बर्बादी की दुष्प्रवृत्ति.

र्बादी की दुष्प्रवृत्ति.

समय की बर्बादी को यदि लोग धन की हानि से बढ़कर मानने लगें, तो क्या हमारा जो बहुमूल्य समय यों ही आलस में बीतता रहता है क्या कुछ उत्पादन करने या सीखने में न लगे? विदेशों में आजीविका कमाने के बाद बचे हुए समय में से कुछ घंटे हर कोई व्यक्ति अध्ययन के लिए लगाता है और इसी क्रम के आधार पर जीवन के अन्त तक वह साधारण नागरिक भी उतना ज्ञान संचय कर लेता है जितना कि हम में से उद्भट विद्वान समझे जाने वाले लोगों को भी नहीं होता। जापान में बचे हुए समय को लोग गृह−उद्योगों में लगाते हैं और फालतू समय में अपनी कमाई बढ़ाने के अतिरिक्त विदेशों में भेजने के लिए बहुत सस्ता माल तैयार कर देते हैं जिससे उनकी राष्ट्रीय भी बढ़ती है। एक ओर हम हैं जो स्कूल छोड़ने के बाद अध्ययन को तिलाञ्जलि ही दे देते हैं और नियत व्यवसाय के अतिरिक्त कोई दूसरी सहायक आजीविका की बात भी नहीं सोचते। क्या स्त्री क्या पुरुष सभी इस बात में अपना गौरव समझते हैं कि उन्हें शारीरिक श्रम न करना पड़े।

समय की बर्बादी शारीरिक नहीं मानसिक दुर्गुण है। मन में जब तक इसके लिए रुचि, आकाँक्षा एवं उत्साह पैदा न होगा, जब तक इस हानि को मन हानि ही नहीं मानेगा तब तक सुधार का प्रश्न ही कहाँ पैदा होगा? टाइम टेबल बनाकर—कार्यक्रम निर्धारित कर, कितने लोग अपनी दिनचर्या चलाते हैं? फुरसत न मिलने की बहानेबाजी हर कोई करता है पर ध्यानपूर्वक देखा जाय तो उसका बहुत सा समय, आलस, प्रमाद, लापरवाही और मंदगति से काम करने में नष्ट होता है। समय के अपव्यय को रोककर और उसे नियमित दिनचर्या की सुदृढ़ श्रृंखला में आबद्ध कर हम अपने आज के सामान्य जीवन को असामान्य जीवन में बदल सकते हैं। पर यह होगा तभी न जब मन का अवसाद टूटे? जब लक्षहीनता, अनुत्साह एवं अव्यवस्था से पीछा छूटे?

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी.


 प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी.

''1990 की घटना.. असम से दो सहेलियां रेलवे में भर्ती के लिए गुजरात रवाना हुईं. रास्ते में एक स्टेशन पर उन्हें गाड़ी बदलकर आगे का सफर करना था, लेकिन पहली गाड़ी में कुछ लड़कों ने उनके साथ छेड़खानी की थी. इस वजह से अगली गाड़ी में तो कम से कम सफर सुखद हो, यही आशा लिए दोनों लड़कियों ने भगवान से प्रार्थना करते हुए स्टेशन पर उतर गईं और भागते हुए रिजर्वेशन चार्ट तक पहुंची. चार्ट देख दोनों परेशान और भयभीत हो गईं क्योंकि ट्रेन में उनकी सीट कन्फर्म नहीं हुई थीं.

''मायूसी लिए उन्होंने न चाहते हुए भी नजदीक खड़े TC से गाड़ी में जगह देने के लिए विनती की. TC ने भी गाड़ी आने पर कोशिश करने का आश्वासन दिया. एक-दूसरे को भरोसा देते हुए दोनों गाड़ी का इंतजार करने लगीं. कुछ देर के इंतजार के बाद गाड़ी आ गई और दोनों जैसे-तैसे गाड़ी में एक जगह बैठ गईं. लेकिन जैसे ही उन्होंने अपने सामने वाली सीट पर देखा, वे घबरा गईं. उन्होंने देखा कि सामने वाली सीट पर दो पुरुष बैठे थे. पिछले सफर में हुई बदसलूकी का याद करते हुए दोनों युवतियां सिहर गईं. लेकिन अब वहां बैठने के अलावा उनके पास कोई चारा भी नहीं था, क्योंकि उस डिब्बे में कोई और जगह खाली भी नहीं थी। ट्रेन चल चुकी थी और दोनों की निगाहें, किसी दूसरी सीट के लिए TC को ढूंढ रही थीं. कुछ समय बाद TC वहां पहुंच गया और कहा कि उन्हें कहीं और सीट नहीं मिल पाएगी और इस सीट का भी रिजर्वेशन है.''

''TC ने युवतियों से कहा कि वे अगला स्टेशन आने से पहले दूसरी जगह देख लें. यह सुनते ही दोनों के पैरों तले जैसे जमीन ही खिसक गई क्योंकि रात का सफर था. युवतियों की परेशानी से बेखबर ट्रेन अपनी तेजी से आगे बढ़ रही थी. जैसे-जैसे अगला स्टेशन पास आने लगा, दोनों परेशान होने लगीं लेकिन सामने बैठे पुरुष उनके परेशानी के साथ भय की अवस्था को बड़ी ही बारीकी से देख रहे थे. लेकिन जैसे ही अगला स्टेशन आया, युवतियों के सामने बैठे दोनों पुरुष अपनी सीट से उठ खड़े हो गए और चल दिए. अब दोनों लड़कियों ने उनकी जगह पकड़ ली और गाड़ी निकल पड़ी. कुछ देर बाद वो नौजवान वापस आए और फिर युवतियों से कुछ कहे बिना ही ट्रेन के फर्श पर सो गए. ये सब देखकर दोनों सहेलियां हैरान रह गईं. हालांकि, वे पिछली यात्रा में हुई बदसलूकी की वजह से अभी भी सहमी हुई थीं. इसी डर के साथ दोनों की आंखें लग गईं.''

''सुबह चाय वाले की आवाज सुन नींद खुली तो दोनों ने उन पुरुषों को धन्यवाद कहा. उनमें से एक पुरुष ने युवतियों से कहा, "बहन जी, गुजरात में कोई मदद चाहिए हो तो जरुर बताना". अब दोनों सहेलियों का उनके बारे में मत बदल चुका था. एक युवती ने अब अपने बैग से बुक निकाली और उनसे अपना नाम और संपर्क लिखने को कहा...दोनों ने अपना नाम और पता बुक में लिख दिया. इतनें में ही उन पुरुषों का स्टेशन आ गया और वे "हमारा स्टेशन आ गया है" कहकर उतर गए और भीड़ में कही गुम हो गए. दोनों सहेलियों ने उस बुक में लिखे नाम पढ़े.. उनमें एक नाम नरेंद्र मोदी का था और दूसरा नाम शंकर सिंह वाघेला का था.

1 जून, 2014 को प्रकाशित हुए अंग्रेजी अखबार 'The Hindu' में यह घटना प्रकाशित हुई थी, जिसका टाइटल था- 'A train journey and two names to remember'. और जिस युवती ने डायरी में नाम लिखाया था, उसका नाम लीना शर्मा था, जो भारतीय रेलवे में General Manager of the centre for railway information system के पद पर कार्यरत हैं.

स्वार्थपरता आध्यात्मिक पतन का मूल कारण है.


स्वार्थपरता आध्यात्मिक पतन का मूल कारण
(श्री मेहरबाबा)

स्वार्थपरता मनुष्य की आध्यात्मिक उन्नति में एक बहुत बड़ी बाधा स्वरूप है। जब किन्हीं कारणों वश हमारी इच्छाओं की तृप्ति नहीं होती तभी स्वार्थपरता अस्तित्व में आती है। साथ ही जो मनुष्य मानव-स्वभाव के वास्तविक स्वरूप से अनजान होता है उसमें भी इस प्रवृत्ति का जन्म होता है। जन्म-जन्मान्तर के विकासक्रम में हमारे भीतर जो नाना प्रकार के संस्कार एकत्रित हो जाते हैं उनसे मानवीय चेतना आच्छादित हो जाती है। ये संस्कार ही इच्छाओं के रूप में प्रकट होते हैं और इन इच्छाओं द्वारा हमारी चेतना (ज्ञान) का क्षेत्र बहुत कुछ सीमित हो जाता है।

स्वार्थपरता का घेरा इच्छाओं के घेरे के बराबर ही होता है। तरह-तरह की इच्छाओं के अवरोध (रुकावट) के कारण अपने यथार्थ स्वरूप की अभिव्यक्ति आत्मा के लिये असंभव हो जाती है। इससे हमारा जीवन अपने तक ही केन्द्रित और सीमित हो जाता है। इसके लिये हम इच्छानुकूल वस्तुओं की खोज करते रहते हैं, जो सब की सब परिवर्तनशील और क्षणभंगुर होती हैं। किन्तु ऐसी नाशवान वस्तुओं के द्वारा वास्तविक तृप्ति होनी असंभव है। जीवन की चंचल वस्तुओं से प्राप्त संतोष स्थायी नहीं होता और मनुष्य की चाहें या इच्छाएं अतृप्त बनी रहती हैं। इस प्रकार असंतोष का एक सामान्य भाव सदैव मौजूद रहता है, जिसके साथ सभी प्रकार की चिन्ताओं का आगमन होता है।

मनुष्य का निष्फल अहंकार जितने मुख्य रूपों में व्यक्त होता है वे हैं काम, लोभ, और क्रोध। कई दृष्टियों से ‘काम’ बहुत कुछ ‘लोभ’ के ही समान है, केवल इसके तृप्त होने की विधि भिन्न है, जिसका सीधा सम्बन्ध स्थूल क्षेत्र से रहता है। काम स्थूल शरीर के माध्यम से अपनी अभिव्यक्ति करता है। लोभ हृदय की विश्राम हीनता की एक अवस्था है, और वह अधिकार तथा सत्ता की लिप्सा से उत्पन्न होता है। इच्छाओं की पूर्ति के लिए अधिकार और शक्ति की खोज की जाती है। इस प्रयत्न में मनुष्य आँशिक रूप से ही सफल होता है, और उसका यह आँशिक संतोष, इच्छा की अग्नि को शाँत करने के बदले और भी भड़काता है। इस कारण लोभ के लिये अपने सम्मुख स्थित विशाल क्षेत्र पर विजय पाना असंभव होता है, और वह मनुष्य को अत्यन्त असंतुष्ट बना देता है। इससे क्रोध की उत्पत्ति होती है। क्रोध उत्तेजित मन का उफान है, इच्छाओं के खंडित होने से वह उत्पन्न होता है। उसका लक्ष्य होता है इच्छाओं के तृप्त होने के मार्ग की बाधाओं को दूर करना।

इस प्रकार काम, लोभ और क्रोध की प्रवृत्तियों द्वारा ही मनुष्य निराशा का अनुभव करता है और उसका निष्फल अहम् काम, लोभ और क्रोध के द्वारा ही अधिक तृप्ति के साधनों की खोज करता है। इस प्रकार हमारी आत्मा की चेतना असीम निराशा के दुष्ट चक्कर में फँस जाती है। काम, लोभ या क्रोध की पूर्ति न होने से ही निराशा उत्पन्न होती है। इन तीनों पतनकारी प्रवृत्तियों का विस्तार स्वार्थपरता के साथ ही होता है। इन तीनों अन्योन्याश्रित दुर्गुणों का मुख्य आधार स्वार्थपरता ही है, अतः स्वार्थपरता ही वास्तव में हमारी समस्त निराशा और चिंताओं का आदि कारण है। पर इस प्रयत्न में वह अपने आपको ही पराजित करती है। वह इच्छाओं के विस्तार द्वारा अपनी तृप्ति करना चाहती है, पर परिणाम में उसे एक असीम असंतोष ही मिलता है।

स्वार्थपरता का अनिवार्य परिणाम असंतोष और निराशा है, क्योंकि इच्छाओं का कोई अन्त नहीं है। इसलिये सुख की समस्या का एकमात्र उपाय इच्छा त्याग है। पर बाहरी दमन के कारण इच्छाओं पर पूर्ण विजय प्राप्त नहीं की जा सकती, वे केवल ज्ञान के द्वारा ही जड़ से मिटाई जा सकती हैं। यदि तुम विचारों की गहराई में डूबो और थोड़ी देर के लिए गम्भीरता पूर्वक विचार करो, तो तुम्हें इच्छाओं का खोखलापन मालूम हो जायगा। सोचो कि इतने वर्षों में तुम्हें कितना सुख मिला तथा कितना दुःख मिला। जीवन में तुमने जो भोग किया, वह आज शून्य के बराबर है और जीवन में तुम्हें जो कष्ट मिला वह भी कुछ नहीं के समान है। वास्तव में वह दोनों ही भ्रम थे। सुखी होने का तुम्हें अधिकार अवश्य है, लेकिन तो भी तुम स्वयं वस्तुओं की चाह करके अपने लिये दुःख पैदा करते हो। चाह या इच्छा सदैव अशाँति का कारण होती है। जिस वस्तु की तुमने चाह की यदि वह तुम्हें न मिली तो तुम निराश होते हो। यदि वह तुम्हें मिली तो तुम उसे और भी अधिक परिमाण में चाहते हो और इस कारण दुखी होते हो। इसलिये तुम यह कहो कि “मुझे कुछ भी न चाहिये” इससे तुम सुखी हो जाओगे। इच्छाओं या चाहों की असारता की अनुभूति तुम्हें अन्त में ज्ञान प्रदान करेगी। यह आत्मज्ञान इच्छाओं से तुम्हें मुक्त करेगा और इस प्रकार स्थायी सुख का पथ तुम्हें मिल जायगा।

यहाँ पर चाह और आवश्यकता का भेद भली भाँति समझ लेना चाहिये। अभिमान और क्रोध, वासना और लोभ, ये सब चाह के विभिन्न रूप हैं। तुम शायद यह कहो कि “मुझे जिन वस्तुओं की चाह है, उन सब की मुझे आवश्यकता है”—किन्तु यह एक भूल है। यदि रेगिस्तान में तुम प्यासे हो तो तुमको स्वच्छ जल की आवश्यकता है, न कि शर्बत की। जब तक मनुष्य का शरीर है तब तक आवश्यकताएँ रहेंगी और ऐसी आवश्यकताएँ पूरी करना जरूरी है। किन्तु ‘चाह’ मूढ़ कल्पना का परिणाम है। यदि सुख पाना है, तो सावधानी पूर्वक हमें उनको निर्मूल करना चाहिये।

स्वार्थपरता के नाश की दूसरी विधि है हमारे भीतर प्रेम का उदय होना। सच्चे अस्तित्व का अर्थ है “प्रेम करके मरना”। यदि तुम एक दूसरे को प्रेम नहीं कर सकते हो, तो तुम उन्हें कैसे प्रेम कर सकते हो जो तुम्हें यंत्रणा देते हैं? स्वार्थपरता की सीमाएँ अज्ञान द्वारा निर्मित होती हैं। किन्तु जब मनुष्य यह जान लेता है कि उसकी रुचि और कार्य क्षेत्र के विस्तृत, उदार होने से उसे अधिक गौरवपूर्ण संतोष की प्राप्ति होगी, तब वह सेवामय जीवन की ओर अग्रसर होता है। इस स्थिति में वह सदिच्छाओं को अपने मन में स्थान देता है। पर दुःख निवारण तथा परोपकार द्वारा दूसरों को सुखी करना चाहता है। यद्यपि ऐसी अच्छी इच्छाओं में भी स्वार्थ का अप्रत्यक्ष संबंध रहता है, तथापि उसके सत्कार्यों पर संकुचित स्वार्थपरता का अधिकार नहीं रहता।

व्यक्तिगत अहम् की रचना में जो इच्छाएँ प्रविष्ट होती हैं, वे या तो अच्छी होती हैं या बुरी? बुरी इच्छाएँ सामान्यतया स्वार्थपरता के नाम से पुकारी जाती हैं और अच्छी इच्छाएँ निस्वार्थता के नाम से। किन्तु स्वार्थपरता और निस्वार्थता के बीच कोई विभाजक रेखा नहीं खींची जा सकती है। ये दोनों द्वैत के क्षेत्र में ही कार्य करती हैं। स्वार्थपरता का जन्म तब होता है जब सारी इच्छाएँ अपने संकुचित व्यक्तित्व के चारों ओर केंद्रीभूत कर दी जाती हैं। जब निस्वार्थता का उदय होता है तब इच्छाओं का सामान्य रूप में विस्तार होने लगता है। इच्छाओं के विस्तार का यह परिणाम होता है कि वे एक विशाल क्षेत्र को घेरती हैं। एक सीमित क्षेत्र तक रुचियों का संकुचित होना स्वार्थपरता है और एक विशाल क्षेत्र में रुचियों का विस्तार निःस्वार्थता है।

द्वैत की दुनिया से ऊपर उठकर एकात्मभाव की दुनिया में प्रविष्ट होने के लिये स्वार्थ का निस्वार्थता में परिणित होना नितान्त आवश्यक है। दृढ़ आग्रह के साथ तथा निरंतर सत्कार्यों के करते रहने से स्वार्थ क्षीण हो जाता है। स्वार्थ जब संकुचित क्षेत्र से विस्तृत क्षेत्र में बढ़ता है और सत्कार्यों के रूप में प्रकट होने लगता है, तब अपने ही नाश का साधन बन जाता है। तब व्यक्तिगत स्वार्थ अपने को जागतिक या सार्वजनिक हित में लीन कर देता है। यद्यपि यह निस्वार्थ और परहितपरायण जीवन भी द्वन्द्वों से आबद्ध होता है, परन्तु यह स्थिति द्वंद्वों से पूर्णतः मुक्त होने के पहले की एक आवश्यक सीढ़ी है। सत्कार्य वह साधन है, जिसके द्वारा आत्मा अपने अज्ञान का उन्मूलन कर सकता है।

अच्छाई को पार करके आत्मा परमात्मा में पहुँचता है। निस्वार्थता सर्वोपरि परमार्थ में लय हो जाती है। मुक्ति की अवस्था में स्वार्थपरता तथा निःस्वार्थता का अस्तित्व सामान्य अर्थ में नहीं रह जाता और सभी के प्रति आत्मीयता की भावना में इनका रूपांतर हो जाता है। विश्व के समस्त जीवन में एकता का ज्ञान हो जाने से परम शान्ति एवं अथाह आनन्द की उपलब्धि होती है। यह ज्ञान आध्यात्मिक गतिशून्यता नहीं है और इसके द्वारा सापेक्षिक मूल्यों का भी नाश नहीं होता। सभी के प्रति आत्मीयता की अनुभूति से ऐसी स्थायी समता की प्राप्ति होती है, जिसमें विवेक ज्यों का त्यों बना रहता है, तथा ऐसी शाँति प्राप्त होती है जो संसार के प्रति उदासीनता अथवा उपेक्षा का बर्ताव नहीं करती। ‘सर्व भूतेषु आत्मवत्, का यह भाव केवल वैयक्तिक दृष्टिकोण के समन्वय का ही परिणाम नहीं होता वरन् यह अंतिम सत्य से, जिसके अंतर्गत सब कुछ है, एकता की वास्तविक प्राप्ति का परिणाम होता है।

सभी इच्छाओं को निर्मूल करके अपना हृदय खोलो और उसमें केवल एक ही लालसा को स्थान दो—अर्थात् अंतिम सत्य से एकत्व प्राप्त करने की लालसा। उस अंतिम सत्य की खोज बाहरी परिवर्तनशील वस्तुओं में नहीं की जानी चाहिये। उसकी खोज अपने ही भीतर करनी चाहिये। प्रत्येक बार जब तुम्हारा आत्मा तुम्हारे मानवीय हृदय में प्रवेश करना चाहता है, तब वह बाहर तो ताला लगा हुआ पाता है, तथा भीतर इच्छाओं की बड़ी भीड़ लगी रहती है। स्थायी आनन्द का उद्गम स्थान सर्वत्र मौजूद है, किन्तु तो भी समस्त प्राणी अज्ञान जनित इच्छाओं के कारण दुःखी हैं। स्थायी सुख का लक्ष्य पूर्णतः तभी चमकता है जब सीमित अहंकार अपनी समस्त इच्छाओं के सहित अपने अंतिम नाश को प्राप्त होता है।

अन्त में एक बात स्पष्ट समझ लेनी चाहिए कि इच्छाओं को त्यागने का अर्थ संसार को त्याग देना या जीवन के प्रति पूर्णतया निषेधात्मक रुख धारण करना नहीं है। जीवन का ऐसा किसी भी प्रकार का निषेध मनुष्य को मनुष्यत्व शून्य बनाना है। ईश्वरत्व मनुष्यत्व से रहित नहीं है। आध्यात्मिकता का परमावश्यक कर्त्तव्य मनुष्य को अधिक मनुष्यत्व युक्त बनाना है। मनुष्य में जो सौंदर्य है, महानता है, तथा सात्विकता है, उन्हें मुक्त तथा व्यक्त करने के कार्य का नाम आध्यात्मिकता है। बन्धनों के भय से जीवन से दूर भागने से मुक्ति प्राप्त नहीं हो सकती। ऐसा करना जीवन का निराकरण है। प्रकृति की द्वन्द्वात्मक अभिव्यक्ति से भयभीत होकर पीछे हटने से पूर्णता प्राप्त नहीं हो सकती। बंधन से बचने के प्रयत्न का अर्थ है जीवन से भयभीत होना, किन्तु आध्यात्मिकता का अर्थ है परस्पर विरोधों से अभिभूत हुये बिना जीवन का ठीक और पूर्ण ढंग से सामना करना। ऐसी आध्यात्मिकता का पालन करने वाला जीवन के विभिन्न रूपों से अपना संपर्क बनाये रखकर भी आसक्ति से संपूर्णतः रहित होकर आचरण करता है, और इस प्रकार स्वार्थपरता के दोष में किंचित भी ग्रस्त नहीं हो पाता।



(अखंड ज्योति मई,1959)

श्रीमद्भागवत महापुराण: चतुर्थ स्कन्ध: एकोनत्रिंश अध्यायः श्लोक 14-29 का हिन्दी अनुवाद


(लगातार-सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत पुराण)
श्रीमद्भागवत महापुराण:
चतुर्थ स्कन्ध: एकोनत्रिंश अध्यायः श्लोक 14-29 का हिन्दी अनुवाद


लिंग ही आसुरी नाम का पश्चिमी द्वार है, स्त्रीप्रसंग ग्रामक नाम का देश है और लिंग में रहने वाला उपस्थेन्द्रिय दुर्मद नाम का मित्र है। गुदा निर्ऋति नाम का पश्चिमी द्वार है। नरक वैशस नाम का देश है और गुदा में स्थित पायु-इन्द्रिय लुब्धक नाम का मित्र है।

इनके सिवा दो पुरुष अंधे बताये गये थे, उनका रहस्य भी सुनो। वे हाथ और पाँव हैं; इन्हीं की सहायता से जीव क्रमशः सब काम करता और जहाँ-तहाँ जाता है। हृदय अन्तःपुर है, उसमें रहने वाला मन ही विषूची (विषूचीन) नाम का प्रधान सेवक है। जीव उस मन के सत्त्वादि गुणों के कारण ही प्रसन्नता, हर्षरूप विकार अथवा मोह को प्राप्त होता है।

बुद्धि (राजमहिषी पुरंजनी) जिस-जिस प्रकार स्वप्नावस्था में विकार को प्राप्त होती है और जाग्रत् अवस्था में इन्द्रियादि को विकृत करती है, उसके गुणों से लिप्त होकर आत्मा (जीव) भी उसी-उसी रूप में उसकी वृत्तियों का अनुकरण करने को बाध्य होता है-यद्यपि वस्तुतः वह उनका निर्विकार साक्षीमात्र ही है। शरीर ही रथ है। उसमें ज्ञानेन्द्रियरूप पाँच घोड़े जुते हुए हैं। देखने में संवत्सररूप काल के समान ही उसका अप्रतिहत वेग है, वास्तव में वह गतिहीन है। पुण्य और पाप-ये दो प्रकार के कर्म ही उसके पहिये हैं; तीन गण ध्वजा हैं, पाँच प्राण डोरियाँ हैं। मन बागडोर है, बुद्धि सारथि है, हृदय बैठने का स्थान है, सुख-दुःखादि द्वन्द जुए हैं, इन्द्रियों के पाँच विषय उसमें रखे हुए आयुध हैं और त्वचा आदि सात धातुएँ उसके आवरण हैं। पाँच कर्मेन्द्रियाँ उसकी पाँच प्रकार की गति हैं। इस रथ पर चढ़कर रथीरूप यह जीव मृगतृष्णा के समान मिथ्या विषयों की ओर दौड़ता है। ग्यारह इन्द्रियाँ उसकी सेना हैं तथा पाँच ज्ञानेन्द्रियों के द्वारा उन-उन इन्द्रियों के विषयों को अन्यायपूर्वक ग्रहण करना ही उसका शिकार खेलना है।

जिसके द्वारा काल का ज्ञान होता है, वह संवत्सर ही चण्डवेग नामक गन्धर्वराज है। उसके अधीन जो तीन सौ साठ गन्धर्व बताये गये थे, वे दिन हैं और तीन-तीन सौ साठ गन्धर्वियाँ रात्रि हैं। ये बारी-बारी से चक्कर लगाते हुए मनुष्य की आयु को हरते रहते हैं। वृद्धावस्था ही साक्षात् कालकन्या है, उसे कोई भी पुरुष पसंद नहीं करता। तब मृत्युरूप यवनराज ने लोक का संहार करने के लिये उसे बहिन मानकर स्वीकार कर लिया। आधि (मानसिक क्लेश) और व्याधि (रोगादि शारीरिक कष्ट) ही इस यवनराज के पैदल चलने वाले सैनिक हैं तथा प्राणियों को पीड़ा पहुँचाकर शीघ्र ही मृत्यु के मुख में ले जाने वाला शीत और उष्ण दो प्रकार का ज्वर ही प्रज्वार नाम का उसका भाई है।

इस प्रकार यह देहाभिमानी जीव अज्ञान से आच्छादित होकर अनेक प्रकार के आधिभौतिक, आध्यात्मिक और आधिदैविक कष्ट भोगता हुआ सौ वर्ष तक मनुष्य शरीर में पड़ा रहता है। वस्तुतः तो वह निर्गुण है, किन्तु प्राण, इन्द्रिय और मन के धर्मों को अपने में आरोपित कर मैं-मेरेपन के अभिमान से बँधकर क्षुद्र विषयों का चिन्तन करता हुआ, तरह-तरह के कर्म करता रहता है। यह यद्यपि स्वयंप्रकाश है, तथापि जब तक सबके परमगुरु आत्मस्वरूप श्रीभगवान् के स्वरूप को नहीं जानता, तब तक प्रकृति के गुणों में ही बँधा रहता है। उन गुणों का अभिमानी होने से वह विवश होकर सात्त्विक, राजस और तामस कर्म करता है तथा उन कर्मों के अनुसार भिन्न-भिन्न योनियों में जन्म लेता है।

श्रीमद्भागवत महापुराण: चतुर्थ स्कन्ध: एकोनत्रिंश अध्यायः श्लोक 1-13 का हिन्दी अनुवाद


(लगातार-सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत पुराण)
श्रीमद्भागवत महापुराण:
चतुर्थ स्कन्ध: एकोनत्रिंश अध्यायः श्लोक 1-13 का हिन्दी अनुवाद

पुरंजनोपाख्यान का तात्पर्य.

राजा प्राचीनबर्हि ने कहा- भगवन्! मेरी समझ में आपके वचनों का अभिप्राय पूरा-पूरा नहीं आ रहा है। विवेकी पुरुष ही इनका तात्पर्य समझ सकते हैं, हम कर्ममोहित जीव नहीं।

श्रीनारद जी ने कहा- राजन्! पुरंजन (नगर का निर्माता) जीव है-जो अपने लिये एक, दो, तीन, चार अथवा बहुत पैरों वाला या बिना पैरों का शरीररूप पुर तैयार कर लेता है। उस जीव का सखा जो अविज्ञात नाम से कहा गया है, वह ईश्वर है; क्योंकि किसी भी प्रकार के नाम, गुण अथवा कर्मों से जीवों को उसका पता नहीं चलता। जीव ने जब सुख-दुःखरूप सभी प्राकृत विषयों को भोगने की इच्छा की, तब उसने दूसरे शरीरों की अपेक्षा नौ द्वार, दो हाथ और दो पैरों वाला मानव-देह ही पसंद किया। बुद्धि अथवा अविद्या को ही तुम पुरंजनी नाम की स्त्री जानो; इसी के कारण देह और इन्द्रिय आदि में मैं-मेरेपन का भाव उत्पन्न होता है और पुरुष इसी का आश्रय लेकर शरीर में इन्द्रियों द्वारा विषयों को भोगता है। दस इन्द्रियाँ ही उसके मित्र हैं, जिनसे कि सब प्रकार के ज्ञान और कर्म होते हैं। इन्द्रियों की वृत्तियाँ ही उसकी सखियाँ और प्राण-अपान-व्यान-उदान-समानरूप पाँच वृत्तियों वाला प्राण वायु ही नगर की रक्षा करने वाला पाँच फन का सर्प है। दोनों प्रकार की इन्द्रियों के नायक मन को ही ग्यारहवाँ महाबली योद्धा जानना चाहिये।

शब्दादि पाँच विषय ही पांचाल देश हैं, जिसके बीच में वह नौ द्वारों वाला नगर बसा हुआ है। उस नगर में जो एक-एक स्थान पर दो-दो द्वार बताये गये थे-वे दो नेत्रगोलक, दो नासाछिद्र और दो कर्णछिद्र हैं। इनके साथ मुख, लिंग और गुदा-ये तीन और मिलाकर कुल नौ द्वार हैं; इन्हीं में होकर वह जीव इन्द्रियों के साथ बाह्य विषयों में जाता है। इसमें दो नेत्रगोलक, दो नासाछिद्र और एक मुख-ये पाँच पूर्व के द्वार हैं; दाहिने कान को दक्षिण का और बायें कान को उत्तर का द्वार समझना चाहिये। गुदा और लिंग-ये नीचे के दो छिद्र पश्चिम के द्वार हैं। खाद्यौता और आविर्मुखी नाम के जो दो द्वार एक स्थान पर बतलाये थे, वे नेत्रगोलक हैं तथा रूप विभ्राजित नाम का देश है, जिसका इन द्वारों से जीव चक्षु-इन्द्रिय की सहायता से अनुभव करता है। दोनों नासाछिद्र ही नलिनी और नालिनी नाम के द्वार हैं और नासिका का विषय गन्ध ही सौरभ देश है तथा घ्राणेन्द्रिय अवधूत नाम का मित्र है। मुख मुख्य नाम का द्वार है। उसमें रहने वाला वागिन्द्रिय विपण है और रसनेन्द्रिय रसविद् (रसज्ञ) नाम का मित्र है। वाणी का व्यापार आपण है और तरह-तरह का अन्न बहूदन है तथा दाहिना कान पितृहू और बायाँ कान देवहू कहा गया है। कर्मकाण्डरूप प्रवृत्तिमार्ग का शास्त्र और उपासना काण्डरूप निवृत्तिमार्ग का शास्त्र ही क्रमशः दक्षिण और उत्तर पांचाल देश हैं। इन्हें श्रवणेन्द्रियरूप श्रुतधर की सहायता से सुनकर जीव क्रमशः पितृयान और देवयान मार्गों में जाता है।

साभार krishnakosh.org

श्रीमद्भागवत महापुराण: चतुर्थ स्कन्ध: अष्टाविंश अध्यायः श्लोक 49-65 का हिन्दी अनुवाद


(लगातार-सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत पुराण)
श्रीमद्भागवत महापुराण:
चतुर्थ स्कन्ध: अष्टाविंश अध्यायः श्लोक 49-65 का हिन्दी अनुवाद

पति के साथ वन में गयी हुई वह अबला इस प्रकार विलाप करती पति के चरणों में गिर गयी और रो-रोकर आँसू बहाने लगी। लकड़ियों की चिता बनाकर उसने उस पर पति का शव रखा और अग्नि जलाकर विलाप करते-करते स्वयं सती होने का निश्चय किया।

राजन! इसी समय उसका पुराना मित्र एक आत्मज्ञानी ब्राह्मण वहाँ आया। उसने उस रोती हुई अबला को मधुर वाणी से समझाते हुए कहा।

ब्राह्मण ने कहा- तू कौन है? किसकी पुत्री है? और जिसके लिये तू शोक कर रही है, वह यह सोया हुआ पुरुष कौन है? क्या तुम मुझे नहीं जानती? मैं वही तेरा मित्र हूँ, जिसके साथ तू पहले विचरा करती थी। सखे! क्या तुम्हें अपनी याद आती है, किसी समय मैं तुम्हारा अविज्ञात नाम का सखा था? तुम पृथ्वी के भोग भोगने के लिये निवास-स्थान की खोज में मुझे छोड़कर चले गये थे। आर्य! पहले मैं और तुम एक-दूसरे के मित्र एवं मानस निवासी हंस थे। हम दोनों सहस्रों वर्षों तक बिना किसी निवास-स्थान के ही रहे थे, किन्तु मित्र! तुम विषय भोगों की इच्छा से मुझे छोड़कर यहाँ पृथ्वी पर चले आये। यहाँ घूमते-घूमते तुमने एक स्त्री का रचा हुआ स्थान देखा। उसमें पाँच बगीचे, नौ दरवाजे, एक द्वारपाल, तीन परकोटे, छः वैश्यकुल और पाँच बाजार थे। वह पाँच उपादान-कारणों से बना हुआ था और उसकी स्वामिनी एक स्त्री थी।

महाराज! इन्द्रियों के पाँच विषय उसके बगीचे थे, नौ इन्द्रिय-छिद्र द्वार थे; तेज, जल और अन्न-तीन परकोटे थे; मन और पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ-छः वैश्यकुल थे; क्रियाशक्तिरूप कर्मेन्द्रियाँ ही बाजार थीं; पाँच भूत ही उसके कभी क्षीण न होने वाले उपादान कारण थे और बुद्धि शक्ति ही उसकी स्वामिनी थी। यह ऐसा नगर था, जिसमें प्रवेश करने पर पुरुष ज्ञानशून्य हो जाता है-अपने स्वरूप को भूल जाता है।

भाई! उस नगर में उसकी स्वामिनी के फंदे में पड़कर उसके साथ विहार करते-करते तुम भी अपने स्वरूप को भूल गये और उसी के संग से तुम्हारी यह दुर्दशा हुई है। देखो, तुम न तो विदर्भराज की पुत्री ही हो और न यह वीर मलयध्वज तुम्हारा पति ही। जिसने तुम्हें नौ द्वारों के नगर में बंद किया था, उस पुरंजनी के पति भी तुम नहीं हो। तुम पहले जन्म में अपने को पुरुष समझते थे और अब सती स्त्री मानते हो-यह सब मेरी ही फैलायी हुई माया है।

वास्तव में तुम न पुरुष हो न स्त्री। हम दोनों तो हंस हैं; हमारा जो वास्तविक स्वरूप है, उसका अनुभव करो मित्र! जो मैं (ईश्वर) हूँ, वही तुम (जीव) हो। तुम मुझसे भिन्न नहीं हो और तुम विचारपूर्वक देखो, मैं भी वही हूँ जो तुम हो। ज्ञानी पुरुष हम दोनों में कभी थोड़ा-सा भी अन्तर नहीं देखते। जैसे एक पुरुष अपने शरीर की परछाई को शीशे में और किसी व्यक्ति के नेत्र में भिन्न-भिन्न रूप से देकता है, वैसे ही-एक ही आत्मा विद्या और अविद्या की उपाधि के भेद से अपने को ईश्वर और जीव के रूप में दो प्रकार से देख रहा है। इस प्रकार जब हंस (ईश्वर) ने उसे सावधान किया, तब वह मानसरोवर का हंस (जीव) अपने स्वरूप में स्थित हो गया और उसे अपने मित्र के विछोह से भूला हुआ आत्मज्ञान फिर प्राप्त हो गया। प्राचीनबर्हि! मैंने तुम्हें परोक्ष रूप से यह आत्मज्ञान का दिग्दर्शन कराया है; क्योंकि जगत्कर्ता जगदीश्वर को परोक्ष वर्णन ही अधिक प्रिय है।

साभार krishnakosh.org

श्रीमद्भागवत महापुराण: चतुर्थ स्कन्ध: अष्टाविंश अध्यायः श्लोक 31-48 का हिन्दी अनुवाद


(लगातार-सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत पुराण)
श्रीमद्भागवत महापुराण:
चतुर्थ स्कन्ध: अष्टाविंश अध्यायः श्लोक 31-48 का हिन्दी अनुवाद

फिर उनमें से प्रत्येक पुत्र के बहुत-बहुत पुत्र उत्पन्न हुए, जिनके वंशधर इस पृथ्वी को मन्वन्तर के अन्त तक तथा उसके बाद भी भोगेंगे। राजा मलयध्वज की पहली पुत्री बड़ी व्रतशीला थी। उसके साथ अगस्त्य ऋषि का विवाह हुआ। उससे उनके दृढ़च्युत नाम का पुत्र हुआ और दृढ़च्युत के इक्ष्मवाह हुआ। अन्त में राजर्षि मलयध्वज पृथ्वी को पुत्रों में बाँटकर भगवान् श्रीकृष्ण की आराधना करने की इच्छा से मलय पर्वत पर चले गये। उस समय-चन्द्रिका जिस प्रकार चन्द्रदेव का अनुसरण करती है-उसी प्रकार मत्तलोचना वैदर्भी ने अपने घर, पुत्र और समस्त भोगों को तिलांजलि दे पाण्ड्य नरेश का अनुगमन किया। वहाँ चन्द्रवसा, ताम्रपर्णी और वटोदका नाम की तीन नदियाँ थीं। उनके पवित्र जल में स्नान करके वे प्रतिदिन अपने शरीर और अन्तःकरण को निर्मल करते थे। वहाँ रहकर उन्होंने कन्द, बीज, मूल, फल, पुष्प, पत्ते, तृण और जल से ही निर्वाह करते हुए बड़ा कठोर तप किया। इससे धीरे-धीरे उनका शरीर बहुत सूख गया। महाराज मलयध्वज ने सर्वत्र समदृष्टि रखकर शीत-उष्ण, वर्षा-वायु, भूख-प्यास, प्रिय-अप्रिय और सुख-दुःखादि सभी द्वन्दों को जीत लिया। तप और उपासना से वासनाओं को निर्मूल कर तथा यम-नियमादि के द्वारा इन्द्रिय, प्राण और मन को वश में करके वे आत्मा में ब्रह्म भावना करने लगे।

इस प्रकार सौ दिव्य वर्षों तक स्थाणु के समान निश्चल भाव से एक ही स्थान पर बैठे रहे। भगवान् वासुदेव में सुदृढ़ प्रेम हो जाने के कारण इतने समय तक उन्हें शरीरादि का भी भान न हुआ। राजन्! गुरुस्वरूप साक्षात् श्रीहरि के उपदेश किये हुए तथा अपने अन्तःकरण में सब ओर स्फुरित होने वाले विशुद्ध विज्ञान दीपक से उन्होंने देखा कि अन्तःकरण की वृत्तिका प्रकाशक आत्मा स्वप्नावस्था की भाँति देहादि समस्त उपाधियों में व्याप्त तथा उनसे पृथक् भी है। ऐसा अनुभव करके वे सब ओर से उदासीन हो गये। फिर अपनी आत्मा को परब्रह्म में और परब्रह्म को आत्मा में अभिन्नता रूप से देखा और अन्त में इस अभेद चिन्तन को भी त्यागकर सर्वथा शान्त हो गये।

राजन्! इस समय पतिपरायणा वैदर्भी सब प्रकार के भोगों को त्यागकर अपने परमधर्मज्ञ पति मलयध्वज की सेवा बड़े प्रेम से करती थी। वह चीर-वस्त्र धारण किये रहती, व्रत उपवासादि के कारण उसका शरीर अत्यन्त कृश हो गया था और सिर के बाल आपस में उलझ जाने के कारण उनमें लटें पड़ गयी थीं। उस समय अपने पतिदेव के पास वह अंगारभाव को प्राप्त धूमरहित अग्नि के समीप अग्नि की शान्तशिखा के समान सुशोभित हो रही थी। उसके पति परलोकवासी हो चुके थे, परन्तु पूर्ववत् स्थिर आसन से विराजमान थे। इस रहस्य को न जानने के कारण वह उनके पास जाकर उनकी पूर्ववत् सेवा करने लगी। चरणसेवा करते समय जब उसे अपने पति के चरणों में गरमी बिलकुल नहीं मालूम हुई, तब तो वह झुंडी से बिछुड़ी हुई मृगी के समान चित्त में अत्यन्त व्याकुल हो गयी। उस बीहड़ वन में अपने को अकेली और दीन अवस्था में देखकर वह बड़ी शोककुल हुई और आँसुओं की धारा से स्तनों को भिगोती हुई बड़े जोर-जोर से रोने लगी। वह बोली, ‘राजेर्षे! उठिये, उठिये; समुद्र से घिरी हुई यह वसुन्धरा लुटेरों और अधर्मी राजाओं से भयभीत हो रही है, आप इसकी रक्षा कीजिये’।

श्रीमद्भागवत महापुराण: चतुर्थ स्कन्ध: अष्टाविंश अध्यायः श्लोक 16-30 का हिन्दी अनुवाद


(लगातार-सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत पुराण)
श्रीमद्भागवत महापुराण:
चतुर्थ स्कन्ध: अष्टाविंश अध्यायः श्लोक 16-30 का हिन्दी अनुवाद

गृहासक्त पुरंजन देह-गेहादि में मैं-मेरेपन का भाव रखने से अत्यन्त बुद्धिहीन हो गया था। स्त्री के प्रेमपाश में फँसकर वह बहुत दीन हो गया था। अब जब इनसे बिछुड़ने का समय उपस्थित हुआ, तब वह अपने पुत्री, पुत्र, पौत्र, पुत्रवधू, दामाद, नौकर और घर, खजाना तथा अन्यान्य जिन पदार्थों में उसकी ममता भर शेष थी (उनका भोग तो कभी का छूट गया था), उन सबके लिये इस प्रकार चिन्ता करने लगा। ‘हाय! मेरी भार्या तो बहुत घर-गृहस्थी वाली है; जब मैं परलोक को चला जाऊँगा, तब यह असहाय होकर किस प्रकार अपना निर्वाह करेगी? इसे इन बाल-बच्चों की चिन्ता ही खा जायगी। यह मेरे भोजन किये बिना भोजन नहीं करती थी और स्नान किये बिना स्नान नहीं करती थी, सदा मेरी ही सेवा में तत्पर रहती थी। मैं कभी रूठ जाता था तो यह बड़ी भयभीत हो जाती थी और झिड़कने लगता तो डर के मारे चुप रह जाती थी। मुझसे कोई भूल हो जाती तो यह मुझे सचेत कर देती थी। मुझमें इतना अधिक स्नेह है कि यदि मैं कभी परदेश चला जाता था तो यह विरहव्यथा से सूखकर काँटा हो जाती थी। यों तो यह वीरमाता है, तो भी मेरे पीछे क्या यह गृहस्थाश्रम का व्यवहार चला सकेगी? मेरे चले जाने पर एकमात्र मेरे ही सहारे रहने वाले ये पुत्र और पुत्री भी कैसे जीवन धारण करेंगे? ये तो बीच समुद्र में नाव टूट जाने से व्याकुल हुए यात्रियों के समान बिलबिलाने लगेंगे’। यद्यपि ज्ञान दृष्टि से उसे शोक करना उचित न था, फिर भी अज्ञानवश राजा पुरंजन इस प्रकार दीनबुद्धि से अपने स्त्री-पुत्रादि के लिये शोकाकुल हो रहा था।

इसी समय उसे पकड़ने के लिये वहाँ भय नामक यवनराज आ धमका। जब यवन लोग उसे पशु के समान बाँधकर अपने स्थान को ले चले, तब उसके अनुचरगण अत्यन्त आतुर और शोकाकुल होकर उसके साथ हो लिये। यवनों द्वारा रोका हुआ सर्प भी उस पुरी को छोड़कर इन सबके साथ ही चल दिया। उसके जाते ही सारा नगर छिन्न-भिन्न होकर अपने कारण में लीन हो गया। इस प्रकार महाबली यवनराज के बलपूर्वक खींचने पर भी राजा पुरंजन ने अज्ञानवश अपने हितैषी एवं पुराने मित्र अविज्ञात का स्मरण नहीं किया। उस निर्दय राजा ने जिन यज्ञपशुओं की बलि दे थी, वे उसकी दी हुई पीड़ा को याद करके उसे क्रोधपूर्वक कुठारों से काटने लगे। वह वर्षों तक विवेकहीन अवस्था में अपार अन्धकार में पड़ा निरन्तर कष्ट भोगता रहा।

स्त्री की आसक्ति से उसकी यह दुर्गति हुई थी। अन्त समय में भी पुरंजन को उसी का चिन्तन बना हुआ था। इसलिये दूसरे जन्म में वह नृपश्रेष्ठ विदर्भराज के यहाँ सुन्दरी कन्या होकर उत्पन्न हुआ। जब यह विदर्भनन्दिनी विवाह योग्य हुई, तब विदर्भराज ने घोषित कर दिया कि इसे सर्वश्रेष्ठ पराक्रमी वीर ही ब्याह सकेगा। तब शत्रुओं के नगरों को जीतने वाले पाण्ड्य नरेश महाराज मलयध्वज ने समरभूमि में समस्त राजाओं को जीतकर उसके साथ विवाह किया। उससे महाराज मलयध्वज ने एक श्यामलोचना कन्या और उससे छोटे सात पुत्र उत्पन्न किये, जो आगे चलकर द्रविड़ देश के सात राजा हुए।


साभार krishnakosh.org

श्रीमद्भागवत महापुराण: चतुर्थ स्कन्ध: अष्टाविंश अध्यायः श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद


(लगातार-सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत पुराण)
श्रीमद्भागवत महापुराण:
चतुर्थ स्कन्ध: अष्टाविंश अध्यायः श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद

पुरंजन को स्त्रीयोनि की प्राप्ति और
अविज्ञात के उपदेश से उसका मुक्त होना.

श्रीनारद जी कहते हैं- राजन्! फिर भय नामक यवनराज के आज्ञाकारी सैनिक प्रज्वार और कालकन्या के साथ इस पृथ्वीतल पर सर्वत्र विचरने लगे। एक बार उन्होंने बड़े वेग से बूढ़े साँप से सुरक्षित और संसार की सब प्रकार की सुख-सामग्री से सम्पन्न पुरंजनपुरी को घेर लिया। तब, जिसके चंगुल में फँसकर पुरुष शीघ्र ही निःसार हो जाता है, वह कालकन्या बलात् उस पुरी की प्रजा को भोगने लगी। उस समय वे यवन भी कालकन्या के द्वारा भोगी जाती हुई उस पुरी में चारों ओर से भिन्न-भिन्न द्वारों से घुसकर उसका विध्वंस करने लगे। पुरी के इस प्रकार पीड़ित किये जाने पर उसके स्वामित्व का अभिमान रखने वाले तथा ममताग्रस्त, बहुकुटुम्बी राजा पुरंजन को भी नाना प्रकार के क्लेश सताने लगे। कालकन्या के आलिंगन करने से उसकी सारी श्री नष्ट हो गयी तथा अत्यन्त विषयासक्त होने के कारण वह बहुत दीन हो गया, उसकी विवेकशक्ति नष्ट हो गयी। गन्धर्व और यवनों ने बलात् उसका सारा ऐश्वर्य लूट लिया।

उसने देखा कि सारा नगर नष्ट-भ्रष्ट हो गया है; पुत्र, पौत्र, भृत्य, और अमात्य वर्ग प्रतिकूल होकर अनादर करने लगे हैं; स्त्री स्नेहशून्य हो गयी है, मेरी देह को कालकन्या ने वश में कर रखा है और पांचाल देश शत्रुओं के हाथ में पड़ कर भ्रष्ट हो गया है। यह सब देखकर राजा पुरंजन अपार चिन्ता में डूब गया और उसे उस विपत्ति से छुटकारा पाने का कोई उपाय न दिखायी दिया। कालकन्या ने जिन्हें निःसार कर दिया था, उन्हीं भोगों की लालसा से वह दीन था। अपनी पारलौकिकी गति और बन्धुजनों के स्नेह से वंचित रहकर उसका चित्त केवल स्त्री और पुत्र के लालन-पालन में ही लगा हुआ था। ऐसी अवस्था में उनसे बिछुड़ने की इच्छा न होने पर भी उसे उस पुरी को छोड़ने के लिये बाध्य होना पड़ा; क्योंकि उसे गन्धर्व और यवनों ने घेर रखा था तथा कालकन्या ने कुचल दिया था।

इतने में ही यवनराज भय के बड़े भाई प्रज्वार ने अपने भाई का प्रिय करने के लिये उस सारी पुरी में आग लगा दी। जब वह नगरी जलने लगी, तब पुरवासी, सेवकवृन्द, सन्तान वर्ग और कुटुम्ब की स्वामिनी के सहित कुटुम्बवत्सल पुरंजन को बड़ा दुःख हुआ। नगर को कालकन्या के हाथ में पड़ा देख उसकी रक्षा करने वाले सर्प को भी बड़ी पीड़ा हुई, क्योंकि उसके निवासस्थान पर भी यवनों ने अधिकार कर लिया था और प्रज्वार उस पर भी आक्रमण कर रहा था। जब उस नगर की रक्षा करने में वह सर्वथा असमर्थ हो गया, तब जिस प्रकार जलते हुए वृक्ष के कोटर में रहने वाला सर्प उससे निकल जाना चाहता है, उसी प्रकार उसने भी महान् कष्ट से काँपते हुए वहाँ से भोगने की इच्छा की। उसके अंग-प्रत्यंग ढीले पड़ गये थे तथा गन्धर्वों ने उसकी सारी शक्ति नष्ट कर दी थी; अतः जब यवन शत्रुओं ने उसे जाते देखकर रोक दिया, तब वह दुःखी होकर रोने लगा।

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श्रीमद्भागवत महापुराण: चतुर्थ स्कन्ध: सप्तविंश अध्यायः श्लोक 18-30 का हिन्दी अनुवाद

(लगातार-सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत पुराण)
श्रीमद्भागवत महापुराण:
चतुर्थ स्कन्ध: सप्तविंश अध्यायः श्लोक 18-30 का हिन्दी अनुवाद

वह इतने दिनों तक पांचाल देश के उस नगर में अपने दूतों द्वारा लाये हुए कर को लेकर विषय-भोगों में मस्त रहता था। स्त्री के वशीभूत रहने के कारण इस अवश्यम्भावी भय का उसे पता ही न चला। बर्हिष्मन्! इन्हीं दिनों काल की एक कन्या वर की खोज में त्रिलोकी में भटकती रही, फिर भी उसे किसी ने स्वीकार नहीं किया। वह कालकन्या (जरा) बड़ी भाग्यहीना थी, इसलिये लोग उसे ‘दुर्भगा’ कहते थे। एक बार राजर्षि पूरु ने पिता को अपना यौवन देने के लिये अपनी ही इच्छा से उसे वर लिया था, इससे प्रसन्न होकर उसने उन्हें राज्यप्राप्ति का वर दिया था।

एक दिन मैं ब्रह्मलोक से पृथ्वी पर आया, तो वह घूमती-घूमती मुझे भी मिल गयी। तब मुझे नैष्ठिक ब्रह्मचारी जानकर भी कामातुरा होने के कारण उसने वरना चाहा। मैंने उसकी प्रार्थना स्वीकार नहीं की। इस पर उसने अत्यन्त कुपित होकर मुझे यह दुःसह शाप दिया कि ‘तुमने मेरी प्रार्थना स्वीकार नहीं की, अतः तुम एक स्थान पर अधिक देर न ठहर सकोगे’।

तब मेरी ओर से निराश होकर उस कन्या ने मेरी सम्मति से यवनराज भय के पास जाकर उसका पतिरूप से वरण किया और कहा, ‘वीरवर! आप यवनों में श्रेष्ठ हैं, मैं आपसे प्रेम करती हूँ और पति बनाना चाहती हूँ। आपके प्रति किया हुआ जीवों का संकल्प कभी विफल नहीं होता। जो मनुष्य लोक अथवा शास्त्र की दृष्टि से देने योग्य वस्तु का दान नहीं करता और जो शास्त्रदृष्टि से अधिकारी होकर भी ऐसा दान नहीं लेता, वे दोनों ही दुराग्रही और मूढ़ हैं, अतएव शोचनीय हैं। भद्र! इस समय मैं आपकी सेवा में उपस्थित हुई हूँ, आप मुझे स्वीकार करके अनुगृहीत कीजिये। पुरुष का सबसे बड़ा धर्म दीनों पर दया करना ही है’।

कालकन्या की बात सुनकर यवनराज ने विधाता का एक गुप्त कार्य कराने की इच्छा से मुसकराते हुए उससे कहा- ‘मैंने योगदृष्टि से देखकर तेरे लिये एक पति निश्चय किया है। तू सबका अनिष्ट करने वाली है, इसलिये किसी को भी अच्छी नहीं लगती और इसी से लोग तुझे स्वीकार नहीं करते। अतः इस कर्मजनित लोक को तू अलक्षित होकर बलात् भोग। तू मेरी सेना लेकर जा; इसकी सहायता से तू सारी प्रजा का नाश करने में समर्थ होगी, कोई भी तेरा सामना न कर सकेगा। यह प्रज्वार नाम का मेरा भाई है और तू मेरी बहिन बन जा। तुम दोनों के साथ मैं अव्यक्त गति से भयंकर सेना लेकर सारे लोकों में विचरूँगा’।


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