सच्चा ज्ञान


सच्चा ज्ञान


एक संन्यासी ईश्वर की खोज में निकला और एक आश्रम में जाकर ठहरा। पंद्रह दिन तक उस आश्रम में रहा, फिर ऊब गया। उस आश्रम के जो बुढे गुरु थे वह कुछ थोड़ी सी बातें जानते थे, रोज उन्हीं को दोहरा देते थे।

फिर उस युवा संन्यासी ने सोचा, 'यह गुरु मेरे योग्य नहीं, मैं कहीं और जाऊं। यहां तो थोड़ी सी बातें हैं, उन्हीं का दोहराना है। कल सुबह छोड़ दूंगा इस आश्रम को, यह जगह मेरे लायक नहीं।'

लेकिन उसी रात एक ऐसी घटना घट गई कि फिर उस युवा संन्यासी ने जीवन भर वह आश्रम नहीं छोड़ा। क्या हो गया?

दरअसल रात एक और संन्यासी मेहमान हुआ। रात आश्रम के सारे मित्र इकट्ठे हुए, सारे संन्यासी इकट्ठे हुए, उस नये संन्यासी से बातचीत करने और उसकी बातें सुनने।

उस नये संन्यासी ने बड़ी ज्ञान की बातें कहीं, उपनिषद की बातें कहीं, वेदों की बातें कहीं। वह इतना जानता था, इतना सूक्ष्म उसका विश्लेषण था, ऐसा गहरा उसका ज्ञान था कि दो घंटे तक वह बोलता रहा। सबने मंत्रमुग्ध होकर सुना।

उस युवा संन्यासी के मन में हुआ; 'गुरु हो तो ऐसा हो। इससे कुछ सीखने को मिल सकता है। एक वह गुरु है, वह चुपचाप बैठे हैं, उन्हे कुछ भी पता नहीं। अभी सुन कर उस बूढ़े के मन में बड़ा दुख होता होगा, पश्चात्ताप होता होगा, ग्लानि होती होगी—कि मैंने कुछ न जाना और यह अजनबी संन्यासी बहुत कुछ जानता है।'

युवा संन्यासी ने यह सोचा कि 'आज वह बूढ़ा गुरु अपने दिल में बहुत—बहुत दुखी, हीन अनुभव करता होगा।'

तभी उस आए हुए संन्यासी ने बात बंद की और बूढ़े गुरु से पूछा कि- "आपको मेरी बातें कैसी लगीं?"

बूढा गुरु खिलखिला कर हंसने लगा  और बोला - "तुम्हारी बातें? मैं दो घंटे से सुनने की कोशिश कर रहा हूँ, तुम तो कुछ बोलते ही नहीं हो। तुम तो बिलकुल भी बोलते ही नहीं हो।"

वह संन्यासी बोला- "मै दो घंटे से मैं बोल रहा हूं आप पागल तो नहीं हैं! और मुझसे कहते हैं कि मैं बोलता नहीं हूँ।"

वृद्ध ने कहा- "हां, तुम्हारे भीतर से गीता बोलती है, उपनिषद बोलता है, वेद बोलता है, लेकिन तुम तो जरा भी नहीं बोलते हो। तुमने इतनी देर में एक शब्द भी नहीं बोला! एक शब्द तुम नहीं बोले, सब सीखा हुआ बोले, सब याद किया हुआ बोले, जाना हुआ एक शब्द तुमने नहीं बोला। इसलिए मैं कहता हूं कि तुम कुछ भी नहीं बोलते हो, तुम्हारे भीतर से किताबें बोलती हैं।"

एक ज्ञान वह है जो उधार है, जो हम सीख लेते हैं। ऐसे ज्ञान से जीवन के सत्य को कभी नहीं जाना जा सकता। जीवन के सत्य को केवल वे जानते हैं जो उधार ज्ञान से मुक्त होते हैं।

हम सब उधार ज्ञान से भरे हुए हैं। हमें लगता है कि हमें ईश्वर के संबंध में पता है। पर भला ईश्वर के संबंध में हमें क्या पता होगा जब अपने संबंध में ही पता नहीं है? हमें मोक्ष के संबंध में पता है। हमें जीवन के सभी सत्यों के संबंध में पता है। और इस छोटे से सत्य के संबंध में पता नहीं है जो हम हैं! अपने ही संबंध में जिन्हें पता नहीं है, उनके ज्ञान का क्या मूल्य हो सकता है?

लेकिन हम ऐसा ही ज्ञान इकट्ठा किए हुए हैं। और इसी ज्ञान को जान समझ कर जी लेते हैं और नष्ट हो जाते हैं। आदमी अज्ञान में पैदा होता है और मिथ्या ज्ञान में मर जाता है, ज्ञान उपलब्ध ही नहीं हो पाता।

दुनिया में दो तरह के लोग हैं एक अज्ञानी और एक ऐसे अज्ञानी जिन्हें ज्ञानी होने का भ्रम है। तीसरी तरह का आदमी मुश्किल से कभी-कभी जन्मता है। लेकिन जब तक कोई तीसरी तरह का आदमी न बन जाए, तब तक उसकी जिंदगी में न सुख हो सकता है, न शांति हो सकती है।

विवेक


विवे

एक बार महावीर अपने पुत्र से कह रहे थे की एक बार मैं एक रेलवे स्टेशन पर बैठा था मेरे पास एक व्यक्ति और बैठा था हम दोनो बाते कर रहे थे उसने कहा की मुझे भी अमुक स्थान पर जाना है हम दोनो को एक ही स्थान पर जाना था !

मै केन्टिन में गया और चाय व कुछ नाश्ता लेकर आया मैंने देखा वो व्यक्ति फोन पर बात करते हुये आगे चला जा रहा!

शायद ट्रेन आने वाली थी मैंने बेग उठाया और तेजी से उसके पिछे चलने लगा शायद आगे जाने से सीट मिल जाये मेरे पिछे कई व्यक्ति चलने लगे और चलते चलते हम सभी प्लेटफार्म नम्बर एक से नम्बर दो पर पहुँच गये और वो वहाँ बैठा तब मेरे मन में एक विचार आया की मैं इसके पीछे पीछे कहाँ आ गया मॆरी ट्रेन तो प्लेटफार्म नम्बर एक पर आने वाली है और मैं तो बिल्कुल उल्टी जगह पर आ गया और देखते ही देखते मॆरी आँखो के सामने से मॆरी ट्रेन चली गई और जो चाय नाश्ता लिया वो भी वही रह गया!

अब मुझे उस व्यक्ति पर बड़ा गुस्सा आ रहा था और मैं उसके पास गया और उससे लड़ने लगा की तुम्हारी वजह से मॆरी ट्रेन छुट गई मैं अपशब्द पे अपशब्द बोले जा रहा था और वो सुने जा रहा था काफी देर बोलने के बाद मैं वहाँ बैठ गया फिर वो बड़े ही शालीनता के साथ बोले भाई सा. यदि आपकी बात समाप्त हो गई हो तो मैं कुछ बोलुं?

मैंने कहा हाँ बोलो तब उन्होंने मुझे वो शिक्षा दी जो मैं आज तक नही भुला उन्होंने कहा।

"भाई सा. अचानक मुझे घर से कॉल आया की मुझे दिल्ली की बजाय मुम्बई जाना है क्योंकि हम सभी का प्लान चेंज हो गया और मॆरी ट्रेन प्लेटफार्म नम्बर दो पर आयेगी पर आप मुझे एक बात बताईये की जब आपको पता था और बोर्ड पे साफ शब्दों में लिखा था और बार बार अलाउन्समेन्ट हो रहा था की दिल्ली जाने वाली ट्रेन प्लेटफार्म नम्बर एक पर आयेगी तो आपने मुझे फॉलो क्यों किया? क्या आपको उस बोर्ड और उस अलाउन्समेन्ट के ऊपर कोई विश्वास न था? आपकी सबसे बड़ी गलती यही थी की आपने अपने विवेक से काम नही किया बस बिना सोचे समझे किसी को फोलो किया इसलिये आपका चाय-नाश्ता भी गया और चाय से हाथ भी जलाया और आपकी आँखो के सामने से आपकी ट्रेन चली गई और आप बस देखते रह गये!

और इतने में उनकी ट्रेन आ गई और वो उसमें बैठकर चले गये और जाते जाते मुझे कह गये की भाई सा. जिन्दगी में एक बात अच्छी तरह से याद रखना की अंधाधुंध फोलो किसी को मत करना अपने विवेक से काम लेना की जिस राह पे तुम जा रहे हो क्या वो तुम्हे सही मंजिल तक पहुंचायेगा? किसी को फोलो करोगे तो भटक सकते हो!

यदि फोलो करना ही है तो रामायण को, धर्म -शास्त्र को फोलो करना ताकी तुम कही भटको नही किसी व्यक्ति को कभी फोलो मत करना क्योंकि पाप कभी भी किसी के भी मन में आ सकता है या फिर उसका लक्ष्य कब बदल जाये कुछ पता नही इसलिये स्वविवेक से काम लेना। अच्छाई दिखे और लगे की ये चीज प्रकाश से जोड़ सकती है परम पिता परमेश्वर से मिला सकती है और मुझे एक बेहतरीन इन्सान बना सकती है तो उसे ग्रहण कर लेना नही तो छोड़ देना और अंधाधुंध फोलो करोगे बिना परिणाम जाने भेड़-चाल चलोगे तो हो सकता है की तुम भटक जाओ और गहरे अन्धकार में लुप्त हो जाओ!

इसलिये जिन्दगी में हमेशा बेहतरीन इन्सान बनने की कोशिश करना पर किसी को अंधाधुंध फोलो मत करना फोलो प्रकाश दे सकता है तो गहरा अंधकार भी दे सकता है!

श्रीमद्भागवत महापुराण: चतुर्थ स्कन्ध: पंचम अध्यायः श्लोक 11-26 का हिन्दी अनुवाद


(लगातार-सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत पुराण)
श्रीमद्भागवत महापुराण:
चतुर्थ स्कन्ध: पंचम अध्यायः श्लोक 11-26 का हिन्दी अनुवाद

उस समय उनका तेज असह्य होता है, वे अपनी भौंहें टेढ़ी करने के कारण बड़े दुर्धर्ष जान पड़ते हैं और उनकी विकराल दाढ़ों से तारागण अस्त्र-व्यस्त हो जाते हैं। उन क्रोध में भरे हुए भगवान् शंकर को बार-बार कुपित करने वाला पुरुष साक्षात् विधाता ही क्यों न हो-क्या कभी उसका कल्याण हो सकता है? जो लोग महात्मा दक्ष के यज्ञ में बैठे थे, वे भय के कारण एक-दूसरे की ओर कातर दृष्टि से निहारते हुए ऐसी ही तरह-तरह की बातें कर रहे थे कि इतने में ही आकाश और पृथ्वी में सब ओर सहस्रों भयंकर उत्पात होने लगे।

विदुर जी! इसी समय दौड़कर आये हुए रुद्र सेवकों ने उस महान् यज्ञमण्डप को सब ओर से घेर लिया। वे सब तरह-तरह के अस्त्र-शस्त्र लिये हुए थे। उनमें कोई बौने, कोई भूरे रंग के, कोई पीले और कोई मगर के समान पेट और मुख वाले थे। उनमें से किन्हीं ने प्राग्वंश (यज्ञशाला के पूर्व और पश्चिम के खंभों के बीच के आड़े रखे हुए डंडे) को तोड़ डाला, किन्हीं ने यज्ञशाला के पश्चिम की ओर स्थित पत्नीशाला को नष्ट कर दिया, किन्हीं ने यज्ञशाला के सामने का सभामण्डप और मण्डप के आगे उत्तर की ओर स्थित आग्नीध्रशाला को तोड़ दिया, किन्हीं ने यजमानगृह और पाकशाला को तहस-नहस कर डाला। किन्ही ने यज्ञ के पात्र फोड़ दिये, किन्हीं ने अग्नियों को बुझा दिया, किन्हीं ने यज्ञकुण्डों में पेशाब कर दिया और किन्हीं ने वेदी की सीमा के सूत्रों को तोड़ डाला। कोई-कोई मुनियों को तंग करने लगे, कोई स्त्रियों को डराने-धमकाने लगे और किन्हीं ने अपने पास होकर भागते हुए देवताओं को पकड़ लिया। मणिमान् ने भृगु ऋषि को बाँध लिया, वीरभद्र ने प्रजापति दक्ष को कैद कर लिया तथा चण्डीश ने पूषा को और नंदीश्वर ने भग देवता को पकड़ लिया।

भगवान् शंकर के पार्षदों की यह भयंकर लीला देखकर तथा उनके कंकड़-पत्थरों की मार से बहुत तंग आकर वहाँ जितने ऋत्विज्, सदस्य और देवता लोग थे, सब-के-सब जहाँ-तहाँ भाग गये। भृगु जी हाथ में स्रुवा लिये हवन कर रहे थे। वीरभद्र ने इनकी दाढ़ी-मूँछ नोच लीं; क्योंकि इन्होंने प्रजापतियों की सभा में मूँछें ऐंठते हुए महादेव जी का उपहास किया था। उन्होंने क्रोध में भरकर भगदेवता को पृथ्वी पर पटक दिया और उनकी आँखें निकाल लीं; क्योंकि जब दक्ष देवसभा में श्रीमहादेव जी को बुरा-भला कहते हुए शाप दे रहे थे, उस समय इन्होंने दक्ष को सैन देकर उकसाया था। इसके पश्चात् जैसे अनिरुद्ध के विवाह के समय बलराम जी ने कलिंगराज के दाँत उखड़े थे, उसी प्रकार उन्होंने पूषा के दाँत तोड़ दिये; क्योंकि जब दक्ष ने महादेव जी को गलियाँ दी थीं, उस समय ये दाँत दिखाकर हँसे थे। फिर वे दक्ष की छाती पर बैठकर एक तेज तलवार से उसका सिर काटने लगे, परन्तु बहुत प्रयत्न करने पर भी वे उस समय उसे धड़ से अलग न कर सके। जब किसी भी प्रकार के अस्त्र-शस्त्रों से दक्ष की त्वचा नहीं कटी, तब वीरभद्र को बड़ा आश्चर्य हुआ। वे बहुत देर तक विचार करते थे। तब उन्होंने यज्ञमण्डप में यज्ञपशुओं को जिस प्रकार मारा जाता था, उसे देखकर उसी प्रकार दक्षरूप उस यजमान पशु का सिर धड़ से अलग कर दिया। यह देखकर भूत, प्रेत और पिशाचादि तो उनके इस कर्म की प्रशंसा करते हुए ‘वाह-वाह’ करने लगे और दक्ष के दल वालों में हाहाकार मच गया। वीरभद्र ने अत्यन्त कुपित होकर दक्ष के सिर को यज्ञ की दक्षिणाग्नि में डाल दिया और उस यज्ञशाला में आग लगाकर यज्ञ को विध्वंस करके वे कैलास पर्वत पर लौट गये।

श्रीमद्भागवत महापुराण: चतुर्थ स्कन्ध: पंचम अध्यायः श्लोक 1-10 का हिन्दी अनुवाद


(लगातार-सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत पुराण)
श्रीमद्भागवत महापुराण:
चतुर्थ स्कन्ध: पंचम अध्यायः श्लोक 1-10 का हिन्दी अनुवाद

वीरभद्रकृत दक्षयज्ञ विध्वंस और दक्षवध

श्रीमैत्रेय जी कहते हैं- महादेव जी ने जब देवर्षि नारद के मुख से सुना कि अपने पिता दक्ष से अपमानित होने के कारण देवी सती ने प्राण त्याग दिये हैं और उसकी यज्ञवेदी से प्रकट हुए ऋभुओं ने उनका पार्षदों की सेना को मारकर भगा दिया है, तब उन्हें बड़ा ही क्रोध हुआ। उन्होंने उग्र रूप धारण कर क्रोध के मारे होठ चबाते हुए अपनी एक जटा उखाड़ ली-जो बिजली और आग की लपट के समान दीप्त हो रही थी-और सहसा खड़े होकर बड़े गम्भीर अट्टहास के साथ उसे पृथ्वी पर पटक दिया। उससे तुरंत ही एक बड़ा भारी लंबा-चौड़ा पुरुष उत्पन्न हुआ। उसका शरीर इतना विशाल था कि वह स्वर्ग को स्पर्श कर रहा था। उसके हजार भुजाएँ थीं। मेघ के समान श्यामवर्ण था, सूर्य के समान जलते हुए तीन नेत्र थे, विकराल दाढ़ें थीं और अग्नि की ज्वालाओं के समान लाल-लाल जटाएँ थीं। उसके गले में नरमुण्डों की माला थी और हाथों में तरह-तरह के अस्त्र-शस्त्र थे। जब उसने हाथ जोड़कर पूछा, ‘भगवन्! मैं क्या करूँ?’

भगवान् भूतनाथ ने कहा- ‘वीररुद्र! तू मेरा अंश है, इसलिये मेरे पार्षदों का अधिनायक बनकर तू तुरंत ही जा और दक्ष तथा उसके यज्ञ को नष्ट कर दे’।

प्यारे विदुर जी! जब देवाधिदेव भगवान् शंकर ने क्रोध में भरकर ऐसी आज्ञा दी, तब वीरभद्र उनकी परिक्रमा करके चलने को तैयार हो गये। उस समय उन्हें ऐसा मालूम होने लगा कि मेरे वेग का सामना करने वाला संसार में कोई नहीं है और मैं बड़े-से-बड़े वीर का भी वेग सहन कर सकता हूँ। वे भयंकर सिंहनाद करते हुए एक अति कराल त्रिशूल हाथ में लेकर दक्ष के यज्ञमण्डप की ओर दौड़े। उनका त्रिशूल संसार-संहारक मृत्यु का भी संहार करने में समर्थ था। भगवान् रुद्र के और भी बहुत-से सेवक गर्जना करते हुए उनके पीछे हो लिये। उस समय वीरभद्र के पैरों के नूपुरादि आभूषण झनन-झनन बजते जाते थे।

इधर यज्ञशाला में बैठे हुए ऋत्विज्, यजमान सदस्य तथा अन्य ब्राह्मण और ब्रह्माणियों ने उत्तर दिशा की ओर धूल उड़ती देखी, तब वे सोचने लगे- ‘अरे यह अँधेरा-सा कैसे होता आ रहा है? यह धूल कहाँ से छा गयी? इस समय न तो आँधी ही चल रही है और न कहीं लुटेरे ही सुने जाते हैं; क्योंकि अपराधियों को कठोर दण्ड देने वाला राजा प्राचीनबर्हि अभी जीवित है। अभी गौओं के आने का समय भी नहीं हुआ है। फिर यह धूल कहाँ से आयी? क्या इसी समय संसार का प्रलय तो नहीं होने वाला है?’ तब दक्षपत्नी प्रसूति एवं अन्य स्त्रियों ने व्याकुल होकर कहा- प्रजापति दक्ष ने अपनी सारी कन्याओं के सामने बेचारी निरपराध सती का तिरस्कार किया था; मालूम होता है यह उसी पाप का फल है। (अथवा हो न हो यह संहारमूर्ति भगवान् रुद्र के अनादर का ही परिणाम है।) प्रलयकाल उपस्थित होने पर जिस समय वे अपने जटाजूट को बिखेरकर तथा शस्त्रास्त्रों से सुसज्जित अपनी भुजाओं को ध्वजाओं के समान फैलाकर ताण्डव नृत्य करते हैं, उस समय उनके त्रिशूल के फलों से दिग्गज बिंध जाते हैं तथा उनके मेघगर्जन के समान भयंकर अट्टहास से दिशाएँ विदीर्ण हो जाती हैं।


साभार krishnakosh.org

श्रीमद्भागवत महापुराण: चतुर्थ स्कन्ध: चतुर्थ अध्यायः श्लोक 20-34 का हिन्दी अनुवाद


(लगातार-सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत पुराण)
श्रीमद्भागवत महापुराण:
चतुर्थ स्कन्ध: चतुर्थ अध्यायः श्लोक 20-34 का हिन्दी अनुवाद

प्रवृत्ति (यज्ञ-यागादि) और निवृत्ति (शम-दमादि) रूप दोनों ही प्रकार के कर्म ठीक हैं। वेद में उनके अलग-अलग रागी और विरागी दो प्रकार के अधिकारी बताये गये हैं। परस्पर विरोधी होने के कारण उक्त दोनों प्रकार के कर्मों का एक साथ एक ही पुरुष के द्वारा आचरण नहीं किया जा सकता। भगवान् शंकर तो परब्रह्म परमात्मा हैं। उन्हें इन दोनों में से किसी भी प्रकार का कर्म करने की आवश्यकता नहीं है।

पिताजी! हमारा ऐश्वर्य अवयक्त है, आत्मज्ञानी महापुरुष ही उसका सेवन कर सकते हैं। आपके पास वह ऐश्वर्य नहीं है और यज्ञशालाओं में यज्ञान्न से तृप्त होकर प्राण पोषण करने वाले कर्मठ लोग उसकी प्रशंसा भी नहीं करते। आप भगवान् शंकर का अपराध करने वाले हैं। अतः आपके शरीर से उत्पन्न इस निन्दनीय देह को रखकर मुझे क्या करना है। आप-जैसे दुर्जन से सम्बन्ध होने के कारण मुझे लज्जा आती है। जो महापुरुषों का अपराध करता है, उससे होने वाले जन्म को भी धिक्कार है। जिस समय भगवान् शिव आपके साथ मेरा सम्बन्ध दिखलाते हुए मुझे हँसी में ‘दाक्षायणी’ (दक्षकुमारी) के नाम से पुकारेंगे, उस समय हँसी को भूलकर मुझे बड़ी ही लज्जा और खेद होगा। इसलिये उसके पहले ही मैं आपके अंग से उत्पन्न इस शवतुल्य शरीर को त्याग दूँगी।

मैत्रेय जी कहते हैं- कामादि शत्रुओं को जीतने वाले विदुर जी! उस यज्ञमण्डप में दक्ष से इस प्रकार कह देवी सती मौन होकर उत्तर दिशा में भूमि पर बैठ गयीं। उन्होंने आचमन करके पीला वस्त्र ओढ़ लिया तथा आँखें मूँदकर शरीर छोड़ने के लिये वे योगमार्ग में स्थित हो गयीं। उन्होंने आसन को स्थिर कर प्राणायाम द्वारा प्राण और अपान को एकरूप करके नाभिचक्र में स्थित किया; फिर उदानवायु को नाभिचक्र से ऊपर उठाकर धीरे-धीरे बुद्धि के साथ हृदय में स्थापित किया। इसके पश्चात् अनिन्दिता सती उस हृदय स्थित वायु को कण्ठमार्ग से भ्रुकुटियों के बीच में ले गयीं। इस प्रकार, जिस शरीर को महापुरुषों के भी पूजनीय भगवान् शंकर ने कई बार बड़े आदर से अपनी गोद में बैठाया था, दक्ष पर कुपित होकर उसे त्यागने की इच्छा से महामनस्विनी सती ने अपने सम्पूर्ण अंगों में वायु और अग्नि की धारणा की। अपने पति जगद्गुरु भगवान् शंकर के चरण-कमल-मकरन्द का चिन्तन करते-करते सती ने और सब ध्यान भुला दिये; उन्हें उन चरणों के अतिरिक्त कुछ भी दिखायी न दिया। इससे वे सर्वथा निर्दोष, अर्थात् मैं दक्ष कन्या हूँ-ऐसे अभिमान से भी मुक्त हो गयीं और उनका शरीर तुरंत ही योगाग्नि से जल उठा।

उस समय वहाँ आये हुए देवता आदि ने जब सती का देहत्यागरूप यह महान् आश्चर्यमय चरित्र देखा, तब वे सभी हाहाकार करने लगे और वह भयंकर कोलाहल आकाश में एवं पृथ्वीतल पर सभी जगह फैल गया। सब ओर यही सुनायी देता था- ‘हाय! दक्ष के दुर्व्यवहार से कुपित होकर देवाधिदेव महादेव की प्रिया सती ने प्राण त्याग दिये। देखो, सारे चराचर जीव इस दक्ष प्रजापति की ही सन्तान हैं; फिर भी इसने कैसी भारी दुष्टता की है! इसकी पुत्री शुद्धहृदया सती सदा ही मान पाने के योग्य थी, किन्तु इसने उसका ऐसा निरादर किया कि उसने प्राण त्याग दिये। वास्तव में यह बड़ा ही असहिष्णु और ब्राह्मणद्रोही है। अब इसकी संसार में बड़ी अपकीर्ति होगी। जब इसकी पुत्री सती इसी के अपराध से प्राण त्याग करने को तैयार हुई, तब भी इस शंकरद्रोही ने उसे रोका तक नहीं।’

जिस समय सब लोग ऐसा कह रहे थे, उसी समय शिव जी के पार्षद सती का यह अद्भुत प्राणत्याग देख, अस्त्र-शस्त्र लेकर दक्ष को मारने के लिये उठ खड़े हुए। उनके आक्रमण का वेग देखकर भगवान् भृगु ने यज्ञ में विघ्न डालने वालों का नाश करने के लिये ‘अपहतं रक्ष...’ इत्यादि मन्त्र का उच्चारण करते हुए दक्षिणाग्नि में आहुति दी। अध्वर्यु भृगु ने ज्यों ही आहुति छोड़ी कि यज्ञकुण्ड से ‘ऋभु’ नाम के हजारों तेजस्वी देवता प्रकट हो गये। इन्होंने अपनी तपस्या के प्रभाव से चन्द्रलोक प्राप्त किया था। उन ब्रह्मतेज सम्पन्न देवताओं ने जलती हुई लकड़ियों से आक्रमण किया, तो समस्त गुह्यक और प्रथमगण इधर-उधर भाग गये।

जो चाहें, वह सब पायें.


जो चाहें, वह सब पायें.

आध्यात्मिक मान्यताओं के अनुसार सभी प्राणियों में एक ही चेतना का अस्तित्व विद्यमान है। शरीर की दृष्टि से वे भले ही अलग-अलग हों, पर वस्तुतः आत्मिक दृष्टि से सभी एक हैं। इस संदर्भ में परामनोविज्ञान की मान्यता है विश्व-मानस एक अथाह और असीम जल राशि की तरह है। व्यक्तिगत चेतना उसी विचार महासागर (यूनीवर्सल माइण्ड) की एक नगण्य -सी तरंग है, इसी के माध्यम से व्यक्ति अनेक विविध चेतनाएँ उपलब्ध करता है और अपनी विशेषताएँ सम्मिलित करके फिर उसे वापस उसी समुद्र को समर्पित कर देता है।

इच्छा शक्ति द्वारा वस्तुओं को प्रभावित करना अब एक स्वतंत्र विज्ञान बन गया है, जिसे ‘साइकोकिनस्रिस’ कहते हैं। इस विज्ञान पक्ष का प्रतिपादन है कि ठोस दिखने वाले पदार्थों के भीतर भी विद्युत् अणुओं की तीव्रगामी हलचलें जारी रहती है। इन अणुओं के अंतर्गत जो चेतना तत्त्व विद्यमान है, उन्हें मनोबल की शक्ति-तरंगों द्वारा प्रभावित, नियंत्रित और परिवर्तित किया जा सकता है। इस प्रकार मौलिक जगत पर मनःशक्ति के नियंत्रण को एक तथ्य माना जा सकता है।

भारत ही नहीं, अपितु अन्य देशों में भी अभ्यास द्वारा इच्छाशक्ति बढ़ाने और उसे प्रखर बना लेने के रूप में ऐसी कई विचित्रताएँ देखने को मिल जाती हैं, जो इस बात का प्रतीक है कि मनुष्य कुछ विशेष परिस्थतियों में ही शान्त, सन्तुलित, सुखी और संतुष्ट भले ही रहता हो, परन्तु इच्छाशक्ति को बढ़ाया जाय तथा अभ्यास किया जाय, तो वह अपने को चाहे जिस रूप में बदल सकता है। इच्छा और संकल्पशक्ति के आधार पर असंभव लगने वाले दुष्कर कार्य भी किए जा सकते हैं।

कुछ वर्ष पूर्व मैक्सिको (अमेरिका) में डॉ. राल्फ एलेक्जेंडर ने इच्छाशक्ति की प्रचण्ड क्षमता का सार्वजनिक प्रदर्शन किया। प्रदर्शन यह था कि आकाश में छाये बादलों को किसी भी स्थान से किसी भी दिशा में हटाया जा सकता है और उसे कैसी भी शक्ल दी जा सकती है। इतना ही नहीं, बादलों को बुलाया और भगाया जा सकता है। एक प्रसिद्ध वैज्ञानिक ऐलेन एप्रागेट ने साइकोलॉजी पत्रिका में उपरोक्त प्रदर्शन पर टिप्पणी करते हुए बताया कि मनुष्य की इच्छा शक्ति अपने ढंग की एक सामर्थ्यवान विद्युत् धारा है और उसके आधार पर प्रकृति की हलचलों को प्रभावित कर सकना पूर्णतया संभव है। अमेरिका के ही ओरीलिया शहर में डॉ. एलेग्जेंडर ने एक शोध संस्थान खोल रखा है, जहाँ वस्तुओं पर मनः शक्ति के प्रभावों का वैज्ञानिक अध्ययन विधिवत् किया जा रहा है। तद्नुसार एक व्यक्ति के विचार दूरवर्ती दूसरे व्यक्ति तक भी पहुँच सकते हैं और वस्तुओं को ही नहीं, व्यक्तियों को भी प्रभावित कर सकते हैं। यह तथ्य अब असंदिग्ध हो चला है। अनायास घटने वाली घटनाएँ ही इसकी साक्षी नहीं है, वरन् प्रयोग करके यह भी संभव बनाया जा सकता है कि यदि इच्छा शक्ति आवश्यक परिमाण में विद्यमान हो या दो व्यक्तियों के बीच पर्याप्त घनिष्ठता हो तो विचारों के वायरलैस द्वारा एक दूसरे से सम्पर्क संबंध स्थापित किया जा सकता है और अपने मन की बात कही-सुनी जा सकती है।

अभी तक ऐसी अनेक घटनाएँ घटी है और ऐसे कई प्रामाणिक तथ्य मिले हैं, जिसके आधार पर यह प्रतिपादित किया गया है कि मनुष्य अपनी बढ़ी हुई इच्छाशक्ति को और बढ़ाकर इस संसार के सिरजनहार की तरह समर्थ और शक्तिमान बन सकता है, क्योंकि अलग-अलग एकाकी इकाई दिखाई पड़ने पर भी वह है तो उसी का अंश।


(पं श्रीराम शर्मा आचार्य)

फलादेश सूत्र. (ज्योतिष)


लादे सूत्र.
(ज्योतिष)

1. जब गोचर में शनि ग्रह धनु, मकर, मीन व कन्या राशियों में गुजरता है तो अकाल, रक्त सम्बन्धी विचित्र रोग होते हैं।

2. किसी देश का राष्ट्राध्यक्ष सोमवार, बुध या गुरूवार को शपथ ले तब प्रजा एवं उसके स्वयम के लिए शुभ माना जाता है।

3. सप्तमेश शुभ-युक्त न होकर षष्ठ, अष्टम या द्वादश भाव में हो, नीच या अस्त हो तो जातक के विवाह में बाधा आती है।

4. जन्म कुंडली में मंगल को भूमि (आवासीय) का और शनि को कृषि भूमि का कारक माना गया है। जन्म कुंडली में चतुर्थ भाव या चतुर्थेश से मंगल का संबंध बनने पर व्यक्ति अपना घर अवश्य बनाता है। जन्म कुंडली में जब एकादश का संबंध चतुर्थ भाव से बनता है तब व्यक्ति एक से अधिक मकान बनाता है लेकिन यह संबंध शुभ व बली होना चाहिए।

5. जन्म कुंडली में लग्नेश, चतुर्थेश व मंगल का संबंध बनने पर भी व्यक्ति भूमि प्राप्त करता है अथवा अपना मकान बनाता है। जन्म कुंडली में चतुर्थ व द्वादश भाव का बली संबंध बनने पर व्यक्ति घर से दूर भूमि प्राप्त करता है या विदेश में घर बनाता है।

6. जन्म कुंडली का चतुर्थ भाव प्रॉपर्टी के लिए मुख्य रुप से देखा जाता है. चतुर्थ भाव से व्यक्ति की स्वयं की बनाई हुई सम्पत्ति को देखा जाता है. यदि जन्म कुंडली के चतुर्थ भाव पर शुभ ग्रह का प्रभाव अधिक है तब व्यक्ति स्वयं की भूमि का स्वामित्व होता हैं।

7. कोई भी ग्रह पहले नवाँश में होने से जातक को प्रगतिशील और साहसिक नेता बनाता है। ऐसे ग्रह की दशा / अन्तर्दशा में जातक सक्रिय होता है और संबंधित क्षेत्र में सफलता पाता है।

8. जन्म से चार वर्ष के भीतर बालक की मृत्यु का कारण माता के कर्म पर, चार से आठ वर्ष के बीच मृत्यु पिता के कर्म और आठ के पश्चात मृत्यु स्वयं के कर्म पर आधारित मानी गई है।

9. बुध के निर्बल होने पर कुंडली में अच्छा शुक्र भी अपना प्रभाव खो देता है क्योंकि शुक्र को लक्ष्मी माना जाता है और बुध्द (विष्णु) की निष्क्रियता से लक्ष्मी भी अपना फल देने में असमर्थ हो जाती हैं।

10. शनि वचनबद्धता, कार्यबद्धता और समयबद्धता का कारक ग्रह है। जिस भी व्यक्ति के जीवन में इन तीनो चीजों का अभाव होगा तो समझना चाहिए की उसकी पत्रिका में शनि की स्थिति अच्छी नहीं है।

श्रीमद्भागवत महापुराण: चतुर्थ स्कन्ध: चतुर्थ अध्यायः श्लोक 11-19 का हिन्दी अनुवाद


(लगातार-सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत पुराण)
श्रीमद्भागवत महापुराण:
चतुर्थ स्कन्ध: चतुर्थ अध्यायः श्लोक 11-19 का हिन्दी अनुवाद

देवी सती ने कहा- पिताजी! भगवान् शंकर से बड़ा तो संसार में कोई भी नहीं है। वे तो सभी देहधारियों के प्रिय आत्मा हैं। उनका न कोई प्रिय है, न अप्रिय, अतएव उनका किसी भी प्राणी से वैर नहीं है। वे तो सबके कारण एवं सर्वरूप हैं; आपके सिवा और ऐसा कौन है जो उनसे विरोध करेगा?

द्विजवर! आप-जैसे लोग दूसरों के गुणों में भी दोष ही देखते हैं, किन्तु कोई साधुपुरुष ऐसा नहीं करते। जो लोग-दोष देखने की बात तो अलग रही-दूसरों के थोड़े से गुण को भी बड़े रूप में देखना चाहते हैं, वे सबसे श्रेष्ठ है। खेद है कि आपने ऐसे महापुरुषों पर भी दोषारोपण ही किया। जो दुष्ट मनुष्य इस शवरूप जड़ शरीर को ही आत्मा मानते हैं, वे यदि ईर्ष्यावश सर्वदा ही महापुरुषों की निन्दा करें तो यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है। क्योंकि महापुरुष तो उनकी इस चेष्टा पर कोई ध्यान नहीं देते, परन्तु उनके चरणों की धूलि उनके इस अपराध को न सहकर उनका तेज नष्ट कर देती है। अतः महापुरुषों की निन्दा-जैसा जघन्य कार्य उन दुष्ट पुरुषों को ही शोभा देता है। जिनका ‘शिव’ यह दो अक्षरों का नाम प्रसंगवश एक बार भी मुख से निकल जाने पर मनुष्य के समस्त पापों को तत्काल नष्ट कर देता है और जिनकी आज्ञा का कोई भी उल्लंघन नहीं कर सकता, अहो! उन्हीं पवित्रकीर्ति मंगलमय भगवान् शंकर से आप द्वेष करते हैं! अवश्य ही आप मंगलरूप हैं।

अरे! महापुरुषों के मन-मधुकर ब्रह्मानन्दमय रस का पान करने की इच्छा से जिनके चरणकमलों का निरन्तर सेवन किया करते हैं और जिनके चरणारविन्द सकाम पुरुषों को उनके अभीष्ट भोग भी देते हैं, उन विश्वबन्धु भगवान् शिव से आप वैर करते हैं। वे केवल नाममात्र के शिव हैं, उनका वेष अशिवरूप-अमंगलरूप है; इस बात को आपके सिवा दूसरे कोई देवता सम्भवतः नहीं जानते; क्योंकि जो भगवान् शिव श्मशान भूमिस्थ नरमुण्डों की माला, चिता की भस्म और हड्डियाँ पहने, जटा बिखेरे, भूत-पिशाचों के साथ श्मशान में निवास करते हैं, उन्हीं के चरणों पर से गिरे हुए निर्माल्य को ब्रह्मा आदि देवता अपने सिर पर धारण करते हैं।

यदि निरंकुश लोग धर्ममर्यादा की रक्षा करने वाले अपने पूजनीय स्वामी की निन्दा करें तो अपने में उसे दण्ड देने की शक्ति न होने पर कान बंद करके वहाँ से चला जाये और यदि शक्ति हो तो बलपूर्वक पकड़कर उस बकवाद करने वाली अमंगलरूप दुष्ट जिह्वा को काट डाले। इस पाप को रोकने के लिये स्वयं अपने प्राण तक दे दे, यही धर्म है। आप भगवान् नीलकण्ठ की निन्दा करने वाले हैं, इसलिये आपसे उत्पन्न हुए इस शरीर को अब मैं नहीं रख सकती; यदि भूल से कोई निन्दित वस्तु खा ली जाये तो उसे वमन करके निकाल देने से ही मनुष्य की शुद्धि बतायी जाती है। जो महामुनि निरन्तर अपने स्वरूप में ही रमण करते हैं, उनकी बुद्धि सर्वथा वेद के विधि निषेधमय वाक्यों का अनुसरण नहीं करती। जिस प्रकार देवता और मनुष्यों की गति में भेद रहता है, उसी प्रकार ज्ञानी और अज्ञानी की स्थिति भी एक-सी नहीं होती। इसलिये मनुष्य को चाहिये कि वह अपने ही धर्ममार्ग में स्थित रहते हुए भी दूसरों के मार्ग की निन्दा न करे।

श्रीमद्भागवत महापुराण: चतुर्थ स्कन्ध: चतुर्थ अध्यायः श्लोक 1-10 का हिन्दी अनुवाद


(लगातार-सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत पुराण)
श्रीमद्भागवत महापुराण:
चतुर्थ स्कन्ध: चतुर्थ अध्यायः श्लोक 1-10 का हिन्दी अनुवाद

सती का अग्नि प्रवेश

श्रीमैत्रेय जी कहते हैं- विदुर जी! इतना कहकर भगवान् शंकर मौन हो गये। उन्होंने देखा कि दक्ष के यहाँ जाने देने अथवा जाने से रोकने-दोनों ही अवस्थाओं में सती के प्राण त्याग की सम्भावना है। इधर, सती जी भी कभी बन्धुजनों को देखने जाने की इच्छा से बाहर आतीं और कभी ‘भगवान् शंकर रुष्ट न हो जायें’ इस शंका से फिर लौट जातीं। इस प्रकार कोई एक बात निश्चित न कर सकने के कारण वे दुविधा में पड़ गयीं-चंचल हो गयीं। बन्धुजनों से मिलने की इच्छा में बाधा पड़ने से वे बड़ी अनमनी हो गयीं। स्वजनों के स्नेहवश उनका हृदय भर आया और वे आँखों में आँसू भरकर अत्यन्त व्याकुल हो रोने लगीं। उनका शरीर थर-थर काँपने लगा और वे अप्रतिमपुरुष भगवान् शंकर की ओर इस प्रकार रोषपूर्ण दृष्टि से देखने लगीं मानो उन्हें भस्म कर देंगी। शोक और क्रोध ने उनके चित्त को बिलकुल बेचैन कर दिया तथा स्त्री-स्वभाव के कारण उनकी बुद्धि मूढ़ हो गयी। जिन्होंने प्रीतिवश उन्हें अपना आधा अंग तक दे दिया था, उन सत्पुरुषों के प्रिय भगवान् शंकर को भी छोड़कर वे लंबी-लंबी साँस लेती हुई अपने माता-पिता के घर चल दीं।

सती को बड़ी फुर्ती से अकेली जाते देख श्रीमहादेव जी के मणिमान् एवं मद आदि हजारों सेवक भगवान के वाहन वृषभराज को आगे कर तथा और भी अनेकों पार्षद और यक्षों को साथ ले बड़ी तेजी से निर्भयतापूर्वक उनके पीछे हो लिये। उन्होंने सती को बैल पर सवार करा दिया और मैना पक्षी, गेंद, दर्पण और कमल आदि खेल की सामग्री, श्वेत छत्र, चँवर और माला आदि राजचिह्न तथा दुन्दुभि, शंख और बाँसुरी आदि गाने-बजाने के सामानों से सुसज्जित हो वे उसके साथ चल दिये।

तदनन्तर सती अपने समस्त सेवकों के साथ दक्ष की यज्ञशाला में पहुँची। वहाँ वेदध्वनि करते हुए ब्राह्मणों में परस्पर होड़ लग रही थी कि सबसे ऊँचे स्वर में कौन बोले; सब ओर ब्रह्मर्षि और देवता विराजमान थे तथा जहाँ-तहाँ मिट्टी, काठ, लोहे, सोने, डाभ और चर्म के पात्र रखे हुए थे।

वहाँ पहुँचने पर पिता के द्वारा सती की अवहेलना हुई, यह देख यज्ञकर्ता दक्ष के भय से सती की माता और बहनों के सिवा किसी भी मनुष्य ने उनका कुछ भी आदर-सत्कार नहीं किया। अवश्य ही उनकी माता और बहिनें बहुत प्रसन्न हुईं और प्रेम से गद्गद होकर उन्होंने सती को आदरपूर्वक गले लगाया।

किंतु सती जी ने पिता से अपमानित होने के कारण, बहिनों के कुशल-प्रश्न सहित प्रेमपूर्ण वार्तालाप तथा माता और मौसियों के सम्मानपूर्वक दिये हुए उपहार और सुन्दर आसनादि को स्वीकार नहीं किया। सर्वलोकेश्वरी देवी सती का यज्ञमण्डप में तो अनादर हुआ ही था, उन्होंने यह भी देखा कि उस यज्ञ में भगवान् शंकर के लिये कोई भाग नहीं दिया गया है और पिता दक्ष उनका बड़ा अपमान कर रहा है। इससे उन्हें बहुत क्रोध हुआ; ऐसा जान पड़ता था मानो वे अपने रोष से सम्पूर्ण लोकों को भस्म कर देंगी। दक्ष को कर्ममार्ग के अभ्यास से बहुत घमण्ड हो गया था। उसे शिव जी से द्वेष करते देख जब सती के साथ आये हुए भूत उसे मारने को तैयार हुए तो देवी सती ने उन्हें अपने तेज से रोक दिया और सब लोगों को सुनाकर पिता की निन्दा करते हुए क्रोध से लड़खड़ाती हुई वाणी में कहा।

साभार krishnakosh.org

श्रीमद्भागवत महापुराण: चतुर्थ स्कन्ध: तृतीय अध्यायः श्लोक 16-25 का हिन्दी अनुवाद


(लगातार-सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत पुराण)
श्रीमद्भागवत महापुराण:
चतुर्थ स्कन्ध: तृतीय अध्यायः श्लोक 16-25 का हिन्दी अनुवाद


भगवान् शंकर ने कहा- सुन्दरि! तुमने जो कहा कि अपने बन्धुजन के यहाँ बिना बुलाये भी जा सकते हैं, सो तो ठीक ही है; किंतु ऐसा तभी करना चाहिये, जब उनकी दृष्टि अतिशय प्रबल देहाभिमान से उत्पन्न हुए मद और क्रोध के कारण द्वेष-दोष से युक्त न हो गयी हो। विद्या, तप, धन, सुदृढ़ शरीर, युवावस्था और उच्च कुल- ये छः सत्पुरुषों के तो गुण हैं, परन्तु नीच पुरुषों में ये ही अवगुण हो जाते हैं; क्योंकि इनसे उनका अभिमान बढ़ जाता है और दृष्टि दोषयुक्त हो जाती है एवं विवेक-शक्ति नष्ट हो जाती है। इसी कारण वे महापुरुषों का प्रभाव नहीं देख पाते। इसी से जो अपने यहाँ आये हुए पुरुषों को कुटिल बुद्धि से भौं चढ़ाकर रोषभरी दृष्टि से देखते हैं, उन अव्यवस्थितचित्त लोगों के यहाँ ‘ये हमारे बान्धव हैं’ ऐसा समझकर कभी नहीं जाना चाहिये।

देवि! शत्रुओं के बाणों से बिंध जाने पर भी ऐसी व्यथा नहीं होती, जैसी अपने कुटिलबुद्धि स्वजनों के कुटिल वचनों से होती है। क्योंकि बाणों से शरीर छिन्न-भिन्न हो जाने पर तो जैसे-तैसे निद्रा आ जाती है, किन्तु कुवाक्यों से मर्मस्थान विद्ध हो जाने पर तो मनुष्य हृदय की पीड़ा से दिन-रात बेचैन रहता है।

सुन्दरि! अवश्य ही मैं यह जानता हूँ कि तुम परमोन्नति को प्राप्त हुए दक्ष प्रजापति को अपनी कन्याओं में सबसे अधिक प्रिय हो। तथापि मेरी आश्रिता होने के कारण तुम्हें अपने पिता से मान नहीं मिलेगा; क्योंकि वे मुझसे बहुत जलते हैं। जीव की चित्तवृत्ति के साक्षी अहंकारशून्य महापुरुषों की समृद्धि को देखकर जिसके हृदय में सन्ताप और इन्द्रियों में व्यथा होती है, वह पुरुष उनके पद को तो सुगमता से प्राप्त कर नहीं सकता; बस, दैत्यगण जैसे श्रीहरि से द्वेष मानते हैं, वैसे ही उनसे कुढ़ता रहता है।

सुमध्यमे! तुम कह सकती हो कि आपने प्रजापतियों की सभा में उनका आदर क्यों नहीं किया। सो ये सम्मुख जाना, नम्रता दिखाना, प्रणाम करना आदि क्रियाएँ जो लोक व्यवहार में परस्पर की जाती हैं, तत्त्वज्ञानियों के द्वारा बहुत अच्छे ढंग से की जाती हैं। वे अन्तर्यामीरूप से सबके अन्तःकरणों में स्थित परमपुरुष वासुदेव को ही प्रणामादि करते हैं; देहाभिमानी पुरुष को नहीं करते। विशुद्ध अन्तःकरण का नाम ही ‘वसुदेव’ है, क्योंकि उसी में भगवान् वासुदेव का अपरोक्ष अनुभव होता है। उस शुद्धचित्त में स्थित इन्द्रियातीत भगवान् वासुदेव को ही मैं नमस्कार किया करता हूँ। इसीलिये प्रिये! जिसने प्रजापतियों के यज्ञ में, मेरे द्वारा कोई अपराध न होने पर भी, मेरा कटुवाक्यों से तिरस्कार किया था, वह दक्ष यद्यपि मेरा शत्रु होने के कारण तुम्हें उसे अथवा उसके अनुयायियों को देखने का विचार भी नहीं करना चाहिये। यदि तुम मेरी बात न मानकर वहाँ जाओगी, तो तुम्हारे लिये अच्छा न होगा; क्योंकि जब किसी प्रतिष्ठित व्यक्ति का अपने आत्मीयजनों के द्वारा अपमान होता है, तब वह तत्काल उनकी मृत्यु का कारण हो जाता है।

क्षमा करने वाला सुख की नींद सोता है.


क्षमा करने वाला
सुख की नींद सोता है.


क्षमा उठाती है, ऊँचा आप को: व्यक्ति बदला लेकर दूसरे को नीचा दिखाना चाहता है, पर इस प्रयास में वो खुद बहुत नीचे उतर जाता है।

एक बार एक धोबी नदी किनारे की सिला पर रोज की तरह कपडे धोने आया। उसी सिला पर कोई महाराज भी ध्यानस्थ थे। धोबी ने आवाज़ लगायी, उसने नहीं सुनी। धोबी को जल्दी थी, दूसरी आवाज़ लगायी वो भी नहीं सुनी तो धक्का मार दिया।

ध्यानस्थ की आँखें खुली, क्रोध की जवाला उठी दोनों के बीच में खूब मार -पिट और हाथा पायी हुयी। लूट पिट कर दोनों अलग अलग दिशा में बेठ गए। एक व्यक्ति दूर से ये सब बेठ कर देख रहा था। साधु के नजदीक आकर पूछा, महाराज आपको ज्यादा चोट तो नहीं लगी, उसने मारा बहुत आपको। महाराज ने कहा, उस समय आप छुडाने क्यों नहीं आए? व्यक्ति ने कहा, आप दोनों के बीच मे जब युद्ध हो रहा था उस समय में यह निर्णय नहीं कर पाया की धोबी कोन है और साधू कौन है?

प्रतिशोध और बदला साधू को भी धोबी के स्तर पर उतार लाता है। इसीलिए कहा जाता है की, बुरे के साथ बुरे मत बनो, नहीं तो साधू और शठ की क्या पहचान। दूसरी तरफ, क्षमा करके व्यक्ति अपने स्तर से काफी ऊँचा उठ जाता है। इस प्रकिर्या में वो सामने वाले को भी ऊँचा उठने और बदलने की गुप्त प्रेरणा या मार्गदर्शन देता है।

“प्रतिशोध और गुस्से से हम कभी कभार खुद को नुक्सान पहुचां बैठते हैं, जिससे हमें बाद में बहुत पछतावा होता है।

इससे जुडी कुछ विशेष बातें...

1. गुस्से में लिया गया फैसला अक्सर कर गलत ही साबित होता है, तो इसीलिए खुद पर काबू रखना बहुत जरुरी है।

2. क्षमा करने से सामने वाले व्यक्ति के नजर में इज्जत, सम्मान और बढ़ जाता है।

3. गुस्सा करने वाला व्यक्ति हमेशा खुद को ही नुक्सान पंहुचाता है।

4. गुस्से में प्राय: वो काम हो जाता है जिससे दूसरों को और खुद को भी नुक्सान पहुचाने के साथ साथ लोगों के दिलों में नफरत पैदा होती हैं।

5. जब भी गुस्सा आये या किसी के ऊपर गुस्सा हो तो उस समय अपने दिमाग और मन को शांत रखें (नियंत्रण करना सीखें) या फिर वहां से कहीं दूसरी जगह पर चले जाएँ।

साधना का रहस्य.


साधना का रहस्य.


मनुष्य का अन्तःकरण दर्पण की भाँति है। सुबह से साँझ तक इस पर धूल जमती रहती है। लगातार इस धूल के जमते रहने से अन्तःकरण का दर्पण अपने स्वाभाविक गुणों को गँवा देता है। और यह सच्चाई सर्वविदित है कि अन्तःकरण की अवस्था के अनुरूप ही मनुष्य को ज्ञान होता है। अन्तःकरण का दर्पण जिस मात्रा में स्वच्छ है, उस मात्रा में ही सत्य उसमें प्रतिबिम्बित होता है।

सूफी सन्त जलालुद्दीन रूमी से किसी व्यक्ति ने अपनी मानसिक चंचलता का दुखड़ा रोया। उसकी परेशानी थी कि साधना में उसका मन एकाग्र नहीं होता। किसी भी तरह से उसका ध्यान नहीं जमता। रूमी ने मुस्कराते हुए उसे अपने एक मित्र साधु के पास यह कहकर भेजा- जाओ और उनकी समग्र दिनचर्या को बड़े ध्यान से देखो। वहीं तुम्हें साधना का रहस्य ज्ञात होगा।

निर्देश के अनुसार वह व्यक्ति उस साधु के पास गया। वहाँ जाकर उसे भारी निराशा हुई, क्योंकि वह साधु एक साधारण सी सराय का रखवाला था। साथ ही वह स्वयं भी बहुत साधारण था। उसमें कोई ज्ञान के लक्षण भी दिखाई नहीं देते थे। हाँ, वह बहुत सरल और शिशुओं की भाँति निर्दोष मालूम पड़ता था। उसकी दिनचर्या भी सामान्य सी थी। उस साधु की दिनचर्या की छान-बीन करने पर बस इतना भर पता चला कि वह रात्रि को सोने से पहले और सुबह जगने के बाद अपनी सराय के बर्तनों को अच्छी तरह से धोता-माँजता है।

इस साधु के पास से काफी निराश होकर वह व्यक्ति जलालुद्दीन रूमी के पास लौटा। उसने साधु की दिनचर्या उन्हें बतायी। सूफी सन्त रूमी हँसते हुए बोले, जो जानने योग्य था, वह तुम देख आये हो, लेकिन उसे ठीक से समझ नहीं सके। रात्रि में तुम भी अपने मन को माँजो और सुबह उसे पुनः धो डालो। धीरे-धीरे मन-अन्तःकरण निर्मल हो जाएगा। अन्तःकरण के निर्मल दर्पण में परमात्मा अपने आप ही प्रतिबिम्बित होता है। अन्तःकरण की नित्य सफाई ही साधना का रहस्य है। क्योंकि इस स्वच्छता पर ही साधना की सभी विधियों की सफलता निर्भर है। जो इसे विस्मरण कर देते हैं, वे साधना पथ से भटक जाते हैं।

श्रीमद्भागवत महापुराण: चतुर्थ स्कन्ध: तृतीय अध्यायः श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद


(लगातार-सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत पुराण)
श्रीमद्भागवत महापुराण:
चतुर्थ स्कन्ध: तृतीय अध्यायः श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद

सती का पिता के यहाँ यज्ञोत्सव में जाने के लिये आग्रह करना.

श्रीमैत्रेय जी कहते हैं- विदुर जी! इस प्रकार उन ससुर और दामाद को आपस में वैर-विरोध रखते हुए बहुत अधिक समय निकल गया। इसी समय ब्रह्मा जी ने दक्ष को समस्त प्रजापतियों का अधिपति बना दिया। इससे उसका गर्व और भी बढ़ गया। उसने भगवान् शंकर आदि ब्रह्मनिष्ठों को यज्ञभाग न देकर उनका तिरस्कार करते हुए पहले तो वाजपेय यज्ञ किया और फिर बृहस्पतिसव नाम का महायज्ञ आरम्भ किया। उस यज्ञोत्सव में सभी ब्रह्मर्षि, देवर्षि, पितर, देवता आदि अपनी-अपनी पत्नियों के साथ पधारे, उन सबने मिलकर वहाँ मांगलिक कार्य सम्पन्न किये और दक्ष के द्वारा उन सबका स्वागत-सत्कार किया गया।

उस समय आकाशमार्ग से जाते हुए देवता आपस में उस यज्ञ की चर्चा करते जाते थे। उनके मुख से दक्षकुमारी सती ने अपने पिता के घर होने वाले यज्ञ की बात सुन ली। उन्होंने देखा कि हमारे निवासस्थान कैलास के पास से होकर सब ओर से चंचल नेत्रों वाली गन्धर्व और यक्षों की स्त्रियाँ सज-धजकर अपने-अपने पतियों के साथ विमानों पर बैठी उस यज्ञोत्सव् में जा रही हैं। इससे उन्हें भी उत्सुकता हुई और उन्होंने अपने पति भगवान् भूतनाथ से कहा।

सती ने कहा- वामदेव! सुना है, इस समय आपके ससुर दक्ष प्रजापति के यहाँ बड़ा भारी यज्ञोत्सव हो रहा है। देखिये, ये सब देवता वहीं जा रहे हैं; यदि आपकी इच्छा हो तो हम भी चलें। इस समय अपने आत्मीयों से मिलने के लिये मेरी बहिनें भी अपने-अपने पतियों के सहित वहाँ अवश्य आयेंगी। मैं भी चाहती हूँ कि आपके साथ वहाँ जाकर माता-पिता के दिये हुए गहने, कपड़े आदि उपहार स्वीकार करूँ। वहाँ अपने पतियों से सम्मानित बहिनों, मौसियों और स्नेहार्द्रहृदया जननी को देखने के लिये मेरा मन बहुत दिनों से उत्सुक है। कल्याणमय! इसके सिवा वहाँ महर्षियों का रचा हुआ श्रेष्ठ यज्ञ भी देखने को मिलेगा। अजन्मा प्रभु! आप जगत् की उत्पत्ति के हेतु हैं। आपकी माया से रचा हुआ यह परम आश्चर्यमय त्रिगुणात्मक जगत् आप ही में भास रहा है। किंतु मैं तो स्त्रीस्वभाव होने के कारण आपके तत्त्व से अनभिज्ञ और बहुत दीन हूँ। इसलिये इस समय आपनी जन्मभूमि देखने को बहुत उत्सुक हो रही हूँ। जन्मरहित नीलकण्ठ! देखिये-इनमें कितनी ही स्त्रियाँ तो ऐसी हैं, जिनका दक्ष से कोई सम्बन्ध भी नहीं है। फिर भी वे अपने-अपने पतियों के सहित खूब सज-धजकर झुंड-की-झुंड वहाँ जा रही हैं। वहाँ जाने वाली इन देवांगनाओं के राजहंस के समान श्वेत विमानों से आकाशमण्डल कैसा सुशोभित हो रहा है।

सुर श्रेष्ठ! ऐसी अवस्था में अपने पिता के यहाँ उत्सव का समाचार पाकर उसकी बेटी का शरीर उसमें सम्मिलित होने के लिये क्यों न छटपटायेगा। पति, गुरु और माता-पिता आदि सुहृदों के यहाँ तो बिना बुलाये भी जा सकते हैं। अतः देव! आप मुझ पर प्रसन्न हों; आपको मेरी यह इच्छा अवश्य पूर्ण करनी चाहिये; आप बड़े करुणामय हैं, तभी तो परमज्ञानी होकर भी आपने मुझे अपने आधे अंग में स्थान दिया है। अब मेरी इस याचना पर ध्यान देकर मुझे अनुगृहीत कीजिये।

श्रीमैत्रेय जी कहते हैं- प्रिया सती जी के इस प्रकार प्रार्थना करने पर अपने आत्मीयों का प्रिय करने वाले भगवान् शंकर को दक्ष प्रजापति के उन मर्मभेदी दुर्वचनरूप बाणों का स्मरण हो आया, जो उन्होंने समस्त प्रजापतियों के सामने कहे थे; तब वे हँसकर बोले।

श्रीमद्भागवत महापुराण: चतुर्थ स्कन्ध: द्वितीय अध्यायः श्लोक 17-35 का हिन्दी अनुवाद


(लगातार-सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत पुराण)
श्रीमद्भागवत महापुराण:
चतुर्थ स्कन्ध: द्वितीय अध्यायः श्लोक 17-35 का हिन्दी अनुवाद

श्रीमैत्रेय जी कहते हैं- विदुर जी! दक्ष ने इस प्रकार महादेव जी को बहुत कुछ बुरा-भला कहा; तथापि उन्होंने इसका कोई प्रतीकार नहीं किया, वे पूर्ववत् निश्चलभाव से बैठे रहे। इससे दक्ष के क्रोध का पारा और भी ऊँचा चढ़ गया और वे जल हाथ में लेकर उन्हें शाप देने को तैयार हो गये।

दक्ष ने कहा, ‘यह महादेव देवताओं में बड़ा ही अधम है। अबसे इसे इन्द्र-उपेन्द्र आदि देवताओं के साथ यज्ञ का भाग न मिले’। उपस्थित मुख्य-मुख्य सभासदों ने उन्हें बहुत मना किया, परन्तु उन्होंने किसी की न सुनी; महादेव जी को शाप दे ही दिया। फिर वे अत्यत्न क्रोधित हो उस सभा से निकलकर अपने घर चले गये।

जब श्रीशंकर जी के अनुयायियों में अग्रगण्य नंदीश्वर को मालूम हुआ कि दक्ष ने शाप दिया है, तो वे क्रोध से तमतमा उठे और उन्होंने दक्ष तथा उन ब्राह्मणों को, जिन्होंने दक्ष के दुर्वचनों का अनुमोदन किया था, बड़ा भयंकर शाप दिया। वे बोले- ‘जो इस मरणधर्मा शरीर में ही अभिमान करके किसी से द्रोह न करने वाले भगवान् शंकर से द्वेष करता है, वह भेद-बुद्धि वाला मूर्ख दक्ष, तत्त्वज्ञान से विमुख ही रहे। यह ‘चातुर्मास्य यज्ञ करने वाले को अक्षय पुण्य प्राप्त होता है’ आदि अर्थवादरूप वेदवाक्यों से मोहित एवं विवेकभ्रष्ट होकर विषयसुख की इच्छा से कपट धर्ममय गृहस्थाश्रम में आसक्त रहकर कर्मकाण्ड में ही लगा रहता है। इसकी बुद्धि देहादि में आत्मभाव का चिन्तन करने वाली है; उसके द्वारा इसने आत्मस्वरूप को भुला दिया है; यह साक्षात् पशु के ही समान है, अतः अत्यन्त स्त्री-लम्पट हो और शीघ्र ही इसका मुँह बकरे का हो जाये। यह मुख कर्ममयी अविद्या को ही विद्या समझता है; इसलिये यह और जो लोग भगवान् शंकर का अपमान करने वाले इस दुष्ट के पीछे-पीछे चलने वाले हैं, वे सभी जन्म-मरणरूप संसारचक्र में पड़े रहें। वेदवाणीरूप लता फलश्रुतिरूप पुष्पों से सुशोभित है, उसके कर्म फलरूप मनमोहक गन्ध से इनके चित्त क्षुब्ध हो रहे हैं। इससे ये शंकरद्रोही कर्मों के जाल में फँसे रहें। ये ब्राह्मण लोग भक्ष्याभक्ष्य के विचार को छोड़कर केवल पेट पालने के लिये ही विद्या, तप और व्रतादि का आश्रय लें तथा धन, शरीर और इन्द्रियों के सुख को ही सुख मानकर-उन्हीं के गुलाम बनकर दुनिया में भीख माँगते भटका करें’।

नदीश्वर के मुख से इस प्रकार ब्राह्मण कुल के लिये शाप सुनकर उसके बदले में भृगु जी ने दुस्तर शापरूप ब्रह्मदण्ड दिया। ‘जो लोग शिवभक्त हैं तथा जो उन भक्तों के अनुयायी हैं, वे सत्-शास्त्रों के विरुद्ध आचरण करने वाले और पाखण्डी हों। जो लोग शौचाचारविहीन, मन्दबुद्धि तथा जटा, राख और हड्डियों को धारण करने वाले हैं-वे ही शैव सम्प्रदाय में दीक्षित हों, जिसमें सुरा और आसव ही देवताओं के समान आदरणीय हैं। अरे! तुम लोग जो धर्म मर्यादा के संस्थापक एवं वर्णाश्रमियों के रक्षक वेद और ब्राह्मणों की निन्दा करते हो, इससे मालूम होता है तुमने पाखण्ड का आश्रय ले रखा है। यह वेदमार्ग ही लोगों के लिये कल्याणकारी और सनातन मार्ग है। पूर्वपुरुष इसी पर चलते आये हैं और इसके मूल साक्षात् श्रीविष्णु भगवान् हैं। तुम लोग सत्पुरुषों के परमपवित्र और सनातन मार्ग स्वरूप वेद की निन्दा करते हो-इसलिये उस पाखण्डमार्ग में जाओ, जिसमें भूतों के सरदार तुम्हारे इष्टदेव निवास करते हैं’।

श्रीमैत्रेय जी कहते हैं- विदुर जी! भृगु ऋषि के इस प्रकार शाप देने पर भगवान शंकर कुछ खिन्न से हो वहाँ से अपने अनुयायियों सहित चल दिये। वहाँ प्रजापति लोग जो यज्ञ कर रहे थे, उसमें पुरुषोत्तम श्रीहरि ही उपास्यदेव थे और वह यज्ञ एक हज़ार वर्ष में समाप्त होने वाला था। उसे समाप्त कर उन प्रजापतियों ने श्रीगंगा-यमुना के संगम में यज्ञांत स्नान किया और फिर प्रसन्न मन अपने-अपने स्थानों को चले गए।

साभार krishnakosh.org

श्रीमद्भागवत महापुराण: चतुर्थ स्कन्ध: द्वितीय अध्यायः श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद


(लगातार-सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत पुराण)
श्रीमद्भागवत महापुराण:
चतुर्थ स्कन्ध: द्वितीय अध्यायः श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद

भगवान् शिव और दक्ष प्रजापति का मनोमालिन्य

विदुर जी ने पूछा- ब्रह्मन्! प्रजापति दक्ष तो अपनी लड़कियों से बहुत ही स्नेह रखते थे, फिर उन्होंने अपनी कन्या सती का अनादर करके शीलवालों में सबसे श्रेष्ठ श्रीमहादेव जी से द्वेष क्यों किया? महादेव जी भी चराचर के गुरु, वैररहित, शान्तमूर्ति, आत्माराम और जगत् के परम आराध्य देव हैं। उनसे भला, कोई क्यों वैर करेगा? भगवन्! उन ससुर और दामाद में इतना विद्वेष कैसे हो गया, जिसके कारण सती ने अपने दुस्त्यज प्राणों तक की बलि दे दी? यह आप मुझसे कहिये।

श्रीमैत्रेय जी ने कहा- विदुर जी! पहले एक बार प्रजापतियों के यज्ञ में सब बड़े-बड़े ऋषि, देवता, मुनि और अग्नि आदि अपने-अपने अनुयायियों के सहित एकत्र हुए थे। उसी समय प्रजापति दक्ष ने भी उस सभा में प्रवेश किया। वे अपने तेज से सूर्य के समान प्रकाशमान थे और उस विशाल सभा-भवन का अन्धकार दूर किये देते थे। उन्हें आया देख ब्रह्मा जी और महादेव जी के अतिरिक्त अग्नि पर्यन्त सभी सभासद् उनके तेज से प्रभावित होकर अपने-अपने आसनों से उठकर खड़े हो गये। इस प्रकार समस्त सभासदों से भलीभाँति सम्मान प्राप्त करके तेजस्वी दक्ष जगत्पिता ब्रह्मा जी को प्रणाम कर उनकी आज्ञा से अपने आसन पर बैठ गये। परन्तु महादेव जी को पहले से बैठा देख तथा उनसे अभ्युत्थानादि के रूप में कुछ भी आदर न पाकर दक्ष उनका यह व्यवहार सहन न कर सके। उन्होंने उनकी ओर टेढ़ी नजर से इस प्रकार देखा मानो उन्हें वे क्रोधाग्नि से जला डालेंगे।

फिर कहने लगे- ‘देवता और अग्नियों के सहित समस्त ब्रह्मर्षिगण मेरी बात सुनें। मैं नासमझी या द्वेषवश नहीं कहता, बल्कि शिष्टाचार की बात कहता हूँ। यह निर्लज्ज महादेव समस्त लोकपालों की पवित्र कीर्ति को धूल में मिला रहा है। देखिये, इस घमण्डी ने सत्पुरुषों के आचरण को लांछित एवं मटियामेट कर दिया है। बन्दर के-से नेत्र वाले इसने सत्पुरुषों के समान मेरी सावित्री-सरीखी मृगनयनी पवित्र कन्या का अग्नि और ब्राह्मणों के सामने पाणिग्रहण किया था, इसलिये यह एक प्रकार मेरे पुत्र के समान हो गया है। उचित तो यह था कि यह उठकर मेरा स्वागत करता, मुझे प्रणाम करता; परन्तु इसने वाणी से भी मेरा सत्कार नहीं किया। हाय! जिस प्रकार शूद्र को कोई वेद पढ़ा दे, उसी प्रकार मैंने इच्छा न होते हुए भी भावीवश इसको अपनी सुकुमारी कन्या दे दी! इसने सत्कर्म का लोप कर दिया, यह सदा अपवित्र रहता है, बड़ा घमण्डी है और धर्म की मर्यादा को तोड़ रहा है। यह प्रेतों के निवासस्थान भयंकर श्मशानों में भूत-प्रेतों को साथ लिये घूमता रहता है। पूरे पागल की तरह सिर के बाल बिखेरे नंग-धडंग भटकता है, कभी हँसता है, कभी रोता है। यह सारे शरीर पर चिता की अपवित्र भस्म लपेटे रहता है, गले में भूतों के पहनने योग्य नरमुण्डों की माला और सारे शरीर में हड्डियों के पहनने योग्य नरमुण्डों की माला और सारे शरीर में हड्डियों के गहने पहने रहता है। यह बस, नाम भर का ही शिव है, वास्तव में है पूरा अशिव-अमंगलरूप। जैसे यह स्वयं मतवाला है, वैसे ही इसे मतवाले ही प्यारे लगते हैं। भूत-प्रेत-प्रमथ आदि निरे तमोगुणी स्वभाव वाले जीवों का यह नेता है। अरे! मैंने केवल ब्रह्मा जी के बहकावे में आकर ऐसे भूतों के सरदार, आचारहीन और दुष्ट स्वभाव वाले को अपनी भोली-भाली बेटी ब्याह दी।'



साभार krishnakosh.org

कोयले का टुकड़ा.


कोले का टुड़ा.

अमित एक मध्यम वर्गीय परिवार का लड़का था। वह बचपन से ही बड़ा आज्ञाकारी और मेहनती छात्र था। लेकिन जब से उसने कॉलेज में दाखिला लिया था उसका व्यवहार बदलने लगा था। अब ना तो वो पहले की तरह मेहनत करता और ना ही अपने माँ-बाप की सुनता। यहाँ तक की वो घर वालों से झूठ बोल कर पैसे भी लेने लगा था। उसका बदला हुआ आचरण सभी के लिए चिंता का विषय था। जब इसकी वजह जानने की कोशिश की गयी तो पता चला कि अमित बुरी संगती में पड़ गया है। कॉलेज में उसके कुछ ऐसे मित्र बन गए हैं जो फिजूलखर्ची करने, सिनेमा देखने और धूम्र-पान करने के आदि हैं।

पता चलते ही सभी ने अमित को ऐसी दोस्ती छोड़ पढाई- लिखाई पर ध्यान देने को कहा; पर अमित का इन बातों से कोई असर नहीं पड़ता, उसका बस एक ही जवाब होता, मुझे अच्छे-बुरे की समझ है, मैं भले ही ऐसे लड़को के साथ रहता हूँ पर मुझपर उनका कोई असर नहीं होता…

दिन ऐसे ही बीतते गए और धीरे-धीरे परीक्षा के दिन आ गए, अमित ने परीक्षा से ठीक पहले कुछ मेहनत की पर वो पर्याप्त नहीं थी, वह एक विषय में फेल हो गया । हमेशा अच्छे नम्बरों से पास होने वाले अमित के लिए ये किसी जोरदार झटके से कम नहीं था। वह बिलकुल टूट सा गया, अब ना तो वह घर से निकलता और ना ही किसी से बात करता। बस दिन-रात अपने कमरे में पड़े कुछ सोचता रहता। उसकी यह स्थिति देख परिवारजन और भी चिंता में पड़ गए। सभी ने उसे पिछला रिजल्ट भूल आगे से मेहनत करने की सलाह दी पर अमित को तो मानो सांप सूंघ चुका था, फेल होने के दुःख से वो उबर नही पा रहा था।

जब ये बात अमित के पिछले स्कूल के प्रिंसिपल को पता चली तो उन्हें यकीन नहीं हुआ, अमित उनके प्रिय छात्रों में से एक था और उसकी यह स्थिति जान उन्हें बहुत दुःख हुआ, उन्होंने निष्चय किया को वो अमित को इस स्थिति से ज़रूर निकालेंगे।

इसी प्रयोजन से उन्होंने एक दिन अमित को अपने घर बुलाया।

प्रिंसिपल साहब बाहर बैठे अंगीठी ताप रहे थे। अमित उनके बगल में बैठ गया। अमित बिलकुल चुप था , और प्रिंसिपल साहब भी कुछ नहीं बोल रहे थे। दस -पंद्रह मिनट ऐसे ही बीत गए पर किसी ने एक शब्द नहीं कहा। फिर अचानक प्रिंसिपल साहब उठे और चिमटे से कोयले के एक धधकते टुकड़े को निकाल मिटटी में डाल दिया, वह टुकड़ा कुछ देर तो गर्मी देता रहा पर अंततः ठंडा पड़ बुझ गया।

यह देख अमित कुछ उत्सुक हुआ और बोला, प्रिंसिपल साहब, आपने उस टुकड़े को मिटटी में क्यों डाल दिया, ऐसे तो वो बेकार हो गया, अगर आप उसे अंगीठी में ही रहने देते तो अन्य टुकड़ों की तरह वो भी गर्मी देने के काम आता !

प्रिंसिपल साहब मुस्कुराये और बोले, बेटा, कुछ देर अंगीठी में बाहर रहने से वो टुकड़ा बेकार नहीं हुआ, लो मैं उसे दुबारा अंगीठी में डाल देता हूँ…. और ऐसा कहते हुए उन्होंने टुकड़ा अंगीठी में डाल दिया।

अंगीठी में जाते ही वह टुकड़ा वापस धधक कर जलने लगा और पुनः गर्मी प्रदान करने लगा।

कुछ समझे अमित। प्रिंसिपल साहब बोले, तुम उस कोयले के टुकड़े के समान ही तो हो, पहले जब तुम अच्छी संगती में रहते थे, मेहनत करते थे, माता-पिता का कहना मानते थे तो अच्छे नंबरों से पास होते थे, पर जैस वो टुकड़ा कुछ देर के लिए मिटटी में चला गया और बुझ गया, तुम भी गलत संगती में पड़ गए और परिणामस्वरूप फेल हो गए, पर यहाँ ज़रूरी बात ये है कि एक बार फेल होने से तुम्हारे अंदर के वो सारे गुण समाप्त नहीं हो गए… जैसे कोयले का वो टुकड़ा कुछ देर मिटटी में पड़े होने के बावजूब बेकार नहीं हुआ और अंगीठी में वापस डालने पर धधक कर जल उठा, ठीक उसी तरह तुम भी वापस अच्छी संगती में जाकर, मेहनत कर एक बार फिर मेधावी छात्रों की श्रेणी में आ सकते हो


याद रखो, मनुष्य ईश्वर की बनायीं सर्वश्रेस्ठ कृति है उसके अंदर बड़ी से बड़ी हार को भी जीत में बदलने की ताकत है, उस ताकत को पहचानो, उसकी दी हुई असीम शक्तियों का प्रयोग करो और इस जीवन को सार्थक बनाओ।

अमित समझ चुका था कि उसे क्या करना है, वह चुप-चाप उठा, प्रिंसिपल साहब के चरण स्पर्श किये और निकल पड़ा अपना भविष्य बनाने।

तलाक दे रहे हैं ...


तलाक दे रहे हैं ...


कल रात करीब 7 बजे शाम को मोबाइल बजा। उठाया तो उधर से रोने की आवाज... मैंने शांत कराया और पूछा कि भाभीजी आखिर हुआ क्या?


उधर से आवाज़ आई.. आप कहाँ हैं? और कितनी देर में आ सकते हैं?


मैंने कहा:- "आप परेशानी बताइये"। और "भाई साहब कहाँ हैं...? माताजी किधर हैं..?" "आखिर हुआ क्या...?"


लेकिन..


उधर से केवल एक रट कि "आप आ जाइए", मैंने आश्वाशन दिया कि कम से कम एक घंटा पहुंचने में लगेगा. जैसे तैसे पूरी घबड़ाहट में पहुँचा;


देखा तो भाई साहब [हमारे मित्र जो जज हैं] सामने बैठे हुए हैं;


भाभीजी रोना चीखना कर रही हैं, 12 साल का बेटा भी परेशान है; 9 साल की बेटी भी कुछ नहीं कह पा रही है।


मैंने भाई साहब से पूछा कि "आखिर क्या बात है"?


"भाई साहब कोई जवाब नहीं दे रहे थे"


फिर भाभी जी ने कहा ये देखिये- ये तलाक के पेपर, ये कोर्ट से तैयार करा के लाये हैं, मुझे तलाक देना चाहते हैं।

मैंने पूछा- ये कैसे हो सकता है? इतनी अच्छी फैमिली है, 2 बच्चे हैं, सब कुछ सेटल्ड है। ("प्रथम दृष्टि में मुझे लगा ये मजाक है")


लेकिन मैंने बच्चों से पूछा- दादी किधर है?


बच्चों ने बताया- पापा ने उन्हें 3 दिन पहले नोएडा के वृद्धाश्रम में शिफ्ट कर दिया है।


मैंने घर के नौकर से कहा। मुझे और भाई साहब को चाय पिलाओ; कुछ देर में चाय आई। भाई साहब को बहुत कोशिशें कीं चाय पिलाने की।


लेकिन उन्होंने नहीं पी और कुछ ही देर में वो एक "मासूम बच्चे की तरह फूटफूट कर रोने लगे" .. बोले मैंने 3 दिन से कुछ भी नहीं खाया है। मैं अपनी 61 साल की माँ को कुछ लोगों के हवाले करके आया हूँ।


पिछले साल से मेरे घर में उनके लिए इतनी मुसीबतें हो गईं कि पत्नी (भाभीजी) ने कसम खा ली कि "मैं, माँ जी का ध्यान नहीं रख सकती" ना तो ये उनसे बात करती थी और ना ही मेरे बच्चे बात करते थे। रोज़ मेरे कोर्ट से आने के बाद माँ खूब रोती थी। नौकर तक भी अपनी मनमानी से व्यवहार करते थे।


माँ ने 10 दिन पहले बोल दिया। बेटा तू मुझे ओल्ड ऐज होम में शिफ्ट कर दे।
मैंने बहुत कोशिशें कीं, पूरी फैमिली को समझाने की, लेकिन किसी ने माँ से सीधे मुँह बात नहीं की।


जब मैं 2 साल का था तब पापा की मृत्यु हो गई थी, दूसरों के घरों में काम करके "मुझे पढ़ाया। मुझे इस काबिल बनाया कि आज मैं जज हूँ"। लोग बताते हैं माँ कभी दूसरों के घरों में काम करते वक़्त भी मुझे अकेला नहीं छोड़ती थीं।


उस माँ को मैं ओल्ड ऐज होम में शिफ्ट करके आया हूँ। पिछले 3 दिनों से मैं अपनी माँ के एक-एक दुःख को याद करके तड़प रहा हूँ, जो उसने केवल मेरे लिए उठाये।
मुझे आज भी याद है जब..


"मैं 10th की परीक्षा में अपीयर होने वाला था, माँ मेरे साथ रात रात भर बैठी रहती"।.
एक बार माँ को बहुत फीवर हुआ, मैं तभी स्कूल से आया था। उसका शरीर गर्म था, तप रहा था। मैंने कहा माँ तुझे फीवर है, हँसते हुए बोली अभी खाना बना रही थी इसलिए गर्म है।


लोगों से उधार माँग कर मुझे दिल्ली विश्वविद्यालय से एलएलबी तक पढ़ाया। मुझे ट्यूशन तक नहीं पढ़ाने देती थीं कि कहीं मेरा टाइम ख़राब ना हो जाए।


कहते-कहते रोने लगे और बोले- जब ऐसी माँ के हम नहीं हो सके तो हम अपने बीबी और बच्चों के क्या होंगे।


हम जिनके शरीर के टुकड़े हैं, आज हम उनको ऐसे लोगों के हवाले कर आये, जो उनकी आदत, उनकी बीमारी, उनके बारे में कुछ भी नहीं जानते, जब मैं ऐसी माँ के लिए कुछ नहीं कर सकता तो मैं किसी और के लिए भला क्या कर सकता हूँ।


आज़ादी अगर इतनी प्यारी है और माँ इतनी बोझ लग रही हैं, तो मैं पूरी आज़ादी देना चाहता हूँ।


जब मैं बिना बाप के पल गया तो ये बच्चे भी पल जाएंगे, इसीलिए मैं तलाक देना चाहता हूँ।


सारी प्रॉपर्टी इन लोगों के हवाले करके उस ओल्ड ऐज होम में रहूँगा। कम से कम मैं माँ के साथ रह तो सकता हूँ।


और अगर इतना सब कुछ कर के "माँ आश्रम में रहने के लिए मजबूर है", तो एक दिन मुझे भी आखिर जाना ही पड़ेगा।


माँ के साथ रहते-रहते आदत भी हो जायेगी। माँ की तरह तकलीफ तो नहीं होगी।
जितना बोलते, उससे भी ज्यादा रो रहे थे।


बातें करते करते रात के 12:30 हो गए।


मैंने भाभीजी के चेहरे को देखा। उनके भाव भी प्रायश्चित्त और ग्लानि से भरे हुए थे; मैंने ड्राईवर से कहा अभी हम लोग नोएडा जाएंगे।


भाभीजी और बच्चे हम सारे लोग नोएडा पहुँचे।


बहुत ज़्यादा रिक्वेस्ट करने पर गेट खुला। भाई साहब ने उस गेटकीपर के पैर पकड़ लिए, बोले मेरी माँ है, मैं उसको लेने आया हूँ, चौकीदार ने कहा क्या करते हो साहब? भाई साहब ने कहा मैं जज हूँ।


उस चौकीदार ने कहा:-


जहाँ सारे सबूत सामने हैं तब तो आप अपनी माँ के साथ न्याय नहीं कर पाये, औरों के साथ क्या न्याय करते होंगे साहब।


इतना कहकर हम लोगों को वहीं रोककर वह अन्दर चला गया। अन्दर से एक महिला आई, जो वार्डन थी। उसने बड़े कातर शब्दों में कहा:- 2 बजे रात को आप लोग ले जाके कहीं मार दें, तो मैं अपने ईश्वर को क्या जबाब दूंगी?


मैंने सिस्टर से कहा- आप विश्वास करिये, ये लोग बहुत बड़े पश्चाताप में जी रहे हैं।
अंत में किसी तरह उनके कमरे में ले गईं। कमरे में जो दृश्य था, उसको कहने की स्थिति में मैं नहीं हूँ।


केवल एक फ़ोटो जिसमें पूरी फैमिली है और वो भी माँ जी के बगल में, जैसे किसी बच्चे को सुला रखा है। मुझे देखीं तो उनको लगा कि बात न खुल जाए लेकिन जब मैंने कहा हम लोग आप को लेने आये हैं, तो पूरी फैमिली एक दूसरे को पकड़ कर रोने लगी।
आसपास के कमरों में और भी बुजुर्ग थे, सब लोग जाग कर बाहर तक ही आ गए। उनकी भी आँखें नम थीं।


कुछ समय के बाद चलने की तैयारी हुई। पूरे आश्रम के लोग बाहर तक आये। किसी तरह हम लोग आश्रम के लोगों को छोड़ पाये।


सब लोग इस आशा से देख रहे थे कि शायद उनको भी कोई लेने आए, रास्ते भर बच्चे और भाभी जी तो शान्त रहे..


लेकिन भाई साहब और माताजी एक दूसरे की भावनाओं को अपने पुराने रिश्ते पर बिठा रहे थे। घर आते-आते करीब 3:45 हो गया।


भाभीजी भी अपनी ख़ुशी की चाबी कहाँ है; ये समझ गई थी, मैं भी चल दिया। लेकिन रास्ते भर वो सारी बातें और दृश्य घूमते रहे।


“माँ केवल माँ है”, उसको मरने से पहले ना मारें।


माँ हमारी ताकत है, उसे बेसहारा न होने दें। अगर वह कमज़ोर हो गई तो हमारी संस्कृति की "रीढ़ कमज़ोर" हो जाएगी, बिना रीढ़ का समाज कैसा होता है, किसी से छुपा नहीं।
अगर आपके परिचित परिवार में ऐसी कोई समस्या हो तो उसको ये जरूर पढ़ायें, बात को प्रभावी ढंग से समझायें, कुछ भी करें लेकिन हमारी जननी को बेसहारा बेघर न होने दें, अगर माँ की आँख से आँसू गिर गए तो "ये क़र्ज़ कई जन्मों तक रहेगा", यकीन मानना, सब होगा तुम्हारे पास पर "सुकून नहीं होगा", सुकून सिर्फ माँ के आँचल में होता है, उस आँचल को बिखरने मत देना।

श्रीमद्भागवत महापुराण: चतुर्थ स्कन्ध: प्रथम अध्यायः श्लोक 56-66 का हिन्दी अनुवाद


 (लगातार-सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत पुराण)
श्रीमद्भागवत महापुराण:
चतुर्थ स्कन्ध: प्रथम अध्यायः श्लोक 56-66 का हिन्दी अनुवाद

देवताओं ने कहा- जिस प्रकार आकाश में तरह-तरह के रूपों की कल्पना कर ली जाती है-उसी प्रकार जिन्होंने अपनी माया के द्वारा अपने ही स्वरूप के अन्दर इस संसार की रचना की है और अपने उस स्वरूप को प्रकाशित करने के लिये इस समय इस ऋषि-विग्रह के साथ धर्म के घर में अपने-आपको प्रकट किया है, उन परम पुरुष को हमारा नमस्कार है।

जिनके तत्त्व का शास्त्र के आधार पर हम लोग केवल अनुमान ही करते हैं, प्रत्यक्ष नहीं कर पाते-उन्हीं भगवान् ने देवताओं को संसार की मर्यादा में किसी प्रकार की गड़बड़ी न हो, इसीलिये सत्त्वगुण से उत्पन्न किया है। अब वे अपने करुणामय नेत्रों से-जो समस्त शोभा और सौन्दर्य के निवासस्थान निर्मल दिव्य कमल को नीचा दिखाने वाले हैं-हमारी ओर निहारें।

प्यारे विदुर जी! प्रभु का साक्षात् दर्शन पाकर देवताओं ने उनकी इस प्रकार स्तुति और पूजा की। तदनन्तर भगवान् नर-नारायण दोनों गन्धमादन पर्वत पर चले गये। भगवान् श्रीहरि के अंशभूत वे नर-नारायण ही इस समय पृथ्वी का भार उतारने के लिये यदुकुलभूषण श्रीकृष्ण और उन्हीं के सरीखे श्यामवर्ण, कुरु कुलतिलक अर्जुन के रूप में अवतीर्ण हुए हैं।

अग्निदेव की पत्नी स्वाहा ने अग्नि के ही अभिमानी पावक, पवमान और शुचि- ये तीन पुत्र उत्पन्न किये। ये तीनों ही हवन किये हुए पदार्थों का भक्षण करने वाले हैं। इन्हीं तीनों से पैंतालीस प्रकार के अग्नि और उत्पन्न हुए। ये ही अपने तीन पिता और एक पितामह को साथ लेकर उनचास अग्नि कहलाये। वेदज्ञ ब्राह्मण वैदिक यज्ञकर्म में जिन उनचास अग्नियों के नामों से आग्नेयी इष्टियाँ करते हैं, वे ये ही हैं।

अग्निष्वात्ता, बर्हिषद्, सोमप और आज्यप- ये पितर हैं; इनमें साग्निक भी हैं और निरग्निक भी। इन सब पितरों से स्वधाम के धारिणी और वयुना नाम की दो कन्याएँ हुईं। वे दोनों ही ज्ञान-विज्ञान में पारंगत और ब्रह्मज्ञान का उपदेश करने वाली हुईं। महादेव जी की पत्नी सती थीं, वे सब प्रकार से अपने पतिदेव की सेवा में संलग्न रहने वाली थीं। किन्तु उनके अपने गुण और शील के अनुरूप कोई पुत्र नहीं हुआ। क्योंकि सती के पिता दक्ष ने बिना ही किसी अपराध के भगवान् शिव जी के प्रतिकूल आचरण किया था, इसलिये सती ने युवावस्था में ही क्रोधवश योग के द्वारा स्वयं ही अपने शरीर का त्याग कर दिया था।

श्रीमद्भागवत महापुराण: चतुर्थ स्कन्ध: प्रथम अध्यायः श्लोक 32-55 का हिन्दी अनुवाद


(लगातार-सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत पुराण)
श्रीमद्भागवत महापुराण:
चतुर्थ स्कन्ध: प्रथम अध्यायः श्लोक 32-55 का हिन्दी अनुवाद

उन्हें इस प्रकार अभीष्ट वर देकर तथा पति-पत्नी दोनों से भलीभाँति पूजित होकर उनके देखते-ही-देखते वे तीनों सुरेश्वर अपने-अपने लोकों को चले गये।

ब्रह्मा जी के अंश से चन्द्रमा, विष्णु के अंश से योगवेत्ता दत्तात्रेय जी और महादेव जी के अंश से दुर्वासा ऋषि, अत्रि के पुत्ररूप में प्रकट हुए।

अब अंगिरा ऋषि की सन्तानों का वर्णन सुनो। अंगिरा की पत्नी श्रद्धा ने सिनीवाली, कुहू, राका और अनुमति- इन चार कन्याओं को जन्म दिया। इनके सिवा उनके साक्षात भगवान उतथ्य जी और ब्रह्मनिष्ठ बृहस्पति जी- ये दो पुत्र भी हुए, जो स्वारोचिष मन्वन्तर में विख्यात हुए।

पुलस्त्य के उनकी पत्नी हविर्भू से महर्षि अगस्त्य और महातपस्वी विश्रवा- ये दो पुत्र हुए। इनमें अगस्त्य जी दूसरे जन्म में जठराग्नि हुए।

विश्रवा मुनि के इडविडा के गर्भ से यक्षराज कुबेर का जन्म हुआ और उनकी दूसरी पत्नी केशिनी से रावण, कुम्भकर्ण एवं विभीषण उत्पन्न हुए।

महामते! महर्षि पुलह की स्त्री परमसाध्वी गति से कर्मश्रेष्ठ, वरीयान और सहिष्णु- ये तीन पुत्र उत्पन्न हुए। इसी प्रकार क्रतु की पत्नी क्रिया ने ब्रह्मतेज से देदीप्यमान बालखिल्यादि साठ हजार ऋषियों को जन्म दिया।

शत्रुपात विदुर जी! वसिष्ठ जी की पत्नी ऊर्जा (अरुन्धती) से चित्रकेतु आदि सात विशुद्ध चित्त ब्रह्मर्षियों का जन्म हुआ। उनके नाम चित्रकेतु, सुरोचि, विरजा, मित्र, उल्बण, वसुभृद्यान और द्युमान् थे। इनके सिवा उनकी दूसरी पत्नी से शक्ति आदि और भी कई पुत्र हुए।

अथर्वा मुनि की पत्नी चित्ति ने दध्यंग (दधीचि) नामक एक तपोनिष्ठ पुत्र प्राप्त किया, जिसका दूसरा नाम अश्वशिरा भी था।

अब भृगु के वंश का वर्णन सुनो। महाभाग भृगु जी ने अपनी भार्या ख्याति से धाता और विधाता नामक पुत्र तथा श्रीकृष्ण नाम की एक भगवत्परायण कन्या उत्पन्न की।

मेरु ऋषि ने अपनी आयति और नियति नाम की कन्याएँ क्रमशः धाता और विधाता को ब्याहीं; उनसे उनके मृकण्ड और प्राण नामक पुत्र हुए। उनमें से मृकण्ड के मार्कण्डेय और प्राण के मुनिवर वेदशिरा का जन्म हुआ। भृगु जी के एक कवि नामक पुत्र भी थे। उनके भगवान उशना (शुक्राचार्य) हुए।

विदुर जी! इन सब मुनीश्वरों ने भी सन्तान उत्पन्न करके सृष्टि का विस्तार किया। इस प्रकार मैंने तुम्हें यह कर्दम जी के दौहित्रों की सन्तान का वर्णन सुनाया। जो पुरुष इसे श्रद्धापूर्वक सुनता है, उसके पापों को यह तत्काल नष्ट कर देता है।

ब्रह्मा जी के पुत्र दक्ष प्रजापति ने मनुनन्दिनी प्रसूति से विवाह किया। उससे उन्होंने सुन्दर नेत्रों वाली सोलह कन्याएँ उत्पन्न कीं। भगवान दक्ष ने उनमें से तेरह धर्म को, एक अग्नि को, एक समस्त पितृगण को और एक संसार का संहार करने वाले तथा जन्म-मृत्यु से छुड़ाने वाले भगवान शंकर को दी। श्रद्धा, मैत्री, दया, शान्ति, तुष्टि, पुष्टि, क्रिया, उन्नति, बुद्धि, मेधा, तितिक्षा, ह्री और मूर्ति- ये धर्म की पत्नियाँ हैं।

इनमें से श्रद्धा ने शुभ, मैत्री ने प्रसाद, दया ने अभय, शान्ति ने सुख, तुष्टि ने मोद और पुष्टि ने अहंकार को जन्म दिया। क्रिया ने योग, उन्नति ने दर्प, बुद्धि ने अर्थ, मेधा ने स्मृति, तितिक्षा ने क्षेम और ह्री (लज्जा) ने प्रश्रय (विनय) नामक पुत्र उत्पन्न किया। समस्त गुणों की खान मूर्तिदेवी ने नर-नारायण ऋषियों को जन्म दिया। इनका जन्म होने पर इस सम्पूर्ण विश्व ने आनन्दित होकर प्रसन्नता प्रकट की। उस समय लोगों के मन, दिशाएँ, वायु, नदी और पर्वत-सभी में प्रसन्नता छा गयी। आकाश में मांगलिक बाजे बजने लगे, देवता लोग फूलों की वर्षा करने लगे, मुनि प्रसन्न होकर स्तुति करने लगे, गन्धर्व और किन्नर गाने लगे। अप्सराएँ नाचने लगीं। इस प्रकार उस समय बड़ा ही आनन्द-मंगल हुआ तथा ब्रह्मादि समस्त देवता स्तोत्रों द्वारा भगवान की स्तुति करने लगे।


साभार krishnakosh.org

श्रीमद्भागवत महापुराण: चतुर्थ स्कन्ध: प्रथम अध्यायः श्लोक 16-31 का हिन्दी अनुवाद


(लगातार-सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत पुराण)
श्रीमद्भागवत महापुराण:
चतुर्थ स्कन्ध: प्रथम अध्यायः श्लोक 16-31 का हिन्दी अनुवाद

विदुर जी ने पूछा- गुरुजी! कृपया यह बतलाइये कि जगत् की उत्पत्ति, स्थिति और अन्त करने वाले इन सर्वश्रेष्ठ देवों ने अत्रि मुनि के यहाँ क्या करने की इच्छा से अवतार लिया था?

श्रीमैत्रेय जी ने कहा- जब ब्रह्मा जी ने ब्रह्मज्ञानियों में श्रेष्ठ महर्षि अत्रि को सृष्टि रचने के लिये आज्ञा दी, तब वे अपनी सहधर्मिणी के सहित तप करने के लिये ऋक्ष नामक कुल पर्वत पर गये। वहाँ पलाश और अशोक के वृक्षों का एक विशाल वन था। उसके सभी वृक्ष फूलों के गुच्छों से लदे थे तथा उसमें सब ओर निर्विन्ध्या नदी के जल की कलकल ध्वनि गूँजती रहती थी। उस वन में वे मुनिश्रेष्ठ प्राणायाम के द्वारा चित्त को वश में करके सौ वर्ष तक केवल वायु पीकर सर्दी-गरमी आदि द्वन्दों की कुछ भी परवा न कर एक ही पैर से खड़े रहे। उस समय वे मन-ही-मन यही प्रार्थना करते थे कि ‘जो कोई सम्पूर्ण जगत् के ईश्वर हैं, मैं उनकी शरण में हूँ; वे मुझे अपने ही समान सन्तान प्रदान करें। तब यह देखकर कि प्राणायामरूपी ईंधन से प्रज्वलित हुआ अत्रि मुनि का तेज उनके मस्तक से निकलकर तीनों लोकों को तपा रहा है- ब्रह्मा, विष्णु और महादेव- तीनों जगत्पति उनके आश्रम पर आये। उस समय अप्सरा, मुनि, गन्धर्व, सिद्ध, विद्याधर और नाग-उनका सुयश गा रहे थे। उन तीनों का एक ही साथ प्रादुर्भाव होने से अत्रि मुनि का अन्तःकरण प्रकाशित हो उठा। उन्होंने एक पैर से खड़े-खड़े ही उन देवदेवों को देखा और फिर पृथ्वी पर दण्ड के समान लोटकर प्रणाम करने के अनन्तर अर्घ्य-पुष्पादि पूजन की सामग्री हाथ में ले उनकी पूजा की। वे तीनों अपने-अपने वाहन-हंस, गरुड़ और बैल पर चढ़े हुए तथा अपने कमण्डलु, चक्र, त्रिशूलादि चिह्नों से सुशोभित थे। उनकी आँखों से कृपा की वर्षा हो रही थी। उनके मुख पर मन्द हास्य की रेखा थी-जिससे उनकी प्रसन्नता झलक रही थी। उनके तेज से चौंधियाकर मुनिवर ने अपनी आँखें मूँद लीं। वे चित्त को उन्हीं की ओर लगाकर हाथ जोड़ अति मधुर और सुन्दर भावपूर्ण वचनों में लोक में सबसे बड़े उन तीनों देवों की स्तुति करने लगे।

अत्रि मुनि ने कहा- भगवन्! प्रत्येक कल्प के आरम्भ में जगत् की उत्पत्ति, स्थिति और लय के लिये जो माया सत्त्वादि तीनों गुणों का विभाग करके भिन्न-भिन्न शरीर धारण करते हैं-वे ब्रह्मा, विष्णु और महादेव आप ही हैं; मैं आपको प्रणाम करता हूँ। कहिये-मैंने जिनको बुलाया था, आपमें से वे कौन महानुभाव हैं? क्योंकि मैंने तो सन्तान प्राप्ति की इच्छा से केवल एक सुरेश्वर भगवान् का का ही चिन्तन किया था। फिर आप तीनों ने यहाँ पधारने की कृपा कैसे की? आप-लोगों तक तो देहधारियों के मन की भी गति नहीं है, इसलिये मुझे बड़ा आश्चर्य हो रहा है। आप लोग कृपा करके मुझे इसका रहस्य बतलाइये।

श्रीमैत्रेय जी कहते हैं- समर्थ विदुर जी! अत्रि मुनि के वचन सुनकर वे तीनों देव हँसे और उनसे सुमधुर वाणी में कहने लगे। देवताओं ने कहा- ब्रह्मन्! तुम सत्यसंकल्प हो। अतः तुमने जैस संकल्प किया था, वही होना चाहिये। उससे विपरीत कैसे हो सकता था? तुम जिस ‘जगदीश्वर’ का ध्यान करते थे, वह हम तीनों ही हैं। प्रिय महर्षे! तुम्हारा कल्याण हो, तुम्हारे यहाँ हमारे ही अंशरूप तीन जगद्विख्यात पुत्र उत्पन्न होंगे और तुम्हारे सुंदर यश का विस्तार करेंगे।

साभार krishnakosh.org

विश्व प्रसिध्द उपेक्षित प्रतिभा वशिष्ट नारायण सिंह.


विश्व प्रसिध्द उपेक्षित प्रतिभा
वशिष्ट नारायण सिंह.

वशिष्ठ नारायण सिंह का जन्म बिहार के भोजपुर जिला में बसन्तपुर नामक गाँव में हुआ था। इनका परिवार आर्थिक रूप से गरीब था। इनके पिताजी पुलिस विभाग में कार्यरत थे। बचपन से वशिष्ठ नारायण सिंह में विलक्षण प्रतिभा थी। सन १९६२ ई• में उन्होने नेतरहाट विद्यालय से मैट्रिक की परीक्षा प्रथम श्रेणी से उत्तीर्ण की और उस समय के 'संयुक्त बिहार' में सर्वाधिक अंक प्राप्त किया।

वशिष्ठ नारायण के लिए विशेष रूप से पटना यूनिवर्सिटी को अपने नियम में परिवर्तन लाना पड़ा था। जब वे पटना साइंस कॉलेज में पढ़ते थे, तब कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय के प्रोफेसर जॉन कैली की नजर उन पर पड़ी। कैली ने उनकी प्रतिभा को पहचाना और 1965 में वशिष्ठ को अपने साथ अमेरिका ले गए। 1969 में उन्होंने कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय से गणित में पीएचडी की और वॉशिंगटन विश्वविद्यालय में एसोसिएट प्रोफेसर बने। "चक्रीय सदिश समष्टि सिद्धान्त" पर किये गए उनके शोधकार्य ने उन्हे भारत और विश्व में प्रसिद्ध कर दिया। इसी दौरान उन्होंने नासा में भी काम किया, लेकिन मन नहीं लगा और 1971 में अपने वतन भारत लौट आए। उन्होंने भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान कानपुर, भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान, मुम्बई और भारतीय सांख्यकीय संस्थान, कोलकाता में काम किया।

उनकी योग्यता का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता हैं कि नासा में अपोलो मिशन की लॉन्चिंग के दौरान अचानक एक साथ 30 कंप्यूटर बंद हो गए थे
। वशिष्ठ ने फौरन कापी पेन लिया और कैल्कुलेशन में जुट गए यकीन नहीं होगा लेकिन जब कंप्यूटर ठीक हुए तो वशिष्ठ और कंप्यूटर के कैल्कुलेशन एक ही थे। 

आइंस्टीन के सापेक्षता के सिद्धांत को उन्होंने चुनौती दी
हालांकि कथित तौर पर चुनौती देने वाले यह सारे कागज किसी ने चोरी कर लिए या खो गए थे। 

1973 में उनका विवाह वन्दना रानी सिंह से हुआ। उनके अध्ययन को लेकर एक रोमांचक घटना यह भी है कि जिस दिन उनका विवाह था उस दिन भी पढाई के कारण उनकी बरात लेट हो गई थी। विवाह के बाद धीरे-धीरे उनके असामान्य व्यवहार के बारे में लोगों को पता चला। छोटी-छोटी बातों पर बहुत क्रोधित हो जाना, कमरा बन्द कर दिनभर पढ़ते रहना, रातभर जागना, उनके व्यवहार में शामिल था। उनकी असामान्य दिनचर्या व व्यवहार के चलते उनकी पत्नी ने जल्द ही उनसे तलाक ले लिया। बस थोड़े ही समय पश्चात् सन् 1974 में उन्हें पहला दिल का दौरा पड़ा था। राँची में उनकी चिकित्सा हुई। इसके बाद से इनकी जिंदगी बहुत ही दर्दनाक स्थिति में आती चली गई। सन् 1987 में वशिष्ठ नारायण जी अपने गांव लौट गए और अपनी माता व भाई के साथ बसर करने लगे थे। इस दौरान तत्कालीन बिहार सरकार व केंद्र सरकार से उन्हें अपेक्षित सहायता नहीं मिली।

उनको पुनः अगस्त 1989 को रांची में इलाज कराकर उनके भाई उन्हें बंगलुरू ले जा रहे थे कि रास्ते में ही खंडवा स्टेशन पर वशिष्ठ जी उतर गए और भीड़ में कहीं खो गए। एक लंबे अवधि तक कोई भी सरकार इनकी सुध नहीं ली। करीब 5 साल तक गुमनाम रहने के बाद उनके गाँव के लोगों को वे छपरा में मिले। इसके बाद राज्य सरकार ने उनकी सुध ली। उन्हें राष्ट्रीय मानसिक जाँच एवं तंत्रिका विज्ञान संस्थान बंगलुरू इलाज के लिए भेजा गया। जहां मार्च 1993 से जून 1997 तक इलाज चला। इसके बाद से वे गाँव में ही रह रहे थे।

इसके बाद तत्कालीन केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री शत्रुघ्न सिन्हा ने इस बीच उनकी सुध ली थी। स्थिति ठीक नहीं होने पर उन्हे 4 सितम्बर 2002 को मानव व्यवहार एवं संबद्ध विज्ञान संस्थान में भर्ती कराया गया। करीब एक साल दो महीने उनका इलाज चला। स्वास्थ्य में लाभ देखते हुए उन्हें यहां से छुट्टी दे दी गई थी।

वे अपने गाँव बसंतपुर में उपेक्षित जीवन व्यतीत कर रहे थे। पिछले दिनों आरा में उनकी आंखों में मोतियाबिन्द का सफल ऑपरेशन हुआ था। कई संस्थाओं ने डॉ वशिष्ठ को गोद लेने की पेशकश की थी। लेकिन उनकी माता को ये स्वीकार नहीं था। 14 नवम्बर 2019 को उन्हें तबीयत खराब होने के चलते पटना ले जाया गया जहाँ डाक्टरों ने उन्हें मृत घोषित कर दिया। इस तरह एक महान गणितज्ञ का बड़ा ही दर्दनाक अंत हो गया। इनके शोध पर अभी भी कई वैज्ञानिक कार्य कर रहे हैं।

महान गणितज्ञ वशिष्ठ नारायण सिंह की मौत की खबर मिलते ही बिहार सहित पूरे देश मे शोक छा गया। इस पर तत्कालीन प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी सहित कई बड़े नेताओं ने भी दुख जताया। वही पटना के जिस हॉस्पिटल PMCH में उनकी मृत्यु हुई थी, उस अंतिम समय में उनके छोटे भाई अयोध्या सिंह उनके साथ थे।

आइंस्टीन जैसे महान वैज्ञानिक के सापेक्षता के सिंद्धांत को चुनौती देने वाले महान गणितज्ञ वशिष्ठ नारायण का शव डेढ़ घंटे तक अस्पताल के बाहर एंबुलेंस के इंतजार में पड़ा रहा। अगर किसी गांव-कूचे में नारायण की यह बेकदरी होती तब बात अलग थी किन्तु पटना के एक नामी अस्पताल में जहां कई डिग्री धारक डॉक्टर अपनी सेवाएं दे रहे हैं, वहां वशिष्ठ को कोई पहचान नहीं पाया होगा, यह आश्चर्य हैं। खैर, डॉक्टरों से ज्यादा उस व्यवस्था पर सवाल खड़े होते हैं जो उन्हें सम्मान तो छोड़िए एंबुलेंस तक मुहैया न करवा पाई।

ईश्वर की भेजी इस महान प्रतिभा को भारत के नेता न सहेज सके और न ही उसका उपयोग कर सकें, इसका दुःख सदा बना रहेगा।

ठीक ऐसे ही अमेरिका के नैश महान गणितज्ञ थे। 22 वर्ष की उम्र में उन्होंने प्रिंस्टन यूनिविर्सिटी से पीएचडी की थी। उन्हें गणित में ‘गेम थ्योरी’ के लिए नोबेल प्राइज मिला। उन्होंने 1951 में मैसाचुसेट्स यूनिवर्सिटी ऑफ टेक्नोलोजी में बतौर प्रोफेसर ज्वाइन किया। इस बीच 1959 में उन्हें वही बीमारी हो गई जो वशिष्ठ नारायण को थी, सीजोफ्रेनिया। उन्हें तकरीबन नौ साल अस्पताल में रहना पड़ा. लेकिन सोशल सपोर्ट और मेडिकल ट्रीटमेंट से वह इस बीमारी से बहुत हद तक पार पा गए।

इस मानसिक बीमारी से निकलने के बाद 1994 में उन्हें ‘गेम थ्योरी’ के लिए नोबेल मिला और 2015 में अबेल प्राइज मिला। जिस यूनिवर्सिटी की फैकल्टी थे, उस यूनिवर्सिटी ने यह जानने के बाद भी कि वे गंभीर मानसिक बीमारी से जूझ रहे हैं, उन्हें अपने साथ जोड़े रखा था और ससम्मान पूरी सहायता की थी।

काश, कि वे भारत ना लौटते तो क्या पता भारत का वशिष्ट नारायण भी नैश की तरह किसी नोबेल पुरुष्कार का हकदार बनता!