संतोष भरा जीवन जीयेंगे.
समझदारी और विचारशीलता का तकाजा है कि संसार चक्र के बदलते क्रम के अनुरूप अपनी मन:स्थिति को तैयार रखा जाए। लाभ, सुख, सफलता, प्रगति, वैभव आदि मिलने पर अहंकार से ऐंठने की जरूरत नहीं है। कहा नहीं जा सकता कि वह स्थिति कब तक रहेगी। ऐसी दशा में रोने-झींकने, खीजने, निराश होने में शक्ति नष्ट करना व्यर्थ है। परिवर्तन के अनुरूप अपने को ढालने में, विपन्नता को सुधारने में सोचने, हल निकालने और तालमेल बिठाने में मस्तिष्क को लगाया जाए तो यह प्रयत्न रोने और सिर धुनने की अपेक्षा अधिक श्रेयस्कर होगा।
बुद्धिमानी इसी में है कि जो उपलब्ध है, उसका आनंद लिया जाय और संतोष भरा संतुलन बनाए रखा जाए।
(पं श्रीराम
शर्मा आचार्य)
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