संत और घास की
टोकरी.
यह सिलसिला चलता रहा। संत रोज एक टोकरी बनाते और उसे नदी में बहा देते। इसके बाद एक दिन संत ने सोचा कि मैं व्यर्थ ही ऐसा कर रहा हूं। अगर मैं टोकरिया बनाकर किसी को देता, तो वह किसी के काम आ सकती थी। इसके बाद संत ने टोकरी बनाना बंद कर दिया।
कुछ दिन बाद जब संत नदी के किनारे टहल रहे थे, तो उन्होंने देखा कि एक बूढ़ी महिला, वहां बैठ कर रो रही है। जब उन्होंने महिला से पूछा कि वह क्यों रो रही है, तो महिला ने बताया कि उसका इस दुनिया में कोई नहीं है। अकेले जैसे-तैसे अपना पेट पालती हूं।
कुछ दिन पहले तक नदी के किनारे हर रोज घास की बनी सुंदर टोकरी बहकर आ जाती थी, जिसे बेचकर मैं अपना गुजारा कर लेती थी। लेकिन कुछ दिन से टोकरियां नहीं आ रही है। इस वजह से मैं काफी दुखी हूं। इसके बाद महिला की बात सुनकर संत ने फिर से टोकरी बनाना शुरू कर दी और वे टोकरी को नदी में बहाने लगे।
निरर्थक काम भी किसी को सहायता पंहुचा सकता हैं, इसीलिए कहा जाता हैं कि “बेकार से बेगार भली”।
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