(लगातार-सम्पूर्ण
श्रीमद्भागवत पुराण)
श्रीमद्भागवत महापुराण:
चतुर्थ स्कन्ध: पंचम
अध्यायः श्लोक 1-10
का हिन्दी अनुवाद
वीरभद्रकृत
दक्षयज्ञ विध्वंस और दक्षवध
भगवान् भूतनाथ ने कहा- ‘वीररुद्र! तू मेरा अंश है, इसलिये मेरे पार्षदों का अधिनायक बनकर तू तुरंत ही जा और दक्ष तथा उसके यज्ञ को नष्ट कर दे’।
प्यारे विदुर जी! जब देवाधिदेव भगवान् शंकर ने क्रोध में भरकर ऐसी आज्ञा दी, तब वीरभद्र उनकी परिक्रमा करके चलने को तैयार हो गये। उस समय उन्हें ऐसा मालूम होने लगा कि मेरे वेग का सामना करने वाला संसार में कोई नहीं है और मैं बड़े-से-बड़े वीर का भी वेग सहन कर सकता हूँ। वे भयंकर सिंहनाद करते हुए एक अति कराल त्रिशूल हाथ में लेकर दक्ष के यज्ञमण्डप की ओर दौड़े। उनका त्रिशूल संसार-संहारक मृत्यु का भी संहार करने में समर्थ था। भगवान् रुद्र के और भी बहुत-से सेवक गर्जना करते हुए उनके पीछे हो लिये। उस समय वीरभद्र के पैरों के नूपुरादि आभूषण झनन-झनन बजते जाते थे।
इधर यज्ञशाला में बैठे हुए ऋत्विज्, यजमान सदस्य तथा अन्य ब्राह्मण और ब्रह्माणियों ने उत्तर दिशा की ओर धूल उड़ती देखी, तब वे सोचने लगे- ‘अरे यह अँधेरा-सा कैसे होता आ रहा है? यह धूल कहाँ से छा गयी? इस समय न तो आँधी ही चल रही है और न कहीं लुटेरे ही सुने जाते हैं; क्योंकि अपराधियों को कठोर दण्ड देने वाला राजा प्राचीनबर्हि अभी जीवित है। अभी गौओं के आने का समय भी नहीं हुआ है। फिर यह धूल कहाँ से आयी? क्या इसी समय संसार का प्रलय तो नहीं होने वाला है?’ तब दक्षपत्नी प्रसूति एवं अन्य स्त्रियों ने व्याकुल होकर कहा- प्रजापति दक्ष ने अपनी सारी कन्याओं के सामने बेचारी निरपराध सती का तिरस्कार किया था; मालूम होता है यह उसी पाप का फल है। (अथवा हो न हो यह संहारमूर्ति भगवान् रुद्र के अनादर का ही परिणाम है।) प्रलयकाल उपस्थित होने पर जिस समय वे अपने जटाजूट को बिखेरकर तथा शस्त्रास्त्रों से सुसज्जित अपनी भुजाओं को ध्वजाओं के समान फैलाकर ताण्डव नृत्य करते हैं, उस समय उनके त्रिशूल के फलों से दिग्गज बिंध जाते हैं तथा उनके मेघगर्जन के समान भयंकर अट्टहास से दिशाएँ विदीर्ण हो जाती हैं।
साभार krishnakosh.org
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें