(लगातार-सम्पूर्ण
श्रीमद्भागवत पुराण)
श्रीमद्भागवत महापुराण:
चतुर्थ स्कन्ध: चतुर्विंश
अध्यायः श्लोक 1-15
का हिन्दी अनुवाद
पृथु
की वंश परम्परा और प्रचेताओं को भगवान् रुद्र का उपदेश.
कुरुश्रेष्ठ विदुर जी! इनमें हविर्धान के पुत्र महाभाग बर्हिषद् यज्ञादि कर्मकाण्ड और योगाभ्यास में कुशल थे। उन्होंने प्रजापति का पद प्राप्त किया। उन्होंने एक स्थान के बाद दूसरे स्थान में लगातार इतने यज्ञ किये कि यह सारी भूमि पूर्व की ओर अग्रभाग करके फैलाये हुए कुशों से पट गयी थी (इसी से आगे चलकर वे ‘प्राचीनबर्हि’ नाम से विख्यात हुए)। राजा प्राचीनबर्हि ने ब्रह्मा जी के कहने से समुद्र की कन्या शतद्रुति से विवाह किया था। सर्वांगसुन्दरी किशोरी शतद्रुति सुन्दर वस्त्राभूषणों से सज-धजकर विवाह-मण्डप में जब भाँवर देने के लिये घूमने लगी, तब स्वयं अग्निदेव भी मोहित होकर उसे वैसे ही चाहने लगे जैसे शुकी को चाहा था।
नवविवाहिता शतद्रुति ने अपने नूपुरों की झनकार से ही दिशा-विदिशाओं के देवता, असुर, गन्धर्व, मुनि, सिद्ध, मनुष्य और नाग-सभी को वश में कर लिया था। शतद्रुति के गर्भ से प्राचीनबर्हि के प्रचेता नाम के दस पुत्र हुए। वे सब बड़े ही धर्मज्ञ तथा एक-से नाम और आचरण वाले थे। जब पिता ने उन्हें सन्तान उत्पन्न करने का आदेश दिया, तब उन सब ने तपस्या करने के लिये समुद्र में प्रवेश किया। वहाँ दस हजार वर्ष तक तपस्या करते हुए उन्होंने तप का फल देने वाले श्रीहरि की आराधना की। घर से तपस्या करने के लिये जाते समय मार्ग में श्रीमहादेव जी ने उन्हें दर्शन देकर कृपापूर्वक इस जिस तत्त्व का उपदेश दिया था, उसी का वे एकाग्रतापूर्वक ध्यान, जप और पूजन करते रहे।
साभार krishnakosh.org
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें