पंचकन्या – भाग-12
इन पांचों में अहिल्या ही थी जो अपने आप में
अद्वितीय बनी रही अपनी दु:स्साहसी प्रकति के कारण और उसकी परिस्थितियों की वजह से।
वह एकमात्र थी जिसका उल्लंघन सामने आया और पता चला जिसके लिये उसे अपना मनचाहा
किये जाने की सजा मिली। उसकी अपने अपराध की अविचल स्वीकारोक्ति की वजह से
विश्वामित्र और वाल्मिकी ने उसे प्रकाशमान रूप से महत्ता दी।
चन्द्र राजन‚ एक और संवेदनशील कवि हैं आज के जिन्होंने इन
सूक्ष्म भावार्थों को पकड़ा और प्रदर्शित किया।
" गौतम ने श्राप दिया अपने क्रोध और पुंसत्वहीनता
से
वह शिला बनी खड़ी रही
बिना समझी गई‚ अव्याख्यायित
अपने पाषाण मौन के साथ
अपने अभग्न अन्तरतम के
रहस्यों की गुहा में दुबकी हुई
उसने आश्रय लिया
शताब्दी तक
ईश्वर की कृपा में
अपने आप में‚ पूर्ण‚ अभग्न
अपनी आत्मा के एकात्म में
शिलाओं‚ बरसात और हवा के साथ
फूलों से लदे पेड़ों के साथ
पकते फलों के और चुपचाप गिरते बीजों के साथ
अपने समय में
इस घनी अंधेरी धरती पर
इनमें से कोई भी कुमारी अपने त्रासदायक जीवन से
टूट कर बिखरी नहीं। इनमें से प्रत्येक ने अपना जीवन अपना सर ऊंचा कर जिया। यह भी 'कन्या' चरित्र का एक गुण है जो
उन्हें और स्त्रियों से अलग करता है। यहां शोषण का एक पहलू उभर कर सामने आता है‚ 'कन्या' के बारे में। सुग्रीव ने
अपने आपको तारा के पीछे छिपाया‚ लक्ष्मण के क्रोध से बचने के लिये। कुन्ती को
कुन्तीभोज ने दुर्वासा मुनी को प्रसन्न करने के लिये दान दे दिया। द्रौपदी को पहले
द्रुपद ने द्रौण से बदला लेने के लिये जन्म दिया‚ और पाण्डवों से गठजोड़ किया‚ फिर कुन्ती ने उसका इस्तेमाल
किया‚ फिर पाण्डवों ने अपना राज
जीतने के लिये तीन बार उसका शोषण किया‚ पहले विवाह कर‚ फिर दांव पर लगा कर‚ अंत में निरन्तर अपनी विजय
की राह पर अंकुश लगा कर उसे चलाते रहे। यहां तक कि उसे पता भी न था कि सखा कृष्ण
ने भी कर्ण के समक्ष प्रलोभन की तरह परोस दिया था‚ जब वे उसे युद्ध से पहले पाण्डवों के पक्ष में
करना चाह रहे थे‚ यह कह कर कि द्रौपदी आपके
पास दिन के छठे हिस्से में तुम्हारे पास पहुंच जाएगी‚ षष्ठे का तम तथा काले
द्रोपदेउपगमिस्यति (उद्योग पर्व 134। 16) बाद में यही चाल कुन्ती ने भी दोहरायी‚ कर्ण से कहा कि युधिष्ठिर की
श्री ह्यसम्पत्ति या द्रौपदी का दूसरा नामहृ को तुम भी भोग सकते हो‚ जो कि अर्जुन द्वारा अर्जित
की गई है।
यहां फिर से बिना गलतफहमी के एक और बार वही बात
दुहराई गई है‚ जिसे पहले भी द्रौपदी को जीत
कर लाते समय अपने पुत्रों को उसने आदेश दे कर कहा था‚ आनन्द के साथ भोग लो (भुंक्तेती)। कोई आश्चर्य की बात नहीं
इसमें कि द्रौपदी ने विलाप कर कहा होगा कि उसका कोई नहीं है जो उसे अपना कह सके‚ यहां तक कि उसके परम प्रिय
सखा ने बिना हिचके उसे एक चारे की तरह इस्तेमाल कर लिया था। हम न चाह कर भी नेओमी
वोल्फ के द्वारा पुरुषाप्रधान सत्ता के प्रयास " पनिश द स्लट " के
तिरस्कार किये जाने से सहमत हैं‚ यौन सम्बन्धों को लेकर स्वतन्त्र स्त्रियां‚ जो कि अनिश्चित लक्ष्मण रेखा
को पार करती हैं‚ 'बुरे' से 'अच्छे' को अलग करती हैं।
कन्या‚ पति और बच्चों के होने के बावजूद‚ अंत में अकेली रह जाती है।
यह शिखर पर महसूस किये जाने वाला अकेलापन है‚ जिसे हर महान नेता एक सीमा के बाद महसूस करता
है। माता का पोषण‚ प्रेम‚ आदर्श और परम्पराओं का
प्रदान कन्या को प्रयोगों से मुक्त रखता है‚ पढ़ाये गये नियमों की बेड़ियों से मुक्त रखता है‚ उसे अपने आन्तरिक प्रकाश में
अपने अनुसार ढालने के लिये‚ उसे अपने नारीत्व को
अभिव्यक्त और संतुष्ट करने के लिये स्वतन्त्र करता है। हर कोई उसे परिभाषित करने
के लिये एक ही आधुनिक तकियाकलाम को बार बार दोहरा देता है। ए वुमेन ऑफ सब्स्टेन्स‚ सारगर्भिता नारी।
यह एक बहुमूल्य अन्तरदृष्टि है कि स्त्री होने
में ऐसा क्या विशिष्ट है — कन्या‚ पत्नी और मां — में पाया जाता है‚ जैसा कि एक एबेसिनियन महिला
ने फ्रोबिनियस को बताया। उसके इस कथ्य में हमें उन कारणों का पता चलता है कि क्यों
कन्या पुरुषों के लिये युगों से ही रहस्यमयी रही है।
" एक पुरुष कैसे जान सकता है कि स्त्री का जीवन
क्या है?
… पहली
बार किसी नारी की कामना करने से पहले भी वह एक पुरुष था और बाद में भी वही रहता
है। किन्तु जब स्त्री पहली बार अपने पहले प्रेम का आनन्द उठाती है वह दो भागों में
बंट जाती है…पुरुष स्त्री के साथ एक रात
बिताता है और चला जाता है। उसका जीवन‚ उसका शरीर वैसा का वैसा रहता है…उसे प्रेम करने के पहले और
बाद में कोई अन्तर नज़र नहीं आता‚ …मातृत्व अर्जित करने से पहले और बाद के अनुभव …केवल एक स्त्री ही समझ सकती
है और उसके बारे में बता सकती है। इसीलिये हमें यह नहीं बताया जाता कि हम अपने
पतियों से क्या करें। स्त्री केवल एक ही काम कर सकती है… उसे अपनी प्रकृति के अनुसार
ही रहे। वह सदैव कुमारी भी रहे और सदैव मां भी। 'प्रत्येक प्रेम के पहले वह कुमारी है‚ और प्रत्येक प्रेम के बाद वह
मां है।'
हमें एक बार फिर से पृथा के सूर्य‚ धर्म‚ वायु‚ इन्द्र और पाण्डु के मिलन
तथा पाराशर और शान्तनु के गन्धकाली के साथ मिलन‚ और द्रौपदी के अपने पतियों के साथ‚ उलूपी और अर्जुन‚ इन्द्र और अहिल्या के
सम्पर्कों पर प्रकाश डाल गहनता से इस वक्तव्य को महसूस करने की आवश्यकता है।
सी जी जुंग ने कुमारी के बारे में व्याख्या
करते हुए कहा है‚
" कुलमिला
कर वह अपने सामान्य अर्थ में मानवीय नहीं हैऌ या तो वह अबूझ और विचित्र स्त्रोत है‚ या फिर वह विचित्र दिखती है
या विचित्र अनुभवों से गुजरती है।" यह कन्याओं को एक अलग वर्ग प्रदान करता
है। यह मनुष्य के अन्दर स्त्रीत्व का प्रतिनिधित्व करती है जिसके अन्तर में अच्छा
व बुरा कुछ भी नहीं रहता।
"शारीरिक जीवन और मानसिक जीवन में एक दूसरे में
समा जाने की एक लज्जाहीनता है जो कि और भी अच्छे ढंग से काम करती है जब पारम्परिक
नैतिकता के बंधन ना हों‚ यह हमेशा स्वास्थ्यवर्धक
है।"
जब तक स्त्री महज पुरुष की स्त्री होकर रही है
उसने स्वयं को अपने अलग व्यक्तित्व से वंचित कर लिया है। दूसरी ओर कन्या ने पुरुष
के अन्दर के स्त्रीत्व को इस्तेमाल कर अपना प्राकृतिक स्वरूप प्राप्त करती हैह्य
बर्नाड शॉ ने इसे ही जीवन शक्ति कहाहृ इन कुमारियों के बारे में अकसर हम पाते हैं
कि " यह स्त्रीत्व हर वर्ग से ऊपर है‚ इसलिये यह प्रशंसा के साथ साथ आरोपित भी होता
है।" यह स्त्रीत्व केवल जीवन की लालसा से ही नहीं जाना जाता बल्कि‚ " एक रहस्यमय ज्ञान‚ एक छिपी हुई बुद्धिमत्ता या
फिर कुछ छिपे हुए उद्देश्य जैसा एक उच्चस्तरीय जीवन के नियमों का ज्ञान भी हो सकता
है।" जिसे हम महाकाव्य के नारी समूह में पाते हैं। इसीलिये शान्तनु‚ भीष्म‚ धृतराष्ट्र‚ पाण्डु‚ कौन्तेय‚ सुग््राीव आदि कभी सत्यवती‚ कुन्ती‚ द्रौपदी‚ तारा की पकड़ में नहीं आते‚ मगर हमेशा उनके रौब में रहते
हैं।
पुरुष के भीतर के स्त्रीत्व की कार्यशैली का एक
सबसे अच्छा उदाहरण गंगा और शान्तनु के सम्बन्ध में उजागर होता है। गंगा भी एक
कन्या है‚ जो कि विष्णु और शिव दोनों
की परिणीता है और मानव रूप में हस्तिनापुर के राजा से भी विवाहित है। किन्तु वह जो
भी करती है उसके लिये वह पूर्णत। स्वतन्त्र है। जब वह पहली बार प्रकट होती है तो
प्रतिपा की दायीं जंघा पर बैठ कर मांग करती है कि वह उसके साथ समागम करे।
" किसी स्त्री के प्रेम को ठुकराना अनुचित है…
मैं असुन्दर नहीं‚ उसने कहा‚
मैं दुर्भाग्य भी साथ नहीं लाती
किसी ने भी मुझ पर एक भी लांछन नहीं लगाया
मैं यौनसुख के लिये पूर्णत। स्वस्थ हूँ
मैं अलौकिक हूँ‚ मैं सुन्दर हूँ‚
मैं तुमसे प्रेम करती हूँ‚ मुझे स्वीकार करो मेरे
स्वामी।" ह्य आदिपर्व 97।5‚ 7हृ
यह सारमयी कन्या हमें देवयानी के चरित्र में‚ जब वह कच और ययाति को अपनी
ओर आकर्षित करती है‚ उलूपी में जब वह अर्जुन को
दूर कर रही थी और उर्वशी अर्जुन को निकट लाने के प्रयास में थी‚ सभी में देखने को मिलती है।
गंगा ठुकराये जाने के बाद प्रतिपा के पुत्र
शान्तनु को मोहित करती है और बदले में उससे एक वचन वसूल कर लेती है कि वह उसके
किसी काम में कोई हस्तक्षेप नहीं करेगा। अपने नवजात शिशुओं को पानी में डुबोने के
हृदयहीन खेल के पीछे एक गूढ़ार्थ छिपा होता है‚ जब यह समझ में आ जाता है‚ फिर उसके इस अजीब से मनमौजी
व्यक्तित्व को नयी ऊंचाई मिलती है। यही तो वास्तव में वेदव्यास ने किया‚ एक नये आदिकालीन अर्थ का
निर्माण किया जो कि इन अद्भुत कुमारियों के पति इस अर्थ को प्राप्त नहीं कर पाये।
अगर हम आधुनिक समाज के असुरक्षित विवाहों की जड़
तक पहुंचा जाए तो जंग पाते हैं कि इसका मूल कारण इस असंकेतिक संसार जिसमें हम रह
रहे हैं में ही केन्द्रित है। जिसमें कि पुरुष लगातार संघर्षरत है अपने अन्दर के
स्त्रीत्व से जुड़ने में‚ और इसे वह प्रतिरूप में हर
स्त्री में देखना चाहता है। विरोधाभास यह है कि यह स्त्रीत्व तो उसके अन्दर है‚ जिसके साथ वह हमेशा संवाद
करता रहे। शायद यही छिपा हुआ सन्देश है जो हमें इन पांच कुमारियों की याद तरोताजा
रखने के लिये प्रेरित करता है‚ जिससे कि पुरुष अपने अन्दर के स्त्रीत्व के
प्रतिबिम्ब को समझ सके।
इस संदर्भ में नोलिनी कान्ता गुप्ता का इन
कुमारियों का अध्ययन बहुत महत्व का है जो कि काफी उल्लेखनीय है और जंग द्वारा
परिभाषित कन्या के अर्थ से बहुत मिलता जुलता है। वह कहते हैं कि ‚
" इन पांच कुमारियों से हमें यह संकेत मिलता है
या यह सच्चाई पता चलती है कि औरत सिर्फ एक सती नहीं बल्कि मुख्यत। और मूलत। वह एक शक्ति है।"
वह दर्शाते हैं कि कैसे महाकाव्य में इस
पूर्वाग्रहों कि‚ स्त्री कभी भी स्वतन्त्र न
हो‚मगर हमेशा एक सती हो और पति
के प्रति समर्पित हो‚ के बीच इन चरित्रों की
महानता को प्रतिस्थापित करने में कितनी मेहनत की गई है। इसको वह प्रकृति से पुरुष
के वशीभूत होने की तरह वर्णित करते हैं‚ जो कि मध्ययुगीन है। सारे प्राचीन सम्बन्ध‚ वह कहते हैं‚ उलटे थे। जैसे कि शिव अपनी प्रेयसी
देवी के पैरों में पड़े हुए हैं। महाभारत में यह धारणा प्रबल होती है कि स्त्री को
प्राचीन काल में स्वतन्त्रता प्राप्त थी। आदिपर्व में पाण्डु कुन्ती से कहते हैं।
अतीत में‚
स्त्रियां घर से नहीं बंधी थी‚
न परिवार के लोगों पर निर्भर थींऌ
वे मुक्त होकर विहार करती थीं
वे मुक्त होकर आनन्द प्राप्त करती थीं
वे अपनी तरुणावस्था से ही
वे किसी भी मनचाहे पुरुष के साथ सो जाती थीं
वे अपने पतियों के प्रति निष्ठावान नहीं होकर
भी
कभी वे दोषी नहीं मानी जाती थीं
महाऋषियों ने भी
आदिकाल में स्त्री की प्रशंसा की है
परम्पराओं पर आधारित यह प्रथा
आज भी उत्तरी कुरुवंश में मानी जाती है
यह नयी रीति एकदम नयी है।." ह्य 122।4 – 8हृ
पाण्डु एक कथा सुनाते हैं उद्दलका के पुत्र
श्वेतकेतु के साथ हुए अत्याचार की‚ जब उसकी मां को एक ब्राह्मण उनकी ही उपस्थिति
में उठा ले गया था‚
" यह सनातन धर्म है
चारों जातियों की सभी स्त्रियां
किसी भी पुरुष से सम्बन्ध रखने को स्वतन्त्र
हैं
और पुरुष ॐ उनका क्या‚ वे तो बैल के समान
हैं.।" ह्य 122।13 – 14हृ
यहां उलूपी और उर्वशी के अर्जुन के साथ और गंगा
के प्रतिपा के साथ व्यवहार का विवरण एक तरह से कन्या के व्यवहार में स्वतन्त्रता
के गुण को जताता है। इन कन्याओं में हमें नेओमी वोल्फ के द्वारा कथित स्त्री होने
के आनन्द का प्रमाण 'सेक्सुअली पावरफुल मैजिकल
बीईंग्स" के रूप में मिलता है।
पाण्डु के समय तक आर्य सरस्वती यमुना के आस पास
स्थापित हो चुके थे और उन्होंने अपने उत्तरीय बांधवों को नीचा देखना शुरु कर दिया
था और उन्हें अलग वर्ग के रूप में मान – मद्रास ‚ म्लैच्छ‚ अनार्य का नाम दे दिया था। कर्ण शल्य की आलोचना
करते हैं मद्र की नारियों की चरित्रहीनता को लेकर‚ क्योंकि वे किसी भी मनचाहे पुरुष के साथ चली
जाती हैं।
नोलिनी कान्त गुप्त कहते हैं कि हम आधुनिक
लोगों ने भी‚ इन पांच कुमारियों को
कुमारियों की जगह कुछ फेरबदल कर उन्हें सतियों के रूप में याद रखने की कोशिश की
है। हम आसानी से यह स्वीकार नहीं कर पाते कि नारी की महानता को मापने का सतीत्व के
अलावा भी कोई और मानदण्ड हो सकता है। उनकी आत्माएं न तो समय का मानवीय विचार
स्वीकार करती हैं न ही धर्म अथर्म को जीवन तथा मानवीय मूल्यों का परमआधार मानती
हैं। उनके अस्तित्व को महान और उच्चक्षमताओं के साथ प्रकाशित किया गया। उनकी
वैवाहिक निष्ठा या परपुरुषगमन इस चमक में अप्रासंगिक हो गये…स्त्री पुरुष की शरण केवल
सतीत्व के लिये नहीं वरन् स्पर्श के लिये और ईश्वर के मूर्त रूप में उसे पाकर‚ दैविक प्रभाव के अन्तर्गत
अपनी संतानों को जन्म देना चाहती है… वह व्यक्ति जो केवल अपने ही होने के नियमों का
पालन करता है और अपने बनाए सच के रास्ते पर चलता है और दूसरों के साथ एक मुक्त और
विस्तृत रिश्ते की स्थापना करता है।"
नई सहस्त्राब्दि के आरंभ में क्या हम भी एक
चक्र की तरह ऐसी ही स्थिति की ओर अग्रसर नहीं हो रहे हैं‚ जहां स्त्री और पुरुष के
सम्बन्ध स्थायी और बाहरी रूप से अनन्य नहीं हैं‚ जहां पर स्त्री पुरुष मुक्त होकर मिलते जुलते
हैं‚ बहुमूल्य‚ समान शर्तों पर‚ एक दूसरे की क्षमता को
संपूणता देने के लिये निरन्तर अग्रसर जैसा कि पूर्वशिवकेतुकाल में होता था? इसीलिये इन पांच कन्याओं को
स्मरण करने का उपदेश कितना प्रासंगिक है। वास्तव में अतीत ही भविष्य को अपने गर्भ
में समाये हुए है।
समाप्त.