मन दर्पण.
मन तो बस दर्पण है। यदि वह स्वच्छ है, शुद्ध है, तो इससे वह असीम प्रतिद्वंद्वित हो सकता है। वह प्रतिबिंब असीम न होगा, पर झलक जरूर होगी उसकी, लेकिन यही झलक बाद में द्वार बन जाती है। प्रतिबिंब पीछे छूट जाता है और अनन्त में प्रवेश मिल जाता है। बाहरी तौर पर यह बात थोड़ी अटपटी लग सकती है। भला कैसे इतने छोटे से मन से कोई सम्पर्क बन सकता है, शाश्वत के साथ अनन्त के साथ। इस सच्चाई को कुछ यो समझा जा सकता है, जैसे कि खिड़की की छोटी सी चोखट से असीम आकाश का दिखना। भले ही खिड़की से सारा आकाश नहीं दिखाई पड़ता हों, लेकिन जो दिखाई देता है, वह अकाश ही है।
कुछ इसी तरह स्वच्छ मन, शुद्ध मन से परमात्मा की झलक मिलती है। दरअसल अपना मन भी गहरे में परमात्मा का ही हिस्सा है। मेरा तेरा के जटिल भाव ने इसे छोटा बना दिया है। परमात्मा के असीम व अनन्त स्वरूप के बारे मे उपनिषदों में बहुत कुछ विरोधाभासि बातें कही गई है। इनमें से एक बात है कि अन्श हमेशा पूर्ण के बराबर होता है; क्योंकि अनन्त को बांटा नहीं जा सकता। ठीक वैसे ही जैसे कि आकाश का विभाजन सम्भव नहीं है। कहने वाले भले ही कहते हैं कि मेरे घर के ऊपर का आकाश मेरा, तुम्हारे घर के ऊपर का आकाश तुम्हारा।
इस प्रकार के कथनों के बावजूद आकाश अविभाजित अनन्त विस्तार है। इसका न कोई आरम्भ है और न कोई अन्त। न यह मेरा है, न तेरा, न तो भारतीय है, न ही चीनी या पाकिस्तानी। बस कुछ ऐसी ही बात मन के साथ है। मन के साथ जुड़ी मेरी तुम्हारी मनोदशा भ्रान्ति है। इस भ्रान्ति के कारण ही मन सीमित हो गया है। सीमित होने की धारणा एक भ्रम है, इसे ही तो मिटाना है।
अध्यात्म की समूची साधना इसीलिए है। इसके पहले चरण में मन को स्वच्छ शुद्ध करना है। दूसरे चरण में मनोदशा के ढाचे को गिरा देना है। इसके गिरते ही बस परमात्मा की पूर्णता बचती है। तर्क भले ही कहता रहे, कोई अन्श पूर्ण के बराबर कैसे हो सकता है। लेकिन ईशावस्य उपनिषद के ऋषि का अनुभव कहता है कि पूर्ण से पूर्ण निकालने के बाद भी पूर्ण ही बचता है और पूर्ण में पूर्ण डालने पर भी पूर्ण बनता है। स्वच्छ व शुद्ध मन से जो अनुभव किया जाता है, वह परमात्मा की पूर्णता का अनुभव ही है।
(अखन्ड ज्योति जुलाई २०१४)
कुछ इसी तरह स्वच्छ मन, शुद्ध मन से परमात्मा की झलक मिलती है। दरअसल अपना मन भी गहरे में परमात्मा का ही हिस्सा है। मेरा तेरा के जटिल भाव ने इसे छोटा बना दिया है। परमात्मा के असीम व अनन्त स्वरूप के बारे मे उपनिषदों में बहुत कुछ विरोधाभासि बातें कही गई है। इनमें से एक बात है कि अन्श हमेशा पूर्ण के बराबर होता है; क्योंकि अनन्त को बांटा नहीं जा सकता। ठीक वैसे ही जैसे कि आकाश का विभाजन सम्भव नहीं है। कहने वाले भले ही कहते हैं कि मेरे घर के ऊपर का आकाश मेरा, तुम्हारे घर के ऊपर का आकाश तुम्हारा।
इस प्रकार के कथनों के बावजूद आकाश अविभाजित अनन्त विस्तार है। इसका न कोई आरम्भ है और न कोई अन्त। न यह मेरा है, न तेरा, न तो भारतीय है, न ही चीनी या पाकिस्तानी। बस कुछ ऐसी ही बात मन के साथ है। मन के साथ जुड़ी मेरी तुम्हारी मनोदशा भ्रान्ति है। इस भ्रान्ति के कारण ही मन सीमित हो गया है। सीमित होने की धारणा एक भ्रम है, इसे ही तो मिटाना है।
अध्यात्म की समूची साधना इसीलिए है। इसके पहले चरण में मन को स्वच्छ शुद्ध करना है। दूसरे चरण में मनोदशा के ढाचे को गिरा देना है। इसके गिरते ही बस परमात्मा की पूर्णता बचती है। तर्क भले ही कहता रहे, कोई अन्श पूर्ण के बराबर कैसे हो सकता है। लेकिन ईशावस्य उपनिषद के ऋषि का अनुभव कहता है कि पूर्ण से पूर्ण निकालने के बाद भी पूर्ण ही बचता है और पूर्ण में पूर्ण डालने पर भी पूर्ण बनता है। स्वच्छ व शुद्ध मन से जो अनुभव किया जाता है, वह परमात्मा की पूर्णता का अनुभव ही है।
(अखन्ड ज्योति जुलाई २०१४)
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