पंचकन्या – भाग-12

 

पंचकन्या – भाग-12

इन पांचों में अहिल्या ही थी जो अपने आप में अद्वितीय बनी रही अपनी दु:स्साहसी प्रकति के कारण और उसकी परिस्थितियों की वजह से। वह एकमात्र थी जिसका उल्लंघन सामने आया और पता चला जिसके लिये उसे अपना मनचाहा किये जाने की सजा मिली। उसकी अपने अपराध की अविचल स्वीकारोक्ति की वजह से विश्वामित्र और वाल्मिकी ने उसे प्रकाशमान रूप से महत्ता दी।

चन्द्र राजन‚ एक और संवेदनशील कवि हैं आज के जिन्होंने इन सूक्ष्म भावार्थों को पकड़ा और प्रदर्शित किया।

गौतम ने श्राप दिया अपने क्रोध और पुंसत्वहीनता से

वह शिला बनी खड़ी रही

बिना समझी गई‚ अव्याख्यायित

अपने पाषाण मौन के साथ

अपने अभग्न अन्तरतम के

रहस्यों की गुहा में दुबकी हुई

उसने आश्रय लिया

शताब्दी तक

ईश्वर की कृपा में

अपने आप में‚ पूर्ण‚ अभग्न

अपनी आत्मा के एकात्म में

शिलाओं‚ बरसात और हवा के साथ

फूलों से लदे पेड़ों के साथ

पकते फलों के और चुपचाप गिरते बीजों के साथ

अपने समय में

इस घनी अंधेरी धरती पर

इनमें से कोई भी कुमारी अपने त्रासदायक जीवन से टूट कर बिखरी नहीं। इनमें से प्रत्येक ने अपना जीवन अपना सर ऊंचा कर जिया। यह भी 'कन्याचरित्र का एक गुण है जो उन्हें और स्त्रियों से अलग करता है। यहां शोषण का एक पहलू उभर कर सामने आता है‚ 'कन्याके बारे में। सुग्रीव ने अपने आपको तारा के पीछे छिपाया‚ लक्ष्मण के क्रोध से बचने के लिये। कुन्ती को कुन्तीभोज ने दुर्वासा मुनी को प्रसन्न करने के लिये दान दे दिया। द्रौपदी को पहले द्रुपद ने द्रौण से बदला लेने के लिये जन्म दिया‚ और पाण्डवों से गठजोड़ किया‚ फिर कुन्ती ने उसका इस्तेमाल किया‚ फिर पाण्डवों ने अपना राज जीतने के लिये तीन बार उसका शोषण किया‚ पहले विवाह कर‚ फिर दांव पर लगा कर‚ अंत में निरन्तर अपनी विजय की राह पर अंकुश लगा कर उसे चलाते रहे। यहां तक कि उसे पता भी न था कि सखा कृष्ण ने भी कर्ण के समक्ष प्रलोभन की तरह परोस दिया था‚ जब वे उसे युद्ध से पहले पाण्डवों के पक्ष में करना चाह रहे थे‚ यह कह कर कि द्रौपदी आपके पास दिन के छठे हिस्से में तुम्हारे पास पहुंच जाएगी‚ षष्ठे का तम तथा काले द्रोपदेउपगमिस्यति (उद्योग पर्व 134 16) बाद में यही चाल कुन्ती ने भी दोहरायी‚ कर्ण से कहा कि युधिष्ठिर की श्री ह्यसम्पत्ति या द्रौपदी का दूसरा नामहृ को तुम भी भोग सकते हो‚ जो कि अर्जुन द्वारा अर्जित की गई है।

यहां फिर से बिना गलतफहमी के एक और बार वही बात दुहराई गई है‚ जिसे पहले भी द्रौपदी को जीत कर लाते समय अपने पुत्रों को उसने आदेश दे कर कहा था‚ आनन्द के साथ भोग लो (भुंक्तेती)। कोई आश्चर्य की बात नहीं इसमें कि द्रौपदी ने विलाप कर कहा होगा कि उसका कोई नहीं है जो उसे अपना कह सके‚ यहां तक कि उसके परम प्रिय सखा ने बिना हिचके उसे एक चारे की तरह इस्तेमाल कर लिया था। हम न चाह कर भी नेओमी वोल्फ के द्वारा पुरुषाप्रधान सत्ता के प्रयास " पनिश द स्लट " के तिरस्कार किये जाने से सहमत हैं‚ यौन सम्बन्धों को लेकर स्वतन्त्र स्त्रियां‚ जो कि अनिश्चित लक्ष्मण रेखा को पार करती हैं‚ 'बुरेसे 'अच्छेको अलग करती हैं।

कन्या‚ पति और बच्चों के होने के बावजूद‚ अंत में अकेली रह जाती है। यह शिखर पर महसूस किये जाने वाला अकेलापन है‚ जिसे हर महान नेता एक सीमा के बाद महसूस करता है। माता का पोषण‚ प्रेम‚ आदर्श और परम्पराओं का प्रदान कन्या को प्रयोगों से मुक्त रखता है‚ पढ़ाये गये नियमों की बेड़ियों से मुक्त रखता है‚ उसे अपने आन्तरिक प्रकाश में अपने अनुसार ढालने के लिये‚ उसे अपने नारीत्व को अभिव्यक्त और संतुष्ट करने के लिये स्वतन्त्र करता है। हर कोई उसे परिभाषित करने के लिये एक ही आधुनिक तकियाकलाम को बार बार दोहरा देता है। ए वुमेन ऑफ सब्स्टेन्स‚ सारगर्भिता नारी।

यह एक बहुमूल्य अन्तरदृष्टि है कि स्त्री होने में ऐसा क्या विशिष्ट है — कन्या‚ पत्नी और मां — में पाया जाता है‚ जैसा कि एक एबेसिनियन महिला ने फ्रोबिनियस को बताया। उसके इस कथ्य में हमें उन कारणों का पता चलता है कि क्यों कन्या पुरुषों के लिये युगों से ही रहस्यमयी रही है।

एक पुरुष कैसे जान सकता है कि स्त्री का जीवन क्या है? … पहली बार किसी नारी की कामना करने से पहले भी वह एक पुरुष था और बाद में भी वही रहता है। किन्तु जब स्त्री पहली बार अपने पहले प्रेम का आनन्द उठाती है वह दो भागों में बंट जाती हैपुरुष स्त्री के साथ एक रात बिताता है और चला जाता है। उसका जीवन‚ उसका शरीर वैसा का वैसा रहता हैउसे प्रेम करने के पहले और बाद में कोई अन्तर नज़र नहीं आता‚ …मातृत्व अर्जित करने से पहले और बाद के अनुभव केवल एक स्त्री ही समझ सकती है और उसके बारे में बता सकती है। इसीलिये हमें यह नहीं बताया जाता कि हम अपने पतियों से क्या करें। स्त्री केवल एक ही काम कर सकती है… उसे अपनी प्रकृति के अनुसार ही रहे। वह सदैव कुमारी भी रहे और सदैव मां भी। 'प्रत्येक प्रेम के पहले वह कुमारी है‚ और प्रत्येक प्रेम के बाद वह मां है।'

हमें एक बार फिर से पृथा के सूर्य‚ धर्म‚ वायु‚ इन्द्र और पाण्डु के मिलन तथा पाराशर और शान्तनु के गन्धकाली के साथ मिलन‚ और द्रौपदी के अपने पतियों के साथ‚ उलूपी और अर्जुन‚ इन्द्र और अहिल्या के सम्पर्कों पर प्रकाश डाल गहनता से इस वक्तव्य को महसूस करने की आवश्यकता है।

सी जी जुंग ने कुमारी के बारे में व्याख्या करते हुए कहा है‚ " कुलमिला कर वह अपने सामान्य अर्थ में मानवीय नहीं हैऌ या तो वह अबूझ और विचित्र स्त्रोत है‚ या फिर वह विचित्र दिखती है या विचित्र अनुभवों से गुजरती है।" यह कन्याओं को एक अलग वर्ग प्रदान करता है। यह मनुष्य के अन्दर स्त्रीत्व का प्रतिनिधित्व करती है जिसके अन्तर में अच्छा व बुरा कुछ भी नहीं रहता।

"शारीरिक जीवन और मानसिक जीवन में एक दूसरे में समा जाने की एक लज्जाहीनता है जो कि और भी अच्छे ढंग से काम करती है जब पारम्परिक नैतिकता के बंधन ना हों‚ यह हमेशा स्वास्थ्यवर्धक है।"

जब तक स्त्री महज पुरुष की स्त्री होकर रही है उसने स्वयं को अपने अलग व्यक्तित्व से वंचित कर लिया है। दूसरी ओर कन्या ने पुरुष के अन्दर के स्त्रीत्व को इस्तेमाल कर अपना प्राकृतिक स्वरूप प्राप्त करती हैह्य बर्नाड शॉ ने इसे ही जीवन शक्ति कहाहृ इन कुमारियों के बारे में अकसर हम पाते हैं कि " यह स्त्रीत्व हर वर्ग से ऊपर है‚ इसलिये यह प्रशंसा के साथ साथ आरोपित भी होता है।" यह स्त्रीत्व केवल जीवन की लालसा से ही नहीं जाना जाता बल्कि‚ " एक रहस्यमय ज्ञान‚ एक छिपी हुई बुद्धिमत्ता या फिर कुछ छिपे हुए उद्देश्य जैसा एक उच्चस्तरीय जीवन के नियमों का ज्ञान भी हो सकता है।" जिसे हम महाकाव्य के नारी समूह में पाते हैं। इसीलिये शान्तनु‚ भीष्म‚ धृतराष्ट्र‚ पाण्डु‚ कौन्तेय‚ सुग््राीव आदि कभी सत्यवती‚ कुन्ती‚ द्रौपदी‚ तारा की पकड़ में नहीं आते‚ मगर हमेशा उनके रौब में रहते हैं।

पुरुष के भीतर के स्त्रीत्व की कार्यशैली का एक सबसे अच्छा उदाहरण गंगा और शान्तनु के सम्बन्ध में उजागर होता है। गंगा भी एक कन्या है‚ जो कि विष्णु और शिव दोनों की परिणीता है और मानव रूप में हस्तिनापुर के राजा से भी विवाहित है। किन्तु वह जो भी करती है उसके लिये वह पूर्णत। स्वतन्त्र है। जब वह पहली बार प्रकट होती है तो प्रतिपा की दायीं जंघा पर बैठ कर मांग करती है कि वह उसके साथ समागम करे।

किसी स्त्री के प्रेम को ठुकराना अनुचित है

मैं असुन्दर नहीं‚ उसने कहा

मैं दुर्भाग्य भी साथ नहीं लाती

किसी ने भी मुझ पर एक भी लांछन नहीं लगाया

मैं यौनसुख के लिये पूर्णत। स्वस्थ हूँ

मैं अलौकिक हूँ‚ मैं सुन्दर हूँ

मैं तुमसे प्रेम करती हूँ‚ मुझे स्वीकार करो मेरे स्वामी।" ह्य आदिपर्व 975‚ 7हृ

यह सारमयी कन्या हमें देवयानी के चरित्र में‚ जब वह कच और ययाति को अपनी ओर आकर्षित करती है‚ उलूपी में जब वह अर्जुन को दूर कर रही थी और उर्वशी अर्जुन को निकट लाने के प्रयास में थी‚ सभी में देखने को मिलती है।

गंगा ठुकराये जाने के बाद प्रतिपा के पुत्र शान्तनु को मोहित करती है और बदले में उससे एक वचन वसूल कर लेती है कि वह उसके किसी काम में कोई हस्तक्षेप नहीं करेगा। अपने नवजात शिशुओं को पानी में डुबोने के हृदयहीन खेल के पीछे एक गूढ़ार्थ छिपा होता है‚ जब यह समझ में आ जाता है‚ फिर उसके इस अजीब से मनमौजी व्यक्तित्व को नयी ऊंचाई मिलती है। यही तो वास्तव में वेदव्यास ने किया‚ एक नये आदिकालीन अर्थ का निर्माण किया जो कि इन अद्भुत कुमारियों के पति इस अर्थ को प्राप्त नहीं कर पाये।

अगर हम आधुनिक समाज के असुरक्षित विवाहों की जड़ तक पहुंचा जाए तो जंग पाते हैं कि इसका मूल कारण इस असंकेतिक संसार जिसमें हम रह रहे हैं में ही केन्द्रित है। जिसमें कि पुरुष लगातार संघर्षरत है अपने अन्दर के स्त्रीत्व से जुड़ने में‚ और इसे वह प्रतिरूप में हर स्त्री में देखना चाहता है। विरोधाभास यह है कि यह स्त्रीत्व तो उसके अन्दर है‚ जिसके साथ वह हमेशा संवाद करता रहे। शायद यही छिपा हुआ सन्देश है जो हमें इन पांच कुमारियों की याद तरोताजा रखने के लिये प्रेरित करता है‚ जिससे कि पुरुष अपने अन्दर के स्त्रीत्व के प्रतिबिम्ब को समझ सके।

इस संदर्भ में नोलिनी कान्ता गुप्ता का इन कुमारियों का अध्ययन बहुत महत्व का है जो कि काफी उल्लेखनीय है और जंग द्वारा परिभाषित कन्या के अर्थ से बहुत मिलता जुलता है। वह कहते हैं कि 

इन पांच कुमारियों से हमें यह संकेत मिलता है या यह सच्चाई पता चलती है कि औरत सिर्फ एक सती नहीं बल्कि मुख्यत। और मूलत। वह एक शक्ति है।"

वह दर्शाते हैं कि कैसे महाकाव्य में इस पूर्वाग्रहों कि‚ स्त्री कभी भी स्वतन्त्र न होमगर हमेशा एक सती हो और पति के प्रति समर्पित हो‚ के बीच इन चरित्रों की महानता को प्रतिस्थापित करने में कितनी मेहनत की गई है। इसको वह प्रकृति से पुरुष के वशीभूत होने की तरह वर्णित करते हैं‚ जो कि मध्ययुगीन है। सारे प्राचीन सम्बन्ध‚ वह कहते हैं‚ उलटे थे। जैसे कि शिव अपनी प्रेयसी देवी के पैरों में पड़े हुए हैं। महाभारत में यह धारणा प्रबल होती है कि स्त्री को प्राचीन काल में स्वतन्त्रता प्राप्त थी। आदिपर्व में पाण्डु कुन्ती से कहते हैं।

अतीत में

स्त्रियां घर से नहीं बंधी थी

न परिवार के लोगों पर निर्भर थींऌ

वे मुक्त होकर विहार करती थीं

वे मुक्त होकर आनन्द प्राप्त करती थीं

वे अपनी तरुणावस्था से ही

वे किसी भी मनचाहे पुरुष के साथ सो जाती थीं

वे अपने पतियों के प्रति निष्ठावान नहीं होकर भी

कभी वे दोषी नहीं मानी जाती थीं

महाऋषियों ने भी

आदिकाल में स्त्री की प्रशंसा की है

परम्पराओं पर आधारित यह प्रथा

आज भी उत्तरी कुरुवंश में मानी जाती है

यह नयी रीति एकदम नयी है।." ह्य 1224 – 8हृ

पाण्डु एक कथा सुनाते हैं उद्दलका के पुत्र श्वेतकेतु के साथ हुए अत्याचार की‚ जब उसकी मां को एक ब्राह्मण उनकी ही उपस्थिति में उठा ले गया था

यह सनातन धर्म है

चारों जातियों की सभी स्त्रियां

किसी भी पुरुष से सम्बन्ध रखने को स्वतन्त्र हैं

और पुरुष ॐ उनका क्या‚ वे तो बैल के समान हैं.।" ह्य 12213 – 14हृ

यहां उलूपी और उर्वशी के अर्जुन के साथ और गंगा के प्रतिपा के साथ व्यवहार का विवरण एक तरह से कन्या के व्यवहार में स्वतन्त्रता के गुण को जताता है। इन कन्याओं में हमें नेओमी वोल्फ के द्वारा कथित स्त्री होने के आनन्द का प्रमाण 'सेक्सुअली पावरफुल मैजिकल बीईंग्स" के रूप में मिलता है।

पाण्डु के समय तक आर्य सरस्वती यमुना के आस पास स्थापित हो चुके थे और उन्होंने अपने उत्तरीय बांधवों को नीचा देखना शुरु कर दिया था और उन्हें अलग वर्ग के रूप में मान – मद्रास ‚ म्लैच्छ‚ अनार्य का नाम दे दिया था। कर्ण शल्य की आलोचना करते हैं मद्र की नारियों की चरित्रहीनता को लेकर‚ क्योंकि वे किसी भी मनचाहे पुरुष के साथ चली जाती हैं।

नोलिनी कान्त गुप्त कहते हैं कि हम आधुनिक लोगों ने भी‚ इन पांच कुमारियों को कुमारियों की जगह कुछ फेरबदल कर उन्हें सतियों के रूप में याद रखने की कोशिश की है। हम आसानी से यह स्वीकार नहीं कर पाते कि नारी की महानता को मापने का सतीत्व के अलावा भी कोई और मानदण्ड हो सकता है। उनकी आत्माएं न तो समय का मानवीय विचार स्वीकार करती हैं न ही धर्म अथर्म को जीवन तथा मानवीय मूल्यों का परमआधार मानती हैं। उनके अस्तित्व को महान और उच्चक्षमताओं के साथ प्रकाशित किया गया। उनकी वैवाहिक निष्ठा या परपुरुषगमन इस चमक में अप्रासंगिक हो गयेस्त्री पुरुष की शरण केवल सतीत्व के लिये नहीं वरन् स्पर्श के लिये और ईश्वर के मूर्त रूप में उसे पाकर‚ दैविक प्रभाव के अन्तर्गत अपनी संतानों को जन्म देना चाहती है… वह व्यक्ति जो केवल अपने ही होने के नियमों का पालन करता है और अपने बनाए सच के रास्ते पर चलता है और दूसरों के साथ एक मुक्त और विस्तृत रिश्ते की स्थापना करता है।"

नई सहस्त्राब्दि के आरंभ में क्या हम भी एक चक्र की तरह ऐसी ही स्थिति की ओर अग्रसर नहीं हो रहे हैं‚ जहां स्त्री और पुरुष के सम्बन्ध स्थायी और बाहरी रूप से अनन्य नहीं हैं‚ जहां पर स्त्री पुरुष मुक्त होकर मिलते जुलते हैं‚ बहुमूल्य‚ समान शर्तों पर‚ एक दूसरे की क्षमता को संपूणता देने के लिये निरन्तर अग्रसर जैसा कि पूर्वशिवकेतुकाल में होता थाइसीलिये इन पांच कन्याओं को स्मरण करने का उपदेश कितना प्रासंगिक है। वास्तव में अतीत ही भविष्य को अपने गर्भ में समाये हुए है।

समाप्त.

पंचकन्या – भाग-11

 

पंचकन्या – भाग-11

एक और खास बात जो कि इन कुमारियों में एक सी है वह यह कि सभी 'मातृविहीनकन्याएं हैं। अहिल्या‚ सत्यवती और द्रौपदी का जन्म अप्राकृतिक था‚ इनमें से किसी की मां नहीं थी। हमें 'ताराकी माता के बारे में कोई उल्लेख नहीं मिलता। मन्दोदरी की माता का नाम 'हेमा'‚ बस एक परिचय भर के लिये है।

मातृविहीना गंधकाली और पृथा‚ अपनी किशोरावस्था में ही अपने पिताओं द्वारा त्याग दी गईं और दोनों दो ऋषियों की दया पर छोड़ दी गईं और अविवाहित अवस्था में ही मां बन गईं और बिना किसी विकल्प के उन्हें अपने प्रथम संतान को त्यागना पड़ा। पृथा की माता के नाम का उल्लेख तक नहीं आता जब वह पिता द्वारा कुन्तीभोज को दी गई थी। जैसा कि कुन्ती की धर्म मां यानि कुन्ती भोज की पत्नी का भी कोई उल्लेख नहीं मिलता और उसे केवल एक धाय द्वारा पाला गया। और अगर द्रौपदी ने अपनी मां की छवि अपनी सास में ढूंढनी चाही तो उसे दुखपूर्ण धोखे के साथ बहुपति विवाह में धकेल दिया गया जिसकी वजह से वह अनेक अश्लील अफवाहों का शिकार बनी‚ जिसकी दुर्भाग्यपूर्ण अति तब हुई जब कर्ण ने भरी सभा में उसे वेश्या कहा कि जिसका वस्त्रयुक्त और वस्त्रविहीन होना कोई मायने नहीं रखता।. जैसा कि यह उसकी पीड़ा के लिये पर्याप्त न था‚ कुन्ती ने कहा कि वह अपने पांचवे पति सहदेव का विशेष ध्यान रखे‚ मां की तरह! किसी भी अन्य स्त्री को ऐसी अजीब सी दशा से नहीं गुजरना पड़ा होगा कि‚ अभी इनसे पति की तरह इनसे सम्बन्ध रखो‚ फिर बड़े जेठ या देवर का मान दो‚ एक अन्तहीन चक्र की तरह।

समानान्तर रूप से हम पाते हैं कि अहिल्या‚ सत्यवती‚ द्रौपदी को मातृत्व के गुणों में कोई महत्ता नहीं दी जाती। अहिल्या के पुत्र ने अपनी मां को छोड़ दिया और स्वयं जनक की राजसभा में रहा‚ बाद में अवश्य अपनी मां के राम द्वारा मुक्त किये जाने पर और समाज द्वारा स्वीकार किये जाने पर कुछ राहत भरे शब्द अवश्य उसने कहे। वाल्मिकी के पास माता और पुत्र के सम्बन्ध को लेकर अहिल्या और शतानन्दा के लिये कोई शब्द नहीं थे। व्यास अपने दोनों जनकों द्वारा त्यागे गये थे और उन्होंने अपने जीवित रहने का श्रेय प्रकृति को दिया। द्रौपदी के पांच पुत्र बस नाममात्र को परिचित हैं‚ जिन्हें उसने कभी पाला पोसा नहीं। उसने उन्हें पांचाल भेज दिया और स्वयं पतियों के साथ वनवास में चली गई ताकि अन्याय व अपमान के घाव कभी भर न सकें और वह उन्हें कुरेद कुरेद कर सदैव ताजा बनाए रखे।

वास्तव में विद्वान‚ बंकिमचन्द्र से आरंभ करें तो सौ वर्ष पूर्व ही उन्होंने उसके मातृत्व को लेकर प्रश्न उठाया था कि अन्य पाण्डवपुत्रों ह्य घटोत्कच‚ अभिमन्यु‚ बभ्रूव्हानाहृ से अलग इन पांच पुत्रों का उल्लेख नाम के अलावा कहीं हुआ ही नहीं‚ और हो सकता है कि महाकाव्य में से काट छांट द्वारा नष्ट हो गये हों।

द्रौपदी को लेकर धार्मिक विश्वास है कि उसके पुत्रों का जन्म उसके गर्भधारण करने से नहीं बल्कि गिरे हुए रक्त की बूंदों से हुआ है‚ जब उसके भयावह काली स्वरूप में‚ उसके नख ने भीम के हाथ को भेद दिया था। ये कन्याएं सार तथा तत्वरूप में कन्या ही रहीं‚ केवल कुन्ती को छोड़ किसी ने भी शायद ही मातृत्व को स्वीकारा हो। इसमें द्रौपदी का अग्निमय चरित्र हमें कुरु वंश की एक पूर्वजा रानी देवयानी की याद दिलाता है.। इच्छाशक्ति युक्त‚ अपनी मांगों को लेकर हठधर्मी‚ अपने पिता कि लाड़ली‚ मां विषयक कोई जानकारी नहीं है‚ कच के प्रति आकर्षित‚ ययाति को प्रभावशाली तरीके से विवाह के लिये बाध्य करना‚ क्रोध में अपने पिता से शिकायत कर ययाति को वृद्ध हो जाने का श्राप दिलवाना और उसके भी मातृप्रधान गुणों का कोई सबूत नहीं सिवा इसके कि उसके दो पुत्र थे। वास्तव में उनकी समानताओं में और भी गहराई है। देवयानी यानि अग्नि वेदी या यज्ञ वेदी‚ यजनासनी अर्थात यज्ञवेदी से जन्मी।

यह ठुकराए जाने का और बदले में ठुकराने का गुण जो है वह उस संकेत धुन को याद दिलाना है कि कन्या केवल पुरावेत्ता की रुचि का ही विषय नहीं। यह स्मरण कराता है बंगाली स्त्री के उस संघर्ष को भी जो कि अपने मातृत्व के नये आयामों को खोज नये युग में कदम रख रही है‚ आशापूर्णा देवी की त्रिकथात्मक पुस्तक‚ प्रथम प्रतिश्रुति‚ सबर्नलता और बकुल कथा द्वारा।

इनमें एक स्त्री चरित्र सत्यवती जो है उसका उसके पिता ने बालविवाह करवा कर आठ वर्ष की आयु में छोड़ दिया है। जब वह अपने पुत्र को जन्म देती है तभी उसे पता चलता है कि उसकी मां की मृत्यु हो गयी है। वह अपने बच्चों को पढ़ाने के लिये शहर आकर नये शहरी परिवेश के तहत एकल परिवार में रह कर संघर्ष करती है‚ किन्तु उसकी पुत्री सुबर्ना का भी विवाह आठ वर्ष की आयु में कर दिया जाता है। इसके बाद सत्यवती विवाह समारोह से ही अनुपस्थित हो जाती है‚ और अपनी पुत्री को मातृत्व की दहलीज पर छोड़ देती है‚ वही सब दोहराते हुए जो ठुकराव स्वयं उसने भोगा था। यही तरीका फिर दोहराया जाता है जब अपनी पुत्री के जन्म के समय उसे उसकी मां की मृत्यु का समाचार मिलता है और वह अपनी नवजात कन्या के बारे में उल्लसित नहीं हो पाती। यह पितृसत्तात्मक समाज की परम्परा के अनुसार थोपी गई मातृत्वहीनता को चुनौती देने का प्रयास है चाहे इस कीमत पर ही सही कि वह एक अकुशल मां है। आशापूर्णा देवी ने यहां मातृत्व की प्राचीन परम्परा पर प्रश्न उठाया है कि स्त्री अपनी सन्तान की केवल जैविक जनक तो है‚ पर उसकी उस पुत्री के भविष्य को आकार देने में कोई महत्वपूर्ण भूमिका नहीं होती।

यह यही बताता है जो हम निश्चित रूप से इन पांच कन्याओं के विषय में सत्य पाते हैं। यहां फिर से कन्या‚ अपसराओं से एकदम भिन्न हैस्वार्गिक नायिका जो मातृत्व के गुण से नितान्त अपरिचित ही है। उर्वशी यह बात राजा कुकूतस्था से स्पष्ट कर देती है‚ जब वह उनकी पुत्री को त्याग दिये जाने पर दुबारा सम्पर्क करता है। " ओ राजन् मेरे शरीर में कोई बदलाव नहीं होना चाहिये जब हमारी संतान पैदा हों‚ और यही उचित है मेरे लिये क्योंकि मैं एक नर्तकी और गणिका हूँ। मैं सन्तानों को पाल नहीं सकती अगर मैं उन्हें जन्म दे भी दूं तो।" यही चारित्रिक गुण मेनका में परिलक्षित हुए जब उसने शकुन्तला को जन्म देकर त्याग दिया।

हानि की विषय वस्तु कन्याचरित्रों में एक सी है। अहिल्या के कोई अभिभावक नहीं थे‚ पति पुत्र दोनों को खो दिया और सामाजिक बहिष्कार भी सहा। कुन्ती ने भी अपने अभिभावक खोये‚ पति को दो बार खोया‚ एक बार माद्री से विवाह पर‚ दूसरी बार माद्री की बाहों में मृत पाकर। सत्यवती ने पति खोया और दोनों राजपुत्र भी। और उसके पौत्र एक दूसरे के शत्रु निकले‚ उसने महसूस किया‚ " कि पृथ्वी के हरे भरे उर्वर दिन खो गये।" ह्य आदिपर्व 1286हृ और वह जंगल में चली गयी‚ और अपने वंश के आत्मघात की साक्षी न बन सकी। व्यास उसके अन्त के बारे कुछ नहीं लिख सके। मन्दोदरी ने भी पति‚ पुत्र और अन्य उत्तराधिकारी खो दिये। तारा ने भी पति को खोया। दोनों ने अपने देवरों से विवाह करने को विवश हुईं जो कि उनके पति की मृत्यु का कारण बने थे। द्रौपदी बारबार अपने पतियों की उपेक्षा पाती रही। उन पांचो की कम से कम एक और पत्नी अवश्य थी‚ उसे अर्जुन कभी पूर्णत। मिला जिससे कि उसका सही अर्थों में विवाह हुआ‚ उसने ऊलूपी से विवाह किया‚ चित्रांगदा से भी और सुभद्रा तो उसकी प्रिय पत्नी थी। युधिष्ठिर ने उसे अपनी संपत्ति समझ कर दांव पर लगा दिया‚ और अंत में उसे रास्ते में अकेले मरने के लिये छोड़ दिया एक भिखारिन की तरह‚ एक दम रिक्त‚ खाली सभी अर्थों में।

अमृता स्याम अपनी लम्बी कविता में पांचाली की कोप अभिव्यक्त करती हैं‚ अपने पिता की अनुमति के बिना जन्मी‚ अपने भाईयों‚ पुत्रों और सखा कृष्ण के वियोग में तरसती 

द्रौपदी के पांच पति थे — पर उसका कोई न था

उसके पांच पुत्र थे — पर वह कभी मां न हो सकी

पांडवों ने द्रौपदी को क्या दिया?

न कोई प्रसन्नता‚ न विजय की अनुभूति

न पत्नी का गौरव, न मातृत्व की श्रद्धा

केवल रानी होने का उच्च स्तर

वे सभी चले गये

मैं रह गई इस जीवनहीन बहुमूल्य गहने के साथ

एक रिक्त राजमुकुट

मेरा व्यग्र मातृत्व

अपने हाथ मरोड़ता है और रोने को तरसता है।"

क्रमशः

पंचकन्या – भाग-10

 

पंचकन्या – भाग-10

बहुत पहले 1887 में बंगला के महान साहित्यकार बंकिमचन्द्र चट्टोपाध्याय ने द्रौपदी और सीता के बीच विशेषताओं को स्पष्ट किया था‚ पहली वाली सीता जो कि मुख्यत। एक पतिव्रता पत्नी थी‚ और उसमें कोमल स्त्रियोचित गुण थे‚ जबकि बाद वाली द्रौपदी गौरवमयी और आश्चर्यजनक रूप से क्षमतापूर्ण रानी थी जिसमें स्त्री की लौह इच्छाशक्ति‚ गौरव और तेजोमय बुद्धिजीविता प्रमुख रूप से उपस्थित थी‚ और वह शक्तिशाली भीम की उपयुक्त सहचरी थी। उन्होंने यह उल्लेख भी किया है कि द्रौपदी में स्वहीन होकर अहम् त्याग कर अपने गृहस्थी सम्बन्धित कर्तव्य दोषरहित होकर और बिना किसी मोह के निभाने का गुण है‚ और इस तरह वह स्त्री जाति का प्रतिनिधित्व करने में सक्षम है। उसमें वे गीता के अपनी इन्द्रियों पर अपनी उच्च क्षमताओं द्वारा संयम रखने के उपदेशों का उदाहरणस्वरूप पाते हैं। जैसा कि एक पत्नी का कर्तव्य होता है कि अपने पति को एक पुत्र दे‚ उसने हर पाण्डव को एक एक पुत्र प्रदान किया‚ किन्तु अधिक नहीं‚ यह अपनी इन्द्रियों पर विजयप्राप्ति का उदाहरण है जैसा कि कुन्ती ने किया था‚ जब एक बार कर्तव्य पूरा हुआ‚ उसके बाद उसके और पाण्डवों के बीच कोई दैहिक संसर्ग नहीं ॐ

इसीलिये पांच पतियों के होते हुए द्रौपदी ने अपनी पवित्रता अक्षुण्ण रखी। अपने सखा कृष्ण की निकट मित्र थी वह और उनकी ही भांति कमल सदृश पूर्णत। चेतना के संसार में रही मगर कभी इसमें डूबी नहीं। उसके अद्वितीय व्यक्तित्व के प्रस्फुटन की सुगन्ध दूर दूर तक फैल गई‚ वह उस कीचड़ से ऊपर उठी रही जिसमें उसकी जड़ें थी।

अन्तत:सत्य यही है कि द्रौपदी अपने पतियों से अलग थी‚ जो कि उसे गर्व से ब्याह कर घर लाये थे‚ उनमें से कोई भी— यहां तक सहदेव जिसका उसने अपने मातृत्वभाव विशेष ध्यान रखा और उसका प्रियस्व अर्जुन भी — नहीं रुका उसके लिये जब वो हिमालय की घाटियों से नीचे गिर जाती है और मरणासन्न लेटी होती है‚ नाथवती अनाथवत। यहीं आकर हम महसूस करते हैं कि इस उल्लेखनीय चरित्र वाली 'कन्याने कभी अपने लिये कुछ नहीं मांगा। अनचाही सन्तान के रूप में जन्मी‚ अचानक बहुपति विवाह में धकेल दी गई‚ ऐसा लगता है कि वह भलीभांति जानती थी कि वह एक उपकरण मात्र है एक जीर्ण शीर्ण काल की समाप्ति और एक नया युग जन्म लेने के लिये। और इस तरह अवगत होने की वजह से यजनासनी ने अपना सम्पूर्ण स्व त्याग की अग्नि में होम कर दिया‚ जिसके लिये कृष्ण मुख्य देवता थे। यह अपने निम्नस्तर के 'स्वको ऊपर उठाने का गुण‚ और स्वयं को ऊंचे उद्देश्यों के लिये उपकरण या माध्यम बना लेना‚ इन सदा स्मरण की जाने वाली कुमारियों में एक जैसा है। इन्हें प्रतिदिन स्मरण कर‚ इनसे यह सीख कर कि किस तरह अपने क्षुद्र अहम को त्याग अपने निम्न 'स्वसे उठ कर अपने उच्च 'स्वतक पहुँचा जाए‚ हम अपने पाप से उबरते हैं।

ये कुमारियां आदिकालीन आर्केडियन देवी के तीन स्वरूपों के समानान्तर हैं‚  हेरा  - कुमारी‚ संतुष्ट और दुखित: । हेरा भी‚ जो कि केनाथोज़ के झरनों में नहा कर नई कन्या के रूप में उभरी थी। हेरा की ही तरह उसकी पुत्री हेबे और डीमीटर भी, कोर – परसेफोने थी‚ वैसे ही सत्यवती‚ कुन्ती और द्रौपदी। डीमीटर – नेमेसिस और परसेफोने, जुगुप्सा जगाने वाली क्वीन ऑफ हेडस जिसे देख कर डर और प्रशंसा दोनों के भाव जागते थे‚ की तरह ही द्रोपदी श्यामवर्णा थी। श्यामवर्णा देवी‚ कन्या वीर – शक्ति जिसकी प्रतिमाएं आज भी दक्षिण भारत में मिलती हैं‚ मां काली का प्रतिरूप‚ युद्ध में भयावह‚ पहले ही से वश में न होने वाली‚ प्रकृति का विनाशक स्वरूप।

द्रौपदी भी हेलेन की तरह ही है जो कि आकाशवाणी के साथ अवतरित हुई थी कि वह योद्धाओं का विनाश करेगी। द्रौपदी डीमीटर और हेलेन की तरह ही थी जिनका सम्बन्ध विनाश और हिंसा से रहा। उसके स्वयंवर का अन्त भी झगड़े के साथ हुआ‚ एक पंचस्तरीय विवाह उस पर थोपा गया‚ उसके साथ राजसभा में दो बार अपमानजनक व्यवहार किया गया‚ जयद्रथ और कीचक ने उसके साथ बलात्कार करना चाहा‚  के पुत्रों ने उसे जला कर मार देना चाहा। प्रतिशोध से भरी डीमीटर और हेलन की भांति द्रौपदी ने स्वयं जयद्रथ और किचका को जाने अनजाने आकर्षित किया फिर प्रतिशोध लिया। प्रतिशोध पूर्ण अम्बा भी ऐसी ही स्त्री थी ‚ जिसके आत्मदाह की लपटें उसके आन्तरिक क्रोध को प्रकट करती हैं‚ और वह दुबारा जन्म लेती है और अपने नारीत्व के अपमान का बदला रक्त से लेती है और रणभूमि में भीष्म की मृत्यु का कारण बनती है। द्रौपदी भी मूलत: एक युद्ध की कुमारी देवी है‚ आर्टेमिस और एथेने की ही तरह ही।

क्रमशः