श्राध्द कार्य में स्त्री का रजस्वला हो जाना.

 

श्राध्द कार्य में
स्त्री का रजस्वला हो जाना.

 

कुछ श्राद्ध ऐसे हैं कि यदि कर्ता की पत्नी रजस्वला भी हो जाए और पाक / भोजन बनाने वाला कोई और हो, तो उसी दिन श्राद्ध हो सकते हैं और यदि भोजन बनाने वाला कोई नहीं हो तो आमान्न / कच्चा अन्न / सीधा दान करके आमान्नदानात्म उसी दिन श्राद्ध किया जा सकता हैं।

उन श्राद्धों के नाम हैं...
दर्श श्राद्ध
युगादि श्राद्ध
मन्वादि श्राद्ध
अष्टका_श्राद्ध
अन्वष्टका श्राद्ध
सकृन्महालय श्राद्ध
दौहित्र कर्तृक मातामह श्राद्ध

प्रमाण..

अथभार्यारजोदोषे - तत्रदर्शयुगादिमन्वाद्यष्टकान्वष्टकादिश्राद्धानि,
पाककर्त्रंतरसत्त्वेन्ने तद्दिने कार्याण्यन्यथामादिद्रव्येण,
कालादर्शोदर्शश्राद्धं_पंचमेहनीतिपक्षांतरमाह,
सकृन्महालयस्तु दर्शभार्यारजसि मुख्यकालातिक्रमभिया तत्रैवकार्यः,
एवमाश्विनशुक्लपंचम्यंतकालेप्यूहम्। (धर्मसिन्धौ)


2- यदि कोई महालय में पिता की मृत्यु तिथि में श्राद्ध न करके अष्टमी आदि शास्त्रों में बताए गए अन्य विकल्पों में श्राद्ध करता है, तब यदि पत्नी ऋतुमती हो जाती है तो उस दिन श्राद्ध नहीं करे। 4 दिन बाद जब भी कोई अमावस्या आदि शास्त्रोचित विकल्प हो उस दिन महालय श्राद्ध करें।

अष्टम्यादौसकृन्महालयो भार्यारजोदोषे न कार्य:,
कालान्तरसत्त्वादित्यादिमहालयप्रकरणोक्त मनुसंधेयम्। (धर्मसिन्धौ)


3- कुछ श्राद्ध ऐसे हैं, जिनके लिए शास्त्रों में विकल्प
हैं...

प्रतिसांवत्सरिक श्राद्ध
मासिक श्राद्ध

प्रथम पक्ष... उपर्युक्त दोनों श्राद्धों को नियत तिथि पर ही करें चाहे पत्नी रजस्वला हो या न हो यह प्रथम पक्ष है। यही मुख्य-पक्ष है।

द्वितीय पक्ष...उपर्युक्त दोनों श्राद्धों को पत्नी के रजस्वला होने पर पाँचवें दिन में करें, यह दूसरा पक्ष भी है।

प्रत्याब्दिकं मासिकं च रजोदोषेपि तद्दिनएवकार्यमित्येक: पक्ष:,
पंचमेहनिकार्यमित्यपर: पक्षद्वयेपियंथसंमति: शिष्टाचारसमतिश्च। (धर्मसिन्धौ)


4- यदि किसी की दो पत्नियाँ हों
...

तो श्राद्ध नियत काल पर ही होगा, यह सर्व सम्मत मत है।

"भार्यान्तरसत्त्वे तद्दिन एवेति सर्वसंमतम्।"

5- रजस्वला के दिन श्राद्ध किये जाने पर
..

श्राद्धकाले रजस्वला दर्शनादिकं वर्ज्यं। (धर्मसिन्धौ)
अर्थ….जिस दिन पत्नी रजस्वला हो और उस दिन यदि श्राद्ध करें तो श्राद्ध काल में रजस्वला को नहीं देखना चाहिए तथा रजस्वला के द्वारा भी श्राद्ध संभारादि का दर्शन नहीं होना चाहिए।

श्राद्धकल्पे च दैवे च तैर्थिके पर्वणीषु च ।
रजस्वला च या नारी श्वित्रिकापुत्रिका च या ।।
एताभिश्चक्षुषा दृष्टं हविर्नाश्नन्ति देवता:।
पितरश्च न तुष्यन्ति वर्षाण्यपि त्रयोदश ।।
(महाभारत_अनु.127/12-14)

6- छोटा घर एवं रजस्वला की स्तिथि पर ….

योग्यपाककर्त्रसंभवे_च
पंचमेहनीतिपक्षःश्रेयान्।
(धर्मसिन्धौ)

अर्थ... यदि किसी का घर इस प्रकार का नहीं हो, इतना बड़ा न हो कि श्राद्धकाल में रजस्वला को न दिखे अथवा श्राद्ध का भोजन बनाने वाला कोई दूसरा न हो, तो सभी प्रकार के श्राद्धों को पांचवे दिन (रजस्वला के शुद्ध होने पर) करना चाहिए अथवा आमान्नदानात्मक (कच्चा अन्न/ सीधा) श्राद्ध करना चाहिए।

अपत्नीकः प्रवासी च यस्य भार्या रजस्वला।
आमश्राद्धं दीवारों कार्यं शूद्रेण तु सदैव हि।।
(श्राद्धविवेक)

7- पुत्र विहीन विधवा के रजस्वला के होने पर

भर्तुराब्दिकादिकं पंचमेहनि_कुर्यान्नत्वन्यद्वातरातद्दिने। (धर्मसिन्धौ)

अर्थ…. अपुत्रा विधवा स्त्री को रजस्वलावस्था में अपने पति का श्राद्ध पांचवें दिन में करना चाहिए।

रजस्वला अवस्था में 5 दिन से पहले किसी ब्राह्मण आदि से भी नहीं कराना चाहिए

श्राद्ध संबंधित नियमपालन पूर्वक विधिवत् श्राद्ध अवश्य करना चाहिए।

श्रीमद्भागवत महापुराण: सप्तम स्कन्ध: अष्टम अध्यायः श्लोक 14-23 का हिन्दी अनुवाद

 

(लगातार-सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत पुराण)
श्रीमद्भागवत महापुराण:
सप्तम स्कन्ध: अष्टम अध्यायः
श्लोक
14-23 का हिन्दी अनुवाद


अच्छा, तुझे इस खंभे में भी दिखायी देता है! अरे, तू क्यों इतनी डींग-हाँक रहा है? मैं अभी-अभी तेरा सिर धड़ से अलग किये देता हूँ। देखता हूँ तेरा सर्वस्व हरि, जिस पर तुझे इतना भरोसा है, तेरी कैसे रक्षा करता है।'

इस प्रकर वह अत्यन्त बलवान् महादैत्य भगवान् के परमप्रेमी प्रह्लाद को बार-बार झिड़कियाँ देता और सताता रहा। जब क्रोध के मारे वह अपने को रोक न सका, तब हाथ में खड्ग लेकर सिंहासन से कूद पड़ा और बड़े जोर से उस खंभे को एक घूँसा मारा। उसी समय उस खंभे में एक बड़ा भयंकर शब्द हुआ। ऐसा जान पड़ा मानो यह ब्रह्माण्ड ही फट गया हो। वह ध्वनि जब लोकपालों के लोक में पहुँची, तब उसे सुनकर ब्रह्मादि को ऐसा जान पड़ा, मानो उनके लोकों का प्रलय हो रहा हो। हिरण्यकशिपु प्रह्लाद को मार डालने के लिये बड़े जोर से झपटा था; परन्तु दैत्य सेनापतियों को भी भय से कँपा देने वाले उस अद्भुत और अपूर्व घोर शब्द को सुनकर वह घबराया हुआ-सा देखने लगा कि यह शब्द करने वाला कौन है? परन्तु उसे सभा के भीतर कुछ भी दिखायी न पड़ा।

इसी समय अपने सेवक प्रह्लाद और ब्रह्मा की वाणी सत्य करने और समस्त पदार्थों में अपनी व्यापकता दिखाने के लिये सभा के भीतर उसी खंभे में बड़ा ही विचित्र रूप धारण करके भगवान् प्रकट हुए। वह रूप न तो पूरा-पूरा सिंह का था और न मनुष्य का ही। जिस समय हिरण्यकशिपु शब्द करने वाले की इधर-उधर खोज कर रहा था, उसी समय खंभे के भीतर से निकलते हुए उस अद्भुत प्राणी को उसने देखा। वह सोचने लगा- 'अहो, यह न तो मनुष्य है और न पशु; फिर यह नृसिंह के रूप में कौन-सा अलौकिक जीव है।'

जिस समय हिरण्यकशिपु इस उधेड़-बुन में लगा हुआ था, उसी समय उसके बिलकुल सामने ही नृसिंह भगवान् खड़े हो गये। उनका वह रूप अत्यधिक भयावना था। तपाये हुए सोने के समान पीली-पीली भयानक आँखें थीं। जँभाई लेने से गरदन के बाल इधर-उधर लहरा रहे थे। दाढ़ें बड़ी विकराल थीं। तलवार की तरह लपलपाती हुई छूरे की धार के समान तीखी जीभ थी। टेढ़ी भौंहों से उनका मुख और भी दारुण हो रहा था। कान निश्चल एवं ऊपर की ओर उठे हुए थे। फूली हुई नासिका और खुला हुआ मुँह पहाड़ की गुफा के समान अद्भुत जान पड़ता था। फटे हुए जबड़ों से उसकी भयंकरता बहुत बढ़ गयी थी। विशाल शरीर स्वर्ग का स्पर्श कर रहा था। गरदन कुछ नाटी और मोटी थी। छाती चौड़ी और कमर बहुत पतली थी। चन्द्रमा की किरणों के समान सफ़ेद रोएँ सारे शरीर पर चमक रहे थे, चारों ओर सैकड़ों भुजाएँ फैली हुई थीं, जिनके बड़े-बड़े नख आयुध का काम देते थे। उनके पास फटकने तक का साहस किसी को न होता था। चक्र आदि अपने निज आयुध तथा वज्र आदि अन्य श्रेष्ठ शस्त्रों के द्वारा उन्होंने सारे दैत्य-दानवों को भगा दिया। हिरण्यकशिपु सोचने लगा- 'हो-न-हो महामायावी विष्णु ने ही मुझे मार डालने के लिये यह ढंग रचा है; परन्तु इसकी इन चालों से हो ही क्या सकता है।'

श्रीमद्भागवत महापुराण: सप्तम स्कन्ध: अष्टम अध्यायः श्लोक 1-13 का हिन्दी अनुवाद.

 

(लगातार-सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत पुराण)
श्रीमद्भागवत महापुराण:
सप्तम स्कन्ध: अष्टम अध्यायः
श्लोक 1-13 का हिन्दी अनुवाद.


नृसिंह भगवान् का प्रादुर्भाव, हिरण्यकशिपु का वध एवं
                                ब्रह्मादि देवताओं द्वारा भगवान् की स्तुति.


नारद जी कहते हैं—प्रह्लाद का प्रवचन सुनकर दैत्य बालकों ने उसी समय से निर्दोष होने के कारण, उनकी बात पकड़ ली। गुरु जी की दूषित शिक्षा की ओर उन्होंने ध्यान ही न दिया।

जब गुरु जी ने देखा कि उन सभी विद्यार्थियों की बुद्धि एकमात्र भगवान् में स्थिर हो रही है, तब वे बहुत घबराये और तुरंत हिरण्यकशिपु के पास जाकर निवेदन किया। अपने पुत्र प्रह्लाद की इस असह्य और अप्रिय अनीति को सुनकर क्रोध के मारे उसका शरीर थर-थर काँपने लगा। अन्त में उसने यही निश्चय किया कि प्रह्लाद को अब अपने ही हाथ से मार डालना चाहिये।

मन और इन्द्रियों को वश में रखने वाले प्रह्लाद जी बड़ी नम्रता से हाथ जोड़कर चुपचाप हिरण्यकशिपु के सामने खड़े थे और तिरस्कार के सर्वथा अयोग्य थे। परन्तु हिरण्यकशिपु स्वभाव से ही क्रूर था। वह पैर की चोट खाये हुए साँप की तरह फुफकारने लगा। उसने उनकी ओर पाप भरी टेढ़ी नजर से देखा और कठोर वाणी से डाँटते हुए कह- ‘मूर्ख! तू बड़ा उदण्ड हो गया है। स्वयं तो नीच है ही, अब हमारे कुल के और बालकों को भी फोड़ना चाहता है। तूने बड़ी ढिठाई से मेरी आज्ञा का उल्लंघन किया है। आज ही तुझे यमराज के घर भेजकर इसका फल चखाता हूँ। मैं तनिक-सा क्रोध करता हूँ तो तीनों लोक और उनके लोकपाल काँप उठते हैं। फिर मूर्ख! तूने किसके बल-बूते पर निडर की तरह मेरी आज्ञा के विरुद्ध काम किया है?'

प्रह्लाद ने कहा- दैत्यराज! ब्रह्मा से लेकर तिनके तक सब छोड़े-बड़े, चर-अचर जीवों को भगवान् ने ही अपने वश में कर रखा है। न केवल मेरे और आपके, बल्कि संसार के समस्त बलवानों के बल भी केवल वही हैं। वे ही महापराक्रमी सर्वशक्तिमान् प्रभु काल हैं तथा समस्त प्राणियों के इन्द्रियबल, मनोबल, देहबल, धैर्य एवं इन्द्रिय भी वही हैं। वह परमेश्वर अपनी शक्तियों के द्वारा इस विश्व की रचना, रक्षा और संहार करते हैं। वे ही तीनों गुणों के स्वामी हैं। आप अपना यह आसुर भाव छोड़ दीजिये। अपने मन को सबके प्रति समान बनाइये। इस संसार में अपने वश में न रहने वाले कुमार्गगामी मन के अतिरिक्त और कोई शत्रु नहीं है। मन में सबके प्रति समता का भाव लाना ही भगवान् की सबसे बड़ी पूजा है। जो लोग अपना सर्वस्व लूटने वाले इन छः इन्द्रियरूपी डाकुओं पर तो पहले विजय नहीं प्राप्त करते और ऐसा मानने लगते हैं कि हमने दासों दिशाएँ जीत लीं, वे मूर्ख हैं। हाँ, जिस ज्ञानी एवं जितेन्द्रिय महात्मा ने समस्त प्राणियों के प्रति समता का भाव प्राप्त कर लिया, उसके अज्ञान से पैदा होने वाले काम-क्रोधादि शत्रु भी मर-मिट जाते हैं; फिर बाहर के शत्रु तो रहें ही कैसे।

हिरण्यकशिपु ने कहा- 'रे मन्दबुद्धि! तेरे बहकने की भी अब हद हो गयी है। यह बात स्पष्ट है कि अब तू मरना चाहता है। क्योंकि जो मरना चाहते हैं, वे ही ऐसी बेसिर-पैर की बातें बका करते हैं। अभागे! तूने मेरे सिवा जो और किसी को जगत् का स्वामी बतलाया है, सो देखूँ तो तेरा वह जगदीश्वर कहाँ है। अच्छा, क्या कहा, वह सर्वत्र है? तो इस खंभे में क्यों नहीं दीखता?

श्रीमद्भागवत महापुराण: सप्तम स्कन्ध: सप्तम अध्यायः श्लोक 43-55 का हिन्दी अनुवाद

 

(लगातार-सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत पुराण)
श्रीमद्भागवत महापुराण:
सप्तम स्कन्ध: सप्तम अध्यायः
श्लोक 43-55 का हिन्दी अनुवाद


मनुष्य इस लोक में सकाम कर्मों के द्वारा जिस शरीर के लिये भोग प्राप्त करना चाहता है, वह शरीर ही पराया-स्यार-कुत्तों का भोजन और नाशवान् है। कभी वह मिल जाता है तो कभी बिछुड़ जाता है। जब शरीर की ही यह दशा है-तब इससे अलग रहने वाले पुत्र, स्त्री, महल, धन, सम्पत्ति, राज्य, खजाने, हाथी-घोड़े, मन्त्री, नौकर-चाकर, गुरुजन और दूसरे अपने कहलाने वालों की तो बात ही क्या है। ये तुच्छ विषय शरीर के साथ ही नष्ट हो जाते हैं। ये जान तो पड़ते हैं पुरुषार्थ के समान, परन्तु हैं वास्तव में अनर्थरूप ही। आत्मा स्वयं ही अनन्त आनन्द का महान् समुद्र है। उसके लिये इन वस्तुओं की क्या आवश्यकता है?

भाइयों! तनिक विचार तो करो-जो जीव गर्भाधान से लेकर मृत्यु पर्यन्त सभी अवस्थाओं में अपने कर्मों के अधीन होकर क्लेश-ही-क्लेश भोगत है, उसका इस संसार में स्वार्थ ही क्या है। यह जीव सूक्ष्म शरीर को ही अपना आत्मा मानकर उसके द्वारा अनेकों प्रकार के कर्म करता है और कर्मों के कारण ही फिर शरीर ग्रहण करता है। इस प्रकार कर्म से शरीर और शरीर से कर्म की परम्परा चल पड़ती है। और ऐसा होता है अविवेक के कारण। इसलिये निष्कामभाव से निष्क्रिय आत्मस्वरूप भगवान् श्रीहरि का भजन करना चाहिये। अर्थ, धर्म और काम-सब उन्हीं के आश्रित हैं, बिना उनकी इच्छा के नहीं मिल सकते। भगवान् श्रीहरि समस्त प्राणियों के ईश्वर, आत्मा और परम प्रियतम हैं। वे अपने ही बनाये हुए पंचभूत और सूक्ष्मभूत आदि के द्वारा निर्मित शरीरों में जीव के नाम से कहे जाते हैं। देवता, दैत्य, मनुष्य, यक्ष अथवा गन्धर्व- कोई भी क्यों न हो-जो भगवान् के चरणकमलों का सेवन करता है, वह हमारे ही समान कल्याण का भाजन होता है।

दैत्यबालको! भगवान् को प्रसन्न करने के लिये ब्राह्मण, देवता या ऋषि होना, सदाचार और विविध ज्ञानों से सम्पन्न होना तथा दान, तप, यज्ञ, शारीरिक और मानसिक शौच और बड़े-बड़े व्रतों का अनुष्ठान पर्याप्त नहीं है। भगवान् केवल निष्काम प्रेम-भक्ति से ही प्रसन्न होते हैं। और सब तो विडम्बना-मात्र हैं। इसलिये दानव-बन्धुओं! समस्त प्राणियों को अपने समान ही समझकर सर्वत्र विराजमान, सर्वात्मा, सर्वशक्तिमान् भगवान् की भक्ति करो। भगवान् की भक्ति के प्रभाव से दैत्य, यक्ष, राक्षस, स्त्रियाँ, शूद्र, गो पालक अहीर, पक्षी, मृग और बहुत-से पापी जीव भी भगवद्भाव को प्राप्त हो गये हैं। इस संसार में या मनुष्य-शरीर में जीव का सबसे बड़ा स्वार्थ अर्थात् एकमात्र परमार्थ इतना ही है कि वह भगवान् श्रीकृष्ण की अनन्य भक्ति प्राप्त करे। उस भक्ति का स्वरूप है सर्वदा, सर्वत्र जब वस्तुओं में भगवान् का दर्शन।

श्रीमद्भागवत महापुराण: सप्तम स्कन्ध: सप्तम अध्यायः श्लोक 32-42 का हिन्दी अनुवाद

 

(लगातार-सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत पुराण)
श्रीमद्भागवत महापुराण:
सप्तम स्कन्ध: सप्तम अध्यायः
श्लोक
32-42 का हिन्दी अनुवाद


सर्वशक्तिमान् भगवान् श्रीहरि समस्त प्राणियों में विराजमान हैं-ऐसी भावना से यथाशक्ति सभी प्राणियों की इच्छा पूर्ण करे और हृदय से उनका सम्मान करे। काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद और मत्सर-इन छः शत्रुओं पर विजय प्राप्त करके जो लोग इस प्रकार भगवान् की साधन-भक्ति का अनुष्ठान करते हैं, उन्हें उस भक्ति के द्वारा भगवान् श्रीकृष्ण के चरणों में अनन्य प्रेम की प्राप्ति हो जाती है।

जब भगवान् के लीला शरीरों से किये हुए अद्भुत पराक्रम, उनके अनुपम गुण और चरित्रों को श्रवण करके अत्यन्त आनन्द के उद्रेक से मनुष्य का रोम-रोम खिल उठता है, आँसुओं के मारे कण्ठ गद्गद हो जाता है और वह संकोच छोड़कर जोर-जोर से गाने-चिल्लाने और नाचने लगता है; जिस समय वह ग्रहग्रस्त पागल की तरह कभी हँसता है, कभी करुण-क्रन्दन करने लगता है, कभी ध्यान करता है तो कभी भगवद्भाव से लोगों की वन्दना करने लगता है; जब वह भगवान् में ही तन्मय हो जाता है, बार-बार लंबी साँस खींचता है और संकोच छोड़कर ‘हरे! जगत्पते!! नारायण’!! कहकर पुकारने लगता है-तब भक्तियोग के महान् प्रभाव से उसके सारे बन्धन कट जाते हैं और भगवद्भाव की ही भावना करते-करते उसका हृदय भी तदाकार-भगवन्मय हो जाता है। उस समय उसके जन्म-मृत्यु के बीजों का खजाना ही जल जाता है और वह पुरुष श्रीभगवान् को प्राप्त कर लेता है।

इस अशुभ संसार के दलदल में फँसकर अशुभमय हो जाने वाले जीव के लिये भगवान् की यह प्राप्ति संसार के चक्कर को मिटा देने वाली है। इसी वस्तु को कोई विद्वान् ब्रह्म और कोई निर्वाण-सुख के रूप में पहचानते हैं। इसलिये मित्रो! तुम लोग अपने-अपने हृदय में हृदयेश्वर भगवान् का भजन करो।

असुरकुमारो! अपने हृदय में ही आकाश के समान नित्य विराजमान भगवान् का भजन करने में कौन-सा विशेष परिश्रम है। वे समान रूप से समस्त प्राणियों के अत्यन्त प्रेमी मित्र हैं; और तो क्या, अपने आत्मा ही हैं। उनको छोड़कर भोग सामग्री इकट्ठी करने के लिये भटकना-राम! राम! कितनी मूर्खता है। अरे भाई! धन, स्त्री, पशु, पुत्र, पुत्री, महल, पृथ्वी, हाथी, खजाना और भाँति-भाँति की विभूतियाँ-और तो क्या, संसार का समस्त धन तथा भोग सामग्रियाँ इस क्षणभंगुर मनुष्य को क्या सुख दे सकती हैं। वे स्वयं ही क्षणभंगुर हैं। जैसे इस लोक की सम्पत्ति प्रत्यक्ष ही नाशवान् है, वैसे ही यज्ञों से प्राप्त होने वाले स्वर्गादि लोक भी नाशवान् और आपेक्षिक-एक-दूसरे से छोटे-बड़े, नीचे-ऊँचे हैं। इसलिये वे भी निर्दोष नहीं हैं। निर्दोष हैं केवल परमात्मा। न किसी ने उनमें दोष देखा है और न सुना है; अतः परमात्मा की प्राप्ति के लिये अनन्य भक्ति से उन्हीं परमेश्वर का भजन करना चाहिये।

इसके सिवा अपने को बड़ा विद्वान् मानने वाला पुरुष इस लोक में जिस उद्देश्य से बार-बार बहुत-से कर्म करता है, उस उद्देश्य की प्रप्ति तो दूर रही-उलटा उसे उसके विपरीत ही फल मिलता है और निस्सदेह मिलता है। कर्म में प्रवृत्त होने के दो ही उद्देश्य होते हैं-सुख पाना और दुःख से छूटना। परन्तु जो पहले कामना न होने के कारण सुख में निमग्न रहता था, उसे ही अब कामना के कारण यहाँ सदा-सर्वदा दुःख ही भोगना पड़ता है।

श्रीमद्भागवत महापुराण: सप्तम स्कन्ध: सप्तम अध्यायः श्लोक 17-31 का हिन्दी अनुवाद

 

(लगातार-सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत पुराण)
श्रीमद्भागवत महापुराण:
सप्तम स्कन्ध: सप्तम अध्यायः
श्लोक 17-31 का हिन्दी अनुवाद


यदि तुम लोग मेरी इस बात पर श्रद्धा करो तो तुम्हें भी वह ज्ञान हो सकता है। क्योंकि श्रद्धा से स्त्री और बालकों की बुद्धि भी मेरे समान शुद्ध हो सकती है। जैसे ईश्वरमूर्ति काल की प्रेरणा से वृक्षों के फल लगते, ठहरते, बढ़ते, पकते, क्षीण होते और नष्ट हो जाते हैं-वैसे ही जन्म, अस्तित्व की अनुभूति, वृद्धि, परिणाम, क्षय और विनाश-ये छः भाव-विकार शरीर में ही देखे जाते हैं, आत्मा से इनका कोई सम्बन्ध नहीं है। आत्मा नित्य, अविनाशी, शुद्ध, एक, क्षेत्रज्ञ, आश्रय, निर्विकार, स्वयंप्रकाश, सबका कारण, व्यापक, असंग तथा आवरणरहित है। ये बारह आत्मा के उत्कृष्ट लक्षण हैं। इनके द्वारा आत्मतत्त्व को जानने वाले पुरुष को चाहिये कि शरीर आदि में अज्ञान के कारण जो ‘मैं’ और ‘मेरे’ का झूठा भाव हो रहा है, उसे छोड़ दे। जिस प्रकार सुवर्ण की खानों में पत्थर में मिले हुए सुवर्ण को उसके निकालने की विधि जानने वाला स्वर्णकार उन विधियों से उसे प्राप्त कर लेता है, वैसे ही अध्यात्मतत्त्व को जानने वाला पुरुष आत्मप्राप्ति के उपायों द्वारा अपने शरीररूप क्षेत्र में ही ब्रह्मपद का साक्षात्कार कर लेता है।

आचार्यों ने मूल प्रकृति, महत्तत्त्व, अहंकार और पंचतन्मात्राएँ-इन आठ तत्त्वों को प्रकृति बतलाया है। उनके तीन गुण हैं-सत्त्व, रज और तम तथा उनके विकार हैं सोलह-दस इन्द्रियाँ, एक मन और पंचमहाभूत। इन सबमें एक पुरुषतत्त्व अनुगत है। इस सबका समुदाय ही देह है। यह दो प्रकार का है-स्थावर और जंगम। इसी में अन्तःकरण, इन्द्रिय आदि अनात्मवस्तुओं का ‘यह आत्मा नहीं है’-इस प्रकार बाध करते हुए आत्मा को ढूंढना चाहिये। आत्मा सबमें अनुगत है, परन्तु है वह सबसे पृथक्। इस प्रकार शुद्ध बुद्धि से धीरे-धीरे संसार की उत्पत्ति, स्थिति और उसके प्रलय पर विचार करना चाहिये। उतावली नहीं करनी चाहिये। जाग्रत्, स्वप्न और सुषुप्ति-ये तीनों बुद्धि की वृत्तियाँ हैं। इन अतीत, सबका साक्षी परमात्मा है। जैसे गन्ध से उसके आश्रय वायु का ज्ञान होता है, वैसे ही बुद्धि की इन कर्मजन्य एवं बदलने वाली तीनों अवस्थाओं के द्वारा इनमें साक्षीरूप से अनुगत आत्मा को जाने। गुणों और कर्मों के कारण होने वाला जन्म-मृत्यु का यह चक्र आत्मा को शरीर और प्रकृति से पृथक् न करने के कारण ही है। यह अज्ञानमूलक एवं मिथ्या है। फिर भी स्वप्न के समान जीव को इसकी प्रतीति हो रही है।

इसलिये तुम लोगों को सबसे पहले इन गुणों के अनुसार होने वाले कर्मों का बीज ही नष्ट कर देना चाहिये। इससे बुद्धि-वृत्तियों का प्रवाह निवृत्त हो जाता है। इसी को दूसरे शब्दों में योग या परमात्मा से मिलन कहते हैं। यों तो इन त्रिगुणात्मक कर्मों की जड़ उखाड़ फेंकने के लिये अथवा बुद्धि-वृत्तियों का प्रवाह बंद कर देने के लिये सहस्रों साधन हैं; परन्तु जिस उपाय से और जैसे सर्वशक्तिमान् भगवान् में स्वाभाविक निष्काम प्रेम हो जाये, वही उपाय सर्वश्रेष्ठ है। यह बात स्वयं भगवान् ने कही है। गुरु की प्रेमपूर्वक सेवा, अपने को जो कुछ मिले वह सब प्रेम से भगवान् को समर्पित कर देना, भगवत्प्रेमी महात्माओं का सत्संग, भगवान् की आराधना, उनकी कथावार्ता में श्रद्धा, उनके गुण और लीलाओं का कीर्तन, उनके चरणकमलों का ध्यान और उनके मन्दिर, मूर्ति आदि का दर्शन-पूजन आदि साधनों से भगवान् में स्वाभाविक प्रेम हो जाता है।

श्रीमद्भागवत महापुराण: सप्तम स्कन्ध: सप्तम अध्यायः श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद.

 

(लगातार-सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत पुराण)
श्रीमद्भागवत महापुराण:
सप्तम स्कन्ध: सप्तम अध्यायः
श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद.


प्रह्लाद जी द्वारा माता के गर्भ में प्राप्त
                   हुए नारद जी के उपदेश का वर्णन.

 

नारद जी कहते हैं- युधिष्ठिर! जब दैत्य बालकों ने इस प्रकार प्रश्न किया, तब भगवान् के परमप्रेमी भक्त प्रह्लाद जी को मेरी बात का स्मरण हो आया। कुछ मुसकराते हुए उन्होंने उनसे कहा।

प्रह्लाद जी ने कहा- जब हमारे पिताजी तपस्या करने के लिये मन्दराचल पर चले गये, तब इन्द्रादि देवताओं ने दानवों से युद्ध करने का बहुत बड़ा उद्योग किया। वे इस प्रकार कहने लगे कि जैसे चींटियाँ साँप को चाट जाती हैं, वैसे ही लोगों को सताने वाले पापी हिरण्यकशिपु को उसका पाप ही खा गया। जब दैत्य सेनापतियों को देवताओं की भारी तैयारी का पता चला, तब उनका साहस जाता रहा। वे उनका सामना नहीं कर सके। मार खाकर स्त्री, पुत्र, मित्र, गुरुजन, महल, पशु और साज-सामान की कुछ चिन्ता न करके वे अपने प्राण बचाने के लिये बड़ी जल्दी में सब-के-सब इधर-उधर भाग गये। अपनी जीत चाहने वाले देवताओं ने राजमहल में लूट-खसोट मचा दी। यहाँ तक कि इन्द्र ने राजरानी मेरी माता कयाधु को भी बन्दी बना लिया। मेरी मा भय से घबराकर कुररी पक्षी की भाँति रो रही थी और इन्द्र उसे बलात् लिये जा रहे थे। दैववश देवर्षि नारद उधर आ निकले और उन्होंने मार्ग में मेरी माँ को देख लिया। उन्होंने कहा- ‘देवराज! यह निरपराध है। इसे ले जाना उचित नहीं। महाभाग! इस सती-साध्वी परनारी का तिरस्कार मत करो। इसे छोड़ दो, तुरंत छोड़ दो!'

इन्द्र ने कहा- 'इसके पेट में देवद्रोही हिरण्यकशिपु का अत्यन्त प्रभावशाली वीर्य है। प्रसवपर्यन्त यह मेरे पास रहे, बालक हो जाने पर उसे मारकर मैं इसे छोड़ दूँगा।'

नारद जी ने कहा- ‘इसके गर्भ में भगवान् का साक्षात् परमप्रेमी भक्त और सेवक, अत्यन्त बली और निष्पाप महात्मा है। तुममें उसको मारने की शक्ति नहीं है।’

देवर्षि नारद की यह बात सुनकर उसका सम्मान करते हुए इन्द्र ने मेरी माता को छोड़ दिया और फिर इसके गर्भ में भगवद्भक्त है, इस भाव से उन्होंने मेरी माता की प्रदक्षिणा की तथा अपने लोक में चले गये।

इसके बाद देवर्षि नारद जी मेरी माता को अपने आश्रम पर लिवा ले गये और उसे समझा-बुझाकर कहा कि- ‘बेटी! जब तक तुम्हारा पति तपस्या करके लौटे, तब तक तुम यहीं रहो।’ ‘जो आज्ञा’ कहकर वह निर्भयता से देवर्षि नारद के आश्रम पर ही रहने लगी और तब तक रही, जब तक मेरे पिता घोर तपस्या से लौटकर नहीं आये। मेरी गर्भवती माता मुझ गर्भस्थ शिशु की मंगल कामना से और इच्छित समय पर (अर्थात् मेरे पिता के लौटने के बाद) सन्तान उत्पन्न करने की कामना से बड़े प्रेम तथा भक्ति के साथ नारद जी की सेवा-शुश्रूषा करती रही।

देवर्षि नारद जी बड़े दयालु और सर्वसमर्थ हैं। उन्होंने मेरी माँ को भागवत धर्म का रहस्य और विशुद्ध ज्ञान- दोनों का उपदेश किया। उपदेश करते समय उनकी दृष्टि मुझ पर भी थी। बहुत समय बीत जाने के कारण और स्त्री होने के कारण भी मेरी माता को तो अब उस ज्ञान की स्मृति नहीं रही, परन्तु देवर्षि की विशेष कृपा होने के कारण मुझे उसकी विस्मृति नहीं हुई।

श्रीमद्भागवत महापुराण: सप्तम स्कन्ध: षष्ठ अध्यायः श्लोक 25-30 का हिन्दी अनुवाद

 

(लगातार-सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत पुराण)
श्रीमद्भागवत महापुराण:
सप्तम स्कन्ध: षष्ठ अध्यायः
श्लोक 25-30 का हिन्दी अनुवाद


आदि नारायण अनन्त भगवान् के प्रसन्न हो जाने पर ऐसी कौन-सी वस्तु है, जो नहीं मिल जाती? लोक और परलोक के लिये जिन धर्म, अर्थ आदि की आवश्यकता बतलायी जाती है-वे तो गुणों के परिणाम से बिना प्रयास के स्वयं ही मिलने वाले हैं। जब हम श्रीभगवान् के चरणामृत का सेवन करने और उनके नाम-गुणों का कीर्तन करने में लगे हैं, तब हमें मोक्ष की भी क्या आवश्यकता है। यों शास्त्रों में धर्म, अर्थ और काम- इन तीनों पुरुषार्थों का भी वर्णन है।

आत्मविद्या, कर्मकाण्ड, न्याय (तर्कशास्त्र), दण्डनीति और जीविका के विविध साधन- ये सभी वेदों के प्रतिपाद्य विषय हैं; परन्तु यदि ये अपने परम हितैषी, परम पुरुष भगवान् श्रीहरि को आत्मसमर्पण करने में सहायक हैं, तभी मैं इन्हें सत्य (सार्थक) मानता हूँ। अन्यथा ये सब-के-सब निरर्थक हैं।

यह निर्मल ज्ञान जो मैंने तुम लोगों को बतलाया है, बड़ा ही दुर्लभ है। इसे पहले नर-नारायण ने नारद जी को उपदेश किया था और यह ज्ञान उन सब लोगों को प्राप्त हो सकता है, जिन्होंने भगवान् के अनन्य प्रेमी एवं अकिंचन भक्तों के चरणकमलों की धूलि से अपने शरीर को नहला लिया है। यह विज्ञान सहित ज्ञान विशुद्ध भागवत धर्म है। इसे मैंने भगवान् का दर्शन कराने वाले देवर्षि नारद जी के मुँह से ही पहले-पहल सुना था।

प्रह्लाद जी के सहपाठियों ने पूछा- प्रह्लाद जी! इन दोनों गुरुपुत्रों को छोड़कर और किसी गुरु को तो न तुम जानते हो और न हम। ये ही हम सब बालकों के शासक हैं। तुम एक तो अभी छोटी अवस्था के हो और दूसरे जन्म से ही महल में अपनी माँ के पास रहे हो। तुम्हारा महात्मा नारद जी से मिलना कुछ असंगत-सा जान पड़ता है। प्रियवर! यदि इस विषय में विश्वास दिलाने वाली कोई बात हो तो तुम उसे कहकर हमारी शंका मिटा दो।

श्रीमद्भागवत महापुराण: सप्तम स्कन्ध: षष्ठ अध्यायः श्लोक 13-24 का हिन्दी अनुवाद

 

(लगातार-सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत पुराण)
श्रीमद्भागवत महापुराण:
सप्तम स्कन्ध: षष्ठ अध्यायः
श्लोक
13-24 का हिन्दी अनुवाद


जो जननेन्द्रिय और रसनेन्द्रिय के सुखों को ही सर्वस्व मान बैठा है, जिसकी भोगवासनाएँ कभी तृप्त नहीं होतीं, जो लोभवश कर्म-पर-कर्म करता हुआ रेशम के कीड़े की तरह अपने को और भी कड़े बन्धन में जकड़ता जा रहा है और जिसके मोह की कोई सीमा नहीं है- वह उनसे किस प्रकार विरक्त हो सकता है और कैसे उनका त्याग कर सकता है। यह मेरा कुटुम्ब है, इस भाव से उसमें वह इतना रम जाता है कि उसी के पालन-पोषण के लिये अपनी अमूल्य आयु को गवाँ देता है और उसे यह भी नहीं जान पड़ता कि मेरे जीवन का वास्तविक उद्देश्य नष्ट हो रहा है। भला, इस प्रमाद की भी कोई सीमा है। यदि इन कामों में कुछ सुख मिले तो भी एक बात है; परन्तु यहाँ तो जहाँ-जहाँ वह जाता है, वहीं-वहीं दैहिक, दैविक और भौतिक ताप उसके हृदय को जलाते ही रहते हैं। फिर भी वैराग्य का उदय नहीं होता। कितनी विडम्बना है। कुटुम्ब की ममता के फेर में पड़कर वह इतना असावधान हो जाता है, उसका मन धन के चिन्तन में सदा इतना लवलीन रहता है कि वह दूसरे का धन चुराने के लौकिक-पारलौकिक दोषों को जानता हुआ भी कामनाओं को वश में न कर सकने के कारण इन्द्रियों के भोग की लालसा से चोरी कर ही बैठता है।

भाइयों! जो इस प्रकार अपने कुटुम्बियों के पेट पालने में ही लगा रहता है- कभी भगवद्भजन नहीं करता- वह विद्वान् हो, तो भी उसे परमात्मा की प्राप्ति नहीं हो सकती। क्योंकि अपने-पराये का भेद-भाव रहने के कारण उसे भी अज्ञानियों के समान ही तमःप्रधान गति प्राप्त होती है। जो कामिनियों के मनोरंजन का सामान- उनका क्रीड़ामृग बन रहा है और जिसने अपने पैरों में सन्तान की बेड़ी जकड़ ली है, वह बेचारा गरीब-चाहे कोई भी हो, कहीं भी हो- किसी भी प्रकार से अपना उद्धार नहीं कर सकता। इसलिये भाइयों! तुम लोग विषयासक्त दैत्यों का संग दूर से ही छोड़ दो और आदिदेव भगवान् नारायण की शरण ग्रहण करो। क्योंकि जिन्होंने संसार की आसक्ति छोड़ दी है, उन महात्माओं के वे ही परम प्रियतम और परम गति हैं।

मित्रो! भगवान् को प्रसन्न करने के लिये कोई बहुत परिश्रम या प्रयत्न नहीं करना पड़ता। क्योंकि वे समस्त प्राणियों के आत्मा हैं और सर्वत्र सबकी सत्ता के रूप में स्वयं सिद्ध वस्तु हैं। ब्रह्मा से लेकर तिनके तक छोड़े-बड़े समस्त प्राणियों में, पंचभूतों से बनी हुई वस्तुओं में, पंचभूतों में, सूक्ष्म तन्मात्राओं में, महत्तत्त्व में, तीनों गुणों में और गुणों की साम्यावस्था प्रकृति में एक ही अविनाशी परमात्मा विराजमान हैं। वे ही समस्त सौन्दर्य, माधुर्य और ऐश्वर्यों की खान हैं। वे ही अन्तर्यामी द्रष्टा के रूप में हैं और वे ही दृश्य जगत् के रूप में भी हैं। सर्वथा अनिर्वचनीय तथा विकल्परहित होने पर द्रष्टा और दृश्य, व्याप्य और व्यापक के रूप में उनका निर्वचन किया जाता है। वस्तुतः उनमें एक भी विकल्प नहीं है। वे केवल अनुभवस्वरूप, आनन्दस्वरूप एकमात्र परमेश्वर ही हैं। गुणमयी सृष्टि करने वाली माया के द्वारा ही उनका ऐश्वर्य छिप रहा है। इसके निवृत्त होते ही उनके दर्शन हो जाते हैं। इसलिये तुम लोग अपने दैत्यपने का, आसुरी सम्पत्ति का त्याग करके समस्त प्राणियों पर दया करो। प्रेम से उनकी भलाई करो। इसी से भगवान् प्रसन्न होते हैं।

श्रीमद्भागवत महापुराण: सप्तम स्कन्ध: षष्ठ अध्यायः श्लोक 1-12 का हिन्दी अनुवाद

 (लगातार-सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत पुराण)
श्रीमद्भागवत महापुराण:
सप्तम स्कन्ध: षष्ठ अध्यायः
श्लोक 1-12 का हिन्दी अनुवाद

 प्रह्लाद जी का असुर-बालकों को उपदेश.

प्रह्लाद जी ने कहा- मित्रो! इस संसार में मनुष्य-जन्म बड़ा दुर्लभ है। इसके द्वारा अविनाशी परमात्मा की प्राप्ति हो सकती है। परन्तु पता नहीं कब इसका अन्त हो जाये; इसलिये बुद्धिमान् पुरुष को बुढ़ापे या जवानी के भरोसे न रहकर बचपन में ही भगवान् की प्राप्ति कराने वाले साधनों का अनुष्ठान कर लेना चाहिये। इस मनुष्य-जन्म में श्रीभगवान् के चरणों की शरण लेना ही जीवन की एकमात्र सफलता है। क्योंकि भगवान् समस्त प्राणियों के स्वामी, सुहृद्, प्रियतम और आत्मा हैं। भाइयों! इन्द्रियों से जो सुख भोगा जाता है, वह तो- जीव चाहे जिस योनि में रहे- प्रारब्ध के अनुसार सर्वत्र वैसे ही मिलता रहता है, जैसे बिना किसी प्रकार का प्रयत्न किये, निवारण करने पर भी दुःख मिलता है। इसलिये सांसारिक सुख के उद्देश्य से प्रयत्न करने की कोई आवश्यकता नहीं है। क्योंकि स्वयं मिलने वाली वस्तु के लिये परिश्रम करना आयु और शक्ति को व्यर्थ गँवाना है। जो इनमें उलझ जाते हैं, उन्हें भगवान् के परम कल्याणस्वरूप चरणकमलों की प्राप्ति नहीं होती। हमारे सिर पर अनेकों प्रकार के भय सवार रहते हैं। इसलिये यह शरीर-जो भगवत्प्राप्ति के लिये पर्याप्त है-जब तक रोग-शोकादि ग्रस्त होकर मृत्यु के मुख में नहीं चला जाता, तभी तक बुद्धिमान् पुरुष को अपने कल्याण के लिये प्रयत्न कर लेना चाहिये। मनुष्य की पूरी आयु सौ वर्ष की है। जिन्होंने अपनी इन्द्रियों को वश में नहीं कर लिया है, उनकी आयु का आधा हिस्सा तो यों ही बीत जाता है। क्योंकि वे रात में घोर तमोगुण-अज्ञान से ग्रस्त होकर सोते रहते हैं। बचपन में उन्हें अपने हित-अहित का ज्ञान नहीं रहता, कुछ बड़े होने पर कुमार अवस्था में वे खेल-कूद में लग जाते हैं। इस प्रकार बीस वर्ष का तो पता ही नहीं चलता। जब बुढ़ापा शरीर को ग्रस लेता है, तब अन्त के बीस वर्षों में कुछ करने-धरने की शक्ति ही नहीं रह जाती। रह गयी बीच की कुछ थोड़ी-सी आयु। उसमें कभी न पूरी होने वाली बड़ी-बड़ी कामनाएँ हैं, बलात् पकड़ रखने वाला मोह है और घर-द्वार की वह आसक्ति है, जिससे जीव इतना उलझ जाता है कि उसे कुछ कर्तव्य-अकर्तव्य का ज्ञान ही नहीं रहता। इस प्रकार बची-खुची आयु भी हाथ से निकल जाती है। दैत्य बालकों! जिसकी इन्द्रियाँ वश में नहीं हैं, ऐसा कौन-सा पुरुष होगा, जो घर-गृहस्थी में आसक्त और माया-ममता की मजबूत फाँसी में फँसे हुए अपने-आपको उससे छुड़ाने का साहस कर सके। जिसे चोर, सेवक एवं व्यापारी अपने अत्यन्त प्यारे प्राणों की भी बाजी लगाकर संग्रह करते हैं और इसलिये उन्हें जो प्राणों से भी अधिक वांछनीय है-उस धन की तृष्णा को भला कौन त्याग सकता है। जो अपनी प्रियतमा पत्नी के एकान्त सहवास, उसकी प्रेम भरी बातों और मीठी-मीठी सलाह पर अपने को निछावर कर चुका है, भाई-बन्धु और मित्रों के स्नेह-पाश में बँध चुका है और नन्हें-नन्हें शिशुओं की तोतली बोली पर लुभा चुका है- भला, वह उन्हें कैसे छोड़ सकता है। जो अपनी ससुराल गयी हुई प्रिय पुत्रियों, पुत्रों, भाई-बहिनों और दीन अवस्था को प्राप्त पिता-माता, बहुत-सी सुन्दर-सुन्दर बहुमूल्य सामग्रियों से सजे हुए घरों, कुलपरम्परागत जीविका के साधनों तथा पशुओं और सेवकों के निरन्तर स्मरण में रम गया है, वह भला-उन्हें कैसे छोड़ सकता है।

श्रीमद्भागवत महापुराण: सप्तम स्कन्ध: पंचम अध्यायः श्लोक 42-57 का हिन्दी अनुवाद

 

(लगातार-सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत पुराण)
श्रीमद्भागवत महापुराण:
सप्तम स्कन्ध: पंचम अध्यायः
श्लोक
42-57 का हिन्दी अनुवाद


युधिष्ठिर! जब शूलों की मार से प्रह्लाद के शरीर पर कोई असर नहीं हुआ, तब हिरण्यकशिपु को बड़ी शंका हुई। अब वह प्रह्लाद को मार डालने के लिये बड़े हठ से भाँति-भाँति के उपाय करने लगा। उसने उन्हें बड़े-बड़े मतवाले हाथियों से कुचलवाया, विषधर साँपों से डंसवाया, पुरोहितों से कृत्या राक्षसी उत्पन्न करायी, पहाड़ की चोटी से नीचे डलवा दिया, शम्बरासुर से अनेकों प्रकार की माया का प्रयोग करवाया, अँधेरी कोठरियों में बंद करा दिया, विष पिलाया और खाना बंद कर दिया। बर्फीली जगह, दहकती हुई आग और समुद्र में बारी-बार से डलवाया, आँधी में छोड़ दिया तथा पर्वतों के नीचे दबवा दिया; परन्तु इनमें से किसी भी उपाय से वह अपने पुत्र निष्पाप प्रह्लाद का बाल भी बाँका न कर सका। अपनी विवशता देखकर हिरण्यकशिपु को बड़ी चिन्ता हुई। उसे प्रह्लाद को मारने के लिये और कोई उपाय नहीं सूझ पड़ा। वह सोचने लगा- ‘इसे मैंने बहुत कुछ बुरा-भला कहा, मार डालने के बहुत-से उपाय किये। परन्तु यह मेरे द्रोह और दुर्व्यवहारों से बिना किसी की सहायता से अपने प्रभाव से ही बचता गया। यह बालक होने पर भी समझदार है और मेरे पास ही निःशंक भाव से रहता है। हो-न-हो इसमें कुछ सामर्थ्य अवश्य है। जैसे शुनः-शेप अपने पिता की करतूतों से उसका विरोधी हो गया था, वैसे ही यह भी मेरे किये अपकारों को न भूलेगा। न तो यह किसी से डरता है और न इसकी मृत्यु ही होती है। इसकी शक्ति की थाह नहीं है। अवश्य ही इसके विरोध से मेरी मृत्यु होगी। सम्भव है, न भी हो’।

इस प्रकार सोच-विचार करते-करते उसका चेहरा कुछ उतर गया। शुक्राचार्य के पुत्र शण्ड और अमर्क ने जब देखा कि हिरण्यकशिपु तो मुँह लटकाकर बैठा हुआ है, तब उन्होंने एकान्त में जाकर उससे यह बात कही- ‘स्वामी! आपने अकेले ही तीनों लोकों पर विजय प्राप्त कर ली। आपके भौंहें टेढ़ी करने पर ही लोकपाल काँप उठते हैं। हमारे देखने में तो आपके लिये चिन्ता की कोई बात नहीं है। भला, बच्चों के खिलवाड़ में भी भलाई-बुराई सोचने की कोई बात है। जब तक हमारे पिता शुक्राचार्य जी नहीं आ जाते, तब तक यह डरकर कहीं भाग न जाये। इसलिये उसे वरुण पाशों से बाँध रखिये। प्रायः ऐसा होता है कि अवस्था की वृद्धि के साथ-साथ और गुरुजनों की सेवा से बुद्धि सुधर जाया करती है’।

हिरण्यकशिपु ने ‘अच्छा, ठीक है’ कहकर गुरुपुत्रों की सलाह मान ली और कहा कि ‘इसे उन धर्मों का उपदेश करना चाहिये, जिनका पालन गृहस्थ नरपति किया करते हैं’।

युधिष्ठिर! इसके बाद पुरोहित उन्हें लेकर पाठशाला में गये और क्रमशः धर्म, अर्थ और काम- इन तीन पुरुषार्थों की शिक्षा देने लगे। प्रह्लाद वहाँ अत्यन्त नम्र सेवक की भाँति रहते थे। परन्तु गुरुओं की वह शिक्षा प्रह्लाद को अच्छी न लगी। क्योंकि गुरु जी उन्हें केवल अर्थ, धर्म और काम की ही शिक्षा देते थे। यह शिक्षा केवल उन लोगों के लिये है, जो राग-द्वेष आदि द्वन्द और विषय भोगों में रस ले रहे हों।

एक दिन गुरु जी गृहस्थी के काम से कहीं बाहर चले गये थे। छुट्टी मिल जाने के कारण समवयस्क बालकों ने प्रह्लाद जी को खेलने के लिये पुकारा। प्रह्लाद जी परम ज्ञानी थे, उनका प्रेम देखकर उन्होंने उन बालकों को ही बड़ी मधुर वाणी से पुकारकर अपने पास बुला लिया। उनसे उनके जन्म-मरण की गति भी छिपी नहीं थी। उन पर कृपा करके हँसते हुए-से उन्हें उपदेश करने लगे। युधिष्ठिर! वे सब अभी बालक ही थे, इसलिये राग-द्वेषपरायण विषय भोगी पुरुषों के उपदेशों से और चेष्टाओं से उनकी बुद्धि अभी दूषित नहीं हुई थी। इसी से, और प्रह्लाद के प्रति आदर-बुद्धि होने से उन सबने अपनी खेल-कूद सामग्रियों को छोड़ दिया तथा प्रह्लाद जी के पास जाकर उनके चारों ओर बैठ गये और उनके उपदेश में मन लगाकर बड़े प्रेम से एकटक उनकी ओर देखने लगे। भगवान् के परमप्रेमी भक्त प्रह्लाद का हृदय उनके प्रति करुणा और मैत्री के भाव से भर गया तथा वे उनसे कहने लगे।
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टीका ...
शुनःशेप अजीगर्त का मँझला पुत्र था। उसे पिता ने वरुण के यज्ञ में बलि देने के लिये हरिश्चन्द्र के पुत्र रोहिताश्व के हाथ बेच दिया था। तब उसके मामा विश्वामित्र जी ने उसकी रक्षा की; और वह अपने पिता के विरुद्ध होकर उनके विपक्षी विश्वामित्र जी के ही गोत्र में हो गया। यह कथा आगे ‘नवम स्कन्ध’ के सातवें अध्याय में आवेगी।

श्रीमद्भागवत महापुराण: सप्तम स्कन्ध: पंचम अध्यायः श्लोक 30-41 का हिन्दी अनुवाद

 

(लगातार-सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत पुराण)
श्रीमद्भागवत महापुराण:
सप्तम स्कन्ध: पंचम अध्यायः
श्लोक
30-41 का हिन्दी अनुवाद


प्रह्लाद ने कहा- पिताजी! संसार के लोग तो पिसे हुए को पीस रहे हैं, चबाये हुए को चबा रहे हैं। उनकी इन्द्रियाँ वश में न होने के कारण वे भोगे हुए विषयों को ही फिर-फिर भोगने के लिये संसाररूप नरक की ओर जा रहे हैं। ऐसे गृहासक्त पुरुषों की बुद्धि अपने-आप किसी के सिखाने से अथवा अपने ही जैसे लोगों के संग से भगवान् श्रीकृष्ण में नहीं लगती। जो इन्द्रियों से दीखने वाले बाह्य विषयों को परम इष्ट समझकर मूर्खतावश अन्धों के पीछे अन्धों की तरह गड्ढ़े में गिरने के लिये चले जा रहे हैं और वेदवाणीरूप रस्सी के-काम्यकर्मों के दीर्घ बन्धन में बँधे हुए हैं, उनको यह बात मालूम नहीं कि हमारे स्वार्थ और परमार्थ भगवान् विष्णु ही हैं-उन्हीं की प्राप्ति से हमें सब पुरुषार्थों की प्राप्ति हो सकती है। जिनकी बुद्धि भगवान् के चरणकमलों का स्पर्श कर लेती है, उनके जन्म-मृत्युरूप अनर्थ का सर्वथा नाश हो जाता है। परन्तु जो लोग अकिंचन भगवत्प्रेमी महात्माओं के चरणों की धूल में स्नान नहीं कर लेते, उनकी बुद्धि काम्यकर्मों का पूरा सेवन करने पर भी भगवच्चरणों का स्पर्श नहीं कर सकती।

प्रह्लाद जी इतना कहकर चुप हो गये। हिरण्यकशिपु ने क्रोध के मारे अन्धा होकर उन्हें अपनी गोद से उठाकर भूमि पर पटक दिया। प्रह्लाद की बात को वह सह न सका। रोष के मारे उसके नेत्र लाल हो गये। वह कहने लगा- ‘दैत्यों! इसे यहाँ से बाहर ले जाओ और तुरंत मार डालो। यह मार ही डालने योग्य है। देखो तो सही- जिसने इसके चाचा को मार डाला, अपने सुहृद्-स्वजनों को छोड़कर यह नीच दास के समान उसी विष्णु के चरणों की पूजा करता है। हो-न-हो, इसके रूप में मेरे भाई को मारने वाला विष्णु ही आ गया है। अब यह विश्वास के योग्य नहीं है। पाँच बरस की अवस्था में ही जिसने अपने माता-पिता के दुस्त्यज वात्सल्य स्नेह को भुला दिया- वह कृतघ्न भला विष्णु का ही क्या हित करेगा। कोई दूसरा भी यदि औषध के समान भलाई करे तो वह एक प्रकार से पुत्र ही है। पर यदि अपना पुत्र भी अहित करने लगे तो रोग के समान वह शत्रु है। अपने शरीर के ही किसी अंग से सारे शरीर को हानि होती हो तो उसको काट डालना चाहिये। क्योंकि उसे काट देने से शेष शरीर सुख से जी सकता है। यह स्वजन का बाना पहनकर मेरा कोई शत्रु ही आया है। जैसे योगी की भोग लोलुप इन्द्रियाँ उसका अनिष्ट करती हैं, वैसे ही यह मेरा अहित करने वाला है। इसलिये खाने, सोने, बैठने आदि के समय किसी भी उपाय से इसे मार डालो’।

जब हिरण्यकशिपु ने दैत्यों को इस प्रकार आज्ञा दी, तब तीखी दाढ़, विकराल वदन, लाल-लाल दाढ़ी-मूँछ एवं केशों वाले दैत्य हाथों में त्रिशूल ले-लेकर ‘मारो, काटो’- इस प्रकार बड़े जोर से चिल्लाने लगे। प्रह्लाद चुपचाप बैठे हुए थे और दैत्य उनके सभी मर्मस्थानों में शूल से घाव कर रहे थे। उस समय प्रह्लाद जी का चित्त उन परमात्मा में लगा हुआ था, जो मन-वाणी के अगोचर, सर्वात्मा, समस्त शक्तियों के आधार एवं परब्रह्म हैं। इसलिये उनके सारे प्रहार ठीक वैसे ही निष्फल हो गये, जैसे भाग्यहीनों के बड़े-बड़े उद्योग-धंधे व्यर्थ होते हैं।

श्रीमद्भागवत महापुराण: सप्तम स्कन्ध: पंचम अध्यायः श्लोक 15-29 का हिन्दी अनुवाद

 

(लगातार-सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत पुराण)
श्रीमद्भागवत महापुराण:
सप्तम स्कन्ध: पंचम अध्यायः
श्लोक
15-29 का हिन्दी अनुवाद


नारद जी कहते हैं- परमज्ञानी प्रह्लाद अपन गुरु जी से इतना कहकर चुप हो गये। पुरोहित बेचारे राजा के सेवक एवं पराधीन थे। वे डर गये। उन्होंने क्रोध से प्रह्लाद को झिड़क दिया और कहा- ‘अरे, कोई मेरा बेंत तो लाओ। यह हमारी कीर्ति में कलंक लगा रहा है। इस दुर्बुद्धि कुलांगार को ठीक करने के लिये चौथा उपाय दण्ड ही उपयुक्त होगा। दैत्यवंश के चन्दनवन में यह काँटेदार बबूल कहाँ से पैदा हुआ? जो विष्णु इस वन की जड़ काटने में कुल्हाड़े का काम करते हैं, यह नादान बालक उन्हीं की बेंट बन रहा है; सहायक हो रहा है। इस प्रकार गुरु जी ने तरह-तरह से डाँट-डपटकर प्रह्लाद को धमकाया और अर्थ, धर्म एवं काम सम्बन्धी शिक्षा दी।

कुछ समय के बाद जब गुरु जी ने देखा कि प्रह्लाद ने साम, दान, भेद और दण्ड के सम्बन्ध की सारी बातें जान ली हैं, तब वे उन्हें उनकी मा के पास ले गये। माता ने बड़े लाड़-प्यार से उन्हें नहला-धुलाकर अच्छी तरह गहने कपड़ों से सजा दिया। इसके बाद वे उन्हें हिरण्यकशिपु के पास ले गये। प्रह्लाद अपने पिता में चरणों में लोट गये। हिरण्यकशिपु ने उन्हें आशीर्वाद दिया और दोनों हाथों से उठाकर बहुत देर तक गले से लगाये रखा। उस समय दैत्यराज का हृदय आनन्द से भर रहा था।

युधिष्ठिर! हिरण्यकशिपु ने प्रसन्नमुख प्रह्लाद को अपनी गोद में बैठाकर उनका सिर सूँघा। उनके नेत्रों से प्रेम के आँसूं गिर-गिरकर प्रह्लाद के शरीर को भिगोने लगे। उसने अपने पुत्र से पूछा।

हिरण्यकशिपु ने कहा- चिरंजीव बेटा प्रह्लाद! इतने दिनों में तुमने गुरु जी से जो शिक्षा प्राप्त की है, उसमें से कोई अच्छी-सी बात हमें सुनाओ।

प्रह्लाद जी ने कहा- "पिताजी! विष्णु भगवान् की भक्ति के नौ भेद हैं- भगवान् के गुण-लीला-नाम आदि का श्रवण, उन्हीं का कीर्तन, उनके रूप-नाम आदि का स्मरण, उनके चरणों की सेवा, पूजा-अर्चा, वन्दन, दास्य, सख्य और आत्मनिवेदन। यदि भगवान् के प्रति समर्पण के भाव से यह नौ प्रकार की भक्ति की जाये, तो मैं उसी को उत्तम अध्ययन समझता हूँ।"

प्रह्लाद की यह बात सुनते ही क्रोध के मारे हिरण्यकशिपु के ओठ फड़कने लगे। उसने गुरुपुत्र से कहा- 'रे नीच ब्राह्मण! यह तेरी कैसी करतूत है; दुर्बुद्धि! तूने मेरी कुछ भी परवाह न करके इस बच्चे को कैसी निस्सार शिक्षा दे दी? अवश्य ही तू हमारे शत्रुओं के आश्रित है। संसार में ऐसे दुष्टों की कमी नहीं है, जो मित्र का बाना धारण कर छिपे-छिपे शत्रु का काम करते हैं। परन्तु उनकी कलई ठीक वैसे ही खुल जाती है, जैसे छिपकर पाप करने वालों का पाप समय पर रोग के रूप में प्रकट होकर उनकी पोल खोल देता है।'

गुरुपुत्र ने कहा- 'इन्द्रशत्रो! आपका पुत्र जो कुछ कह रहा है, वह मेरे या और किसी के बहकाने से नहीं कह रहा है। राजन्! यह तो इसकी जन्मजात स्वाभाविक बुद्धि है। आप क्रोध शान्त कीजिये। व्यर्थ में हमें दोष न लगाइये।'

नारद जी कहते हैं- युधिष्ठिर! जब गुरु जी ने ऐसा उत्तर दिया, तब हिरण्यकशिपु ने फिर प्रह्लाद से पूछा- ‘क्यों रे! यदि तुझे ऐसी अहित करने वाली खोटी बुद्धि गुरुमुख से नहीं मिली तो बता, कहाँ से प्राप्त हुई?

श्रीमद्भागवत महापुराण: सप्तम स्कन्ध: पंचम अध्यायः श्लोक 1-14 का हिन्दी अनुवाद

 

(लगातार-सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत पुराण)
श्रीमद्भागवत महापुराण:
सप्तम स्कन्ध: पंचम अध्यायः
श्लोक 1-14 का हिन्दी अनुवाद


हिरण्यकशिपु के द्वारा प्रह्लाद के वध का प्रयत्न.

नारद जी कहते हैं- युधिष्ठिर! दैत्यों ने भगवान् श्रीशुक्राचार्य जी को अपना पुरोहित बनाया था। उनके दो पुत्र थे- शण्ड और अमर्क। वे दोनों राजमहल के पास ही रहकर हिरण्यकशिपु के द्वारा भेजे हुए नीति निपुण बालक प्रह्लाद को और दूसरे पढ़ाने योग्य दैत्य-बालकों को राजनीति, अर्थनीति आदि पढ़ाया करते थे। प्रह्लाद गुरु जी का पढ़ाया हुआ पाठ सुन लेते थे और उसे ज्यों-का-त्यों उन्हें सुना भी दिया करते थे। किन्तु वे उसे मन से अच्छा नहीं समझते थे। क्योंकि उस पाठ का मूल आधार था अपने और पराये का झूठा आग्रह।

युधिष्ठिर! एक दिन हिरण्यकशिपु ने अपने पुत्र प्रह्लाद को बड़े प्रेम से गोद में लेकर पूछा- ‘बेटा! बताओ तो सही, तुम्हें कौन-सी बात अच्छी लगती है?'

प्रह्लाद जी ने कहा- "पिताजी! संसार के प्राणी ‘मैं’ और ‘मेरे’ के झूठे आग्रह में पड़कर सदा ही अत्यन्त उद्विग्न रहते हैं। ऐसे प्राणियों के लिये मैं यही ठीक समझता हूँ कि वे अपने अधःपतन के मूल कारण, घास से ढके हुए अँधेरे कुएँ के समान इस घर को छोड़कर वन में चले जायँ और भगवान् श्रीहरि की शरण ग्रहण करें।"

नारद जी कहते हैं- प्रह्लाद जी के मुँह से शत्रुपक्ष की प्रशंसा से भरी बात सुनकर हिरण्यकशिपु ठठाकर हँस पड़ा। उसने कहा- ‘दूसरों के बहकाने से बच्चों की बुद्धि यों ही बिगड़ जाया करती है। जान पड़ता है गुरु जी एक घर पर विष्णु के पक्षपाती कुछ ब्राह्मण वेष बदलकर रहते हैं। बालक की भलीभाँति देख-रेख की जाये, जिससे अब इसकी बुद्धि बहकने ने पाये।'

जब दैत्यों ने प्रह्लाद को गुरु जी के घर पहुँचा दिया, तब पुरोहितों ने उनको बहुत पुचकारकर और फुसलाकर बड़ी वाणी से पूछा- 'बेटा प्रह्लाद! तुम्हारा कल्याण हो। ठीक-ठीक बतलाना। देखो, झूठ न बोलना। यह तुम्हारी बुद्धि उलटी कैसे हो गयी? और किसी बालक की बुद्धि तो ऐसी नहीं हुई। कुलनन्दन प्रह्लाद! बताओ तो बेटा! हम तुम्हारे गुरुजन यह जानना चाहते हैं कि तुम्हारी बुद्धि स्वयं ऐसी हो गयी या किसी ने सचमुच तुमको बहका दिया है?'

प्रह्लाद ने कहा- "जिन मनुष्यों की बुद्धि मोह से ग्रस्त हो रही है, उन्हीं को भगवान् की माया से यह झूठा दुराग्रह होता देखा गया है कि यह ‘अपना’ है और यह ‘पराया’। उन मायापति भगवान् को मैं नमस्कार करता हूँ। वे भगवान् ही जब कृपा करते हैं, तब मनुष्यों की पाशविक बुद्धि नष्ट होती है। इस पशु बुद्धि के कारण ही तो ‘यह मैं हूँ और यह मुझसे भिन्न है’ इस प्रकार का झूठा भेदभाव पैदा होता है। वही परमात्मा यह आत्मा है। अज्ञानी लोग अपने और पराये का भेद करके उसी का वर्णन किया करते हैं। उनका न जानना भी ठीक ही है; क्योंकि उसके तत्त्व को जानना बहुत कठिन है और ब्रह्मा आदि बड़े-बड़े वेदज्ञ भी उसके विषय में मोहित हो जाते हैं। वही परमात्मा आप लोगों के शब्दों में मेरी बुद्धि ‘बिगाड़’ रहा है। गुरुजी! जैसे चुम्बक के पास लोहा स्वयं खिंच आता है, वैसे ही चक्रपाणि भगवान् की स्वच्छन्द इच्छाशक्ति से मेरा चित्त भी संसार से अलग होकर उनकी ओर बरबस खिंच जाता है।

श्रीमद्भागवत महापुराण: सप्तम स्कन्ध: चतुर्थ अध्यायः श्लोक 33-46 का हिन्दी अनुवाद

 

(लगातार-सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत पुराण)
श्रीमद्भागवत महापुराण:
सप्तम स्कन्ध: चतुर्थ अध्यायः
श्लोक
33-46 का हिन्दी अनुवाद


बड़े-बड़े दुःखों में भी वे तनिक भी घबराते न थे। लोक-परलोक के विषयों को उन्होंने देखा-सुना तो बहुत था, परन्तु वे उन्हें निःसार और असत्य समझते थे। इसलिये उनके मन में किसी भी वस्तु की लालसा न थी। इन्द्रिय, प्राण, शरीर और मन उनके वश में थे। उनके चित्त में कभी किसी पाकर की कामना नहीं उठती थी। जन्म से असुर होने पर भी उनमें आसुरी सम्पत्ति का लेश भी नहीं था। जैसे भगवन के गुण अनन्त हैं, वैसे ही प्रह्लाद के श्रेष्ठ गुणों की भी कोई सीमा नहीं है। महात्मा लोग सदा से उनका वर्णन करते और उन्हें अपनाते आये हैं। तथापि वे आज भी ज्यों-के-त्यों बने हुए हैं।

युधिष्ठिर! यों तो देवता उनके शत्रु हैं; परन्तु फिर भी भक्तों का चरित्र सुनने के लिये जब उन लोगों की सभा होती है, तब वे दूसरे भक्तों को प्रह्लाद के समान कहकर उनका सम्मान करते हैं। फिर आप-जैसे अजातशत्रु भगवद्भक्त उनका आदर करेंगे, इसमें तो सन्देह ही क्या है। उनकी महिमा का वर्णन करने के लिये अगणित गुणों के कहने-सुनने की आवश्यकता नहीं। केवल ही एक गुण भगवान् श्रीकृष्ण के चरणों में स्वाभाविक, जन्मजात प्रेम उनकी महिमा को प्रकट करने के लिये पर्याप्त है।

युधिष्ठिर! प्रह्लाद बचपन में ही खेल-कूद छोड़कर भगवान् के ध्यान में जडवत् तन्मय हो जाया करते। भगवान् श्रीकृष्ण के अनुग्रहरूप ग्रह ने उनके हृदय को इस प्रकार खींच लिया था कि उन्हें जगत् की कुछ सुध-बुध ही न रहती। उन्हें ऐसा जान पड़ता कि भगवान् मुझे अपनी गोद में लेकर आलिंगन कर रहे हैं। इसलिये उन्हें सोते-बैठते, खाते-पीते, चलते-फिरते और बातचीत करते समय भी इन बातों का ध्यान बिलकुल न रहता। कभी-कभी भगवान् मुझे छोड़कर चले गये, इस भावना में उनका हृदय इतना डूब जाता कि वे जोर-जोर से रोने लगते। कभी मन-ही-मन उन्हें अपने सामने पाकर आनन्दोद्रेक से ठठाकर हँसने लगते। कभी उनके ध्यान के मधुर आनन्द का अनुभव करके जोर से गाने लगते। वे कभी उत्सुक हो बेसुरा चिल्ला पड़ते। कभी-कभी लोक-लज्जा का त्याग करके प्रेम में छककर नाचने भी लगते थे। कभी-कभी उनकी लीला के चिन्तन में इतने तल्लीन हो जाते कि उन्हें अपनी याद ही न रहती, उन्हीं का अनुकरण करने लगते। कभी भीतर-ही-भीतर भगवान् का कोमल संस्पर्श अनुभव करके आनन्द में मग्न हो जाते और चुपचाप शान्त होकर बैठ रहते। उस समय उनका रोम-रोम पुलकित हो उठता। अधखुले नेत्र अविचल प्रेम और आनन्द के आँसुओं से भरे रहते। भगवान् श्रीकृष्ण के चरणकमलों की यह भक्ति अकिंचन भगवत्प्रेमी महात्माओं के संग से ही प्राप्त होती है। इसके द्वारा वे स्वयं तो परमानन्द में मग्न रहते ही थे; जिन बेचारों का मन कुसंग के कारण अत्यन्त दीन-हीन हो रहा था, उन्हें भी बार-बार शान्ति प्रदान करते थे। युधिष्ठिर! प्रह्लाद भगवान् के परमप्रेमी भक्त, परम भाग्यवान् और ऊँची कोटि के महात्मा थे। हिरण्यकशिपु ऐसे साधुपुत्र को भी अपराधी बतलाकर उनका अनिष्ट करने की चेष्टा करने लगा।

युधिष्ठिर ने पूछा- नारद जी! आपका व्रत अखण्ड है। अब हम आपसे यह जानना चाहते हैं कि हिरण्यकशिपु ने पिता होकर भी ऐसे शुद्धहृदय महात्मा पुत्र से द्रोह क्यों किया। पिता तो स्वभाव से ही अपने पुत्रों से प्रेम करते हैं। यदि पुत्र कोई उलटा काम करता है, तो वे उसे शिक्षा देने के लिये ही डाँटते हैं, शत्रु की तरह वैर-विरोध तो नहीं करते। फिर प्रह्लाद जी-जैसे अनुकूल, शुद्ध हृदय एवं गुरुजनों में भगवद्भाव करने वाले पुत्रों से भला, कोई द्वेष कर ही कैसे सकता है। नारद जी! आप सब कुछ जानते हैं। हमें यह जानकर बड़ा कौतूहल हो रहा है कि पिता ने द्वेष के कारण पुत्र को मार डालना चाहा। आप कृपा करके मेरा यह कौतूहल शान्त कीजिये।

श्रीमद्भागवत महापुराण: सप्तम स्कन्ध: चतुर्थ अध्यायः श्लोक 17-32 का हिन्दी अनुवाद

 

(लगातार-सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत पुराण)
श्रीमद्भागवत महापुराण:
सप्तम स्कन्ध: चतुर्थ अध्यायः
श्लोक
17-32 का हिन्दी अनुवाद


इसी प्रकार खारे पानी, सुरा, घृत, इक्षुरस, दधि, दुग्ध और मीठे पानी के समुद्र भी अपनी पत्नी नदियों के साथ तरंगों के द्वारा उसके पास रत्नराशि पहुँचाया करते थे। पर्वत अपनी घाटियों के रूप में उसके लिये खेलने का स्थान जुटाते और वृक्ष सब ऋतुओं में फूलते-फलते। वह अकेला ही सब लोकपालों के विभिन्न गुणों को धारण करता। इस प्रकार दिग्विजयी और एकच्छत्र सम्राट् होकर वह अपने को प्रिय लगने वाले विषयों का स्वच्छन्द उपभोग करने लगा। परन्तु इतने विषयों से भी उसकी तृप्ति न हो सकी। क्योंकि अन्ततः वह इन्द्रियों का दास ही तो था।

युधिष्ठिर! इस रूप में भी वह भगवान् का वही पार्षद है, जिसे सनकादिकों ने शाप दिया था। वह ऐश्वर्य के मद से मतवाला हो रहा था तथा घमंड में चूर होकर शास्त्रों की मर्यादा का उल्लंघन कर रहा था। देखते-ही-देखते उसके जीवन का बहुत-सा समय बीत गया। उसके कठोर शासन से सब लोक और लोकपाल घबरा गये। जब उन्हें और कहीं किसी का आश्रय न मिला, तब उन्होंने भगवान् की शरण ली। (उन्होंने मन-ही-मन कहा-) ‘जहाँ सर्वात्मा जगदीश्वर श्रीहरि निवास करते हैं और जिसे प्राप्त करके शान्त एवं निर्मल संन्यासी महात्मा फिर लौटते नहीं, भगवान् के उस परमधाम को हम नमस्कार करते हैं’। इस भाव से अपनी इन्द्रियों का संयम और मन को समाहित करके उन लोगों ने खाना-पीना और सोना छोड़ दिया तथा निर्मल हृदय से भगवान् की आराधना की।

एक दिन उन्हें मेघ के समान गम्भीर आकाशवाणी सुनायी पड़ी। उसकी ध्वनि से दिशाएँ गूँज उठीं। साधुओं को अभय देने वाली वह वाणी यों थी-‘श्रेष्ठ देवताओं! डरो मत। तुम सब लोगों का कल्याण हो। मेरे दर्शन से प्राणियों को परम कल्याण की प्राप्ति हो जाती है। इस नीच दैत्य की दुष्टता का मुझे पहले से ही पता है। मैं इसको मिटा दूँगा। अभी कुछ दिनों तक समय की प्रतीक्षा करो। कोई भी प्राणी जब देवता, वेद, गाय, ब्राह्मण, साधु, धर्म और मुझसे द्वेष करने लगता है, तब शीघ्र ही उसका विनाश हो जाता है। जब यह अपने वैरहीन, शान्त और महात्मा पुत्र प्रह्लाद से द्रोह करेगा-उसका अनिष्ट करना चाहेगा, तब वर के कारण शक्तिसम्पन्न होने पर भी इसे मैं अवश्य मार डालूँगा।’

नारद जी कहते हैं- सबके हृदय में ज्ञान का संचार करने वाले भगवान् ने जब देवताओं को यह आदेश दिया, तब वे उन्हें प्रणाम करके लौट आये। उनका सारा उद्वेग मिट गया और उन्हें ऐसा मालूम होने लगा कि हिरण्यकशिपु मर गया।

युधिष्ठिर! दैत्यराज हिरण्यकशिपु के बड़े ही विलक्षण चार पुत्र थे। उनमें प्रह्लाद यों तो सबसे छोटे थे, परन्तु गुणों में सबसे बड़े थे। वे बड़े संत सेवी थे। ब्राह्मण भक्त, सौम्य स्वभाव, सत्य प्रतिज्ञ एवं जितेन्द्रिय थे तथा समस्त प्राणियों के साथ अपने ही समान समता का बर्ताव करते और सबके एकमात्र प्रिय और सच्चे हितैषी थे। बड़े लोगों के चरणों में सेवक की तरह झुककर रहते थे। ग़रीबों पर पिता के समान स्नेह रखते थे। बराबरी वालों से भाई के समान प्रेम करते और गुरुजनों में भगवद्भाव रखते थे। विद्या, धन, सौन्दर्य और कुलीनता से सम्पन्न होने पर भी घमंड और हेकड़ी उन्हें छू तक नहीं गयी थी।

श्रीमद्भागवत महापुराण: सप्तम स्कन्ध: अथ चतुर्थ अध्यायः श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद

 

(लगातार-सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत पुराण)
श्रीमद्भागवत महापुराण:
सप्तम स्कन्ध: अथ चतुर्थ अध्यायः
श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद


हिरण्यकशिपु के अत्याचार और प्रह्लाद के गुणों का वर्णन.


नारद जी कहते हैं- युधिष्ठिर! जब हिरण्यकशिपु ने ब्रह्मा जी से इस प्रकार के अत्यन्त दुर्लभ वर माँगे, तब उन्होंने उसकी तपस्या से प्रसन्न होने के कारण उसे वे वर दे दिये।

ब्रह्मा जी ने कहा- बेटा! तुम जो वर मुझसे माँग रहे हो, वे जीवों के लिये बहुत ही दुर्लभ हैं; परन्तु दुर्लभ होने पर भी मैं तम्हें वे सब वर दिये देता हूँ।

नारद जी कहते हैं- ब्रह्मा जी के वरदान कभी झूठे नहीं होते। वे समर्थ एवं भगवदरूप ही हैं। वरदान मिल जाने के बाद हिरण्यकशिपु ने उनकी पूजा की। तत्पश्चात् प्रजापतियों से अपनी स्तुति सुनते हुए वे अपने लोक को चले गये। ब्रह्मा जी से वर प्राप्त करने पर हिरण्यकशिपु का शरीर सुवर्ण के समान कान्तिमान् एवं हृष्ट-पुष्ट हो गया। वह अपने भाई की मृत्यु का स्मरण करके भगवान् से द्वेष करने लगा। उस महादैत्य ने समस्त दिशाओं, तीनों लोकों तथा देवता, असुर, नरपति, गन्धर्व, गरुड़, सर्प, सिद्ध, चारण, विद्याधर, ऋषि, पितरों के अधिपति, मनु, यक्ष, राक्षस, पिशाचराज, प्रेत, भूतपति एवं समस्त प्राणियों के राजाओं को जीतकर अपने वश में कर लिया। यहाँ तक कि उस विश्व-विजयी दैत्य ने लोकपालों की शक्ति और स्थान भी छीन लिये।

अब वह नन्दन वन आदि दिव्य उद्यानों के सौन्दर्य से युक्त स्वर्ग में ही रहने लगा था। स्वयं विश्वकर्मा का बनाया हुआ इन्द्र का भवन ही उसका निवासस्थान था। उस भवन में तीनों लोकों का सौन्दर्य मूर्तिमान् होकर निवास करता था। वह सब प्रकार की सम्पत्तियों से सम्पन्न था। उस महल में मूँगे की सीढ़ियाँ, पन्ने की गचें, स्फटिकमणि की दीवारें, वैदूर्यमणि के खंभे और माणिक की कुर्सियाँ थीं। रंग-बिरंगे चँदोवे तथा दूध के फेन के समान शय्याएँ, जिन पर मोतियों की झालरें लगी हुई थीं, शोभायमान हो रही थीं। सर्वांगसुन्दरी अप्सराएँ अपने नूपुरों से रुन-झुन ध्वनि करती हुई रत्नमय भूमि पर इधर-उधर टहला करती थीं और कहीं-कहीं उसमें अपना सुन्दर मुख देखने लगती थीं। उस महेन्द्र के महल में महाबली और महामनस्वी हिरण्यकशिपु सब लोकों को जीतकर, सबका एकच्छत्र सम्राट् बनकर बड़ी स्वतन्त्रता से विहार करने लगा। उसका शासन इतना कठोर था कि उससे भयभीत होकर देव-दानव उसके चरणों की वन्दना करते रहते थे।

युधिष्ठिर! वह उत्कट गन्ध वाली मदिरा पीकर मतवाला रहा करता था। उसकी आँखें लाल-लाल और चढ़ी हुई रहतीं। उस समय तपस्या, योग, शारीरिक और मानसिक बल का वह भंडार था। ब्रह्मा, विष्णु और महादेव के सिवा और सभी देवता अपने हाथों में भेंट ले-लेकर उसकी सेवा में लगे रहते। जब वह अपने पुरुषार्थ से इन्द्रासन पर बैठ गया, तब युधिष्ठिर! विश्वावसु, तुम्बुरु तथा हम सभी लोग उसके सामने गान करते थे। गन्धर्व, सिद्ध, ऋषिगण, विद्याधर और अप्सराएँ बार-बार उसकी स्तुति करती थीं।

युधिष्ठिर! वह इतना तेजस्वी था कि वर्णाश्रम धर्म का पालन करने वाले पुरुष जो बड़ी-बड़ी दक्षिणा वाले यज्ञ करते, उनके यज्ञों की आहुति वह स्वयं छीन लेता। पृथ्वी के सातों द्वीपों में उसका अखण्ड राज्य था। सभी जगह बिना ही जोते-बोये धरती से अन्न पैदा होता था। वह जो कुछ चाहता, अन्तरिक्ष से उसे मिल जाता तथा आकाश उसे भाँति-भाँति की आश्चर्यजनक वस्तुएँ दिखा-दिखाकर उसका मनोरंजन करता था।

श्रीमद्भागवत महापुराण: सप्तम स्कन्ध: तृतीय अध्यायः श्लोक 30-38 का हिन्दी अनुवाद

 

(लगातार-सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत पुराण)
श्रीमद्भागवत महापुराण:
सप्तम स्कन्ध: तृतीय अध्यायः
श्लोक
30-38 का हिन्दी अनुवाद


जो वेद होता, अध्वर्यु, ब्रह्मा और उद्गाता-इन ऋत्विजों से होने वाले यज्ञ का प्रतिपादन करते हैं, वे आपके ही शरीर हैं। उन्हीं के द्वारा अग्निष्टोम आदि सात यज्ञों का आप विस्तार करते हैं। आप ही सम्पूर्ण प्राणियों के आत्मा हैं। क्योंकि आप अनादि, अनन्त, अपार, सर्वज्ञ और अन्तर्यामी हैं। आप ही काल हैं। आप प्रतिक्षण सावधान रहकर अपने क्षण, लव आदि विभागों के द्वारा लोगों की आयु क्षीण करते रहते हैं। फिर भी आप निर्विकार हैं। क्योंकि आप ज्ञानस्वरूप, परमेश्वर, अजन्मा, महान् और सम्पूर्ण जीवों के जीवनदाता अन्तरात्मा हैं।

प्रभो! कार्य, कारण, कल और अचल ऐसी कोई भी वस्तु नहीं है, जो आपसे भिन्न हो। समस्त विद्या और कलाएँ आपके शरीर हैं। आप त्रिगुणमयी माया से अतीत स्वयं ब्रह्म हैं। यह स्वर्णमय ब्रह्माण्ड आपके गर्भ में स्थित है। आप इसे अपने में से ही प्रकट करते हैं।

प्रभो! यह व्यक्त ब्रह्माण्ड आपका स्थूल शरीर है। इससे आप इन्द्रिय, प्राण और मन के विषयों का उपभोग करते हैं। किन्तु उस समय भी आप अपने परम ऐश्वर्यमय स्वरूप में ही स्थित रहते हैं। वस्तुतः आप पुराणपुरुष, स्थूल-सूक्ष्म से परे ब्रह्मस्वरूप ही हैं। आप अपने अनन्त और अव्यक्त स्वरूप से सारे जगत् में व्याप्त हैं। चेतन और अचेतन दोनों ही आपकी शक्तियाँ हैं। भगवन्! मैं आपको नमस्कार करता हूँ।

प्रभो! आप समस्त वरदाताओं में श्रेष्ठ हैं। यदि आप मुझे अभीष्ट वर देना चाहते हैं, तो ऐसा वर दीजिये कि आपके बनाये हुए किसी भी प्राणी से-चाहे वह मनुष्य हो या पशु, प्राणी हो या अप्राणी, देवता हो या दैत्य अथवा नागादि किसी से भी मेरी मृत्यु न हो। भीतर-बाहर, दिन में, रात्रि में, आपके बनाये प्राणियों के अतिरिक्त और भी किसी जीव से, अस्त्र-शस्त्र से, पृथ्वी या आकाश में-कहीं भी मेरी मृत्यु न हो। युद्ध में कोई मेरा सामना न कर सके। मैं समस्त प्राणियों का एकच्छत्र सम्राट् होऊँ। इन्द्रादि समस्त लोकपालों में जैसी आपकी महिमा है, वैसी ही मेरी भी हो। तपस्वियों और योगियों को जो अक्षय ऐश्वर्य प्राप्त है, वही मुझे भी दीजिये।

श्रीमद्भागवत महापुराण: सप्तम स्कन्ध: तृतीय अध्यायः श्लोक 13-29 का हिन्दी अनुवाद

 

(लगातार-सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत पुराण)
श्रीमद्भागवत महापुराण:
सप्तम स्कन्ध: तृतीय अध्यायः
श्लोक
13-29 का हिन्दी अनुवाद


वहाँ जाने पर पहले तो वे उसे देख ही न सके; क्योंकि दीमक की मिट्टी, घास और बाँसों से उसका शरीर ढक गया था। चीटियाँ उसकी मेदा, त्वचा, मांस और खून चाट गयी थीं। बादलों से ढके हुए सूर्य के समान वह अपनी तपस्या के तेज से लोकों को तपा रहा था। उसको देखकर ब्रह्मा जी भी विस्मित हो गये। उन्होंने हँसते हुए कहा।

ब्रह्मा जी ने कहा- बेटा हिरण्यकशिपु! उठो, उठो। तुम्हारा कल्याण हो। कश्यपनन्दन! अब तुम्हारी तपस्या सिद्ध हो गयी। मैं तुम्हें वर देने के लिये आया हूँ। तुम्हारी जो इच्छा हो, बेखट के माँग लो। मैंने तुम्हारे हृदय का अद्भुत बल देखा। अरे, डाँसों ने तुम्हारी देह खा डाली है। फिर भी तुम्हारे प्राण हड्डियों के सहारे टिके हुए हैं। ऐसी कठिन तपस्या न तो पहले किसी ऋषि ने की थी और न आगे ही कोई करेगा। भला ऐसा कौन है जो देवताओं के सौ वर्ष तक बिना पानी के जीता रहे।

बेटा हिरण्यकशिपु! तुम्हारा यह काम बड़े-बड़े धीर पुरुष भी कठिनता से कर सकते हैं। तुमने इस तपोनिष्ठा से मुझे अपने वश में कर लिया है। दैत्यशिरोमणे! इसी से प्रसन्न होकर मैं तुम्हें जो कुछ मांगो, दिये देता हूँ। तुम हो मरने वाले और मैं हूँ अमर! अतः तुम्हें मेरा यह दर्शन निष्फल नहीं हो सकता।

नारद जी कहते हैं- युधिष्ठिर! इतना कहकर ब्रह्मा जी ने उसके चींटियों से खाये हुए शरीर पर अपने कमण्डलु का दिव्य एवं अमोघ प्रभावशाली जल छिड़क दिया। जैसे लकड़ी के ढेर में से आग जल उठे, वैसे ही वह जल छिड़कते ही बाँस और दीमकों की मिट्टी के बीच से उठ खड़ा हुआ। उस समय उसका शरीर सब अवयवों से पूर्ण एवं बलवान् हो गया था, इन्द्रियों में शक्ति आ गयी थी और मन सचेत हो गया था। सारे अंग वज्र के समान कठोर एवं तपाये हुए सोने की तरह चमकीले हो गये थे। वह नवयुवक होकर उठ खड़ा हुआ। उसने देखा कि आकाश में हंस पर चढ़े हुए ब्रह्मा जी खड़े हैं। उन्हें देखकर उसे बड़ा आनन्द हुआ। अपना सिर पृथ्वी पर रखकर उसने उनको नमस्कार किया। फिर अंजलि बाँधकर नम्रभाव से खड़ा हुआ और बड़े प्रेम से अपने निर्निमेष नयनों से उन्हें देखता हुआ गद्गद वाणी से स्तुति करने लगा। उस समय उसके नेत्रों में आनन्द के आँसू उमड़ रहे थे और सारा शरीर पुलकित हो रहा था।

हिरण्यकशिपु ने कहा- कल्प के अन्त में यह सारी सृष्टि काल के द्वारा प्रेरित तमोगुण से, घने अन्धकार से ढक गयी थी। उस समय स्वयंप्रकाशस्वरूप आपने अपने तेज से पुनः इसे प्रकट किया। आप ही अपने त्रिगुणमयरूप से इसकी रचना, रक्षा और संहार करते हैं। आप रजोगुण, सत्त्वगुण और तमोगुण के आश्रय हैं। आप ही सबसे परे और महान् हैं। आपको मैं नमस्कार करता हूँ। आप ही जगत् के मूल कारण हैं। ज्ञान और विज्ञान आपकी मूर्ति हैं। प्राण, इन्द्रिय, मन और बुद्धि आदि विकारों के द्वारा आपने अपने को प्रकट किया है। आप मुख्य प्राण सूत्रात्मा के रूप से चराचर जगत् को अपने नियन्त्रण में रखते हैं। आप ही प्रजा के रक्षक भी हैं। भगवन्! चित्त, चेतना, मन और इन्द्रियों के स्वामी आप ही हैं। पंचभूत, शब्दादि विषय और उनके संस्कारों के रचयिता भी महत्तत्त्व के रूप में आप ही हैं।

श्रीमद्भागवत महापुराण: सप्तम स्कन्ध: तृतीय अध्यायः श्लोक 1-12 का हिन्दी अनुवाद

 (लगातार-सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत पुराण)
श्रीमद्भागवत महापुराण:
सप्तम स्कन्ध: तृतीय अध्यायः
श्लोक 1-12 का हिन्दी अनुवाद

 हिरण्यकशिपु की तपस्या और वर प्राप्ति.

 नारद जी ने कहा- युधिष्ठिर! अब हिरण्यकशिपु ने यह विचार किया कि ‘मैं अजेय, अजर, अमर और संसार का एकछत्र सम्राट् बन जाऊँ, जिससे कोई मेरे सामने खड़ा तक न हो सके।’ इसके लिये वह मन्दराचल की एक घाटी में जाकर अत्यन्त दारुण तपस्या करने लगा। वहाँ हाथ ऊपर उठाकर आकाश की ओर देखता हुआ वह पैर के अँगूठे के बल पृथ्वी पर खड़ा हो गया। उसकी जटाएँ ऐसी चमक रही थीं, जैसे प्रलयकाल के सूर्य की किरणें। जब वह इस प्रकार तपस्या में संलग्न हो गया, तब देवता लोग अपने-अपने स्थानों और पदों पर पुनः प्रतिष्ठित हो गये। बहुत दिनों तक तपस्या करने के बाद उसकी तपस्या की आग धूएँ के साथ सिर से निकलने लगी। वह चारों ओर फैल गयी और ऊपर-नीचे तथा अगल-बगल के लोकों को जलाने लगी। उसकी लपट से नदी और समुद्र खौलने लगे। द्वीप और पर्वतों के सहित पृथ्वी डगमगाने लगी। ग्रह और तारे टूट-टूटकर गिरने लगे तथा दसों-दिशाओं में मानो आग लग गयी। हिरण्यकशिपु की उस तमोमयी आग की लपटों से स्वर्ग के देवता भी जलने लगे। वे घबराकर स्वर्ग से ब्रह्मलोक में गये और ब्रह्मा जी से प्रार्थना करने लगे- ‘हे देवताओं के भी आराध्यदेव जगत्पति ब्रह्मा जी! हम लोग हिरण्यकशिपु के तप की ज्वाला से जल रहे हैं। अब हम स्वर्ग में नहीं रह सकते। हे अनन्त! हे सर्वाध्यक्ष! यदि आप उचित समझें तो अपनी सेवा करने वाली जनता का नाश होने के पहले ही यह ज्वाला शान्त कर दीजिये। भगवन्! आप सब कुछ जानते ही हैं, फिर भी हम अपनी ओर से आपसे यह निवेदन कर देते हैं कि वह किस अभिप्राय से यह घोर तपस्या कर रहा है। सुनिये, उसका विचार है कि ‘जैसे ब्रह्मा जी अपनी तपस्या और योग के प्रभाव से इस चराचर जगत् की सृष्टि करके सब लोकों से ऊपर सत्यलोक में विराजते हैं, वैसे ही मैं भी अपनी उग्र तपस्या और योग के प्रभाव से वही पद और स्थान प्राप्त कर लूँगा। क्योंकि समय असीम है और आत्मा नित्य है। एक जन्म में नहीं, अनेक जन्म; एक युग में न सही, अनेक युगों में। अपनी तपस्या की शक्ति से मैं पाप-पुण्यादि के नियमों को पलटकर इस संसार में ऐसा उलट-फेर कर दूँगा, जैसा पहले कभी नहीं था। वैष्णवादि पदों में तो रखा ही क्या है। क्योंकि कल्प के अन्त में उन्हें भी काल के गाल में चला जाना पड़ता है।’[1] हमने सुना है कि ऐसा हठ करके ही वह घोर तपस्या में जुटा हुआ है। आप तीनों लोकों के स्वामी हैं। अब आप जो उचित समझें, वही करें। ब्रह्मा जी! आपका यह सर्वश्रेष्ठ परमेष्ठि-पद ब्राह्मण एवं गौओं की वृद्धि, कल्याण, विभूति, कुशल और विजय के लिये है। (यदि यह हिरण्यकशिपु के हाथ में चला गया, तो सज्जनों पर संकटों का पहाड़ टूट पड़ेगा)।’ युधिष्ठिर! जब देवताओं ने भगवान् ब्रह्मा जी से इस प्रकार निवेदन किया, तब वे भृगु और दक्ष आदि प्रजापतियों के साथ हिरण्यकशिपु के आश्रम पर गये।

ईश्वरीय सत्ता का अनुभव और हमारा अन्तर्ज्ञान.

                    

ईश्वरीय सत्ता का अनुभव
और हमारा अन्तर्ज्ञान.

इंग्लैण्ड के एक प्रसिद्ध विद्वान ने एक अवसर पर कहा था कि “मनुष्य धार्मिक प्राणी है।” यही कारण है कि मनुष्य का ध्यान सदैव सृष्टि की पहेली की तरफ आकर्षित होता रहता है और इसे सुलझाये बिना उसे चैन नहीं पड़ता। पेट की भूख की अपेक्षा भी ज्ञान की वुभुक्षा अधिक प्रबल होती है। एक दूसरे विद्वान ने एक बार धार्मिक-जीवन पर विचार करते हुये कहा था कि “ज्ञान-शक्ति सम्पन्न मनुष्य की अपेक्षा एक कुत्ते का जीवन अधिक सुखमय है क्योंकि उसके भीतर जिज्ञासा रूपी मीठी खुजली और ज्ञान की भूख नहीं होती। मनुष्य की बुद्धि ईश्वर का आशीर्वाद भी है और अभिशाप भी है, क्योंकि वह उसे सदैव ईश्वर सम्बन्धी शंका समाधान के भँवर जाल में घुमाये रहती है और तब तक चैन नहीं लेने देती जब तक कि वह सर्वज्ञ न हो जाय।”

“ईश्वर को बुद्धि से जान लेना सर्वथा असम्भव है। स्वामी रामतीर्थ कहा करते थे कि हमारी इस प्रकार की चेष्टा सीढ़ियों से चढ़कर स्वर्ग में पहुँचने की चेष्टा के सदृश्य व्यर्थ है।” ईश्वर और हमारे बीच जो अंधकार का पर्दा पड़ा हुआ है उसे भेद सकने में मनुष्य की वैज्ञानिक और तार्किक बुद्धि सर्वथा असमर्थ है। वास्तव में परमात्मा की वैज्ञानिक ढंग से छानबीन करने और उसकी अपार शक्ति को तर्क द्वारा सीमाबद्ध करने और नापने की कोशिश करने में हम उस परात्पर पुरुष को बहुत छोटा बना देते हैं। जर्मनी के प्रोफेसर जैकोवी ने कहा है—”वह परमात्मा ही नहीं रह जाता जो हमारी समझ में आ सकता हो।” जो वस्तु भली-भाँति बुद्धि में आ जाती है उसके प्रति भय और आदर का भाव किसके हृदय में उत्पन्न होगा? उस व्यक्ति के सामने, जिसे हम समझ सकते हैं अपने अधीन कर सकते हैं, और जिसका विश्लेषण कर सकते हैं, हम क्यों सर झुकायेंगे? ऐसी दशा में ईश्वर की सर्वशक्तिमत्ता और सर्वज्ञता कहाँ रहेगी? इसी भावना को ध्यान में रखते हुये योरोप के प्रसिद्ध दार्शनिक रूसो ने कहा था-”ईश्वर को मैं जितना कम समझता हूँ उतना ही अधिक भक्ति के साथ मैं उसकी प्रार्थना करता हूँ।” यही कारण है कि सरल चित्त के अनपढ़ और साधारण पढ़े लिखे व्यक्ति उच्च कोटि के भक्त और संत हो चुके हैं और ईश्वरीय शक्ति का अच्छा परिचय दे सके हैं जब कि बड़े-बड़े दार्शनिक और तार्किक उस क्षेत्र में जरा भी प्रवेश नहीं कर सके हैं।

ईश्वर के अस्तित्व को पुष्ट करने वाले प्रमाण तीन श्रेणियों में विभक्त किये जाते हैं

(1) उस शास्त्र से सम्बन्ध रखने वाले जिसमें वस्तुओं के तत्व और स्वभाव पर विचार होता है।
(2) सृष्टि-विकास के सिद्धान्त से सम्बन्ध रखने वाले।

(3) उस शास्त्र से सम्बन्ध रखने वाले जिसमें संसार के आदि कारणों पर विचार किया गया है।

पहली श्रेणी के प्रमाण का आशय यह है कि हमारे हृदय में ईश्वर की जो भावना सदैव से चली आती है वह उसकी प्रेरणा से ही है और यह उसकी सत्ता का एक प्रमाण है। दूसरे प्रमाण वाले यह कहते हैं कि बिना कारण के किसी कार्य की उत्पत्ति नहीं होती। उसका कोई कारण होना आवश्यक है। इसके अनुसार इस विश्व का जो कारण है वही ईश्वर है। तीसरे प्रमाण के अनुसार सृष्टि में जो अद्भुत व्यवस्था और नियमितता दिखलाई पड़ती है उससे प्रतीत होता है कि इसको रचने वाली कोई महान शक्ति अवश्य है। यह कहना कि परमाणुओं के आकस्मिक संयोग से सृष्टि के ये मस्त अद्भुत पदार्थ बन गये बुद्धि-संगत बात नहीं है।

यद्यपि ये तीनों प्रकार के प्रमाण अकाट्य नहीं कहे जा सकते और आलोचना करने वालों ने इनमें अनेक प्रकार की त्रुटियाँ बतलाई हैं। तो भी उनमें कुछ तथ्य अवश्य हैं और इसलिये उनकी अवहेलना न करने, उन पर गम्भीरता से विचार करना हमारा कर्तव्य है। ईश्वर की सिद्धि गणित के किसी सिद्धान्त की तरह नहीं हो सकती, पर साथ ही हम यह भी कह सकते हैं कि ईश्वर का खण्डन कर सकना भी उतना ही निष्फल है। सत्य बात तो यह है कि ईश्वर का अस्तित्व तर्क या प्रमाणों द्वारा करना अच्छा तरीका नहीं है। क्योंकि ज्ञान का भंडार महान्, विस्तृत एवं शक्तिमय है, किन्तु मनुष्य को उतनी ही परिमित राशि का ज्ञान है, जिसको उसने स्वयं अर्जन किया है। ऐसे परिमित ज्ञान के अन्दर उस अपरिमित शक्ति का समावेश किसी प्रकार से नहीं हो सकता। इसलिए यदि हम ईश्वर के अस्तित्व के विषय में वास्तव में कोई जानकारी प्राप्त करना चाहते हैं तो हमको आभ्यान्तरज्ञान (इंट्यूशन) का आश्रय ग्रहण करना चाहिये। बुद्धिजन्य ज्ञान की प्रक्रिया बाह्य होती है और उसके लिए हमको बाहर के ज्ञान का अर्जन करना होता है, जिसमें पर्याप्त समय लगाना पड़ता है और देर से सिद्धि मिलती है। इसके विपरीत आभ्यन्तरिक ज्ञान की प्रक्रिया आन्तरिक (आत्माकार) होती है और इसके द्वारा सत्य का प्रकाश तत्काल ही हमारी बुद्धि पर पड़ता है। यह आभ्यन्तरिक ज्ञान ही असंदिग्ध, उत्पादनशील और विकासशील होता है। आन्तरिक ज्ञान की एक विशेषता यह है कि वह स्वतः-प्रकाश नहीं होता है किन्तु उसे उस आलौकिक वस्तु से प्रकाश प्राप्त होता है जिसको वह अपना विषय बनाता है। आन्तरिक ज्ञान स्वतः प्रकाश रूप नहीं किन्तु प्रकाश को ग्रहण करने वाला होता है, क्रियाशील शक्ति नहीं किन्तु क्रिया का आधारभूत एक विचित्र कारण है।

इसी आन्तरिक ज्ञान की सहायता से हम सृष्टि के अन्दर ईश्वर की सत्ता का अनुभव करते हैं। जिन लोगों को यह ज्ञान प्राप्त नहीं है वे सहज ही में ईश्वर के अस्तित्व को अस्वीकार कर देते हैं। अब दर्शन और विज्ञान ने भी अन्तर्ज्ञान की महत्ता को मान लिया है और बड़े-बड़े योरोपियन तथा अमरीकन विद्वानों का कहना है कि इसके बिना सत्य की प्राप्ति हो ही नहीं सकती। इस आन्तरिक ज्ञान की सहायता से भी हम ईश्वर को पूर्ण रूप से नहीं समझ सकते, उसका अनुभव मात्र कर सकते हैं, और अधिक से अधिक उसकी सर्वशक्तिमत्ता की एक झलक पा सकते हैं। महासागर में अपार जलराशि है किन्तु हम उसमें से उतना ही जल ले सकते हैं जितना हमारे बर्तन में समा सकता है। इसी प्रकार हम लोग अपने-अपने आध्यात्मिक विकास के अनुसार ही ईश्वर का अनुभव कर सकते हैं।

आन्तरिक ज्ञान की इस सीमा पर पहुँच कर साधक को योग की सहायता लेनी पड़ती है। योगी का जीवन, उसकी दृष्टि एवं बातचीत ईश्वरमय पुरुष के सदृश्य होती हैं। योगी को विश्वास होता है कि वह उन तथ्यों को भी आध्यात्मिक रीति से जान सकता है जो बुद्धि की पहुँच के बाहर हैं। यद्यपि वह सत्य का अनुभव कर लेता है, तथापि वह भी साधारण मनुष्यों के सामने सिद्ध नहीं कर सकता। उसके अनुभव तक वहीं पहुँच सकता है जो आध्यात्मिक विकास में उसी दर्जे तक पहुँच गया हो। वह परमात्मा को जानता नहीं किन्तु उसका अनुभव करता है, यही नहीं परमात्मा के साथ उस की एकता हो जाती है। फिर वह ईश्वर के अतिरिक्त न तो कुछ जान सकता है, न देख सकता है, न अनुभव कर सकता है। वह समस्त सृष्टि में उस एक को देखता है और उसी में विलीन हो जाता है। तर्कवादी मनुष्य भले ही इस प्रकार के महात्मा को पागल समझें, पर ईश्वर के अस्तित्व को अनुभव करने का यही मार्ग है। हमारे देश के लोग सदा से इस तथ्य को स्वीकार करते आये हैं। इसीलिए प्रो. मैक्समूलर ने कहा था कि “संसार में सर्वत्र धर्म और दर्शनशास्त्र में विरोध दिखलाई पड़ता है। भारत वर्ष ही एक ऐसा देश है जहाँ दोनों में सामञ्जस्य है।”

 (अखंड ज्योति मई,1959)

श्रीमद्भागवत महापुराण: सप्तम स्कन्ध: द्वितीय अध्यायः श्लोक 53-61 का हिन्दी अनुवाद

 

(लगातार-सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत पुराण)
श्रीमद्भागवत महापुराण:
सप्तम स्कन्ध: द्वितीय अध्यायः
श्लोक
53-61 का हिन्दी अनुवाद


उसने कहा- ‘यों तो विधाता सब कुछ कर सकता है। परन्तु है वह बड़ा निर्दयी। यह मेरी सहचरी एक तो स्त्री है, दूसरे मुझ अभागे के लिये शोक करती हुई बड़ी दीनता से छटपटा रही है। इसे लेकर वह करेगा क्या। उसकी मौज हो तो मुझे ले जाये। इसके बिना मैं अपना यह अधुरा विधुर जीवन, जो दीनता और दुःख से भरा हुआ है, लेकर क्या करूँगा। अभी मेरे अभागे बच्चों के पर भी नहीं जमे हैं। स्त्री के मर जाने पर उन मातृहीन बच्चों को मैं कैसे पालूँगा? ओह! घोंसले में वे अपनी माँ की बाट देख रहे होंगे’।

इस तरह वह पक्षी बहुत-सा विलाप करने लगा। आँसुओं के मारे उसका गला रूँध गया था। तब तक काल की प्रेरणा से पास ही छिपे हुए उसी बहेलिये ने ऐसा बाण मारा कि वह भी वहीं पर लोट गया। मूर्ख रानियों! तुम्हारी भी यही दशा होने वाली है। तुम्हें अपनी मृत्यु तो दीखती नहीं और इसके लिये रो-पीट रही हो। यदि तुम लोग सौ बरस तक इसी तरह शोकवश छाती पीटती रहो, तो भी अब तुम इसे नहीं पा सकोगी।

हिरण्यकशिपु ने कहा- उस छोटे से बालक की ऐसी ज्ञान पूर्ण बातें सुनकर सब-के-सब दंग रह गये। उशीनर-नरेश के भाई-बन्धु और स्त्रियों ने यह बात समझ ली कि समस्त संसार और इसके सुख-दुःख अनित्य एवं मिथ्या हैं। यमराज यह उपाख्यान सुनाकर वहीं अन्तर्धान हो गये। भाई-बन्धुओं ने भी सुयज्ञ की अन्त्येष्टि-क्रिया की। इसलिये तुम लोग भी अपने लिये या किसी दूसरे के लिये शोक मत करो। इस संसार में कौन अपना है और कौन अपने से भिन्न? क्या अपना है और क्या पराया? प्राणियों को अज्ञान के कारण ही यह अपने-पराये का दुराग्रह हो रहा है, इस भेद-बुद्धि का और कोई कारण नहीं है।

नारद जी ने कहा- युधिष्ठिर! अपनी पुत्रवधू के साथ दिति ने हिरण्यकशिपु की यह बात सुनकर उसी क्षण पुत्रशोक का त्याग कर दिया और अपना चित्त परमतत्त्वस्वरूप परमात्मा में लगा दिया।

श्रीमद्भागवत महापुराण: सप्तम स्कन्ध: द्वितीय अध्यायः श्लोक 44-52 का हिन्दी अनुवाद

 

(लगातार-सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत पुराण)
श्रीमद्भागवत महापुराण:
सप्तम स्कन्ध: द्वितीय अध्यायः
श्लोक
44-52 का हिन्दी अनुवाद


मूर्खों! जिसके लिये तुम सब शोक कर रहे हो, वह सुयज्ञ नाम का शरीर तो तुम्हारे सामने पड़ा है। तुम लोग इसी को देखते थे। इसमें जो सुनने वाला और बोलने वाला था, वह तो कभी किसी को नहीं दिखायी पड़ता था। फिर आज भी नहीं दिखायी दे रहा है, तो शोक क्यों?

(तुम्हारी यह मान्यता कि ‘प्राण ही बोलने या सुनने वाला था, सो निकल गया’ मूर्खतापूर्ण है; क्योंकि सुषुप्ति के समय प्राण तो रहता है, पर न वह बोलता है न सुनता है।) शरीर में सब इन्द्रियों की चेष्टा का हेतुभूत जो महाप्राण है, वह प्रधान होने पर भी बोलने या सुनने वाला नहीं है; क्योंकि वह जड है। देह और इन्द्रियों के द्वारा सब पदार्थों का द्रष्टा जो आत्मा है, वह शरीर और प्राण दोनों से पृथक् है। यद्यपि वह परिच्छिन्न नहीं है, व्यापक है-फिर भी पंचभूत, इन्द्रिय और मन से युक्त नीचे-ऊँचे (देव, मनुष्य, पशु, पक्षी आदि) शरीरों को ग्रहण करता और अपने विवेक बल से मुक्त भी जो जाता है। वास्तव में वह इन सबसे अलग है। जब तक वह पाँच प्राण, पाँच कर्मेन्द्रिय, पाँच ज्ञानेन्द्रिय, बुद्धि और मन-इन सत्रह तत्त्वों से बने हुए लिंग शरीर से युक्त रहता है, तभी तक कर्मों से बँधा रहता है और इस बन्धन के कारण ही माया से होने वाले मोह और क्लेश बराबर उसके पीछे पड़े रहते हैं।

प्रकृति के गुणों और उनसे बनी हुई वस्तुओं को सत्य समझना अथवा कहना झूठमूठ का दुराग्रह है। मनोरथ के समय की कल्पित और स्वप्न के समय की दीख पड़ने वाली वस्तुओं के समान इन्द्रियों के द्वारा जो कुछ ग्रहण किया जाता है, सब मिथ्या है। इसलिये शरीर और आत्मा का तत्त्व जानने वाले पुरुष न तो अनित्य शरीर के लिये शोक करते हैं और न नित्य आत्मा के लिये ही। परन्तु ज्ञान की दृढ़ता न होने के कारण जो लोग शोक करते रहते हैं, उनका स्वभाव बदलना बहुत कठिन है।

किसी जंगल में एक बहेलिया रहता था। वह बहेलिया क्या था, विधाता ने मानो उसे पक्षियों के कालरूप में ही रच रखा था। जहाँ-कहीं भी वह जाल फैला देता और ललचाकर चिड़ियों को फँसा लेता। एक दिन उसने कुलिंग पक्षी के एक जोड़े को चारा चुगते देखा। उनमें से उस बहेलिये ने मादा पक्षी को तो शीघ्र ही फँसा लिया। कालवश वह जाल के फंदों में फँस गयी। नर पक्षी को अपनी मादा की विपत्ति को देखकर बड़ा दुःख हुआ। वह बेचारा उसे छुड़ा तो सकता न था, स्नेह से उस बेचारी के लिये विलाप करने लगा।

श्रीमद्भागवत महापुराण: सप्तम स्कन्ध: द्वितीय अध्यायः श्लोक 33-43 का हिन्दी अनुवाद

 

(लगातार-सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत पुराण)
श्रीमद्भागवत महापुराण:
सप्तम स्कन्ध: द्वितीय अध्यायः
श्लोक 33-43 का हिन्दी अनुवाद


‘हाय! विधाता बड़ा क्रूर है। स्वामिन्! उसी ने आज आपको हमारी आँखों से ओझल कर दिया। पहले तो आप समस्त देशवासियों के जीवनदाता थे। आज उसी ने आपको ऐसा बना दिया कि आप हमारा शोक बढ़ा रहे हैं।

पतिदेव! आप हमसे बड़ा प्रेम करते थे, हमारी थोड़ी-सी सेवा को भी बड़ी करके मानते थे। हाय! अब आपके बिना हम कैसे रह सकेंगी। हम आपके चरणों की चेरी हैं। वीरवर! आप जहाँ जा रहे हैं, वहीं चलने की हमें भी आज्ञा दीजिये’। वे अपने पति की लाश पकड़कर इसी प्रकार विलाप करती रहीं। उस मुर्दे को वहाँ से दाह के लिये जाने देने की उनकी इच्छा नहीं होती थी। इतने में ही सूर्यास्त हो गया। उस समय उशीनर राजा के सम्बन्धियों ने जो विलाप किया था, उसे सुनकर वहाँ स्वयं यमराज बालक के वेष में आये और उन्होंने उन लोगों से कहा।

यमराज ने कहा- बड़े आश्चर्य की बात है। ये लोग तो मुझसे सयाने हैं। बराबर लोगों का मरना-जीना देखते हैं, फिर भी इतने मूढ़ हो रहे हैं। अरे! यह मनुष्य जहाँ से आया था, वहीं चला गया। इन लोगों को भी एक-न-एक दिन वहीं जाना है। फिर झूठमूठ ये लोग इतना शोक क्यों करते हैं? हम तो तुमसे लाख गुने अच्छे हैं, परम धन्य हैं; क्योंकि हमारे माँ-बाप ने हमें छोड़ दिया है। हमारे शरीर में पर्याप्त बल भी नहीं है, फिर भी हमें कोई चिन्ता नहीं है। भेड़िये आदि हिंसक जन्तु हमारा बाल भी बाँका नहीं कर पाते। जिसने गर्भ में रक्षा की थी, वही इस जीवन में भी हमारी रक्षा करता रहता है। देवियों! जो अविनाशी ईश्वर अपनी मौज से इस जगत् को बनाता है, रखता है और बिगाड़ देता है-उस प्रभु का यह एक खिलौना मात्र है। वह इस चराचर जगत् को दण्ड या पुरस्कार देने में समर्थ है। भाग्य अनुकूल हो तो रास्ते में गिरी हुई वस्तु भी ज्यों-की-त्यों पड़ी रहती है। परन्तु भाग्य के प्रतिकूल होने पर घर के भीतर तिजोरी में रखी हुई वस्तु भी खो जाती है। जीव बिना किसी सहारे के दैव की दयादृष्टि से जंगल में भी बहुत दिनों तक जीवित रहता है, परन्तु दैव के विपरीत होने पर घर में सुरक्षित रहने पर भी मर जाता है।

रानियों! सभी प्राणियों की मृत्यु अपने पूर्वजन्मों की कर्मवासना के अनुसार समय पर होती है और उसी के अनुसार उनका जन्म भी होता है। परन्तु आत्मा शरीर से अत्यन्त भिन्न है, इसलिये वह उसमें रहने पर भी उसके जन्म-मृत्यु आदि धर्मों से अछूता ही रहता है। जैसे मनुष्य अपने मकान को अपने से अलग और मिट्टी का समझता है, वैसे ही यह शरीर भी अलग और मिट्टी का है। मोहवश वह इसे अपना समझ बैठता है। जैसे बुलबुले आदि पानी के विकार, घड़े आदि मिट्टी के विकार और गहने आदि स्वर्ण के विकार समय पर बनते हैं, रूपान्तरित होते हैं तथा नष्ट हो जाते हैं, वैसे ही इन्हीं तीनों के विकार से बना हुआ यह शरीर भी समय पर बन-बिगड़ जाता है।

जैसे काठ में रहने वाली व्यापक अग्नि स्पष्ट ही उससे अलग है, जैसे देह में रहने पर भी वायु का उससे कोई सम्बन्ध नहीं है, जैसे आकाश सब जगह एक-सा रहने पर भी किसी के दोष-गुण से लिप्त नहीं होता-वैसे ही समस्त देहेन्द्रियों में रहने वाला और उनका आश्रय आत्मा भी उनसे अलग और निर्लिप्त है।

श्रीमद्भागवत महापुराण: सप्तम स्कन्ध: द्वितीय अध्यायः श्लोक 17-32 का हिन्दी अनुवाद

 

(लगातार-सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत पुराण)
श्रीमद्भागवत महापुराण:
सप्तम स्कन्ध: द्वितीय अध्यायः
श्लोक 17-32 का हिन्दी अनुवाद


युधिष्ठिर! भाई की मृत्यु से हिरण्यकशिपु को बड़ा दुःख हुआ था। जब उसने उसकी अन्त्येष्टि क्रिया से छुट्टी पा ली, तब शकुनि, शम्बर, धृष्ट, भूतसन्तापन, वृक, कालनाभ, महानाभ, हरिश्मश्रु और उत्कच अपने इन भतीजों को सान्त्वना दी। उनकी माता रुषाभानु को और अपनी माता दिति को देश-काल के अनुसार मधुर वाणी से समझाते हुए कहा।

हिरण्यकशिपु ने कहा- मेरी प्यारी माँ, बहू और पुत्रो! तुम्हें वीर हिरण्याक्ष के लिये किसी प्रकार का शोक नहीं करना चाहिये। वीर पुरुष तो ऐसा चाहते ही हैं कि लड़ाई के मैदान में अपने शत्रु के सामने उसके दाँत खट्टे करके प्राण त्याग करें; वीरों के लिये ऐसी ही मृत्यु श्लाघनीय होती है। देवि! जैसे प्याऊ पर बहुत-से लोग इकट्ठे हो जाते हैं, परन्तु उनका मिलना-जुलना थोड़ी देर के लिये ही होता है-वैसे ही अपने कर्मों के फेर से दैववश जीव भी मिलते और बिछुड़ते हैं। वास्तव में आत्मा नित्य, अविनाशी, शुद्ध, सर्वगत, सर्वज्ञ और देह-इन्द्रिय आदि से पृथक् है। वह अपनी अविद्या से ही देह आदि की सृष्टि करके भोगों के साधन सूक्ष्म शरीर को स्वीकार करता है। जैसे हिलते हुए पानी के साथ उसमें प्रतिबिम्बित होने वाले वृक्ष भी हिलते-से जान पड़ते हैं और घुमायी जाती हुई आँख के साथ सारी पृथ्वी ही घूमती-सी दिखायी देती है।

कल्याणी! वैसे ही विषयों के कारण मन भटकने लगता है और वास्तव में निर्विकार होने पर भी उसी के समान आत्मा भी भटकता हुआ-सा जान पड़ता है। उसका स्थूल और सूक्ष्म-शरीरों से कोई भी सम्बन्ध नहीं है, फिर भी वह सम्बन्धी-सा जान पड़ता है। सब प्रकार से शरीर रहित आत्मा को शरीर समझ लेना-यही तो अज्ञान है। इसी से प्रिय अथवा अप्रिय वस्तुओं का मिलना और बिछुड़ना होता है। इसी से कर्मों के साथ सम्बन्ध हो जाने के कारण संसार में भटकना पड़ता है। जन्म, मृत्यु, अनेकों प्रकार के शोक, अविवेक, चिन्ता और विवेक की विस्मृति-सबका कारण यह अज्ञान ही है। इस विषय में महात्मा लोग एक प्राचीन इतिहास कहा करते हैं। वह इतिहास मरे हुए मनुष्य के सम्बन्धियों के साथ यमराज की बातचीत है। तुम लोग ध्यान से उसे सुनो।

उशीनर देश में एक बड़ा यशस्वी राजा था। उसका नाम था सुयज्ञ। लड़ाई में शत्रुओं ने उसे मार डाला। उस समय उसके भाई-बन्धु उसे घेरकर बैठ गये। उसका जड़ाऊ कवच छिन्न-भिन्न हो गया था। गहने और मालाएँ तहस-नहस हो गयी थीं। बाणों की मार से कलेजा फट गया था। शरीर खून से लथपथ था। बाल बिखर गये थे। आँखें धँस गयी थीं। क्रोध के मारे दाँतों से उसके होठ दबे हुए थे। कमल के समान मुख धूल से ढक गया था। युद्ध में उसके शस्त्र और बाँहें कट गयी थीं। रानियों को दैववश अपने पतिदेव उशीनर नरेश की यह दशा देखकर बड़ा दुःख हुआ। वे ‘हा नाथ! हम अभागिनें तो बेमौत मारी गयीं।’ यों कहकर बार-बार जोर से छाती पीटती हुई अपने स्वामी के चरणों के पास गिर पड़ीं। वे जोर-जोर से इतना रोने लगीं कि उनके कुच-कुंकुम से मिलकर बहते हुए लाल-लाल आँसुओं से प्रियतम के पादपद्म पखार दिये। उनके केश और गहने इधर-उधर बिखर गये। वे करुण-क्रन्दन के साथ विलाप कर रही थीं, जिसे सुनकर मनुष्यों के हृदय में शोक का संचार हो जाता था।

श्रीमद्भागवत महापुराण: सप्तम स्कन्ध: द्वितीय अध्यायः श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद

 

(लगातार-सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत पुराण)
श्रीमद्भागवत महापुराण:
सप्तम स्कन्ध: द्वितीय अध्यायः
श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद


हिरण्याक्ष का वध होने पर हिरण्यकशिपु का
                                  अपनी माता और कुटुम्बियों को समझाना.


नारद जी ने कहा- युधिष्ठिर! जब भगवान् ने वराहावतार धारण करके हिरण्याक्ष को मार डाला, तब भाई के इस प्रकार मारे जाने पर हिरण्यकशिपु रोष से जल-भुन गया और शोक से सन्तप्त हो उठा। वह क्रोध से काँपता हुआ अपने दाँतों से बार-बार होठ चबाने लगा। क्रोध से दहकती हुई आँखों की आग के धुएँ से धूमिल हुए आकाश की ओर देखता हुआ वह कहने लगा।

उस समय विकराल दाढ़ों, आग उगलने वाली उग्र दृष्टि और चढ़ी हुई भौंहों के कारण उसका मुँह देखा न जाता था। भरी सभा में त्रिशूल उठाकर उसने द्विमूर्धा, त्र्यक्ष, शम्बर, शतबाहु, हयग्रीव, नमुचि, पाक, इल्वल, विप्रचित्ति, पुलोमा और शकुन आदि को सम्बोधन करके कहा- ‘दैत्यों और दानवों! तुम सब लोग मेरी बात सुनो और उसके बाद जैसे मैं कहता हूँ, वैसे करो। तुम्हें यह ज्ञात है कि मेरे क्षुद्र शत्रुओं ने मेरे परम प्यारे और हितैषी भाई को विष्णु से मरवा डाला है। यद्यपि वह देवता और दैत्य दोनों के प्रति समान है, तथापि दौड़-धूप और अनुनय-विनय करके देवताओं ने उसे अपने पक्ष में कर लिया है। यह विष्णु पहले तो बड़ा शुद्ध और निष्पक्ष था, परन्तु अब माया से वराह आदि रूप धारण करने लगा है और अपने स्वभाव से च्युत हो गया है। बच्चे की तरह जो उसकी सेवा करे, उसी की ओर हो जाता है। उसका चित्त स्थिर नहीं है। अब मैं अपने इस शूल से उसका गला काट डालूँगा और उसके खून की धारा से अपने रुधिरप्रेमी भाई का तर्पण करूँगा। तब कहीं मेरे हृदय की पीड़ा शान्त होगी। उस मायावी शत्रु के नष्ट होने पर, पेड़ की जड़ कट जाने पर डालियों की तरह सब देवता अपने-आप सूख जायेंगे। क्योंकि उनका जीवन तो विष्णु ही है।

इसलिये तुम लोग इसी समय पृथ्वी पर जाओ। आजकल वहाँ ब्राह्मण और क्षत्रियों की बहुत बढ़ती हो गयी है। वहाँ जो लोग तपस्या, यज्ञ, स्वाध्याय, व्रत और दानादि शुभ कर्म कर रहे हों, उन सबको मार डालो। विष्णु की जड़ है द्विजातियों का धर्म-कर्म; क्योंकि यज्ञ और धर्म ही उसके स्वरूप हैं। देवता, ऋषि, पितर, समस्त प्राणी और धर्म का वही परम आश्रय है। जहाँ-तहाँ ब्राह्मण, गाय, वेद, वर्णाश्रम और धर्म-कर्म हों, उन-उन देशों में तुम लोग जाओ, उन्हें जला दो, उजाड़ डालो’।

दैत्य तो स्वभाव से ही लोगों को सताकर सुखी होते हैं। दैत्यराज हिरण्यकशिपु की आज्ञा उन्होंने बड़े आदर से सिर झुकाकर स्वीकार की और उसी के अनुसार जनता का नाश करने लगे। उन्होंने नगर, गाँव, गौओं के रहने के स्थान, बगीचे, खेत, टहलने के स्थान, ऋषियों के आश्रम, रत्न आदि की खानें, किसानों की बस्तियाँ, तराई के गाँव, अहीरों की बस्तियाँ और व्यापार के केन्द्र बड़े-बड़े नगर जला डाले। कुछ दैत्यों ने खोदने के शस्त्रों से बड़े-बड़े पुल, परकोटे और नगर के फाटकों को तोड़-फोड़ डाला तथा दूसरों ने कुल्हाड़ियों से फले-फूले, हरे-भरे पेड़ काट डाले। कुछ दैत्यों ने जलती हुई लकड़ियों से लोगों के घर जला दिये। इस प्रकार दैत्यों ने निरीह प्रजा का बड़ा उत्पीड़न किया। उस समय देवता लोग स्वर्ग छोड़कर छिपे रूप से पृथ्वी में विचरण करते थे।