श्रीमद्भागवत महापुराण: सप्तम स्कन्ध: सप्तम अध्यायः श्लोक 43-55 का हिन्दी अनुवाद

 

(लगातार-सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत पुराण)
श्रीमद्भागवत महापुराण:
सप्तम स्कन्ध: सप्तम अध्यायः
श्लोक 43-55 का हिन्दी अनुवाद


मनुष्य इस लोक में सकाम कर्मों के द्वारा जिस शरीर के लिये भोग प्राप्त करना चाहता है, वह शरीर ही पराया-स्यार-कुत्तों का भोजन और नाशवान् है। कभी वह मिल जाता है तो कभी बिछुड़ जाता है। जब शरीर की ही यह दशा है-तब इससे अलग रहने वाले पुत्र, स्त्री, महल, धन, सम्पत्ति, राज्य, खजाने, हाथी-घोड़े, मन्त्री, नौकर-चाकर, गुरुजन और दूसरे अपने कहलाने वालों की तो बात ही क्या है। ये तुच्छ विषय शरीर के साथ ही नष्ट हो जाते हैं। ये जान तो पड़ते हैं पुरुषार्थ के समान, परन्तु हैं वास्तव में अनर्थरूप ही। आत्मा स्वयं ही अनन्त आनन्द का महान् समुद्र है। उसके लिये इन वस्तुओं की क्या आवश्यकता है?

भाइयों! तनिक विचार तो करो-जो जीव गर्भाधान से लेकर मृत्यु पर्यन्त सभी अवस्थाओं में अपने कर्मों के अधीन होकर क्लेश-ही-क्लेश भोगत है, उसका इस संसार में स्वार्थ ही क्या है। यह जीव सूक्ष्म शरीर को ही अपना आत्मा मानकर उसके द्वारा अनेकों प्रकार के कर्म करता है और कर्मों के कारण ही फिर शरीर ग्रहण करता है। इस प्रकार कर्म से शरीर और शरीर से कर्म की परम्परा चल पड़ती है। और ऐसा होता है अविवेक के कारण। इसलिये निष्कामभाव से निष्क्रिय आत्मस्वरूप भगवान् श्रीहरि का भजन करना चाहिये। अर्थ, धर्म और काम-सब उन्हीं के आश्रित हैं, बिना उनकी इच्छा के नहीं मिल सकते। भगवान् श्रीहरि समस्त प्राणियों के ईश्वर, आत्मा और परम प्रियतम हैं। वे अपने ही बनाये हुए पंचभूत और सूक्ष्मभूत आदि के द्वारा निर्मित शरीरों में जीव के नाम से कहे जाते हैं। देवता, दैत्य, मनुष्य, यक्ष अथवा गन्धर्व- कोई भी क्यों न हो-जो भगवान् के चरणकमलों का सेवन करता है, वह हमारे ही समान कल्याण का भाजन होता है।

दैत्यबालको! भगवान् को प्रसन्न करने के लिये ब्राह्मण, देवता या ऋषि होना, सदाचार और विविध ज्ञानों से सम्पन्न होना तथा दान, तप, यज्ञ, शारीरिक और मानसिक शौच और बड़े-बड़े व्रतों का अनुष्ठान पर्याप्त नहीं है। भगवान् केवल निष्काम प्रेम-भक्ति से ही प्रसन्न होते हैं। और सब तो विडम्बना-मात्र हैं। इसलिये दानव-बन्धुओं! समस्त प्राणियों को अपने समान ही समझकर सर्वत्र विराजमान, सर्वात्मा, सर्वशक्तिमान् भगवान् की भक्ति करो। भगवान् की भक्ति के प्रभाव से दैत्य, यक्ष, राक्षस, स्त्रियाँ, शूद्र, गो पालक अहीर, पक्षी, मृग और बहुत-से पापी जीव भी भगवद्भाव को प्राप्त हो गये हैं। इस संसार में या मनुष्य-शरीर में जीव का सबसे बड़ा स्वार्थ अर्थात् एकमात्र परमार्थ इतना ही है कि वह भगवान् श्रीकृष्ण की अनन्य भक्ति प्राप्त करे। उस भक्ति का स्वरूप है सर्वदा, सर्वत्र जब वस्तुओं में भगवान् का दर्शन।

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