श्रीमद्भागवत महापुराण: तृतीय स्कन्ध: अष्टम अध्यायः श्लोक 1-13 का हिन्दी अनुवाद


(लगातार-सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत पुराण)
श्रीमद्भागवत महापुराण:
तृतीय स्कन्ध: अष्टम अध्यायः श्लोक 1-13 का हिन्दी अनुवाद

ब्रह्मा जी की उत्पत्ति.

श्रीमैत्रेय जी ने कहा- विदुर जी! आप भगवद्भक्तों में प्रधान लोकपाल यमराज ही हैं; आपके पुरुवंश में जन्म लेने के कारण वह वंश साधु-पुरुषों के लिये भी सेव्य हो गया है। धन्य है! आप निरन्तर पद-पद पर श्रीहरि की कीर्तिमयी माला को नित्य नूतन बना रहे हैं। अब मैं, क्षुद्र विषय-सुख की कामना से महान् दुःख को मोल लेने वाले पुरुषों की दुःख निवृत्ति के लिये, श्रीमद्भागवत पुराण प्रारम्भ करता हूँ-जिसे स्वयं श्रीसंकर्षण भगवान् ने सनकादि ऋषियों को सुनाया था।

अखण्ड ज्ञान सम्पन्न आदि देव भगवान् संकर्षण पाताल लोक में विराजमान थे। सनत्कुमार आदि ऋषियों ने परम पुरुषोत्तम ब्रह्म का तत्त्व जानने के लिए उनसे प्रश्न किया। उस समय शेषजी अपने आश्रय-स्वरूप उन परमात्मा की मानसिक पूजा कर रहे थे, जिनका वेद वासुदेव के नाम से निरूपण करते हैं। उनके कमलकोश सरीखे नेत्र बंद थे। प्रश्न करने पर सनत्कुमारादि ज्ञानीजनों के आनन्द के लिये उन्होंने अधखुले नेत्रों से देखा। सनत्कुमार आदि ऋषियों ने मन्दाकिनी के जल से भीगे अपने जटासमूह से उनके चरणों की चौकी के रूप में स्थित कमल का स्पर्श किया, जिसकी नागराज कुमारियाँ अभिलषित वर की प्राप्ति के लिये प्रेमपूर्वक अनेकों उपहार-सामग्रियों से पूजा करती हैं। सनत्कुमारादि उनकी लीला के मर्मज्ञ हैं। उन्होंने बार-बार प्रेम-गद्गद वाणी से उनकी लीला का गान किया। उस समय शेष भगवान् के उठे हुए सहस्रों फण किरीटों की सहस्र-सहस्र श्रेष्ठ मणियों की छिटकती हुई रश्मियों से जगमगा रहे थे।

भगवान् संकर्षण ने निवृत्तिपरायण सनत्कुमारजी को यह भागवत सुनाया तथा-ऐसा प्रसिद्ध है। सनत्कुमारजी ने फिर इसे परमव्रतशील सांख्यायन मुनि को, उनके प्रश्न करने पर सुनाया। परमहंसों में प्रधान श्रीसांख्यायन जी को जब भगवान् की विभूतियों का वर्णन करने की इच्छा हुई, तब उन्होंने इसे अपने अनुगत शिष्य, हमारे गुरु श्रीपराशर जी को और बृहस्पति जी को सुनाया। इसके पश्चात् परम दयालु पराशर जी ने पुलस्त्य मुनि के कहने से वह आदि पुराण मुझसे कहा। वत्स! श्रद्धालु और सदा अनुगत देखकर अब वही पुराण मैं तुम्हें सुनाता हूँ।

सृष्टि के पूर्व यह सम्पूर्ण विश्व जल में डूबा हुआ था। उस समय एकमात्र श्रीनारायणदेव शेष शय्या पर पौढ़े हुए थे। वे अपनी ज्ञानशक्ति को अक्षुण्ण रखते हुए ही, योगनिद्रा का आश्रय ले, अपने नेत्र मूँदे हुए थे। सृष्टिकर्म से अवकाश लेकर आत्मानन्द में मग्न थे। उनमें किसी भी क्रिया का उन्मेष नहीं था। जिस प्रकार अग्नि अपनी दाहिका आदि शक्तियों को छिपाये हुए काष्ठ में व्याप्त रहता है, उसी प्रकार श्रीभगवान् ने सम्पूर्ण प्राणियों के सूक्ष्म शरीरों को अपने शरीर में लीन करके अपने आधारभूत उस जल में शयन किया, उन्हें सृष्टिकाल आने पर पुनः जगाने के लिये केवल कालशक्ति को जाग्रत् रखा। इस प्रकार अपनी स्वरूपभूता चिच्छिक्ति के साथ एक सहस्र चतुर्युगपर्यन्त जल में शयन करने के अनन्तर जब उन्हीं के द्वारा नियुक्त उनको कालशक्ति ने उन्हें जीवों के कर्मों की प्रवृत्ति के लिये प्रेरित किया, तब उन्होंने अपने शरीर में लीन हुए अनन्त लोक देखे। जिस समय भगवान् की दृष्टि अपने में निहित लिंग शरीरादि सूक्ष्म तत्त्व पर पड़ी, तब वह कालाश्रित रजोगुण से क्षुभित होकर सृष्टि रचना के निमित्त उनके नाभि देश से बाहर निकला।


साभार krishnakosh.org

श्रीमद्भागवत महापुराण: तृतीय स्कन्ध: सप्तम अध्यायः श्लोक 34-42 का हिन्दी अनुवाद


(लगातार-सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत पुराण)
श्रीमद्भागवत महापुराण:
तृतीय स्कन्ध: सप्तम अध्यायः श्लोक 34-42 का हिन्दी अनुवाद

दान, तप तथा इष्ट और पूर्त कर्मों का क्या फल है?

प्रवास और आपत्ति के समय मनुष्य का क्या धर्म होता है? निष्पाप मैत्रेय जी! धर्म के मूल कारण श्रीजनार्दन भगवान् किस आचरण से सन्तुष्ट होते हैं और किन पर अनुग्रह करते हैं, यह वर्णन कीजिये। द्विजवर! दीनवत्सल गुरुजन अपने अनुगत शिष्यों और पुत्रों को बिना पूछे भी उनके हित की बात बलता दिया करते हैं। भगवन्! उन महदादि तत्त्वों का प्रलय कितने प्रकार का है? तथा जब भगवान् योगनिद्रा में शयन करते हैं, तब उनमें से कौन-कौन तत्त्व उनकी सेवा करते हैं और कौन उनमें लीन हो जाते हैं? जीव का तत्त्व, परमेश्वर का स्वरूप, उपनिषत्-प्रतिपादित ज्ञान तथा गुरु और शिष्य का पारस्परिक प्रयोजन क्या है? पवित्रात्मन् विद्वानों ने उस ज्ञान की प्राप्ति के क्या-क्या उपाय बतलाये हैं? क्योंकि मनुष्यों को ज्ञान, भक्ति अथवा वैराग्य की प्राप्ति अपने-आप तो हो नहीं सकती। ब्रह्मन्! माया-मोह के कारण मेरी विचार दृष्टि नष्ट हो गयी है। मैं अज्ञ हूँ, आप मेरे परम सुहृद् हैं; अतः श्रीहरि लीला का ज्ञान प्राप्त करने की इच्छा से मैंने जो प्रश्न किये हैं, उनका उत्तर मुझे दीजिये।

पुण्यमय मैत्रेय जी! भगवतत्त्व के उपदेश द्वारा जीव को जन्म-मृत्यु से छुड़ाकर उसे अभय कर देने में जो पुण्य होता है, समस्त वेदों के अध्ययन, यज्ञ, तपस्या और दानादि से होने वाला पुण्य उस पुण्य के सोलहवें अंश के बराबर भी नहीं हो सकता।

श्रीशुकदेव जी कहते हैं- राजन्! जब कुरुश्रेष्ठ विदुर जी ने मुनिवर मैत्रेय जी से इस प्रकार पुराण विषयक प्रश्न किये, तब भगवच्चर्या के लिये प्रेरित किये जाने के कारण वे बड़े प्रसन्न हुए और मुसकराकर उनसे कहने लगे।


साभार krishnakosh.org

श्रीमद्भागवत महापुराण: तृतीय स्कन्ध: सप्तम अध्यायः श्लोक 17-33 का हिन्दी अनुवाद


(लगातार-सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत पुराण
श्रीमद्भागवत महापुराण:
तृतीय स्कन्ध: सप्तम अध्यायः श्लोक 17-33 का हिन्दी अनुवाद


इस संसार में दो ही प्रकार के लोग सुखी हैं-या तो जो अत्यन्त मूढ़ (अज्ञान-ग्रस्त) हैं या जो बुद्धि आदि से अतीत श्रीभगवान् को प्राप्त कर चुके हैं। बीच की श्रेणी के संशयापन्न लोग तो दुःख ही भोगते रहते हैं। भगवन्! आपकी कृपा से मुझे यह निश्चय हो गया कि ये अनात्म पदार्थ वस्तुतः हैं नहीं, केवल प्रतीत ही होते हैं। अब मैं आपके चरणों की सेवा के प्रभाव से उस प्रतीति को भी हटा दूँगा। इन श्रीचरणों की सेवा से नित्यसिद्ध भगवान् श्रीमधुसूदन के चरणकमलों में उत्कट प्रेम और आनन्द की बुद्धि होती है, जो आवागमन की यन्त्रणा का नाश कर देती हैं। महात्मा लोग भगवत्प्राप्ति के साक्षात् मार्ग ही होते हैं, उनके यहाँ सर्वदा देवदेव श्रीहरि के गुणों का गान होता रहता है; अल्पपुण्य पुरुष को उनकी सेवा का अवसर मिलना अत्यन्त कठिन है।

भगवन्! आपने कहा कि सृष्टि के प्रारम्भ में भगवान् ने क्रमशः महदादि तत्त्व और उनके विकारों को रचकर फिर उनके अंशों से विराट् को उत्पन्न किया और इसके पश्चात् वे स्वयं उसमें प्रविष्ट हो गये। उन विराट् के हजारों पैर, जाँघें और बाँहें हैं; उन्हीं को वेद आदि पुरुष कहते हैं; उन्हीं में ये सब लोक विस्तृत रूप से स्थित हैं। उन्हीं में इन्द्रिय, विषय और इन्द्रियाभिमानी देवताओं के सहित दस प्रकार के प्राणों का-जो इन्द्रियबल, मनोबल और शारीरिक बलरूप से तीन प्रकार के हैं-आपने वर्णन किया है और उन्हीं से ब्राह्मणादि वर्ण भी उत्पन्न हुए हैं। अब आप मुझे उनकी ब्रह्मादि विभूतियों का वर्णन सुनाइये-जिनसे पुत्र, पौत्र, नाती और कुटुम्बियों के सहित तरह-तरह की प्रजा उत्पन्न हुई और उससे यह सारा ब्रह्माण्ड भर गया। वह विराट् ब्रह्मादि प्रजापतियों का भी प्रभु है। उसने किन-किन प्रजापतियों को उत्पन्न किया तथा सर्ग, अनुसर्ग और मन्वन्तरों के अधिपति मनुओं की भी किस क्रम से रचना की?

मैत्रेय जी! उन मनुओं के वंश और वंशधर राजाओं के चरित्रों का, पृथ्वी के ऊपर और नीचे के लोकों तथा भूर्लोक के विस्तार और स्थिति का भी वर्णन कीजिये तथा यह भी बतलाइये कि तिर्यक्, मनुष्य, देवता, सरीसृप (सर्पादि रेंगने वाले जन्तु) और पक्षी तथा जरायुज, स्वेदज, अण्डज और उद्भिज्ज- ये चार प्रकार के प्राणी किस प्रकार उत्पन्न हुए। श्रीहरि ने सृष्टि करते समय जगत् की उत्पत्ति, स्थिति और संहार के लिये अपने गुणावतार ब्रह्मा, विष्णु और महादेवरूप से जो कल्याणकारी लीलाएँ कीं, उनका भी वर्णन कीजिये। वेष, आचरण और स्वभाव के अनुसार वर्णाश्रम का विभाग, ऋषियों के जन्म-कर्मादि, वेदों का विभाग, यज्ञों का विस्तार, योग का मार्ग, ज्ञानमार्ग और उसका साधन सांख्यमार्ग तथा भगवान् के कहे हुए नारद पांचरात्र आदि तन्त्रशास्त्र, विभिन्न पाखण्ड मार्गों के प्रचार से होने वाली विषमता, नीच वर्ण के पुरुष से उच्च वर्ण की स्त्री में होने वाली सन्तानों के प्रकार तथा भिन्न-भिन्न गुण और कर्मों के कारण जीव की जैसी और जितनी गतियाँ होती हैं, वे सब हैं सुनाइये।

ब्रह्मन्! धर्म, अर्थ काम और मोक्ष की प्राप्ति के परस्पर अविरोधी साधनों का, वाणिज्य, दण्डनीति और शास्त्र श्रवण की विधियों का, श्राद्ध की विधि का, पितृगुणों की सृष्टि का तथा कालचक्र में ग्रह, नक्षत्र और तारागण की स्थिति का भी अलग-अलग वर्णन कीजिये।



साभार krishnakosh.org

सुख-दु:खों के ऊपर स्वामित्व.


सुख-दु:खों के ऊपर स्वामित्व.
 तुम सुख, दु:ख की अधीनता छोड़ उनके ऊपर अपना स्वामित्व स्थापन करो और उसमें जो कुछ उत्तम मिले, उसे लेकर अपने जीवन को नित्य नया रसयुक्त बनाओ। जीवन को उन्नत करना ही मनुष्य का कर्तव्य है; इसलिए तुम भी उचित समझो सो मार्ग ग्रहण कर इस कर्तव्य को सिद्ध करो।

प्रतिकूलताओं से डरोगे नहीं और अनुकूलता ही केा सर्वस्व मान कर बैठे रहोगे तो सब कुछ कर सकोगे। जो मिले उसी से शिक्षा ग्रहण कर जीवन को उच्च बनाओ। यह जीवन ज्यों- ज्यों उच्च बनेगा, त्यों- त्यों आज जो तुम्हें प्रतिकूल प्रतीत होता है; वह सब अनुकूल दिखने लगेगा और अनुकूलता आ जाने पर दु:ख मात्र की निवृत्ति हो जावेगी।


पं श्रीराम शर्मा आचार्य

मन दर्पण.


मन दर्पण.

मन तो बस दर्पण है। यदि वह स्वच्छ है, शुद्ध है, तो इससे वह असीम प्रतिद्वंद्वित हो सकता है। वह प्रतिबिंब असीम न होगा, पर झलक जरूर होगी उसकी, लेकिन यही झलक बाद में द्वार बन जाती है। प्रतिबिंब पीछे छूट जाता है और अनन्त में प्रवेश मिल जाता है। बाहरी तौर पर यह बात थोड़ी अटपटी लग सकती है। भला कैसे इतने छोटे से मन से कोई सम्पर्क बन सकता है, शाश्वत के साथ अनन्त के साथ। इस सच्चाई को कुछ यो समझा जा सकता है, जैसे कि खिड़की की छोटी सी चोखट से असीम आकाश का दिखना। भले ही खिड़की से सारा आकाश नहीं दिखाई पड़ता हों, लेकिन जो दिखाई देता है, वह अकाश ही है।

कुछ इसी तरह स्वच्छ मन, शुद्ध मन से परमात्मा की झलक मिलती है। दरअसल अपना मन भी गहरे में परमात्मा का ही हिस्सा है। मेरा तेरा के जटिल भाव ने इसे छोटा बना दिया है। परमात्मा के असीम व अनन्त स्वरूप के बारे मे उपनिषदों में बहुत कुछ विरोधाभासि बातें कही गई है। इनमें से एक बात है कि अन्श हमेशा पूर्ण के बराबर होता है; क्योंकि अनन्त को बांटा नहीं जा सकता। ठीक वैसे ही जैसे कि आकाश का विभाजन सम्भव नहीं है। कहने वाले भले ही कहते हैं कि मेरे घर के ऊपर का आकाश मेरा, तुम्हारे घर के ऊपर का आकाश तुम्हारा।

इस प्रकार के कथनों के बावजूद आकाश अविभाजित अनन्त विस्तार है। इसका न कोई आरम्भ है और न कोई अन्त। न यह मेरा है, न तेरा, न तो भारतीय है, न ही चीनी या पाकिस्तानी। बस कुछ ऐसी ही बात मन के साथ है। मन के साथ जुड़ी मेरी तुम्हारी मनोदशा भ्रान्ति है। इस भ्रान्ति के कारण ही मन सीमित हो गया है। सीमित होने की धारणा एक भ्रम है, इसे ही तो मिटाना है।

अध्यात्म की समूची साधना इसीलिए है। इसके पहले चरण में मन को स्वच्छ शुद्ध करना है। दूसरे चरण में मनोदशा के ढाचे को गिरा देना है। इसके गिरते ही बस परमात्मा की पूर्णता बचती है। तर्क भले ही कहता रहे, कोई अन्श पूर्ण के बराबर कैसे हो सकता है। लेकिन ईशावस्य उपनिषद के ऋषि का अनुभव कहता है कि पूर्ण से पूर्ण निकालने के बाद भी पूर्ण ही बचता है और पूर्ण में पूर्ण डालने पर भी पूर्ण बनता है। स्वच्छ व शुद्ध मन से जो अनुभव किया जाता है, वह परमात्मा की पूर्णता का अनुभव ही है।

(अखन्ड ज्योति जुलाई २०१४)

श्रीमद्भागवत महापुराण: तृतीय स्कन्ध: सप्तम अध्यायः श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद


 (लगातार-सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत पुराण)
श्रीमद्भागवत महापुराण:
तृतीय स्कन्ध: सप्तम अध्यायः श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद

विदुर जी के प्रश्न.

श्रीशुकदेव जी कहते हैं- मैत्रेय जी का यह भाषण सुनकर बुद्धिमान् व्यासनन्दन विदुर जी ने उन्हें अपनी वाणी से प्रसन्न करते हुए कहा। विदुर जी ने पूछा- ब्रह्मन! भगवान् तो शुद्ध बोधस्वरूप, निर्विकार और निर्गुण हैं; उनके साथ लीला से भी गुण और क्रिया का सम्बन्ध कैसे हो सकता। बालक में तो कामना और दूसरों के साथ खेलने की इच्छा रहती है, इसी से वह खेलने के लिये प्रयत्न करता है; किन्तु भगवान् तो स्वतः नित्यतृप्त-पूर्णकाम और सर्वदा असंग हैं, वे क्रीड़ा के लिये भी क्यों संकल्प करें। भगवान् ने अपनी गुणमयी माया से जगत् की रचना की है, उसी से वे इसका पालन करते हैं और फिर उसी से संहार भी करेंगे। जिनके ज्ञान का देश, काल अथवा अवस्था से, अपने-आप या किसी दूसरे निमित्त से भी कभी लोप नहीं होता, उनका माया के साथ किस प्रकार संयोग हो सकता है। एकमात्र ये भगवान् ही समस्त क्षेत्रों में उनके साक्षीरूप से स्थित हैं, फिर इन्हें दुर्भाग्य या किसी प्रकार के कर्मजनित क्लेश की प्राप्ति कैसे हो सकती है। भगवन्! इस अज्ञान संकट में पड़कर मेरा मन बड़ा खिन्न हो रहा है, आप मेरे मन के इस महान् मोह को कृपा करके दूर कीजिये।

श्रीशुकदेव जी कहते हैं- तत्त्वजिज्ञासु विदुर जी की यह प्रेरणा प्राप्त कर अहंकारहीन श्रीमैत्रेय जी ने भगवान् का स्मरण करते हुए मुसकराते हुए कहा।

श्रीमैत्रेय जी ने कहा- जो आत्मा सबका स्वामी और सर्वथा मुक्तस्वरूप है, वही दीनता और बन्धन को प्राप्त हो-यह बात युक्तिविरुद्ध अवश्य है; किन्तु वस्तुतः यही तो भगवान् की माया है। जिस प्रकार स्वप्न देखने वाले पुरुष को अपना सिर कटना आदि व्यापार न होने पर भी अज्ञान के कारण सत्यवत् भासते हैं, उसी प्रकार इस जीव को बन्धनादि न होते हुए भी अज्ञानवश भास रहे हैं। यदि यह कहा जाये कि फिर ईश्वर में इनकी प्रतीति क्यों नहीं होती, तो इसका उत्तर यह है कि जिस प्रकार जल में होने वाली कम्प आदि क्रिया जल में दीखने वाले चन्द्रमा के प्रतिबिम्ब में न होने पर भी भासती है, आकाशस्थ चन्द्रमा में नहीं, उसी प्रकार देहाभिमानी जीव में ही देह के मिथ्या धर्मों की प्रतीति होती है परमात्मा में नहीं। निष्कामभाव से धर्मों का आचरण करने पर भगवत्कृपा से प्राप्त हुए भक्तियोग के द्वारा यह प्रतीति धीरे-धीरे निवृत्त हो जाती है। जिस समय समस्त इन्द्रियाँ विषयों से हटकर साक्षी परमात्मा श्रीहरि में निश्चल भाव से स्थित हो जाती हैं, उस समय गाढ़ निद्रा में सोये हुए मनुष्य के समान जीव के राग-द्वेषादि सारे क्लेश सर्वथा नष्ट हो जाते हैं। श्रीकृष्ण के गुणों का वर्णन एवं श्रवण अशेष दुःखराशि को शान्त कर देता है; फिर यदि हमारे हृदय में उनके चरणकमल की रज के सेवन का प्रेम जग पड़े, तब तो कहना ही क्या है?

विदुर जी ने कहा- भगवन्! आपके युक्तियुक्त वचनों की तलवार से मेरे सन्देह छिन्न-भिन्न हो गये हैं। अब मेरा चित्त भगवान् की स्वतन्त्रता और जीव की परतन्त्रता-दोनों ही विषयों में खूब प्रवेश कर रहा है।

विद्वान्! आपने यह बात बहुत ठीक कही कि जीव को जो क्लेशादि की प्रतीति हो रही है, उसका आधार केवल भगवान् की माया ही है। वह क्लेश मिथ्या एवं निर्मूल ही है; क्योंकि इस विश्व का मूल कारण ही माया के अतिरिक्त और कुछ नहीं है।




साभार krishnakosh.org

बल से अधिक बुध्दी का उपयोग.


बल से अधिक बुध्दी का उपयोग.

बहुत पुरानी बात है। एक राज्य में बहुत बड़ा तलवारबाज रहता था। उसकी प्रतिभा का हर कोई मुरीद था। वो अपनी तलवारबाजी से लोगों को प्रभावित कर देता था। उसके प्रतिभा की चर्चा दूर दूर तक होती थी। ये चर्चाएं राज्य के राजा के कानों तक पहुंची। उन्होंने फैसला किया कि एक बार इस तलवार बाज से मिलेगें और उसका हुनर स्वयं अपनी आखों से देखेंगे। राजा ने जब तलवारबाज को देखा तो वो हवा में कलाबाजियां कर रहा था।

राजा भी उस तलवारबाज के मुरीद हो गए। उन्होंने तलवारबाज की कलाकारी से खुश होकर, उसे राज्य का सेनापति बना दिया। सेनापति ने अपना कर्तव्य बखूबी निभाया और कई लड़ाईंयां लड़ी। उसके सेनापति रहते हुए राजा को कभी हार का सामना नहीं करना पड़ा, लेकिन समय किसका इंतजार करता है। धीरे धीरे सेनापति बूढ़ा होने लगा। एक दिन तलवारबाज को एहसास हुआ कि अब मैं बूढ़ा होने लगा हूं, मुझे अपनी इस कला को दूसरों को भी सिखाना चाहिए, जिससे इस राज्य को एक अच्छा सेनापति मिल सके।

सेनापति ने ये बात राजा को बताई और उन्हे भी ये बात सही लगी।

राजा ने इस बात की घोषणा पूरे राज्य में करवा दी। दूसरे ही दिन सेनापति के पास लोग तलवारबाजी सीखने के लिए आने लगे। ऐसा करते करते समय बीतने लगा। सीखने वाले में से एक युवक ऐसा था, जो बहुत तेजी से तलवारबाजी सीखने लगा।

राजा अपनी नजर उस पर बनाए हुआ था। उसकी कला निखरती जा रही थी। एक दिन वो राजा के पास गया औऱ कहा- राजा जी, मैं सेनापति से भी अच्छी तलवार चलाना सीख गया हूं, इसलिए आप मुझे सेनापति बना दीजिए। राजा ने कहा- तुममें काबिलियत है, इसे साबित करना होगा।

तुमने जिससे ये तलवारबाजी सीखी है, उसे हराना होगा। इसके साथ ही 7 दिन बाद दोनों के मुकाबले की तारीख पक्की कर दी गई। युवक के मन में सवाल उठने लगा कि सेनापति मुझसे जीत ना जाए। इसी डर से उसने सेनापति का पीछा करना शुरु कर दिया।

वह जानना चाहता था कि मेरे गुरु ऐसा क्या काम करते हैं, जिससे वे जीत सकते हैं। इसी से वह रोज पीछा करने लगा।

युवक अपने गुरु का पीछा कर रहा था। उसने देखा कि सेनापति लुहार के पास गया औऱ उन्होंने 15 फीट लंबी म्यान बनवाई।

युवक ने सोचा कि इतनी लंबी तलवार के साथ सेनापति मुझे आसानी से हरा देंगे। उसने चालाकी दिखाते हुए 16 फीट लंबी म्यान बनवा ली। उसने सोचा कि अब मैं आराम से ये प्रतियोगिता जीत जाउंगा। जिस दिन मुकाबला शुरु हुआ, युवक के मन में जीत के ख्याल पल रहे थे,जब उसके गुरु सामने आए, तो उसने देखा कि सेनापति के हाथ में साधारण तलवार हैं।

उसने अपनी 16 फीट लंबी तलवार म्यान से निकालने की कोशिश की, उससे पहले ही सेनापति ने अपनी तलवार उसकी गर्दन पर रख दी। ऐसे में एक ही पल मे सेनापति यह मुकाबला जीत गए। सेनापति ने कहा- मैंने तुमपर मानसिक दबाव बनान के लिए 15 फीट लंबी म्यान बनवाई थी, लेकिन तलवार नहीं बनवाई। सेनापति ने कहा- कभी भी अपनी कला पर घमंड नहीं करना चाहिए।

जब अपनी कला पर घमंड हो जाता है, तब हम ऐसा काम कर देते हैं जिससे हमें पछताना पड़ता है। दूसरी बात हमेशा यह ध्यान में रखना की लड़ाई सिर्फ ताकत से ही नहीं बल्कि दिमाग से लड़ी जाती है। कभी किसी को हराना हो तो बल का प्रयोग के पूर्व बुद्धि का प्रयोग करना चाहिए।

बोलिए कम, करिए अधिक.


बोलिए कम, करिए अधिक.

 ‘हमारी कोई सुनता नहीं, कहते कहते थक गए, पर सुनने वाले कोई सुनते नहीं, अर्थात् उन पर कुछ असर ही नहीं होता’- मेरी राय में इसमें सुनने वाले से अधिक दोष कहने वाले का है। कहने वाले करना नहीं चाहते। वे अपनी ओर देखें। आत्म निरीक्षण कार्य की शून्यता की साक्षी दे देगा। वचन की सफलता का सारा दारोमदार कर्मशीलता में है।

आप चाहे बोले नहीं, थोड़ा ही बोलें पर कार्य में जुट जाइये। आप थोड़े ही दिनों में देखेंगे कि लोग बिना कहे आपकी ओर खिंचे आ रहे हैं। अत: कहिए कम, करिए अधिक। क्योंकि बोलने का प्रभाव तो क्षणिक होगा और कार्य का प्रभाव स्थाई होता है। 



(पं श्रीराम शर्मा आचार्य)

अपने ऐसे होते हैं.


अपने ऐसे होते हैं.

"रेनू की शादी हुये, पाँच साल हो गयें थें, उसके पति थोड़ा कम बोलतें थे पर बड़े सुशील और संस्कारी थें, माता-पिता जैसे सास, ससुर और एक छोटी सी नंनद, और एक नन्ही सी परी, भरा पूरा परिवार था, दिन खुशी से बीत रहें थे।

आज रेनू बीते दिनों को लेकर बैठी थी, कैसे उसके पिताजी ने बिना माँगे 30 लाख रूपयें अपने दामाद के नाम कर दियें, जिससे उसकी बेटी खुश रहे, कैसे उसके माता-पिता ने बड़ी धूमधाम से उसकी शादी की, बहुत ही आनंदमय तरीके से रेनू का विवाह हुआ था।

खैर बात ये नही थी, बात तो ये थी, रेनू के बड़े भाई ने, अपने माता-पिता को घर से निकाल दिया था, क्यूकि पैसे तो उनके पास बचे नही थें, जितने थे, उन्होने रेनू की शादी में लगा दियें थे, फिर भला बच्चे माँ-बाप को क्यों रखने लगे। रेनू के माता पिता एक मंदिर मे रूके थे, रेनू आज उनसे मिल के आयी थी, और बड़ी उदास रहने लगी थी, आखिर लड़की थी, अपने माता-पिता के लिए कैसे दुख नही होती, कितने नाजों से पाला था, उसके पिताजी ने बिल्कुल अपनी गुडिया बनाकर रखा था, आज वही माता-पिता मंदिर के किसी कोने में भूखे प्यासे पड़ें थे।

रेनू अपने पति से बात करना चाहती थी, वो अपने माता-पिता को घर ले आए, पर वहाँ हिम्मत नही कर पा रही थी, क्यूकि उनके पति कम बोलते थे, अधिकतर चुप रहते थे, जैसे तैसे रात हुई। रेनू के पति और पूरा परिवार खाने के टेबल पर बैठा था, रेनू की ऑखे सहमी थी, उसने डरते हुये अपने पति से कहा, सुनिये जी, भाईया भाभी ने मम्मी-पापा को घर से निकाल दिया हैं, वो मंदिर में पड़े है, आप कहें तो उनको घर ले आऊ, रेनू के पति ने कुछ नही कहा, और खाना खत्म कर के अपने कमरे में चला गया। सब लोग अभी तक खाना खा रहे थे, पर रेनू के मुख से एक निवाला भी नही उतरा था, उसे बस यही चिंता सता रही थी, अब क्या होगा। इन्होने भी कुछ नही कहा, रेनू रूहासी सी ऑख लिए सबको खाना परोस रही थी।

थोड़ी देर बाद रेनू के पति कमरे से बाहर आए, और रेनू के हाथ में नोटो का बंडल देते हुये कहा, इससे मम्मी, डैडी के लिए एक घर खरीद दो, और उनसे कहना, वो किसी बात की फ्रिक ना करें, मैं हूं। रेनू ने बात काटते हुये कहा, आपके पास इतने पैसे कहा से आए जी?

रेनू के पति ने कहा, ये तुम्हारे पापा के दिये गये ही पैसे है। मेरे नही थे, इसलिए मैंने हाथ तक नही लगाए। वैसे भी उन्होने ये पैसे मुझे जबरदस्ती दिये थे, शायद उनको पता था, एक दिन ऐसा आयेगा। रेनू के सास-ससुर अपने बेटे को गर्व भरी नजरो से देखने लगें और उनके बेटे ने भी उनसे कहा, अम्मा जी बाबूजी सब ठीक है ना?

उसके अम्मा बाबूजी ने कहा बड़ा नेक ख्याल है बेटा, हम तुम्हें बचपन से जानते हैं, तुझे पता है, अगर बहू अपने माता-पिता को घर ले आयी, तो उनके माता पिता शर्म से सर नही उठा पायेंगे कि बेटी के घर में रह रहे, और जी नही पाएगें, इसलिए तुमने अलग घर दिलाने का फैसला किया हैं, और रही बात इस दहेज के पैसे की, तो हमें कभी इसकी जरूरत नही पड़ी, क्यूकि तुमने कभी हमें किसी चीज की कमी होने नही दी, खुश रहो बेटा कहकर, रेनू और उसके पति को छोड़ सब सोने चले गयें।

रेनू के पति ने फिर कहा, अगर और तुम्हें पैसों की जरूरत हो तो मुझे बताना और अपने माता-पिता को बिल्कुल मत बताना। घर खरीदने को पैसे कहा से आए, कुछ भी बहाना कर देना, वरना वो अपने को दिल ही दिल में कोसते रहेंगें, चलो अच्छा अब मैं सोने जा रहा, मुझे सुबह दफ्तर जाना हैं। इतना कह रेनू का पति कमरे में चला गया और रेनू खुद को कोसने लगी, मन ही मन ना जाने उसने क्या क्या सोच लिया था। मेरे पति ने दहेज के पैसे लिए है, क्या वो मदद नही करेंगे, करना ही पड़ेगा, वरना मैं भी उनके माँ-बाप की सेवा नही करूगी, रेनू सब समझ चुकी थी, कि उसके पति कम बोलते हैं, पर उससे ज्यादा कही समझतें हैं।

रेनू उठी और अपने पति के पास गयी, माफी मांगने, उसने अपने पति से सब बता दिया, उसके पति ने कहा कोई बात नही-ऐसा होता हैं। तुम्हारे जगह मैं भी होता तो यही सोचता। रेनू की खुशी का कोई ठिकाना नही था, एक तरफ उसके माँ-बाप की परेशानी दूर, दूसरी तरफ उसके पति ने माफ कर दिया।

रेनू ने खुश और शरमाते हुये अपने पति से कहा, मैं आपको गले लगा लूं, उसके पति ने हट्टहास करते हुये कहा, मुझे अपने कपड़े गंदे नही करने, दोनो हंसने लगें।
और शायद रेनू को अपने कम बोलने वालें पति का ज्यादा प्यार समझ आ गया

माँ-लक्ष्मी की मूर्ति.


माँ-लक्ष्मी की मूर्ति.

हिन्दू धर्म में धन पाने के लिए बताया गया है कि कर्म के साथ माँ लक्ष्मी की पूजा भी करनी चाहिए। माँ लक्ष्मी को धन की देवी माना जाता है और ऐसा कहा जाता है कि जो भी व्यक्ति लक्ष्मी जी को प्रसन्न कर ले, उसे पूरे जीवन धन के लिए कभी तरसना नही पड़ता है। उसके जीवन में हमेशा सुख समृद्धि बनी रहती है। अक्सर ही ऐसा देखा जाता है कि लोग लक्ष्मी जी की कृपा पाने के लिए तरह-तरह के उपाय प्रयास करते हैं।

प्रत्येक घर में देवी-देवताओ की मुर्तिया रहती हैं, जिनमें माँ-लक्ष्मी की प्रतिमा या चित्र साथ होता हैं, जिसका पूजन गृह के सदस्य करते हैं।

१.देवी लक्ष्मी माँ की खड़ी अवस्था वाली प्रतिमा रख देते हैं, यह उचित नहीं हैं।

२.धन की देवी माँ-लक्ष्मी का स्वभाव चंचल है; इसीलिए खड़ी मूर्ति पर ऐसा समझा गया हैं कि उस स्थान पर ज्यादा देर तक नहीं टिकती हैं। इसलिए हमेशा इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि माँ लक्ष्मी की बैठी हुई प्रतिमा ही हो।

३.माँ लक्ष्मी का वाहन उल्लू है और उसका भी स्वभाव चंचल होता है। लक्ष्मीजी की प्रतिमा या चित्र, उल्लू सहित नहीं रखना चाहिए। ऐसा करने से माँ की कृपा ज्यादा समय तक नहीं रह पाती है। उल्लू विहीन बैठी हुई प्रतिमा या चित्र होना चाहिए।

३.माँ लक्ष्मी की मूर्ति भगवान गणेश के साथ दिखाई पड़ती है; किन्तु स्थाई सम्वृध्दी के लिए भगवान् विष्णु के साथ लक्ष्मीजी की प्रतिमा या मूर्ति, घर में रखकर पूजन करना चाहिए; क्योकि लक्ष्मीजी भगवान विष्णु की पत्नी हैं। विष्णुजी साथ न रहने से भी लक्ष्मीजी स्थाई वास नहीं करती।

४.भगवान गणेश और माँ लक्ष्मी की साथ वाली मूर्ति को दीपावली वाले दिन में रख सकते हैं, क्योंकि इस दिन माँ लक्ष्मी और श्री गणेशजी का पूजन होता है। इसके अतिरिक्त अन्य दिनों में माँ की प्रतिमा को विष्णु भगवान के साथ ही रख कर ही पूजा करनी चाहिए।

श्रीमद्भागवत महापुराण: तृतीय स्कन्ध: षष्ठ अध्यायः श्लोक 18-34 का हिन्दी अनुवाद


(लगातार-सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत पुराण)
श्रीमद्भागवत महापुराण:
तृतीय स्कन्ध: षष्ठ अध्यायः श्लोक 18-34 का हिन्दी अनुवाद


विदुर जी! यह विराट् पुरुष काल, कर्म और स्वभाव शक्ति से युक्त भगवान् की योगमाया के प्रभाव को प्रकट करने वाला है। इसके स्वरूप का पूरा-पूरा वर्णन करने का कौन साहस कर सकता है। तथापि प्यारे विदुर जी! अन्य व्यावहारिक चर्चाओं से अपवित्र हुई अपनी वाणी को पवित्र करने के लिये, जैसी मेरी बुद्धि है और जैसा मैंने गुरुमुख से सुना है वैसा, श्रीहरि का सुयश वर्णन करता हूँ।

महापुरुषों का मत है कि पुण्यश्लोकशिरोमणि श्रीहरि के गुणों का गान करना ही मनुष्यों की वाणी का तथा विद्वानों के मुख से भगवत्कथामृत का पान करना ही उनके कानों का सबसे बड़ा लाभ है।

वत्स! हम ही नहीं, आदिकवि श्रीब्रह्मा जी ने एक हजार दिव्य वर्षों तक अपनी योग परिपक्व बुद्धि से विचार किया; तो भी क्या वे भगवान् की अमित महिमा का पार पा सके? अतः भगवान् की माया बड़े-बड़े मायावियों को भी मोहित कर देने वाली है। उसकी चक्कर में डालने वाली चाल अनन्त है; अतएव स्वयं भगवान् भी उसकी थाह नहीं लगा सकते, फिर दूसरों की तो बात ही क्या है। जहाँ न पहुँचकर मन के सहित वाणी भी लौट आती है तथा जिनका पार पाने में अहंकार के अभिमानी रुद्र तथा अन्य इन्द्रियाधिष्ठाता देवता भी समर्थ नहीं हैं, उन श्रीभगवान् को हम नमस्कार करते हैं।




साभार krishnakosh.org

पौरूष की पुकार.


पौरूष की पुकार.

साहस ने हमें पुकारा है। समय ने, युग ने, कर्तव्य ने,,उत्तरदायित्व ने, विवेक ने, पौरूष ने हमें पुकारा है। यह पुकार अनसुनी न की जा सकेगी। आत्म निर्माण के लिए, नव निर्माण के लिए हम काँटों से भरे रास्तों का स्वागत करेंगे और आगे बढ़ेंगे। लोग क्या कहते हैं और क्या करते हैं, इसकी चिंता कौन करे। अपनी आत्मा ही मार्गदर्शन के लिए पर्याप्त है।

लोग अंधेरे में भटकते है, भटकते रहें। हम अपने विवेक के प्रकाश का अवलंबन कर स्वत: आगे बढ़ेंगे। कौन विरोध करता है, कौन समर्थन? इसकी गणना कौन करे। अपनी अंतरात्मा, अपना साहस अपने साथ है और वही करेंगे, जो करना, अपने जैसे सजग व्यक्तियों के लिए उचित और उपयुक्त है।

(पं श्रीराम शर्मा आचार्य)

समस्या का समाधान, विवेक पर.


समस्या का समाधान, विवेक पर.


पहले के समय में बच्चे आश्रम में जाकर अपने गुरु द्वारा शिक्षा प्राप्त करते थे। उनके लिए गुरु का कहा वचन ही सबकुछ हुआ करता था। ऐसे ही एक आश्रम में कुछ शिष्य रहा करते थे, जिन्हें गुरु कोई ना कोई ज्ञान की बाते सिखाते रहते थे। एक बार गुरु ने अपने शिष्यों को सिखाया कि कण कण में भगवान हैं। उन्हें सिर्फ मंदिरों में मत ढूंढों, वो तो हर मनुष्य, हर पत्थर, हर मिट्टी सभी चीजों में वास करते हैं। ऐसी कोई जगह नहीं, जहां भगवान ना हों।

गुरु ने सिखाया की हमें हर किसी में भगवान देखना चाहिए साथ ही ये भी याद रखना चाहिए की हमारे अंदर भी भगवान का वास है।सिर्फ मंदिर में भगवान की मूर्ति औऱ आकाश में उन्हें देखने से भगवान नहीं मान लेना चाहिए। भगवान तो प्रत्येक जीव में हैं और सभी में वास करते हैं। उनकी ये बातें शिष्यों ने मन में गांठ बांध ली थीं। एक बार उनका एक शिष्य़ बाजार जा रहा था।

तभी उसने देखा की सामने भगदड़ मची है और एक हाथी दौड़ता हुआ, उसकी तरफ आ रहा है। हाथी पर सवार महावत लगातार कह रहा था कि हट जाओ, हट जाओ, हाथी पागल हो गया है, वो सबको मार डालेगा, रास्ते से हट जाओ। भीड़ भी अपनी जान बचाने के लिए इधर उधर भागने लगीं, लेकिन उनका शिष्य वहीं डटा रहा।

शिष्य को याद आया कि उसके गुरु ने सिखाया था कि कण कण में भगवान वास करते हैं, तो इस हाथी में भी भगवान हैं और वो उसे कुछ नहीं करेगा।

जब हाथी पास आ गया तो महावत ने कहा- भाई हट जा, तुझे मरना है क्या, लेकिन शिष्य अपने मन की बात सुनकर भी उस स्थान पर खड़ा रहा। उसे यकीन था कि उसे कुछ नहीं होगा।

इसके बाद वही हुआ जो होना था। मदमस्त हाथी ने सूड़ से शिष्य को उठाकर दूसरी तरफ फेंक दिया औऱ आगे बढ़ गया।

उसे बहुत भयंकर दर्द होने लगा। उसे सबसे ज्यादा दुख, इसका था कि भगवान ने भगवान को क्यों मारा और गुरुजी की बात झूठ कैसे हो गई। उसके सहपाठी वहीं मौजूद थे, तुरंत ही उसे उठाकर आश्रम ले गए। वहां गुरुजी ने उसे लेप लगाया।

शिष्य ने गुरु से कहा कि आप तो कहते थे कि प्रत्येक वस्तु में भगवान है, हर किसी में भगवान है। उस हाथी में भी अगर भगवान होता तो वो मुझे क्यों मारता। उसके अंदर के भगवान ने मुझे क्यों नहीं देखा औऱ क्यों इस तरह घायल कर दिया। इस पर गुरु ने कहा पुत्र भगवान तो उस महावत के अंदर में भी था, जो तुम्हें रास्ते से हटने के लिए कह रहा था, सुननी तो तुम्हें उसकी बात भी चाहिए थीं।

इसके बाद शिष्य को समझ आ गया कि भगवान तो सबमें हैं, साथ ही उन्होंने सबको बुद्धि भी अलग दी है। जब हमें पता है कि रास्ते से हट जाने से ही हमारा भला होगा तो जानबूझकर हमें हाथी से टक्कर नहीं लेनी चाहिए। हमें अपनी समस्याओं के लिए स्वयं की बुद्धि का इस्तेमाल करना चाहिए और ईश्वर या किसी अन्य के भरोसे नहीं रहना चाहिए।

गुरु गोविन्दसिंह के बच्चे.


गुरु गोविन्दसिंह के बच्चे.

गुरुगोविन्दसिंह ने अपने १६ वर्षीय बड़े पुत्र अजीतसिंह को आज्ञा दी कि 'तलवार लो और युद्ध में जाओ। पिता की आज्ञा पाकर अजीत सिंह युद्ध में कूद पड़ा और वहीं काम आया। इसके बाद गुरु ने अपने द्वितीय पुत्र जोझारसिंह को वही आज्ञा दी। पुत्र ने इतना ही कहा- 'पिताजी प्यास लगी है, पानी पी लूँ। ' इस पर पिता ने कहा-'तुम्हारे भाई के पास खून की नदियाँ बह रही हैं। वहीं प्यास बुझा लेना।' जोझारसिंह उसी समय युद्ध क्षेत्र को चल दिया और वह अपने भाई का बदला लेते हुए मारा गया।

इन बच्चों के बलिदान से सिखों में ऐसी आग पैदा हुई कि दुश्मनों को अपना खेमा उखाड़ते ही बना। आदर्शो से जुड़ने वाले नरपुंगव दैवी अनुग्रह के पात्र किस प्रकार बनते हैं, इसका प्रत्यक्ष उदाहरण आद्य शंकराचार्य, स्वामी दयानन्द, मीरा, स्वामी विवेकानन्द, स्वामी रामतीर्थ एवं तुलसीदास हैं। इन्होंने प्रतिकूलताओं से संघर्ष हेतु साहस दिखाया-यह दैवी अनुग्रह ही था, जो उनके अन्त: में प्रेरणा के रूप में उभरा एवं आदर्शवादी उत्कृष्टता से जुड़कर बदले में उन्हें यश-सम्मान भी दे गया।



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इंदिरा गाँधी खानदान को अनन्त विभूषित करपात्रीजी का श्राप.


इंदिरा गाँधी खानदान को
अनन्त विभूषित करपात्रीजी का श्राप.

क्या गांधी खानदान ब्राह्मणों के श्राप से शापित है? निश्चित रूप से आप सभी इस सवाल को सुनकर सोच में पड़ जायेंगे; लेकिन एक लेखक हैं-प्रेम शंकर मिश्रा, जिनका दावा है कि- हाँ नेहरू-गांधी खानदान को ब्राह्मणों का श्राप लगा हुआ है। इस श्राप के पीछे की उन्होंने जो कहानी बताई है, वह न सिर्फ चौकाने वाली है, बल्कि उनके दावों को पूरी तरह से सच भी साबित करती है। उन्होंने बताया था कि स्वामी करपात्री जी महाराज ने इंदिरा गांधी को श्राप दिया था कि उनके परिवार के सदस्यों की मृत्यु गोपाष्टमी के दिन होगी। इसके बाद संजय, इंदिरा तथा राजीव तीनों की मृत्यु, जिस दिन हुई, उस दिन गोपाष्टमी थी।

बताया जाता है कि इंदिरा गांधी के लिये उस समय चुनाव जीतना बहुत मुश्किल था। धर्म धुरंधर स्वामी करपात्री जी महाराज के आशीर्वाद से इंदिरा गांधी चुनाव जीती। इंदिरा ग़ांधी ने उनसे वादा किया था कि चुनाव जीतने के बाद गाय के सारे कत्ल खाने बंद हो जायेगें, जो अंग्रेजो के समय से चल रहे थे। लेकिन इंदिरा गांधी, मुस्लिम कट्टरपंथियों और कम्यूनिस्टों के दवाब में आकर अपने वादे से मुकर गयी। तत्कालीन प्रधानमंत्री इन्दिरा ने संतों इस मांग को ठुकरा दिया, जो सविधान में संशोधन करके देश में गौ वंश की हत्या पर पाबन्दी लगाने की मांग की गयी थी।

स्वामी करपात्री महाराज को लगा था कि इंदिरा गांधी मेरी बात अवश्य मानेंगी। उन्होंने एक दिन इंदिरा गांधी को याद दिलाया कि आपने वादा किया था कि संसद में गोहत्या पर आप कानून लाएंगी। लेकिन कई दिनों तक इंदिरा गांधी उनकी इस बात को टालती रहीं। ऐसे में करपात्रीजी को आंदोलन का रास्ता अपनाना पड़ा। 1965 में भारत के लाखों संतों ने गोहत्याबंदी और गोरक्षा पर कानून बनाने के लिए एक बहुत बड़ा आंदोलन चलाया गया था।

करपात्रीजी महाराज शंकराचार्य के समकक्ष देश के मान्य संत थे। करपात्री महाराज के शिष्यों के अनुसार जब उनका धैर्य चुक गया तो उन्होंने कहा कि गोरक्षा तो होनी ही चाहिए। इस पर तो कानून बनना ही चाहिए। लाखों साधु-संतों ने उनके साथ कहा कि यदि सरकार गोरक्षा का कानून पारित करने का कोई ठोस आश्वासन नहीं देती है, तो हम संसद को चारों ओर से घेर लेंगे। फिर न तो कोई अंदर जा पाएगा और न बाहर आ पाएगा।

संतों ने 7 नवंबर 1966 गोपाष्टमी को संसद भवन के सामने धरना शुरू कर दिया। इस धरने में मुख्य संतों के नाम इस प्रकार हैं- शंकराचार्य निरंजन देव तीर्थ, स्वामी करपात्रीजी महाराज और रामचन्द्र वीर। रामचन्द्र वीर तो आमरण अनशन पर बैठ गए थे। गोरक्षा महाभियान समिति के संचालक व सनातनी करपात्रीजी महाराज ने चांदनी चौक स्थित आर्य समाज मंदिर से अपना सत्याग्रह आरंभ किया। करपात्रीजी महाराज के नेतृत्व में जगन्नाथपुरी, ज्योतिष पीठ व द्वारका पीठ के शंकराचार्य, वल्लभ संप्रदाय की सातों पीठों के पीठाधिपति, रामानुज संप्रदाय, माधव संप्रदाय, रामानंदाचार्य, आर्य समाज, नाथ संप्रदाय, जैन, बौद्ध व सिख समाज के प्रतिनिधि, सिखों के निहंग व हजारों की संख्या में मौजूद नागा साधुओं को पं. लक्ष्मीनारायणजी चंदन तिलक लगाकर विदा कर रहे थे। लाल किला मैदान से आरंभ होकर नई सड़क व चावड़ी बाजार से होते हुए पटेल चौक के पास से संसद भवन पहुंचने के लिए इस विशाल जुलूस ने पैदल चलना आरंभ किया। रास्ते में अपने घरों से लोग फूलों की वर्षा कर रहे थे। हर गली फूलों का बिछौना बन गई थी।

कहते हैं कि नई दिल्ली का पूरा इलाका लोगों की भीड़ से भरा था। संसद गेट से लेकर चांदनी चौक तक सिर ही सिर दिखाई दे रहे थे। लाखों लोगों की भीड़ जुटी थी, जिसमें महिलायें भी शामिल थी। हजारों संत थे और हजारों गोरक्षक थे। सभी संसद की ओर कूच कर रहे थे। कहते हैं कि दोपहर 1 बजे जुलूस संसद भवन पर पहुंच गया और संत समाज के संबोधन का सिलसिला शुरू हुआ। करीब 3 बजे का समय होगा, जब आर्य समाज के स्वामी रामेश्वरानंद भाषण देने के लिए खड़े हुए। स्वामी रामेश्वरानंद ने कहा कि यह सरकार बहरी है। यह गोहत्या को रोकने के लिए कोई भी ठोस कदम नहीं उठाएगी। इसे झकझोरना होगा तथा संसद से सांसदों को खींचकर लाना होगा।

कहा जाता है कि जब इंदिरा गांधी को यह सूचना मिली तो उन्होंने निहत्थे करपात्री महाराज और संतों पर गोली चलाने के आदेश दे दिए। पुलिसकर्मी पहले से ही लाठी-बंदूक के साथ तैनात थे। पुलिस ने लाठी और अश्रुगैस चलाना शुरू कर दिया। इतने में अंदर से गोली चलाने का आदेश हुआ और पुलिस ने संतों और गोरक्षकों की भीड़ पर अंधाधुंध फायरिंग शुरू कर दी। संसद के सामने की पूरी सड़क खून से लाल हो गई। लोग मर रहे थे, एक-दूसरे के शरीर पर गिर रहे थे और पुलिस की गोलीबारी जारी थी। माना जाता है कि एक नहीं, उस गोलीकांड में सैकड़ों साधु और गोरक्षक मारे गए। दिल्ली में कर्फ्यू लगा दिया गया। संचार माध्यमों को सेंसर कर दिया गया और हजारों संतों को तिहाड़ की जेल में ठूंस दिया गया।

इस हत्याकांड से क्षुब्ध होकर तत्कालीन गृहमंत्री गुलजारीलाल नंदा ने अपना त्यागपत्र दे दिया और इस कांड के लिए खुद एवं सरकार को जिम्मेदार बताया। इधर, संत रामचन्द्र वीर अनशन पर डटे रहे, जो 166 दिनों के बाद समाप्त हुआ था, जब अनशन के दौरान ही उनकी मृत्यु हो गई। यह दुनिया की पहली ऎसी घटना थी, जिसमें एक हिन्दू सन्त ने गौ माता की रक्षा के लिए 166 दिनों तक भूखे-प्यासे रहकर अपना बलिदान दिया था। देश के इतने बड़े घटनाक्रम को किसी भी राष्ट्रीय अखबार ने छापने की हिम्मत नहीं दिखाई। यह खबर सिर्फ मासिक पत्रिका 'आर्यावर्त' और 'केसरी' में छपी थी। कुछ दिन बाद गोरखपुर से छपने वाली मासिक पत्रिका 'कल्याण' ने अपने गौ अंक विशेषांक में विस्तारपूर्वक इस घटना का वर्णन किया था।

इस घटना के बाद स्वामी करपात्रीजी के शिष्य बताते हैं कि करपात्रीजी ने इंदिरा गांधी को श्राप दे दिया कि जिस तरह से इंदिरा गांधी ने संतों और गोरक्षकों पर अंधाधुंध गोलीबारी करवाकर मारा है, उनका भी हश्र यही होगा। कहते हैं कि संसद के सामने साधुओं की लाशें उठाते हुए करपात्री महाराज ने रोते हुए ये श्राप दिया था।

'कल्याण' के उसी अंक में इंदिरा को संबोधित करके कहा था- 'यद्यपि तूने निर्दोष साधुओं की हत्या करवाई है फिर भी मुझे इसका दु:ख नहीं है, लेकिन तूने गौहत्यारों को गायों की हत्या करने की छूट देकर जो पाप किया है, वह क्षमा के योग्य नहीं है। इसलिए मैं आज तुझे श्राप देता हूं कि 'गोपाष्टमी' के दिन ही तेरे वंश का नाश होगा। आज मैं कहे देता हूं कि गोपाष्टमी के दिन ही तेरे वंश का भी नाश होगा।' जब करपात्रीजी ने यह श्राप दिया था तो वहां प्रमुख संत 'प्रभुदत्त ब्रह्मचारी' भी मौजूद थे। कहते हैं कि इस कांड के बाद स्वामी करपात्रीजी अवसाद में चले गए थे।

स्वामी करपात्री जी ने जो भी कहा था, वह आगे चल कर अक्षरशः सत्य भी हुआ। अबतक इंदिरा का वंश गोपाष्टमी के दिन ही नाश को प्राप्त होता रहा है। सबूत के लिए इन मौतों की तिथियों पर ध्यान दीजिये. 1-संजय गांधी की मौत आकाश में हुई थी, उस दिन हमारे पंचांग के अनुसार "गोपाष्टमी" थी। 2-इंदिरा की मौत घर में हुई थी, उस दिन भी "गोपाष्टमी" थी। 3-राजीव गांधी की जिस दिन हत्या हुई उस दिन भी "गोपाष्टमी" ही थी।

(Dailyhunt)

श्रीमद्भागवत महापुराण: तृतीय स्कन्ध: षष्ठ अध्यायः श्लोक 18-34 का हिन्दी अनुवाद


 (लगातार-सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत पुराण)
श्रीमद्भागवत महापुराण:
तृतीय स्कन्ध: षष्ठ अध्यायः श्लोक 18-34 का हिन्दी अनुवाद

फिर विराट् शरीर में चर्म उत्पन्न हुआ; उसमें अपने अंश रोमों के सहित ओषधियाँ स्थित हुईं, जिन रोमों से जीव खुजली आदि का अनुभव करता है। अब उसके लिंग उत्पन्न हुआ। अपने इस आश्रय में प्रजापति ने अपने अंश वीर्य के सहित प्रवेश किया, जिससे जीव आनन्द का अनुभव करता है। फिर विराट् के गुदा प्रकट हुई; उसमें लोकपाल मित्र ने अपने अंश पायु-इन्द्रिय के सहित प्रवेश किया, इससे जीव मल त्याग करता है। इसके पश्चात् उसके हाथ प्रकट हुए; उनमें अपनी ग्रहण-त्यागरूपा शक्ति के सहित देवराज इन्द्र ने प्रवेश किया, इस शक्ति से जीव अपनी जीविका प्राप्त करता है।

जब इसके चरण उत्पन्न हुए, तब उनमें अपनी शक्ति गति के सहित लोकेश्वर विष्णु ने प्रवेश किया। इस गति शक्ति द्वारा जीव अपने गन्तव्य स्थान पर पहुँचता है। फिर इसके बुद्धि उत्पन्न हुई; अपने इस स्थान में अपने अंश बुद्धिशक्ति के साथ वाक्पति ब्रह्मा ने प्रवेश किया, इस बुद्धिशक्ति से जीव ज्ञातव्य विषयों को जान सकता है। फिर इसमें हृदय प्रकट हुआ; उसमें अपने अंश मन के सहित चन्द्रमा स्थित हुआ। इस मनःशक्ति के द्वारा जीव संकल्प-विकल्पादि रूप विकारों को प्राप्त होता है। तत्पश्चात् विराट् पूरुष में अहंकार उत्पन्न हुआ; इस अपने आश्रय में क्रियाशती सहित अभिमान (रुद्र) ने प्रवेश किया। इससे जीव अपने कर्तव्य को स्वीकार करता है। अब इसमें चित्त प्रकट हुआ। उसमें चित्तशक्ति के सहित महत्तत्त्व (ब्रह्मा) स्थित हुआ; इस चित्तशक्ति से जीव विज्ञान (चेतना) को उपलब्ध करता है। इस विराट् पुरुष के सिर से स्वर्गलोक, पैरों से पृथ्वी और नाभि से अन्तरिक्ष (आकाश) उत्पन्न हुआ। इनमें क्रमशः सत्त्व, रज और तम- इन तीन गुणों के परिणामरूप देवता, मनुष्य और प्रेतादि देखे जाते हैं।

इनमें देवता लोग सत्त्वगुण की अधिकता के कारण स्वर्गलोक में, मनुष्य और उनके उपयोगी गौ आदि जीव रजोगुण की प्रधानता के कारण पृथ्वी में तथा तमोगुणी स्वभाव वाले होने से रुद्र के पार्षदगण (भूत, प्रेम आदि) दोनों के बीच में स्थित भगवान् के नाभि स्थानीय अन्तरिक्ष लोक में रहते हैं। विदुर जी! वेद और ब्राह्मण भगवान् के मुख से प्रकट हुए। मुख से प्रकट होने के कारण ही ब्राह्मण सब वर्णों में श्रेष्ठ और सबका गुरु है। उनकी भुजाओं से क्षत्रियवृत्ति और उसका अवलम्बन करने वाला क्षत्रिय वर्ण उत्पन्न हुआ, जो विराट् भगवान् का अंश होने के कारण जन्म लेकर सब वर्णों की चोर आदि के उपद्रवों से रक्षा करता है। भगवान् की दोनों जाँघों से सब लोगों का निर्वाह करने वाली वैश्यवृत्ति उत्पन्न हुई और उन्हीं से वैश्य वर्ण का भी प्रादुर्भाव हुआ। यह वर्ण अपनी वृत्ति से सब जीवों की जीविका चलाता है। फिर सब धर्मों की सिद्धि के लिये भगवान् के चरणों से सेवावृत्ति प्रकट हुई और उन्हीं से पहले-पहल उस वृत्ति का अधिकारी शूद्र वर्ण भी प्रकट हुआ, जिसकी वृत्ति से ही श्रीहरि प्रसन्न हो जाते हैं।

ये चारों वर्ण अपनी-अपनी वृत्तियों के सहित जिनसे उत्पन्न हुए हैं, उन अपने गुरु श्रीहरि का अपने-अपने धर्मों से चित्त शुद्धि के लिये श्रद्धापूर्वक पूजन करते हैं।



साभार krishnakosh.org

दया और सौम्यता.


दया और सौम्यता.

पति ने पत्नी को किसी बात पर तीन थप्पड़ जड़ दिए, पत्नी ने इसके जवाब में अपना सैंडिल पति की तरफ़ फेंका, सैंडिल का एक सिरा पति के सिर को छूता हुआ निकल गया।

मामला रफा-दफा हो भी जाता, लेकिन पति ने इसे अपनी तौहिनी समझी, रिश्तेदारों ने मामला और पेचीदा बना दिया, न सिर्फ़ पेचीदा बल्कि संगीन, सब रिश्तेदारों ने इसे खानदान की नाक कटना कहा, यह भी कहा कि पति को सैडिल मारने वाली औरत न वफादार होती है, न पतिव्रता।

इसे घर में रखना, अपने शरीर में मियादी बुखार पालते रहने जैसा है। कुछ रिश्तेदारों ने यह भी पश्चाताप जाहिर किया कि ऐसी औरतों का भ्रूण ही समाप्त कर देना चाहिए।

बुरी बातें चक्रवृत्ति ब्याज की तरह बढ़ती है, सो दोनों तरफ खूब आरोप उछाले गए। ऐसा लगता था जैसे दोनों पक्षों के लोग आरोपों का वॉलीबॉल खेल रहे हैं। लड़के ने लड़की के बारे में और लड़की ने लड़के के बारे में कई असुविधाजनक बातें कही।

मुकदमा दर्ज कराया गया। पति ने पत्नी की चरित्रहीनता का, तो पत्नी ने दहेज उत्पीड़न का मामला दर्ज कराया। छह साल तक शादीशुदा जीवन बिताने और एक बच्ची के माता-पिता होने के बाद, आज दोनों में तलाक हो गया।

पति-पत्नी के हाथ में तलाक के काग़ज़ों की प्रति थी।

दोनों चुप थे, दोनों शांत, दोनों निर्विकार।

मुकदमा दो साल तक चला था। दो साल से पत्नी अलग रह रही थी और पति अलग, मुकदमे की सुनवाई पर दोनों को आना होता। दोनों एक दूसरे को देखते, जैसे चकमक पत्थर आपस में रगड़ खा गए हों।

दोनों गुस्से में होते। दोनों में बदले की भावना का आवेश होता। दोनों के साथ रिश्तेदार होते, जिनकी हमदर्दियों में ज़रा-ज़रा विस्फोटक पदार्थ भी छुपा होता।

लेकिन कुछ महीने पहले जब पति-पत्नी कोर्ट में दाखिल होते, तो एक-दूसरे को देख कर मुँह फेर लेते। जैसे जानबूझ कर एक-दूसरे की उपेक्षा कर रहे हों, वकील औऱ रिश्तेदार दोनों के साथ होते।

दोनों को अच्छा-खासा सबक सिखाया जाता कि उन्हें क्या कहना है। दोनों वही कहते। कई बार दोनों के वक्तव्य बदलने लगते। वो फिर सँभल जाते।

अंत में वही हुआ जो सब चाहते थे, यानी तलाक ................

पहले रिश्तेदारों की फौज साथ होती थी, आज थोड़े से रिश्तेदार साथ थे। दोनों तरफ के रिश्तेदार खुश थे, वकील खुश थे, माता-पिता भी खुश थे।

तलाकशुदा पत्नी चुप थी और पति खामोश था।

यह महज़ इत्तेफाक ही था कि दोनों पक्षों के रिश्तेदार एक ही टी-स्टॉल पर बैठे, कोल्ड ड्रिंक्स लिया।

यह भी महज़ इत्तेफाक ही था कि तलाकशुदा पति-पत्नी एक ही मेज़ के आमने-सामने जा बैठे।

लकड़ी की बेंच और वो दोनों .......

''कांग्रेच्यूलेशन .... आप जो चाहते थे वही हुआ ....'' स्त्री ने कहा।

''तुम्हें भी बधाई ..... तुमने भी तो तलाक देकर, जीत हासिल की ....'' पुरुष बोला।

''तलाक क्या जीत का प्रतीक होता है????'' स्त्री ने पूछा।

''तुम बताओ?''

पुरुष के पूछने पर स्त्री ने जवाब नहीं दिया, वो चुपचाप बैठी रही, फिर बोली, ''तुमने मुझे चरित्रहीन कहा था....

अच्छा हुआ.... अब तुम्हारा चरित्रहीन स्त्री से पीछा छूटा।''

''वो मेरी गलती थी, मुझे ऐसा नहीं कहना चाहिए था'' पुरुष बोला।

''मैंने बहुत मानसिक तनाव झेला है'', स्त्री की आवाज़ सपाट थी न दुःख, न गुस्सा।

''जानता हूँ, पुरुष इसी हथियार से स्त्री पर वार करता है, जो स्त्री के मन और आत्मा को लहू-लुहान कर देता है... तुम बहुत उज्ज्वल हो। मुझे तुम्हारे बारे में ऐसी गंदी बात नहीं करनी चाहिए थी। मुझे बेहद अफ़सोस है, '' पुरुष ने कहा।

स्त्री चुप रही, उसने एक बार पुरुष को देखा।

कुछ पल चुप रहने के बाद पुरुष ने गहरी साँस ली और कहा, ''तुमने भी तो मुझे दहेज का लोभी कहा था।''

''गलत कहा था''.... पुरुष की ओऱ देखती हुई स्त्री बोली।

कुछ देर चुप रही फिर बोली, ''मैं कोई और आरोप लगाती लेकिन मैं नहीं...''

प्लास्टिक के कप में चाय आ गई।

स्त्री ने चाय उठाई, चाय ज़रा-सी छलकी। गर्म चाय स्त्री के हाथ पर गिरी।

स्सी... की आवाज़ निकली।

पुरुष के गले में उसी क्षण 'ओह' की आवाज़ निकली। स्त्री ने पुरुष को देखा। पुरुष स्त्री को देखे जा रहा था।

''तुम्हारा कमर दर्द कैसा है?''

''ऐसा ही है, कभी वोवरॉन तो कभी काम्बीफ्लेम,'' स्त्री ने बात खत्म करनी चाही।

''तुम एक्सरसाइज भी तो नहीं करती।'' पुरुष ने कहा तो स्त्री फीकी हँसी हँस दी।

''तुम्हारे अस्थमा की क्या कंडीशन है... फिर अटैक तो नहीं पड़े????'' स्त्री ने पूछा।

''अस्थमा।डॉक्टर सूरी ने स्ट्रेन... मेंटल स्ट्रेस कम करने को कहा है, '' पुरुष ने जानकारी दी।

स्त्री ने पुरुष को देखा, देखती रही एकटक। जैसे पुरुष के चेहरे पर छपे तनाव को पढ़ रही हो।

''इनहेलर तो लेते रहते हो न?'' स्त्री ने पुरुष के चेहरे से नज़रें हटाईं और पूछा।

''हाँ, लेता रहता हूँ। आज लाना याद नहीं रहा, '' पुरुष ने कहा।

''तभी आज तुम्हारी साँस उखड़ी-उखड़ी-सी है, '' स्त्री ने हमदर्द लहजे में कहा।

''हाँ, कुछ इस वजह से और कुछ...'' पुरुष कहते-कहते रुक गया।

''कुछ... कुछ तनाव के कारण,'' स्त्री ने बात पूरी की।

पुरुष कुछ सोचता रहा, फिर बोला, ''तुम्हें चार लाख रुपए देने हैं और छह हज़ार रुपए महीना भी।''

''हाँ... फिर?'' स्त्री ने पूछा।

''वसुंधरा में फ्लैट है... तुम्हें तो पता है। मैं उसे तुम्हारे नाम कर देता हूँ। चार लाख रुपए फिलहाल मेरे पास नहीं है।'' पुरुष ने अपने मन की बात कही।

''वसुंधरा वाले फ्लैट की कीमत तो बीस लाख रुपए होगी??? मुझे सिर्फ चार लाख रुपए चाहिए....'' स्त्री ने स्पष्ट किया।

''बिटिया बड़ी होगी... सौ खर्च होते हैं....'' पुरुष ने कहा।

''वो तो तुम छह हज़ार रुपए महीना मुझे देते रहोगे,'' स्त्री बोली।

''हाँ, ज़रूर दूँगा।''

''चार लाख अगर तुम्हारे पास नहीं है तो मुझे मत देना,'' स्त्री ने कहा।

उसके स्वर में पुराने संबंधों की गर्द थी।

पुरुष उसका चेहरा देखता रहा....

कितनी सह्रदय और कितनी सुंदर लग रही थी, सामने बैठी स्त्री जो कभी उसकी पत्नी हुआ करती थी।
स्त्री पुरुष को देख रही थी और सोच रही थी, ''कितना सरल स्वभाव का है यह पुरुष, जो कभी उसका पति हुआ करता था। कितना प्यार करता था उससे...

एक बार हरिद्वार में जब वह गंगा में स्नान कर रही थी, तो उसके हाथ से जंजीर छूट गई। फिर पागलों की तरह वह बचाने चला आया था, उसे। खुद तैरना नहीं आता था, लाट साहब को और मुझे बचाने की कोशिशें करता रहा था... कितना अच्छा है... मैं ही खोट निकालती रही...''

पुरुष एकटक स्त्री को देख रहा था और सोच रहा था, ''कितना ध्यान रखती थी, स्टीम के लिए पानी उबाल कर जग में डाल देती। उसके लिए हमेशा इनहेलर खरीद कर लाती, सेरेटाइड आक्यूहेलर बहुत महँगा था। हर महीने कंजूसी करती, पैसे बचाती, और आक्यूहेलर खरीद लाती। दूसरों की बीमारी की कौन परवाह करता है? ये करती थी, परवाह! कभी जाहिर भी नहीं होने देती थी। कितनी संवेदना थी, इसमें। मैं अपनी मर्दानगी के नशे में रहा। काश, जो मैं इसके जज़्बे को समझ पाता।''

दोनों चुप थे, बेहद चुप।

दुनिया भर की आवाज़ों से मुक्त हो कर, खामोश।

दोनों भीगी आँखों से एक दूसरे को देखते रहे....

''मुझे एक बात कहनी है, '' उसकी आवाज़ में झिझक थी।

''कहो, '' स्त्री ने सजल आँखों से उसे देखा।

''डरता हूँ,'' पुरुष ने कहा।

''डरो मत। हो सकता है, तुम्हारी बात मेरे मन की बात हो,'' स्त्री ने कहा।

''तुम बहुत याद आती रही,'' पुरुष बोला।

''तुम भी,'' स्त्री ने कहा।

''मैं तुम्हें अब भी प्रेम करता हूँ।''

''मैं भी.'' स्त्री ने कहा।

दोनों की आँखें कुछ ज़्यादा ही सजल हो गई थीं।

दोनों की आवाज़ जज़्बाती और चेहरे मासूम।

''क्या हम दोनों जीवन को नया मोड़ नहीं दे सकते?'' पुरुष ने पूछा।

''कौन-सा मोड़?''

''हम फिर से साथ-साथ रहने लगें... एक साथ... पति-पत्नी बन कर... बहुत अच्छे दोस्त बन कर।''

''ये पेपर?'' स्त्री ने पूछा।

''फाड़ देते हैं।'' पुरुष ने कहा औऱ अपने हाथ से तलाक के काग़ज़ात फाड़ दिए। फिर स्त्री ने भी वही किया। दोनों उठ खड़े हुए। एक दूसरे के हाथ में हाथ डाल कर मुस्कराए। दोनों पक्षों के रिश्तेदार हैरान-परेशान थे। दोनों पति-पत्नी हाथ में हाथ डाले, घर की तरफ चले गए। घर जो सिर्फ और सिर्फ पति-पत्नी का था।।

पति-पत्नी में प्यार और तकरार, एक ही सिक्के के दो पहलू हैं, जरा सी बात पर कोई ऐसा फैसला न लें कि आपको जिंदगी भर अफसोस हो।

जो भी करें, संतुष्ट होकर करे.


जो भी करेंसंतुष्ट होकर करे.

एक बार एक ऋषि अपने कुछ शिष्यों के साथ जंगल से जा रहे थे। उस समय बिजली बहुत तेज से कड़क रही थी और इसके बाद बारिश होने लगी। संत अपने शिष्यों के साथ एक पेड़ के किनारे रुक कर बारिश के खत्म होने का इंतजार करने लगे। उन्होंने देखा की एक छोटी सी बिल्ली भी वहीं दबी पड़ी है। संत ने सोचा कि अगर इसे जंगल में छोड़ दिया तो जंगली जानवर इसे खा जाएंगे।

ये सोचकर संत ने बिल्ली को अपने साथ ले लिय़ा।

बिल्ली संत से घुल-मिल गई। इसलिए हमेशा उनके आगे पीछे घूमती रहती। यहां तक की अगर वो ध्यान लगाने बैठते, तो उनकी गोद में बैठ जाती। बिल्ली ऐसा करती से ऋषि परेशान हो जाते।

एक बार उन्होंने अपने शिष्य से कहा कि मैं जब भी ध्यान करने बैंठूं, तो पहले इस बिल्ली को पेड़ से बांध दिया करना। शिष्य ने ऐसा ही किया। इसके बाद जब भी संत तपस्या करने बैठते, बिल्ली को पेड़ से बांध दिया जाता।

इसके बाद जब ऋषि का ध्यान समाप्त होता, तो बिल्ली खोल दी जाती। ऐसे करते काफी समय बीत गया। एक दिन ऋषि की मृत्यु हो गई। अब उनकी जगह उत्तराधिकारी को जो किसी अन्य आश्रम में निवासरत थे, को बुलाकर गद्दीनशीन कर दिया गया।

शिष्यों को लगा की हमारे गुरु तो जब भी ध्यान करते तो बिल्ली को बांध कर ही ध्यान करते। ऐसे में उन्होंने फिर उसी बिल्ली को वैसे ही बांधने लगे और फिर नए गुरु ध्यान करते। एक दिन ऐसा भी आया, जब बिल्ली की भी मृत्यु हो गई। अब शिष्यों को लगा की इसके बिना तो पूजा पाठ और ध्यान हो ही नहीं सकता।

ऐसे में पड़ोस से एक नई बिल्ली लाई गई, उसको बांधा गया और फिर गुरु पूजा पर बैठे।

ऐसा ही कुछ दूसरी परंपराओं के साथ होता है। अगर गुरु के आदेश पर शिष्यों ने पहले ही पूछ लिया होता कि वो ऐसा क्यों करते हैं, तो उनकी समझ में आ जाता कि ऐसा क्यों होता था। किसी ने उस कारण के पीछे कोई सवाल नहीं किया औऱ इसे परंपरा बना दिया, जिसका कोई अभिप्राय ही नहीं था। कभी कभी भी ऐसे ही बेमतलब की कुछ चीजे होती हैं, जिन्हें हम परंपरा मानकर उसका पालन करने लगते हैं। हमें पहले उसके पीछे का कारण जान लेना चाहिए और फिर उसका पालन करना चाहिए।

संत और घास की टोकरी.


संत और घास की टोकरी.

नदी के किनारे एक संत रहते थे। संत के आश्रम के चारों ओर घास उग आई। संत को घास की टोकरी बनानी आती थी। उन्होंने सोचा कि उनके आश्रम के पास इतनी खास है, तो क्यों ना इस घास की टोकरी बनाएं। इससे आश्रम के आसपास की सफाई हो जाएगी। अगले दिन जब संत खाली बैठे थे, तो उन्होंने घास की टोकरी तो बना ली और सोचने लगे कि ये टोकरी मेरे किसी काम की नहीं, तो उन्होंने वह टोकरी नदी में बहा दी।

यह सिलसिला चलता रहा। संत रोज एक टोकरी बनाते और उसे नदी में बहा देते। इसके बाद एक दिन संत ने सोचा कि मैं व्यर्थ ही ऐसा कर रहा हूं। अगर मैं टोकरिया बनाकर किसी को देता, तो वह किसी के काम आ सकती थी। इसके बाद संत ने टोकरी बनाना बंद कर दिया।

कुछ दिन बाद जब संत नदी के किनारे टहल रहे थे, तो उन्होंने देखा कि एक बूढ़ी महिला, वहां बैठ कर रो रही है। जब उन्होंने महिला से पूछा कि वह क्यों रो रही है, तो महिला ने बताया कि उसका इस दुनिया में कोई नहीं है। अकेले जैसे-तैसे अपना पेट पालती हूं।

कुछ दिन पहले तक नदी के किनारे हर रोज घास की बनी सुंदर टोकरी बहकर आ जाती थी, जिसे बेचकर मैं अपना गुजारा कर लेती थी। लेकिन कुछ दिन से टोकरियां नहीं आ रही है। इस वजह से मैं काफी दुखी हूं। इसके बाद महिला की बात सुनकर संत ने फिर से टोकरी बनाना शुरू कर दी और वे टोकरी को नदी में बहाने लगे।

निरर्थक काम भी किसी को सहायता पंहुचा सकता हैं, इसीलिए कहा जाता हैं कि “बेकार से बेगार भली”।

श्रेष्ट कथन. (35)


श्रेष्ट .
01.
जो बातें अभिभावकों की सुनकर, हम चिढ़ जाते थे; अभिभावक बनकर, वहीं कहने लगते हैं।
02.
डूब कर मरने के भय से पानी के किनारे खड़े रहने वाले कभी भी तैरना नहीं सीख पाते। सीखने के लिए तो भय से मुक्त होना ही पड़ेगा।
03.
वस्तुयें अनिष्ट-कारक नहीं होती। अनिष्ट-कारक होती हैं, मनुष्य की सोच। जैसे माचिस की तीली से आग प्रज्वलित कर भोजन बनाया जा सकता हैं और उसी तीली से खड़ी फसल भी जलाई जा सकती हैं।
04.
ज्ञान ऐसा अस्त्र हैं , जिसके माध्यम से विश्व को बदला जा सकता हैं
05.
शिक्षा का अर्थ हैं , जो आप जानते हैं और जो आप नहीं जानते, उनमें अंतर समझ जाना
06.
औपचारिक शिक्षा जीवन यापन योग्य बना देती हैं; किन्तु स्व-शिक्षा सफल बनती हैं
07.
शिक्षा समाज की आत्मा हैं, जो पीढ़ी दर पीढ़ी चलती रहती है
08.
भावावेश व्यक्तियों का कोई निश्चय नहीं होता, कोई लक्ष्य नहीं होता; क्योकि उनकी मनोवृत्ति डांवाडोल रहती हैं।
09.
गजब की एकता देखी,
लोगो की जमाने में,
जिन्दों को गिराने में, और
मुर्दों को उठाने में।
10.
जब तक लोभी जिन्दा हैं, “ठगभूख से नहीं मर नहीं सकता।
11.
न मेरा एक होगा, न तेरा लाख होगा,
न तारीफ तेरी होगी, न मजाक मेरा होगा,
गुरु न कर इस शाही शरीर का,
मेरा भी खाक होगा, तेरा भी खाक होगी।
12.
जो मनुष्य न किसी से द्वेष करता हैं और न किसी से आकांक्षा रखता हैं, वह निष्काम कर्मयोगी सन्यासी ही समझने योग्य हैं।
13.
बकरी के पैरों से उडती हुई धूल, गधे द्वारा उड़ाई गई धूल और झाड़ू लगते समय उसकी धूल-ये तीनों पापमय होती हैं। सूपा से फटकते समय की हवा, नखों के अगर भाग का जल और स्नान-वस्त्र की मृजा (धोने के बाद का जल), ये तीनों पूर्व जन्म में किये पुण्य का हरण कर लेते हैं।
14.
घमण्ड से आदमी फूल सकता हैं, फल नहीं सकता।
15.
कलंक से मुक्ति का एक मात्र उपाय पश्चाताप और अपने में आमूल सुधार ही हैं।
16.
सज्जनों की संगती सदा लाभदायक होती हैं।
17.
परामर्श से लाभ उठाना सिर्फ बुध्दिमानों को आता हैं।
18.
स्व-अज्ञानता से अनभिज्ञ होना ज्ञानी की सबसे बड़ी बीमारी हैं।
19.
अनुभव प्राप्ति के लिए बहुत मूल्य चुकाना पड़ता है, पर उससे मिली शिक्षा अनमोल होती हैं।
20.
जब दूसरों की भलाई करना, मनुष्य का स्वभाव बन जाता हैं, तब उसकी स्व-कामना का ह्रास हो जाता हैं।

21.
ज्ञान मुक्त करता हैं, पर ज्ञान का अभिमान नरक में ले जाता हैं।
22.
जब तक मनुष्य को दूसरे की अपेक्षा अपने में विशेषता दिखती है, तब तक वह साधक तो हो सकता है, पर सिद्ध नहीं हो सकता।
23.
अगर रुक रुक कर, हर भौंकने वाले कुत्ते पर पत्थर फेंकोगे तो आप अपने गंतव्य तक पहुचने के लिए खुद बाधा बन जाओगे।

24.
उदास, निराश और हतोत्साहित न होना ही बुध्दिजीवी और कर्मशील की पहचान होती हैं।
25.
स्वार्थ और लाभ ही सबसे बड़ा उत्साहवर्धन करता हैं, पर सराहा तभी जाता हैं, जब वह औचित्यपूर्ण और जनहितकारी कार्यों से जुड़ा हो।
26.
स्वार्थ और अभिमान का त्याग किये बिना, मनुष्य श्रेष्ट नहीं बन सकता।
27.
स्त्री और पुरुष दोनों मूल रूप से संयुक्त (एकमेक) हैं| ईश्वर ने अपने आपको दो खंडो (टुकड़ों) में विभाजित किया| वे ही दो खण्ड परस्पर पति-पत्नी हो गए|
28.
बिना सुने दूसरे का दर्द समझने की क्षमता बस अपनत्व में ही होती है।
29.
इच्छाओं और आवश्यकताओं के भेद को समझकर जीवन में वास्तविकता को उतारें।
30.
घर भरने के लालची, राजनीति में आकर समाज को भ्रष्ट, दुराचारी, चरित्रहीन और देश को खोखला बना रहें हैं। ऐसे लोगो के सहायक न बने।
31.
अनंत की अनुभूति के कई मार्ग हैं। अब यह यात्री की क्षमता पर निर्भर करता है कि वह अपने लिए किस मार्ग को चुने। साधना की पहली सीढी है-उपयुक्त का चुनाव और अनिवार्य तत्व हैं-आस्था।
32.
बिना सुने दूसरे का दर्द समझने की क्षमता बस अपनत्व में ही होती है।
33.
बिना विचारे शीघ्रता से किया जाने वाला निर्णय, स्वार्थ की ओर ही झुकता हैं।
34.
लक्ष्य की कामयाबी में निर्णय और प्रयास ही मुख्य भूमिका निभाते हैं। यदि आप रोजमर्रा की जिंदगी जीते हुये कुछ अलग से करने का निर्णय और प्रयास नहीं करते, तब जीवन स्तर को ऊंचा भी नहीं उठा सकते हैं।
35.
जीव का म्रत्यु से, शरीर का आग से, शक्ति का समय से और संपदा का दुर्गुणों  से, अंत (नष्ट) हो जाता हैं।