(लगातार-सम्पूर्ण
श्रीमद्भागवत पुराण)
श्रीमद्भागवत महापुराण:
चतुर्थ स्कन्ध: षोडश
अध्यायः श्लोक 1-16
का हिन्दी अनुवाद
वन्दीजन द्वारा महाराज पृथु की स्तुति.
ये अकेले ही समय-समय पर प्रजा के पालन, पोषण और अनुरंजन आदि कार्य के अनुसार अपने शरीर में भिन्न-भिन्न लोकपालों की मूर्ति को धारण करेंगे तथा यज्ञ आदि के प्रचार द्वरा स्वर्गलोक और वृष्ठि की व्यवस्था द्वारा भूलोक- दोनों का ही हित साधन करेंगे। ये सूर्य के समान अलौकिक, महिमान्वित, प्रतापवान् और समदर्शी होंगे।
जिस प्रकार सूर्य देवता आठ महीने तपते रहकर जल खींचते हैं और वर्षा-ऋतु में उसे उड़ेल देते हैं, उसी प्रकार ये कर आदि के द्वारा कभी धन-संचय करेंगे और कभी उसका प्रजा के हित के लिये व्यय कर डालेंगे। ये बड़े दयालु होंगे। यदि कभी कोई दीनपुरुष इनके मस्तक पर पैर भी रख देगा, तो भी ये पृथ्वी के समान उसके इस अनुचित व्यवहार को सदा सहन करेंगे। कभी वर्षा न होगी और प्रजा के प्राण संकट में पड़ जायेंगे, तो ये राजवेषधारी श्रीहरि इन्द्र की भाँति जल बरसाकर अनायास ही उसकी रक्षा कर लेंगे। ये अपने अमृतमय मुखचन्द्र की मनोहर मुस्कान और प्रेमभरी चितवन से सम्पूर्ण लोकों को आनन्दमग्न कर देंगे।
इनकी गति को कोई समझ न सकेगा, इनके कार्य भी गुप्त होंगे तथा उन्हें सम्पन्न करने का ढंग भी बहुत गम्भीर होगा। इनका धन सदा सुरक्षित रहेगा। ये अनन्त माहात्म्य और गुणों के एकमात्र आश्रय होंगे। इस प्रकार मनस्वी पृथु साक्षात् वरुण के ही समान होंगे। ‘महाराज पृथु वेनरूप अरणि के मन्थन से प्रकट हुए अग्नि के समान हैं। शत्रुओं के लिये ये अत्यन्त दुर्धर्ष और दुःसह होंगे। ये उनके समीप रहने पर भी, सेनादि से सुरक्षित रहने के कारण, बहुत दूर रहने वाले-से होंगे। शत्रु कभी इन्हें हरा न सकेंगे। जिस प्रकार प्राणियों के भीतर रहने वाला प्राणरूप सूत्रात्मा शरीर के भीतर-बाहर के समस्त व्यापारों को देखते रहने पर भी उदासीन रहता है, उसी प्रकार ये गुप्तचरों के द्वारा प्राणियों के गुप्त और प्रकट सभी प्रकार के व्यापार देखते हुए भी अपनी निन्दा और स्तुति आदि के प्रति उदासीनवत् रहेंगे।
ये धर्ममार्ग में स्थित रहकर अपने शत्रु के पुत्र को भी, दण्डनीय न होने पर, कोई न दण्ड ने देंगे और दण्डनीय होने पर तो अपने पुत्र को भी दण्ड देंगे। भगवान् सूर्य मानसोत्तर पर्वत तक जितने प्रदेश को अपनी किरणों से प्रकाशित करते हैं, उस सम्पूर्ण क्षेत्र में इनका निष्कण्टक राज्य रहेगा। ये अपने कार्यों से सब लोकों को सुख पहुँचावेंगे- उनका रंजन करेंगे; इससे उन मनोरंजनात्मक व्यापारों के कारण प्रजा इन्हें ‘राजा’ कहेगी। ये बड़े दृशसंकल्प, सत्यप्रतिज्ञ, ब्राह्मण भक्त, वृद्धों की सेवा करने वाले, शरणागतवत्सल, सब प्राणियों को मान देने वाले और दीनों पर दया करने वाले होंगे।
साभार krishnakosh.org
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें