श्रीमद्भागवत महापुराण: चतुर्थ स्कन्ध: अष्टाविंश अध्यायः श्लोक 16-30 का हिन्दी अनुवाद


(लगातार-सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत पुराण)
श्रीमद्भागवत महापुराण:
चतुर्थ स्कन्ध: अष्टाविंश अध्यायः श्लोक 16-30 का हिन्दी अनुवाद

गृहासक्त पुरंजन देह-गेहादि में मैं-मेरेपन का भाव रखने से अत्यन्त बुद्धिहीन हो गया था। स्त्री के प्रेमपाश में फँसकर वह बहुत दीन हो गया था। अब जब इनसे बिछुड़ने का समय उपस्थित हुआ, तब वह अपने पुत्री, पुत्र, पौत्र, पुत्रवधू, दामाद, नौकर और घर, खजाना तथा अन्यान्य जिन पदार्थों में उसकी ममता भर शेष थी (उनका भोग तो कभी का छूट गया था), उन सबके लिये इस प्रकार चिन्ता करने लगा। ‘हाय! मेरी भार्या तो बहुत घर-गृहस्थी वाली है; जब मैं परलोक को चला जाऊँगा, तब यह असहाय होकर किस प्रकार अपना निर्वाह करेगी? इसे इन बाल-बच्चों की चिन्ता ही खा जायगी। यह मेरे भोजन किये बिना भोजन नहीं करती थी और स्नान किये बिना स्नान नहीं करती थी, सदा मेरी ही सेवा में तत्पर रहती थी। मैं कभी रूठ जाता था तो यह बड़ी भयभीत हो जाती थी और झिड़कने लगता तो डर के मारे चुप रह जाती थी। मुझसे कोई भूल हो जाती तो यह मुझे सचेत कर देती थी। मुझमें इतना अधिक स्नेह है कि यदि मैं कभी परदेश चला जाता था तो यह विरहव्यथा से सूखकर काँटा हो जाती थी। यों तो यह वीरमाता है, तो भी मेरे पीछे क्या यह गृहस्थाश्रम का व्यवहार चला सकेगी? मेरे चले जाने पर एकमात्र मेरे ही सहारे रहने वाले ये पुत्र और पुत्री भी कैसे जीवन धारण करेंगे? ये तो बीच समुद्र में नाव टूट जाने से व्याकुल हुए यात्रियों के समान बिलबिलाने लगेंगे’। यद्यपि ज्ञान दृष्टि से उसे शोक करना उचित न था, फिर भी अज्ञानवश राजा पुरंजन इस प्रकार दीनबुद्धि से अपने स्त्री-पुत्रादि के लिये शोकाकुल हो रहा था।

इसी समय उसे पकड़ने के लिये वहाँ भय नामक यवनराज आ धमका। जब यवन लोग उसे पशु के समान बाँधकर अपने स्थान को ले चले, तब उसके अनुचरगण अत्यन्त आतुर और शोकाकुल होकर उसके साथ हो लिये। यवनों द्वारा रोका हुआ सर्प भी उस पुरी को छोड़कर इन सबके साथ ही चल दिया। उसके जाते ही सारा नगर छिन्न-भिन्न होकर अपने कारण में लीन हो गया। इस प्रकार महाबली यवनराज के बलपूर्वक खींचने पर भी राजा पुरंजन ने अज्ञानवश अपने हितैषी एवं पुराने मित्र अविज्ञात का स्मरण नहीं किया। उस निर्दय राजा ने जिन यज्ञपशुओं की बलि दे थी, वे उसकी दी हुई पीड़ा को याद करके उसे क्रोधपूर्वक कुठारों से काटने लगे। वह वर्षों तक विवेकहीन अवस्था में अपार अन्धकार में पड़ा निरन्तर कष्ट भोगता रहा।

स्त्री की आसक्ति से उसकी यह दुर्गति हुई थी। अन्त समय में भी पुरंजन को उसी का चिन्तन बना हुआ था। इसलिये दूसरे जन्म में वह नृपश्रेष्ठ विदर्भराज के यहाँ सुन्दरी कन्या होकर उत्पन्न हुआ। जब यह विदर्भनन्दिनी विवाह योग्य हुई, तब विदर्भराज ने घोषित कर दिया कि इसे सर्वश्रेष्ठ पराक्रमी वीर ही ब्याह सकेगा। तब शत्रुओं के नगरों को जीतने वाले पाण्ड्य नरेश महाराज मलयध्वज ने समरभूमि में समस्त राजाओं को जीतकर उसके साथ विवाह किया। उससे महाराज मलयध्वज ने एक श्यामलोचना कन्या और उससे छोटे सात पुत्र उत्पन्न किये, जो आगे चलकर द्रविड़ देश के सात राजा हुए।


साभार krishnakosh.org

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