एक मधुमक्खी बैठी थी। सूँघते समय उसी ने उसे डंक मार दिया और वह दुःख से तिलमिला उठा। विषय भोगों का सुख भी इसी तरह है। वह हमें लुभावना लगता है। हम उसमें लीन होते हैं लेकिन परिणाम में दुःख के जहरीले डंक से भी हमें घायल होना पड़ता है।

हमारे शरीर में निहित जीवनी शक्ति ही सर्वत्र अपना काम करती है। सुनने में, खाने में, पीने में, काम करने में, यही अपना काम करती है। अन्य क्षेत्रों में शक्ति का इतना क्षय नहीं होता जितना सम्भोग में होता है। एक सीमा तक जबकि भोग मर्यादित होते हैं तब शक्ति अनावश्यक रूप से खर्च नहीं होती। लेकिन अमर्यादित वासना तृप्ति में अन्य विषयों से अधिक शक्ति का क्षय होता है। इसलिए यह अधिक हानिकारक सिद्ध होता है। संयम में ब्रह्मचर्य- इन्द्रिय निग्रह को ही अधिक महत्व दिया गया है। यद्यपि अन्य भोगों का संयम भी आवश्यक होता है लेकिन मुख्य रूप से काम वासना तथा रसना का संयम ब्रह्मचर्य का मूलाधार है, अन्य सब इसके पूरक हैं।

अनियन्त्रित, अमर्यादित वासनापूर्ति का हमारे शरीर, मन, ज्ञानतन्तुओं पर बहुत बुरा प्रभाव पड़ता है। उससे केवल कुछ शारीरिक तत्व जो कि महत्वपूर्ण होते हैं उनका क्षरण ही नहीं होता अपितु सूक्ष्म प्राणशक्ति, जीवनी शक्ति का भी बहुत बड़ा अंश व्यय होता है। इस अपव्यय से हम खोखले, रिक्त, जर्जरित बनते जाते हैं, चाहे हमारा बाहरी कलेवर कितना ही मोटा - ताजा क्यों न दीखता हो। बीमारियाँ, रोग कीटाणु जिसे धर दबाते हैं उसे मृत्यु समय- पूर्व ही उठा ले जाती है। यह सब उस जीवनी-शक्ति के अपव्यय के कारण ही होता है।

वासना में लिप्त रहने से वह जीवन रस जो शरीर को तेजवान, रसवान बनाता है काफी मात्रा में नष्ट होता है। और यही कारण है कि भोगी मनुष्य निस्तेज रसहीन सूखा-सा दिखाई देता है। उसके जीवन में सरसता, चेतना एवं स्फूर्ति जैसी चीज नाम मात्र को शेष रहती है उत्साह और साहस की मात्रा ऐसे लोगों में बहुत ही कम दृष्टि गोचर होती है।

इस तरह से होने वाले अपार क्षय को रोकने के लिये, शक्तियों को संग्रहीत सञ्चित करने के लिये, परिणाम में प्राप्त होने वाले दुःखों से बचने के लिए, हमारे पूर्वजों ने संयम तप, ब्रह्मचर्य जीवन के लिए आवश्यक बताया है। यह कोरी कल्पना नहीं है व्यवहार सिद्ध है। विषय में नष्ट होने वाली शक्ति अपने सूक्ष्म से सूक्ष्म रूपों में परिवर्तित होती हुई महत्वपूर्ण कार्यों को सम्पन्न कर देगी। ऊर्ध्वरेतस् का यही अर्थ है कि मनुष्य अपनी जीवनी शक्ति गन्दे मार्ग में नष्ट न कर उसे सञ्चित कर उत्कृष्ट कार्यों की साधना में लगाता है, इसे कई सूक्ष्म शक्तियों में परिवर्तित कर कला, साहित्य, ज्ञान-विज्ञान, आदि का सृजन करने लगता है।

काम शक्ति एक महत्वपूर्ण शक्ति है जिसको निम्नगामी बनाकर उसे नष्ट करके अपने दुःखों का आधार बनाया जा सकता है समाज में अपराधों को प्रोत्साहन दिया जा सकता है या इसके विपरीत इसे संयमित कर उपयोगी महान् कार्यों में व्यक्त किया जा सकता है। और इसीलिए संयम की आवश्यकता को महत्व दिया गया है। कोई व्यक्ति यदि अपनी शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक, क्षमताओं को बढ़ाना चाहे, कोई महत्वपूर्ण सृजन अनुसंधान का काम करना चाहे, तो उसे संयम का पथ ही अपनाना पड़ेगा।

क्या आप शक्ति-सम्पन्न, विजयी, सफल, महान जीवन बिताना चाहते हैं? क्या आप अपना व्यक्तित्व उत्कृष्ट बनाना चाहते हैं? तो आपके लिए एक ही मार्ग है, वह है संयम का मार्ग, ब्रह्मचर्य की साधना। भोगों के पथ पर चलकर शक्ति का, महानता का, विश्वास का पथ संधान नहीं किया जा सकता। यह उतना ही सत्य है जितना छिद्र युक्त घड़े में पानी का संचय नहीं किया जा सकता। संयम को छोड़कर अन्य कोई मार्ग नहीं है अपने उत्कर्ष का, जीवन का, महानता का, सुख का, शांति का।



(अखंड ज्योति-9/1964)


श्रीमद्भागवत महापुराण: प्रथम स्कन्धःषष्ठ अध्यायः श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद.


(लगातार-सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत पुराण)
श्रीमद्भागवत महापुराण:
प्रथम स्कन्धःषष्ठ अध्यायः श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद.

नारदजी के पूर्व चरित्र का शेष भाग.

श्रीसूत जी कहते हैं- शौनक जी! देवर्षि नारद के जन्म और साधना की बात सुनकर सत्यवतीनन्दन भगवान श्रीव्यास जी ने उनसे फिर यह प्रश्न किया।

श्रीव्यास जी ने पूछा- नारद जी! जब आपको ज्ञानोपदेश करने वाले महात्मागण चले गये, तब आपने क्या किया? उस समय तो आपकी अवस्था बहुत छोटी थी। स्वायम्भु! आपकी शेष आयु किस प्रकार व्यतीत हुई और मृत्यु के समय आपने किस विधि से अपने शरीर का परित्याग किया? देवर्षे! काल तो सभी वस्तुओं को नष्ट कर देता है, उसने आपकी पूर्व कल्प की स्मृति का कैसे नाश नहीं किया?

श्रीनारद जी ने कहा- मुझे ज्ञानोपदेश करने वाले महात्मागण जब चले गये, तब मैंने इस प्रकार जीवन व्यतीत किया- यद्यपि उस समय मेरी अवस्था बहुत छोटी थी। मैं अपनी माँ का एकलौता लड़का था। एक तो वह स्त्री थी, दूसरे मूढ़ और तीसरे दासी थी। मुझे भी उसके सिवा और कोई सहारा नहीं था। उसने अपने को मेरे स्नेहपाश से जकड़ रखा था। वह मेरे योगक्षेम की चिन्ता तो बहुत करती थी, परन्तु पराधीन होने के कारण कुछ कर नहीं पाती थी। जैसे कठपुतली नचाने वाले की इच्छा के अनुसार ही नाचती है, वैसे ही यह सारा संसार ईश्वर के अधीन है। मैं भी अपनी माँ के स्नेहबन्धन में बँधकर उस ब्राह्मण-बस्ती में ही रहा। मेरी अवस्था केवल पाँच वर्ष की थी; मुझे दिशा, देश और काल के सम्बन्ध में कुछ भी ज्ञान नहीं था।

एक दिन की बात है, मेरी माँ गौ दुहने के लिये रात के समय घर से बाहर निकली। रास्ते में उसके पैर से साँप छू गया, उसने उस बेचारी को डस लिया। उस साँप का क्या दोष, काल की ऐसी ही प्रेरणा थी। मैंने समझा, भक्तों का मंगल चाहने वाले भगवान का यह भी एक अनुग्रह ही है। इसके बाद मैं उत्तर दिशा की ओर चल पड़ा। उस ओर मार्ग में मुझे अनेकों धन-धान्य से सम्पन्न देश, नगर, गाँव, अहीरों की चलती-फिरती बस्तियाँ, खानें, खेड़े, नदी और पर्वतों के तटवर्ती पड़ाव, वाटिकाएँ, वन-उपवन और रंग-बिरंगी धातुओं से युक्त विचित्र पर्वत दिखायी पड़े। कहीं-कहीं जंगली वृक्ष थे, जिनकी बड़ी-बड़ी शाखाएँ हाथियों ने तोड़ डाली थीं। शीतल जल से भरे हुए जलाशय थे, जिनमें देवताओं के काम में आने वाले कमल थे; उन पर पक्षी तरह-तरह की बोली बोल रहे थे और भौंरे मँडरा रहे थे।

यह सब देखता हुआ मैं आगे बढ़ा। मैं अकेला ही था। इतना लम्बा मार्ग तै करने पर मैंने एक घोर गहन जंगल देखा। उसमें नरकट, बाँस, सेंठा, कुश, कीचक आदि खड़े थे। उसकी लम्बाई-चौड़ाई भी बहुत थी और वह साँप, उल्लू, स्यार आदि भयंकर जीवों का घर हो रहा था। देखने में बड़ा भयावना लगता था। चलते-चलते मेरा शरीर और इन्द्रियाँ शिथिल हो गयीं। मुझे बड़े जोर की प्यास लगी, भूखा तो था ही। वहाँ एक नदी मिली। उसके कुण्ड में मैंने स्नान, जलपान और आचमन किया। इससे मेरी थकावट मिट गयी। उस विजन वन में एक पीपल के नीचे आसन लगाकर मैं बैठ गया। उन महात्माओं से जैसा मैंने सुना था, हृदय में रहने वाले परमात्मा के उसी स्वरूप का मैं मन-ही-मन ध्यान करने लगा।


क्रमश:


साभार krishnakosh.org

मनोविकारों का शरीर पर प्रभाव.


मनोविकारों का शरीर पर प्रभाव.


चिकित्सा शास्त्रियों के सामने यह एक विचित्र समस्या मौजूद है कि शरीर में रोग के अमुक कीटाणु न होने पर भी उस रोग से रोगी ग्रसित क्यों बना रहता है? कई बार ऐसे रोगी देखने को मिलते हैं जिनको समस्त परीक्षणों के उपरान्त भी किसी रोग से ग्रसित नहीं पाया गया। रोगी बहुत कष्ट पीड़ित होते हैं पर चिकित्सक यह समझ नहीं पाते कि वस्तुतः उन्हें क्या रोग है और उसकी क्या चिकित्सा की जाय?

कई बार ऐसे रोगी भी देखने में आते हैं जिनका आहार-विहार संयम-नियम सब कुछ ठीक होता है फिर भी उन्हें बीमारी ने घेरे रखा होता है। कई बार उत्तम से उत्तम चिकित्सा करने पर भी, यहाँ तक कि पीड़ित अंगों की शल्य-क्रिया करने पर भी कष्ट से छुटकारा नहीं होता। कितनी ही बार आपरेशन से पूर्व जिस अंग के खराब होने की कल्पना की गई थी वह फाड़-चीर करते समय बिल्कुल निर्दोष पाया गया है और डाक्टरों को अपनी भूल का पश्चाताप करना पड़ा है।

‘मैन्स प्रिजम्पशस ब्रेन’ नामक ग्रन्थ के प्रणेता डॉक्टर साइमन्स ने ऐसे सैकड़ों उदाहरण प्रस्तुत करते हुए बताया कि ऐसे रोगी वस्तुतः मानसिक कारणों से रुग्ण होते हैं और उनकी चिकित्सा औषधि विज्ञान या शल्य क्रिया द्वारा संभव नहीं होती। उन पागलों या अर्ध विक्षिप्तों की बात छोड़ भी दें जिन्हें प्रत्यक्ष मानसिक रोगी कहा जा सकता है तो भी असंख्य रोगी ऐसे मिलेंगे जो अपनी किन्हीं अनुपयुक्त विचारणाओं एवं भावनाओं के फलस्वरूप शारीरिक दृष्टि से रोगी बने हैं और निरन्तर कष्ट सहते रहते हैं। उनका कष्ट निवारण तभी संभव है जब उनकी मानसिक व्यथाओं और द्विविधाओं का निराकरण हो सके।

रक्तचाप बढ़ने के संबंध में अब तक जितनी शोधें हुई हैं उनकी चर्चा करते हुए फ्राँसीसी मेडीकल ऐसोसिएशन के प्रधान डॉ. ब्लैवस्की ने लिखा है—इस रोग के तीन चौथाई पीड़ितों ने चिन्ताओं से ग्रसित रहकर अपने शरीर में इस व्यथा को आमन्त्रित किया होता है। मद्यपान एवं अनुपयुक्त रहन-सहन के कारण रक्तचाप से पीड़ित होने वालों की अपेक्षा चिन्ताग्रस्त कई गुने अधिक होते हैं। उन्होंने हृदय रोगों की चर्चा करते हुए लिखा है क्रोधी और ईर्ष्यालु स्वभाव के लोगों को बहुधा यह व्यथा आ दबोचती है। जिन्हें छोटी-छोटी बातों पर डर बहुत लगता है, तरह-तरह की आशंकाएं किया करते हैं और दुःखद भविष्य के बुरे चित्र मस्तिष्क में बनाया करते हैं उनकी रक्त वाहिनी नाड़ियाँ सकुच जाती हैं, खून गाढ़ा हो जाता है और उसमें बढ़ी हुई फुटकियाँ हृदय की धड़कन तथा अन्य बीमारियाँ पैदा करती हैं।

जो महिलाएं गर्भ धारण नहीं करना चाहतीं पर वे वैसी विपत्ति में फँस जाती हैं तो उनकी पश्चाताप भरी उद्विग्न मनोदशा जन्मने वाले बालक के शरीर और मस्तिष्क पर बहुत बुरा असर छोड़ती है, इतना ही नहीं वे महिलाएं रक्ताल्पता तथा बहुमूत्र की शिकार बनती हैं। शिकागो विश्वविद्यालय स्वास्थ्य अन्वेषण विभाग ने दाम्पत्ति विद्वेष के कारण जुकाम और गठिया का प्रकोप होना सिद्ध किया है। अन्वेषकों का कथन है कि ऐसे लोगों की मानसिक उलझन जब तक हल न होगी तब तक उत्तम से उत्तम चिकित्सा से भी उन्हें कुछ लाभ न पहुँचेगा। भीतर ही भीतर घुटने वाले, अपनी मन की व्यथा किसी से न कह सकने वाले लोगों को बहुधा दमा साँस फूलना, फेफड़ों की जलन, प्लूरिसी जैसी बीमारियाँ प्रकट होती देखी गई हैं।

औषधि चिकित्सा उन्हीं रोगों पर सफल होती है जो शारीरिक विकारों के कारण उत्पन्न हुए होते हैं। दवाओं के कितने ही रोगों पर असफल होने का एक बड़ा कारण यह है कि उन बीमारियों की जड़ मन में होती है। मन का विक्षोभ शरीर को प्रभावित करता है और जहाँ अवसर देखता है वहीं कोई रोग खड़ा कर देता है। गन्दगी को रोगों का बड़ा कारण माना जाता है और कहा जाता है जो स्वच्छता का ध्यान नहीं रखते थे अधिक बीमार पड़ते हैं पर यह मान्यता अब पुरानी हो चली है। नवीन शोधों ने यह सिद्ध किया है कि निश्चिंत और प्रसन्न चित्त रहने वाले लोग सबसे अधिक निरोग रहते हैं। निम्न स्तर के समाजों में सफाई का ध्यान नहीं रखा जाता, वहाँ गन्दगी भी बहुत रहती है और स्वास्थ्य के सर्वमान्य नियमों की भी वे लोग उपेक्षा करते रहते हैं फिर भी मानसिक उलझनों से बचे रहने के कारण वे उन लोगों से कहीं अच्छा स्वास्थ्य बनाये रहते हैं जो सफाई तो बहुत रखते हैं पर मनोविकारों से निरन्तर भावनात्मक उत्तेजना बनाये रखते हैं।

हालैण्ड के डॉ0 रेमाण्ड इलियन ने अपने 40 वर्षीय मनोविज्ञान अनुसंधानों का निष्कर्ष प्रकाशित करते हुए लिखा है—छल, कपट और दुराव का व्यवसाय करने वाले—बाहर से कुछ और भीतर से कुछ और बने रहने वाले मनुष्यों में दुहरे व्यक्तित्व पनपते हैं और वे दोनों परस्पर विरोधी होने के कारण निरन्तर संघर्ष करते हुए एक ऐसी विषाक्त मनोभूमि प्रस्तुत करते हैं जिससे कितने ही शारीरिक और मानसिक रोग उपज पड़े। एक कोट को एक समय में दो आदमी पहनने का प्रयत्न करें या एक म्यान में दो तलवारें ठूँसी जायें तो उन आवरणों में टूट-फूट होकर रहेगी। इसी प्रकार जो लोग बाहर से अपने को बहुत अच्छा दिखाने का प्रयत्न करते हैं और भीतर बहुत बुरे होते हैं वे अपने आरोग्य के लिए एक स्वास्थ्य संकट उत्पन्न करते हैं। इससे यह अच्छा है कि वे जैसे भी कुछ हों भीतर बाहर से एक-सा रहने का प्रयत्न करें।

झूठ और कपट को नैतिक दृष्टि से पाप माना गया है और इससे ईश्वरीय दण्ड मिलने की बात कही गई है। शारीरिक दण्ड तो प्रत्यक्ष ही है। असत्यवादी एवं धोखेबाज लोग प्रपञ्च भरी धूर्तता से अपना ही अहित सबसे अधिक करते हैं। उनके भीतर जो अंतर्द्वंद्व चलता है वह मानसिक संस्थान को एक प्रकार से क्षत-विक्षत कर डालता है। फलस्वरूप का शरीर रोगी रहना आरम्भ हो जाता है।

इस शरीर पर मन का पूर्णतया अधिकार है। क्रोध शोक एवं हर्ष उल्लास में चेहरे की आकृति एवं शरीर की स्थिति बदलते हम बराबर देखते रहते हैं। कोई बड़ा मानसिक आघात लगने पर, पागल हो जाने या मर जाने पर की घटनाएं अक्सर घटित होती रहती हैं। क्रोध में उन्मत्त हुए व्यक्ति ऐसे नृशंस कार्य कर बैठते हैं जिससे उन्हें आजीवन पछताना पड़ता है। शोक में उद्विग्न हुए व्यक्ति आत्महत्या तक कर बैठते हैं। प्रसन्नता और प्रतिष्ठा मिलने पर दुर्बल एवं रुग्ण व्यक्तियों का स्वास्थ्य भी तेजी से सुधरने लगता है। मिथ्या भय से भी मनुष्य थर-थर काँपने लगता है और आपत्ति की सम्भावना का समाचार सुनते ही भूख, प्यास एवं नींद के विदा होते देर नहीं लगती। इन प्रत्यक्ष तथ्यों से हर कोई सहज ही यह जान सकता है कि मन की स्थिति का कितनी जल्दी और कितना गहरा प्रभाव पड़ता है।

ज्ञान तन्तुओं में प्रवाहित होने वाली विद्युत धारा का केन्द्र मस्तिष्क ही तो है। मन की जैसी स्थिति होती है उसी स्तर का यह विद्युत प्रवाह भी रोम-रोम में दौड़ता रहता है। रक्त के निर्मल और विषाक्त होने का स्वास्थ्य पर जैसा प्रभाव पड़ता है उससे भी अधिक परिणाम मस्तिष्क द्वारा ज्ञान तन्तुओं में प्रवाहित विद्युत धारा के गुण दोषों पर होता है। जो मस्तिष्क मनोविकारों के कारण उत्तेजित रहते हैं उनकी वह विकृति सारे शरीर में फैलती है और विविध रोगों का सृजन करती है। शान्त मन एकाग्र चित्त, नियमित विचारों का अभ्यास करके योगीजन जो आध्यात्मिक शक्ति प्राप्त करते हैं उसमें अशान्ति जन्य अपव्यय रोक कर शान्ति के कारण सुविकसित बनी हुई मानसिक स्थिति का सदुपयोग ही प्रधान आधार होता है। मन को निर्मल करने से आध्यात्मिक प्रगति तो होती है साथ ही मानसिक विकृतिजन्य अधिकाँश रोगों के निराकरण और सुदृढ़ स्वास्थ्य का वरदान भी मिलता है। मनोविकारों से बचे रहना स्वास्थ्य की सुरक्षा का सर्वोपरि आधार माना जा सकता है।

लुकमान का कथन है कि “आदमी में कोई रोग नहीं होता, हाँ रोगी आदमी अवश्य देखे जाते हैं।” आहार-विहार के सुधार द्वारा स्वास्थ्य ठीक होता है। पौष्टिक और बलवर्धक पदार्थ शरीर को पुष्ट करते हैं। इतना जानना ही पर्याप्त नहीं, हमें यह भी जानना चाहिए कि मन को शान्त निश्चिन्त, निर्मल और प्रसन्न रखने से स्वास्थ्य की तीन चौथाई समस्या हल हो सकती है। जिसका मन निरोग होगा शरीर उसी का निरोग रहेगा।

(अखंड ज्योति-7/1964)


काम से जी न चुरावें.

काम से जी चुरावें.


उपनिषद्कार ने कहा है “कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीबिषेच्छतं समा।” कर्म करते हुए हम सौ वर्ष जीने की इच्छा करें। आराम करते हुए सुख भोगते हुए, आनन्द मनाते हुए, सौ वर्ष जीने के लिए क्यों नहीं कहा उपनिषद् के ऋषि ने? इसीलिए कि श्रम के अभाव में आराम, आनन्द, यहाँ तक सौ वर्ष जीने का अधिकार भी छिन जाता है, हम से। श्रम के साथ ही जीवन अपनी महानता और समृद्धियों के पर्दे खोलता है। जीवन की पूर्णता प्राप्त करनी है, तो परिश्रम करना पड़ेगा।

स्वामी विवेकानन्द ने कहा है, ‘श्रम ही जीवन है
 जिस समाज में श्रम को महत्व नहीं मिलता, वह जल्दी ही नष्ट हो जाता है।”

अमेरिका के धनकुबेर हेनरीफोर्ड ने लिखा है—”हमारा काम, हमें जीने के साधन ही प्रदान नहीं करता वरन् स्वयं जीवन प्रदान करता है।”

पण्डित नेहरू ने अपनी आत्म-कथा में एक स्थान पर लिखा है—”काम के भार से ही मैं अपने शरीर और मस्तिष्क की स्फूर्ति तथा क्षमता कायम रख पाता हूँ।”

हमारा काम ही हमें आगे बढ़ने की प्रेरणा देता है। जीवन में महान सम्भावनाओं के द्वार खोलता है। श्रम ही उन्नत जीवन और उज्ज्वल भविष्य का ठोस आधार है। बार्टन ने कहा है-”श्रम एक शक्तिशाली चुम्बक है, जो श्रेष्ठताओं को अपनी ओर आकर्षित कर लेता है।

श्रम ही आनन्द और प्रसन्नता का जनक है। डॉ0 विश्वैश्वरैया ने कहा है—”श्रम से शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य प्राप्त होता है और उससे सन्तोष एवं प्रसन्नता।” श्रम का अर्थ है- आनन्द और अकर्मण्यता का अर्थ है—दुःख परेशानी। श्रमशील व्यक्ति ही अधिक सन्तुष्ट और आनन्दित रह सकता है। इसके विपरीत अकर्मण्यता मनुष्य को बुराइयों तथा नीरसता की ओर ले जाती है। प्रयोग के लिए किसी भी व्यक्ति को सुखी परिस्थितियों में अकर्मण्य रखा जाय तो वह जल्दी ही तरह-तरह की परेशानियाँ, असन्तोष अनुभव करने लगेगा। वह सुख भी उसे दुःखदायी बन जायगा। वह जल्दी ही ऊब जायगा। जो परिश्रम नहीं करते बेकार बैठे रहते हैं उनसे समय न कटने की शिकायत प्रायः सुनी जा सकती है। समय उनके लिए एक तरह का बोझ लगता है। लेकिन जो प्रतिक्षण व्यस्त रहते हैं उन्हें समय भार नहीं लगता। वे प्रतिक्षण नव-जीवन और नव-स्फूर्ति प्राप्त करते हैं।

प्रकृति का प्रत्येक तत्व, उसे सौंपे गये काम में लगा रहता है। उसका प्रत्येक पदार्थ गतिशील है। इस गतिशीलता में ही उनका जीवन है। जो रुक जाता है प्रकृति उसे नष्ट कर देती है। जो अपने दिए हुए काम को नहीं करता प्रकृति उसे जीवित भी नहीं रहने देती। यही कारण है कि अकर्मण्य व्यक्ति जिन्दगी के दिन बोझ की तरह काटता है। वह कई शारीरिक और मानसिक रोगों से ग्रस्त हो जाता है। चिन्ता, भय, घबराहट, द्वेष, कुढ़न, अनिद्रा, रक्तचाप, हृदयरोग, स्थूलता, कोष्ठबद्धता और अनेकों तरह के रोग आ घेरते हैं- उसे। इतना ही नहीं काम के अभाव से मनुष्य की शक्तियाँ कुँठित हो जाती हैं। जीवन का विकास क्रम अवरुद्ध हो जाता है। अकर्मण्य जीवन बिताने से मनुष्य का मन भी असन्तुलित हो जाता है। वह किसी भी पहलू पर ठीक से सोच नहीं, सकता, न निर्णय कर सकता है। उसका स्वभाव झगड़ालू, चिड़चिड़ा, क्रोधी, लड़ाकू बन जाता है। असन्तोष और अधीरता बनी रहती है।

इसलिए ठीक तरह जीवित रहना है, तो श्रम करना पड़ेगा। क्योंकि अकर्मण्यता मृत्यु का ही दूसरा नाम है। जीवित रहने के लिए, विकास की ओर अग्रसर होने के लिए, हमें कुछ न कुछ काम करते रहना होगा अन्यथा हम ऐसी वस्तु बन जायेंगे—जिसका प्रकृति के लिए कोई उपयोग नहीं रहता और वह हमें नष्ट होने के लिए मजबूर कर देगी। काम न करना प्रकृति के विरुद्ध विद्रोह है और जीवन का अपमान भी। जिसकी कीमत हमें नष्ट होकर ही चुकानी पड़ती है।

(अखंड ज्योति-7/1964)


अति विलक्षण अचेतन की माया.


अति विलक्षण
अचेतन की माया.

विश्व के अगणित जीव जन्तुओं में विविध प्रकार की ऐसी समता पाई जाती है, जिनसे मनुष्य वंचित रहता है। उदाहरण के लिए चमगादड़ के ज्ञानतंतु राडार क्षमता सम्पन्न होते है। वह अपनी इस क्षमता के आधार पर विभिन्न वस्तुओं से निकलने वाली विद्युत तरंगो को भलीभाँति पहचान लेता है और घने अन्धकार में भी अपने आसपास की वस्तुओं का स्वरुप एवं उनका स्थान समझ कर, बिना किसी से टकराये उड़ता रहता है।

समुद्र में एक मछली पाई जाती है, जिसे डाल्फिन कहा जाता है। इस मछली के शरीर से एक प्रकार की रेडियों तरंगे निकलती है, जो पानी के भीतर ही दूर तक फैल जाती है और उस क्षेत्र के जीव जन्तुओं से टकराकर, उसी के पास वापस लौटा आती है। इस क्षमता के आधार पर उसका मस्तिष्क क्षण में यह जान लेता है कि कौन सा जीव किस आकृति प्रकृति का हैं और कितनी दूर है। उसी आधार पर डाल्फिन मछली अपने बचाव तथा आक्रमण की योजनाबद्ध तैयारी करती है।

विकासवाद के अनुसार के कई जीव जन्तुओं ने आवश्यकतानुसार अपने शरीर में ऐसी विशेषताऐ उत्पन्न कर ली, जो आरम्भ में नहीं थी। जैसे मेढ़क ने जल में प्रवेश करने पर गोताखोरों के द्वारा चढ़ाये जाने वाले चश्में की तरह एक आवरण विकसित कर लिया, जो पहले नहीं था। रावण प्लाँट और ग्रेटमुलर पौधों ने पशुओं द्वारा चरे जाने से आत्मरक्षा के लिए नोंकदार काँटे विकसित किये है। तितलियों के बच्चे और रेशम के कीड़े अपने शरीर से रस निकाल कर उस पर पत्तियाँ चिपका लेते है और आत्मरक्षा की सुविधा उत्पन्न करते है। कछुए ने मगरमच्छों से अपने स्वादिष्ट माँस को बचाने के लिए चमड़ी को काफी मोटा और सख्त बना लिया। व्हेल मछली ने पनडुब्बियों की सारी खास-खास विशेषताए, अपने शरीर में उपस्थित कर रखी है। लगता है कि मनुष्य ने व्हेल की शरीर रचना देख कर ही पनडुब्बियों का विकास किया है।।

गिलहरी ने अपने गालों में दो जेबे विकसित की है ताकि वह उसमें उपलब्ध खाद्य समग्री जल्दी से जमा कर सके। बन्दर के गले में भी ऐसी ही थैलियाँ होती है; ताकि उसमें वह अपने बचे भोजन को रख सके। आहार उपलब्धि की दृष्टि से असुविधा का समय पास आते ही चीटियाँ तथा दूसरे कीड़े अपने लिये आहार जमा करने लगते है। उनका भविष्य ज्ञान बिल्कुल सही होता है।

दीमक और चींटीयों के झुन्ड की लड़ाई देखते ही बनती है। उनकी मोर्चा बन्दी आक्रमण तथा बचाव के ढंग से योद्धा मनुष्यों को बहुत सीखने के लिए मिल सकता है। अफ्रीका का काटन रले जाति का खरगोश हिंसक जंतुओं का खतरा देख कर, अपनी पिछली टाँग एक खास तरीके से जमीन में मारता है, उससे एक विद्युत धारा उत्पन्न होती है, जो भूमि के उपर वाले परत पर दूर तक फैल जाती है। दूसरे खरगोश उस को तुरन्त सुन लेते है और सजग होकर अपने बचाव की तैयारी भी करने लगते है। खरगोश ही नहीं, दूसरे अन्य कई जानवर भी इस तरह के संकेतों को समझकर, उससे लाभ उठाते है तथा बचने की व्यवस्था बना लेते है। उत्तरी अमेरिका की नदियों में पाई जाने वाली “ईल”‘ मछली अपने आप में एक अच्छा खासा डायनुमा हैं। घरों की बत्तियाँ 220 वोल्ट पर जलती है, पर उसके शरीर से 500 से भी अधिक वोल्टटेज की बिजली उत्पन्न होती देखी गई हैं।

कुछ विशेषताएँ तो आज भी देखी जा सकती है। वर्षा की संभावना निकट आते ही मकडी अपना जाला खाली जगह में से समेट कर बचाव की जगह पर चली जाती है। गिरने वाले मकान में से बिल्ली अपने बच्चों को लेकर कुछ ही समय पूर्व सुरक्षा के लिए प्रयास करती देखी गई है। कछुआ बालू में अण्डे देता है और दूर रह कर अपनी मानसिक चेतना द्वारा उन्हे सेता रहता है। अनुकुल ऋतु की तलाश में पक्षी हजारों मील उड़कर समुद्र और पर्वतों को लाँघते हुए कही से कही चले जाते हैं और सुविधा की ऋतु आने पर इतनी ही लम्बी यात्रा बिना भूले भटके पार करके वापस आ जाते है। कई मछलियाँ अण्डे देने के लिए अपनी पूर्व जानकारी के उपयुक्त स्थान पर पहुँचने के लिए हजारों मील की समुद्र में यात्रा करती हैं और फिर वापस आती है।

इन पशु-पक्षियों में कोई मस्तिष्क तो होता नहीं, मनुष्य जैसी प्रखर बुद्धि भी नहीं होती। फिर किस आधार पर इनमें ये विशेषताएँ उत्पन्न हो सकी है, इसका विश्लेषण करते हुए अतीन्द्रिय विद्या के शोधकत्ताओं परामनोवैज्ञानिको का कथन हैं कि यह सब क्रिया-कलाप इन छोटे जीव-जन्तुओं का अचेतन मन कराता है। चेतन मस्तिष्क की विशेषताएँ तो सर्वविदित है। वह मनुष्य के ही पास है। इसके आधार पर विद्वान, लेखक, कलाकार, वैज्ञानिक, दार्शनिक, व्यवसायी, उद्योगपति, राजनेता आदि अनेकों वर्ग के बुद्धिजीवी अपनी बौद्धिक चेतना के बल पर अपना तथा दूसरों का हित साधन करतेहैं, यह किसी से नहीं छिपा हें ये सब चेतन मस्तिष्क के ही चमत्कार है।

मनोवैज्ञानिक भी अब इस बात को स्वीकार करने लगे है कि अचेतन मस्तिष्क चेतन मस्तिष्क से कही अशिक रहस्यपूर्ण और विलक्षण क्षमताओं से सम्पन्न है। अभी उसके क्रियाकलापों का सात प्रतिशत भाग ही मनोवैज्ञानिक जान पाते है और उस आधार पर यह कहा जाता है कि शरीर यात्रा की स्वसंचालित गतिविधियों तथा रक्त परिभ्रमण, हृदय स्पंदन, पाचन, उर्त्सजन आदि क्रियाओं का संचालन नियमन, यह अचेतन मस्तिष्क ही करता है। अभिरुची, प्रकृति स्वभाव और आदतों की जड़ भी इसी अचेतन मस्तिष्क में जड़ जमाये रहती हैं। अचेतन मस्तिष्क के सम्बन्ध में अभी इतना जाना ही जा सकता है। आगे चलकर परामनोविज्ञान और अतीन्द्रिय विद्या की खोज आरभ हुई, तो पाया गया कि मस्तिष्क तो सर्वाधिक रहस्मय, विलक्षण और चमत्कारपूर्ण है-ही, अचेतन मस्तिष्क उससे हजार लाख गुना रहस्यपूर्ण है। यह संसार का सबसे अधिक रहस्यमय, उद्भुत और शक्तिशाली यन्त्र है। यदि उनमें सन्निहित संभावनाओं को पूरी तरह समझा जा सके और उन्हें साकार किया जा सके तो इतना बड़ा चमत्कार उत्पन्न हो सकता है कि कुछ ही वर्षों में अब तक हुई प्रगति से हजार गुना प्रगति संभव हो सकती है और तब जो दुनिया विनिर्मित हो सकती है, वह अब की अपेक्षा लाख गुना उन्नत और विकसित स्थिति की हो सकती है।

यो पदार्थ विज्ञान के क्षेत्र में ही अब तक जितना जो कुछ खोजा और जाना जा सका है, उससे बहुत अधिक खोजना और जानना शेष है। मानवीय शरीर के बारे में ही अभी बहुत कम खोजा जा सका है। जो कुछ जाना जा सका है, वह अभी स्थूल जानकारी ही हैं। वह भी इतनी विलक्षण है कि उसे जानकर सहज ही आर्श्चय होता है। मस्तिष्क विद्या न्यूरोलाजी साइकोलाजी का क्षेत्र उससे भी गहन है। इसके बाद अतीन्द्रिय विद्या आती है, जिस का संबंध अचेतन मस्तिष्क से है।

यदि इस शक्ति केन्द्र को समझा जा सके तो यहाँ सब कुछ देवलोकों के अद्भुत वर्णन, चित्रण जैसा दिखाई पड़ सकता है। अतीन्द्रिय विद्या के शोधकत्ताओं का कथन है कि चेतन मस्तिष्क की सक्रियता-अचेतन की क्षमता तरंगों को काटती है। इसलिए यह अविकसित स्थिति में ही पड़ा रहता है। यदि बौद्धिक संस्थान की गतिविधियाँ मंद से शिथिल की जा सके तो उसी अनुपात से अचेतन केन्द्र जागृत हो सकता है। सामान्यतः हमारे चेतन मस्तिष्क में प्रतिक्षण कोई न कोई विचार कोई न कोई कल्पनाएँ और आकाँक्षाएँ उठती रहती है। एक क्षण भी ऐसा नहीं बीतता, जिसमें मस्तिष्क शाँत या शून्य हो। हर समय चेतन मस्तिष्क व्यस्त और सक्रिय रहता है। यहाँ तक कि सोते समय भी वह स्वप्न देखता रहता है। यदि इस मस्तिष्क को कुछ समय के लिए शाँत, शिथिल और शून्य किया जा सके, तो अचेतन को कार्य करने का अवसर मिल जाता है और वह अपनी विलक्षण विभूतियों से लाभान्वित कर सकता है।

मनोविज्ञान तो अब इस निर्ष्कष पर पहुँचा है, लेकिन योग विद्या के आचार्य बहुत पहले से ही इस निर्ष्कष पर पहुँच चुके है। इतना ही नही, उन्होंने प्रत्याहार, धारणा, ध्यान, समाधि जैसी साधनाओं के माध्यम से चेतन मस्तिष्क को शिथिल निष्क्रिय एवं शून्य स्थिति में ले जाने में भी सफलता प्राप्त कर ली थी। यह सफलता आज भी प्राप्त की जा सकती है, जो अनेक चमत्कारों की जननी है। दूरदर्शन, दूरश्रवण, विचार प्रेषण, भविष्य ज्ञान, अदृश्य का प्रत्यक्ष आदि कितनी ही ऐसी विशेषताएँ प्राप्त की जा सकती है, जो साधारणतय मनुष्यों में नहीं होती।

अचेतन मस्तिष्क को यदि विकसित किया जा सके, उसे थोड़े समय के लिए भी सक्रिय होने का अवसर मिल सके तो व्यक्ति अपने शरीर, मन, स्वभाव प्रकृति आदि का कायाकल्प करा सकता है। यह संभावनाएँ योग-साधना द्वारा प्रत्यक्ष की जा सकती है। योग साधना का मूल उद्देश्य ही चित्त वृत्तियों का निरोध है। कहा भी गया है-

योगश्चित वृत्ति निरोधः। (योग दर्शन 1। 2)

इसका तार्त्पय है- मस्तिष्क की अतिशय अनावश्यक सक्रियता को नियन्त्रित करके, चेतन उर्जा का अपव्यय होने से बचा लेना और उस बचे हुए, प्राण प्रवाह को अचेतन का विकास करने में नियोजित कर देना। इसके लाभ अलौकिक उपलब्धियों के रुप में देखे जा सकते है। समाधि स्थिति तक पहुँचा हुआ व्यक्ति इसी आधार पर विश्व की जड़ चेतन सत्ता को प्रभावित करने में सक्षम समर्थ होता है।

चेतन मस्तिष्क को निष्क्रिय और शिथिल बनाने का अर्थ यह नहीं है कि बुद्धि से कोई काम ही न लिया जाय। यह समझना गलत होगा। योग साधना विद्यार्जन, ज्ञान साधना या बौद्धिक विकास के प्रयत्नों पर प्रतिबन्ध नहीं लगाती। उसमें मानसिक उर्त्कष, विद्याध्ययन कलाकौशल आदि के विकास और संवर्धन की पूरी छूट है। प्रतिबन्ध केवल इस बात का है कि मनः क्षेत्र को उत्तेजित, विक्षुब्ध एवं अंशात न होने दिया जाय। अनाशक्ति, स्थित प्रज्ञा आदि पर योगशास्त्रों में बहुत जोर दिया गया है। इनका तार्त्पय इतना ही है कि अनुकुल और प्रतिकूल परिस्थितियाँ सदैव आती जाती रहती है। इनसे क्षुग्ध न होने और संतुलित बने रहने के लिए यदि मन को साध लिया जाय-वह स्थिति अचेतन मन की दिव्य क्षमता को काटने वाली उथल-पुथल भरी उष्मा को भी नहीं बढ़ने देती। यही मानसिक सन्तुलन योग का प्रथम चरण है।

एकं सदविप्रा बहुधा वदन्ति अग्नि यमं मातरिश्वानमाहुः॥(ऋग्वेद 6। 32।4)

दूसरे चरण में चेतन मस्तिष्क की सभी गतिविधियों को रोक कर उस संस्थान में कार्य करने वाली शक्ति को अचेतन मस्तिष्क का विकास करने में लगाना होता है। इस साधना में एकाग्रता को बढ़ाना होता है और मन में उठने वाले विभिन्न संकल्पों को रोककर उसे एक केन्द्र पर स्थिर रखने का प्रयत्न करना पड़ता है। योग साधना में इसके लिए ध्यान को सर्वोत्कृष्ट माध्यम बताया गया है। ध्यान के द्वारा योगीजन अपनी एकाग्रता को बढ़ाते हुए चित्त को जागृत अवस्था में ही संकल्प पूर्वक लय कर देते है। इस स्थिति को समाधि कहा गया है और यह स्थिति प्राप्त करने के लिए प्रत्याहार, धारणा ध्यान आदि भूमिकाएँ पार करनी पड़ती है। इन साधनाओं के द्वारा सचेतन बुद्धि संस्थान में लगी हुई, चिन्तन और संकल्प की क्षमता को, जब अचेतन के साथ जोड़ दिया जाता है तो उसकी अद्भुत और अनुपम दिव्यताएँ जागृत होना आरम्भ कर देती है। इस दिशा में जो जितनी सफलता प्राप्त करता चलता है, उसे उतना ही समर्थ और सिद्ध पुरुष कहा जाता है। इन प्रयोगों को यदि व्यवस्थित और वैज्ञानिक ढंग से किया जा सके तो निस्संदेह मनुष्य साधारण न रह कर, असाधारण बन जाता है।



(अखंड ज्योति-६/१९८०)

मिथिला की पांच विख्यात महिलाये.


मिथिला की पांच
विख्यात महिलाये.

मिथिला की कुछ स्त्रियों का प्राचीन ग्रंथों और इतिहास की पुस्तकों में अक्सर नाम आता है| इन स्त्रियों ने अपने ज्ञान से न केवल मिथिला अपितु संपूर्ण भारतवर्ष का नाम, इतिहास के स्वर्ण अक्षरों में अंकित किया है।

1. गार्गी वाचकनवी.

महर्षि वचक्नु की पुत्री वाचकन्वी वेदों और उपनिषदों के उच्च स्तरीय ज्ञान के कारण इतिहास में बहुत प्रसिद्द हैं। गर्ग गोत्र में उत्पन्न होने के कारण उन्हें ‘गार्गी’ नाम से भी जाना जाता है। गार्गी का, राजा जनक के दरबार में महर्षि याज्ञवल्लभ के साथ किया गया शास्त्रार्थ बहुत प्रसिध्द है। विजेता तो याज्ञवल्लभ ही रहे किन्तु हार कर भी जीतकर ‘गार्गी’ का नाम मिथिला में स्त्री शक्ति का प्रतीक बनी।

आजन्म ब्रह्मचारिणी रहीं गार्गी का उल्लेख “अश्वलायन गृह्य सूत्र” और “चंदोग्य उपनिषद्” में भी प्राप्त होता है। ऋगवेद में उनके छंद ब्रह्मवादिनी के नाम से प्रस्तुत हैं। अपनी महान उपलब्धियों के कारण वे जनक के दरबार के नवरत्नों में से एक थीं।

2. विद्योत्तमा

कालिदास को ”महाकवि” बनाने वालीं “विद्योत्तमा” काशी नरेश विक्रमादित्य की पुत्री थी। वह परम सुंदरी और विदुषी नारी थी। बड़े बड़े विद्वानों को हराने वाली विद्योत्तमा को एक सुनियोजित षड़यंत्र के तहत ‘मौन शास्त्रार्थ’ द्वारा कुंठित विद्वानों नें कालीदास जो कि एक महामुर्ख थे, के साथ करा दिया।

कालिदास द्वारा रचित ‘कुमार संभव‘ के अपूर्ण अंशों को विद्योत्तमा ने ही बाद में पूरा किया। संस्कृत का एक और महाकाव्य ‘रघुवंश’ को का भी संपादन विद्योत्तमा द्वारा ही किया गया था।

3. लखिमा देवी. 

लखिमा देवी मिथिला के एक पराक्रमी राजा शिवसिंह रूप नारायण की पत्नी थी। इस परम विदुषी नारी को न्याय और धर्म शास्त्र में पांडित्य प्राप्त था। अपने पति की युद्ध में मृत्य के बाद उन्होंने १५१३ई० तक मिथिला पर शासन किया था। इतिहासकारों मत हैं कि लखिमा रानी के बाद ओईनवार वंश नेतृत्वविहीन हो गया। रानी लखिमा कठिन प्रश्नों का उत्तर जानने हेतु समय- समय पर पंडितों की महासभा आयोजित करती थी।

लखिमा देवी का निर्णय अदभुत और शानदार माना जाता था। उन्होंने ‘पदार्थ चन्द्र’, ‘विचार चन्द्र’ एवं ‘मिथक्षरा वाख्यान’ नामक पुस्तक की रचना की। महाकवि विद्यापति द्वारा रचित लगभग २५० गीतों में उनका वर्णन है।

4. भारती. 

भारतीय धर्म दर्शन को सबसे शिखर पर पहुंचाने वाले आदि शंकराचार्य एक साधारण लेकिन बुद्धिमान औरत से एक बहस में हार रहे थे। वो महिला थीं ‘भारती’ जो मिथिला के महाविद्वान मंडन मिश्र की पत्नी थीं।

विदुषी एवं सुंदर ‘भारती’ ने २२ वर्ष की अवस्था में ही चारों वेद, शिक्षा, कल्प, व्याकरण, ज्योतिष, सांख्य, न्याय मीमांशा, धर्मशास्त्रों का अध्ययन कर लिया था। स्वर से कोमल एवं मधुर भारती की प्रतिभा को देखकर ही विद्वानों ने उसे सरस्वती का अवतार मान लिया था।

5. मैत्रेयी. 

‘मैत्रेयी’, मिथिला के राजा जनक के दरबार में मैत्री नाम के एक मंत्री की पुत्री थीं। मैत्रेयि निश्छल, निःस्वार्थ, साध्वी प्रवृति की स्त्री थीं, जिन्हें अध्यात्मिक ज्ञान की अभिलाषा थी। इसी कारण उन्हें महर्षि याज्ञवल्क्य, जिनकी वह दूसरी पत्नी थीं, का स्नेह प्राप्त था।

महर्षि याज्ञवल्क्य नें मैत्रेयी को ब्रम्हज्ञान का उपदेश दिया था, जिस कारण मैत्रेयी नारी से नारायणी हो गयी और वह श्रेष्ठ नारी के रूप में प्रसिध्दी पाई। मैत्रेयी ने मैत्रेयी उपनिषद लिखा और वृहद्नारायका उपनिषद में हिन्दू धर्मं की एक महवपूर्ण अवधारणा ‘आत्मा’ पर विशेष प्रकाश डाला है।

श्रीमद्भागवत महापुराण: प्रथम स्कन्धः पंचम अध्यायः श्लोक 37-40 का हिन्दी अनुवाद


(लगातार-सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत पुराण)
श्रीमद्भागवत महापुराण:
प्रथम स्कन्धः पंचम अध्यायः श्लोक 37-40 का हिन्दी अनुवाद

‘प्रभो! आप भगवान श्रीवासुदेव को नमस्कार है। हम आपका ध्यान करते हैं। प्रद्युम्न, अनिरुद्ध और संकर्षण को भी नमस्कार है’। इस प्रकार जो पुरुष चतुर्व्यूहरूपी भगवन्मूर्तियों के नाम द्वारा प्राकृत मूर्तिरहित अप्राकृत मन्त्रमूर्ति भगवान यज्ञपरुष का पूजन करता है, उसी का ज्ञान पूर्ण एवं यथार्थ है। ब्रह्मन्!

जब मैंने भगवान की आज्ञा का इस प्रकार पालन किया, तब इस बात को जानकर भगवान श्रीकृष्ण ने मुझे आत्मज्ञान, ऐश्वर्य और अपनी भावरूपा प्रेमाभक्ति का दान किया। व्यास जी! आपका ज्ञान पूर्ण है; आप भगवान की ही कीर्ति का-उनकी प्रेममयी लीला का वर्णन कीजिये। उसी से बड़े-बड़े ज्ञानियों की भी जिज्ञासा पूर्ण होती है। जो लोग दुःखों के द्वारा बार-बार रौंदे जा रहे हैं, उनके दुःख की शान्ति इसी से हो सकती है और कोई उपाय नहीं है।

क्रमश:

साभार krishnakosh.org

कुरू-वंश और कौरव-पांडव.


कुरू-वंश और
कौरव-पांडव.

कौरव महाभारत में हस्तिनापुर नरेश धृतराष्ट्र और गांधारी के पुत्र थे। ये संख्या में 100 थे तथा कुरू के वंशज थे। सभी कौरवों में दुर्योधन सबसे बड़ा था। लेकिन अब सवाल यह उठता है कि क्या सभी कौरव और पांडव कुरू के वंशज थे? यदि नहीं थे तो फिर वे किसके वंशज थे। दूसरा सवाल यदि धृतराष्ट्र के पुत्र कौरव नहीं थे तो फिर कौरव कौन थे?

कौरव.

पुराणों के अनुसार ब्रह्माजी से अत्रि, अत्रि से चन्द्रमा, चन्द्रमा से बुध और बुध से इलानंदन पुरुरवा का जन्म हुआ। पुरुरवा से आयु, आयु से राजा नहुष और नहुष से ययाति उत्पन्न हुए। ययाति से पुरू हुए। पुरू के वंश में भरत और भरत के कुल में राजा कुरू हुए। कुरू के वंश में शांतनु का जन्म हुआ। कुरू के वंशजों को कौरव कहा जाता है।

महाराजा शांतनु की पत्नी का नाम था, गंगा। गंगा से उन्हें 8 पुत्र मिले, जिसमें से 7 को गंगा में बहा दिया गया और 8वें पुत्र को पाला-पोसा। उनके 8वें पुत्र का नाम देवव्रत था। यह देवव्रत ही आगे चलकर भीष्म कहलाये। यह कुरूवंश की एक शाखा का अंतिम राजा था। बाद में राजा शांतनु का निषाद जाति की एक महिला सत्यवती से प्रेम हो गया। सत्यवती के कारण देवव्रत को आजीवन ‍अविवाहित रहने की प्रतिज्ञा लेना पड़ी।

शांतनु को सत्यवती से दो पुत्र मिले; चित्रांगद और विचित्रवीर्य। चित्रांगद युद्ध में मारा गया जबकि विचित्रवीर्य का विवाह भीष्म ने काशीराज की पुत्री अंबिका और अंबालिका से कर दिया। लेकिन विचित्रवीर्य को कोई संतान नहीं हो रही थी, तब चिंतित सत्यवती ने कुंवारी अवस्था में पराशर मुनि से उत्पन्न अपने पुत्र वेद व्यास को बुलाया और उन्हें यह जिम्मेदारी सौंपी कि अंबिका और अंबालिका को कोई पुत्र मिले। अंबिका से धृतराष्ट्र और अंबालिका से पांडु का जन्म हुआ जबकि एक दासी से विदुर का। इस तरह देखा जाए तो पराशर मुनि का वंश चला।

वेद व्यासजी ने महाभारत को लिखा था। वेद व्यास कौन थे? वेद व्यास सत्यवती के पुत्र थे और उनके पिता ऋषि पराशर थे। सत्यवती जब कुंवारी थी, तब वेद व्यास ने उनके गर्भ से जन्म लिया था। बाद में सत्यवती ने हस्तिनापुर महाराजा शांतनु से विवाह किया था। वेद व्यास का असली नाम कृष्ण द्वैपायन था।

पांडु की पत्नी कुंती के पुत्र युधिष्ठिर के जन्म का समाचार मिलने के बाद धृतराष्ट्र की पत्नी गांधारी के मन में भी पुत्रवती होने की इच्छा जाग्रत हुई। लेकिन धृतराष्ट्र के लाख प्रयासों के बावजूद कोई पुत्र जन्म नहीं ले पा रहा था। तब एक बार फिर से वेद व्यास को बुलाया गया और वेद व्यास की कृपा से गांधारी ने गर्भ धारण किया।

गर्भ धारण के पश्चात 2 वर्ष व्यतीत हो जाने पर भी जब पुत्र का जन्म नहीं हुआ तो क्रोधवश गांधारी ने अपने पेट में मुक्का मारकर अपना गर्भ गिरा दिया। योगबल से वेद व्यास को इस घटना का ज्ञान तत्काल हो गया और उन्होंने गांधारी के पास आकर, अपना क्रोध को प्रकट किया। फिर उन्होंने कहा कि तुरंत ही 100 कुंड तैयार कर, उसमें घृत भरवा दो।

गांधारी ने उनकी आज्ञानुसार 100 कुंड बनवा दिए। तब वेद व्यास ने गांधारी के गर्भ से निकले मांसपिंड पर अभिमंत्रित जल छिड़का, जिसके चलते उस पिंड से अंगूठे के पोर बराबर 100 टुकड़े हो गए। वेद व्यास ने उन टुकड़ों को गांधारी के बनवाए 100 कुंडों में रखवा दिया और उन कुंडों को 2 वर्ष पश्चात खोलने का आदेश दे, अपने आश्रम चले गए। 2 वर्ष बाद सबसे पहले कुंड से दुर्योधन की उत्पत्ति हुई। दुर्योधन के जन्म के दिन ही कुंती के पुत्र भीम का भी जन्म हुआ। दुर्योधन जन्म लेते ही गधे की तरह रेंकने लगा।

ज्योतिषियों से इसका लक्षण पूछे जाने पर उन लोगों ने धृतराष्ट्र को बताया, 'राजन्! आपका यह पुत्र कुल का नाश करने वाला होगा।' फिर उन कुंडों से क्रमश: शेष 99 पुत्र एवं दुश्शला नामक एक कन्या का जन्म हुआ। गांधारी, गर्भ के समय धृतराष्ट्र की सेवा में असमर्थ हो गई थी, अतएव उनकी सेवा के लिए एक दासी रखी गई। धृतराष्ट्र के सहवास से उस दासी का भी युयुत्सु नामक एक पुत्र हुआ। युवा होने पर सभी राजकुमारों का विवाह यथायोग्य कन्याओं से कर दिया गया। दुश्शला का विवाह जयद्रथ के साथ हुआ।

पांडव.

एक बार राजा पांडु अपनी दोनों पत्नियों कुंती तथा माद्री के साथ वन में आखेट के लिए निकले। वहां उन्हें एक मृग का मैथुनरत जोड़ा दिखाई दिया। पांडु ने उस मृग को एक बाण मार दिया। मरते हुए मृग ने पांडु को शाप दिया, 'राजन! तुम्हारे समान क्रूर पुरुष इस संसार में कोई भी नहीं होगा। तूने मुझे मैथुन के समय बाण मारा है; अतः जब कभी भी तू मैथुनरत होगा, तेरी भी मृत्यु हो जाएगी।'

इस शाप से पांडु अत्यंत दुःखी हुए और अपनी रानियों से बोले, 'अब मैं अपनी समस्त वासनाओं का त्याग करके इस वन में ही रहूंगा, तुम लोग हस्तिनापुर लौट जाओ।' दोनों रानियों ने दुःखी होकर कहा, 'हम आपके बिना एक क्षण भी जीवित नहीं रह सकतीं। आप हमें भी वन में अपने साथ रहने दीजिए।' पांडु ने उनके अनुरोध को स्वीकार कर लिया।

एक दिन पांडु अपनी पत्नी से बोले, 'हे कुंती! मेरा जन्म लेना ही व्यर्थ हो रहा है, क्योंकि संतानहीन व्यक्ति पितृ-ऋण, ऋषि-ऋण, देव-ऋण तथा मनुष्य-ऋण से मुक्ति नहीं पा सकता। क्या तुम पुत्र प्राप्ति के लिए मेरी सहायता कर सकती हो?'

कुंती बोली, 'हे आर्य! दुर्वासा ऋषि ने मुझे ऐसा मंत्र प्रदान किया है, जिससे मैं किसी भी देवता का आव्हान करके मनोवांछित वस्तु प्राप्त कर सकती हूं। आप आज्ञा करें, मैं किस देवता को बुलाऊं?'

इस पर पांडु ने धर्म को आमंत्रित करने का आदेश दिया। धर्म ने कुंती को पुत्र प्रदान किया, जिसका नाम युधिष्ठिर रखा गया। कालांतर में पांडु ने कुंती को पुनः दो बार वायुदेव तथा इन्द्रदेव को आमंत्रित करने की आज्ञा दी। वायुदेव से भीम तथा इन्द्र से अर्जुन की उत्पत्ति हुई। बाद में कुंती ने माद्री को उक्त मंत्र की दीक्षा दे दी। माद्री ने अश्वनीकुमारों को आमंत्रित किया और इस तरह नकुल तथा सहदेव का जन्म हुआ।

एक दिन राजा पांडु माद्री के साथ वन में सरिता के तट पर भ्रमण कर रहे थे। सहसा वायु के झोंके से माद्री का वस्त्र उड़ गया। इससे पांडु का मन चंचल हो उठा और वे मैथुन में प्रवृत्त हुए ही थे कि शापवश उनकी मृत्यु हो गई। बाद में माद्री उनके साथ सती हो गई। ऐसे में सभी पुत्रों के पालन-पोषण की जिम्मेदारी कुंती पर आ गई और इस तरह कुंती ने हस्तिनापुर लौटकर अपने पुत्रों के हक की लड़ाई लड़ी। इस तरह पांडवों की मां दो थी और छह पिता थे। कुंति के चार पुत्र कर्ण, युधिष्ठिर, अर्जुन और भीम थे जबकि माद्री के पुत्र नकुल और सहदेव थे।

भगवत्-भजन में बाधक भाव-श्री श्री चैतन्य-चरितावली.(प्रभुदत्त ब्रह्मचारी)


भगवत्-भजन में बाधक भाव.
श्री श्री चैतन्य-चरितावली.
(प्रभुदत्त ब्रह्मचारी)

भगवत्-भजन में बाधक भाव भगवन्‍नाम सभी प्रकार के सुखों को देने वाला है। इसमें अधिकारी-अनधिकारी का कोई भी भेद-भाव नहीं। सभी वर्ण के, सभी जाति के, सभी प्रकार के स्‍त्री-पुरुष भगवन्‍नाम का सहारा लेकर भगवान के पाद्पद्मों तक पहुँच सकतें हैं। देख, काल, स्‍थान, विधि तथा पात्रापात्र का भगवन्‍नाम में कोई नियम नहीं। सभी देशों में, सभी समय में, सभी स्‍थानों में शुद्ध-अशुद्ध कैसी भी अवस्‍था में हो, चाहे भले ही जप करने वाला बड़ा भारी दुराचारी ही क्‍यों न हो, भगवन्‍नाम में इन बातों का भेदभाव नहीं। नाम-जप तो सभी को, सभी अवस्‍थाओं में कल्‍याणकारी ही है। फिर भी भगवन्‍नाम में दस बड़े भारी अपराध* बताये गये हैं। पूर्वजन्‍मों के शुभकर्मों से, महात्‍माओं के सत्‍संग से अथवा भगवत्‍कृपा से जिसकी भगवन्‍नाम में निष्‍ठा जग गयी हो, उसे बड़ी सावधानी के साथ इन दस अपराधों से बचे रहना चाहिये। महाप्रभु अपने सभी भक्तों को नामापराध से बचे रहने का सदा उपदेश करते रहते थे। वे भक्तों की सदा देख-रेख रखते। किसी भी भक्त को किसी की निंदा करते देखते, तभी उसे सचेत करके कहने लगते- ‘देखो, तुम भूल कर रहे हो। भगवद्भजन में दूसरों की निंदा करना तथा भक्तों के प्रति द्वेष के भाव रखना महान पाप है। जो अभक्त हैं, उनकी उपेक्षा करो, उनके संबंध में कुछ सोचो ही नहीं। उनसे अपना संबंध ही मत रखो और जो भगवद्भक्त हैं, उनकी चरण-रज को सदा अपने सिर का आभूषण समझो। उसे अपने शरीर का सुंदर सुगन्धित अंगराग समझकर सदा भक्तिपूर्वक शरीर में मला करो।’ इसीलिये प्रभु के भक्तों में आपस में बड़ा ही भारी स्‍नेह था। भक्त एक-दूसरे को देखते ही आपस में लिपट जाते। कोई किसी के पैरों को ही पकड़ लेता, कोई किसी की चरण-धूलि को ही अपने मस्‍तक पर मलने लगता और कोई भक्त को दूर से ही देखकर धूलि में लोटकर साष्‍टांग प्रणाम ही करने लगता। भक्तों की शिक्षा के निमित्त वे भगवन्‍नामापराध की बड़ी भारी भर्त्‍सना करते और जब तक जिसके समीप वह अपराध हुआ है, उसके समीप क्षमा न करा लेते तब तक उस अपराधी के अपराध को क्षमा हुआ ही नहीं समझते थे। गोपाल चापाल ने श्रीवास पण्डित का अपराध किया था, इसी कारण उसके सम्‍पूर्ण शरीर मे गलित कुष्‍ठ हो गया था, वह अपने दु:ख से दु:खी होकर प्रभु ने शरणापन्‍न हुआ और अपने अपराध को स्‍वीकार करते हुए उसने क्षमा-याचना के लिये प्रार्थना की। प्रभु ने स्‍पष्‍ट कह दिया- ‘इसकी एक ही ओषधि है, जिन श्रीवास पण्डित का तुमने अपराध किया है, उन्‍हीं के चरणोदक को पान करो तो तुम्‍हारा अपराध क्षमा हो सकता है। मुझमें वैष्‍णवापरा‍धी को क्षमा करने की सामर्थ्‍य नहीं है।’ गोपाल चापाल ने ऐसा ही किया। श्रीवास के चरणोदक को निष्‍कपट भाव से प्रेमपूर्वक पीने ही से उसका कुष्‍ठ चला गया।

टीका टिप्पणी
*(1) सत्‍पुरुषों की निंदा, (2) भगवन्‍नामों में भेद-भाव, (3) गुरु का अपमान, (4) शास्‍त्र-निंदा, (5) भगवन्‍नाम मे अर्थवाद, (6) नाम का आश्रय ग्रहण करके पापकर्मों में प्रवृत्त होना, (7) धर्म, व्रत, जप आदि के साथ भगवन्‍नाम की तुलना करना, (8) जो भगवन्‍नाम को सुनना न चाहता हो उन्‍हें नाम का उपदेश करना, (9) नाम का माहात्‍म्‍य श्रवण करके नामों में प्रेम न होना, (10) अहंता-ममता तथा विषयभोगों में लगे रहना- ये दस नामापराध हैं।


साभार- krishnakosh.org

सिर पर तलवार के वार से मारी गई थीं, रानी लक्ष्मीबाई.


सिर पर तलवार के वार से
मारी गई थीं, रानी लक्ष्मीबाई.

अंग्रेज़ों की तरफ़ से कैप्टन रॉड्रिक ब्रिग्स पहला शख़्स था। जिसने रानी लक्ष्मीबाई को अपनी आँखों से लड़ाई के मैदान में लड़ते हुए देखा।

उन्होंने घोड़े की रस्सी अपने दाँतों से दबाई हुई थी। वो दोनों हाथों से तलवार चला रही थीं और एक साथ दोनों तरफ़ वार कर रही थीं।

उनसे पहले एक और अंग्रेज़ जॉन लैंग को रानी लक्ष्मीबाई को नज़दीक से देखने का मौका मिला था, लेकिन लड़ाई के मैदान में नहीं, उनकी हवेली में।

'रानी महल'में लक्ष्मी बाई.

लैंग का जन्म ऑस्ट्रेलिया में हुआ था और वो मेरठ में एक अख़बार, 'मुफ़ुस्सलाइट' निकाला करते थे।

लैंग अच्छी ख़ासी फ़ारसी और हिंदुस्तानी बोल लेते थे और ईस्ट इंडिया कंपनी का प्रशासन, उन्हें पसंद नहीं करता था क्योंकि वो हमेशा उन्हें घेरने की कोशिश किया करते थे।

जब लैंग पहली बार झाँसी आए तो रानी ने उनको लेने के लिए घोड़े का एक रथ आगरा भेजा था।

उनको झाँसी लाने के लिए रानी ने अपने दीवान और एक अनुचर को आगरा रवाना किया।

अनुचर के हाथ में बर्फ़ से भरी बाल्टी थी जिसमें पानी, बीयर और चुनिंदा वाइन्स की बोतलें रखी हुई थीं। पूरे रास्ते एक नौकर लैंग को पंखा करते आया था।

झाँसी पहुंचने पर लैंग को पचास घुड़सवार एक पालकी में बैठा कर 'रानी महल' लाए जहाँ के बगीचे में रानी ने एक शामियाना लगवाया हुआ था।

मलमल की साड़ी.

रानी लक्ष्मीबाई शामियाने के एक कोने में एक पर्दे के पीछे बैठी हुई थी।. तभी अचानक रानी के दत्तक पुत्र दामोदर ने वो पर्दा हटा दिया।

लैंग की नज़र रानी के ऊपर गई। बाद में रेनर जेरॉस्च ने एक किताब लिखी, 'द रानी ऑफ़ झाँसी, रेबेल अगेंस्ट विल.'

किताब में रेनर जेरॉस्च ने जॉन लैंग को कहते हुए बताया, 'रानी मध्यम कद की तगड़ी महिला थीं। अपनी युवावस्था में उनका चेहरा बहुत सुंदर रहा होगा, लेकिन अब भी उनके चेहरे का आकर्षण कम नहीं था। मुझे एक चीज़ थोड़ी अच्छी नहीं लगी, उनका चेहरा ज़रूरत से ज़्यादा गोल था। हाँ, उनकी आँखें बहुत सुंदर थीं और नाक भी काफ़ी नाज़ुक थी। उनका रंग बहुत गोरा नहीं था। उन्होंने एक भी ज़ेवर नहीं पहन रखा था, सिवाए सोने की बालियों के। उन्होंने सफ़ेद मलमल की साड़ी पहन रखी थी, जिसमें उनके शरीर का रेखांकन साफ़ दिखाई दे रहा था। जो चीज़ उनके व्यक्तित्व को थोड़ा बिगाड़ती थी- वो थी, उनकी फटी हुई आवाज़.'

रानी के घुड़सवार.

बहरहाल कैप्टन रॉड्रिक ब्रिग्स ने तय किया कि वो ख़ुद आगे जा कर रानी पर वार करने की कोशिश करेंग।.

लेकिन जब-जब वो ऐसा करना चाहते थे, रानी के घुड़सवार उन्हें घेर कर, उन पर हमला कर देते थे। उनकी पूरी कोशिश थी कि वो उनका ध्यान भंग कर दें।

कुछ लोगों को घायल करने और मारने के बाद रॉड्रिक ने अपने घोड़े को एड़ लगाई और रानी की तरफ़ बढ़ चले थे।

उसी समय अचानक रॉड्रिक के पीछे से जनरल रोज़ की अत्यंत निपुण ऊँट की टुकड़ी ने एंट्री ली। इस टुकड़ी को रोज़ ने रिज़र्व में रख रखा था।

इसका इस्तेमाल वो जवाबी हमला करने के लिए करते थे। इस टुकड़ी के अचानक लड़ाई में कूदने से ब्रिटिश खेमे में फिर से जान आ गई। रानी इसे फ़ौरन भाँप गईं।

उनके सैनिक मैदान से भागे नहीं, लेकिन धीरे-धीरे उनकी संख्या कम होनी शुरू हो गई।

ब्रिटिश सैनिक.

उस लड़ाई में भाग ले रहे जॉन हेनरी सिलवेस्टर ने अपनी किताब 'रिकलेक्शंस ऑफ़ द कैंपेन इन मालवा एंड सेंट्रल इंडिया' में लिखा, "अचानक रानी ज़ोर से चिल्लाई, 'मेरे पीछे आओ.' पंद्रह घुड़सवारों का एक जत्था उनके पीछे हो लिया। वो लड़ाई के मैदान से इतनी तेज़ी से हटीं कि अंग्रेज़ सैनिकों को इसे समझ पाने में कुछ सेकेंड लग गए। अचानक रॉड्रिक ने अपने साथियों से चिल्ला कर कहा, 'दैट्स दि रानी ऑफ़ झाँसी, कैच हर.'"

रानी और उनके साथियों ने भी एक मील ही का सफ़र तय किया था कि कैप्टेन ब्रिग्स के घुड़सवार उनके ठीक पीछे आ पहुंच।. जगह थी, कोटा की सराय।

लड़ाई नए सिरे से शुरू हुई। रानी के एक सैनिक के मुकाबले में औसतन दो ब्रिटिश सैनिक लड़ रहे थे। अचानक रानी को अपने बायें सीने में हल्का-सा दर्द महसूस हुआ, जैसे किसी सांप ने उन्हें काट लिया हो।

एक अंग्रेज़ सैनिक ने जिसे वो देख नहीं पाईं थीं, उनके सीने में संगीन भोंक दी थी. वो तेज़ी से मुड़ीं और अपने ऊपर हमला करने वाले पर पूरी ताकत से तलवार लेकर टूट पड़ीं।

राइफ़ल की गोली.

रानी को लगी चोट बहुत गहरी नहीं थी, लेकिन उसमें बहुत तेज़ी से ख़ून निकल रहा था. अचानक घोड़े पर दौड़ते-दौड़ते उनके सामने एक छोटा-सा पानी का झरना आ गया।

उन्होंने सोचा वो घोड़े की एक छलांग लगाएंगी और घोड़ा झरने के पार हो जाएगा। तब उनको कोई भी नहीं पकड़ सकेगा।

उन्होंने घोड़े में एड़ लगाई, लेकिन वो घोड़ा छलाँग लगाने के बजाए इतनी तेज़ी से रुका कि वो क़रीब क़रीब उसकी गर्दन के ऊपर लटक गईं।

उन्होंने फिर एड़ लगाई, लेकिन घोड़े ने एक इंच भी आगे बढ़ने से इंकार कर दिया। तभी उन्हें लगा कि उनकी कमर में बाई तरफ़ किसी ने बहुत तेज़ी से वार हुआ है।

उनको राइफ़ल की एक गोली लगी थी। रानी के बांए हाथ की तलवार छूट कर ज़मीन पर गिर गई।

उन्होंने उस हाथ से अपनी कमर से निकलने वाले ख़ून को दबा कर रोकने की कोशिश की।

रानी पर जानलेवा हमला.

एंटोनिया फ़्रेज़र अपनी पुस्तक, 'द वॉरियर क्वीन' में लिखती हैं, "तब तक एक अंग्रेज़ रानी के घोड़े की बगल में पहुंच चुका था। उसने रानी पर वार करने के लिए अपनी तलवार ऊपर उठाई। रानी ने भी उसका वार रोकने के लिए दाहिने हाथ में पकड़ी अपनी तलवार ऊपर की। उस अंग्रेज़ की तलवार उनके सिर पर इतनी तेज़ी से लगी कि उनका माथा फट गया और वो उसमें निकलने वाले ख़ून से लगभग अंधी हो गईं."

तब भी रानी ने अपनी पूरी ताकत लगा कर उस अंग्रेज़ सैनिक पर जवाबी वार किया। लेकिन वो सिर्फ़ उसके कंधे को ही घायल कर पाई। रानी घोड़े से नीचे गिर गईं।

तभी उनके एक सैनिक ने अपने घोड़े से कूद कर उन्हें अपने हाथों में उठा लिया और पास के एक मंदिर में ले गया। रानी तब तक जीवित थीं।

मंदिर के पुजारी ने उनके सूखे हुए होठों को एक बोतल में रखा गंगा जल लगा कर तर किया। रानी बहुत बुरी हालत में थीं। धीरे-धीरे वो अपने होश खो रही थीं।

उधर, मंदिर के अहाते के बाहर लगातार फ़ायरिंग चल रही थी। अंतिम सैनिक को मारने के बाद अंग्रेज़ सैनिक समझे कि उन्होंने अपना काम पूरा कर दिया है।

दामोदर के लिए.

तभी रॉड्रिक ने ज़ोर से चिल्ला कर कहा, "वो लोग मंदिर के अंदर गए हैं। उन पर हमला करो। रानी अभी भी ज़िंदा है."

उधर, पुजारियों ने रानी के लिए अंतिम प्रार्थना करनी शुरू कर दी थी। रानी की एक आँख अंग्रेज़ सैनिक की कटार से लगी चोट के कारण बंद थी।

उन्होंने बहुत मुश्किल से अपनी दूसरी आँख खोली। उन्हें सब कुछ धुंधला दिखाई दे रहा था और उनके मुंह से रुक-रुक कर शब्द निकल रहे थे, "....दामोदर... मैं उसे तुम्हारी... देखरेख में छोड़ती हूँ... उसे छावनी ले जाओ... दौड़ो उसे ले जाओ."

बहुत मुश्किल से उन्होंने अपने गले से मोतियों का हार निकालने की कोशिश की। लेकिन वो ऐसा नहीं कर पाई और फिर बेहोश हो गईं।

मंदिर के पुजारी ने उनके गले से हार उतार कर उनके एक अंगरक्षक के हाथ में रख दिया, "इसे रखो... दामोदर के लिए."

रानी का पार्थिव शरीर.

रानी की साँसे तेज़ी से चलने लगी थीं। उनकी चोट से ख़ून निकल कर उनके फेफड़ों में घुस रहा था। धीरे-धीरे वो डूबने लगी थीं। अचानक जैसे उनमें फिर से जान आ गई।

वो बोलीं, "अंग्रेज़ों को मेरा शरीर नहीं मिलना चाहिए।" ये कहते ही उनका सिर एक ओर लुड़क गया। उनकी साँसों में एक और झटका आया और फिर सब कुछ शांत हो गया।

झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई ने अपने प्राण त्याग दिए थे। वहाँ मौजूद रानी के अंगरक्षकों ने आनन-फ़ानन में कुछ लकड़ियाँ जमा की और उन पर रानी के पार्थिव शरीर को रख आग लगा दी थी।

उनके चारों तरफ़ रायफ़लों की गोलियों की आवाज़ बढ़ती चली जा रही थी। मंदिर की दीवार के बाहर अब तक सैकड़ों ब्रिटिश सैनिक पहुंच गए थे।

मंदिर के अंदर से सिर्फ़ तीन रायफ़लें अंग्रेज़ों पर गोलियाँ बरसा रही थीं। पहले एक रायफ़ल शांत हुई... फिर दूसरी और फिर तीसरी रायफ़ल भी शांत हो गई।

चिता की लपटें.

जब अंग्रेज़ मंदिर के अंदर घुसे तो वहाँ से कोई आवाज़ नहीं आ रही थी। सब कुछ शांत था। सबसे पहले रॉड्रिक ब्रिग्स अंदर घुसे।

वहाँ रानी के सैनिकों और पुजारियों के कई दर्जन रक्तरंजित शव पड़े हुए थे। एक भी आदमी जीवित नहीं बचा था। उन्हें सिर्फ़ एक शव की तलाश थी।

तभी उनकी नज़र एक चिता पर पड़ी, जिसकीं लपटें अब धीमी पड़ रही थीं। उन्होंने अपने बूट से उसे बुझाने की कोशिश की।

तभी उसे मानव शरीर के जले हुए अवशेष दिखाई दिए। रानी की हड्डियाँ क़रीब-क़रीब राख बन चुकी थी।

इस लड़ाई में लड़ रहे कैप्टन क्लेमेंट वॉकर हेनीज ने बाद में रानी के अंतिम क्षणों का वर्णन करते हुए लिखा, "हमारा विरोध ख़त्म हो चुका था, सिर्फ़ कुछ सैनिकों से घिरी और हथियारों से लैस एक महिला अपने सैनिकों में कुछ जान फूंकने की कोशिश कर रही थी। बार-बार वो इशारों और तेज़ आवाज़ से हार रहे सैनिकों का मनोबल बढ़ाने का प्रयास करती थी, लेकिन उसका कुछ ख़ास असर नहीं पड़ रहा था। कुछ ही मिनटों में हमने उस महिला पर भी काबू पा लिया। हमारे एक सैनिक की कटार का तेज़ वार उसके सिर पर पड़ा और सब कुछ समाप्त हो गया। बाद में पता चला कि वो महिला और कोई नहीं स्वयं झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई थी।"

तात्या टोपे.

रानी के बेटे दामोदर को लड़ाई के मैदान से सुरक्षित ले जाया गया। इरा मुखोटी अपनी किताब 'हीरोइंस' में लिखती हैं, "दामोदर ने दो साल बाद 1860 में अंग्रेज़ों के सामने आत्म समर्पण किया। बाद में उसे अंग्रेज़ों ने पेंशन भी दी। 58 साल की उम्र में उनकी मौत हुई। जब वो मरे तो वो पूरी तरह से कंगाल थे। उनके वंशज अभी भी इंदौर में रहते हैं और अपने आप को 'झाँसीवाले' कहते हैं।"

दो दिन बाद जयाजीराव सिंधिया ने इस जीत की खुशी में जनरल रोज़ और सर रॉबर्ट हैमिल्टन के सम्मान में ग्वालियर में भोज दिया।

रानी की मौत के साथ ही विद्रोहियों का साहस टूट गया और ग्वालियर पर अंग्रेज़ों का कब्ज़ा हो गय।

नाना साहब वहाँ से भी बच निकले, लेकिन तात्या टोपे के साथ उनके अभिन्न मित्र नवाड़ के राजा ने ग़द्दारी की।

तात्या टोपे पकड़े गए और उन्हें ग्वालियर के पास शिवपुरी ले जा कर, एक पेड़ से फाँसी पर लटका दिया गया।



 (साभार-बीबीसी)