श्रीमद्भागवत महापुराण: चतुर्थ स्कन्ध: विंश अध्यायः श्लोक 28-38 का हिन्दी अनुवाद


(लगातार-सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत पुराण)
श्रीमद्भागवत महापुराण:
चतुर्थ स्कन्ध: विंश अध्यायः श्लोक 28-38 का हिन्दी अनुवाद

जगदीश्वर! जगज्जननी लक्ष्मी जी के हृदय में मेरे प्रति विरोधभाव होने की संभावना तो है ही; क्योंकि जिस आपके सेवाकार्य में उनका अनुराग है, उसी के लिये मैं भी लालायित हूँ। किन्तु आप दीनों पर दया करते हैं, उनके तुच्छ कर्मों को भी बहुत करके मानते हैं। इसलिये मुझे आशा है कि हमारे झगड़े में भी आप मेरा ही पक्ष लेंगे। आप तो अपने स्वरूप में ही रमण करते हैं; आपको भला, लक्ष्मी जी से भी क्या लेना है। इसी से निष्काम महात्मा ज्ञान हो जाने के बाद भी आपके भजन करते हैं। आप में माया के कार्य अहंकारदि का सर्वथा अभाव है। भगवन्! मुझे तो आपके चरणकमलों का निरन्तर चिन्तन करने के सिवा सत्पुरुषों का कोई और प्रयोजन ही नहीं जान पड़ता। मैं भी बिना किसी इच्छा के आपका भजन करता हूँ, आपने जो मुझसे कहा कि ‘वर माँग’ सो आपकी इस वाणी को तो मैं संसार को मोह में डालने वाली ही मानता हूँ। यही क्या, आपकी वेदरूपा वाणी ने भी तो जगत् को बाँध रखा है। यदि उस वेदवाणीरूप रस्सी से लोग बँधे न होते, तो वे मोहवश सकाम कर्म क्यों करते? प्रभो! आपकी माया से ही मनुष्य अपने वास्तविक स्वरूप आपसे विमुख होकर अज्ञानवश अन्य स्त्री-पुत्रादि की इच्छा करता है। फिर भी जिस प्रकार पिता पुत्र की प्रार्थना कि अपेक्षा न रखकर अपने-आप ही पुत्र का कल्याण करता है, उसी प्रकार आप भी हमारी इच्छा की अपेक्षा न करके हमारे हित के लिये स्वयं ही प्रयत्न करें।

श्रीमैत्रेय जी कहते हैं- आदिराज पृथु के इस प्रकार स्तुति करने पर सर्वसाक्षी श्रीहरि ने उनसे कहा, ‘राजन्! तुम्हारी मुझमे भक्ति हो। बड़े सौभाग्य की बात है कि तुम्हारा चित्त इस प्रकार मुझमें लगा हुआ है। ऐसा होने पर तो पुरुष सहज में ही मेरी उस माया को पार कर लेता है, जिसको छोड़ना या जिसके बन्धन से छूटना अत्यन्त कठिन है। अब तुम सावधानी से मेरी आज्ञा का पालन करते रहो। प्रजापालक नरेश! जो पुरुष मेरी आज्ञा का पालन करता है, उसका सर्वत्र मंगल होता है’।

श्रीमैत्रेय जी कहते हैं- विदुर जी! इस प्रकार भगवान् ने राजर्षि पृथु के सारगर्भित वचनों का आदर किया। फिर पृथु ने उनकी पूजा की और प्रभु उन पर सब प्रकार कृपा कर वहाँ से चलने को तैयार हुए। महाराज पृथु ने वहाँ जो देवता, ऋषि, पितर, गंधर्व, सिद्ध, चारण, नाग, किन्नर, अप्सरा, मनुष्य और पक्षी आदि अनेक प्रकार के प्राणी एवं भगवान् के पार्षद आये थे, उन सभी का भगवदबुद्धि से भक्तिपूर्वक वाणी और धन के द्वारा हाथ जोड़कर पूजन किया। इसके बाद वे सब अपने-अपने स्थानों को चले गये। भगवान् अच्युत भी राजा पृथु एवं उनके पुरोहितों का चित्त चुराते हुए अपने धाम को सिधारे। तदनन्तर अपना स्वरूप दिखाकर अन्तर्धान हुए अव्यक्तस्वरूप देवाधिदेव भगवान् को नमस्कार करके राजा पृथु भी अपनी राजधानी में चले आये।

साभार krishnakosh.org

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