याचक ने पारस फेंक दिया.


याचक ने पारस फेंक दिया.

एक व्यक्ति एक संत के पास आया व उनसे याचना करने लगा कि वह निर्धन है। वे उसे कुछ धन आदि दे दें, ताकि वह जीविका चला सके। सन्त ने कहा- 'हमारे पास तो वस्त्र के नाम पर यह लंगोटी व उत्तरीय है। लंगोटी तो आवश्यक है पर उत्तरीय तुम ले जा सकते हो। इसके अलावा और कोई ऐसी निधि हमारे पास है नहीं।'' वह व्यक्ति बराबर गिड़गिड़ाता ही रहा, तो वे बोले- 'अच्छा, झोपड़ी के पीछे एक पत्थर पड़ा होगा। कहते हैं, उससे लोहे को छूकर सोना बनाया जा सकता है। तुम उसे ले जाओ। ''प्रसन्नचित्त वह व्यक्ति भागा व उसे लेकर आया, खुशी से चिल्ला पड़ा- 'महात्मन्! यह तो पारस मणि है। आपने इसे ऐसे ही फेंक दी। ''सन्त बोले' हाँ बेटा! मैं जानता हूँ और यह भी कि यह नरक की खान है। मेरे पास प्रभु कृपा से आत्म सन्तोष रूपी धन है जो मुझे निरन्तर आत्म ज्ञान, और अधिक यान प्राप्त करने को प्रेरित करता है। मेरे लिए इस क्षणिक उपयोग की वस्तु का क्या मूल्य?' वह व्यक्ति एकटक देखता रह गया।

फेंक दी उसने भी पारस मणि। बोला- भगवन्! जो आत्म सन्तोष आपको है, व जो कृपा आप पर बरसी है उससे मैं इस "पत्थर" के कारण वंचित नहीं होना चाहता। आप मुझे भी उस दिशा में बढ़ने की प्रेरणा दें जो सीधे प्रभु प्राप्ति की ओर ले जाती है। सन्त ने उसे शिष्य के रूप में स्वीकार किया। वे दोनों मोक्ष सुख पा गए।

विवेकवान के समक्ष हर वैभव, हर सम्पदा तुच्छ है। वह सतत् अपने चरम लक्ष्य, परम पद की प्राप्ति की ओर बढ़ता रहता है।



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