श्रीमद्भागवत महापुराण: तृतीय स्कन्ध: द्वादश अध्यायः श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद


 (लगातार-सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत पुराण)
श्रीमद्भागवत महापुराण:
तृतीय स्कन्ध: द्वादश अध्यायः श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद

सृष्टि का विस्तार श्रीमैत्रेय जी ने कहा- विदुर जी! यहाँ तक मैंने आपको भगवान् की कालरूप महिमा सुनायी। अब जिस प्रकार ब्रह्मा जी ने जगत् की रचना की, वह सुनिये। सबसे पहले उन्होंने अज्ञान की पाँच वृत्तियाँ- तम (अविद्या), मोह (अस्मिता), महामोह (राग), तामिस्र (द्वेष) और अन्ध तामिस्र (अभिनिवेश) रचीं। किन्तु इस अत्यन्त पापमयी सृष्टि को देखकर उन्हें प्रसन्नता नहीं हुई। तब उन्होंने अपने मन को भगवान् के ध्यान से पवित्र कर उससे दूसरी सृष्टि रची। इस बार ब्रह्मा जी ने सनक, सनन्दन, सनातन और सनत्कुमार- ये चार निवृत्ति परायण उर्ध्वरेता मुनि उत्पन्न किए। अपने इन पुत्रों से ब्रह्मा जी ने कहा- ‘पुत्रों! तुम लोग सृष्टि उत्पन्न करो।’ किंतु वे जन्म से ही मोक्ष मार्ग (निवृत्ति मार्ग) का अनुसरण करने वाले और भगवान् के ध्यान में तत्पर थे, इसलिये उन्होंने ऐसा करना नहीं चाहा। जब ब्रह्मा जी ने देखा कि मेरी आज्ञा न मानकर ये मेरे पुत्र मेरा तिरस्कार कर रहे हैं, तब उन्हें असह्य क्रोध हुआ। उन्होंने उसे रोकने का प्रयत्न किया। किंतु बुद्धि-द्वारा उनके बहुत रोकने पर भी वह क्रोध तत्काल प्रजापति की भौहों के बीच में से एक नील लोहित (नीले और लाल रंग के) बालक के रूप में प्रकट हो गया। वे देवताओं के पूर्वज भगवान् भव (रुद्र) रो-रोकर कहने लगे- ‘जगत्पिता! विधाता! मेरे नाम और रहने के स्थान बतलाइये’। तब कमलयोनि भगवान् ब्रह्मा ने उस बालक की प्रार्थना पूर्ण करने के लिये मधुर वाणी में कहा, ‘रोओ मत, मैं अभी तुम्हारी इच्छा पूरी करता हूँ। देवश्रेष्ठ! तुम जन्म लेते ही बालक के समान फूट-फूटकर रोने लगे, इसलिये प्रजा तुम्हें ‘रुद्र’ नाम से पुकारेगी। तुम्हारे रहने के लिये मैंने पहले से ही हृदय, इन्द्रिय, प्राण, आकाश, वायु, अग्नि, जल, पृथ्वी, सूर्य, चन्द्रमा और तप- ये स्थान रच दिये हैं। तुम्हारे नाम मन्यु, मनु, महिनस, महान्, शिव, ऋतध्वज, उग्ररेता, भव, काल, वामदेव और धृतव्रत होंगे तथा धी, वृत्ति, उशना, उमा, नियुत्, सर्पि, इला, अम्बिका, इरावती, सुधा और दीक्षा- ये ग्यारह रुद्राणियाँ तुम्हारी पत्नियाँ होंगी। तुम उपर्युक्त नाम, स्थान और स्त्रियों को स्वीकार करो और इनके द्वारा बहुत-सी प्रजा उत्पन्न करो; क्योंकि तुम प्रजापति हो’। लोकपिता ब्रह्मा जी से ऐसी आज्ञा पाकर भगवान् नीललोहित बल, आकार और स्वभाव में अपने ही जैसी प्रजा उत्पन्न करने लगे। भगवान् रुद्र के द्वारा उत्पन्न हुए उन रुद्रों को असंख्य यूथ बनाकर सारे संसार को भक्षण करते देख ब्रह्मा जी को बड़ी शंका हुई। तब उन्होंने रुद्र से कहा- सुरश्रेष्ठ! तुम्हारी प्रजा तो अपनी भयंकर दृष्टि से मुझे और सारी दिशाओं को भस्म किये डालती है; अतः ऐसी सृष्टि न रचो। तुम्हारा कल्याण हो, अब तुम समस्त प्राणियों को सुख देने के लिये तप करो। फिर उस तप के प्रभाव से ही तुम पूर्ववत् इस संसार की रचना करना। पुरुष तप के द्वारा ही इन्द्रियातीत, सर्वान्तर्यामी, ज्योतिःस्वरूप श्रीहरि को सुगमता से प्राप्त कर सकता है’। श्रीमैत्रेय जी कहते हैं- जब ब्रह्मा जी ने ऐसी आज्ञा दी, तब रुद्र ने ‘बहुत अच्छा’ कहकर उसे शिरोधार्य किया और फिर उनकी अनुमति लेकर तथा उनकी परिक्रमा करके वे तपस्या करने के लिये वन में चले गये।
साभार krishnakosh.org

श्रीमद्भागवत महापुराण: तृतीय स्कन्ध: एकादश अध्यायः श्लोक 28-41 का हिन्दी अनुवाद


(लगातार-सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत पुराण)
श्रीमद्भागवत महापुराण:
तृतीय स्कन्ध: एकादश अध्यायः श्लोक 28-41 का हिन्दी अनुवाद

उस समय सारा विश्व उन्हीं में लीन हो जाता है। जब सूर्य और चन्द्रमादि से रहित वह प्रलयरात्रि आती है, तब वे भूः, भुवः, स्वः- तीनों लोक उन्हीं ब्रह्मा जी के शरीर में छिप जाते हैं। उस अवसर पर तीनों लोक शेषजी के मुख से निकली हुई अग्निरूप भगवान् की शक्ति से जलने लगते हैं। इसलिये उसके ताप से व्याकुल होकर भृगु आदि मुनीश्वरगण महर्लोक से जनलोक को चले जाते हैं। इतने में ही सातों समुद्र प्रलयकाल के प्रचण्ड पवन से उमड़कर अपनी उछलती हुई उत्ताल तरंगों से त्रिलोकी को डुबो देते हैं। तब उस जल के भीतर भगवान् शेषशायी योगनिद्रा से नेत्र मूँदकर शयन करते हैं। उस समय जनलोक निवासी मुनिगण उनकी स्तुति किया करते हैं। इस प्रकार काल की गति से एक-एक सहस्र चतुर्युग के रूप में प्रतीत होने वाले दिन-रात के हेर-फेर से ब्रह्मा जी की सौ वर्ष की परमायु भी बीती हुई-सी दिखायी देती है। ब्रह्मा जी की आयु के आधे भाग को परार्ध कहते हैं। अब तक पहला परार्ध तो बीत चुका है, दूसरा चल रहा है। पूर्व परार्ध के आरम्भ में ब्राह्मा नामक महान् कल्प हुआ था। उसी में ब्रह्मा जी की उत्पत्ति हुई थी। पण्डितजन इन्हें शब्दब्रह्म कहते। उसी परार्ध के अन्त में जो कल्प हुआ था, उसे पाद्मकल्प कहते हैं। इसमें भगवान् के नाभि सरोवर से सर्वलोकमय कमल प्रकट हुआ था।

विदुर जी! इस समय जो कल्प चल रहा है, वह दूसरे परार्ध का आरम्भक बतलाया जाता है। यह 'वाराहकल्प' नाम से विख्यात है, इसमें भगवान् ने सूकररूप धारण किया था। यह दो परार्ध का काल अव्यक्त, अनन्त, अनादि, विश्वात्मा श्रीहरि का एक निमेष माना जाता है। यह परमाणु से लेकर द्विपरार्धपर्यन्त फैला हुआ काल सर्वसमर्थ होने पर भी सर्वात्मा श्रीहरि पर किसी प्रकार की प्रभुता नहीं रखता। यह तो देहादि में अभिमान रखने वाले जीवों का ही शासन करने में समर्थ है। प्रकृति, महत्तत्त्व, अहंकार और पंचतन्मात्र- इन आठ प्रकृतियों के सहित दस इन्द्रियाँ, मन और पंचभूत- इन सोलह विकारों से मिलकर बना हुआ यह ब्रह्माण्डकोश भीतर से पचास करोड़ योजन विस्तार वाला है तथा इसके बाहर चारों ओर उत्तरोत्तर दस-दस गुने सात आवरण हैं। उन सबके सहित यह जिसमें ऐसी करोड़ों ब्रह्माण्ड राशियाँ हैं, वह इन प्रधानादि समस्त कारणों का कारण अक्षर ब्रह्म कहलाता है और यही पुराणपुरुष परमात्मा श्रीविष्णु भगवान् का श्रेष्ठ धाम (स्वरूप) है।

साभार krishnakosh.org


श्रीमद्भागवत महापुराण: तृतीय स्कन्ध: एकादश अध्यायः श्लोक 12-27 का हिन्दी अनुवाद


 (लगातार-सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत पुराण)
श्रीमद्भागवत महापुराण:
तृतीय स्कन्ध: एकादश अध्यायः श्लोक 12-27 का हिन्दी अनुवाद

चन्द्रमा आदि ग्रह, अश्विनी आदि नक्षत्र और समस्त तारा-मण्डल के अधिष्ठाता कालस्वरूप भगवान् सूर्य परमाणु से लेकर संवत्सरपर्यन्त काल में द्वादश राशिरूप सम्पूर्ण भुवनकोश की निरन्तर परिक्रमा किया करते हैं। सूर्य, बृहस्पति, सवन, चन्द्रमा और नक्षत्रसम्बन्धी महीनों के भेद से यह वर्ष ही संवत्सर, परिवत्सर, इडावत्सर, अनुवत्सर और वत्सर कहा जाता है। विदुर जी! इन पाँच प्रकार के वर्षों की प्रवृत्ति करने वाले भगवान् सूर्य की तुम उपहारादि समर्पित करके पूजा करो। ये सूर्यदेव पंचभूतों में से तेजःस्वरूप हैं और अपनी कालशक्ति से बीजादि पदार्थों की अंकुर उत्पन्न करने की शक्ति को अनेक प्रकार के कार्योंन्मुख करते हैं। ये पुरुषों की मोहनिवृत्ति के लिये उनकी आयु का क्षय करते हुए आकाश में विचरते रहते है तथा ये ही सकाम-पुरुषों को यज्ञादि कर्मों से प्राप्त होने वाले स्वर्गादि मंगलमय फलों का विस्तार करते हैं। विदुर जी ने कहा- मुनिवर! आपने देवता, पितर और मनुष्यों की परम आयु का वर्णन तो किया। अब तो सनकादि ज्ञानी मुनिजन त्रिलोकी से बाहर कल्प से भी अधिक काल तक रहने वाले हैं, उनकी भी आयु का वर्णन कीजिये। आप भगवान् काल की गति भलीभाँति जानते हैं; क्योंकि ज्ञानी लोग अपनी योग सिद्ध दिव्यदृष्टि से सारे संसार को देख लेते हैं। मैत्रेय जी ने कहा- विदुर जी! सत्ययुग, त्रेता, द्वापर और कलि- ये चार युग अपनी सन्ध्या और संध्यांशों के सहित देवतावों के बारह सहस्र वर्ष तक रहते हैं, ऐसा बतलाया गया है। इन सत्यादि चारों युगों में क्रमशः चार, तीन, दो और एक सहस्र दिव्य वर्ष होते हैं और प्रत्येक में जितने सहस्र वर्ष होते हैं, उससे दुगुनी सौ वर्ष उनकी सन्ध्या और संध्यांशों में होते हैं। युग की आदि में सन्ध्या होती है और अन्त में संध्यांश। इनकी वर्ष-गणना सैकड़ों की संख्या में बतलायी गयी है। इनके बीच का जो काल होता है, उसी को कालवेत्ताओं ने युग कहा है। प्रत्येक युग में एक-एक विशेष धर्म का विधान पाया जाता है।

प्यारे विदुर जी! त्रिलोकी से बाहर महर्लोक से ब्रह्मलोकपर्यन्त यहाँ की एक सहस्र चतुर्युगी का एक दिन होता है और इतनी ही बड़ी रात्रि होती है, जिसमें जगत्कर्ता ब्रह्मा जी शयन करते हैं। उस रात्रि का अन्त होने पर इस लोक का कल्प आरम्भ होता है; उसका क्रम जब तक ब्रह्मा जी का दिन रहता है तब तक चलता रहता है। उस एक कल्प में चौदह मनु हो जाते हैं। प्रत्येक मनु इकहत्तर चतुर्युगी से कुछ अधिक काल (71 6/12 चतुर्युगी) तक अपना अधिकार भोगता है। प्रत्येक मन्वन्तर में भिन्न-भिन्न मनुवंशी राजा लोग, सप्तर्षि, देवगण, इन्द्र और उनके अनुयायी गन्धर्वादि साथ-साथ ही अपना अधिकार भोगते हैं। यह ब्रह्मा जी की प्रतिदिन की सृष्टि है, जिसमें तीनों लोकों की रचना होती है। उसमें अपने-अपने कर्मानुसार पशु-पक्षी, मनुष्य, पितर और देवताओं की उत्पत्ति होती है। इन मन्वन्तरों में भगवान् सत्त्वगुण का आश्रय ले, अपनी मनु आदि मूर्तियों के द्वारा पौरुष प्रकट करते हुए इस विश्व का पालन करते हैं। काल क्रम से जब ब्रह्मा जी का दिन बीत जाता है, तब वे तमोगुण के सम्पर्क को स्वीकार कर अपने सृष्टि रचनारूप पौरुष को स्थगित करके निश्चेष्ट भाव से स्थित हो जाते हैं।

साभार krishnakosh.org

स्वर्ग का देवता.


स्वर्ग का देवता.


लक्ष्मी नारायण बहुत भोला लड़का था। वह प्रतिदिन रात में सोने से पहले अपनी दादी से कहानी सुनाने को कहता था। दादी उसे नागलोक, पाताल, गन्धर्व लोक, चन्द्रलोक, सूर्यलोक आदि की कहानियाँ सुनाया करती थी।

एक दिन दादी ने उसे स्वर्ग का वर्णन सुनाया। स्वर्ग का वर्णन इतना सुन्दर था कि उसे सुनकर लक्ष्मी नारायण स्वर्ग देखने के लिये हठ करने लगा। दादी ने उसे बहुत समझाया कि मनुष्य स्वर्ग नहीं देख सकता, किन्तु लक्ष्मीनारायण रोने लगा। रोते- रोते ही वह सो गया।

उसे स्वप्न में दिखायी पड़ा कि एक चम- चम चमकते देवता, उसके पास खड़े होकर कह रहे हैं- बच्चे ! स्वर्ग देखने के लिये मूल्य देना पड़ता है। तुम सरकस देखने जाते हो तो टिकट देते हो न? स्वर्ग देखने के लिये भी तुम्हें उसी प्रकार रुपये देने पड़ेंगे।

स्वप्न में लक्ष्मीनारायण सोचने लगा कि मैं दादी से रुपये माँगूँगा। लेकिन देवता ने कहा- स्वर्ग में तुम्हारे रुपये नहीं चलते। यहाँ तो भलाई और पुण्य कर्मों का रुपया चलता है।


अच्छा, एक काम करोगे तो एक रुपया इसमें आ जायगा और जब कोई बुरा काम करोगे तो एक रुपया इसमें से उड़ जायगा। जब यह डिबिया भर जायगी, तब तुम स्वर्ग देख सकोगे।

जब लक्ष्मीनारायण की नींद टूटी; तो उसने अपने सिरहाने सचमुच एक डिबिया देखी। डिबिया लेकर वह बड़ा प्रसन्न हुआ। उस दिन उसकी दादी ने उसे एक पैसा दिया। पैसा लेकर वह घर से निकला।

एक रोगी भिखारी, उससे पैसा माँगने लगा। लक्ष्मीनारायण भिखारी को बिना पैसा दिये भाग जाना चाहता था, इतने में उसने अपने अध्यापक को सामने से आते देखा। उसके अध्यापक उदार लड़कों की बहुत प्रशंसा किया करते थे। उन्हें देखकर लक्ष्मीनारायण ने भिखारी को पैसा दे दिया। अध्यापक ने उसकी पीठ ठोंकी और प्रशंसा की।

घर लौटकर लक्ष्मीनारायण ने वह डिबिया खोली, किन्तु वह खाली पड़ी थी। इस बात से लक्ष्मी नारायण को बहुत दुःख हुआ। वह रोते- रोते सो गया। सपने में उसे वही देवता फिर दिखायी पड़े और बोले- तुमने अध्यापक से प्रशंसा पाने के लिये पैसा दिया था, सो प्रशंसा मिल गयी।

अब रोते क्यों हो? किसी लाभ की आशा से जो अच्छा काम किया जाता है, वह तो व्यापार है, वह पुण्य थोड़े ही है। दूसरे दिन लक्ष्मीनारायण को उसकी दादी ने दो आने पैसे दिये। पैसे लेकर उसने बाजार जाकर दो संतरे खरीदे।

उसका साथी मोतीलाल बीमार था। बाजार से लौटते समय वह अपने मित्र को देखने, उसके घर चला गया। मोतीलाल को देखने उसके घर वैद्य आये थे। वैद्य जी ने दवा देकर मोती लाल की माता से कहा- इसे आज संतरे का रस देना।

मोतीलाल की माता बहुत गरीब थी। वह रोने लगी और बोली- ‘मैं मजदूरी करके पेट भरती हूँ। इस समय बेटे की बीमारी में कई दिन से काम करने नहीं जा सकी। मेरे पास संतरे खरीदने के लिये एक भी पैसा नहीं है।’

लक्ष्मीनारायण ने अपने दोनों संतरे मोतीलाल की माँ को दिये। वह लक्ष्मीनारायण को आशीर्वाद देने लगी। घर आकर जब लक्ष्मीनारायण ने अपनी डिबिया खोली तो उसमें दो रुपये चमक रहे थे।

एक दिन लक्ष्मीनारायण खेल में लगा था। उसकी छोटी बहिन वहाँ आयी और उसके खिलौनों को उठाने लगी। लक्ष्मीनारायण ने उसे रोका। जब वह न मानी तो उसने उसे पीट दिया।

बेचारी लड़की रोने लगी। इस बार जब उसने डिबिया खोली तो देखा कि उसके पहले के इकट्ठे कई रुपये उड़ गये हैं। अब उसे बड़ा पश्चाताप हुआ। उसने आगे कोई बुरा काम न करने का पक्का निश्चय कर लिया।

मनुष्य जैसे काम करता है, वैसा उसका स्वभाव हो जाता है। जो बुरे काम करता है, उसका स्वभाव बुरा हो जाता है। उसे फिर बुरा काम करने में ही आनन्द आता है। जो अच्छा काम करता है, उसका स्वभाव अच्छा हो जाता है। उसे बुरा काम करने की बात भी बुरी लगती है।

लक्ष्मीनारायण पहले रुपये के लोभ से अच्छा काम करता था। धीरे- धीरे उसका स्वभाव ही अच्छा काम करने का हो गया। अच्छा काम करते- करते उसकी डिबिया रुपयों से भर गयी। स्वर्ग देखने की आशा से प्रसन्न होता, उस डिबिया को लेकर वह अपने बगीचे में पहुँचा।

लक्ष्मीनारायण ने देखा कि बगीचे में पेड़ के नीचे बैठा हुआ, एक बूढ़ा साधु रो रहा है। वह दौड़ता हुआ साधु के पास गया और बोला- बाबा ! आप क्यों रो रहे है? साधु बोला- बेटा जैसी डिबिया तुम्हारे हाथ में है, वैसी ही एक डिबिया मेरे पास थी। बहुत दिन परिश्रम करके मैंने उसे रुपयों से भरा था।

बड़ी आशा थी कि उसके रुपयों से स्वर्ग देखूँगा, किन्तु आज गंगा जी में स्नान करते समय वह डिबिया पानी में गिर गयी। लक्ष्मी नारायण ने कहा- बाबा ! आप रोओ मत। मेरी डिबिया भी भरी हुई है। आप इसे ले लो।

साधु बोला- तुमने इसे बड़े परिश्रम से भरा है, इसे देने से तुम्हें दुःख होगा। लक्ष्मी नारायण ने कहा- मुझे दुःख नहीं होगा बाबा ! मैं तो लड़का हूँ। मुझे तो अभी बहुत दिन जीना है। मैं तो ऐसी कई डिबिया रुपये इकट्ठे कर सकता हुँ। आप बूढ़े हो गये हैं। आप मेरी डिबिया ले लीजिये।

साधु ने डिबिया लेकर लक्ष्मीनारायण के नेत्रों पर हाथ फेर दिया। लक्ष्मीनारायण के नेत्र बंद हो गये। उसे स्वर्ग दिखायी पड़ने लगा। ऐसा सुन्दर स्वर्ग कि दादी ने जो स्वर्ग का वर्णन किया था, वह वर्णन तो स्वर्ग के एक कोने का भी ठीक वर्णन नहीं था।

जब लक्ष्मीनारायण ने नेत्र खोले तो साधु के बदले स्वप्न में दिखायी पड़ने वाला, वही देवता उसके सामने प्रत्यक्ष खड़ा था। देवता ने कहा- बेटा ! जो लोग अच्छे काम करते हैं, उनका घर स्वर्ग बन जाता है। तुम इसी प्रकार जीवन में भलाई करते रहोगे तो अन्त में स्वर्ग में पहुँच जाओगे।’ देवता इतना कहकर वहीं अदृश्य हो गये।

(by AWGP) 

परोपकार.


परोपकार.

एक अमीर आदमी विभिन्न मंदिरों में जन कल्याणकारी कार्यो के लिए धन देता था। विभिन्न उत्सवों व त्योहारों पर भी वह दिल खोलकर खर्च करता। शहर के लगभग सभी मंदिर उसके दिए दान से उपकृत थे। इसीलिए लोग उसे काफी इज्जत देते थे।

उस संपन्न व्यक्ति ने एक नियम बना रखा था कि वह प्रतिदिन मंदिर में शुद्ध घी का दीपक जलाता था। दूसरी ओर एक निर्धन व्यक्ति था। नित्य तेल का दीपक जलाकर एक अंधेरी गली में रख देता था, जिससे लोगों को आने-जाने में असुविधा न हो। संयोग से दोनों की मृत्यु एक ही दिन हुई। दोनों यमराज के पास साथ-साथ पहुंचे। यमराज ने दोनों से उनके द्वारा किए गए कार्यो का लेखा-जोखा पूछा। सारी बात सुनकर यमराज ने धनिक को निम्न श्रेणी और निर्धन को उच्च श्रेणी की सुख-सुविधाएं दीं।

धनिक ने क्रोधित होकर पूछा- “यह भेदभाव क्यों? जबकि मैंने आजीवन भगवान के मंदिर में शुद्ध घी का दीपक जलाया और इसने तेल का दीपक रखा। वह भी अंधेरी गली में, न कि भगवान के समक्ष?”

तब यमराज ने समझाया- “पुण्य की महत्ता मूल्य के आधार पर नहीं, कर्म की उपयोगिता के आधार पर होती है। मंदिर तो पहले से ही प्रकाशयुक्त था। जबकि इस निर्धन ने ऐसे स्थान पर दीपक जलाकर रखा, जिसका लाभ अंधेरे में जाने वाले लोगों को मिला। उपयोगिता इसके दीपक की अधिक रही। तुमने तो अपना परलोक सुधारने के स्वार्थ से दीपक जलाया था।“

सार यह है कि ईश्वर के प्रति स्वहितार्थ प्रदर्शित भक्ति की अपेक्षा परहितार्थ कार्य करना अधिक पुण्यदायी होता है और ऐसा करने वाला ही सही मायनों में पुण्यात्मा होता है; क्योंकि ‘स्व’ से ‘पर’ सदा वंदनीय होता है।

इसके अतिरिक्त कुछ लोग सिर्फ मंदिर को ही भगवान का घर और विषेश आवरण धारीयों को ही ईश्वर के निकटवर्ती मान लेते हैं। जबकी इतनी बडी दुनिया बनाने वाले का सिर्फ मंदिर में समेट देना उचित नहीं।

मंदिर पूजा गृह हैं; जहाँ हम अपने अंतःवासी भगवान से मिलते हैं। अतः मंदिर में दिया स्वयं को दिया हो जाता है। पर भगवान कण-कण वासी हैं, उनकी सेवा के लिये मंदिर के बाहर आना होगा, और जीव मात्र, चर-अचर जगत की सेवा और सत्कार का भाव तन-मन में जगाना होगा।

(by AWGP) 

विश्वास की दौलत.


विश्वास की दौ.

सऊदी अरब में बुखारी नामक एक विद्वान रहते थे। वह अपनी ईमानदारी के लिए मशहूर थे। एक बार वह समुद्री जहाज से लंबी यात्रा पर निकले। उन्होंने सफर के खर्च के लिए एक हजार दीनार अपनी पोटली में बांध कर रख ली। यात्रा के दौरान बुखारी की पहचान दूसरे यात्रियों से हुई। बुखारी उन्हें ज्ञान की बातें बताते।

एक यात्री से उनकी नजदीकियां कुछ ज्यादा बढ़ गईं। एक दिन बातों-बातों में बुखारी ने उसे दीनार की पोटली दिखा दी। उस यात्री को लालच आ गया। उसने उनकी पोटली हथियाने की योजना बनाई। एक सुबह उसने जोर-जोर से चिल्लाना शुरू कर दिया, ‘हाय मैं मर गया। मेरा एक हजार दीनार चोरी हो गया।’ वह रोने लगा। जहाज के कर्मचारियों ने कहा, ‘तुम घबराते क्यों हो। जिसने चोरी की होगी, वह यहीं होगा। हम एक-एक की तलाशी लेते हैं। वह पकड़ा जाएगा।’

यात्रियों की तलाशी शुरू हुई। जब बुखारी की बारी आई तो जहाज के कर्मचारियों और यात्रियों ने उनसे कहा, ‘अरे साहब, आपकी क्या तलाशी ली जाए। आप पर तो शक करना ही गुनाह है।’ यह सुन कर बुखारी बोले, ‘नहीं, जिसके दीनार चोरी हुए है, उसके दिल में शक बना रहेगा। इसलिए मेरी भी तलाशी भी जाए।’ बुखारी की तलाशी ली गई। उनके पास से कुछ नहीं मिला।

दो दिनों के बाद उसी यात्री ने उदास मन से बुखारी से पूछा, ‘आपके पास तो एक हजार दीनार थे, वे कहां गए?’ बुखारी ने मुस्करा कर कहा, ‘उन्हें मैंने समुद्र में फेंक दिया। तुम जानना चाहते हो क्यों? क्योंकि मैंने जीवन में दो ही दौलत कमाई थीं- एक ईमानदारी और दूसरा लोगों का विश्वास। अगर मेरे पास से दीनार बरामद होते और मैं लोगों से कहता कि ये मेरे हैं तो लोग यकीन भी कर लेते, लेकिन फिर भी मेरी ईमानदारी और सच्चाई पर लोगों का शक बना रहता। मैं दौलत तो गंवा सकता हूं, लेकिन ईमानदारी और सच्चाई को खोना नहीं चाहता।



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आत्मचिंतन के क्षण.


आत्मचिंतन के क्षण.

🌐 धर्म ग्रन्थों में मामूली से कर्म काण्ड के फल बहुत ही बढ़ा-चढ़ा कर लिखे गये हैं। जैसे गंगा स्नान से सात जन्मों के पाप नष्ट होना, व्रत उपवास रखने से स्वर्ग मिलना, गौदान से वैतरणी तर जाना, मूर्ति पूजा से मुक्ति प्राप्त होना, यह सब बातें तत्व ज्ञान की दृष्टि से असत्य हैं; क्योंकि इन कर्मकाण्डों से मन में पवित्रता का संचार होना और बुद्धि का धर्म की ओर झुकना तो समझ में आता है, पर यह समझ में नहीं आता कि इतनी सी मामूली क्रियाओं का इतना बड़ा फल कैसे हो सकता है? यदि होता तो योग यज्ञ और तप जैसे महान साधनों की क्या आवश्यकता रहती? टके सेर मुक्ति का बाजार गर्म रहता। 


🌐 भिक्षा अनैतिक है। भिक्षा व्यवसायी की मनोभूमि दिन-दिन पतित होती जाती है। उसका शौर्य, साहस, पौरुष, गौरव सब कुछ नष्ट हो जाता है और दीनता मस्तिष्क पर बुरी तरह छाई रहती है। अपराधी की तरह उसका सिर नीचा रहता है। अपनी स्थिति का औचित्य सिद्ध करने के लिए उसे हजार ढोंग रचने पड़ते हैं और लाख तरह की मूढ़ताएँ फैलानी पड़ती हैं। यह भार जनमानस को विकृत बनाने की दृष्टि से और भी अधिक भयावह है। हर विचारशील का कर्त्तव्य है कि भिक्षा व्यवसाय को निरुत्साहित करे। कुपात्रों को वाणी मात्र से भी उत्साह न दें।


🌐 यह नहीं देखना चाहिए कि बुराई से वैभव बढ़ता है। यदि ऐसा हुआ भी तो वह क्षणिक ही होगा। बुराई जितनी जल्दी बढ़ती है, उतनी ही जल्दी नष्ट हो जाती है, साथ ही कर्त्ता को भी नष्ट कर डालती है। आकाश तक फैलती है और अंत में सिकुड़कर स्वयं बुराई करने वाले के सिर पर आकर पड़ती है।


🌐 दुष्ट विचार हमारा सबसे बड़ा शत्रु है। पाप का विचार, चोरी, कपट, ईर्ष्या, निराशा का विचार, हमारा सर्वनाश कर सकता है। ईश्वर का एक मानसिक चित्र अंतःकरण में तैयार कर लें और सत्य, प्रेम, न्याय से अपना हृदय नित्य विकसित करते रहें। स्वतंत्रता, स्वच्छन्दता और शान्ति के विचार हमारे दोस्त हैं। ये हमें सिखाएँगे कि जीवन पूर्ण सुखमय है तथा उसके अनुभवों से झगड़ना मूर्खता में शामिल है।



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श्रीमद्भागवत महापुराण: तृतीय स्कन्ध: एकादश अध्यायः श्लोक 1-11 का हिन्दी अनुवाद


(लगातार-सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत पुराण)
श्रीमद्भागवत महापुराण:
तृतीय स्कन्ध: एकादश अध्यायः श्लोक 1-11 का हिन्दी अनुवाद

मन्वन्तरादि काल विभाग का वर्णन.

श्रीमैत्रेय जी कहते हैं- विदुर जी! पृथ्वी आदि कार्यवर्ग का जो सूक्ष्मतम अंश है-जिसका और विभाग नहीं हो सकता तथा जो कार्यरूप को प्राप्त नहीं हुआ है और जिसका अन्य परमाणुओं के साथ संयोग भी नहीं हुआ है, उसे परमाणु कहते हैं। इन अनेक परमाणुओं के परस्पर मिलने से ही मनुष्यों को भ्रमवश उनके समुदायरूप एक अवयवी की प्रतीति होती है। यह परमाणु जिसका सूक्ष्मतम अंश है, अपने सामान्य स्वरूप में स्थित उस पृथ्वी आदि कार्यों की एकता (समुदाय अथवा समग्र रूप) का नाम परम महान् है। इस समय उसमें न तो प्रलयादि अवस्था भेद की स्फूर्ति होती है, न नवीन-प्राचीन आदि कालभेद की ही कल्पना होती है।

साधुश्रेष्ठ! इस प्रकार यह वस्तु के सूक्ष्मतम और महत्तम स्वरूप का विचार हुआ। इसी के सदृश्य से परमाणु आदि अवस्थाओं में व्याप्त होकर व्यक्त पदार्थों को भोगने वाले सृष्टि आदि में समर्थ, अव्यक्तस्वरूप भगवान् काल की भी सूक्ष्मता और स्थूलता का अनुमान किया जा सकता है। जो काल प्रपंच की परमाणु-जैसी सूक्ष्म अवस्थाओं में व्याप्त रहता है, वह अत्यन्त सूक्ष्म है और जो सृष्टि से लेकर प्रलयपर्यन्त उसकी सभी अवस्थाओं का भोग करता है, वह परम महान् है।

दो परमाणु मिलकर एक ‘अणु’ होता है और तीन अणुओं के मिलने से एक ‘त्रसरेणु’ होता है, जो झरोखे में से होकर आयी हुई सूर्य की किरणों के प्रकाश में आकाश में उड़ता देखा जाता है।

ऐसे तीन त्रसरेणुओं को पार करने में सूर्य को जितना समय लगता है, उसे ‘त्रुटि’ कहते हैं। इससे सौ गुना काल ‘वेध’ कहलाता है और तीन वेध का एक ‘लव’ होता है। तीन लव को एक ‘निमेष’ और तीन निमेष को एक ‘क्षण’ कहते हैं। पाँच क्षण की एक ‘काष्ठा’ होती है और पन्द्रह काष्ठा का एक ‘लघु’। पन्द्रह लघु कि एक ‘नाडिका’ (दण्ड) कही जाती है, दो नाडिका का एक ‘मुहूर्त’ होता है और दिन के घटने-बढ़ने के अनुसार (दिन एवं रात्रि की दोनों सन्धियों के दो मुहूर्तों को छोड़कर) छः या सात नाडिका का एक ‘प्रहर’ होता है। यह ‘याम’ कहलाता है, जो मनुष्य के दिन या रात का चौथा भाग होता है। छः पल ताँबें का एक बरतन बनाया जाये, जिसमें एक प्रस्थ जल आ सके और चार माशे सोने की चार अंगुल लंबी सलाई बनवाकर उसके द्वारा उस बरतन के पेंदे में छेद करके उसे जल में छोड़ दिया जाये। जितने समय में एक प्रस्थ जल उस बरतन में भर जाये, वह बरतन जल में डूब जाये, उतने समय को एक ‘नाडिका’ कहते हैं।

विदुर जी! चार-चार प्रहर के मनुष्य के ‘दिन’ और ‘रात’ होते हैं और पन्द्रह दिन-रात का एक ‘पक्ष’ होता है, जो शुक्ल और कृष्ण भेद से दो प्रकार का माना गया। इन दोनों पक्षों को मिलाकर एक ‘मास’ होता है, जो पितरों का एक दिन-रात है। जो मास का एक ’ऋतु’ और छः मास का एक ‘अयन’ होता है। अयन ‘दक्षिणायन’ और उत्तरायण’ भेद से दो प्रकार का है। ये दोनों अयन मिलकर देवताओं के एक दिन-रात होते हैं तथा मनुष्य लोक में ये ‘वर्ष’ या बारह मास कहे जाते है। ऐसे सौ वर्ष की मनुष्य की परम आयु बतायी गयी है।


साभार krishnakosh.org

श्रीमद्भागवत महापुराण: तृतीय स्कन्ध: दशम अध्यायः श्लोक 17-29 का हिन्दी अनुवाद


(लगातार-सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत पुराण)
श्रीमद्भागवत महापुराण:
तृतीय स्कन्ध: दशम अध्यायः श्लोक 17-29 का हिन्दी अनुवाद


छठी सृष्टि अविद्या की है। इसमें तामिस्र, अन्ध्तामिस्र, तम, मोह और महामोह- ये पाँच गाँठें हैं। यह जीवों की बुद्धि का आवरण और विक्षेप करने वाली है। ये छः प्राकृत सृष्टियाँ हैं, अब वैकृत सृष्टियों का भी विवरण सुनो। जो भगवान् अपना चिन्तन करने वालों के समस्त दुःखों को हर लेते हैं, यह सारी लीला उन्हीं श्रीहरि की है। वे ही ब्रह्मा के रूप में रजोगुण को स्वीकार करके जगत् की रचना करते हैं। छः प्रकार की प्राकृत सृष्टियों के बाद सातवीं प्रधान वैकृत सृष्टि इन छः प्रकार के स्थानवर वृक्षों की होती है। वनस्पति, ओषधि, लता, त्वक्सार, वीरुध और द्रुम इनका संचार नीचे (जड़) से ऊपर की ओर होता है, इनमें प्रायः ज्ञानशक्ति प्रकट नहीं रहती, ये भीतर-ही-भीतर केवल स्पर्श का अनुभव करते हैं तथा इनमें से प्रत्येक में कोई विशेष गुण रहता है।

आठवीं सृष्टि तिर्यग् योनियों (पशु-पक्षियों) की है। वह अट्ठाईस प्रकार की मानी जाती है। इन्हें काल का ज्ञान नहीं होता, तमोगुण कि अधिकता के कारण ये केवल खाना-पीना, मैथुन करना, सोना आदि ही जानते हैं, इन्हें सूँघने मात्र से वस्तुओं का ज्ञान हो जाता है। इनके हृदय में विचार शक्ति या दुरदर्शिता नहीं होती।

साधुश्रेष्ठ! इन तिर्यकों में गौ, बकरा, भैंसा, कृष्ण-मृग, सूअर, नीलगाय, रुरु नाम का मृग, भेंड़ और ऊँट- ये द्विशफ (दो खुरों वाले) पशु कहलाते हैं। गधा, घोड़ा, खच्चर, गौरमृग, शरफ और चमरी- ये एकशफ (एक खुर वाले) हैं। अब पाँच नख वाले पशु-पक्षियों के नाम सुनो। कुत्ता, गीदड़, भेड़िया, बाघ, बिलाव, खरगोश, साही, सिंह, बन्दर, हाथी, कछुआ, गोह और मगर आदि (पशु) हैं। कंक (बगुला), गिद्ध, बटेर, बाज, भास, भल्लूक, मोर, हंस, सारस, चकवा, कौआ और उल्लू आदि उड़ने वाले जीव पक्षी कहलाते हैं।

विदुर जी! नवीं सृष्टि मनुष्यों की है। यह एक ही प्रकार की है। इसके आहार का प्रवाह ऊपर (मुँह) से नीचे की ओर होता है। मनुष्य रजोगुण प्रधान, कर्म परायण और दुःखरूप विषयों में ही सुख मानने वाले होते हैं।

स्थावर, पशु-पक्षी और मनुष्य- ये तीनों प्रकार की सृष्टियाँ तथा आगे कहा जाने वाला देवसर्ग वैकृत सृष्टि है तथा जो महत्तत्त्वादीरूप वैकारिक देवसर्ग है, उसकी गणना पहले प्राकृत सृष्टि में की जा चुकी है।

इनके अतिरिक्त सनत्कुमार आदि ऋषियों का जो कौमारसर्ग है, वह प्राकृत-वैकृत दोनों प्रकार है। देवता, पितर, असुर, गन्धर्व-अप्सरा, यक्ष-राक्षस, सिद्ध-चारण-विद्याधर, भूत-प्रेत-पिशाच और किन्नर-किम्पुरुष-अश्वमुख आदि भेद से देव सृष्टि आठ प्रकार की है।

विदुर जी! इस प्रकार जगत्कर्ता श्रीब्रह्मा जी की रची हुई यह दस प्रकार की सृष्टि मैंने तुमसे कही। अब आगे मैं वंश और मन्वन्तरादि का वर्णन करूँगा। इस प्रकार सृष्टि करने वाले सत्य संकल्प भगवान् हरि ही ब्रह्मा के रूप से प्रत्येक कल्प के आदि में रजोगुण से व्याप्त होकर स्वयं ही जगत् के रूप में अपनी ही रचना करते हैं।

साभार krishnakosh.org

श्रीमद्भागवत महापुराण: तृतीय स्कन्ध: दशम अध्यायः श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद


(लगातार-सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत पुराण)
श्रीमद्भागवत महापुराण:
तृतीय स्कन्ध: दशम अध्यायः श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद

दस प्रकार की सृष्टि का वर्णन.

विदुर जी ने कहा- मुनिवर! भगवान् नारायण के अन्तर्धान हो जाने पर सम्पूर्ण लोकों के पितामह ब्रह्मा जी ने अपने देह और मन से कितने प्रकार की सृष्टि उत्पन्न की? भगवन्! इनके सिवा मैंने आपसे और जो-जो बातें पूछी हैं, उन सबका भी क्रमशः वर्णन कीजिये और मेरे सब संशयों को दूर कीजिये; क्योंकि आप सभी बहुज्ञों में श्रेष्ठ हैं।

सूतजी कहते हैं- शौनक जी! विदुर जी के इस प्रकार पूछने पर मुनिवर मैत्रेय जी बड़े प्रसन्न हुए और अपने हृदय में स्थित उन प्रश्नों का इस प्रकार उत्तर देने लगे।

श्रीमैत्रेय जी ने कहा- अजन्मा भगवान् श्रीहरि ने जैसा कहा था, ब्रह्मा जी ने भी उसी प्रकार चित्त को अपने आत्मा श्रीनारायण में लगाकर सौ दिव्य वर्षों तक तप किया। ब्रह्मा जी ने देखा कि प्रलयकालीन प्रबल वायु के झकोरों से, जिससे वे उत्पन्न हुए हैं तथा जिस पर वे बैठे हुए हैं, वह कमल तथा जल काँप रहे हैं। प्रबल तपस्या एवं हृदय में स्थित आत्मज्ञान से उनका विज्ञान बल बढ़ गया और उन्होंने जल के साथ वायु को पी लिया। फिर जिस पर स्वयं बैठे हुए थे, उस आकाशव्यापी कमल को देखकर, उन्होंने विचार किया कि ‘पूर्वकल्प में लीन हुए लोकों को मैं इसी से रचूँगा’।

तब भगवान् के द्वारा सृष्टि कार्य में नियुक्त ब्रह्मा जी ने उस कमलकोश में प्रवेश किया और उस एक के ही भूः, भुवः, स्वः- ये तीन भाग किये, यद्यपि वह कमल इतना बड़ा था कि उसके चौदह भुवन या इससे भी अधिक लोकों के रूप में विभाग किये जा सकते थे। जीवों के भोग स्थान के रूप में इन्हीं तीन लोकों का शास्त्रों में वर्णन हुआ है; जो निष्काम कर्म करने वाले हैं, उन्हें महः, तपः, जनः और सत्यलोक रूप ब्रह्मलोक की प्राप्ति होती है।

विदुर जी ने कहा- ब्रह्मन्! आपने अद्भुतकर्मा विश्वरूप श्रीहरि की जिस काल नामक शक्ति कि बात कही थी, प्रभो! उसका कृपया विस्तारपूर्वक वर्णन कीजिये।

श्रीमैत्रेय जी ने कहा- विषयों का रूपान्तर (बदलना) ही काल का आकार है। स्वयं तो वह निर्विशेष, अनादि और अनन्त है। उसी को निमित्त बनाकर भगवान् खेल-खेल में अपने-आपको ही सृष्टि के रूप में प्रकट कर देते हैं। पहले यह सारा विश्व भगवान् की माया से लीन होकर ब्रह्मरूप से स्थित था। उसी को अव्यक्तमूर्ति काल के द्वारा भगवान् ने पुनः पृथक् रूप से प्रकट किया है। यह जगत् जैसा अब है वैसा ही पहले था और भविष्य में भी वैसा ही रहेगा। इसकी सृष्टि नौ प्रकार की होती है तथा प्राकृत-वैकृत-भेद से एक दसवीं सृष्टि और भी है। और इसका प्रलय काल, द्रव्य तथा गुणों के द्वारा तीन प्रकार से होता है।

(अब पहले मैं दस प्रकार की सृष्टि का वर्णन करता हूँ) पहली सृष्टि महत्तत्त्व की है। भगवान् की प्रेरणा से सात्वादि गुणों में विषमता होना ही इसका स्वरूप है। दूसरी सृष्टि अहंकार की है, जिससे पृथ्वी आदि पंचभूत एवं ज्ञानेन्द्रिय और कर्मेन्द्रियों की उत्पत्ति होती है। तीसरी सृष्टि भूतसर्ग है, जिसमें पंचभूतों को उत्पन्न करने वाला तन्मात्रावर्ग रहता है। चौथी सृष्टि इन्द्रियों की है, यह ज्ञान और क्रियाशक्ति से सम्पन्न होती है। पाँचवीं सृष्टि सात्त्विक अहंकार से उत्पन्न हुए इन्द्रियाधिष्ठाता देवताओं की है, मन भी इसी सृष्टि के अन्तर्गत है।


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श्रीमद्भागवत महापुराण: तृतीय स्कन्ध: नवम अध्यायः श्लोक 34-44 का हिन्दी अनुवाद


 (लगातार-सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत पुराण)
श्रीमद्भागवत महापुराण:
तृतीय स्कन्ध: नवम अध्यायः श्लोक 34-44 का हिन्दी अनुवाद

ब्रह्मा जी! नाना प्रकार के कर्म संस्कारों के अनुसार अनेक प्रकार की जीव सृष्टि को रचने की इच्छा होने पर भी तुम्हारा चित्त मोहित नहीं होता, यह मेरी अतिशय कृपा का ही फल है। तुम सबसे पहले मन्त्र द्रष्टा हो। प्रजा उत्पन्न करते समय भी तुम्हारा मन मुझमें ही लगा रहता है, इसी से पापमय रजोगुण तुमको बाँध नहीं पाता। तुम मुझे भूत, इन्द्रिय, गुण और अन्तःकरण से रहित समझते हो; इससे जान पड़ता है कि यद्यपि देहधारी जीवों को मेरा ज्ञान होना बहुत कठिन है, तथापि तुमने मुझे जान लिया। ‘मेरा आश्रय कोई है या नहीं’ इस सन्देह से तुम कमलनाल के द्वारा जल में उसका मूल खोज रहे थे, सो मैंने तुम्हें अपना यह स्वरूप अन्तःकरण में ही दिखलाया है।

प्यारे ब्रह्मा जी! तुमने जो मेरी कथाओं के वैभव से युक्त मेरी स्तुति की है और तपस्या में जो तुम्हारी निष्ठा है, वह भी मेरी ही कृपा का फल है। लोक रचना की इच्छा से तुमने सगुण प्रतीत होने पर भी जो निर्गुण रूप से मेरा वर्णन करते हुए स्तुति की है, उससे मैं बहुत प्रसन्न हूँ; तुम्हारा कल्याण हो। मैं समस्त कामनाओं और मनोरथों को पूर्ण करने में समर्थ हूँ। जो पुरुष नित्य प्रति इस स्तोत्र द्वारा स्तुति करके मेरा भजन करेगा, उस पर मैं शीघ्र ही प्रसन्न हो जाऊँगा। तत्त्ववेत्ताओं का मत है कि पूर्त, तप, यज्ञ, दान, योग और समाधि आदि साधनों से प्राप्त होने वाला जो परम कल्याणमय फल है, वह मेरी प्रसन्नता ही है।

विधाता! मैं आत्माओं का भी आत्मा और स्त्री-पुत्रादि प्रियों का भी प्रिय हूँ। देहादि भी मेरे ही लिये प्रिय हैं। अतः मुझसे ही प्रेम करना चाहिये।

ब्रह्मा जी! त्रिलोकी को तथा जो प्रजा इस समय मुझमें लीन है, उसे तुम पूर्वकल्प के समान मुझसे उत्पन्न हुए अपने सर्वदेवमय स्वरूप से स्वयं ही रचो।

श्रीमैत्रेय जी कहते हैं- प्रकृति और पुरुष के स्वामी कमलनाभ भगवान् सृष्टिकर्ता ब्रह्मा जी को इस प्रकार जगत् की अभिव्यक्ति करवाकर अपने उस नारायणरूप से अदृश्य हो गये।

साभार krishnakosh.org

श्रीमद्भागवत महापुराण: तृतीय स्कन्ध: नवम अध्यायः श्लोक 20-33 का हिन्दी अनुवाद


(लगातार-सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत पुराण)\
श्रीमद्भागवत महापुराण:
तृतीय स्कन्ध: नवम अध्यायः श्लोक 20-33 का हिन्दी अनुवाद

प्रभो! आप अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष और अभिनिवेश- पाँचों में से किसी के भी अधीन नहीं हैं; तथापि इस समय जो सारे संसार को अपने उदर में लीनकर भयंकर तरंगमालाओं से विक्षुब्ध प्रलयकालीन जल में अनन्त विग्रह की कोमल शय्या पर शयन कर रहे हैं, वह पूर्वकल्प की कर्म परम्परा से श्रमित हुए जीवों को विश्राम देने के लिये ही हैं। आपके नाभिकमलरूप भवन से मेरा जन्म हुआ है। यह सम्पूर्ण विश्व आपके उदर में समाया हुआ है। आपकी कृपा से ही मैं त्रिलोकी की रचनारूप उपकारों में प्रवृत्त हुआ हूँ। इस समय योगनिद्रा का अन्त हो जाने के कारण आपके नेत्रकमल विकसित हो रहे हैं, आपको मेरा नमस्कार है। आप सम्पूर्ण जगत् के एकमात्र सुहृद् और आत्मा हैं तथा शरणागतों पर कृपा करने वाले हैं।

अतः अपने जिस ज्ञान और ऐश्वर्य से आप विश्व को आनन्दित करते हैं, उसी से मेरी बुद्धि को भी युक्त करें-जिससे मैं पूर्वकल्प के समान इस समय भी जगत् की रचना कर सकूँ। आप भक्तवांछाकल्पतरु हैं। अपनी शक्ति लक्ष्मी जी के सहित अनेकों गुणावतार लेकर आप जो-जो अद्भुत कर्म करेंगे, मेरा यह जगत् की रचना करने का उद्यम भी उन्हीं में से एक है। अतः इसे रचते समय आप मेरे चित्त को प्रेरित करें-शक्ति प्रदान करें, जिससे मैं सृष्टि रचना विषयक अभिमानरूप मल से दूर रह सकूँ।

प्रभो! इस प्रलयकालीन जल में शयन करते हुए आप अनन्त शक्ति परमपुरुष के नाभिकमल से मेरा प्रादुर्भाव हुआ है और मैं हूँ भी आपकी विज्ञान शक्ति; अतः इस जगत् के विचित्र रूप का विस्तार करते समय आपकी कृपा से मेरी वेदरूप वाणी का उच्चारण लुप्त न हो। आप अपार करुणामय पुराणपुरुष हैं। आप परम प्रेममयी मुस्कान के सहित अपने नेत्र कमल खोलिये और शेष शय्या से उठकर विश्व के उद्भव के लिये अपनी सुमधुर वाणी से मेरा विषाद दूर कीजिये।

श्रीमैत्रेय जी कहते हैं- विदुर जी! इस प्रकार तप, विद्या और समाधि के द्वारा अपने उत्पत्ति स्थान श्रीभगवान् को देखकर तथा अपने मन और वाणी की शक्ति के अनुसार उनकी स्तुति कर ब्रह्मा जी थके-से होकर मौन हो गये।

श्रीमधुसूदन भगवान् ने देखा कि ब्रह्मा जी इस प्रलयजलराशि से बहुत घबराये हुए हैं तथा लोक रचना के विषय में कोई निश्चित विचार न होने के कारण उनका चित्त बहुत खिन्न है। तब उनके अभिप्राय को जानकर वे अपनी गम्भीर वाणी से उनका खेद शान्त करते हुए कहने लगे।

श्रीभगवान् ने कहा- वेदगर्भ! तुम विषाद के वशीभूत हो आलस्य न करो, सृष्टि रचना के उद्यम में तत्पर हो जाओ। तुम मुझसे जो कुछ चाहते हो, उसे तो मैं पहले ही कर चुका हूँ। तुम एक बार फिर तप करो और भागवत-ज्ञान का अनुष्ठान करो। उनके द्वारा तुम सब लोकों को स्पष्टतया अपने अन्तःकरण में देखो। फिर भक्तियुक्त और समाहितचित्त होकर तुम सम्पूर्ण लोक और अपने में मुझको व्याप्त देखोगे तथा मुझमें सम्पूर्ण लोक और अपने-आपको देखोगे। जिस समय जीव काष्ठ में व्याप्त अग्नि के समान समस्त भूतों में मुझे ही स्थित देखता है, उसी समय वह अपने अज्ञानरूप मल से मुक्त हो जाता है। जब वह अपने को भूत, इन्द्रिय, गुण और अन्तःकरण से रहित तथा स्वरूपतः मुझसे अभिन्न देखता है, तब मोक्षपद प्राप्त कर लेता है।


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श्रीमद्भागवत महापुराण: तृतीय स्कन्ध: नवम अध्यायः श्लोक 11-19 का हिन्दी अनुवाद.


(लगातार-सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत पुराण)
श्रीमद्भागवत महापुराण:
तृतीय स्कन्ध: नवम अध्यायः श्लोक 11-19 का हिन्दी अनुवाद.

नाथ! आपका मार्ग केवल गुण-श्रवण से ही जाना जाता है। आप निश्चय ही मनुष्यों के भक्तियोग के द्वारा परिशुद्ध हुए हृदयकमल में निवास करते हैं। पुण्यश्लोक प्रभो! आपके भक्तजन जिस-जिस भावना से आपका चिन्तन करते हैं, उन साधु पुरुषों पर अनुग्रह करने के लिये आप वही-वही रूप धारण कर लेते हैं। भगवन्! आप एक हैं तथा सम्पूर्ण प्राणियों के अन्तःकरण में स्थित उनके परम हितकारी अन्तरात्मा हैं। इसलिये यदि देवता लोग भी हृदय में तरह-तरह की कामनाएँ रखकर भाँति-भाँति की विपुल सामग्रियों से आपका पूजन करते हैं, तो उससे आप उतने प्रसन्न नहीं होते जितने सब प्राणियों पर दया करने से होते हैं। किन्तु वह सर्वभूतदया असत् पुरुषों को अत्यन्त दुर्लभ है।

जो कर्म आपको अर्पण कर दिया जाता है, उसका कभी नाश नहीं होता-वह अक्षय हो जाता है। अतः नाना प्रकार के कर्म- यज्ञ, दान, कठिन तपस्या और व्रतादि के द्वारा आपकी प्रसन्नता प्राप्त करना ही मनुष्य का सबसे बड़ा कर्म फल है, क्योंकि आपकी प्रसन्नता होने पर ऐसा कौन फल है जो सुलभ नहीं हो जाता। आप सर्वदा अपने स्वरूप के प्रकाश से ही प्राणियों से भेद-भ्रमरूप अन्धकार का नाश करते रहते हैं तथा ज्ञान के अधिष्ठान साक्षात् परम पुरुष हैं; मैं आपको नमस्कार करता हूँ। संसार की उत्पत्ति, स्थिति और संहार के निमित्त से जो माया की लीला होती है, वह आपका ही खेल है; अतः आप परमेश्वर को मैं बार-बार नमस्कार करता हूँ। जो लोग प्राण त्याग करते समय आपके अवतार, गुण और कर्मों को सूचित करने वाले देवकीनन्दन, जनार्दन, कंसनिकन्दन आदि नामों का विवश होकर भी उच्चारण करते हैं, वे अनेकों जन्मों के पापों से तत्काल छूटकर मायादि आवरणों से रहित ब्रह्मपद प्राप्त करते हैं। आप नित्य अजन्मा हैं, मैं आपकी शरण लेता हूँ।

भगवन्! इस विश्व वृक्ष के रूप में आप ही विराजमान हैं। आप ही अपनी मूल प्रकृति को स्वीकार करके जगत् की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय के लिये मेरे, अपने और महादेव जी के रूप में तीन प्रधान शाखाओं में विभक्त हुए हैं और फिर प्रजापति एवं मनु आदि शाखा-प्रशाखाओं के रूप में फैलकर बहुत विस्तृत हो गये हैं। मैं आपको नमस्कार करता हूँ।

भगवन्! आपने अपनी आराधना को ही लोकों के लिये कल्याणकारी स्वधर्म बताया है, किन्तु वे इस ओर से उदासीन रहकर सर्वदा विपरीत (निषिद्ध) कर्मों में लगे रहते हैं। ऐसी प्रमाद की अवस्था में पड़े हुए इस जीवों की जीवन-आशा को जो सदा सावधान रहकर बड़ी शीघ्रता से काटता रहता है, वह बलवान् काल भी आपका ही रूप है; मैं उसे नमस्कार करता हूँ। यद्यपि मैं सत्यलोक का अधिष्ठाता हूँ, जो दो परार्द्धपर्यन्त रहने वाला और समस्त लोकों का वन्दनीय है, तो भी आपके उस कालरूप से डरता रहता हूँ। उससे बचने और आपको प्राप्त करने के लिये ही मैंने बहुत समय तक तपस्या की है।

आप ही अधियज्ञरूप से मेरी इस तपस्या के साक्षी हैं, मैं आपको नमस्कार करता। आप पूर्णकाम हैं, आपको किसी विषयसुख की इच्छा नहीं है, तो भी आपने अपनी बनायी हुई धर्ममर्यादा की रक्षा के लिये पशु-पक्षी, मनुष्य और देवता आदि जीव योनियों में अपनी ही इच्छा से शरीर धारण कर अनेकों लीलाएँ की हैं। ऐसे आप पुरुषोत्तम भगवान् को मेरा नमस्कार है।

साभार krishnakosh.org

पूजा में परिक्रमा.


पूजा में परिक्रमा.

मंदिर में या घर में पूजा-पाठ के पश्चात भगवान का ध्यान करते हुए परिक्रमा जरूर करनी चाहिए। परिक्रमा करना किसी भी देवी-देवता की पूजा का महत्वपूर्ण अंग है। परिक्रमा करने से अक्षय पुण्य मिलता है। परिक्रमा से जुड़ी ये बातें हमेशा ध्यान रखनी चाहिए..

परिक्रमा के नियम.

प्रतिमा और मंदिर की परिक्रमा अपने दाहिने हाथ की ओर से शुरू करनी चाहिए। जिस दिशा में घड़ी के कांटे घूमते हैं, उसी प्रकार मंदिर में परिक्रमा करें।

मंदिर में स्थापित मूर्तियों के आसपास सकारात्मक ऊर्जा रहती है, जो कि उत्तर से दक्षिण की ओर प्रवाहित होती रहती है। बाएं हाथ की ओर से परिक्रमा करने पर इस सकारात्मक ऊर्जा से हमारे शरीर का टकराव होता है, जो कि अशुभ माना गया है। दाहिने का अर्थ दक्षिण भी होता है, इसी वजह से परिक्रमा को प्रदक्षिणा भी कहा जाता है।

परिक्रमा करते समय ये मंत्र बोलें.

यानि कानि च पापानि जन्मांतर कृतानि च। तानि सवार्णि नश्यन्तु प्रदक्षिणा पदे-पदे।।

इस मंत्र का अर्थ यह है कि मेरे द्वारा इस जन्म में और पूर्वजन्मों में जाने-अनजाने में किए गए सारे पाप प्रदक्षिणा के साथ-साथ नष्ट हो जाएं। परमपिता परमेश्वर मुझे सद्बुद्धि प्रदान करें।

किस देवता की कितनी परिक्रमा करनी चाहिए.

सूर्य देव की सात, श्रीगणेश की तीन, श्री विष्णु और उनके अवतारों की चार, श्री दुर्गा की एक, शिवलिंग की आधी, हनुमानजी की तीन प्रदक्षिणा करें। शिव की मात्र आधी ही प्रदक्षिणा की जाती है। इस संबंध में मान्यता है कि जलाधारी का उल्लंघन नहीं किया जाता है। जलाधारी तक पंहुचकर परिक्रमा को पूर्ण मान लिया जाता है।

आत्मवत् सर्व भूतेषु:


आत्मवत् सर्व भूतेषु:

महामुनि मेतार्य ने कृच्छ चांद्रायण तप विधिवत सम्पन्न किया। अनुष्ठान काल में सम्पूर्ण एक मास केवल आँवला के फलों पर ही निर्वाह किया, इससे उनके शरीर में दुर्बलता तो थी किन्तु तपश्चर्या से अर्जित प्राण शक्ति और आँवले के कल्प के कारण उनके सम्पूर्ण शरीर में तेजोवलय स्पष्ट झलक रहा था।

अनुष्ठान समाप्त कर वे राजगृह की ओर चल पड़े। नियमानुसार वे दिन में एक बार किसी सद्गृहस्थ के घर भोजन ग्रहण कर लोक-कल्याण के कार्यों में जुटे रहते थे। उनकी लोक कल्याणकारी वृति देख कर मगध का हर नागरिक उनके आतिथ्य को अपना परम सौभाग्य मानता था।

आज वे राजगृह के स्वर्णकार के द्वार पर खड़े थे। स्वर्णकार कोई आभूषण बनाने के लिये स्वर्ण के छोटे-छोटे गोल, दाने बना कर ढेर करता जा रहा था। द्वार पर खड़े मेतार्य को देखा तो उसका हाथ वही रुक गया “अतिथि देवोभव“ कहकर, उसने मुनि मेतार्य का हार्दिक स्वागत किया। उनकी भिक्षा का प्रबन्ध करने के लिए जैसे ही वह अन्दर गया, वृक्ष पर बैठे पक्षी उतर कर, वहाँ आ गये, जहाँ स्वर्णकार सोने के दाने गढ़ रहा था।

उन्होंने इन दानों को अन्न समझा, सो जब तक स्वर्णकार वापस लौटे, सारे दाने चुग डाले और उड़कर डाली में जा बैठे।

स्वर्णकार बाहर आया और सोने के बिखरे दानों को गायब पाया तो उसके गुस्से का ठिकाना न रहा। उसने देखा द्वार पर मुनि मेतार्य चुपचाप बैठे है। आतिथ्य भूल गया-पूछा- “आचार्य प्रवर- यहाँ कोई आया तो नहीं|”

“नहीं तात! मेरे सिवाय और तो कोई नहीं आया।” मेतार्य ने सहज ही उत्तर दिया।

इस पर स्वर्णकार को क्रोध और भी बढ़ गया। उसने निश्चय कर लिया, मेतार्य ने ही वह स्वर्ण चुरा लिया और अब यहाँ ढोंग करके बैठा है।

मेतार्य से उसने पूछा- “स्वर्णकण तुमने चुराये हैं?”

इस पर वे कुछ न बोले। अब तो स्वर्णकार को और भी विश्वास हो गया कि मेतार्य ही वास्तविक चोर हैं, सो उसने अन्य कुटुम्बियों को भी बुला लिया और उनकी अच्छी मरम्मत की। जितनी बार पूछा जाता- ‘तुमने स्वर्ण चुराया है।’ मेतार्य चुप रहते- कुछ भी न बोलते, इससे उनका संदेह और बढ़ जाता।

अन्त में निश्चय किया गया कि मेतार्य के मस्तक पर गीले चमड़े की पट्टी बाँध कर चिल-चिलाती धूप में पटक दिया जाये। यही किया गया। उनके मत्थे पर चमड़े की गीली पट्टी बाँध दी गई और धूप में कर दिया गया। जैसे जैसे पट्टी सूखती गई महर्षि का सिर कसता गया। शरीर पहले ही दुर्बल हो रहा था। पीड़ा सहन न हो सकी। वे चक्कर खाकर गिर पड़े। दिन उन्होंने प्राणान्तक पीड़ा में बिताया।

साँझ हो चली। वृक्ष पर बैठे पक्षियों ने बीट की, तो वह दाने नीचे गिरे। किसी ने देखा तो कहा- “अरे सोने के दाने तो पक्षियों ने चुन लिये महर्षि को क्यों कष्ट दे रहे हो।“ स्वर्णकार हक्का बक्का रह गया।

उसने दौड़कर महर्षि के माथे की पट्टी खोली, उन्हें जल पिलाया और दुःखी स्वर में पूछा- “महामहिम! आपने बता दिया होता कि स्वर्ण दाने पक्षियों ने चुगे हैं, तो आपकी यह दुर्दशा क्यों होती?”

महर्षि मुस्कराये और बोले- “वैसा करने से जो दंड मैंने भुगता, उससे भी कठोर दंड इन अज्ञानी पक्षियों को भुगतना पड़ता।“

महर्षि की इस महा दयालुता पर सबको रोमाँच हो आया। स्वर्णकार बोला- “जो प्राणिमात्र में अपनी तरह अपनी ही आत्मा को देखता है वही सच्चा साधु है।“

(अखण्ड ज्योति, मार्च-1971) 

बुलंद हौसले.


बुलंद हौसले.

एक कक्षा में शिक्षक छात्रों को बता रहे थे कि अपने जीवन का एक लक्ष्य निर्धारित करो। वे सभी से पूछ रहे थे कि उनके जीवन का क्या लक्ष्य है? सभी विद्यार्थी उन्हें बता रहे थे कि वह क्या बनना चाहते हैं। तभी एक छात्रा ने कहा, 'मैं बड़ी होकर धाविका बनकर, ओलिंपिक में स्वर्ण पदक जीतना चाहती हूं, नए रेकॉर्ड बनाना चाहती हूं।' उसकी बात सुनते ही कक्षा के सभी बच्चे खिलखिला उठे। शिक्षक भी उस लड़की पर व्यंग्य करते हुए बोले, 'पहले अपने पैरों की ओर तो देखो। तुम ठीक से चल भी नहीं सकती हो।'

वह बच्ची शिक्षक के समक्ष कुछ नहीं बोल सकी और सारी कक्षा की हंसी उसके कानों में गूंजती रही। अगले दिन कक्षा में मास्टर जी आए तो दृढ़ संयमित स्वरों में उस लड़की ने कहा, 'ठीक है, आज मैं अपाहिज हूं। चल-फिर नहीं सकती, लेकिन मास्टर जी, याद रखिए कि मन में पक्का इरादा हो तो क्या नहीं हो सकता। आज मेरे अपंग होने पर सब हंस रहे हैं, लेकिन यही अपंग लड़की एक दिन हवा में उड़कर दिखाएगी।'

उसकी बात सुनकर उसके साथियों ने फिर उसकी खिल्ली उड़ाई। लेकिन उस अपाहिज लड़की ने उस दिन के बाद पीछे मुड़कर नहीं देखा। वह प्रतिदिन चलने का अभ्यास करने लगी। कुछ ही दिनों में वह अच्छी तरह चलने लगी और धीरे-धीरे दौड़ने भी लगी। उसकी इस कामयाबी ने उसके हौसले और भी बुलंद कर दिए। देखते ही देखते कुछ दिनों में वह एक अच्छी धावक बन गई। ओलिंपिक में उसने पूरे उत्साह के साथ भाग लिया और एक साथ तीन स्वर्ण पदक जीतकर सबको चकित कर दिया। हवा से बात करने वाली वह अपंग लड़की थी, अमेरिका के टेनेसी राज्य की ओलिंपिक धाविक विल्मा गोल्डीन रुडाल्फ, जिसने अपने पक्के इरादे के बलबूते पर न केवल सफलता हासिल की अपितु दुनिया भर में अपना नाम किया।


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श्रीमद्भागवत महापुराण: तृतीय स्कन्ध: नवम अध्यायः श्लोक 1-10 का हिन्दी अनुवाद


 (लगातार-सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत पुराण)
श्रीमद्भागवत महापुराण:
तृतीय स्कन्ध: नवम अध्यायः श्लोक 1-10 का हिन्दी अनुवाद

ब्रह्मा जी द्वारा भगवान् की स्तुति.

ब्रह्मा जी ने कहा- आज बहुत समय के बाद मैं आपको जान सका हूँ। अहो! कैसे दुर्भाग्य की बात है कि देहधारी जीव आपके स्वरूप को नहीं जान पाते। भगवन्! आपके सिवा और कोई वस्तु नहीं है। जो वस्तु प्रतीत होती है, वह भी स्वरूपतः सत्य नहीं है, क्योंकि माया के गुणों के क्षुभित होने के कारण केवल आप ही अनेकों रूपों में प्रतीत हो रहे हैं।

देव! आपकी चित्त शक्ति के प्रकाशित रहने के कारण अज्ञान आपसे सदा ही दूर रहता है। आपका यह रूप, जिसके नाभिकमल से मैं प्रकट हुआ हूँ, सैकड़ों अवतारों का मूल कारण है। इसे आपने सत्पुरुषों पर कृपा करने के लिये ही पहले-पहल प्रकट किया है। परमात्मन्! आपका जो आनन्दमात्र, भेदरहित, अखण्ड तेजोमय स्वरूप है, उसे मैं इससे भिन्न नहीं समझता। इसलिये मैंने विश्व की रचना करने वाले होने पर भी विश्वातीत आपके इस अद्वितीय रूप की ही शरण ली है। यही सम्पूर्ण भूत और इन्द्रियों का भी अधिष्ठान है। हे विश्वकल्याणमय! मैं आपका उपासक हूँ, आपने मेरे हित के लिये ही मुझे ध्यान में अपना यह रूप दिखलाया है। जो पापात्मा विषयासक्त जीव हैं, वे ही इसका अनादर करते हैं।

मैं तो आपको इसी रूप में बार-बार नमस्कार करता हूँ। मेरे स्वामी! जो लोग वेदरूप वायु से लायी हुई आपके चरणरूप कमलकोश की गन्ध को अपने कर्णपुटों से ग्रहण करते हैं, उन अपने भक्तजनों के हृदय-कमल से आप कभी दूर नहीं होते; क्योंकि वे पराभक्तिरूप डोरी से आपके पादपद्मों को बाँध लेते हैं। जब तक पुरुष आपके अभयप्रद चरणारविन्दों का आश्रय नहीं लेता, तभी तक उसे धन, घर और बन्धुजनों के कारण प्राप्त होने वाले, भय, शोक, लालसा, दीनता और अत्यन्त लोभ आदि सताते हैं और तभी तक उसे मैं-मेरेपन का दुराग्रह रहता है, जो दुःख का एकमात्र का कारण है। जो लोग सब प्रकार के अमंगलों को नष्ट करने वाले आपके श्रवण-कीर्तनादि प्रसंगों से इन्द्रियों को हटाकर लेशमात्र विषय-सुख के लिये दीन और मन-ही-मन लालायित होकर निरन्तर दुष्कर्मों में लगे रहते हैं, उन बेचारों की बुद्धि दैव ने हर ली है।

अच्युत! उरुक्रम! इस प्रजा को भूख-प्यास, वात, पित्त, कफ, सर्दी, गरमी, हवा और वर्षा से, परस्पर एक-दूसरे से तथा कामाग्नि और दुःसह क्रोध से बार-बार कष्ट उठाते देखकर मेरा मन बड़ा खिन्न होता है। स्वामिन्! जब तक मनुष्य इन्द्रिय और विषयरूपी माया के प्रभाव से आपसे अपने को भिन्न देखता है, तब तक उसके लिये इस संसार चक्र की निवृत्ति नहीं होती। यद्यपि यह मिथ्या है, तथापि कर्मफल भोग का क्षेत्र होने के कारण उसे नाना प्रकार के दुःखों में डालता रहता है।

देव! औरों की तो बात ही क्या-जो साक्षात् मुनि हैं, वे भी यदि आपके कथाप्रसंग से विमुख रहते हैं तो उन्हें संसार में फँसना पड़ता है। वे दिन में अनेक प्रकार के व्यापारों के कारण विक्षिप्तचित्त रहते हैं, रात्रि में निद्रा में अचेत पड़े रहते हैं; उस समय भी तरह-तरह के मनोरथों के कारण क्षण-क्षण में उनकी नींद टूटती रहती है तथा दैवदेश उनकी अर्थसिद्धि के सब उद्योग भी विफल होते रहते हैं।


साभार krishnakosh.org

श्रीमद्भागवत महापुराण: तृतीय स्कन्ध: अष्टम अध्यायः श्लोक 25-33 का हिन्दी अनुवाद


(लगातार-सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत पुराण)
श्रीमद्भागवत महापुराण:
तृतीय स्कन्ध: अष्टम अध्यायः श्लोक 25-33 का हिन्दी अनुवाद


उनका वह श्रीविग्रह अपने परिमाण से लंबाई-चौड़ाई में त्रिलोकी का संग्रह किये हुए हैं। वह अपनी शोभा से विचित्र एवं दिव्य वस्त्राभूषणों की शोभा को सुशोभित करने वाला होने पर भी पीताम्बर आदि अपनी वेष भूषा से सुसज्जित है। अपनी-अपनी अभिलाषा की पूर्ति के लिये भिन्न-भिन्न मार्गों से पूजा करने वाले भक्तजनों को कृपापूर्वक अपने भक्तवाञ्छाकल्पतरु चरणकमलों का दर्शन दे रहे हैं, जिनके सुन्दर अँगुलिदल नखचन्द्र की चन्द्रिका से अलग-अलग स्पष्ट चमकते रहते हैं। सुन्दर नासिका, अनुग्रहवर्णी भौहें, कानों में झिलमिलाते हुए कुण्डलों की शोभा, बिम्बाफल के समान लाल-लाल अधरों की कान्ति एवं कोलार्तिहारी मुस्कान से युक्त मुखारविन्द के द्वारा वे अपने उपासकों का सम्मान-अभिनन्दन कर रहे हैं। वत्स! उनके नितम्बदेश में कदम्ब कुसुम की केसर के समान पीतवस्त्र और सुवर्णमयी मेखला सुशोभित है तथा वक्षःस्थल में अमूल्य हार और सुनहरी रेखा वाले श्रीवत्स चिह्न की अपूर्व शोभा हो रही है। वे अव्यक्तमूल चन्दन वृक्ष के समान हैं। महामूल्य केयूर और उत्तम-उत्तम मणियों से सुशोभित उनके विशाल भुजदण्ड ही मानो उसकी सहस्रों शाखाएँ हैं और चन्दन के वृक्षों में जैसे बड़े-बड़े साँप लिपटे रहते हैं, उसी प्रकार उनके कंधों को शेष जी के फणों ने लपेट रखा है। वे नागराज अनन्त के बन्धु श्रीनारायण ऐसे जान पड़ते हैं, मानो कोई जल से घिरे हुए पर्वतराज ही हों। पर्वत पर जैसे अनेकों जीव रहते हैं, उसी प्रकार वे सम्पूर्ण चराचर के आश्रय हैं; शेष जी के फणों पर जो सहस्रों मुकुट हैं, वे ही मानो उस पर्वत के सुवर्णमण्डित शिखर हैं तथा वक्षःस्थल में विराजमान कौस्तुभ मणि उसके गर्भ से प्रकट हुआ रत्न है। प्रभु के गले में वेदरूप भौरों से गुंजायमान अपनी कीर्तिमयी वनमाला विराज रही है; सूर्य, चन्द्र, वायु और अग्नि आदि देवताओं की भी आप तक पहुँच नहीं है तथा त्रिभुवन में बेरोक-टोक विचरण करने वाले सुदर्शन चक्र आदि आयुध भी प्रभु के आस-पास ही घूमते रहते हैं, उनके लिये भी आप अत्यन्त दुर्लभ हैं।

तब विश्व रचना की इच्छा वाले लोक विधाता ब्रह्मा जी ने भगवान् के नाभि सरोवर से प्रकट हुआ वह कमल, जल, आकाश, वायु और अपना शरीर- केवल ये पाँच ही पदार्थ देखे, इसके सिवा और कुछ उन्हें दिखायी न दिया। रजोगुण से व्याप्त ब्रह्मा जी प्रजा की रचना करना चाहते थे। जब उन्होंने सृष्टि के कारणरूप केवल ये पाँच ही पदार्थ देखे, तब लोक रचना के लिये उत्सुक होने के कारण वे अचिन्त्यगति श्रीहरि से चित्त लगाकर उन परमपूजनीय प्रभु की स्तुति करने लगे।

साभार krishnakosh.org

श्रीमद्भागवत महापुराण: तृतीय स्कन्ध: अष्टम अध्यायः श्लोक 14-24 का हिन्दी अनुवाद


(लगातार-सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत पुराण)
श्रीमद्भागवत महापुराण:
तृतीय स्कन्ध: अष्टम अध्यायः श्लोक 14-24 का हिन्दी अनुवाद

कर्म शक्ति को जाग्रत् करने वाले काल के द्वारा विष्णु भगवान् की नाभि से प्रकट हुआ वह सूक्ष्म तत्त्व कमलकोश के रूप में सहसा ऊपर उठा और उसने सूर्य के समान अपने तेज से उस अपार जलराशि को देदीप्यमान कर दिया। सम्पूर्ण गुणों को प्रकाशित करने वाले उस सर्वलोकमय कमल में वे विष्णु भगवान् ही अन्तर्यामी रूप से प्रविष्ट हो गये। तब उसमें से बिना पढ़ाये ही स्वयं सम्पूर्ण वेदों को जानने वाले साक्षात् वेदमूर्ति श्रीब्रह्मा जी प्रकट हुए, जिन्हें लोग स्वयम्भु कहते हैं। उस कमल की कर्णिका (गद्दी) में बैठे हुए ब्रह्मा जी को जब कोई लोक दिखायी नहीं दिया, तब वे आँखें फाड़कर आकाश में चारों ओर गर्दन घुमाकर देखने लगे, इससे उनके चारों दिशाओं में चार मुख हो गये। उस समय प्रलयकालीन पवन के थपेड़ों से उछलती हुई जल की तरंगमालाओं के कारण उस जलराशि से ऊपर उठे हुए कमल पर विराजमान आदि देव ब्रह्मा जी को अपना तथा उस लोकतत्त्वरूप कमल का कुछ भी रहस्य न जान पड़ा।

वे सोचने लगे, ‘इस कमल की कर्णिका पर बैठा हुआ मैं कौन हूँ? यह कमल भी बिना किसी अन्य आधार के जल में कहाँ से उत्पन्न हो गया? इसके नीचे अवश्य कोई ऐसी वस्तु होनी चाहिये, जिसके आधार पर यह स्थित है’। ऐसा सोचकर वे उस कमल की नाल के सूक्ष्म छिद्रों में होकर उस जल में घुसे। किन्तु उस नाल के आधार को खोजते-खोजते नाभि-देश के समीप पहुँच जाने पर भी वे उसे पा न सके। विदुर जी! उस अपार अन्धकार में अपने उत्पत्ति-स्थान को खोजते-खोजते ब्रह्मा जी को बहुत काल बीत गया। यह काल ही भगवान् का चक्र है, जो प्राणियों को भयभीत (करता हुआ उनकी आयु को क्षीण) करता रहता है। अन्त में विफल मनोरथ हो वे वहाँ से लौट आये और पुनः अपने आधारभूत कमल पर बैठकर धीरे-धीरे प्राण वायु को जीतकर चित्त को निःसंकल्प किया और समाधि में स्थित हो गये।

इस प्रकार पुरुष की पूर्ण आयु के बराबर काल तक (अर्थात् दिव्य सौ वर्ष तक) अच्छी तरह योगाभ्यास करने पर ब्रह्मा जी को ज्ञान प्राप्त हुआ; तब उन्होंने अपने उस अधिष्ठान को, जिसे वे पहले खोजने पर भी नहीं देख पाये थे, अपने ही अन्तःकरण में प्रकाशित होते देखा। उन्होंने देखा कि उस प्रलयकालीन जल में शेष जी के कमलनाल सदृश गौर और विशाल विग्रह की शय्या पर पुरुषोत्तम भगवान् अकेले ही लेटे हुए हैं। शेष जी के दस हजार फण छत्र के समान फैले हुए हैं। उनके मस्तकों पर किरीट शोभायमान हैं, उनमें जो मणियाँ जड़ी हुई हैं, उनकी कान्ति से चारों ओर का अन्धकार दूर हो गया है। वे अपने श्याम शरीर की आभा से मरकत मणि के पर्वत की शोभा को लज्जित कर रहे हैं। उनकी कमर का पीटपट पर्वत के प्रान्त देश में छाये हुए सायंकाल के पीले-पीले चमकीले मेघों की आभा को मलिन कर रहा है, सिर पर सुशोभित सुवर्ण मुकुट सुवर्णमय शिखरों का मान मर्दन कर रहा है। उनकी वनमाला पर्वत के रत्न, जलप्रपात, ओषधि और पुष्पों की शोभा को परास्त कर रही है तथा उनके भुजदण्ड वेणुदण्ड का और चरण वृक्षों का तिरस्कार करते हैं।



साभार krishnakosh.org

आत्मचिंतन के क्षण.


आत्मचिंतन के क्षण.

विचार मनुष्य जीवन के बनाने अथवा बिगाड़ने में बहुत बड़ा योगदान किया करते हैं। मानव जीवन और उसकी क्रियाओं पर विचारों का आधिपत्य रहने से उन्हीं के अनुसार जीवन का निर्माण होता है। असद्विचार रखकर यदि कोई चाहे कि वह अपने जीवन को आत्मोन्नति की ओर ले जाएगा, तो वह अपने इस मंतव्य में कदापि सफल नहीं हो सकता। मानव जीवन का संचालन विचारों द्वारा ही होता है। बुरे विचार, उसे पतन की ओर ही ले जाएँगे। यह एक ध्रुव सत्य है। इसमें किसी प्रकार भी अपवाद का समावेश नहीं किया जा सकता।

स्वार्थ वृत्ति एक जहरीले साँप की तरह होती है। यह जब अपना फन फैलाती है, तो शत्रु-मित्र का विचार किए बिना समान रूप से सबको डस लेती है। एक स्वार्थ वृत्ति से ही मनुष्य में न जाने और कितनी दूषित वृत्तियाँ आ जाती हैं। ईर्ष्या, द्वेष, काम, क्रोध, लोभ और मोह आदि के अनर्थकारी विकार, एक स्वार्थ की ही संतति समझनी चाहिए। लौकिक और पारलौकिक, भौतिक तथा आध्यात्मिक, वैयक्तिक तथा सामाजिक किसी भी कल्याण के लिए मनुष्य की स्वार्थ वृत्ति बड़ी भयानक पिशाचिनी है। अपने प्रभाव में लेकर यह मनुष्य को अपने अनुरूप पिशाच ही बना लेती है।

विचारों का परिष्कार एवं प्रसार करके आप मनुष्य से महामनुष्य, दिव्य मनुष्य और यहाँ तक ईश्वरत्त्व तक प्राप्त कर सकते हैं। इस उपलब्धि में आड़े आने के लिए कोई अवरोध संसार में नहीं। यदि कोई अवरोध हो सकता है, तो वह स्वयं का आलस्य, प्रमाद, असंमय अथवा आत्म अवज्ञा का भाव। इस अनंत शक्ति का द्वार सबके लिए समान रूप से खुला है, और यह परमार्थ का पुण्य पथ सबके लिए प्रशस्त है। अब कोई उस पर चले या न चले, यह उसकी अपनी इच्छा पर निर्भर है।

आशा, विश्वास और परिवर्तन के अटल विधान में आस्था रखने के साथ समय रूपी महान् चिकित्सक में विश्वास रखिए। समय बड़ा बलवान् और उपचारक होता है। वह धैर्य रखने पर मनुष्य के बड़े-बड़े संकटों को ऐसे टाल देता है, जैसे वह आये ही न थे। संकट तथा दुःख देखकर भयभीत होना कापुरुषता है। आप ईश्वर के अंश हैं-आनंद स्वरूप हैं। आपको तो धैर्य, साहस, आत्म-विश्वास और पुरुषार्थ के आधार पर संकट और विपत्तियों की अवहेलना करते हुए सिंह पुरुषों की तरह ही जीवन व्यतीत करना चाहिए।

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