श्रीमद्भागवत महापुराण: षष्ठ स्कन्ध: अष्टादश अध्यायः श्लोक 64-78 का हिन्दी अनुवाद

 (लगातार-सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत पुराण)
श्रीमद्भागवत महापुराण:
षष्ठ स्कन्ध: अष्टादश अध्यायः
श्लोक
64-78 का हिन्दी अनुवाद


राजन्! जब इन्द्र उनके टुकड़े-टुकड़े करने लगे, तब उन सबों ने हाथ जोड़कर इन्द्र से कहा- ‘देवराज! तुम हमें क्यों मार रहे हो? हम तो तुम्हारे भाई मरुद्गण हैं’। तब इन्द्र ने अपने भावी अनन्य प्रेमी पार्षद मरुद्गणों से कहा- ‘अच्छी बात है, तुम लोग मेरे भाई हो। अब मत डरो!’ परीक्षित! जैसे अश्वत्थामा के ब्रह्मास्त्र से तुम्हारा कुछ भी अनिष्ट नहीं हुआ, वैसे ही भगवान् श्रीहरि की कृपा से दिति का वह गर्भ वज्र के द्वारा टुकड़े-टुकड़े होने पर भी मरा नहीं। इसमें तनिक भी आश्चर्य की बात नहीं है। क्योंकि जो मनुष्य एक बार भी आदिपुरुष भगवान् नारायण की आराधना कर लेता है, वह उनकी समानता प्राप्त कर लेता है; फिर दिति ने तो कुछ ही दिन कम एक वर्ष तक भगवान् की आराधना की थी। अब वे मरुद्गण इन्द्र के साथ मिलकर पचास हो गये। इन्द्र ने भी सौतेली माता के पुत्रों के साथ शत्रुभाव न रखकर उन्हें सोमपायी देवता बना लिया। जब दिति की आँख खुली, तब उसने देखा कि उसके अग्नि समान तेजस्वी उनचास बालक इन्द्र के साथ हैं। इससे सुन्दर स्वभाव वाली दिति को बड़ी प्रसन्नता हुई। उसने इन्द्र को सम्बोधन करके कहा- ‘बेटा! मैं इस इच्छा से इस अत्यन्त कठिन व्रत का पालन कर रही थी कि तुम अदिति के पुत्रों को भयभीत करने वाला पुत्र उत्पन्न हो। मैंने केवल एक ही पुत्र के लिये संकल्प किया था, फिर ये उनचास पुत्र कैसे हो गये? बेटा इन्द्र! यदि तुम्हें इसका रहस्य मालूम हो, तो सच-सच मुझे बतला दो। झूठ न बोलना’। इन्द्र ने कहा- माता! मुझे इस बात का पता चल गया था कि तुम किस उद्देश्य से व्रत कर रही हो। इसीलिये अपना स्वार्थ सिद्ध करने के उद्देश्य से मैं स्वर्ग छोड़कर तुम्हारे पास आया। मेरे मन में तनिक भी धर्म भावना नहीं थी। इसी से तुम्हारे व्रत में त्रुटि होते ही मैंने उस गर्भ के टुकड़े-टुकड़े कर दिये। पहले मैंने उसके सात टुकड़े किये थे। तब वे सातों टुकड़े सात बालक बन गये। इसके बाद मैंने फिर एक-एक के सात-सात टुकड़े कर दिये। तब भी वे न मरे, बल्कि उनचास हो गये। यह परम आश्चर्यमयी घटना देखकर मैंने ऐसा निश्चय किया कि परमपुरुष भगवान् की उपासना की यह कोई स्वाभाविक सिद्धि है। जो लोग निष्काम भाव से भगवान् की आराधना करते हैं और दूसरी वस्तुओं की तो बात ही क्या, मोक्ष की भी इच्छा नहीं करते, वे ही अपने स्वार्थ और परमार्थ में निपुण हैं। भगवान् जदीश्वर सबके आराध्यदेव और अपने आत्मा ही हैं। वे प्रसन्न होकर अपने-आप तक का दान कर देते हैं। भला, ऐसा कौन बुद्धिमान् है, जो उसकी आराधना करके विषय भोगों का वरदान माँगे। माताजी! ये विषय भोग तो नरक में भी मिल सकते हैं। मेरी स्नेहमयी जननी! तुम सब प्रकार मेरी पूज्या हो। मैने मूर्खतावश बड़ी दुष्टता का काम किया है। तुम मेरे अपराध को क्षमा कर दो। यह बड़े सौभाग्य की बात है कि तुम्हारा गर्भ खण्ड-खण्ड हो जाने से एक प्रकार मर जाने पर भी फिर से जीवित हो गया। श्रीशुकदेव जी कहते हैं- परीक्षित! दिति देवराज इन्द्र के शुद्धभाव से सन्तुष्ट हो गयी। उससे आज्ञा लेकर देवराज इन्द्र ने मरुद्गणों के साथ उसे नमस्कार किया और स्वर्ग में चले गये। राजन! यह मरुद्गण का जन्म बड़ा ही मंगलमय है। इसके विषय में तुमने मुझसे जो प्रश्न किया था, उसका उत्तर समग्र रूप से मैंने तुम्हें दे दिया। अब तुम और क्या सुनना चाहते हो?

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