श्रीमद्भागवत महापुराण: चतुर्थ स्कन्ध: अष्टाविंश अध्यायः श्लोक 31-48 का हिन्दी अनुवाद


(लगातार-सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत पुराण)
श्रीमद्भागवत महापुराण:
चतुर्थ स्कन्ध: अष्टाविंश अध्यायः श्लोक 31-48 का हिन्दी अनुवाद

फिर उनमें से प्रत्येक पुत्र के बहुत-बहुत पुत्र उत्पन्न हुए, जिनके वंशधर इस पृथ्वी को मन्वन्तर के अन्त तक तथा उसके बाद भी भोगेंगे। राजा मलयध्वज की पहली पुत्री बड़ी व्रतशीला थी। उसके साथ अगस्त्य ऋषि का विवाह हुआ। उससे उनके दृढ़च्युत नाम का पुत्र हुआ और दृढ़च्युत के इक्ष्मवाह हुआ। अन्त में राजर्षि मलयध्वज पृथ्वी को पुत्रों में बाँटकर भगवान् श्रीकृष्ण की आराधना करने की इच्छा से मलय पर्वत पर चले गये। उस समय-चन्द्रिका जिस प्रकार चन्द्रदेव का अनुसरण करती है-उसी प्रकार मत्तलोचना वैदर्भी ने अपने घर, पुत्र और समस्त भोगों को तिलांजलि दे पाण्ड्य नरेश का अनुगमन किया। वहाँ चन्द्रवसा, ताम्रपर्णी और वटोदका नाम की तीन नदियाँ थीं। उनके पवित्र जल में स्नान करके वे प्रतिदिन अपने शरीर और अन्तःकरण को निर्मल करते थे। वहाँ रहकर उन्होंने कन्द, बीज, मूल, फल, पुष्प, पत्ते, तृण और जल से ही निर्वाह करते हुए बड़ा कठोर तप किया। इससे धीरे-धीरे उनका शरीर बहुत सूख गया। महाराज मलयध्वज ने सर्वत्र समदृष्टि रखकर शीत-उष्ण, वर्षा-वायु, भूख-प्यास, प्रिय-अप्रिय और सुख-दुःखादि सभी द्वन्दों को जीत लिया। तप और उपासना से वासनाओं को निर्मूल कर तथा यम-नियमादि के द्वारा इन्द्रिय, प्राण और मन को वश में करके वे आत्मा में ब्रह्म भावना करने लगे।

इस प्रकार सौ दिव्य वर्षों तक स्थाणु के समान निश्चल भाव से एक ही स्थान पर बैठे रहे। भगवान् वासुदेव में सुदृढ़ प्रेम हो जाने के कारण इतने समय तक उन्हें शरीरादि का भी भान न हुआ। राजन्! गुरुस्वरूप साक्षात् श्रीहरि के उपदेश किये हुए तथा अपने अन्तःकरण में सब ओर स्फुरित होने वाले विशुद्ध विज्ञान दीपक से उन्होंने देखा कि अन्तःकरण की वृत्तिका प्रकाशक आत्मा स्वप्नावस्था की भाँति देहादि समस्त उपाधियों में व्याप्त तथा उनसे पृथक् भी है। ऐसा अनुभव करके वे सब ओर से उदासीन हो गये। फिर अपनी आत्मा को परब्रह्म में और परब्रह्म को आत्मा में अभिन्नता रूप से देखा और अन्त में इस अभेद चिन्तन को भी त्यागकर सर्वथा शान्त हो गये।

राजन्! इस समय पतिपरायणा वैदर्भी सब प्रकार के भोगों को त्यागकर अपने परमधर्मज्ञ पति मलयध्वज की सेवा बड़े प्रेम से करती थी। वह चीर-वस्त्र धारण किये रहती, व्रत उपवासादि के कारण उसका शरीर अत्यन्त कृश हो गया था और सिर के बाल आपस में उलझ जाने के कारण उनमें लटें पड़ गयी थीं। उस समय अपने पतिदेव के पास वह अंगारभाव को प्राप्त धूमरहित अग्नि के समीप अग्नि की शान्तशिखा के समान सुशोभित हो रही थी। उसके पति परलोकवासी हो चुके थे, परन्तु पूर्ववत् स्थिर आसन से विराजमान थे। इस रहस्य को न जानने के कारण वह उनके पास जाकर उनकी पूर्ववत् सेवा करने लगी। चरणसेवा करते समय जब उसे अपने पति के चरणों में गरमी बिलकुल नहीं मालूम हुई, तब तो वह झुंडी से बिछुड़ी हुई मृगी के समान चित्त में अत्यन्त व्याकुल हो गयी। उस बीहड़ वन में अपने को अकेली और दीन अवस्था में देखकर वह बड़ी शोककुल हुई और आँसुओं की धारा से स्तनों को भिगोती हुई बड़े जोर-जोर से रोने लगी। वह बोली, ‘राजेर्षे! उठिये, उठिये; समुद्र से घिरी हुई यह वसुन्धरा लुटेरों और अधर्मी राजाओं से भयभीत हो रही है, आप इसकी रक्षा कीजिये’।

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