जो भी करें, संतुष्ट होकर करे.


जो भी करेंसंतुष्ट होकर करे.

एक बार एक ऋषि अपने कुछ शिष्यों के साथ जंगल से जा रहे थे। उस समय बिजली बहुत तेज से कड़क रही थी और इसके बाद बारिश होने लगी। संत अपने शिष्यों के साथ एक पेड़ के किनारे रुक कर बारिश के खत्म होने का इंतजार करने लगे। उन्होंने देखा की एक छोटी सी बिल्ली भी वहीं दबी पड़ी है। संत ने सोचा कि अगर इसे जंगल में छोड़ दिया तो जंगली जानवर इसे खा जाएंगे।

ये सोचकर संत ने बिल्ली को अपने साथ ले लिय़ा।

बिल्ली संत से घुल-मिल गई। इसलिए हमेशा उनके आगे पीछे घूमती रहती। यहां तक की अगर वो ध्यान लगाने बैठते, तो उनकी गोद में बैठ जाती। बिल्ली ऐसा करती से ऋषि परेशान हो जाते।

एक बार उन्होंने अपने शिष्य से कहा कि मैं जब भी ध्यान करने बैंठूं, तो पहले इस बिल्ली को पेड़ से बांध दिया करना। शिष्य ने ऐसा ही किया। इसके बाद जब भी संत तपस्या करने बैठते, बिल्ली को पेड़ से बांध दिया जाता।

इसके बाद जब ऋषि का ध्यान समाप्त होता, तो बिल्ली खोल दी जाती। ऐसे करते काफी समय बीत गया। एक दिन ऋषि की मृत्यु हो गई। अब उनकी जगह उत्तराधिकारी को जो किसी अन्य आश्रम में निवासरत थे, को बुलाकर गद्दीनशीन कर दिया गया।

शिष्यों को लगा की हमारे गुरु तो जब भी ध्यान करते तो बिल्ली को बांध कर ही ध्यान करते। ऐसे में उन्होंने फिर उसी बिल्ली को वैसे ही बांधने लगे और फिर नए गुरु ध्यान करते। एक दिन ऐसा भी आया, जब बिल्ली की भी मृत्यु हो गई। अब शिष्यों को लगा की इसके बिना तो पूजा पाठ और ध्यान हो ही नहीं सकता।

ऐसे में पड़ोस से एक नई बिल्ली लाई गई, उसको बांधा गया और फिर गुरु पूजा पर बैठे।

ऐसा ही कुछ दूसरी परंपराओं के साथ होता है। अगर गुरु के आदेश पर शिष्यों ने पहले ही पूछ लिया होता कि वो ऐसा क्यों करते हैं, तो उनकी समझ में आ जाता कि ऐसा क्यों होता था। किसी ने उस कारण के पीछे कोई सवाल नहीं किया औऱ इसे परंपरा बना दिया, जिसका कोई अभिप्राय ही नहीं था। कभी कभी भी ऐसे ही बेमतलब की कुछ चीजे होती हैं, जिन्हें हम परंपरा मानकर उसका पालन करने लगते हैं। हमें पहले उसके पीछे का कारण जान लेना चाहिए और फिर उसका पालन करना चाहिए।

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