श्रीमद्भागवत महापुराण: चतुर्थ स्कन्ध: पञ्चाविंश अध्यायः श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद


(लगातार-सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत पुराण)
श्रीमद्भागवत महापुराण:
चतुर्थ स्कन्ध: पञ्चाविंश अध्यायः श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद

पुरंजनोपाख्यान का प्रारम्भ.

श्रीमैत्रेय जी कहते हैं- विदुर जी! इस प्रकार भगवान् शंकर ने प्रचेताओं को उपदेश दिया। फिर प्रचेताओं ने शंकर जी की बड़े भक्तिभाव से पूजा की। इसके पश्चात् वे उन राजकुमारों के सामने ही अन्तर्धान हो गये। सब-के-सब प्रचेता जल में खड़े रहकर भगवान् रुद्र के बताये स्तोत्र का जप करते हुए दस हजार वर्ष तक तपस्या करते रहे। इन दिनों राजा प्राचीनबर्हि का चित्त कर्मकाण्ड में बहुत रम गया था। उन्हें अध्यात्मविद्या-विशारद परम कृपालु नारद जी ने उपदेश दिया। उन्होंने कहा कि ‘राजन्! इन कर्मों के द्वारा तुम अपना कौन-सा कल्याण करना चाहते हो? दुःख के अत्यान्तिक नाश और पमानन्द की प्राप्ति का नाम कल्याण है; वह तो कर्मों से नहीं मिलता।

राजा ने कहा- महाभाग नारद जी! मेरी बुद्धि कर्म में फँसी हुई है, इसलिये मुझे परम कल्याण का कोई पता नहीं है। आप मुझे विशुद्ध ज्ञान का उपदेश दीजिये, जिससे मैं कर्मबन्धन से छूट जाऊँ। जो पुरुष कपटधर्ममय गृहस्थाश्रम में ही रहता हुआ पुत्र, स्त्री और धन को ही परम पुरुषार्थ मानता है, वह अज्ञानवश संसारारण्य में ही भटकता रहने के कारण उस परम कल्याण को प्राप्त नहीं कर सकता।

श्रीनारद जी ने कहा- देखो, देखो, राजन्! तुमने यज्ञ में निर्दयतापूर्वक जिन हजारों पशुओं की बलि दी है- उन्हें आकाश में देखो। ये सब तुम्हारे द्वारा प्राप्त हुई पीड़ाओं को याद करते हुए बदला लेने के लिये तुम्हारी बाट देख रहे हैं। जब तुम मरकर परलोक में जाओगे, तब ये अत्यन्त क्रोध में भरकर तुम्हें अपने लोहे के-से सींगों से छेदेंगे। अच्छा, इस विषय में मैं तुम्हें एक प्राचीन उपाख्यान सुनाता हूँ। वह राजा पुरंजन का चरित्र है, उसे तुम मुझसे सावधान होकर सुनो।

राजन्! पूर्वकाल में पुरंजन नाम का एक बड़ा यशस्वी राजा था। उसका अविज्ञात नामक एक मित्र था। कोई भी उसकी चेष्टाओं को समझ नहीं सकता था। राजा पुरंजन अपने रहने योग्य स्थान की खोज में सारी पृथ्वी में घूमा; फिर भी जब उसे कोई अनुरूप स्थान न मिला, तब वह कुछ उदास-सा हो गया। उसे तरह-तरह के भोगों की लालसा थी; उन्हें भोगने के लिये उसने संसार में जितने नगर देखे, उनमें से कोई भी उसे ठीक न जँचा।

एक दिन उसने हिमालय के दक्षिण तटवर्ती शिखरों पर कर्मभूमि भारतखण्ड में एक नौ द्वारों का नगर देखा। वह सब प्रकार के सुलक्षणों से सपन्न था। सब ओर से परकोटों, बगीचों, अटारियों, खाइयों, झरोखों और राजद्वारों से सुशोभित था और सोने, चाँदी तथा लोहे के शिखरों वाले विशाल भवनों से खचाखच भरा था। उसके महलों की फर्शें नीलम, स्फटिक, वैदूर्य, मोती, पन्ने और लालों की बनी हुई थीं। अपनी कान्ति के कारण वह नागों की राजधानी भोगवतीपुरी के समान जान पड़ता था। उसमें जहाँ-तहाँ अनेकों सभा-भवन, चौराहे, सड़कें, क्रीड़ाभवन, बाजार, विश्राम-स्थान, ध्वजा-पताकाएँ और मूँगे के चबूतरे सुशोभित थे। उस नगर के बाहर दिव्य वृक्ष और लताओं से पूर्ण एक सुन्दर बाग़ था; उसके बीच में एक सरोवर सुशोभित था। उसके आस-पास अनेकों पक्षी भाँति-भाँति की बोली बोल रहे थे तथा भौंरे गुंजार कर रहे थे। सरोवर के तट पर जो वृक्ष थे, उनकी डालियाँ और पत्ते शीतल झरनों के जलकणों से मिली हुई वासन्ती वायु के झरोकों से हिल रहे थे और इस प्रकार वे तटवर्ती भूमि की शोभा बढ़ा रहे थे।

साभार krishnakosh.org

श्रीमद्भागवत महापुराण: चतुर्थ स्कन्ध: चतुर्विंश अध्यायः श्लोक 69-79 का हिन्दी अनुवाद


(लगातार-सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत पुराण)
श्रीमद्भागवत महापुराण:
चतुर्थ स्कन्ध: चतुर्विंश अध्यायः श्लोक 69-79 का हिन्दी अनुवाद

राजकुमारों! तुम लोग विशुद्ध भाव से स्वधर्म का आचरण करते हुए भगवान् में चित्त लगाकर मेरे कहे हुए इस स्तोत्र का जप करते रहो; भगवान् तुम्हारा मंगल करेंगे। तुम लोग अपने अन्तःकरण में स्थित उन सर्वभूतान्तर्यामी परमात्मा श्रीहरि का ही बार-बार स्तवन और चिन्तन करते हुए पूजन करो। मैंने तुम्हें यह योगादेश नाम का स्तोत्र सुनाया है। तुम लोग इसे मन से धारण कर मुनिव्रत का आचरण करते हुए इसका एकाग्रता से आदरपूर्वक अभ्यास करो। यह स्तोत्र पूर्वकाल में जगद्विस्तार के इच्छुक प्रजापतियों के पति भगवान् ब्रह्मा जी ने प्रजा उत्पन्न करने की इच्छा वाले हम भृगु आदि अपने पुत्रो को सुनाया था। जब हम प्रजापतियों को प्रजा का विस्तार करने की आज्ञा हुई, तब इसी के द्वारा हमने अपना अज्ञान निवृत्त करके अनेक प्रकार की प्रजा उत्पन्न की थी। अब भी जो भगवत्परायण पुरुष इसका एकाग्रचित्त से नित्यप्रति जप करेगा, उसका शीघ्र ही कल्याण हो जायेगा।

इस लोक में सब प्रकार के कल्याण-साधनों में मोक्षदायक ज्ञान ही सबसे श्रेष्ठ है। ज्ञान-नौका पर चढ़ा हुआ पुरुष अनायास ही इस दुस्तर संसार सागर को पार कर लेता है। यद्यपि भगवान् की आराधना बहुत कठिन है-किन्तु मेरे कहे हुए इस स्तोत्र का जो श्रद्धापूर्वक पाठ करेगा, वह सुगमता से ही उनकी प्रसन्नता प्राप्त कर लेगा। भगवान् ही सम्पूर्ण कल्याण साधनों के एकमात्र प्यारे-प्राप्तव्य हैं। अतः मेरे गाये हुए इस स्तोत्र के गान से उन्हें प्रसन्न करके वह स्थिरचित्त होकर उनसे जो कुछ चाहेगा, प्राप्त कर लेगा। जो पुरुष उषःकाल में उठकर इसे श्रद्धापूर्वक हाथ जोड़कर सुनता या सुनाता है, वह सब प्रकार के कर्मबन्धनों से मुक्त हो जाता है। राजकुमारों! मैंने तुम्हें जो यह परमपुरुष परमात्मा का स्तोत्र सुनाया है, इसे एकाग्रचित्त से जपते हुए तुम महान् तपस्या करो। तपस्या पूर्ण होने पर इसी से तुम्हें अभीष्ट फल प्राप्त हो जायेगा।



साभार krishnakosh.org

श्रीमद्भागवत महापुराण: चतुर्थ स्कन्ध: चतुर्विंश अध्यायः श्लोक 60-68 का हिन्दी अनुवाद


(लगातार-सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत पुराण)
श्रीमद्भागवत महापुराण:
चतुर्थ स्कन्ध: चतुर्विंश अध्यायः श्लोक 60-68 का हिन्दी अनुवाद

जिसमें यह सारा जगत् दिखायी देता है और जो स्वयं सम्पूर्ण जगत् में भास रहा है, वह आकाश के समान विस्तृत और परम प्रकाशमय ब्रह्मतत्त्व आप ही हैं। भगवन्! आपकी माया अनेक प्रकार के रूप धारण करती है। इसी के द्वारा आप इस प्रकार जगत् की रचना, पालन और संहार करते हैं जैसे यह कोई सद्वस्तु हो। किन्तु इससे आपमें किसी प्रकार का विकार नहीं आता। माया के कारण दूसरे लोगों में ही भेदबुद्धि उत्पन्न होती है, आप परमात्मा पर वह अपना प्रभाव डालने में असमर्थ होती है। आपको तो हम परम स्वतन्त्र ही समझते हैं। आपका स्वरूप पंचभूत, इन्द्रिय और अन्तःकरण के प्रेरकरूप से उपलक्षित होता है। जो कर्मयोगी पुरुष सिद्धि प्राप्त करने के लिये तरह-तरह के कर्मों द्वारा आपके इस सगुण साकार स्वरूप का श्रद्धापूर्वक भलीभाँति पूजन करते हैं, वे ही वेद और शास्त्रों के सच्चे मर्मज्ञ हैं।

प्रभो! आप ही अद्वितीय आदि पुरुष हैं। सृष्टि के पूर्व आपकी मायाशक्ति सोयी रहती है। फिर उसी के द्वारा सत्त्व, रज और तमरूप गुणों का भेद होता है और इसके बाद उन्हीं गुणों से महत्तत्त्व, अहकार, आकाश, वायु, अग्नि, जल, पृथ्वी, देवता, ऋषि और समस्त प्राणियों से युक्त इस जगत् की उत्पत्ति होती है। फिर आप अपनी ही मायाशक्ति से रचे हुए इन जरायुज, अण्डज, स्वेदज और उद्भिज्ज भेद से चार प्रकार के शरीरों में अंशरूप से प्रवेश कर जाते हैं और जिस प्रकार मधुमक्खियाँ अपने ही उत्पन्न किये हुए मधु का आस्वादन करती हैं, उसी प्रकार वह आपका अंश उन शरीरों में रहकर इन्द्रियों के द्वारा तुच्छ विषयों को भोगता है। आपके उस अंश को ही पुरुष जीव कहते हैं।

प्रभो! आपका तत्त्वज्ञान प्रत्यक्ष से नहीं अनुमान से होता है। प्रलयकाल उपस्थित होने पर कालस्वरूप आप ही अपने प्रचण्ड एवं असह्य वेग से पृथ्वी आदि भूतों को अन्य भूतों से विचलित कराकर समस्त लोकों का संहार कर देते हैं-जैसे वायु अपने असहनी एवं प्रचण्ड झोंकों से मेघों के द्वारा ही मेघों को तितर-बितर करके नष्ट कर डालती है। भगवन्! यह मोहग्रस्त जीव प्रमादवश हर समय इसी चिन्ता में रहता है कि ‘अमुक कार्य करना है’। इसका लोभ बढ़ गया है और इसे विषयों की ही लालसा बनी रहती है। किन्तु आप सदा ही सजग रहते हैं; भूख से जीभ लपलपाता हुआ सर्प जैसे चूहे को चट कर जाता है, उसी प्रकार अपने कालस्वरूप से उसे सहसा लील जाते हैं। आपकी अवहेलना करने के कारण अपनी आयु को व्यर्थ मानने वाला ऐसा कौन विद्वान् होगा, जो आपके चरणकमलों को बिसारेगा? इसकी पूजा तो काल की आशंका से ही हमारे पिता ब्रह्मा जी और स्वयाम्भुव आदि चौदह मनुओं ने भी बिना कोई विचार किये केवल श्रद्धा से ही की थी। ब्रह्मन्! इस प्रकार सारा जगत् रुद्ररूप काल के भय से व्याकुल है। अतः परमात्मन्! इस तत्त्व को जानने वाले हम लोगों के तो इस समय आप ही सर्वथा भयशून्य आश्रय हैं।


साभार krishnakosh.org

श्रीमद्भागवत महापुराण: चतुर्थ स्कन्ध: चतुर्विंश अध्यायः श्लोक 47-59 का हिन्दी अनुवाद


(लगातार-सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत पुराण)
श्रीमद्भागवत महापुराण:
चतुर्थ स्कन्ध: चतुर्विंश अध्यायः श्लोक 47-59 का हिन्दी अनुवाद

प्रीतिपूर्ण उन्मुक्त हास्य, तिरछी चितवन, काली-काली घुँघराली अलकें, कमलकुसुम की केसर के समान फहराता हुआ पीताम्बर, झिलमिलाते हुए कुण्डल, चमचमाते हुए मुकुट, कंकण, हार, नूपुर और मेखला आदि विचित्र आभूषण तथा शंख, चक्र, गदा, पद्म, वनमाला और कौस्तुभ मणि के कारण उसकी अपूर्व शोभा है। उसके सिंह के समान स्थूल कंधे हैं-जिन पर हार, केयूर एवं कुण्डलादि की कान्ति झिलमिलाती रहती है-तथा कौस्तुभ मणि की कान्ति से सुशोभित मनोहर ग्रीवा है। उसका श्यामल वक्षःस्थल श्रीवत्स-चिह्न के रूप में लक्ष्मी जी का नित्य निवास होने के कारण कसौटी की शोभा को भी मात करता है। उसका त्रिवली से सुशोभित, पीपल के पत्ते के समान सुडौल उदर श्वास के आने-जाने से हिलता हुआ बड़ा ही मनोहर जान पड़ता है। उसमें जो भँवर के समान चक्करदार नाभि है, वह इतनी गहरी है कि उससे उत्पन्न हुआ यह विश्व मानो फिर उसी में लीन होना चाहता है। श्यामवर्ण कटिभाग में पीताम्बर और सुवर्ण की मेखला शोभायमान है। समान और सुन्दर चरण, पिंडली, जाँघ और घुटनों के कारण आपका दिव्य विग्रह बड़ा ही सुघड़ जान पड़ता है।

आपके चरणकमलों की शोभा शरद्-ऋतु के कमल-दल की कान्ति का भी तिरस्कार करती है। उनके नखों से जो प्रकाश निकलता है, वह जीवों के हृदयान्धकार को तत्काल नष्ट कर देता है। हमें आप कृपा करके भक्तों के भयहारी एवं आश्रयस्वरूप उसी रूप का दर्शन कराइये। जगद्गुरो! हम अज्ञानवृत प्राणियों को अपनी प्राप्ति का मार्ग बतलाने वाले आप ही हमारे गुरु हैं।

प्रभो! चित्तशुद्धि की अभिलाषा रखने वाले पुरुष को आपके इस रूप का निरन्तर ध्यान करना चाहिये; इसकी भक्ति ही स्वधर्म का पालन करने वाले पुरुष को अभय करने वाले पुरुष को अभय करने वाली है। स्वर्ग का शासन करने वाला इन्द्र भी आपको ही पाना चाहता है तथा विशुद्ध आत्मज्ञानियों की गति भी आप ही हैं। इस प्रकार आप सभी देहधारियों के लिये अत्यन्त दुर्लभ हैं; केवल भक्तिमान् पुरुष ही आपको पा सकते हैं। सत्पुरुषों के लिये भी दुर्लभ अनन्य भक्ति से भगवान् को प्रसन्न करके, जिनकी प्रसन्नता किसी अन्य साधना से दुःसाध्य है, ऐसा कौन होगा जो उनके चरणतल के अतिरिक्त और कुछ चाहेगा।

जो काल अपने अदम्य उत्साह और पराक्रम से फड़कती हुए भौह के इशारे से सारे संसार को संहार कर डालता है, वह भी आपके चरणों की शरण में गये हुए प्राणी पर अपना अधिकार नहीं मानता। ऐसे भगवान् के प्रेमी भक्तों का यदि आधे क्षण के लिये भी समागम हो जाये तो उसके सामने मैं स्वर्ग और मोक्ष को कुछ नहीं समझता; फिर मर्त्यलोक के तुच्छ भोगों की तो बात ही क्या है। प्रभो! आपके चरण सम्पूर्ण पापराशि को हर लेने वाले हैं। हम तो केवल यही चाहते हैं कि जिन लोगों ने आपकी कीर्ति और तीर्थ (गंगाजी) में आन्तरिक और बाह्य स्नान करके मानसिक और शारीरिक दोनों प्रकार के पापों को धो डाला है तथा जो जीवों के प्रति दया, राग-द्वेषरहित चित्त तथा सरलता आदि गुणों से युक्त हैं, उन आपके भक्तजनों का संग हमें सदा प्राप्त होता रहे। यही हम पर आपकी बड़ी कृपा होगी। जिस साधक का चित्त भक्तियोग से अनुगृहीत एवं विशुद्ध होकर न तो बाह्य विषयों में भटकता है और न अज्ञान-गुहरूप प्रकृति में ही लीन होता है, वह अनायास ही आपके स्वरूप का दर्शन पा जाता है।

श्रीमद्भागवत महापुराण: चतुर्थ स्कन्ध: चतुर्विंश अध्यायः श्लोक 32-46 का हिन्दी अनुवाद


(लगातार-सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत पुराण)
श्रीमद्भागवत महापुराण:
चतुर्थ स्कन्ध: चतुर्विंश अध्यायः श्लोक 32-46 का हिन्दी अनुवाद

श्रीमैत्रेय जी कहते हैं- तब नारायणपरायण करुणार्द्रहृदय भगवान् शिव ने अपने सामने हाथ जोड़े खड़े हुए उन राजपुत्रों को यह स्तोत्र सुनाया।

भगवान् रुद्र स्तुति करने लगे- भगवन्! आपका उत्कर्ष उच्चकोटि के आत्मज्ञानियों के कल्याण के लिये-निजानन्द लाभ के लिये है, उससे मेरा भी कल्याण हो। आप सर्वदा अपने निरतिशय परमानन्दस्वरूप में ही स्थित रहते हैं, ऐसे सर्वात्मक आत्मस्वरूप आपको नमस्कार है। आप पद्मनाभ (समस्त लोकों के आदिकारण) हैं; भूतसूक्ष्म (तन्मात्र) और इन्द्रियों के नियन्ता, शान्त, एकरस और स्वयंप्रकाश वासुदेव (चित्त के अधिष्ठाता) भी आप ही हैं; आपको नमस्कार है। आप ही सूक्ष्म (अव्यक्त), अनन्त और मुखाग्नि के द्वारा सम्पूर्ण लोकों का संहार करने वाले अहंकार के अधिष्ठाता संकर्षण तथा जगत् के प्रकृष्ट ज्ञान के उद्गमस्थान बुद्धि के अधिष्ठाता प्रद्युम्न हैं; आपको नमस्कार है। आप ही इन्द्रियों के स्वामी, मनस्तत्त्व के अधिष्ठाता भगवान् अनिरुद्ध हैं; आपको बार-बार नमस्कार है। आप अपने तेज से जगत् को व्याप्त करने वाले सूर्यदेव हैं, पूर्ण होने के कारण आपमें वृद्धि और क्षय नहीं होता; आपको नमस्कार है।

आप स्वर्ग और मोक्ष के द्वार तथा निरन्तर पवित्र हृदय में रहने वाले हैं, आपको नमस्कार है। आप ही सुवर्णरूप वीर्य से युक्त और चातुर्होत्र कर्म के साधन तथा विस्तार करने वाले अग्निदेव हैं; आपको नमस्कार है। आप पितर और देवताओं के पोषक सोम हैं तथा तीनों वेदों के अधिष्ठाता हैं; हम आपको नमस्कार करते हैं, आप ही समस्त प्राणियों को तृप्त करने वाले सर्वरस (जल) रूप हैं; आपको नमस्कार है। आप समस्त प्राणियों के देह, पृथ्वी और विराट्स्वरूप हैं तथा त्रिलोकी की रक्षा करने वाले मानसिक, एन्द्रियिक और शारीरिक शक्तिस्वरूप वायु (प्राण) हैं; आपको नमस्कार है। आप ही अपने गुण शब्द के द्वारा-समस्त पदार्थों का ज्ञान कराने वाले तथा बाहर-भीतर का भेद करने वाले आकाश हैं तथा आप ही महान् पुण्यों से प्राप्त होने वाले परम तेजोमय स्वर्ग-वैकुण्ठादि लोक हैं; आपको पुनः-पुनः नमस्कार है। आप पितृलोक की प्राप्ति कराने वाले प्रवृत्ति-कर्मरूप और देवलोक की प्राप्ति के साधन निवृत्ति-कर्मरूप हैं तथा आप ही अधर्म के फलस्वरूप दुःखदायक मृत्यु हैं; आपको नमस्कार है।

नाथ! आप ही पुराणपुरुष तथा सांख्य और योग के अधीश्वर भगवान् श्रीकृष्ण हैं; आप सब प्रकार की कामनाओं की पूर्ति के कारण, साक्षात् मन्त्रमूर्ति और महान् धर्मस्वरूप हैं; आपकी ज्ञानशक्ति किसी भी प्रकार कुण्ठित होने वाली नहीं है; आपको नमस्कार है, नमस्कार है। आप ही कर्ता, करण और कर्म- तीनों शक्तियों के एकमात्र आश्रय हैं; आप ही अहंकार के अधिष्ठाता रुद्र हैं; आप ही ज्ञान और क्रियास्वरूप हैं तथा आपसे ही परा, पश्यन्ती, मध्यमा और वैखरी-चार प्रकार की वाणी की अभिव्यक्ति होती है; आपको नमस्कार है।

प्रभो! हमें आपके दर्शनों की अभिलाषा है; अतः आपके भक्तजन जिसका पूजन करते हैं और जो आपके निजजनों को अत्यन्त प्रिय है, अपने उस अनूप रूप की आप हमें झाँकी कराइये। आपका वह रूप अपने गुणों से समस्त इन्द्रियों को तृप्त करने वाला है। वह वर्षाकालीन मेघ के समान स्निग्ध श्याम और सम्पूर्ण सौन्दर्यों का सार-सर्वस्व है। सुन्दर चार विशाल भुजाएँ, महामनोहर मुखारविन्द, कमलदल के समान नेत्र, सुन्दर भौंहें, सुघड़ नासिका, मनमोहिनी दन्तपंक्ति, अमोल कपोलयुक्त मनोहर मुखमण्डल और शोभावाली समान कर्ण-युगल हैं।

श्रीमद्भागवत महापुराण: चतुर्थ स्कन्ध: चतुर्विंश अध्यायः श्लोक 16-31 का हिन्दी अनुवाद


(लगातार-सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत पुराण)
श्रीमद्भागवत महापुराण:
चतुर्थ स्कन्ध: चतुर्विंश अध्यायः श्लोक 16-31 का हिन्दी अनुवाद

विदुर जी ने पूछा- ब्रह्मन्! मार्ग में प्रचेताओं का श्रीमहादेव जी के साथ किस प्रकार समागम हुआ और उन पर प्रसन्न होकर भगवान् शंकर ने उन्हें क्या उपदेश किया, वह सारयुक्त बात आप कृपा करके मुझसे कहिये। ब्रह्मर्षे! शिव जी के साथ समागम होना तो देहधारियों के लिय बहुत कठिन है। औरों की तो बात ही क्या है-मुनिजन भी सब प्रकार की आसक्ति छोड़कर उन्हें पाने के लिये उनका निरन्तर ध्यान ही किया करते हैं, किन्तु सहज में पाते नहीं। यद्यपि भगवान् शंकर आत्माराम हैं, उन्हें अपने लिये न कुछ करना है, न पाना, तो भी इस लोकसृष्टि की रक्षा के लिये वे अपनी घोररूपा शक्ति (शिवा) के साथ सर्वत्र विचरते रहते हैं।

श्रीमैत्रेय जी ने कहा- विदुर जी! साधुस्वभाव प्रचेतागण पिता की आज्ञा शिरोधार्य कर तपस्या में चित्त लगा पश्चिम की ओर चल दिये। चलते-चलते उन्होंने समुद्र के समान विशाल एक सरोवर देखा। वह महापुरुषों के चित्त के समान बड़ा ही स्वच्छ था तथा उसमें रहने वाले मत्स्यादि जलजीव भी प्रसन्न जान पड़ते थे। उसमें नीलकमल, लालकमल, रात में, दिन में और सायंकाल में खिलने वाले कमल तथा इन्दीवर आदि अन्य कई प्रकार के कमल सुशोभित थे। उसके तटों पर हंस, सारस, चकवा और कारण्डव आदि जलपक्षी चहक रहे थे। उसके चारों ओर तरह-तरह के वृक्ष और लताएँ थीं, उन पर मतवाले भौंरे गूँज रहे थे। उसकी मधुर ध्वनि से हर्षित होकर मानो उन्हें रोमांच हो रहा था। कमलकोश के परागपुंज वायु के झरोकों से चारों ओर उड़ रहे थे। मानो वहाँ कोई उत्सव हो रहा है। वहाँ मृदंग, पणव आदि बाजों के साथ अनेकों दिव्य राग-रागिनियों के क्रम से गायन की मधुर ध्वनि सुनकर उन राजकुमारों को बड़ा आश्चर्य हुआ। इतने में ही उन्होंने देखा कि देवाधिदेव भगवान् शंकर अपने अनुचरों के सहित उस सरोवर से बाहर आ रहे हैं। उनका शरीर तपी हुई सुवर्णराशि के समान कान्तिमान् है, कण्ठ नीलवर्ण है तथा तीन विशाल नेत्र हैं। वे अपने भक्तों पर अनुग्रह करने के लिये उद्यत हैं। अनेकों गन्धर्व उनका सुयश गा रहे हैं। उनका सहसा दर्शन पाकर प्रचेताओं को बड़ा कुतूहल हुआ और उन्होंने शंकर जी के चरणों में प्रणाम किया। तब शरणागत भयहारी धर्मवत्सल भगवान् शंकर ने अपने दर्शन से प्रसन्न हुए उन धर्मज्ञ और शीलसम्पन्न राजकुमारों से प्रसन्न होकर कहा।

श्रीमहादेव जी बोले- तुम लोग राजा प्राचीनबर्हि के पुत्र हो, तुम्हारा कल्याण हो। तुम जो कुछ करना चाहते हो, वह भी मुझे मालूम है। इस समय तुम लोगों पर कृपा करने के लिये ही मैंने तुम्हें इस प्रकार दर्शन दिया है। जो व्यक्ति अव्यक्त प्रकृति तथा जीवसंज्ञकपुरुष-इन दोनों के नियामक भगवान् वासुदेव की साक्षात् शरण लेता है, वह मुझे परम प्रिय है। अपने वर्णाश्रम धर्म का भलीभाँति पालन करने वाला पुरुष सौ जन्म के बाद ब्रह्मा के पद को प्राप्त होता है और इससे भी अधिक पुण्य होने पर वह मुझे प्राप्त होता है। परन्तु जो भगवान् का अनन्य भक्त है, वह तो मृत्यु के बाद ही सीधे भगवान् विष्णु के उस सर्वप्रपंचातीत परमपद को प्राप्त हो जाता है, जिसे रुद्ररूप में स्थित मैं तथा अन्य आधिकारिक देवता अपने-अपने अधिकार की समाप्ति के बाद प्राप्त करेंगे। तुम लोग भगवद्भक्त होने के नाते मुझे भगवान् के समान ही प्यारे हो। इसी प्रकार भगवान् के भक्तों को भी मुझसे बढ़कर और कोई कभी प्रिय नहीं होता। अब मैं तुम्हें एक बड़ा ही पवित्र, मंगलमय और कल्याणकारी स्तोत्र सुनाता हूँ। इसका तुम लोग शुद्धभाव से जप करना।

श्रीमद्भागवत महापुराण: चतुर्थ स्कन्ध: चतुर्विंश अध्यायः श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद


(लगातार-सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत पुराण)
श्रीमद्भागवत महापुराण:
चतुर्थ स्कन्ध: चतुर्विंश अध्यायः श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद

पृथु की वंश परम्परा और प्रचेताओं को भगवान् रुद्र का उपदेश.

श्रीमैत्रेय जी कहते हैं- विदुर जी! महाराज पृथु के बाद उनके पुत्र परमयशस्वी विजिताश्व राजा हुए। उनका अपने छोटे भाइयों पर बड़ा स्नेह था, इसलिये उन्होंने चारों को एक-एक दिशा का अधिकार सौंप दिया। राजा विजिताश्व ने हर्यक्ष को पूर्व, धूम्रकेश को दक्षिण, वृक को पश्चिम और द्रविण को उत्तर दिशा का राज्य दिया। उन्होंने इन्द्र से अन्तर्धान होने की शक्ति प्राप्त की थी, इसलिये उन्हें ‘अन्तर्धान’ भी कहते थे। उनकी पत्नी का नाम शिखण्डिनी था। उससे उनके तीन सुपुत्र हुए। उनके नाम पावक, पवमान और शुचि थे। पूर्वकाल में वसिष्ठ जी का शाप होने से उपर्युक्त नाम के अग्नियों ने ही उनके रूप में जन्म लिया था। आगे चलकर योगमार्ग से ये फिर अग्निरूप हो गये। अन्तर्धान के नभस्वती नाम की पत्नी से एक और पुत्र-रत्न हविर्धान प्राप्त हुआ। महाराज अन्तर्धान बड़े उदार पुरुष थे। जिस समय इन्द्र उनके पिता के अश्वमेध यज्ञ का घोड़ा हरकर ले गये थे, उन्होंने पता लग जाने पर भी उनका वध नहीं किया था। राजा अन्तर्धान ने कर लेना, दण्ड देना, जुरमाना वसूल करना आदि कर्तव्यों को बहुत कठोर एवं दूसरों के लये कष्टदायक समझकर एक दीर्घकालीन यज्ञ में दीक्षित होने के बहाने अपना राज-काज छोड़ दिया। यज्ञकार्य में लगे रहने पर भी उन आत्मज्ञानी राजा ने भक्त भयंजन पूर्णतम परमात्मा की आराधना करके सुदृढ़ समाधि के द्वारा भगवान् के दिव्य लोक को प्राप्त किया। विदुर जी! हविर्धान की पत्नी हविर्धानी ने बर्हिषद्, गय, शुक्ल, कृष्ण, सत्य और जितव्रत नाम के छः पुत्र पैदा किये।

कुरुश्रेष्ठ विदुर जी! इनमें हविर्धान के पुत्र महाभाग बर्हिषद् यज्ञादि कर्मकाण्ड और योगाभ्यास में कुशल थे। उन्होंने प्रजापति का पद प्राप्त किया। उन्होंने एक स्थान के बाद दूसरे स्थान में लगातार इतने यज्ञ किये कि यह सारी भूमि पूर्व की ओर अग्रभाग करके फैलाये हुए कुशों से पट गयी थी (इसी से आगे चलकर वे ‘प्राचीनबर्हि’ नाम से विख्यात हुए)। राजा प्राचीनबर्हि ने ब्रह्मा जी के कहने से समुद्र की कन्या शतद्रुति से विवाह किया था। सर्वांगसुन्दरी किशोरी शतद्रुति सुन्दर वस्त्राभूषणों से सज-धजकर विवाह-मण्डप में जब भाँवर देने के लिये घूमने लगी, तब स्वयं अग्निदेव भी मोहित होकर उसे वैसे ही चाहने लगे जैसे शुकी को चाहा था।

नवविवाहिता शतद्रुति ने अपने नूपुरों की झनकार से ही दिशा-विदिशाओं के देवता, असुर, गन्धर्व, मुनि, सिद्ध, मनुष्य और नाग-सभी को वश में कर लिया था। शतद्रुति के गर्भ से प्राचीनबर्हि के प्रचेता नाम के दस पुत्र हुए। वे सब बड़े ही धर्मज्ञ तथा एक-से नाम और आचरण वाले थे। जब पिता ने उन्हें सन्तान उत्पन्न करने का आदेश दिया, तब उन सब ने तपस्या करने के लिये समुद्र में प्रवेश किया। वहाँ दस हजार वर्ष तक तपस्या करते हुए उन्होंने तप का फल देने वाले श्रीहरि की आराधना की। घर से तपस्या करने के लिये जाते समय मार्ग में श्रीमहादेव जी ने उन्हें दर्शन देकर कृपापूर्वक इस जिस तत्त्व का उपदेश दिया था, उसी का वे एकाग्रतापूर्वक ध्यान, जप और पूजन करते रहे।


साभार krishnakosh.org

श्रीमद्भागवत महापुराण: चतुर्थ स्कन्ध: त्रयोविंश अध्यायः श्लोक 15-28 का हिन्दी अनुवाद


(लगातार-सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत पुराण)
श्रीमद्भागवत महापुराण:
चतुर्थ स्कन्ध: त्रयोविंश अध्यायः श्लोक 15-28 का हिन्दी अनुवाद

फिर उसे और ऊपर की ओर ले जाते हुए क्रमशः ब्रह्मरन्ध्र में स्थिर किया। अब उन्हें किसी प्रकार के सांसारिक भोगों की लालसा नहीं रही। फिर यथास्थान विभाग करके प्राणवायु को समष्टि वायु में, पार्थिव शरीर को पृथ्वी में और शरीर के तेज को समष्टि तेज में लीन कर दिया। हृदयाकाशादि देहावच्छिन्न आकाश को महाकाश में और शरीरगत रुधिरादि जलीय अंश को समष्टि जल में लीन किया। इसी प्रकार फिर पृथ्वी को जल में, जल को तेज में, तेज को वायु में और वायु को आकाश में लीन किया। तदनन्तर मन को [सविकल्प ज्ञान में जिनके अधीन वह रहता है, उन इन्द्रियों में, इन्द्रियों को उनके कारणरूप तन्मात्राओं में और सूक्ष्मभूतों (तन्मात्राओं) के कारण अहंकार के द्वारा आकाश, इन्द्रिय और तन्मात्राओं को उसी अहंकार में लीन कर, अहंकार को महत्ततत्त्व में लीन किया। फिर सम्पूर्ण गुणों की अभिव्यक्ति करने वाले उस महत्तत्त्व को मायोपाधिक जीव में स्थित किया। तदनन्तर उस मायारूप जीव की उपाधि को भी उन्होंने ज्ञान और वैराग्य के प्रभाव से अपने शुद्ध ब्रह्मस्वरूप में स्थित होकर त्याग दिया।

महाराज पृथु की पत्नी महारानी अर्चि भी उनके साथ वन को गयी थीं। वे बड़ी सुकुमारी थीं, पैरों से भूमि का स्पर्श करने योग्य भी नहीं थीं। फिर भी उन्होंने अपने स्वामी के व्रत और नियमादि का पालन करते हुए उनकी खूब सेवा की और मुनिवृत्ति के अनुसार कन्द-मूल आदि से निर्वाह किया। इससे यद्यपि वे बहुत दुर्बल हो गयी थीं, तो भी प्रियतम के करस्पर्श से सम्मानित होकर उसी में आनन्द मानने के कारण उन्हें किसी प्रकार कष्ट नहीं होता था। अब पृथ्वी के स्वामी और अपने प्रियतम महाराज पृथु कि देह को जीवन के चेतना आदि सभी धर्मों से रहित देख उस सती ने कुछ देर विलाप किया। फिर पर्वत के ऊपर चिता बनाकर उसे उस चिता पर रख दिया। इसके बाद उस समय के सारे कृत्य कर नदी के जल में स्नान किया। अपने परम पराक्रमी पति को जलांजलि दे आकाशस्थित देवताओं की वन्दना की तथा तीन बार चिता की परिक्रमा कर पतिदेव के चरणों का ध्यान करती हुई अग्नि में प्रवेश कर गयी।

परमसाध्वी अर्चि को इस प्रकार अपने पति वीरवर पृथु का अनुगमन करते देख सहस्रों वरदायिनी देवियों ने अपने-अपने पतियों के साथ उनकी स्तुति की। वहाँ देवताओं के बाजे बजने लगे। उस समय उस मन्दराचल के शिखर पर वे देवांगनाएँ पुष्पों की वर्षा करती हुई आपस में इस प्रकार कहने लगीं। देवियों ने कहा- अहो! यह स्त्री धन्य है! इसने अपने पति राजराजेश्वर पृथु की मन-वाणी-शरीर से ठीक उसी प्रकार सेवा की है, जैसे श्रीलक्ष्मी जी यज्ञेश्वर भगवान् विष्णु की करती हैं। अवश्य ही अपने अचिन्त्य कर्म के प्रभाव से यह सती हमें भी लाँघकर अपने पति के साथ उच्चतर लोकों को जा रही है। इस लोक में कुछ ही दिनों का जीवन होने पर भी जो लोग भगवान् के परमपद की प्राप्ति कराने वाला आत्मज्ञान प्राप्त कर लेते हैं, उनके लिये संसार में कौन पदार्थ है। अतः जो पुरुष बड़ी कठिनता से भूलोक में मोक्ष का साधनस्वरूप मनुष्य-शरीर पाकर भी विषयों में आसक्त रहता है, वह निश्चय ही आत्मघाती है; हाय! हाय! वह ठगा गया।

साभार krishnakosh.org

जन्म कुंडली के 12 भावों में से द्वादश भाव... ज्योतिष


जन्म कुंडली के 12 भावों में से द्वादश भाव.
(ज्योतिष)


ज्योतिष में कुंडली के द्वादश भाव को व्यय एवं हानि का भाव कहा जाता है। यह अलगाव एवं अध्यात्म का भी भाव होता है। यह भाव उन अंधेरे स्थानों का प्रतिनिधित्व करता है जो मुख्य रूप से समाज से पृथक रहते हैं। ऐसी जगह जाकर व्यक्ति समाज से ख़ुद को अलग महसूस करता है। कुंडली में बारहवें भाव का संबंध स्वप्न एवं निद्रा से भी होता है। इसके साथ ही बारहवें भाव का संबंध लोपस्थान (अदृश्यता का भाव), शयन, पाप, दरिद्रता, क्षय, दुख या संकट, बायीं आँख, पैर आदि से है। 

कुंडली में द्वादश भाव से धन व्यय, बायीं आँख, शयन सुख, मानसिक क्लेश, दैवीय आपदा, दुर्घटना, मृत्यु के बाद की स्थिति, पत्नी के रोग, माता का भाग्य, राजकीय संकट, राजकीय दंड, आत्महत्या, एवं मोक्ष आदि विषयों का पता चलता है।

व्यय – द्वादश भाव का संबंध जातकों के व्यय से है। यह भाव किसी जातक के जीवन में यह संकेत देता है कि वह अपने जीवन में कितना व्यय करेगा। इसके अलावा बारहवां भाव हानि का भी संकेत करता है। यदि इस भाव में शुभ ग्रह स्थित हैं तो व्यक्ति सत्कर्मों में (दान-पुण्य) अथवा अन्य सामाजिक कार्यों में धन ख़र्च करता है।

मोक्ष – जन्म कुंडली में लग्न भाव व्यक्ति के जीवन के प्रारंभ को दर्शाता है जबकि 12वाँ भाव व्यक्ति की मृत्यु के पश्चात प्राप्त होने वाले पुरुषार्थ, मोक्ष को दर्शाता है। यदि इस भाव पर शुभ ग्रह का प्रभाव हो तो व्यक्ति मृत्यु के पश्चात मोक्ष को प्राप्त करता है।

नेत्र कष्ट – यदि जातक की जन्मपत्री में बारहवें भाव में सूर्य या चंद्रमा पापी ग्रहों से पीड़ित हों तो जातक को नेत्र संबंधी कष्ट होता है।

विदेश यात्रा – कुंडली में द्वादश भाव निवास स्थान से दूरस्थ स्थान (विदेश) को दर्शाता है। बारहवाँ भाव चतुर्थ स्थान (निवास स्थान) से नवम (लंबी यात्रा) को दर्शाता है। इस भाव से यह भी ज्ञात होता है कि जातक विदेश में निवास करेगा या नहीं।

वैदिक ज्योतिष शास्त्र के अनुसार, कुंडली में द्वादश भाव मोक्ष का भाव होता है। यह भाव जातकों के जीवन में दुख, संकट, हानि, व्यय, फ़िज़ूलख़र्ची, सहानुभूति, दैवीय ज्ञान, पूजा एवं मृत्यु के पश्चात के अनुभव को दर्शाता है। काल पुरुष कुंडली में बारहवें भाव पर मीन राशि का स्वामित्व है और बृहस्पति ग्रह इस राशि के स्वामी होते हैं।

कुंडली में द्वादश भाव हानि, बाधाएँ, संयम और सीमाओं, फ़िज़ूलख़र्ची, आय से अधिक ख़र्च, कड़ी मेहनत और धोख़ेबाज़ी को दर्शाता है। हिन्दू ज्योतिष का ऐसा मानना है कि कुंडली में षष्टम, अष्टम और द्वादश भाव दुःस्थान हैं।

उत्तर-कालामृत के अनुसार, द्वादश भाव से उधार लिए गए पैसों को चुकाने की प्रक्रिया तथा पैतृक संबंधों का विचार किया जाता है। फलदीपिका में बारहवें भाव को लीनस्थान अर्थात छुपा हुआ भाव कहा गया है। मुख्य रूप से यह भाव रहस्यवाद को दर्शाता है। मंत्रेश्वर ने द्वादश भाव को लेकर कहा है कि यह भाव जातकों के शयन सुखों का बोध कराता है।

वैद्यनाथ दीक्षित ने जातक परिजात में द्वादश भाव का संबंध विदेश यात्रा से बताया है। वहीं रामदयालु ने संकेत निधि में बारहवें भाव का संबंध व्यक्ति के पैर से जोड़ा है। यह भाव व्यय एवं धन हानि को भी दर्शाता है। कुंडली में द्वादश भाव कारागार, पागलखाना एवं अन्य स्थान जहाँ पर व्यक्ति समाज से पृथक हो जाए, को दर्शाता है। इसके अतिरिक्त द्वादश भाव अस्पताल या नर्सिंग होम, विदेश, स्थान परिवर्तन आदि स्थानों को भी दर्शाता है।

मेदिनी ज्योतिष में जन्म कुंडली के द्वादश भाव का संबंध सभी प्रकार के परोपकार, धर्मार्थ या सुधारक संस्थान, जेल, शरण और अस्पताल आदि से होता है। यह भाव अपराधियों, जासूसों, गुप्त बलों और गुप्त दुश्मनों, भूमिगत आंदोलनों का भी प्रतिनिधित्व करता है। इसके साथ ही बारहवां भाव योजना मंत्रालय का प्रतिनिधित्व करता है।

प्रश्न ज्योतिष के मुताबिक द्वादश भाव से दु:ख, यातना, उत्पीड़न, मानसिक परिश्रम, दुर्भाग्य, हत्या, आत्महत्या आदि का विचार होता है। साथ ही कुंडली के बारहवें भाव से धोखाधड़ी और ब्लैकमेलिंग आदि से संबंधित सभी मामले देखे जाते हैं।

द्वादश भाव भय, जटिलता, चिंता, संदेह आदि का प्रतिनिधित्व करता है। इस भाव को एकांत, गुप्त, एवं मूक पीड़ा के भाव के रूप में भी जाना जाता है। यह भाव किसी जातक की स्वतंत्रता की सीमाओं की भी व्याख्या करता है। इसके अलावा इस भाव से गुप्त अनौपचारिक गतिविधि, गुप्त काम, निर्वासन और प्रत्यर्पण जैसे मामलों को देखा जाता है।

जैसा कि हम जानते हैं कि कुंडली में 12 भाव होते हैं और इन भावों का संबंध एक-दूसरे होता है। इसी प्रकार द्वादश भाव का अन्य भावों से अंतर्संबंध है। बारहवां भाव बड़े भाई-बहनों की धन संपत्ति या व्यापक मात्रा में मैत्रीपूर्ण संबंधों को बताता है। इसके अलावा इस भाव से बॉस की कुशलता, कार्य की प्रकृति अथवा कार्य हेतु किए गए प्रयास, उच्च स्तर की बौद्धिक क्षमता आदि चीज़ें ज्ञात होती हैं। ज्योतिष में कुंडली के बारहवें भाव से किसी जातक की आध्यात्मिक ऊर्जा, वाहन एवं पिता या गुरु के सुखों को देखा जाता है।

कुंडली का बारहवां भाव आपके करियर से संबंधित यात्रा का प्रतिनिधित्व करता है। साथ ही यह निवेश द्वारा प्राप्त लाभ अथवा हानि, सहनशक्ति, अष्टम भाव से संबंधित ज्ञान, जैसे गुप्त चीज़ें या गुप्त ज्ञान, ऋण, रोग और जीवनसाथी के शत्रु आदि को दर्शाता है। कुंडली का द्वादश भाव जनता की प्रतिक्रिया को भी दर्शाने का कार्य करता है।

12वां भाव नौकरों और किरायेदारों के साथ होने वाले विवादों, संतान की मृत्यु या उनके साथ होने वाली अनहोनी, संतान में होने वाले परिवर्तन, संतान की सर्जरी, संतान का एजेण्डा, विदेशी शिक्षा तथा निवास, भाई का करियर, भाई-बहनों को प्राप्त होने वाले लाभ, रिश्तेदार, पारिवारिक मित्र आदि का प्रतिनिधित्व करता है।

लाल किताब के अनुसार, कुंडली में बारहवें भाव से ख़र्चे, बेडरूम से सटा हुआ पड़ोसी का घर और मित्रों का सुख-दुख आदि देखा जाता है। इस भाव में स्थित ग्रह षष्टम भाव में बैठे भाव से सक्रिय होते हैं। किसी जातक की कुंडली में द्वादश भाव उसके बेडरूम, छत, ख़ुशियाँ, पड़ोसी का घर, सफेद बिल्ली, बड़े भाई, बरसात का पानी, दहेज़ से प्राप्त बेड आदि को दर्शाता है।

इस प्रकार आप देख सकते हैं कि कुंडली में द्वादश भाव कितना अहम है। कुंडली में यह अंतिम भाव होता है जो वास्तव में यह बताता है कि व्यक्ति अपने जीवन में किस प्रकार के सुखों को भोगेगा।

जन्म कुंडली के 12 भावों में से एकादश भाव.. ज्योतिष


जन्म कुंडली के 12 भावों में से एकादश भाव.
(ज्योतिष)

हिन्दू ज्योतिष के अनुसार, कुंडली में एकादश भाव आमदनी और लाभ का भाव होता है। यह भाव व्यक्ति की कामना, आकांक्षा एवं इच्छापूर्ति को दर्शाता है। किसी व्यक्ति के द्वारा किए गए प्रयासों में उसे कितना लाभ प्राप्त होगा, यह ग्यारहवें भाव से देखा जाता है। एकादश भाव लाभ, आय, प्राप्ति, सिद्धि, वैभव आदि को दर्शाता है। इसलिए सरल शब्दों में यह कहा जा सकता है कि कुंडली में ग्यारहवाँ भाव वह स्थान होता है जिससे मनुष्य को संपूर्ण जीवन में प्राप्त होने वाले सभी प्रकार के लाभों को देखा जाता है। 

लाभ, पूर्ति, मित्र, व्यक्तित्व, आभूषण, बड़े भाई एवं दोष तथा पीड़ा से मुक्ति आदि को एकादश भाव से ज्ञात किया जा सकता है। जन्म कुंडली में एकादश भाव मुख्य रूप से जातकों की इच्छाओं, आशाओं और आकांक्षाओं का बोध कराता है। यह भाव कार्य अथवा व्यवसाय से होने वाले लाभ, उच्च शिक्षा अथवा विदेशी सहभागिता, चुनाव, मुक़दमा, सट्टा, लेखन एवं स्वास्थ्य आदि को दर्शाता है।

वैदिक ज्योतिष के अनुसार, कुंडली में एकादश भाव लाभ का स्थान होता है। काल पुरुष कुंडली में एकादश भाव की राशि कुंभ है और कुंभ राशि का स्वामी ग्रह शनि होता है। जातका देश मार्ग के लेखक के अनुसार, एकादश भाव से कर्मों के द्वारा प्राप्त होने वाले लाभ एवं कष्ट मुक्त जीवन की भविष्यवाणी की जाती है। भटोत्पल के अनुसार, घोड़े एवं हाथियों की सवारी, परिधान, फसलें, आभूषण, बुद्धि एवं धन से संबंधित जानकारी कुंडली में ग्यारहवें भाव से प्राप्त होती है।

उत्तर-कालामृत में कालिदास के अनुसार एकादश भाव से निम्न बातों की जानकारी प्राप्त होती है: इच्छा और इच्छाओं का अहसास, धन का अधिग्रहण, प्रयास द्वारा प्राप्त लाभ, आय, निर्भरता, बड़े भाई, चाचा-ताऊ, देवताओं की पूजा, ईश्वर भक्ति, बुजुर्गों के प्रति सम्मान, ज्ञान द्वारा प्राप्त लाभ, उच्च बौद्धिक स्तर, नियोक्ता के कल्याण, धन हानि, महंगी धातू, गहने आदि का अधिकार, दूसरों को सलाह देना, भाग्य, माँ की दीर्घायु, बायाँ कान, घुटने, चित्रकला एवं सुखदायक और मोहक संगीत या खुशखबरी, मंत्रिपरिषद आदि।

यह भाव समृद्धि, लाभ, कार्य में सफलता, उपलब्धि के बाद प्राप्त होने वाला सूकून, साझेदारी एवं स्थायी मित्रता का बोध कराता है। यदि आप किसी दूसरे व्यक्ति को धन उधार में देते हैं तो उस धन पर लगने वाला ब्याज और उसका मूलधन को ग्यारहवें भाव से विचार किया जाएगा। वहीं दूसरी ओर, यदि आप किसी व्यक्ति से धन उधार लेते हैं तो कुंडली में पाँचवाँ भाव उस धन से संबंधित होगा।

प्रेम करने वाले जातक को ग्यारहवें भाव के माध्यम से अधिक सटीकता से परखा जा सकता है क्योंकि यह भाव किसी व्यक्ति का किसी दूसरे व्यक्ति से भावनात्मक संबंध को भी बताता है। ख़ुशहाल वैवाहिक जीवन के लिए कुंडली में दूसरा, सातवाँ और ग्यारहवाँ भाव अवश्य देखना चाहिए। इसके अतिरिक्त कुंडली में एकादश भाव जातकों के सामाजिक और वित्तीय मामलों में सफलता के विषय में जानकारी मिलती है।

ज्योतिष में एकादश भाव बहुत ही प्रभावशाली भाव होता है। यह भाव जातकों की विश्वसनीयता की ओर भी इशारा करता है। इसके साथ कुंडली में एकादश भाव वित्तीय मामलों या नियोक्ता की संपत्ति का प्रतिनिधित्व करता है। शारीरिक दृष्टि से, एकादश भाव का संबंध जातकों के बाएं कानऔर बाएं हाथ से होता है।

विद्वान ज्योतिष वैद्यनाथ दिक्षित के अनुसार, धन संचय को लेकर जातकों के ग्यारहवें भाव को देखा जाना चाहिए। वहीं वराहमिहिर के अनुसार, कुंडली में एकादश भाव आय का भाव होता है। यह व्यक्ति की आमदनी के विषय में जानकारी देता है। सर्वार्थ चिंतामणि के अनुसार, यदि किसी जातक का एकादश भाव अथवा इस भाव के स्वामी बली हैं तो इसके प्रभाव से जातक के जीवन में धन-वैभव और संपन्नता आती है। मंत्रेश्वर ने इस भाव को सिद्धि तथा प्राप्ति का भाव कहा है।

मेदिनी ज्योतिष में एकादश भाव से संसद, कानून, राज्य विधायकों, राज्य, शहर, देश, राष्ट्रीय कोष, मुद्रा मुद्रण, सरकारी विभाग, लोकसभा, राज्य विधानसभाओं के निचले सदनों, निगमों, नगर निकायों, जिला बोर्ड, पंचायत, निकायों के नियम आदि का विचार किया जाता है। इसके अतिरिक्त एकादश भाव राजदूत, उपराष्ट्रपति, सलाहकार समूह, राज्य स्तरीय शासकीय निकाय, राष्ट्रीय उद्देश्य, राष्ट्रीय योजनाएँ, राष्ट्र के मित्र, उद्यम, क्लब, जुआ रिसॉर्ट्स, अनुयायियों, परियोजनाएँ, सहकारी समितियों, विरासतों को समाप्त करने, सार्वजनिक समारोह, समर्थक आदि को दर्शाता है।

प्रश्न ज्योतिष के अनुसार, कुंडली में एकादश भाव का संबंध किसी जातक की कामना और उसकी आकांक्षा को बताता है। जातकों के लिए यह भाव प्राप्ति का भी भाव होता है। वायदा बाज़ार भविष्यवाणी में सरकारी लोन, इलेक्ट्रॉनिक कंपनी, गैस एवं म्यूजियम आदि का संबंध एकादश भाव से होता है। घोड़ों की दौड़ आयोजन में एकादश भाव प्रबंधन समिति का प्रतिनिधित्व करता है। विभिन्न क्षेत्रों में विजेताओं का विचार भी एकादश भाव से होता है।

ज्योतिष विज्ञान के अनुसार, कुंडली में 12 भावों होते हैं और इन भावों का संबंध एक-दूसरे से होता है। इसी प्रकार एकादश भाव का संबंध अन्य भावों से होता है। कुंडली में एकादश भाव लाभ का भाव होता है। इसके द्वारा जातकों के संतान को भी देखा जाता है और हम जानते हैं कि संतान जातकों की बुढ़ापे की लाठी बनती है। यह भाव उन लोगों को भी दर्शाता है जिनके द्वारा हमें सहयोग प्राप्त होता है।

ग्यारहवाँ भाव लाभ का कारक होता है। यह भाव सोना, कर्मों के द्वारा प्राप्त होने वाली प्रसिद्धि, बड़े संगठन और समिति आदि को दर्शाता है। एकादश भाव से किसी व्यक्ति के परिश्रम, चाची और चाचा, छोटी यात्रा और पिता के संदेश, मानसिक शांति, कानूनी शिक्षा, परीक्षक, गुप्त ज्ञान, पत्नी या पति के मामलों और उनके व्यापार निवेश लाभ, दुश्मनों के दुश्मन, नौकरों की बीमारी, किरायेदारों का कर्ज, पति-पत्नी का अफेयर और उनके व्यापारिक लाभ, संतान का वैवाहिक जीवन, भाइयों की विदेश यात्रा, माता जी की विरासत, पारिवारिक प्रतिष्ठा, दुश्मनों का विनाश और स्वास्थ्य लाभ का विचार किया जाता है ।

यह भाव आपकी पारिवारिक वंशावली, पड़ोसियों का धार्मिक एवं आध्यात्मिक विश्वास, माता की मृत्यु और पुनर्जन्म आदि को दर्शाता है। इसके साथ ही एकादश भाव संतान का जीवनसाथी, विदेशी जानवरों, संयुक्त राष्ट्र, गैर सरकारी संगठनों, शत्रुओं, बच्चों, लक्ष्यों, 8वें भाव के कर्म, अहंकार और आपके पिता की शैली एवं आपके व्यवसाय के संपर्क क्षेत्र को भी बताता है।

आय, लाभ, प्राप्ति, अधिकता, ज्येष्ठ भाई-बहन, मित्र, आर्थिक स्थिति, काम-वासना.

लाल किताब के अनुसार, ज्योतिष में 11वाँ भाव आपकी आमदनी, पड़ोसी अथवा न्यायाधीश, लाभ, अदालत एवं न्यायाधीश के आसन को दर्शाता है। तीसरे भाव में बैठे ग्रह एकादश भाव में स्थित ग्रहों को सक्रिय करते हैं। इस समय ग्यारहवें भाव में स्थित ग्रहों का प्रभाव जातकों के लिए सकारात्मक और नकारात्मक दोनों रह सकता है। हालाँकि दशा की समाप्ति पर जातकों पर इन ग्रहों का प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा।

इस प्रकार आप देख सकते हैं कि कुंडली में एकादश भाव का कितना व्यापक महत्व है। व्यक्ति अपने कर्म के अनुसार ही फल को प्राप्त करता है। इसलिए यदि व्यक्ति कोई बड़ी सफलता पाना चाहता है तो उसेअपने कर्मों को महान बनाने की आवश्यकता है।

जन्म कुंडली के 12 भावों में से दशम भाव. ज्योतिष


जन्म कुंडली के 12 भावों में से दशम भाव.
(ज्योतिष)

ज्योतिष में दशम भाव को कर्म का भाव कहा जाता है। यह भाव व्यक्ति की उपलब्धि, ख़्याति, शक्ति, प्रतिष्ठा, रुतबा, मान-सम्मान, रैंक, विश्वसनीयता, आचरण, महत्वाकांक्षा आदि को दर्शाता है। इसके अतिरिक्त कुंडली में दशम भाव जातक के करियर अथवा उसके व्यवसाय को बताता है। मुख्य रूप से इस भाव के माध्यम से जातकों के कर्म के कार्यक्षेत्र का विचार होता है। कर्म (व्यवसाय), जीवनशैली, साम्राज्य, सफलता, आचरण, सम्मान, बलिदान, गुण, अर्थ (धन), गमन (चाल), ज्ञान (बुद्धि), प्रवृत्ति (झुकाव) ये सभी दसवें भाव से ज्ञात होती हैं। 

दशम भाव व्यवसाय, रैंक, अस्थायी सम्मान, सफलता, आजीविका, आत्म सम्मान, धार्मिक ज्ञान और गरिमा को दर्शाता है।

पाश्चात्य ज्योतिष में कुंडली के दशम भाव को पिता का भाव माना जाता है, क्योंकि कुंडली में दशम भाव ठीक चौथे भाव के विपरीत होता है जो कि माता का भाव है। प्राचीन काल में, पिता को ही गुरु माना जाता था और कुंडली में नवम भाव गुरु का बोध करता है। अतः नवम भाव को गुरु के साथ-साथ पिता का भाव माना जाता है। ऋषि पराशर के अनुसार, नवम भाव पिता का भाव होता है। जबकि दसवां भाव पिता की आयु को दर्शाता है। काल पुरुष कुंडली में दशम भाव को मकर राशि नियंत्रित करती है और इस इस राशि का स्वामी “शनि” ग्रह है।

दशम भाव को लेकर उतर-कालामृत में कालिदास कहते हैं, कुंडली में दशम भाव से व्यापार, समृद्धि, सरकार से सम्मान, सम्माननीय जीवन, पूर्व-प्रतिष्ठा, स्थायित्व, अधिकार, घुड़सवारी, एथलेटिक्स, सेवा, बलिदान, कृषि, डॉक्टर, नाम, प्रसिद्धि, खजाना, ताकतवर, नैतिकता, दवा, जाँघ, गोद ली गई संतान, शिक्षण, आदेश आदि चीज़ों का विचार किया जाता है।

“जातका देश मार्ग” के लेखक कहते हैं कि कुंडली में दशम भाव के माध्यम से व्यक्ति के मान-सम्मान, गरिमा, रुतबा, रैंक आदि को देखा जाता है। वहीं प्रश्नज्ञान में भटोत्पल कहते हैं कि दशम भाव से साम्राज्य, अधिकार की मुहर, धार्मिक योग्यता, स्थिति, उपयोगिता, बारिश और आसमान से जुड़ी चीजों से संबंधित मामलों की जानकारी प्राप्त होती है। सत्य संहिता में लेखक ने दसवें भाव को किसी व्यक्ति की सामाजिक स्थिति, रैंक, रुतबा तथा प्रतिष्ठित एवं सज्जन लोगों के साथ उसके संबंध की जाँच करने वाला बताया है।

वराहमिहिर के पुत्र पृथ्युशस ने दशम भाव को लेकर कहा है कि इस भाव से किसी के अधिकार से संबंधित सूचनाएँ, निवास, कौशल, शिक्षा, प्रसिद्धि आदि चीज़ों को ज्ञात किया जाता है। संकेत निधि में रामदयालु ने कहा है कि कुंडली के दशम भाव से जातक के अधिकार, परिवार, ख़ुशियों में कमी देखी जाती है। यह भाव लोगों के पूर्वजों के प्रति कर्म, व्यापार, व्यवसाय, आजीविका, प्रशासनिक नियुक्ति, खुशी, स्थिति, कार्य घुटने और रीढ़ की हड्डी को देखा जाता है।

विभिन्न ज्योतिषीय किताबों में दशम भाव को लेकर लगभग समान बातें लिखी गई हैं। यह भाव जातक की नैतिक ज़िम्मेदारी तथा उसकी सांसारिक गतिविधियों से संबंधित सभी विचारणीय प्रश्नों को दर्शाता है। यह भाव लोगों के स्थायित्व, प्रमोशन, उपलब्धि एवं नियुक्ति के बारे में बताता है। इस भाव का मुख्य प्रभाव जातक के कार्य, व्यापार या अधिकार क्षेत्र पर दिखाई पड़ता है।

फलदीपिका में मंत्रेश्वर ने दशम भाव के लिए प्रवृति शब्द का प्रयोग किया है। किसी व्यक्ति के कार्य/व्यवसाय को समझने के लिए दशम भाव के साथ दूसरे एवं छठे भाव को देखना होता है। कुंडली में षष्ठम भाव सेवा, रुटीन एवं प्रतिद्वंदिता की व्याख्या करता है। जबकि द्वितीय भाव धन के प्राप्ति को बताता है। दसवें भाव को कर्मस्थान के रूप में जाना जाता है। हिन्दू शास्त्रों में मनुष्य के कर्म को इस प्रकार बताया गया है:

संचित कर्म: पिछले जन्मों के संचित कर्म।

प्रारब्ध कर्म: वर्तमान जन्म में प्राप्त संचित कर्मों का एक भाग।

क्रियामान कर्म: वर्तमान जन्म के वास्तविक कर्म।

आगामी कर्म: कर्म जिन्हें हम अपने अगले जन्म में साथ लेकर जाएंगे। यदि वर्तमान जन्म ही अंतिम जन्म है तो जातक मोक्ष को प्राप्त करता है।

मेदिनी ज्योतिष के अनुसार दशम भाव राजा, राजशाही, कुलीनता, क्रियान्वयन, संसद, प्रशासन, विदेशी व्यापार, कानून व्यवस्था आदि को दर्शाता है। इस भाव से राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, मुख्य कार्यकारी व्यक्ति, सरकार एवं सरकार का प्रतिनिधित्व करने वाला व्यक्ति का विचार किया जाता है।कुंडली में यह भाव नेतृत्वकर्ता का स्वामी होता है और अन्य देशों के बीच राष्ट्र की प्रतिष्ठा और स्थिति का बोध कराता है। वैदिक ज्योतिष के अनुसार, कुंडली का दशम भाव किसी राष्ट्र के सर्वोच्च अधिकार क्षेत्र को दर्शाता है। दशम भाव वाणिज्य मंत्रालय, राजा, सरकार, सत्ता, कुलीनता और समाज, उच्च वर्ग आदि को दर्शाता है। प्रश्न ज्योतिष के अनुसार, दशम भाव न्यायाधीश, निर्णय एवं चोरों द्वारा चोरी की गई वस्तुओं को दर्शाता है।

जन्म कुंडली में 12 भाव होते हैं। इन भावों का एक-दूसरे से अंतर-संबंध होता है। इसी शृंखला में दशम भाव का भी संबंध अन्य भावों से है। दशम भाव जातक के पेशे या अधिकार को नहीं बल्कि कार्य के वातावरण को दर्शाता है। अपने अपने कामकाजी माहौल में लोगों से किस तरह से मेलजोल अथवा बातचीत करते हैं। इसका पता कुंडली के दसवें भाव से चलता है। आप किसी के साथ जैसा व्यवहार करेंगे, वैसा ही व्यवहार दूसरों से प्राप्त करेंगे। इसलिए दूसरों के प्रति हमेशा सकारात्मक व्यवहार को अपनाएँ।

कुंडली में दशम भाव पिता द्वारा प्राप्त शिक्षा का प्रतिनिधित्व करता है। इसके अतिरिक्त दसवां भाव ईश्वर, अधिकार और सरकार को दर्शाता है। यह भाव जातक को ईश्वर या सरकार द्वारा बनाए नियमों का बोध कराता है। यदि जातक नियम के विरूद्ध कार्य करेंगे तो उन्हें इसका फल भुगतना पड़ता है। इसलिए दशम भाव सर्वोच्च शक्ति का प्रतिनिधित्व करता है।

यह भाव पिता द्वारा प्राप्त धन या शिक्षा, पिता या गुरु की मृत्यु, लंबी यात्रा से लाभ, उच्च शिक्षा से लाभ, ससुराल पक्ष की संवाद शैली, जीवनसाथी की खुशी, भूमि और संपत्ति के अतिरिक्त उन्हें होने वाली पीड़ा, बच्चों के शत्रु, संवाद में आने वाली बाधाएं, धार्मिक कर्मों के लिए उपयोग की जाने वाली धन-संपत्ति, आध्यात्मिक लाभ, आय में कमी या बड़े भाई-बहनों को होने वाली हानि को बताता है।

लाल किताब के अनुसार, दसवाँ भाव सरकार के साथ संबंध, पिता के दुखों, ख़ुशियाँ और प्रॉपर्टी को दर्शाता है। यह भाव पिता का घर, पिता से मिलने वाली ख़ुशियाँ, लोहा, लकड़ी, नज़रिया, सांप, भैंस, मगरमच्छ, कौआ, चाल, चतुराई, काला रंग, काली गाय, ईंट, पत्थर, अंधेरा कमरा, आदि को दर्शाता है। इस भाव में स्थित ग्रह, पंचम भाव में बैठे ग्रह के प्रभाव को नगण्य करते हैं। राशिफल में दूसरा भाव इस भाव को सक्रिय बनाता है

इस प्रकार आप देख सकते हैं कि किसी व्यक्ति की कुंडली में दशम भाव उसके जीवन को कैसे प्रभावित करता है। यह भाव समाज में व्यक्ति के मान-सम्मान को दर्शाता है।

जन्म कुंडली के 12 भावों में से नवम भाव. ज्योतिष


जन्म कुंडली के 12 भावों में से नवम भाव.
(ज्योतिष)

वैदिक ज्योतिष के अनुसार जन्म कुंडली में नवम भाव व्यक्ति के भाग्य को दर्शाता है और इसलिए इसे भाग्य का भाव कहा जाता है। जिस व्यक्ति का नवम भाव अच्छा होता है वह व्यक्ति भाग्यवान होता है। इसके साथ ही नवम भाव से व्यक्ति के धार्मिक दृष्टिकोण का पता चलता है। अतः इसे धर्म का भाव भी कहते हैं। इस भाव से व्यक्ति के आध्यात्मिक जीवन का विचार किया जाता है। यह भाव जातकों के लिए बहुत ही शुभ होता है। इस भाव के अच्छा होने से जातक हर क्षेत्र में तरक्की करता है। आचार्य, पितृ, शुभम, पूर्व भाग्य, पूजा, तपस, धर्म, पौत्र, जप, दैव्य उपासना, आर्य वंश, भाग्य आदि को नवम भाव से दर्शाया जाता है। 

कुंडली में नवम भाव दैवीय पूजा, भाग्य, क़ानूनी मामले, नाटकीय कार्य, गुण, दया-करुणा, तीर्थ, दवा, विज्ञान, मानसिक शुद्धता, शिक्षा ग्रहण, समृद्धि, योजना, नैतिक कहानी, घोड़े, हाथी, सभागार, धर्म, गुरु, पौत्र, आध्यात्मिक ज्ञान, कल्पना, अंतर्ज्ञान, धार्मिक भक्ति, सहानुभूति, दर्शन, विज्ञान और साहित्य, स्थायी प्रसिद्धि, नेतृत्व, दान, आत्मा, भूत, लंबी यात्राएँ, विदेशी यात्रा और पिता के साथ संचार आदि नवम भाव के कारकत्व हैं।

“प्रसन्नज्ञान” में “भट्टोत्पल” के अनुसार, नौवां भाव कुएं, झीलों, टैंकों, मंदिरों, तीर्थयात्रा और शुभ कर्मों का प्रतिनिधित्व करता है। वहींकालिदास के अनुसार, दान, गुण, पवित्र स्थानों की यात्रा, अच्छे लोगों के साथ संबंध, वैदिक बलिदान, अच्छा आचरण, दिमाग की शुद्धता, बुजुर्गों, तपस्या, औषधि, दवा, किसी की नीति, भगवान की पूजा, उच्च शिक्षा का अधिग्रहण, गरिमा, पौराणिक कथाओं, नैतिक अध्ययन, लंबी यात्रा, पैतृक संपत्ति, घोड़े, हाथी और भैंस (धार्मिक उद्देश्यों से जुड़े), और धन का संचलन नवम भाव के द्वारा देखा जाता है।

कुंडली में स्थित नवम भाव “विश्वास का भाव” भी है। इस भाव के माध्यम से यह ज्ञात होता है कि व्यक्ति के पिछले जन्मों के अच्छे कार्यों का फल वर्तमान जीवन में भाग्य के रूप में प्राप्त होता है। प्रत्येक व्यक्ति अपने पिछले जीवन में किए गए कार्यों के आधार पर फल पाने का पात्र है। नवम भाव जातक को भाग्य के माध्यम से सफलता की ऊँचाइयों पर पहुँचाता है।कुंडली में नवम भाव के प्रभाव से जातक का स्वभाव धार्मिक, समर्पित, रूढ़िवादी और दयालु होता है। “काल पुरुष कुंडली” में इस भाव की राशि “धनु” है और धनु राशि का प्राकृतिक स्वामी “बृहस्पति” ग्रह होता है।

पाश्चात्य ज्योतिष में, दसवें भाव को पिता का भाव कहा जाता है, जबकि हिंदू ज्योतिष में, नौवें भाव को पिता के भाव के रूप में माना जाता है। पिता के लिए नवम और दशम भाव की भविष्यवाणियों की जाँच करने के बाद, यह सिद्ध होता है नवम भाव ही पिता का वास्तविक भाव होता है। इसलिए वास्तविक रूप से नवम भाव पिता को इंगित करता है जबकि दशम भाव पिता की आयु को बताता है। ज्योतिष के अनुसार, नवम भाव से पवित्र स्थानों, कुओं, जलाशयों, बलिदान और दान आदि का विचार किया जाता है। इसके अतिरिक्त मंदिरों, मस्जिदों, चर्चों और सभी धार्मिक संस्थानों को कुंडली के नौवें भाव के माध्यम से देखा जाता है। यह अंतर्ज्ञान और मानसिक शुद्धि का भाव भी है।

नवम भाव उच्च शिक्षा, उच्च विचार और उच्च ज्ञान का प्रतिनिधित्व करता है। नौवां भाव अनुसंधान, आविष्कार, खोज, अन्वेषण आदि का प्रतिनिधित्व करता है। हिन्दू लोग इस भाव को धर्म का भाव कहते हैं। नवम भाव प्रकाशन, विशेष रूप से धर्म, विज्ञान, कानून, दर्शन, यात्रा, अंतर्राष्ट्रीय मामलों आदि से संबंधित है। यह अच्छे लोगों, सम्मान और ईश्वर और बुजुर्गों के प्रति समर्पण, पिछले जन्म और पुण्य और परिवार से प्राप्त आशीर्वाद को भी दर्शाता है।

सत्य संहिता के लेखक कहते हैं कि कुंडली के इस भाव से शेष भावों और दूसरों से अनुकूलता की जाँच की जाती है। मेदिनी ज्योतिष के अनुसार, कुंडली में नवम भाव न्यायिक-व्यस्था, सुप्रीम कोर्ट, न्यायाधीश, क़ानून, अदालत, वैश्विक क़ानून, नैतिक, धर्म, राजनयिक, विदेशी मिशन, प्रगति और विकास को दर्शाता है। नवम भाव से हवाई यात्रा, नौवहन, समुद्री यातायात, विदेशी आयात और निर्यात, समुद्र और तटों के आसपास मौसम की स्थिति और लंबी दूरी की यात्रा का विचार किया जाता है। यह संयुक्त राष्ट्र, विश्व संगठन, विदेश मामलों के मंत्रालय, राजनयिक, विदेशी देशों के साथ संबंध, विदेशी देशों, नौवहन, नौसेना, नौसैनिक मामलों के साथ व्यवहार का प्रतिनिधित्व करता है। यह भाव प्रकाशन उद्योग – विज्ञापन और सार्वजनिक मामलों से भी संबंधित है।

नवम भाव धर्म, मस्जिद, मंदिर, चर्च, धार्मिक किताबें जैसे वेद, पुराण, बाइबिल, कुरान आदि पवित्र स्थानों तथा वस्तुओं से संबंध रखता है। यह वाणिज्यिक शक्ति, केबल, तार, रेडियो, टीवी आदि जैसे लंबी दूरी के संचार को भी दर्शाता है। यह क़ानून मंत्रालय का प्रतिनिधित्व करता है।

ज्योतिष में नवम भाव कुंडली के अन्य भाव से भी अंतर्संबंध रखता है। यह शिक्षकों, प्रचारकों, तीर्थयात्रा, आदि का प्रतिनिधित्व करता है। यदि आप किसी लाचार व्यक्ति की मदद करते हैं तो आपका नवम सक्रिय हो जाता है। यह भाव विदेश यात्रा और आध्यात्मिक ज्ञान, ब्रह्मांड, दर्शन, गुरु, स्नातकोत्तर शिक्षा, पीएचडी, मालिकों, शक्तियों की छिपी शक्ति, विदेशी स्थानों से पैसे कमाने की क्षमता, पारिवारिक संपदा का विनाश, पारिवारिक संपदा का अंत आदि को भी दर्शाता है। कुंडली में नवम भाव से आपके भाई-बहनों के जीवनसाथी, स्वास्थ्य, बीमारी और माता का कर्ज एवं बाधाएं; बच्चों, संतान की रचनात्मक अभिव्यक्ति, दुश्मन आदि को देखा जाता है।

कुंडली के नवम भाव से निवास, मामा की धन जायदाद, जीवनसाथी के भाई-बहन, संचार-शैली, छुपी हुई क्षमता, बेरोज़गारी और नौकरी या करियर, करियर से संबंधित यात्रा, छोटे भाई-बहन आपके पिता और पिता के संचार कौशल, पिता और दादी माँ का अाध्यात्मिक दृष्टिकोण को देखा जाता है। यह भाव जातक के आध्यात्मिक जीवन के कर्मों का प्रतिनिधित्व करता है। इसके साथ आध्यात्मिक मार्ग, दान-पात्र के स्थान, पानी का भंडारण इत्यादि को दर्शाता है।

लाल किताब के अनुसार, यह भाव पिता, दादा, भाग्य, धर्म, कर्म, घर का फर्श, परिवार के बड़े व्यक्ति, पुराने घर से प्राप्त धन या विरासत का प्रतिनिधित्व करता है। कुंडली के नवम भाव के द्वारा जीवन में समृद्धि और खुशहाली को भी देखा जाता है। यदि तीसरे और पांचवें भाव में कोई ग्रह नहीं है तो इस भाव पर स्थित ग्रह निष्क्रिय रहेंगे। पांचवें भाव में ग्रह की उपस्थिति इस भाव के घरों को सक्रिय बनाती है।

इस प्रकार आप देख सकते हैं कि नवम भाव सभी भावों में कितना प्रमुख है। इस भाव से आपका भाग्य और जीवन में प्राप्त होने वाले लाभांश को देखा जाता है। यह ध्यान रखने वाली बात है कि कोई भी व्यक्ति अपनी किस्मत से ज्यादा और समय से पहले कुछ भी प्राप्त नहीं करता है।

जन्म कुंडली के 12 भावों में से अष्टम भाव. ज्योतिष


जन्म कुंडली के 12 भावों में से अष्टम भाव.
(ज्योतिष)


जन्म कुंडली में अष्टम भाव जातकों का आयु भाव कहलाता है। यह भाव जातकों की दीर्घायु अथवा जीवन की अवधि को बताता है। ज्योतिष में इसे मृत्यु का भाव भी कहा जाता है। जहाँ प्रथम भाव व्यक्ति के देह धारण को दर्शाता है। वहीं अष्टम भाव व्यक्ति के देह त्यागने का बोध कराता है। सनातन परंपरा के अनुसार, कुंडली में अष्टम भाव से जीवन के अंत को दर्शाया जाता है। इसलिए इस भाव को अशुभ भाव भी कहा जाता है। 

कुंडली में अष्टम भाव आयु, गुप्तांग, मृत्यु, उपहार, बिना कमाये प्राप्त होने वाली संपत्ति, मृत्यु का कारण, चाह, अपमान, पतन, शमशान घाट, पराजय, दुख, आरोप, नौकर एवं बाधाओं को दर्शाता है।

वैदिक ज्योतिष के अनुसार, कुंडली में आठवां भाव विरासत को दर्शाता है। घर के मुखिया की अचानक मृत्यु के बाद मिलने वाली संपत्ति आठवें भाव से देखी जाती है। शोध, गूढ़ विज्ञान, छुपा हुआ खजाना, खदान, कोयला, अनिरंतरता, विनाश, रिस्क, सट्टा व्यापार, लॉटरी, रहस्य, मंत्र, तंत्र, एवं आध्यात्मिक वस्तुओं को अष्टम भाव दर्शाता है।

“संकेतनिधि”के लेखक राम दयालु के अनुसार, अष्टम भाव कष्टों और रहस्य का भाव है। यह व्यक्ति के दुर्भाग्य, मानसिक कष्ट, दुख, लड़ाई-झगड़े, चिंता एवं कठिनाई, कार्य में देरी, उदासी, आरोप, दुर्घटना, शत्रुओं से भय, किसी रोग का ख़तरा, रुकावटें, जेल, ग़लत कार्य आदि को दर्शाता है।

आठवां भाव उस व्यक्ति को भी दर्शाता है जिसके साथ आप व्यापारिक लेनदेन करते हैं। कुंडली में दूसरा भाव धन और व्यक्ति के पारिवारिक जीवन के बारे में बताता है। वहीं आठवां भाव ससुराल पक्ष की संपत्ति अथवा घर से मिलने वाली पैतृक संपत्ति को भी दर्शाने का कार्य करता है। सामान्य भाषा में कहें तो यह व्यक्ति के लिए अनार्जित धन होता है।

“जातक तत्व” में महादेव ने कहा है कि कुण्डली में अष्टम भाव सर्जन्स, मेडिकल ऑफिसर, बूचड़ खाना आदि कार्यक्षेत्र के बारे में बताता है। यदि जातक उपरोक्त क्षेत्र में किसी के साथ मिलकर कार्य करे तो वह उसमें लाभ कमा सकता है। आर. लक्ष्मण के अनुसार, यदि आठवें भाव का स्वामी प्रथमेश और दशमेश से मजबूत अवस्था में हो तो जातक को समाज में अपमानित या आलोचना का पात्र बनना पड़ता है। वहीं सत्याचार्य के अनुसार अष्टम भाव जातक के शत्रुओं के विषय में भी बताता है।

वहीं प्रश्न कुंडली के अनुसार, कुंडली में अष्टम भाव यात्रा में होने वाली कठिनाई, शत्रुओं से मिलने वाला कष्ट, मृत्यु, भष्ट्राचार, लड़ाई-झगड़ा, रोग तथा कमज़ोर पक्ष को दर्शाता है। वहीं मेदिनी ज्योतिष के अनुसार, कुंडली में आठवें भाव से जनता के विश्वास पर शासन, लाल-फीताशाही, कार्य तथा क्रियान्वयन में तेज़ी, देरी एवं बाधाएँ, दुर्घटना, सोना, क़ीमती रत्न, विरासत मिलने वाली संपत्ति, प्राकृतिक आपदा, भूकंप, समुद्री तूफान, आग, तूफान आदि का विचार किया जाता है

कुंडली में यह भाव विदेशी विनिमय, स्टॉक मार्केट, अनुबंध, कर, राष्ट्रीय ऋण, करों से प्राप्त होने वाला धन, बीमा कंपनियाँ, बीमा के तहत मिलने वाला मुआवजा, जनता की आय, अवरुद्ध परिसंपत्ति, छुपी हुई चीज़ें एवं खोज आदि को बताता है। आठवाँ दूसरे देशों से होने वाली आर्थिक संधि को भी दर्शाता है।

आठवां भाव राष्ट्र के शासक (राष्ट्रपति/प्रधानमंत्री/चांसलर/राजा/तानाशाह) की मृत्यु के बारे में बताता है। कुंडली में इस भाव से सरकार के कार्यकाल का समापन पर भी विचार किया जाता है। इस भाव का संबंध स्वास्थ्य मंत्रालय, मृत्यु दर, आत्महत्या आदि से भी है।

मृत्यु का स्वरूप – कुंडली में स्थित अष्टम भाव मृत्यु के स्वरूप का भी बोध करता है। इस भाव से जातक की मृत्यु कारण, मृत्यु का स्थान एवं मृत्यु के समय की जानकारी मिलती है। यदि लग्नेश, तृतीयेश, एकादशेश एवं सूर्य आदि का प्रभाव अष्टम भाव तथा अष्टमेष पर पड़ता है तो जातक आत्म हत्या कर लेता है। ऐसे ही आकस्मिक दुर्घटना का पता अष्टम भाव से चलता है। यदि इस भाव में शुभ ग्रहों का प्रभाव होता है तो जातक शांतिपूर्ण शांति पूर्ण मृत्यु शैय्या को प्राप्त करता है।

विदेश यात्रा – वैदिक ज्योतिष के अनुसार, अष्टम स्थान को समुद्र का स्थान माना गया है। इसलिए अष्टम भाव पर जब पापी अथवा क्रूर ग्रह का बुरा प्रभाव पड़ता है तो जातक के समुद्र पार विदेश यात्रा पर जाने के योग बनते हैं।

रहस्य की खोज – ज्योतिष में अष्टम भाव का संबंध शोध, गूढ़ विज्ञान में रुचि आदि को दर्शाता है। अष्टम भाव से तृतीय भाव का क्रम अष्टम है। अतः यह भाव भी रहस्मयी खोज से संबंधित है। उधर, पंचम भाव का संबंध जातकों की बुद्धि से होता है। इसलिए तृतीयेश तथा अष्टमेश का पंचम भाव अथवा पंचमेश से संबंध बनता है तो यह स्थिति जातक को महान खोजकर्ता बनाती है। ऐसे जातक शोध के क्षेत्र में उत्कृष्ट कार्य करते हैं।

दुर्घटना – अष्टम भाव का संबंध दुर्घटना से होता है। व्यक्ति के जीवन में होने वाली आकस्मिक दुर्घटनाएँ अथवा अचानक लगने वाली चोट आदि को अष्टम भाव से ही देखा जाता है।

आकस्मिक/गुप्त धन – अष्टम भाव से पैतृक संपत्ति, छुपा हुआ धन या संपत्ति को भी देखा जाता है। यदि किसी जातक को पैतृक संपत्ति मिलती है तो उसका संबंध अष्टम भाव से होता है।

मृत्यु भाव होने के कारण अष्टम भाव जातक की मृत्यु एवं उसके पुनर्जन्म को भी दर्शाता है। यह पूर्ण बदलाव, दूसरों का धन, एवं घर में किसी की मृत्यु होने के पश्चात प्राप्त होने वाले धन का भी बोध कराता है। यदि किसी जातक का आठवाँ भाव मजबूत नहीं होता है तो जातक को मृत्यु का आभास हो सकता है। यह जीवन में आकस्मिक घटना, उधार, विवाद, रहस्यवाद, गूढ़ विज्ञान, तंत्र-मंत्र, आत्म ज्ञान, षड्यंत्र, छुपी हुई चीज़ों से भी अनुभव कराता है।

वैदिक ज्योतिष के अनुसार कुंडली में अष्टम भाव रीढ़ की हड्डी के आधार भाग को दर्शाता है। यह संसार के स्याह पक्ष को भी दिखाता है। अष्टम भाव से आपके उन रहस्यों पर भी विचार किया जाता है जिन्हें आप अपने तक ही सीमित रखना चाहते हैं। किसी जातक की कुंडली में यह भाव मनोचिकित्सक, ज्योतिष, मनोरोग आदि को बताता है।

कुंडली में अष्टम भाव बड़े भाई-बहनों के मार्ग में आने वाली बाधाएँ, दादी माँ के धार्मिक दृष्टिकोण, मोक्ष, वंशावली, देह त्याग, दुर्घटना के कारण होने वाली मृत्यु, भूत-प्रेत, आशाएँ, बॉस की कामनाएँ, समाज में आपके बड़े भाई-बहनों की स्थिति, करियर में लाभ, सहकर्मी, ससुराल पक्ष एवं उनका धन, आपके भाई जीवनसाथी की आय और संपत्ती, पिता के चरण, शत्रुओं के प्रयास आदि को दर्शाता है।

ज्योतिष में अष्टम भाव संतान की खु़ुशियों का बोध कराता है। आपकी संतान किस प्रकार की ख़ुशियों को प्राप्त करेगी। यह विचार आठवें भाव से किया जाता है। इसके अलावा यह भाव शत्रुओं की मृत्यु, शत्रुओं द्वारा रचा जाने वाला षड्यंत्र, उधारी तथा बीते जन्म के विषय में भी बताता है।

ज्योतिष में सातवें भाव को अष्टम भाव की अपेक्षा अधिक ख़तरनाक माना गया है। आठवां भाव सातवें भाव से लाभ को दर्शाता है। इसलिए यदि व्यक्ति का सप्तम भाव मजबूत नहीं होता है तो इसका बुरा प्रभाव आठवें भाव में भी देखने को मिलता है।

लाल किताब के अनुसार, जातक की कुंडली में आठवां भाव मृत्यु, बीमारी, शत्रु, नाले का पानी, कब्रिस्तान, बूचड़खाना आदि को दर्शाता है। यदि कुंडली के दूसरे भाव में कोई भी ग्रह उपस्थित नहीं है तो अष्टम भाव में स्थित ग्रहों का प्रभाव भी शून्य रहेगा। यदि अष्टम भाव और प्रथम भाव में स्थित ग्रह एक-दूसरे के मित्र होते हैं तो जातक दूर की सोचता है और यदि शत्रु हुए तो जातक जीवनभर बिना लक्ष्य के भटकता रहता है।

इस प्रकार आप देख सकते हैं कि अष्टम भाव व्यक्ति को जीवन में यकायक होने वाली चीज़ों का अनुभव कराता है जिसके लिए वह मानसिक रूप से तैयार नहीं रहता है।

जन्म कुंडली के 12 भावों में से सप्तम भाव. ज्योतिष


जन्म कुंडली के 12 भावों में से सप्तम भाव.
(ज्योतिष)

जन्म कुंडली में सप्तम भाव व्यक्ति के वैवाहिक जीवन, जीवनसाथी तथा पार्टनर के विषय का बोध कराता है। यह नैतिक, अनैतिक रिश्ते को भी दर्शाता है। शास्त्रों में मनुष्य जीवन के चार पुरुषार्थ धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष हैं। इनमें काम का संबंध सप्तम भाव से होता है। सातवां भाव व्यक्ति की सामाजिक छवि तथा कार्य व व्यवसाय संबंधित विदेश यात्रा को भी दिखाता है। कुंडली में सप्तम भाव केन्द्रीय भाव में आता है। इसलिए यह व्यक्ति के जीवन में निजी और कार्यक्षेत्र के बीच तालमेल बनाता है। 

कुंडली में सप्तम भाव से जीवनसाथी, मूत्रांग, वैवाहिक ख़ुशियाँ, यौन संबंधी रोग, व्यापार, सट्टा, कूटनीति, सम्मान, यात्राएँ, व्यापारिक रणनीति एवं व्यक्ति की गुप्त ऊर्जा को देखा जाता है।

ज्योतिष विद्या के महान विद्वान सत्याचार्य के अनुसार, जन्म कुंडली में सातवां भाव गृह परिवर्तन एवं विदेश यात्राओं के विषय में बताता है। वहीं ऋषि पराशर के अनुसार, यदि प्रथम भाव का स्वामी सातवें भाव में स्थित होता है तो व्यक्ति अपने मूल स्थान से दूर धन संपत्ति को बनाता है। सप्तम भाव क़ानूनी रूप से दो लोगों के बीच साझेदारी को भी दर्शाता है। यह साझेदारी वैवाहिक अथवा व्यापारिक हो सकती है। काल पुरुष कुंडली में तुला राशि को सातवें भाव का स्वामित्व प्राप्त है। जबकि तुला राशि का स्वामी शुक्र ग्रहहै। उत्तर-कालामृत के अनुसार, कुंडली में सातवाँ भाव व्यक्ति द्वारा गोद ली गई संतान को भी दर्शाता है।

प्रश्न ज्योतिष के अनुसार, सप्तम भाव का संबंध खोए हुए धन की उपलब्धता, चोर एवं जेबकतरों से भी होता है। कुंडली में जहाँ प्रथम भाव जातकों की प्रॉपर्टी में हानि अथवा चोरी को दिखाता है तो वहीं सप्तम भाव यह बताता है कि किस व्यक्ति ने उस प्रॉपर्टी को चोरी किया है। मेदिनी ज्योतिष के अनुसार, सप्तम भाव कैबिनेट, आंतरिक एवं विदेशी मामले, सुविधाजनक मनोरंजन के रिसोर्ट, यात्रा, जनता के साथ संबंध, व्यापार एवं संधि आदि के बारे में बताता है। यह भाव विवाह एवं तलाक़ को लेकर जनता के व्यवहार को भी दर्शाता है। यह भाव किसी राष्ट्र में महिलाओं का स्वामी माना जाता है। सप्तम भाव विदेश मंत्रालय, अन्य राष्ट्रों से संबंध, वैश्विक युद्ध या विवाद, विदेश व्यापार आदि का बोध कराता है।

वैवाहिक जीवन – ज्योतिष में सप्तम भाव से जातकों के वैवाहिक जीवन का पता चलता है। इस भाव में ग्रह की स्थिति व्यक्ति के वैवाहिक जीवन को प्रत्यक्ष रूप से प्रभावित करती है। यह भाव जातकों के जीवनसाथी के गुण दोष तथा उसके शारीरिक रूप की भी व्याख्या करता है। कुंडली में सप्तम भाव के द्वारा व्यक्ति के वैवाहिक जीवन में मिलने वाले सुखों और दुःखों को जाना जाता है।

साझेदारी – साझेदारी दो लोगों के बीच एक सामंजस्य भाव को दर्शाती है। सप्तम भाव से दो लोगों के बीच होने वाली पार्टनरशिप को भी दर्शाता है। यह साझेदारी, जीवन, व्यापार, खेल या हर क्षेत्र में हो सकती है। सप्तम भाव के द्वारा यह विचार किया जाता है कि व्यक्ति को साझेदारी से लाभ मिलेगा या नहीं और उसके संबंध अपने पार्टनर के साथ कैसे रहेंगे।

विदेश यात्रा – कुंडली में सप्तम भाव व्यक्ति के जीवन में विदेश यात्रा को दर्शाता है। हालाँकि कुंडली में तृतीय भाव तथा नवम भाव भी विदेश यात्राओं से प्रत्यक्ष संबंध रखते हैं। सप्तम भाव में विदेश यात्रा की अवधि क्या रहने वाली है, यह भाव में स्थित ग्रह की स्थिति पर निर्भर करता है।

यौन अंग – शरीर में यौनांग भी सप्तम भाव से संबंध रखता है। वैदिक ज्योतिष के अनुसार, सप्तम भाव कालपुरुष के यौन अंगों का प्रतीक होता है, इसलिए सप्तम भाव पर किसी भी प्रकार के नकारात्मक प्रभाव पड़ने पर व्यक्ति को यौन संबंधी परेशानी का सामना करना पड़ता है।

कामेच्छा – सप्तम भाव व्यक्ति की कामुक भावना, काम इच्छा को भी प्रकट करता है। यदि इस भाव में क्रूर ग्रहों तथा शुक्र का सप्तम भाव पर प्रभाव व्यक्ति को विकृत कामेच्छा भी प्रदान कर सकता है।

समृद्धिशाली जीवन – सप्तम भाव के साथ इस भाव के स्वामी का बलशाली होना एवं शुभ ग्रहों का प्रभाव व्यक्ति को भौतिक सुखों से संपन्नता बनाता है। इसके प्रभाव से व्यक्ति का जीवन समृद्धिशाली होता है। वह अनेक प्रकार के भौतिक सुख प्रदान करने वाले संसाधनों का उपभोग करता है।

कुंडली में स्थित 12 भावों का एक-दूसरे से संबंध होता है। एकादश भाव से प्रभावित सप्तम भाव किसी स्त्री एवं पुरुष के बीच स्थाई रिश्ते को दर्शाता है जो मिलकर वंशानुक्रम को आगे बढ़ाते हैं। जैसा कि हम जानते हैं कि सप्तम भाव का संबंध व्यक्ति के विवाह, व्यापार, पार्टनरशिप, करियर, ख़्याति, दुश्मन, यौन अंग, सेक्स लाइफ और जीवनसाथी से है। इसके अलावा उस वस्तु का संबंध भी सप्तम भाव से है, जिससे व्यक्ति को ख़ुशियाँ प्राप्त होती है। इसके अतंर्गत व्यक्ति का विलासितापूर्ण जीवन भी आता है। पारिवारिक शत्रु और परिवार में आने वाली परेशानियाँ का पता सातवें घर से चलता है।

यदि किसी जातक का विवाह होता है तो सप्तम भाव स्वतः ही सक्रिय हो जाता है। इसमें व्यक्ति ख़ुद को पुनः युवा महसूस कर सकता है अथवा इससे उसका आध्यात्मिक जीवन भी प्रभावित हो सकता है। जीवनसाथी आपकी छाया प्रति के समान है और प्रथम भाव आपके व्यक्तित्व और स्वभाव, शारीरिक रचना के बारे में बताता है। सप्तम भाव आपके भाई बहनों की बुद्धिमता, क्रिएटिविटी तथा उनके बच्चों को भी दर्शाता है। यह आपके ननिहाल पक्ष, मूल स्थान से दूर जमा की गई संपत्ति या ज़मीन जायदाद और महिलाओं के साथ संबंधों को भी बताता है।

ज्योतिष में सप्तम भाव जातक की दूसरी संतान, कौशल, बोलने का अंदाज़ और पहली संतान को किसी भी खेल को खेलने की काबिलियत, नृत्य एवं यात्रा करने की रुचि को दर्शाता है। यह माता की संपत्ति, निवास स्थान में परिवर्तन, शत्रुओं का धन, शत्रुओं पर विजय, धन-संपत्ति में वृद्धि आदि को भी बताता है।

जन्म कुंडली में सप्तम भाव व्यक्ति की दीर्घायु, कामेच्छा एवं गूढ़ विज्ञान आदि में कमी को दर्शाता है। किसी ग्रह के गोचर के दौरान सातवां भाव व्यक्ति के अंदर ज्योतिष, रहस्यमय ज्ञान अथवा गूढ़ विज्ञान जैसे विषयों के प्रति उदासीनता का भाव पैदा कर सकता है। जबकि इसके विपरीत इस दौरान व्यक्ति की इच्छा पूर्ण होती है एवं पिताजी एवं गुरु जी को सफलता प्राप्त होती है। जातकों के करियर और व्यवसाय में उन्नति को भी इसी भाव से देखा जाता है। इसके अलावा यह भाव बड़े भाई-बहनों के धार्मिक दृष्टिकोण, उनकी लंबी यात्रा एवं उनकी नैतिकता का भी परिचय देता है।

लाल किताब के अनुसार, कुंडली में सप्तम भाव परिवार, नर्स, जन्मस्थान, आँगन आदि को बताता है। लाल किताब का सिद्धांत कहता है कि सप्तम भाव में बैठे ग्रह प्रथम भाव में स्थित ग्रहों के द्वारा संचालित होते हैं। इसको सरल भाषा में समझें तो, प्रथम भाव में ग्रहों की अनुपस्थिति होने पर सातवें घर में जो ग्रह होंगे वे निष्क्रिय और प्रभावहीन होंगे। सप्तम भाव में केवल मंगल और शुक्र का प्रभाव देखने को मिलेगा। लाल किताब के अनुसार, जन्म कुंडली में स्थित सातवां भाव जीवनसाथी के बारे में भी बताता है।

इस प्रकार हम जान सकते हैं कि कुंडली में सातवाँ भाव किसी जातक के जीवन में कितना शक्तिशाली और कितना महत्वपूर्ण होता है।

जन्म कुंडली के 12 भावों में से षष्टम भाव. ज्योतिष

जन्म कुंडली के 12 भावों में से षष्टम भाव.
(ज्योतिष)
 

वैदिक ज्योतिष के अनुसार जन्म कुंडली में षष्ठम भाव को रोग, कर्ज और शत्रुओं के भाव के नाम से जाना जाता है। यह कुंडली का सबसे विरोधाभासी भाव होता है। यह भाव रोगों को जन्म देता है लेकिन वहीं स्वस्थ होने की शक्ति भी प्रदान करता है। इस भाव से लोन या कर्ज मिलता है वहीं यह भाव कर्ज को चुकाने की क्षमता भी देता है। षष्ठम भाव शत्रुओं को भी दर्शाता है लेकिन विरोधियों से लड़ने की ताकत और साहस भी प्रदान करता है। इस भाव को तपस्या का भाव भी कहा गया है। यह भाव त्याग और अलगाव को भी दर्शाता है। षष्ठम भाव की विभिन्न तरीकों से व्याख्या की जाती है:- 

ऋण, अस्त्र, रोग, कष्ट, शत्रु, द्वेष, पाप, दुष्कर्त्य, भय, तिरस्कार.

ष्ठम भाव कर्ज, शत्रु, चोर, शरीर में घाव और निशान, निराशा, दुःख, ज्वर, पैतृक रिश्ते, पाप कर्म, युद्ध और रोग आदि को दर्शाता है। यह भाव कठिन परिश्रम, प्रतिस्पर्धा और कष्टों से जीवन में होने वाली वृद्धि को प्रकट करता है।

उत्तर कालामृत के अनुसार किसी भी तरह के समझौते और सहमति में कठिनाई, मामा, शरीर पर सूजन, पागलपन, मवाद से भरा फोड़ा, शत्रुता, ज्वर, कंजूसी, उधारी, मानसिक चिंता और पीड़ा, घाव, आंख में लगातार परेशानी, दान की प्राप्ति, असंयमित भोजन, कष्ट और परेशानी का भय बना रहना, सेवा, पेट और वात रोग से संबंधित गंभीर समस्या, चोरी, आपदा, कैदखाना और मुश्किल कार्यों का अध्ययन इस भाव से किया जाता है।

षष्ठम भाव से रोग या बीमारी की वास्तविक स्थिति, जातक कब तक इस रोग से पीड़ित रहेगा और रोग से ठीक होने के बारे में पता चलता है। यह भाव उन व्यक्तियों के लिए विशेष रूप से लाभकारी है जो रोगियों की सेवा में विश्वास रखते हैं। यह भाव संतुलित भोजन, संयमित खान-पान और शरीर की देखभाल नहीं करने से उत्पन्न होने वाले रोगों को दर्शाता है। काल पुरुष कुंडली में षष्ठम भाव की राशि कन्या है और इसका स्वामी बुध है।

'जातक परिजात' में वैद्य
नाथ दीक्षित ने कहा कि रोग, शत्रु, बुरी आदतें और पीड़ा का बोध षष्ठम भाव से होता है। 

ऋषि पराशर के अनुसार छठा भाव स्त्रियों की कुंडली में सौतेली मां, ज्ञानेंद्री और चरित्रहीन व्यवहार, गर्भपात और अचानक प्रसव होने को सूचित करता है।

षष्ठम भाव कर्म और सेवा, कर्मचारी, अधीनस्थ या सेवक को भी दर्शाता है। ज्योतिष में इस भाव की मदद से व्यक्ति की आंतरिक स्थिति, भक्ति और विश्वास का आकलन किया जाता है। यह भाव पालतू जानवर, छोटे मवेशी, घरेलू जीव, किरायेदार (खेती या घर के किरायेदार), शत्रुता, वस्त्र और शुद्धता, स्वच्छता, आहार विज्ञान, जड़ी-बूटी, भोजन, कपड़े और 6 प्रकार के स्वाद को भी प्रकट करता है।

षष्ठम भाव को उपचय स्थान भी कहा जाता है। यह प्रतिस्पर्धा की राह में आने वाली चुनौतियों का संकेत करता है। यदि कोई क्रूर ग्रह इस भाव में स्थित होता है तो वह इस भाव के नकारात्मक प्रभाव को कम कर देता है। इससे रोजमर्रा और प्रतिस्पर्धा के क्षेत्र में लाभकारी परिणाम मिलते हैं।

ज्योतिष में षष्ठम भाव जादू और अंधविश्वास को भी दर्शाता है। यह चिंता और चिड़चिड़ाहट, शैतानी शक्ति, भय, अपमान, सूजन, मूत्र संबंधी समस्या, खसरा, निंदा, कैद खाना, सेवा, भाइयों के साथ ग़लतफ़हमी को प्रकट करता है।

मनुष्य जब तक जिंदा रहता है वह अनेक दुखों और परेशानियों से घिरा रहता है। कुंडली में सिर्फ षष्ठम भाव ही यह तय करता है कि बाहरी दुनिया से लड़ने के लिए किसी व्यक्ति में कितनी आंतरिक शक्ति है। यदि कोई व्यक्ति चुनौतियों से लड़ने में नाकाम रहता है तो वह शारीरिक और मानसिक रूप से परेशान हो जाता है। यदि व्यक्ति के पास चुनौतियों से लड़ने के लिए मजबूत आत्मबल है, तो वह संसार में एक विजेता के रूप में उभरेगा। यह सब कुछ कुंडली में छठे भाव की मजबूत और दुर्बल स्थिति पर निर्भर करता है।

मेदिनी ज्योतिष के अनुसार छठा भाव सार्वजनिक शांति, पड़ोसियों के साथ रिश्ते, लोगों का स्वास्थ्य, राजनीतिक स्थिरता, देश की वित्तीय स्थिति और कर्ज चुकाने की क्षमता, मुकदमे, न्यायपालिक की कार्यवाही, देश में सांप्रदायिक सौहार्द और श्रमिकों के साथ रिश्ते आदि को दर्शाता है।

यह भाव रोजगार, बेरोजगारी और मजदूरी की स्थिति का बोध कराता है। यह भाव श्रमिक संगठन और संस्थाओं व राष्ट्र रक्षा एवं सेना की सभी शाखाओं को दर्शाता है। यह लोक स्वास्थ्य, मेडिकल सेवाएँ और स्वास्थ्य कार्यकर्ता जैसे- नर्सिंग, दंत चिकित्सक और डॉक्टर्स का प्रतिनिधित्व करता है। यह भाव उन सभी व्यक्तियों को दर्शाता है जो रिकॉर्ड और दस्तावेज सहेज कर रखते हैं, इनमें लाइब्रेरियन, बही खाता लेखक और कंप्यूटर विशेषज्ञ आदि हैं। षष्ठम भाव महामारी, रक्त जनित रोग, ऋण और कर्ज, लोहा और इस्पात उद्योग से परेशानी और उच्च मृत्यु दर आदि का प्रतिनिधित्व करता है। षष्ठम भाव रक्षा मंत्रालय, कमजोरी, लोक स्वास्थ्य, सेना, नौसेना और जंगी जहाजों को दर्शाता है।

कुंडली में षष्ठम अन्य भावों के साथ भी अंतर्संबंध स्थापित करता है। यह भाव गुप्त शत्रु, सहयोगी को होने वाला नुकसान, विदेश में जीवनयापन या प्रियतम के साथ मतभेद और अलगाव, मित्र की मृत्यु और बड़े भाई या मित्र को होने वाले नुकसान व भय को दर्शाता है। यह आपके पिता का नाम, प्रसिद्धि और उनका करियर व व्यवसाय को बोध कराता है।

छठा भाव प्रतिनियुक्ति और आधिकारिक यात्राएँ, ट्रांसफर, मित्रों की विरासत, अफेयर और गायन से भाग्योदय, भाषा और पारिवारिक व्यापार, पड़ोसियों की संपत्ति, मामा-मामी और बच्चों का बोध कराता है।

ज्योतिष शास्त्रों की पुस्तकों के अनुसार, यह भाव आपके छोटे भाई-बहनों के द्वारा वाहनों और बिल्डिंग की खरीद और बिक्री को दर्शाता है। यह भाव आपकी माता की लघु यात्राओं को भी प्रकट करता है।

लाल किताब के अनुसार षष्ठम भाव शत्रु, मामा, दादा और पाताल से संबंधित होता है। यदि द्वितीय और द्वादश भाव में कोई ग्रह नहीं है और षष्ठम भाव में कोई ग्रह स्थित हो, तो भी यह भाव हमेशा निष्क्रिय रहता है। षष्ठम भाव में स्थित ग्रह द्वादश भाव में बैठे ग्रह को सक्रिय करता है। यह भाव कुआं, पीठ, भूमिगत, कमर, शत्रु, मामा, मौसी, पालतू पशु, भूरा रंग, काला कुत्ता, खरगोश, पक्षी, भतीजा, बहन और बहनोई आदि को दर्शाता है।

आज के दौर में विरोधियों को पराजित किये बगैर अपने अस्तित्व को बनाये रखना बड़ा मुश्किल है। इस संसार में तमाम सुखों को प्राप्त करने और विरोधियों को परास्त करने के लिए कड़ा संघर्ष करना पड़ता है। इनके बारे में षष्ठम भाव से विचार किया जाता है, इसलिए यह कुंडली में एक महत्वपूर्ण भाव है। छठा भाव रोग, कर्ज और शत्रु से लड़ने की शक्ति को दर्शाता है।

जन्म कुंडली के 12 भावों में से पंचम भाव. ज्योतिष

जन्म कुंडली के 12 भावों में से पंचम भाव.
(ज्योतिष)

जन्म कुंडली में पंचम भाव मुख्य रूप से संतान और ज्ञान का भाव होता है। ऋषि पाराशर के अनुसार इसे सीखने के भाव के तौर पर भी देखा जाता है। यह भाव किसी भी बात को ग्रहण करने की मानसिक क्षमता को दर्शाता है कि, कैसे आप आसानी से किसी विषय के बारे में जान सकते हैं। पंचम भाव गुणात्मक संभावनाओं को भी प्रकट करता है। कुंडली में पंचम भाव को निम्न प्रकार से व्यक्त किया जा सकता है। 

सम्राट की निशानी, कर, बुद्धि, बच्चे, पुत्र, पेट, वैदिक ज्ञान, पारंपरिक कानून, पूर्व में किये गये पुण्य कर्म

प्रश्नज्ञान में भट्टोत्पल कहते हैं कि मंत्रों का उच्चारण या धार्मिक भजन, आध्यात्मिक गतिविधियां, बुद्धिमता और साहित्यिक रचनाएँ पंचम भाव से प्रभावित होती हैं।

पंचम भाव प्रथम संतान की उत्पत्ति, खुशियां, समाज और सामाजिक झुकाव का प्रतिनिधित्व करता है। यह भाव स्वाद और प्रशंसा, कलात्मक गुण, नाट्य रुपांतरण, मनोरंजन, हॉल और पार्टी, रोमांस, प्यार, प्रेम प्रसंग, सिनेमा, मनोरंजन का स्थान, रंगमंच आदि को दर्शाता है। यह भाव सभी प्रकार की वस्तुओं और भौतिक सुखों जैसे- खेल, ओपेरा, ड्रामा, संगीत, नृत्य और मनोरंजन को दर्शाता है।

उत्तर कालामृत के अनुसार पंचम भाव कुंडली में एक महत्वपूर्ण भाव होता है क्योंकि यह उच्च नैतिक मूल्य, मैकेनिकल आर्ट, विवेक, पुण्य और पाप के बीच भेदभाव, मंत्रों के द्वारा प्रार्थना, वैदिक मंत्र और गीतों का उच्चारण, धार्मिक प्रवृत्ति, गहरी सोच, गहन शिक्षा और ज्ञान, विरासत में मिला उच्च पद, साहित्यिक रचना, त्यौहार, संतुष्टि, पैतृक संपत्ति, वेश्या के साथ संबंध और चावल से निर्मित उपहार को दर्शाता है।

ऋषि पाराशर के अनुसार, पंचम भाव, दशम भाव से अष्टम पर स्थित होता है इसलिए पंचम भाव उच्च पद और प्रतिष्ठा में गिरावट को दर्शाता है।

इससे पूर्व जन्म में किये जाने वाले पुण्य कर्मों का पता चलता है। यह भाव प्राणायाम, आध्यात्मिक कार्य, मंत्र-यंत्र, इष्ट देवता, शिष्य और धार्मिक कार्यक्रमों के लिए आमंत्रण को दर्शाता है। यह भाव मानसिक चेतना से आध्यात्मिक ज्ञान की प्राप्ति को प्रकट करता है। काल पुरुष कुंडली में पंचम भाव पर सिंह राशि का नियंत्रण रहता है और इसका स्वामी सूर्य है।

पंचम भाव विशेष विषयों में उच्च शिक्षा, फैलोशिप, पोस्ट ग्रेजुएशन, लेखन, पढ़ना, वाद-विवाद, रिसर्च, मानसिक खोज और कौशल को दर्शाता है। इस भाव से सट्टेबाजी में होने वाले लाभ, शेयर बाजार, जुआ, मैच फिक्सिंग और लॉटरी से जुड़े मामलों को भी देखा जाता है।

पंचम भाव के संबंध में जातक परिजात में उल्लेख मिलता है कि यह बुद्धिमता, पुत्र, धर्म, शासक या राजा को दर्शाता है। तीर्थयात्रा को द्वितीय, पंचम, सप्तम और एकादश भाव से देखा जाता है।

पंचम भाव प्रेम-प्रसंग, किस प्रेम-प्रसंग में सफलता मिलेगी, लाइसेंस, वैध और तर्कसंगत आकर्षण, बलात्कार, अपहरण आदि को दर्शाता है। यह भाव दो लोगों के बीच शारीरिक और चुंबकीय व्यक्तित्व को आकर्षित करता है। यह भाव पेट की चर्बी और ह्रदय का प्रतिनिधित्व करता है। इसके अलावा यह दायें गाल, ह्रदय का दायां भाग या दायें घुटने को भी दर्शाता है।

मेदिनी ज्योतिष में पंचम भाव बुद्धिमता, संवेदना की स्थिरता, सांप्रदायिक सौहार्द, लोगों में सट्टेबाजी की प्रवृत्ति, निवेश, स्टॉक एक्सचेंज, बच्चे, आबादी, विश्वविद्यालय, लोगों के नैतिक मूल्य आदि बातों को दर्शाता है। यह भाव जन्म दर और उससे संबंधित रुचि, मनोरंजन स्थल, सिनेमा, रंगमंच, कला, स्पोर्ट्स, सभी प्रकार के मनोरंजन और खुशियों को प्रदर्शित करता है।

यह भाव राजदूत, सरकार के प्रतिनिधि और विदेशों में स्थित राजनयिकों पर शासन करता है। यह मानव संसाधन मंत्रालय, शिक्षा, स्कूल, संभावनाओं पर आधारित देश की अर्थव्यवस्था, लोगों की खुशियां या दुःख, शिक्षा से संबंधित सुविधाएँ, कला और देश की कलात्मक रचना आदि का बोध कराता है।

पंचम भाव का कुंडली के अन्य भावों से अंतर्संबंध हो सकता है। जैसे कि पंचम भाव संतान, कला, मीडिया, सृजनात्मकता, रंगमंच प्रस्तुति, सिनेमा, मनोरंजन से संंबंधित अन्य साधन, रोमांस और अस्थाई आश्रय या निवास से संबंधित होता है। पंचम भाव चतुर्थ भाव से द्वितीय स्थान पर होता है। तृतीय भाव हमारे अहंकार, अपरिपक्व व्यवहार और सोचने-समझने की शक्ति व ज्ञान को दर्शाता है लेकिन असल में इनका निर्धारण कुंडली में पंचम भाव से होता है।

पंचम भाव उन बिन्दुओं को दर्शाता है, जिनसे जीवन में आप कुछ सीखते हैं। चतुर्थ भाव शुरुआती शिक्षा का कारक होता है, यह प्राथमिक शिक्षा, निवास और भवन को दर्शाता है। पंचम भाव गणित, विज्ञान, कला आदि से संबंधित होता है। इससे तात्पर्य है कि आप किस विषय में विशेषज्ञता प्राप्त करेंगे। शेयर बाजार, सट्टे से लाभ, सिनेमा, अचानक होने वाला धन लाभ और हानि कुंडली में पंचम भाव से देखा जाता है।

पंचम भाव राजनीति, मंत्री, मातृ भूमि से लाभ की प्राप्ति, स्थाई और पारिवारिक संपत्ति को दर्शाता है। आपके पास कितना धन होगा यह कुंडली में चतुर्थ भाव से देखा जाता है। वहीं आपके परिवार के पास कितना धन होगा यह पंचम भाव से जाना जाता है।

पंचम भाव बुद्धिमता, अहंकार और आपके बड़े भाई-बहनों की संवाद क्षमता को दर्शाता है। आपकी माता का धन और उन्हें होने वाले लाभ, बच्चों से जुड़े खर्च, आपके जीवनसाथी और भाई-बहनों की इच्छा व उन्हें प्राप्त होने वाले लाभ का बोध भी पंचम भाव से होता है। यह भाव अंतर्ज्ञान और जीवनसाथी के परिवार की छवि के प्रभाव को भी दर्शाता है। यह भाव धर्म, दर्शन, धार्मिक और आध्यात्मिक मान्यताओं का सबसे उच्च भाव है। यह दर्शाता है कि आपके पिता और गुरु से आप किस प्रकार ज्ञान प्राप्त करेंगे।

ज्योतिष शास्त्र की पुस्तकों में पंचम भाव कर्म या नौकरी का अंत और शुरुआत को दर्शाता है। इसका मतलब है कि आप नौकरी खो देंगे और आपको नई नौकरी मिलेगी या जॉब के लिए नये अवसर मिलेंगे। पंचम भाव बॉस की गुप्त संपत्तियाँ, इच्छाओं का अंत, बड़े भाई-बहनों के जीवनसाथी, दादी की सेहत, मोक्ष और आध्यात्मिक उन्नति की राह में आने वाली कठिनाइयों को दर्शाता है।

लाल किताब के अनुसार पंचम भाव संतान, पुत्र, ज्ञान, यंत्र-मंत्र-तंत्र, स्कूल और एजुकेशनल इंस्टीट्यूट को दर्शाता है।

लाल किताब के अनुसार बृहस्पति को भूमि का स्वामी और सूर्य को घर का स्वामी माना जाता है। दशम भाव का स्वामी शनि होता है। दशम भाव में स्थित ग्रह पंचम में बैठे हुए ग्रह पर नकारात्मक प्रभाव डालता है। पंचम भाव की नवम भाव पर दृष्टि रहती है और इससे यह सक्रिय रहता है। यदि एकादश में कोई ग्रह स्थित न हो तो, पंचम भाव निष्क्रिया या तटस्थ रहता है।

कुंडली में पंचम भाव एक महत्वपूर्ण भाव है, यह आपके भूत और भविष्य का निर्धारण करता है। हिन्दू धार्मिक मान्यताओं के अनुसार यदि आप इस जन्म में अच्छे कर्म करते हैं तो इसका फल आपको अगले जन्म में अवश्य मिलेगा।