विश्व प्रसिध्द उपेक्षित
प्रतिभा
वशिष्ट नारायण सिंह.
वशिष्ठ नारायण सिंह का जन्म बिहार के भोजपुर जिला में बसन्तपुर नामक गाँव में हुआ था। इनका परिवार आर्थिक रूप से गरीब था। इनके पिताजी पुलिस विभाग में कार्यरत थे। बचपन से वशिष्ठ नारायण सिंह में विलक्षण प्रतिभा थी। सन १९६२ ई• में उन्होने नेतरहाट विद्यालय से मैट्रिक की परीक्षा प्रथम श्रेणी से उत्तीर्ण की और उस समय के 'संयुक्त बिहार' में सर्वाधिक अंक प्राप्त किया।
वशिष्ठ नारायण के लिए विशेष रूप से पटना यूनिवर्सिटी को अपने नियम में परिवर्तन लाना पड़ा था। जब वे पटना साइंस कॉलेज में पढ़ते थे, तब कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय के प्रोफेसर जॉन कैली की नजर उन पर पड़ी। कैली ने उनकी प्रतिभा को पहचाना और 1965 में वशिष्ठ को अपने साथ अमेरिका ले गए। 1969 में उन्होंने कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय से गणित में पीएचडी की और वॉशिंगटन विश्वविद्यालय में एसोसिएट प्रोफेसर बने। "चक्रीय सदिश समष्टि सिद्धान्त" पर किये गए उनके शोधकार्य ने उन्हे भारत और विश्व में प्रसिद्ध कर दिया। इसी दौरान उन्होंने नासा में भी काम किया, लेकिन मन नहीं लगा और 1971 में अपने वतन भारत लौट आए। उन्होंने भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान कानपुर, भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान, मुम्बई और भारतीय सांख्यकीय संस्थान, कोलकाता में काम किया।
उनकी योग्यता का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता हैं कि नासा में अपोलो मिशन की लॉन्चिंग के दौरान अचानक एक साथ 30 कंप्यूटर बंद हो गए थे। वशिष्ठ ने फौरन कापी पेन लिया और कैल्कुलेशन में जुट गए। यकीन नहीं होगा लेकिन जब कंप्यूटर ठीक हुए तो वशिष्ठ और कंप्यूटर के कैल्कुलेशन एक ही थे।
आइंस्टीन के सापेक्षता के सिद्धांत को उन्होंने चुनौती दी।हालांकि कथित तौर पर चुनौती देने वाले यह सारे कागज किसी ने चोरी कर लिए या खो गए थे।
1973 में उनका विवाह वन्दना रानी सिंह से हुआ। उनके अध्ययन को लेकर एक रोमांचक घटना यह भी है कि जिस दिन उनका विवाह था उस दिन भी पढाई के कारण उनकी बरात लेट हो गई थी। विवाह के बाद धीरे-धीरे उनके असामान्य व्यवहार के बारे में लोगों को पता चला। छोटी-छोटी बातों पर बहुत क्रोधित हो जाना, कमरा बन्द कर दिनभर पढ़ते रहना, रातभर जागना, उनके व्यवहार में शामिल था। उनकी असामान्य दिनचर्या व व्यवहार के चलते उनकी पत्नी ने जल्द ही उनसे तलाक ले लिया। बस थोड़े ही समय पश्चात् सन् 1974 में उन्हें पहला दिल का दौरा पड़ा था। राँची में उनकी चिकित्सा हुई। इसके बाद से इनकी जिंदगी बहुत ही दर्दनाक स्थिति में आती चली गई। सन् 1987 में वशिष्ठ नारायण जी अपने गांव लौट गए और अपनी माता व भाई के साथ बसर करने लगे थे। इस दौरान तत्कालीन बिहार सरकार व केंद्र सरकार से उन्हें अपेक्षित सहायता नहीं मिली।
उनको पुनः अगस्त 1989 को रांची में इलाज कराकर उनके भाई उन्हें बंगलुरू ले जा रहे थे कि रास्ते में ही खंडवा स्टेशन पर वशिष्ठ जी उतर गए और भीड़ में कहीं खो गए। एक लंबे अवधि तक कोई भी सरकार इनकी सुध नहीं ली। करीब 5 साल तक गुमनाम रहने के बाद उनके गाँव के लोगों को वे छपरा में मिले। इसके बाद राज्य सरकार ने उनकी सुध ली। उन्हें राष्ट्रीय मानसिक जाँच एवं तंत्रिका विज्ञान संस्थान बंगलुरू इलाज के लिए भेजा गया। जहां मार्च 1993 से जून 1997 तक इलाज चला। इसके बाद से वे गाँव में ही रह रहे थे।
इसके बाद तत्कालीन केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री शत्रुघ्न सिन्हा ने इस बीच उनकी सुध ली थी। स्थिति ठीक नहीं होने पर उन्हे 4 सितम्बर 2002 को मानव व्यवहार एवं संबद्ध विज्ञान संस्थान में भर्ती कराया गया। करीब एक साल दो महीने उनका इलाज चला। स्वास्थ्य में लाभ देखते हुए उन्हें यहां से छुट्टी दे दी गई थी।
वे अपने गाँव बसंतपुर में उपेक्षित जीवन व्यतीत कर रहे थे। पिछले दिनों आरा में उनकी आंखों में मोतियाबिन्द का सफल ऑपरेशन हुआ था। कई संस्थाओं ने डॉ वशिष्ठ को गोद लेने की पेशकश की थी। लेकिन उनकी माता को ये स्वीकार नहीं था। 14 नवम्बर 2019 को उन्हें तबीयत खराब होने के चलते पटना ले जाया गया जहाँ डाक्टरों ने उन्हें मृत घोषित कर दिया। इस तरह एक महान गणितज्ञ का बड़ा ही दर्दनाक अंत हो गया। इनके शोध पर अभी भी कई वैज्ञानिक कार्य कर रहे हैं।
महान गणितज्ञ वशिष्ठ नारायण सिंह की मौत की खबर मिलते ही बिहार सहित पूरे देश मे शोक छा गया। इस पर तत्कालीन प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी सहित कई बड़े नेताओं ने भी दुख जताया। वही पटना के जिस हॉस्पिटल PMCH में उनकी मृत्यु हुई थी, उस अंतिम समय में उनके छोटे भाई अयोध्या सिंह उनके साथ थे।
आइंस्टीन जैसे महान वैज्ञानिक के सापेक्षता के सिंद्धांत को चुनौती देने वाले महान गणितज्ञ वशिष्ठ नारायण का शव डेढ़ घंटे तक अस्पताल के बाहर एंबुलेंस के इंतजार में पड़ा रहा। अगर किसी गांव-कूचे में नारायण की यह बेकदरी होती तब बात अलग थी किन्तु पटना के एक नामी अस्पताल में जहां कई डिग्री धारक डॉक्टर अपनी सेवाएं दे रहे हैं, वहां वशिष्ठ को कोई पहचान नहीं पाया होगा, यह आश्चर्य हैं। खैर, डॉक्टरों से ज्यादा उस व्यवस्था पर सवाल खड़े होते हैं जो उन्हें सम्मान तो छोड़िए एंबुलेंस तक मुहैया न करवा पाई।
ईश्वर की भेजी इस महान प्रतिभा को भारत के नेता न सहेज सके और न ही उसका उपयोग कर सकें, इसका दुःख सदा बना रहेगा।
ठीक ऐसे ही अमेरिका के नैश महान गणितज्ञ थे। 22 वर्ष की उम्र में उन्होंने प्रिंस्टन यूनिविर्सिटी से पीएचडी की थी। उन्हें गणित में ‘गेम थ्योरी’ के लिए नोबेल प्राइज मिला। उन्होंने 1951 में मैसाचुसेट्स यूनिवर्सिटी ऑफ टेक्नोलोजी में बतौर प्रोफेसर ज्वाइन किया। इस बीच 1959 में उन्हें वही बीमारी हो गई जो वशिष्ठ नारायण को थी, सीजोफ्रेनिया। उन्हें तकरीबन नौ साल अस्पताल में रहना पड़ा. लेकिन सोशल सपोर्ट और मेडिकल ट्रीटमेंट से वह इस बीमारी से बहुत हद तक पार पा गए।
इस मानसिक बीमारी से निकलने के बाद 1994 में उन्हें ‘गेम थ्योरी’ के लिए नोबेल मिला और 2015 में अबेल प्राइज मिला। जिस यूनिवर्सिटी की फैकल्टी थे, उस यूनिवर्सिटी ने यह जानने के बाद भी कि वे गंभीर मानसिक बीमारी से जूझ रहे हैं, उन्हें अपने साथ जोड़े रखा था और ससम्मान पूरी सहायता की थी।
काश, कि वे भारत ना लौटते तो क्या पता भारत का वशिष्ट नारायण भी नैश की तरह किसी नोबेल पुरुष्कार का हकदार बनता!
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