आवारा भीड़ के खतरे. (व्यंग)


आवारा भीड़ के खतरे.  (व्यंग) 
(हरिशंकर परसाई)
क अंतरंग गोष्ठी सी हो रही थी, युवा असंतोष पर। इलाहाबाद के लक्ष्मीकांत वर्मा ने बताया - पिछली दीपावली पर एक साड़ी की दुकान पर काँच के केस में सुंदर साड़ी से सजी एक सुंदर मॉडल खड़ी थी। एक युवक ने एकाएक पत्थर उठाकर उस पर दे मारा। काँच टूट गया। आसपास के लोगों ने पूछा कि तुमने ऐसा क्यों किया? उसने तमतमाए चेहरे से जवाब दिया - हरामजादी बहुत खूबसूरत है।

हम 4-5 लेखक चर्चा करते रहे कि लड़के के इस कृत्य का क्या कारण है? क्या अर्थ है? यह कैसी मानसिकता है? यह मानसिकता क्यों बनी? बीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध में ये सवाल दुनिया भर में युवाओं के बारे में उठ रहे हैं - पश्चिम से संपन्न देशों में भी और तीसरी दुनिया के गरीब देशों में भी। अमेरिका से आवारा हिप्पी और ‘हरे राम और हरे कृष्ण’ गाते अपनी व्यवस्था से असंतुष्ट युवा भारत आते हैं और भारत का युवा लालायित रहता है कि चाहे चपरासी का नाम मिले, अमेरिका में रहूँ। ‘स्टेट्स’ जाना यानि चौबीस घंटे गंगा नहाना है। ये अपवाद हैं। भीड़-की-भीड़ उन युवकों की है जो हताश, बेकार और क्रुद्ध हैं। संपन्न पश्चिम के युवकों के व्यवहार के कारण भिन्न हैं। सवाल है -उस युवक ने सुंदर मॉडल पर पत्थर क्यों फेंका? हरामजादी बहुत खूबसूरत है - यह उस गुस्से का कारण क्यों? वाह, कितनी सुंदर है - ऐसा इस तरह के युवक क्यों नहीं कहते?

युवक साधारण कुरता पाजामा पहिने था। चेहरा बुझा था, जिसकी राख में चिंगारी निकली थी, पत्थर फेंकते वक्त। शिक्षित था। बेकार था। नौकरी के लिए भटकता रहा था। धंधा कोई नहीं। घर की हालत खराब। घर में अपमान, बाहर अवहेलना। वह आत्म ग्लानि से क्षुब्ध। घुटन और गुस्सा एक नकारात्क भावना। सबसे शिकायत। ऐसी मानसिकता में सुंदरता देखकर चिढ़ होती है। खिले फूल बुरे लगते हैं। किसी के अच्छे घर से घृणा होती है। सुंदर कार पर थूकने का मन होता है। मीठा गाना सुनकर तकलीफ होती है। अच्छे कपड़े पहिने खुशहाल साथियों से विरक्ति होती है। जिस भी चीज से, खुशी, सुंदरता, संपन्नता, सफलता, प्रतिष्ठा का बोध होता है, उस पर गुस्सा आता है।

बूढ़े-सयाने स्कूल का लड़का अब मिडिल स्कूल में होता है तभी से शिकायत होने लगती है। वे कहते हैं - ये लड़के कैसे हो गए? हमारे जमाने में ऐसा नहीं था। हम पिता, गुरु, समाज के आदरणीयों की बात सिर झुकाकर मानते थे। अब ये लड़के बहस करते हैं। किसी को नहीं मानते। मैं याद करता हूँ कि जब मैं छात्र था, तब मुझे पिता की बात गलत तो लगती थी, पर मैं प्रतिवाद नहीं करता था। गुरु का भी प्रतिवाद नहीं करता था। समाज के नेताओं का भी नहीं। मगर तब हम छात्रों को जो किशोरावस्था में थे, जानकारी ही क्या थी? हमारे कस्बे में कुल दस-बारह अखबार आते थे। रेडियो नहीं। स्वतंत्रता संग्राम का जमाना था। सब नेता हमारे हीरो थे - स्थानीय भी और जवाहर लाल नेहरू भी। हम पिता, गुरु, समाज के नेता आदि की कमजोरियाँ नहीं जानते थे। मुझे बाद में समझ में आया कि मेरे पिता कोयले के भट्टों पर काम करने वाले गोंडों का शोषण करते थे। पर अब मेरा ग्यारह साल का नाती पाँचवी कक्षा का छात्र है। वह सवेरे अखबार पढ़ता है, टेलीवीजन देखता है, रेडियो सुनता है। वह तमाम नेताओं की पोलें जानता है। देवीलाल और ओमप्रकाश चौटाला की आलोचना करता है। घर में उससे कुछ ऐसा करने को कहो तो वह प्रतिरोध करता है। मेरी बात भी तो सुनो। दिन भर पढ़कर आया हूँ। अब फिर कहते ही कि पढ़ने बैठ जाऊँ।

थोड़ी देर खेलूँगा, तो पढ़ाई भी नहीं होगी। हमारी पुस्तक में लिखा है। वह जानता है, घर में बड़े कब-कब झूठ बोलते हैं।

ऊँची पढ़ाईवाले विश्वविद्यालय के छात्र सवेरे अखबार पढ़ते हैं, तो तमाम राजनीति और समाज के नेताओं के भ्रष्टाचार, पतनशीलता के किस्से पढ़ते हैं। अखबार देश को चलानेवालों और समाज के नियामकों के छल, कपट, प्रपंच, दुराचार की खबरों से भरे रहते हैं। धर्माचार्यों की चरित्रहीनता उजागर होती है। यही नेता अपने हर भाषण हर उपदेश में छात्रों से कहते हैं - युवकों, तुम्हें देश का निर्माण करना है (क्योंकि हमने नाश कर दिया है) तुम्हें चरित्रवान बनना है (क्योंकि हम तो चरित्रहीन हैं) शिक्षा का उद्देश्य पैसा कमाना नहीं है, नैतिक चरित्र को ग्रहण करना है - (हमने शिक्षा और अशिक्षा से पैसा कमाना और अनैतिक होना सीखा) इन नेताओं पर छात्रों-युवकों की आस्था कैसे जमे? छात्र अपने प्रोफेसरों के बारे सब जानते हैं। उनका ऊँचा वेतन लेना और पढ़ाना नहीं। उनकी गुटबंदी, एक-दूसरे की टाँग खींचना, नीच कृत्य, द्वेषवश छात्रों को फेल करना, पक्षपात, छात्रों का गुटबंदी में उपयोग। छात्रों से कुछ नहीं छिपा रहता अब। वे घरेलू मामले जानते हैं। ऐसे गुरुओं पर छात्र कैसे आस्था जमाएँ। ये गुरु कहते हैं- छात्रों को क्रांति करना है। वे क्रांति करने लगे, तो पहले अपने गुरुओं को साफ करेंगे। अधिकतर छात्र अपने गुरु से नफरत करते हैं।

बड़े लड़के अपने पिता को भी जानते हैं। वे देखते हैं कि पिता का वेतन तो सात हजार है, पर घर का ठाठ आठ हजार रुपयों का है। मेरा बाप घूस खाता है। मुझे ईमानदारी के उपदेश देता है। हमारे समय के लड़के-लड़कियों के लिए सूचना और जानकारी के इतने माध्यम खुले हैं, कि वे सब क्षेत्रों में अपने बड़ों के बारे में सबकुछ जानते हैं। इसलिए युवाओं से ही नहीं बच्चों तक से पहले की तरह की अंध भक्ति और अंध आज्ञाकारिता की आशा नहीं की जा सकती। हमारे यहाँ ज्ञानी ने बहुत पहले कहा था - प्राप्तेषु षोडसे वर्षे पुत्र मित्र समाचरेत। उनसे बात की जा सकती है, उन्हें समझाया जा सकता है। कल परसों मेरा बारह साल का नाती बाहर खेल रहा था। उसकी परीक्षा हो चुकी है और एक लंबी छुट्टी है। उससे घर आने के लिए उसके चाचा ने दो-तीन बार कहा। डाँटा। वह आ गया और रोते हुए चिल्लाया हम क्या करें? ऐसी तैसी सरकार की जिसने छुट्टी कर दी। छुट्टी काटना उसकी समस्या है। वह कुछ तो करेगा ही। दबाओगे तो विद्रोह कर देगा। जब बच्चे का यह हाल है तो किशोरों और तरुणों की प्रतिक्रियाएँ क्या होंगी।

युवक-युवतियों के सामने आस्था का संकट है। सब बड़े उनके सामने नंगे हैं। आदर्शों, सिद्धांतों, नैतिकताओं की धज्जियाँ उड़ते वे देखते हैं। वे धूर्तता, अनैतिकता, बेईमानी, नीचता को अपने सामने सफल एवं सार्थक होते देखते हैं। मूल्यों का संकट भी उनके सामने है। सब तरफ मूल्यहीनता उन्हें दिखती है। बाजार से लेकर धर्मस्थल तक। वे किस पर आस्था जमाएँ और किस के पदचिह्नों पर चलें? किन मूल्यों को मानें?

यूरोप में दूसरे महायुद्ध के दौरान जो पीढ़ी पैदा हुई उसे ‘लास्ट जनरेशन’ (खोई हुई पीढ़ी) का कहा जाता है। युद्ध के दौरान अभाव, भुखमरी, शिक्षा चिकित्सा की ठीक व्यवस्था नहीं। युद्ध में सब बड़े लगे हैं, तो बच्चों की परवाह करनेवाले नहीं। बच्चों के बाप और बड़े भाई युद्ध में मारे गए। घर का, संपत्ति का, रोजगार का नाश हुआ। जीवन मूल्यों का नाश हुआ। ऐसे में बिना उचित शिक्षा, संस्कार, भोजन कपड़े के विनाश और मूल्यहीनता के बीज जो पीढ़ी बनकर जवान हुई, तो खोई हुई पीढ़ी इसके पास निराशा, अंधकार, असुरक्षा, अभाव, मूल्यहीनता के सिवाय कुछ नहीं था। विश्वास टूट गए थे। यह पीढ़ी निराश, विध्वंसवादी, अराजक, उपद्रवी, नकारवादी हुई। अंग्रेज लेखक जार्ज ओसबर्न ने इस क्रुद्ध पीढ़ी पर नाटक लिखा था जो बहुत पढ़ा गया और उस पर फिल्म भी बनी। नाटक का नाम ‘लुक बैक इन एंगर’। मगर यह सिलसिला यूरोप के फिर से व्यवस्थित और संपन्न होने पर भी चलता रहा। कुछ युवक समाज के ‘ड्राप आउट’ हुए। ‘वीट जनरेशन’ हुई। औद्योगीकरण के बाद यूरोप में काफी प्रतिशत बेकारी है। ब्रिटेन में अठारह प्रतिशत बेकारी है। अमेरिका ने युद्ध नहीं भोगा। मगर व्यवस्था से असंतोष वहाँ पैदा हो हुआ। अमेरिका में भी लगभग बीस प्रतिशत बेकारी है। वहाँ एक ओर बेकारी से पीड़ित युवक है, तो दूसरी ओर अतिशय संपन्नता से पीड़ित युवक भी। जैसे यूरोप में वैसे ही अमेरिकी युवकों, युवतियों का असंतोष, विद्रोह, नशेबाजी, यौन स्वच्छंदता और विध्वंसवादिता में प्रगट हुआ। जहाँ तक नशीली वस्तुओं के सेवन के सवाल है, यह पश्चिम में तो है ही, भारत में भी खूब है। दिल्ली विश्वविद्यालय के पर्यवेक्षण के अनुसार दो साल पहले सत्तावन फीसदी छात्र नशे के आदी बन गए थे। दिल्ली तो महानगर है। छोटे शहरों में, कस्बों में नशे आ गए हैं। किसी-किसी पान की दुकान में नशा हर जगह मिल जाता है। ‘स्मैक’ और ‘पॉट’ टॉफी की तरह उपलब्ध हैं।

छात्रों-युवकों को क्रांति की, सामाजिक परिवर्तन की शक्ति मानते हैं। सही मानते हैं। अगर छात्रों युवकों में विचार हो, दिशा हो संगठन हो और सकारात्मक उत्साह हो। वे अपने से ऊपर की पीढ़ी की बुराइयों को समझें तो उन्हीं बुराइयों के उत्तराधिकारी न बने, उनमें अपनी ओर से दूसरी बुराइयाँ मिलाकर पतन की परंपरा को आगे न बढ़ाएँ। सिर्फ आक्रोश तो आत्मक्षय करता है। एक हर्बर्ट मार्क्यूस चिंतक हो गए हैं, जो सदी के छठवें दशक में बहुत लोकप्रिय हो गए थे। वे ‘स्टूडेंट पावर’ में विश्वास करते थे। मानते हैं कि छात्र क्रांति कर सकते हैं। वैसे सही बात यह है कि अकेले छात्र क्रांति नहीं कर सकते। उन्हें समाज के दूसरे वर्गों को शिक्षित करके चेतनाशील बनाकर संघर्ष में साथ लाना होगा। लक्ष्य निर्धारित करना होगा। आखिर क्या बदलना है यह तो तय हो। अमेरिका में हर्बर्ट मार्क्यूस से प्रेरणा पाकर छात्रों ने नाटक ही किए। हो ची मिन्ह और चे गुएवारा के बड़े-बड़े चित्र लेकर जुलूस निकालना और भद्दी ,भौंड़ी, अश्लील हरकतें करना। अमेरिकी विश्विद्यालय की पत्रिकाओं में बेहद फूहड़ अश्लील चित्र और लेख कहानी। फ्रांस के छात्र अधिक गंभीर शिक्षित थे। राष्ट्रपति द गाल के समय छात्रों ने सोरोबोन विश्वविद्यायल में आंदोलन किया। लेखक ज्याँ पाल सार्त्र ने उनका समर्थन किया। उनका नेता कोहने बेंडी प्रबुद्ध और गंभीर युवक था। उनके लिए राजनैतिक क्रांति करना संभव नहीं था। फ्रांस के श्रमिक संगठनों ने उनका साथ नहीं दिया। पर उनकी माँगें ठोस थी जैसे शिक्षा पद्धति में आमूल परिवर्तन। अपने यहाँ जैसी नकल करने की छूट की क्रांतिकारी माँग उनकी नहीं थी। पाकिस्तान में भी एक छात्र नेता तारिक अली ने क्रांति की धूम मचाई। फिर वह लंदन चला गया।

युवकों का यह तर्क सही नहीं है कि जब सभी पतित हैं, तो हम क्यों नहीं हों। सब दलदल में फँसे हैं, तो जो नए लोग हैं, उन्हें उन लोगों को वहाँ से निकालना चाहिए। यह नहीं कि वे भी उसी दलदल में फँस जाएँ। दुनिया में जो क्रांतियाँ हुई हैं, सामाजिक परिवर्तन हुए हैं, उनमें युवकों की बड़ी भूमिका रही है। मगर जो पीढ़ी ऊपर की पीढ़ी की पतनशीलता अपना ले क्योंकि वह सुविधा की है और उसमें सुख है तो वह पीढ़ी कोई परिवर्तन नहीं कर सकती। ऐसे युवक हैं, जो क्रांतिकारिता का नाटक बहुत करते हैं, पर दहेज भरपूर ले लेते हैं। कारण बताते हैं - मैं तो दहेज को ठोकर मारता हूँ। पर पिताजी के सामने झुकना पड़ा। यदि युवकों के पास दिशा हो, संकल्पशीलता हो, संगठित संघर्ष हो तो वह परिवर्तन ला सकते हैं। पर मैं देख रहा हूँ एक नई पीढ़ी अपने से ऊपर की पीढ़ी से अधिक जड़ और दकियानूसी हो गई है। यह शायद हताशा से उत्पन्न भाग्यवाद के कारण हुआ है। अपने पिता से तत्ववादी, बुनियादपरस्त (फंडामेंटलिस्ट) लड़का है।

दिशाहीन, बेकार, हताश, नकारवादी, विध्वंसवादी बेकार युवकों की यह भीड़ खतरनाक होती है। इसका प्रयोग महत्वाकांक्षी खतरनाक विचारधारावाले व्यक्ति और समूह कर सकते हैं। इस भीड़ का उपयोग नेपोलियन, हिटलर और मुसोलिनी ने किया था। यह भीड़ धार्मिक उन्मादियों के पीछे चलने लगती है। यह भीड़ किसी भी ऐसे संगठन के साथ हो सकती है जो उनमें उन्माद और तनाव पैदा कर दे। फिर इस भीड़ से विध्वंसक काम कराए जा सकते हैं। यह भीड़ फासिस्टों का हथियार बन सकती है। हमारे देश में यह भीड़ बढ़ रही है। इसका उपयोग भी हो रहा है। आगे इस भीड़ का उपयोग सारे राष्ट्रीय और मानव मूल्यों के विनाश के लिए, लोकतंत्र के नाश के लिए करवाया जा सकता है।


कष्ट और रोग का सबसे बड़ा कारण है, यह.


 कष्ट और रोग का
सबसे बड़ा कारण है, यह.
(सुधांशु जी महाराज)

चिन्ता चिता के समान है। चिता तो मुर्दे को जलाती है, लेकिन चिन्ता जिन्दा इंसान को जलाती है। यह ऐसी दीमक है जो एक बार लग जाए तो व्यक्ति को चाटकर ही छोड़ती है। चिन्ता व्यक्ति की मानसिकता पर बहुत बुरा प्रभाव डालती है, मन की पवित्राता समाप्त हो जाती है, अपवित्रता आ जाती है।

चिन्ता मनुष्य के शरीर को खा जाती है, शारीरिक रूप से व्यक्ति रोगी हो जाता है, आयु कम हो जाती है, जीवन में अशान्ति आ जाती है, विश्वास में कमी आ जाती है और मौत का भय अन्दर समा जाता है। चिन्ता परमेश्वर से दूर करती है, व्यक्ति को घेरे रहती है। चिन्ता और अधिक चिन्ता की जननी है, इसलिए चिन्ता करके समस्या का समाधन नहीं खोज सकते। चिन्ता का बुरादा सब जगह बिछा है, इसको कहीं छोड़ नहीं सकते।

एक बार एक राजा अपने धन के बारे में पूछ रहे थे कि मेरे कोष में कितना धन है। उनका कोषाध्यक्ष बता रहा था कि महाराज गिनती चल रही है, अभी पूरा पता नहीं चल पा रहा है कि आपके कोष में कितना धन है। इतनी देर में एक ज्योतिषी आ गए, कहने लगे ‘‘राजा साहब मैं आपको आपका भविष्य बताऊं।’’

राजा ने कहा कि अभी तो यह बताओ कि हमारा धन कितना है? ज्योतिषी ने कहा इसको बताने वाले तो आपके मंत्री हैं, गिन कर बता देंगे। मैं तो यह बताने आया हूं कि आपके पास इतना धन है कि सात पीढि़यां भी बैठकर खाएं तब भी आपका धन चलता जाएगा। राजा उदास हो गया। वह सोचता था कि उसके पास बहुत धन है। जब सात पीढि़यों तक ही धन है तो आठवीं पीढ़ी का क्या होगा?

राजा बड़ा दुःखी हुआ कि सात पीढ़ी के बाद तो वह कंगाल हो जाएगा। किसी का धन दस साल, किसी का तीस साल चलता है, उसके बाद वे गरीब हो जाते हैं, इसी तरह सात पीढ़ी के बाद वह कंगाल हो जाएगा, उससे ज्यादा गरीब कौन होगा? राजा यही सोच-सोचकर दुःखी रहने लगा।

सच यह है चिंता ही दुःख का कारण है। अपने जीवन का सुःख दुःख भगवान पर छोड़ दीजिए वह आपको कभी दुःखी नहीं होने देगा, बस उस पर विश्वास रखिए और चिंता को अपने ऊपर हावी नहीं होने दीजिए।




संत ज्ञानेश्वर.


सं ज्ञानेश्व.

चांगदेव नाम के एक हठयोगी थे, जिन्होंने योग सिद्धि से अनेको सिद्धियाँ प्राप्त कर रखी थी तथा मृत्यु पर भी विजय प्राप्त कर ली थी। उनकी उम्र 1400 वर्ष हो गई थी। चांगदेव को यश-प्रतिष्ठा का बहुत मोह था। वह अपने आप को सबसे महान मानते थे।

इन्होंने जब संत ज्ञानेश्वर की प्रशंसा सुनी, तो उनका मन संत ज्ञानेश्वर के प्रति ईर्ष्या से भर उठा। उन्होंने सोचा की 16 वर्ष की उम्र में संत ज्ञानेश्वर, क्या मुझसे बड़े सिद्ध हो सकते है? परन्तु जब बार-बार संत ज्ञानेश्वर की प्रशंसा सुनी तो उन्होंने मन में सोचा की संत ज्ञानेश्वर से मिला जाए इसलिए उन्होने संत ज्ञानेश्वर को पत्र लिखने लिखने का विचार किया।

जब वे पत्र लिखने बैठे तो सोच में पड़ गए कि संत ज्ञानेश्वर को क्या संबोधन करू। पुज्य,आदरणीय आदि से संबोधन भी नहीं कर सकते थे, क्योंकि वह तो 1400 वर्ष के थे और संत ज्ञानेश्वर सोलह वर्ष के। चिरंजीव भी नहीं लिख सकते थे, क्योंकि ज्ञानी पुरूष जिसकी प्रसिद्धि चारो ओर फैली हो, उसके लिए यह लिखने पर वह अपना अपमान न समझ बैठे। उन्होंने अंत में कोरा कागज ही भेज दिया।
चांगदेव का कोरा कागज देखकर मुक्ताबाई ने जवाब दिया कि तुम 1400 वर्ष के हो गये तथा कोरे के कोरे रह गये। ऐसा जवाब सुनकर चांगदेव का अहंकार कम हो गया और उनके मन में संत ज्ञानेश्वर से मिलने की इच्छा बलवती होने लगी। इन्हें अपनी सिद्धियों पर बहुत अभिमान था इसलिए संत ज्ञानेश्वर के सामने अपनी सिद्धियों के प्रदर्शन के लिए शेर की सवारी करके तथा हाथ में सर्प की लगाम लेकर संत ज्ञानेश्वर से मिलने चल पड़े।

रास्तें में जो भी लोग उनको देखते, उनकी सिद्धियों की प्रशंसा करते, उनकी जय-जयकार करते, यह देखकर उनका मन अहंकार से भर उठा। जब संत ज्ञानेश्वर ने सुना की चांगदेव उनसे मिलने आ रहे है, तो उन्होंने सोचा की मेहमान का स्वागत करने के लिए जाना चाहिये। वह प्रातःकाल उठकर पत्थर से बनी चारदिवारी पर बैठकर दातुन कर रहे थे।

उन्होंने संकल्प किया तथा जैसे ही आज्ञा दी, पत्थर का चबुतरा सरकने लगा और चांगदेव की ओर बढ़ने लगा। चांगदेव ने जैसे ही संत ज्ञानेश्वर को पत्थर के चबुतरे की सवारी करते हुए अपनी ओर आते देखा तो उनका अहंकार चूर-चूर हो गया। उन्होंने सोचा कि में तो प्रत्येक जीव जंतु पर अपना वश रखता हूं परन्तु संत ज्ञानेश्वर तो निर्जीव वस्तु को भी वश में कर सकते है, ये निश्चित ही मुझसे महान है, ऐसा विचार आते ही चांगदेव का अहंकार नष्ट हो गया, उनकीं आँखो में आंसू बहने लगे, मन करूणा से भर उठा। उन्होंने सांप की लगाम को फेक दिया, शेर की सवारी को छोड़कर, संत ज्ञानेश्वर के पैर पकड़ लिए। संत ज्ञानेश्वर ने जैसे ही देखा चांगदेव उनके चरण पकड़कर विलाप कर रहे है, उन्होंने उसे गले से लगा लिया। जो सिद्धियाँ चांगदेव ने 1400 वर्षो की योग साधना से प्राप्त की थी, उनसे अधिक सिद्धियों को संत ज्ञानेश्वर ने 16 वर्ष की उम्र में प्रेम व भक्ति के मार्ग पर चलकर प्राप्त कर लिया था।



“आनंद” कैसे प्राप्त करे?


नं कैसे प्राप्त रे?

मानव, ईश्वर का अंश है। ईश्वर को सच्चिदानंद स्वरूप मानते है। मानव में, ईश्वर के दो गुण सत् और चित् पूर्व से विघमान है, और तीसरे गुण आनन्द को प्राप्त करने के लिए वह हमेशा प्रयत्न करता रहता है, अर्थात जीव से ब्रह्म बनने का प्रयत्न करता है।

कई संतो ने कहा है कि ईश्वर में आनंद है, परन्तु ऐसा कहने से ऐसा लगता है कि ईश्वर व आनंद दो अलग-अलग है। कई संतो ने कहा है कि आनंद ही ईश्वर है, आनंद- ईश्वर से अलग नहीं है। आनंद आत्मा का स्वभाव है। सुख-दुःख, मन के कारण अहसास होते है। आत्मा सुखी व दुःखी नहीं होती, क्योंकि “आत्मा”, परमात्मा का अंश है, इसलिए आनंद स्वरूप है।

कभी सुख आता है, तो कभी दुःख आता है, परन्तु मानव में स्तिथ आत्म तो सुख दुःख से परे आनंद स्वरूप ही हैं। अतएव कह सकते हैं कि मानव स्वयं ही आनंद का स्त्रोत है फिर भी मानव वाह्य-संसार में आनंद की खोज करता है। आनंद किसी स्त्री को, किसी पुरूष को, कार या बंगले इत्यादि को प्राप्त करने में नहीं है, आनंद तो हमारे अंदर ही विराजमान है, जब अपने अंदर आनंद ढूढने का प्रयास करेंगे तो मिल जाएगा। आनंद मिलने पर सुख या दुख प्रभावित नहीं करते। आत्मज्ञान के लिए “योग” सहायक होता हैं। कर्मयोग और भक्ति योग भी सहायक होता हैं किन्तु कर्म और भक्ति दीर्घकालिक व्यवस्था हैं, जो पूर्णता पर ही फल देती हैं किन्तु योग के प्रत्येक चरण का फल अविलम्ब मिलता हैं।




क्या परमात्मा के नाम जप से, प्रारब्ध बदला जा सकता है?


क्या परमात्मा के नाम जप से,
प्रारब्ध बदला जा सकता है?

हम अपने आस-पास देखते है, तो पाते है कि कुछ व्यक्ति रोज घंटा दो घंटा पूजा पाठ करते है। परमात्मा के नाम का जप करते है, फिर भी हम उसे दुःखी पाते है। तो हमारे मन में यह प्रश्न उठता है कि ऐसा क्यों, जबकि दुसरी ओर परमात्मा का नाम नहीं लेने वाला अर्थात नास्तिक हर क्षेत्र में सफलता अर्जित करता हुआ तथा सुखी नजर आता है।

इस कारण बहुत से लोग यह कहते सुने जाते है कि “धार्मिक व्यक्तियों को धक्का मिलता है, जबकि पपिओं को पालने में झुलना मिलता है। इस कारण बहुत से व्यक्ति परमात्मा के नाम का जप नहीं करते है। किसी व्यक्ति को इस जन्म में दुःख व सुख उसके प्रारब्ध के कारण मिलता है।

ग्रन्थों के अनुसार, परमात्मा के दर्शन हो जाय और ज्ञान प्राप्त हो जाय फिर भी प्रारब्ध का फल, इंसान को भोगना ही पड़ता है। ज्ञान प्राप्ति से संचित और क्रियमाण कर्मो का नाश होता है परन्तु प्रारब्ध का नाश नहीं होता। अर्थात ज्ञान से प्रारब्ध बड़ा है, इसलिए संत व महापुरूष कष्ट सहन करते दिखाई पड़ते है।

प्रश्न हैं कि विधाता ने जो प्रारब्ध में लिखा है, उसे क्या मिटाया जा सकता है?

“दास बोध” ग्रन्थ में रामदास स्वामी ने लिखा है कि व्यक्ति पराये अन्न का त्याग करे, ब्रहृमचर्य का पालन करे तथा नियमित प्रभु के नाम का जप करें, तो प्रारब्ध को बदला जा सकता है, परन्तु पॉच दस माला रोज जपने से प्रारब्ध का क्षय नहीं होता। प्रारब्ध क्षय करने के लिए बहुत अधिक मात्रा में जपानुष्ठान करनना पड़ता है।

जप करने पर भी जप का फल बहुत बार प्राप्त नहीं होता, क्योंकि पूर्वजन्म के पाप की मात्रा अधिक होती है और जाप से उनका छय क्रमिक रूप से हो रहा होता है। व्यक्ति का एक भी जप बेकार नहीं जाता।

जन्म कुण्डली में बारह घर होते है तथा प्रथम स्थान- तनु स्थान है. अर्थात शरीर का सुख-दुख इस भाव से देखा जाता है। यदि एक करोंड जप व्यक्ति करे तो उसे शरीर की बीमारी नहीं होती और यदि हो तो दूर हो जाती है।

द्वितीय स्थान- धन, कुटुम्ब व वाणी का है। यदि व्यक्ति दो करोंड़ जप करे तो उसका दुसरा भाव अच्छा हो जाता है अर्थात धन-सुख मिलता है, कुटुम्ब का सुख मिलता है और वाणी मधुर हो जाती है साथ ही दरिद्रता दूर हो जाती है।

तृतीय भाव- पराक्रम का है। यदि तीन करोंड़ जप व्यक्ति करे तो उसके पराक्रम में वृद्धि होती है। वह जो भी कार्य हाथ में ले, उसमें सफलता मिलती है एवं यशश्वी-कीर्तिवान हो जाता है।

चतुर्थ भाव- सुख का भाव, सह माता, भूमि, भवन व वाहन सुख से सम्बन्धित है। यदि व्यक्ति चार करोड़ जप करे, तो उसे वाहन सुख, भूमि व मकान का सुख प्राप्त हो जाता है।

पॉचवा भाव- विद्या, बुद्धि व संतान का है। यदि व्यक्ति पॉच करोंड़ जप करे तो उसकी बुद्धि में ज्ञान का उदय होता है, प्रारब्ध का लाभ मिलना प्रारब्ध हो जाता है, विद्या की प्राप्ति होती है और संतान सुख बढ़ता है।

छठा भाव- शत्रु / ऋण का भाव है। छः करोंड़ जप करने पर व्यक्ति सभी ऋण से मुक्त हो जाता है तथा शत्रु समाप्त हो जाते है अर्थात मन में काम, क्रोध, राग-द्वेश, मद, मत्सर, अहंकार आदि जो शत्रु है, उसका नाश हो जाता है।

सप्तम स्थान- दाम्पत्य का है। यदि व्यक्ति सात करोंड जप करे तो स्त्री-पुरूष कोई भी हो, उसे अखण्ड दाम्पत्य की प्राप्ति हो जाती है।

अष्टम स्थान-
आयु व पुरातत्व सुख का है। आठ करोंड जप करने पर व्यक्ति की अप-मृत्यु टल जाती है साथ ही पूर्णायु प्राप्त करता है तथा पुरातत्व सुख को प्राप्त करता है।

नवम भाव- धार्मिकता/ भाग्य का है। नौ करोंड जप करने पर व्यक्ति का भाग्योदय होता है तथा उसे स्वप्न में देव पुरूष के दर्शन अर्थात साक्षात्कार होने लगता है।

दस करोंड जप करे तो संचित कर्म का नाश, ग्यारह करोंड जप करे तो क्रियमाण कर्म का नाश तथा बारह करोंड जप करने पर प्रारब्ध का नाश संभव है।
इसलिए प्रभु के नाम का सुमिरन चौबीसो घंटे करना है जप करते-करते ही सोना है ताकि जब आप सो जाए तब भी जप चलता रहे।

यदि चौबीसो घंटे प्रभु का सुमिरन करोंगे तो सारा प्रारब्ध समाप्त हो जाता है अर्थात विधाता का लिखा हुआ भी बदला जा सकता है।

रामदासजी महाराज जो शिवाजी के गुरु भी थे, ने पानी में खड़े होकर अखंड जप किया था, जिसके फलस्वरूप उन्हें भगवान् श्रीराम का साक्षात्कार हो गया था, तभी से उनके नाम के साथ समर्थ जुड़ गया। उनका कहना हैं कि यदि 45 करोड़ राम नाम का जप पूर्ण आस्था के साथ कर लिया जाये तब भगवान् के दर्शन हो जाते हैं।




लक्ष्मीजी का वाहन है-उल्लू, पर उल्लू नहीं हैं.


लक्ष्मीजी का वाहन है-उल्लू,
पर उल्लू नहीं हैं.

भारतीय सांस्कृतिक में उल्लू को बहुत महत्व दिया जाता है, क्योंकि यह पक्षी मां लक्ष्मीजी का वाहन है। उल्लू को किसी भी धर्म ग्रंथ में मूर्ख नहीं माना गया है, यानी उल्लू, उल्लू नहीं है। लिंगपुराण में (2, 2.7-10) कहा गया है कि नारद मुनि ने मानसरोवरवासी उलूक से संगीत शिक्षा ग्रहण करने के लिए उपदेश लिया था। इस उलूक की हू हू हू सांगीतिक स्वरों में निकलती थी।

वाल्मीकि रामायण (6.17.19) में उल्लू को मूर्ख के स्थान पर अत्यन्त चतुर कहा गया। भगवान श्रीराम जब रावण को मारने में सफल नहीं हो पाते, उसी समय उनके पास रावण का भाई विभीषण आता है। तब सुग्रीव राम से कहते हैं कि उन्हें शत्रु की उलूक-चतुराई से बचकर रहना चाहिए।

ऋषियों ने गहरे अवलोकन तथा समझ के बाद ही उलूक को श्रीलक्ष्मी का वाहन बताया था। उन्हें मालूम था कि पाश्चात्य संस्कृति में भी उल्लू को विवेकशील माना है। तंत्र शास्त्र अनुसार जब लक्ष्मी एकांत, सूने स्थान, अंधेरे, खंडहर, पाताल लोक आदि स्थानों पर जाती हैं, तब वह उल्लू पर सवार होती हैं। तब उन्हें उलूक वाहिनी कहा जाता है। उल्लू पर विराजमान लक्ष्मी अप्रत्यक्ष धन अर्थात काला धन कमाने वाले व्यक्तियों के घरों में उल्लू पर सवार होकर जाती हैं।

उल्लू की सवारी.

महालक्ष्मीजी मूलतः शुक्र ग्रह की अधिष्टात्री देवी हैं तथा लक्ष्मीजी की हर सवारी गरुड़, हाथी, सिंह और उल्लू सभी राहू घर को संबोधित करते हैं। कालपुरुष सिद्धांत के अनुसार शुक्र धन और वैभव के देवता हैं और व्यक्ति की कुण्डली में शुक्र धन और दाम्पत्य के स्वामी है।

कामपुरुष सिद्धांत के अनुसार राहू को पाताल का स्थान प्राप्त है तथा कुण्डली में राहू का पक्का घर छठा स्थान होता है और राहू को कुण्डली के भाव नंबर आठवें, तीसरे और छठे में श्रेष्ठ स्थान में माना गया है। कुण्डली में काला धन अथवा छुपा हुआ धन छठे और आठवें भाव से दिखता है।

उल्लू भी होते हैं चमत्कारी.

तंत्र शास्त्र के अनुसार लक्ष्मी वाहन उल्लू रहस्यमयी शक्तियों का स्वामी है। प्राचीन ग्रीक में उल्लू को सौभाग्य और धन का सूचक माना जाता था। यूरोप में उल्लू को काले जादू का प्रतीक माना जाता है। भारत में उल्लूक तंत्र सर्वाधिक प्रचलित है।

चीनी वास्तु शास्त्र फेंगशुई में उल्लू को सौभाग्य और सुरक्षा का भी पर्याय माना जाता है। जापानी लोग उल्लू को कठिनाइयों से बचाव करने वाला मानते हैं। उल्लू को निशाचर यानी रात का प्राणी माना जाता है और यह अंधेरी रात में भी न सिर्फ देख सकता है बल्कि अपने शिकार पर दूर दृष्टि बनाए रख सकता है।

आध्यात्मिक पागलों का मिशन. (व्यंग)


आध्यात्मिक पागलों का मिशन. (व्यंग) 
(हरिशंकर परसाई)

भारत के सामने अब एक बड़ा सवाल है - अमेरिका को अब क्या भेजे? कामशास्त्र वे पढ़ चुके, योगी भी देख चुके। संत देख चुके। साधु देख चुके। गाँजा और चरस वहाँ के लड़के पी चुके। भारतीय कोबरा देख लिया। गिर का सिंह देख लिया। जनपथ पर 'प्राचीन' मूर्तियाँ भी खरीद लीं। अध्यात्म का आयात भी अमेरिका काफी कर चुका और बदले में गेहूँ भी दे रहा है। हरे कृष्ण, हरे राम भी बहुत हो गया।

महेश योगी, बाल योगेश्वर, बाल भोगेश्वर आदि के बाद अब क्या हो? मैं देश-भक्त आदमी हूँ। मगर मैं अमेरिकी पीढ़ी को भी जानता हूँ। मैं जानता हूँ, वह 'बोर' समाज का आदमी हैं - याने बड़ा बोर आदमी। शेयर अपने आप डॉलर दे जाते हैं। घर में टेलीविजन है, दारू की बोतलें हैं। शाम को वह दस-पंद्रह आदमियों से 'हाउ डु यू डू' कर लेता है। पर इससे बोरियत नहीं मिटती। हनोई पर कितनी भी बम-वर्षा अमेरिका करे, उत्तेजना नहीं होती। कुछ चाहिए उसे। उसे भारत से ही चाहिए।

मुझे चिंता जितनी बड़ी अमेरिका की है उतनी ही भारतीय भाइयों की। इन्हें भी कुछ चाहिए।

अब हम भारतीय भाई वहाँ डॉलर और यहाँ रुपयों के लिए क्या ले जाएँ? रविशंकर से वे बोर हो चुके। योगी, संत वगैरह भी काफी हो चुके। अब उन्हें कुछ नया चाहिए - बोरियत खत्म करने और उत्तेजना के लिए। डॉलर देने को वे तैयार हैं।

मेरा विनम्र सुझाव है कि इस बार हम भारत से 'डिवाइन ल्यूनेटिक मिशन' ले जाएँ। ऐसा मिशन आज तक नहीं गया। यह नायाब चीज होगी - भारत से 'डिवाइन ल्यूनेटिक मिशन' याने आध्यात्मिक पागलों का मिशन।

मैं जानता हूँ। आम अमेरिकी कहेगा - वी हेव सीन वन। हिज नेम इज कृष्ण मेनन। (हमने एक पागल देखा है। उसका नाम कृष्ण मेनन है।) तब हमारे एजेंट कहेंगे - वह 'डिवाइन' (आध्यात्मिक) नहीं था। और पागल भी नहीं था। इस वक्त सच्चे आध्यात्मिक पागल भारत से आ रहे हैं।

मैं जानता हूँ, आध्यात्मिक मिशनें 'स्मगलिंग' करती रहती हैं। पर भारत सरकार और आम भारतीयों को यह नहीं मालूम कि लोगों को 'स्वर्ग' में भी स्मगल किया जाता है।

यह अध्यात्म के डिपार्टमेंट से होता है। जिस महान देश भारत में गुजरात के एक गाँव में एक आदमी ने पवित्र जल बाँटकर गाँव उजाड़ दिया, वह क्या अमेरिकी को स्वर्ग में 'स्मगल' नहीं कर सकता?

तस्करी सामान की भी होती है - और आध्यात्मिक तस्करी भी होती है। कोई आदमी दाढ़ी बढ़ाकर एक चेले को लेकर अमेरिका जाए और कहे, ‘मेरी उम्र एक हजार साल है। मैं हजार सालों से हिमालय में तपस्या कर रहा था। ईश्वर से मेरी तीन बार बातचीत हो चुकी है।’ विश्वासी पर साथ ही शंकालु अमेरिकी चेले से पूछेगा - क्या तुम्हारे गुरु सच बोलते हैं? क्या इनकी उम्र सचमुच हजार साल है? तब चेला कहेगा, ‘मैं निश्चित नहीं कह सकता, क्योंकि मैं तो इनके साथ सिर्फ पाँच सौ सालों से हूँ।’

याने चेले पाँच सौ साल के वैसे ही हो गए और अपनी अलग कंपनी खोल सकते हैं। तो मैं भी सोचता हूँ कि सब भारतीय माल तो अमेरिका जा चुका - कामशास्त्र, अध्यात्म, योगी, साधु वगैरह।

अब एक ही चीज हम अमेरिका भेज सकते हैं - वह है भारतीय आध्यात्मिक पागल - इंडियन डिवाइन ल्यूनेटिक। इसलिए मेरा सुझाव है कि 'इंडियन डिवाइन ल्यूनेटिक मिशन' की स्थापना जल्दी ही होनी चाहिए। यों मेरे से बड़े-बड़े लोग इस देश में हैं। पर मैं भी भारत की सेवा के लिए और बड़े अमेरिकी भाई की बोरियत कम करने के लिए कुछ सेवा करना चाहता हूँ। यों मैं जानता हूँ कि हजारों सालों से 'हरे राम हरे कृष्ण' का जप करने के बाद भी शक्कर सहकारी दुकान से न मिलकर ब्लैक से मिलती है - तो कुछ दिन इन अमरीकियों को राम-कृष्ण का भजन करने से क्या मिल जाएगा? फिर भी संपन्न और पतनशील समाज के आदमी के अपने शांति और राहत के तरीके होते हैं - और अगर वे भारत से मिलते हैं, तो भारत का गौरव ही बढ़ता है। यों बरट्रेंड रसेल ने कहा है - अमेरिकी समाज वह समाज है जो बर्बरता से एकदम पतन पर पहुँच गया है - वह सभ्यता की स्टेज से गुजरा ही नहीं। एक स्टेप गोल कर गया। मुझे रसेल से भी क्या मतलब? मैं तो नया अंतरराष्ट्रीय धंधा चालू करना चाहता हूँ - 'डिवाइन ल्यूनेटिक मिशन'। दुनिया के पगले शुद्ध पगले होते हैं - भारत के पगले आध्यात्मिक होते हैं।

मैं 'डिवाइन ल्यूनेटिक मिशन' बनाना चाहता हूँ। इसके सदस्य वही लोग हो सकते हैं, जो पागलखाने में न रहे हों। हमें पागलखाने के बाहर के पागल चाहिए याने वे जो सही पागल का अभिनय कर सकें। योगी का अभिनय करना आसान है। ईश्वर का अभिनय करना भी आसान है। मगर पागल का अभिनय करना बड़ा ही कठिन है। मैं योग्य लोगों की तलाश में हूँ। दो-एक प्रोफेसर मित्र मेरी नजर में हैं जिनसे मैं मिशन में शामिल होने की अपील कर रहा हूँ।

मिशन बनेगा और जरूर बनेगा। अमेरिका में हमारी एजेंसी प्रचार करेगी - सी रीयल इंडियन डिवाइन ल्यूनेटिक्स (सच्चे भारतीय आध्यात्मिक पागलों को देखो।) हम लोगों के न्यूयार्क हवाई अड्डे पर उतरने की खबर अखबारों में छपेगी। टेलीविजन तैयार रहेगा।

मिसेज राबर्ट, मिसेज सिंपसन से पूछेगी, ‘तुमने क्या सच्चा आध्यात्मिक भारतीय पागल देखा है?’ मिसेज सिंपसन कहेगी, ‘नो, इज देअर वन इन दिस कंट्री, 'अंडर गाड'?’ मिसेज राबर्ट कहेगी, ‘हाँ, कल ही भारतीय आध्यात्मिक पागलों का एक मिशन न्यूयार्क आ रहा है। चलो हम लोग देखेंगे : इट विल बी ए रीअल स्पिरिचुअल एक्सपीरियंस। (वह एक विरल आध्यात्मिक अनुभव होगा।)’

न्यूयार्क हवाई अड्डे पर हमारे भारतीय पागल आध्यात्मिक मिशन के दर्शन के लिए हजारों स्त्री-पुरुष होंगे - उन्हें जीवन की रोज ही बोरियत से राहत मिलेगी। हमारा स्वागत होगा। मालाएँ पहनाई जाएँगी। हमारे ठहराने का बढ़िया इंतजाम होगा।

और तब हम लोग पागल अध्यात्म का प्रोग्राम देंगे। हर गैरपागल पहले से शिक्षित होगा कि वह सच्चे पागल की तरह कैसे नाटक करे। प्रवेश-फीस 50 डॉलर होगी और हजारों अमेरिकी हजारों डॉलर खर्च करके 'इंडियन डिवाइन ल्यूनेटिक्स' के दर्शन करने आएँगे।

हमारा धंधा खूब चलेगा। मैं मिशन का अध्यक्ष होने के नाते भाषण दूँगा, ‘वी आर रीअल इंडियन डिवाइन ल्यूनेटिक्स। अवर ऋषीज एंड मुनीज थाउज़ेंड ईअर्स एगो सेड दैट दि वे टु रीअल इंटरनल पीस एंड साल्वेजन लाइज थ्रू ल्यूनेसी।’ (हम लोग भारतीय आध्यात्मिक पागल हैं। हमारे ऋषि–मुनियों ने हजारों साल पहले कहा था कि आंतरिक शांति और मुक्ति पागलपन से आती है।)

इसके बाद मेरे साथी तरह-तरह के पागलपन के करतब करेंगे और डॉलर बरसेंगे।

जिन लोगों को इस मिशन में शामिल होना है, वे मुझसे संपर्क करें। शर्त यह है कि वे वास्तविक पागल नहीं होने चाहिए। वास्तविक पागलों को इस मिशन में शामिल नहीं किया जाएगा - जैसे सच्चे साधुओं को साधुओं की जमात में शामिल नहीं किया जाता।

अमेरिका से लौटने पर, दिल्ली में रामलीला ग्राउंड या लाल किले के मैदान में हमारा शानदार स्वागत होगा। मैं कोशिश करूँगा कि प्रधानमंत्री इसका उद्‌घाटन करें।

वे समय न निकाल सकीं तो कई राजनैतिक वनवास में तपस्या करते नेता हमें मिल जाएँगे। दिल्ली के 'स्मगलर' हमारा पूरा साथ देंगे। कस्टम और एनफोर्स महकमे से भी हमारी बातचीत चल रही है। आशा है वे भी अध्यात्म में सहयोग देंगे।

स्वागत समारोह में कहा जाएगा, ‘यह भारतीय अध्यात्म की एक और विजय है, जब हमारे आध्यात्मिक पगले विश्व को शांति और मोक्ष का संदेश देकर आ रहे हैं। आशा है आध्यात्मिक पागलपन की यह परंपरा देश में हमेशा विकसित होती रहेगी।’

'डिवाइन ल्यूनेटिक मिशन' को जरूर अमेरिका जाना चाहिए। जब हमारे और उनके राजनैतिक संबंध सुधर रहे हैं तो पागलों का मिशन जाना बहुत जरूरी है।

परिस्थितियां उसकी दास बन जाती हैं.


परिस्थितियां उसकी
      दा बन जाती हैं.
(सुधांशु जी महाराज)

मानव जीवन आशाओं और आकांक्षाओं से सर्वदा भरपूर रहता है। किन्तु समस्त इच्छाएं किसी की भी पूर्ण नहीं होती। मनुष्य की जितनी इच्छाएं बढ़ती हैं उतनी उसकी व्याकुलता, बेचैनी और अशांति बढ़ती जाती है।

वैसे मानव मन के एक कोने में शान्ति की भी इच्छा रहती है, सुख की भी कामना रहती है, लेकिन शान्ति की इच्छा रखने से शान्ति नहीं मिलती, बल्कि इच्छाओं के शान्त होने से शान्ति मिलती है। सुख की कामना करने से सुख नहीं मिलता, उसके लिए उसी तरह का प्रयास करने से जीवन में सफलता मिलती है।

मनुष्य जितनी इच्छाओं के भंवर में भटकेगा उतनी ही उसकी व्याकुलता बढ़ती जाएगी। व्याकुलता से लोभ उत्पन्न हो जाएगा, लोभ से तृष्णा फलित होगी फिर इंसान छल-कपट की दुनिया में प्रवेश कर जाएगा और अन्त में वह सिर्फ अन्तहीन यात्रा का मुसाफिर बनकर ही रह जाएगा। जिसकी न कोई मंजिल होगी और न ही कोई उद्देश्य होगा। न ही उसका कोई लक्ष्य होगा और न ही उसकी कोई निश्चित दिशा होगी।

अन्तिम समय में उसे पता चलेगा कि मैंने अपना अनमोल जीवन कंकड़-पत्थर बटोरने में लगा दिया। मुझसे कहां कैसे और क्या-क्या गलतियां हुई हैं। इंसान उस समय रुदन करता है, अपनी किस्मत को कोसता है, अपना माथा पीटता है, कोई उससे उसकी आपबीती पूछे तो वह कुछ किसी को बताता नहीं, अगर कोई उसकी दुःख भरी कहानी सुनना चाहे तो किसी को वह सुनाता नहीं। उस समय उसके वक्त और हालात ऐसे हो जाते हैं कि वह न चाहते हुए भी दया का पात्र मात्र बनकर रह जाता है।

इसलिए समय रहते इंसान को चेतना चाहिए। जीवन में हर कोई कहीं न कहीं अभाव जरूर महसूस करता है। किंतु जो इंसान परमात्मा के प्रभाव को महसूस करता है, उसे हर वक्त अपने अंग-संग महसूस करता है, वह कभी किसी भी तरह की परिस्थितियों के दबाव में नहीं आता, बल्कि परिस्थितियां ही उसकी दास बनकर रह जाती हैं।

श्री जगन्नाथ भगवान, प्रत्येक वर्ष बीमार क्यों पड़ते हैं?

श्री जगन्नाथ भगवान,
प्रत्येक वर्ष बीमार क्यों पड़ते हैं?

उड़ीसा प्रान्त के जगन्नाथ पूरी में एक भक्त रहते थे, श्री माधव दास जी अकेले रहते थे, संसार से इनका कोई लेना देना नही था।

अकेले बैठे बैठे भजन किया करते थे, नित्य प्रति श्री जगन्नाथ प्रभु का दर्शन करते थे और उन्ही को अपना सखा मानते थे, प्रभु के साथ खेलते थे।

प्रभु इनके साथ अनेक लीलाए किया करते थे। प्रभु इनको चोरी करना भी सिखाते थे। भक्त माधव दास जी अपनी मस्ती में मग्न रहते थे।

एक बार माधव दास जी को अतिसार (उलटी–दस्त) का रोग हो गया। वह इतने दुर्बल हो गए कि उठ-बैठ नहीं सकते थे, पर जब तक इनसे बना, ये अपना कार्य स्वयं करते थे, और सेवा किसी से लेते भी नही थे।

कोई कहे महाराजजी, हम कर दे आपकी सेवा, तो कहते- नही, मेरे तो एक जगन्नाथ ही है, वही मेरी रक्षा करेंगे। ऐसी दशा में जब उनका रोग बढ़ गया, वो उठने बैठने में भी असमर्थ हो गये और अर्धचेतना में चले गये। तब श्री जगन्नाथजी स्वयं सेवक बनकर इनके घर पहुचे और माधवदासजी सेवा करने लगे।

उनका इतना रोग बढ़ गया था, कि उन्हें पता भी नही चलता था कि मल का मूत्र त्याग हो जाता था। वस्त्र गंदे हो जाते थे।

उन वस्त्रो को जगन्नाथ भगवान अपने हाथो से साफ करते थे, उनके पूरे शरीर को साफ करते थे, उनको स्वच्छ करते थे।

कोई अपना भी इतनी सेवा नही कर सकता, जितनी जगन्नाथ भगवान ने भक्त माधव दास जी की करते थे।

जब माधवदासजी को होश आय, तब उन्होंने तुरंत पहचान लिया कि यह तो मेरे प्रभु ही हैं।

माधवदासजी ने पूछ लिया प्रभु से –

“प्रभु आप तो त्रिभुवन के मालिक हो, स्वामी हो, आप मेरी सेवा कर रहे हो। आप चाहते, तो मेरा ये रोग भी तो दूर कर सकते थे, रोग दूर कर देते, तो ये सब करना नही पड़ता।”

भगवान् जगन्नाथ जी ने कहाँ- देखो-माधव! मुझसे भक्तों का कष्ट नहीं सहा जाता, इसी कारण तुम्हारी सेवा मैंने स्वयं की। जो प्रारब्द्ध होता है, उसे तो भोगना ही पड़ता है। बिना भोगे, इस जन्म में, उसको दूर कर देता, तब उस कष्ट को भोगने के लिए, तुम्हे अगला जन्म लेना पड़ता और मै नही चाहता कि मेरे भक्त को ज़रा से प्रारब्द्ध के कारण अगला जन्म फिर लेना पड़े, इसीलिए मैंने तुम्हारी सेवा की लेकिन अगर फिर भी तुम कह रहे हो तो भक्त की बात भी नही टाल सकता। अब तुम्हारे प्रारब्द्ध में 15 दिन का रोग और बचा है, इसलिए 15 दिन का रोग तुम मुझे दे दे। ऐसा कहकर भगवान् जगन्नाथ जी ने अपने प्रिय भक्त माधवदास जी के 15 दिन का शेष रोग स्वत: ले लिया।

यह तो हो गयी तब की बात, पर भक्त-वत्सलता देखो, आज भी हर वर्ष, जब जगन्नाथ भगवान को स्नान कराया जाता है (जिसे स्नान यात्रा कहते है), स्नान यात्रा करने के बाद 15 दिन के लिए जगन्नाथ भगवान बीमार पड़ते है।

15 दिन के लिए पट बंद कर दिया जाता है, और 56 भोग की जगह भगवान् को “काढ़ा” का भोग लगता हैं। बिमारी की जांच करने के लिए हर दिन वैद्य भी आते हैं।

काढ़े के अलावा फलों का रस भी दिया जाता है। रोज शीतल लेप भी लगया जाता है। बिमारी की अवधि में, उन्हें फलों का रस, छेना का भोग लगाया जाता है, और रात में सोने से पहले मीठा दूध अर्पित किया जाता है।

पंद्रहवे दिन स्वथ्य होते ही भगवान् जगन्नाथ जी की रथ-यात्रा निकलती है।

(जन-श्रुति पर आधारित)


यम और नियम (आष्टांग योग).


यम और नियम
(आष्टांग योग).

महर्षि पतञ्जलि ने योग को 'चित्त की वृत्तियों के निरोध' के रूप में परिभाषित किया है। योगसूत्र में उन्होंने पूर्ण कल्याण तथा शारीरिक, मानसिक और आत्मिक शुद्धि के लिए आठ अंगों वाले योग का एक मार्ग विस्तार से बताया है। अष्टांग, आठ अंगों वाले, योग को आठ अलग-अलग चरणों वाला मार्ग नहीं समझना चाहिए; यह आठ आयामों वाला मार्ग है, जिसमें आठों आयामों का अभ्यास एक साथ किया जाता है। योग के ये आठ अंग हैं:

'यम'     पांच सामाजिक नैतिकता.

            अहिंसा – शब्दों से, विचारों से और कर्मों से किसी को हानि 

                   नहीं पहुँचाना.

            सत्य – विचारों में सत्यता, परम-सत्य में स्थित रहना.

            अस्तेय – चोर-प्रवृति का न होना.

            ब्रह्मचर्य – दो अर्थ हैं:

                   चेतना को ब्रह्म के ज्ञान में स्थिर करना,
                   सभी इन्द्रिय-जनित सुखों में संयम बरतना.

           अपरिग्रह –आवश्यकता से अधिक संचय नहीं करना और दूसरों की 

                   वस्तुओं की इच्छा नहीं करना.

'नियम'-    पाच व्यक्तिगत नैतिकता.


           शौच – शरीर और मन की शुद्धि.

           संतोष – संतुष्ट और प्रसन्न रहना.

           तप – स्वयं से अनुशाषित रहना.

           स्वाध्याय – आत्मचिंतन करना.

           इश्वर-प्रणिधान – इश्वर के प्रति पूर्ण समर्पण, पूर्ण श्रद्धा.

'आसन':    योगासनों द्वारा शरीरिक नियंत्रण.

'प्राणायाम':  श्वास-लेने सम्बन्धी खास तकनीकों द्वारा प्राण पर नियंत्रण.

'प्रत्याहार':   इन्द्रियों को अंतर्मुखी करना.

'धारणा':    एकाग्रचित्त होना.

'ध्यान':     निरंतर ध्यान.

'समाधि':   आत्मा से जुड़ना: शब्दों से परे परम-चैतन्य की अवस्था.




श्री हरि का शयनकाल. (देवशयनी एकादशी)


श्री हरि का शयनकाल.
(देवशयनी एकादशी)

आषाढ़ मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी को हमारी परंपरा में देवशयनी एकादशी के तौर पर मनाया जाता है। मान्यता है कि इस दिन से अगले चार महीनों तक भगवान श्री हरि विश्राम में रहेंगे। इन चार महीनों में सभी मांगलिक-सामाजिक आयोजन वर्जित रहेंगे।

हिन्दू धर्म में एकादशी को बहुत महत्वपूर्ण माना जाता है। वर्ष भर में कुल 24 एकादशियां आती है लेकिन जिस साल मलमास या अधिकमास आता है उस साल यह बढ़कर 26 हो जाती है। आषाढ़ के शुक्ल पक्ष की एकादशी को देवशयनी एकादशी कहते है।

देवशयनी एकादशी के दिन से भगवान विष्णु का शयनकाल प्रारंभ हो जाता है इसी कारण इसे देवशयनी एकादशी कहा जाता है। देवशयनी एकादशी से लेकर अगले चार महीनों तक भगवान विष्णु शयनकाल में चले जाते है जो देवउठनी एकादशी पर समाप्त होता है। और देवउठनी एकादशी पर ही भगवान विष्णु पुन: जागते है। देवशयन एकादशी को पद्मा एकादशी, आषाढ़ी एकादशी और हरिशयनी एकादशी भी कहा जाता है।

देवशयनी एकादशी क्या है?
हरिशयनी एकादशी आषाढ़ महीने के शुक्ल पक्ष की एकादशी तिथि को आती है। आषाढ़ महीने की शुक्ल एकादशी से लेकर कार्तिक महीने की शुक्ल एकादशी तक किसी भी तरह के शुभ कार्य जैसे यज्ञोपवीत संस्कार, विवाह, दीक्षाग्रहण, ग्रहप्रवेश, गृह निर्माण यज्ञ आदि धर्म कर्म से जुड़े जितने भी शुभ कार्य होते हैं वर्जित हो जाते है। इस अवधि के दौरान कोई भी शुभ कार्य करना अच्छा नहीं माना जाता है। पौराणिक ग्रंथों के अनुसार श्री हरि के शयन को योगनिद्रा भी कहा जाता है।

इस अवधि में विवाहादि सभी शुभ कार्य वर्जित हो जाते हैं। इन दिनों में तपस्वी एक स्थान पर रहकर ही तप करते है। धार्मिक यात्राओं में भी केवल ब्रज यात्रा की जा सकती है। ब्रज के विषय में यह मान्यता है, कि इन चार मासों में सभी देव एकत्रित होकर तीर्थ ब्रज में निवास करते है। बेवतीपुराण में भी इस एकादशी का वर्णन किया गया है। यह एकादशी उपवासक की सभी कामनाएं पूरी करती है।

देखा जाए तो इस परंपरा के पीछे पौराणिक के साथ-साथ व्यावहारिक चीजें भी जुड़ी हुई हैं। पारंपरिक रूप से कृषि प्रधान अर्थव्यवस्था में बारिश के ये चार महीने बहुत महत्त हुआ करते हैं, ऐसे में यदि इन्हीं दिनों किसी तरह के मांगलिक आयोजन होंगे तो मूल कर्म से ध्यान बंटेगा।

इसी तरह बारिश के महीनों में सामाजिक-सामूहिक आयोजन में कई तरह की व्यावहारिक दिक्कतें भी पेश आती हैं, इसीलिए इस समय को योजनाबद्ध आयोजनों के लिए वर्जित किया गया है।


पूजा विधि.  

देवशयनी एकादशी के दिन प्रात:काल जागकर घर की साफ़-सफाई कर लें। उसके बाद नित्य कर्म से निवृत होकर स्नानादि आदि करके घर को गंगा जल से पवित्र कर लें। अब पूजा स्थल पर भगवान श्री हरि की सोने, चांदी, तांबे या पीतल की मूर्ति स्थापित करें। इसके बाद षोडशोपचार सहित पूजा करें।

पूजन करने के लिए धान्य के ऊपर कुंभ रखें। कुंभ को लाल रंग के वस्त्र से बांधें। इसके बाद कुम्भ की पूजा करें। ये सभी क्रियाएं करने के बाद धूप, दीप और पुष्प से श्री हरि की पूजा करनी चाहिए। पूजा समाप्त करने के बाद व्रत कथा अवश्य पढ़े या सुने। उसके बाद आरती करें और प्रसाद बांटें। अंत में सफ़ेद चादर से ढंके गद्दे तकिये वाले पलंग पर श्री हरि विष्णु को शयन कराना चाहिए।


व्रत विधि
 

देवशयनी एकादशी व्रत को करने के लिये व्यक्ति को इस व्रत की तैयारी दशमी तिथि की रात्रि से ही करनी होती है। दशमी की रात्रि के भोजन में किसी भी प्रकार का तामसिक प्रवृ्ति का भोजन नहीं होना चाहिए। भोजन में नमक का प्रयोग करने से व्रत के शुभ फलों में कमी होती है। व्रती को भूमि पर शयन करना चाहिए।

जौ, मांस, गेहूं तथा मूंग की दान का सेवन करने से बचना चाहिए। यह व्रत दशमी तिथि से शुरू होकर द्वादशी तिथि के प्रात:काल तक चलता है। दशमी तिथि और एकाद्शी तिथि दोनों ही तिथियों में सत्य बोलना और दूसरों को दु:ख या अहित होने वाले शब्दों का प्रयोग करने से बचना चाहिए।


देवशयनी एकादशी से त्यागने वाली वस्तुएं. 

1. भगवान विष्णु के शयनकाल में जाने के बाद अगले चार महीनों तक पलंग पर सोना, झूठ बोलना, मांस-मछली आदि का सेवन करना, दुसरे के द्वारा दिए दही-भात का सेवन, मूली और बैंगन आदि का सेवन त्याग देना चाहिए।

2. देवशयन के बाद चार महीनों तक तपस्वी भ्रमण नहीं करते और एक ही स्थान पर तप करते रहते है। इस दौरान केवल ब्रज की यात्रा की जा सकती है। क्योंकि चरमास के दौरान पृथ्वी के सभी तीर्थ ब्रज में आकर निवास करते है।


देवशयनी एकादशी व्रत कथा.  

देवशयनी एकादशी से संबंधित एक पौराणिक कथा प्रचलित है। सूर्यवंशी मांधाता नाम का एक राजा था। वह सत्यवादी, महान, प्रतापी और चक्रवर्ती था। वह अपनी प्रजा का पुत्र समान ध्यान रखता है। उसके राज्य में कभी भी अकाल नहीं पड़ा था। एक समय राजा के राज्य में अकाल पड गया।

प्रजा अन्ना की कमी के कारण अत्यन्त दु:खी रहने लगी। राज्य में यज्ञ होने बन्द हो गए। एक दिन प्रजा राजा के पास जाकर प्रार्थना करने लगी की हे राजन, समस्त विश्व की सृष्टि का मुख्य कारण वर्षा है। इसी वर्षा के अभाव से राज्य में अकाल पड गया है. और इस वजह से प्रजा अन्ना की कमी का सामना कर रही है।

यह देख दु;खी होते हुए राजा ने भगवान से प्रार्थना की हे भगवान, मुझे इस अकाल को समाप्त करने का कोई उपाय बताइए। यह प्रार्थना कर मान्धाता वन की और चल दिए। घूमते-घूमते वे ब्रह्मा के पुत्र अंगिरा ऋषि के आश्रम में पहुंचें। उस स्थान पर राजा रथ से उतरे और आश्रम में गए। वहां मुनि अभी प्रतिदिन की क्रियाओं से निवृ्त हुए थे।

राजा ने उनके सम्मुख प्रणाम किया। ऋषि ने उनको आशीर्वाद दिया, फिर राजा से बोले, कि हे महर्षि, मेरे राज्य में तीन वर्ष से वर्षा नहीं हो रही है। चारों और अकाल पडा हुआ है और प्रजा दु:ख भोग रही है। राजा के पापों के प्रभाव से ही प्रजा को कष्ट मिलता है। ऐसा शास्त्रों में लिखा है, जबकि मैं तो धर्म के सभी नियमों का पालन करता हूं।

इस पर ऋषि बोले की हे राजन, आषाढ मास के शुक्ल पक्ष की पद्मा नाम की एकादशी का विधि-पूर्वक व्रत करो। एक व्रत के प्रभाव से तुम्हारे राज्य में वर्षा होगी. और प्रजा सुख प्राप्त करेगी। राजा ने राज्य में लौटकर यही किया। व्रत के पुण्य-प्रताप से राज्य में पर्याप्त वर्सा हुई और मांधाता का राज्य धन धान्य से पूर्ण हुआ।

मुनि की बात सुनकर राजा अपने नगर में वापस आया और उसने एकादशी का व्रत किया. इस व्रत के प्रभाव से राज्य में वर्षा हुई और मनुष्यों को सुख प्राप्त हुआ. देवशयनी एकाद्शी व्रत को करने से भगवान श्री विष्णु प्रसन्न होते है. अत: मोक्ष की इच्छा करने वाले व्यक्तियों को इस एकादशी का व्रत अवश्य करना चाहिए।

राजा जगतसिंह की आराधना पर सूर्य ने जनता को दिए दर्शन.

राजा जगतसिंह की आराधना पर
सूर्य ने जनता को दिए दर्शन.

राव जगतसिंह जोधपुर के पहले महाराजा जसवंतसिंह के वंशज थे और रिश्ते में भक्तिमयी मीराबाई के भतीजे लगते थे। वह बलूंदा रियासत के शासक भी थे साथ ही परम वैष्णव भक्त भी थे। वैष्णव रंग में रंगे होने की वजह से वह राजसी ठाठबाट छोड़कर सदैव भगवत भक्ति में लीन रहते थे। मेवाड़ में उन्होंने एक मंदिर का निर्माण भी करवाया था।

एकबार वर्षाकाल का समय था। चारों और भयानक बारिश हो रही थी। चारों ओर घना अंधेरा छाया हुआ था। उस समय जोधपुर के लोगों ने सूर्य देवता के दर्शन कर व्रत खोलने का संकल्प ले रखा था। उन्हे जब सूर्य देवता के उदय की कोई उम्मीद नजर नहीं आई तो वह चिंतित हो गए। आखिर कुछ लोग जोधपुर नरेश के पास पहुंचे और उन्होंने महाराज से अनुरोध किया कि ' महाराज आप ही हमारे सूर्य हैं यदि आप हाथी पर सवार होकर नगर में लोगों को दर्शन दे देवें, तो आमजन भोजन ग्रहण कर लेंगे।' महाराज ने कहा कि ' आप लोगों की बात तो सही है, लेकिन व्रत तो मैने भी ले रखा है और मेरे लिए भी सूर्यनारायण के दर्शन करना आवश्यक है। उनके उदित नहीं होने से मैं किसके दर्शन करूं?' अकस्मात उनको राव जगतसिंह का ख्याल आया और वह उनके पास गए।

जगतसिंह उस समय श्रीकृष्ण की पूजा कर रहे थे। पूजा समाप्त होने पर जब जोधपुर नरेश ने उनको अपने आने का प्रयोजन बताया कि उनको सूर्यदेवता के समान सम्मान दिया गया है। भगवान की श्रेणी में अपनी गणना किया जाना जगतसिंह को अच्छा नहीं लगा। उन्होंने कोई जवाब नहीं दिया और सूर्य देवता से दर्शन देने के लिए विनती करने लगे। भगवान भास्कर ने उनकी विनती सुनी और बादलों को चीरकर प्रगट हो गए। राव जगतसिंह की प्रार्थना का असर देखकर लोग उनकी जय-जकार करने लगे।

एक सरल सी टिप्पणी भी किसी का मान-सम्मान उस सीमा तक नष्ट कर सकती है, जिसे वह व्यक्ति किसी भी दशा में दोबारा प्राप्त करने में सक्षम नहीं हो सकता, इसलिए यदि किसी के बारे में कुछ अच्छा नहीं कह सकते, तो चुप रहें. वाणी पर हमारा नियंत्रण होना चाहिए, ताकि हम शब्दों के दास न बनें.

सुख और दुख सिर्फ आदतें हैं. दुखी रहने की आदत तो हमने डाल रखी है, सुखी रहने की आदत भी डाल सकते हैं. इसे स्वभाव बनाइए और आदत में शामिल कर लीजिए. यह गलत सोच है कि इतना धन, पद या प्रतिष्ठा मिल जाए तो आनंदित हो जाएंगे. दरअसल, यह एक शर्त है. जिसने भी अपने आनंद पर शर्त लगाई वह आज तक आनंदित नहीं हो सका. अगर आपने बेशर्त आनंदित जीवन जीने का अभ्यास शुरू कर दिया तो ब्रह्माण्ड की सारी शक्तियां आपकी ओर आकर्षित होने लगेंगी.

गर हम बड़ी- से- बड़ी समस्या आने पर भी खुद को शांत रखें और उसके समाधान पर सोचें, तो नुकसान से बच सकते हैं. हमें नुकसान उस समय होता है, जब हम समस्याओं का समाधान तलाशने की जगह उनसे उलझ जाते हैं. इसलिए समस्या से हमें घबराना नहीं चाहिए, सफलता के लिए उनका समाधान तलाशना चाहिए.

अपील का जादू. (व्यंग)


अपील का जादू. (व्यंग) 
(हरिशंकर परसाई)

एक देश है! गणतंत्र है! समस्याओं को इस देश में झाड़-फूँक, टोना-टोटका से हल किया जाता है! गणतंत्र जब कुछ चरमराने लगता है, तो गुनिया बताते हैं कि राष्ट्रपति की बग्घी के कील-काँटे में कुछ गड़बड़ आ गई है। राष्ट्रपति की बग्घी की मरम्मत कर दी जाती है और गणतंत्र ठीक चलने लगता है। सारी समस्याएँ मुहावरों और अपीलों से सुलझ जाती हैं। सांप्रदायिकता की समस्या को इस नारे से हल कर लिया गया - हिंदू-मुस्लिम, भाई-भाई!

एक दिन कुछ लोग प्रधानमंत्री के पास यह शिकायत करने गए कि चीजों की कीमतें बहुत बढ़ गई हैं। प्रधानमंत्री उस समय गाय के गोबर से कुछ प्रयोग कर रहे थे, वे स्वमूत्र और गाय के गोबर से देश की समस्याओं को हल करने में लगे थे। उन्होंने लोगों की बात सुनी, चिढ़कर कहा - आप लोगों को कीमतों की पड़ी है! देख नहीं रहे हो, मैं कितने बड़े काम में लगा हूँ। मैं गोबर में से नैतिक शक्ति पैदा कर रहा हूँ। जैसे गोबर गैस ‘वैसे गोबर नैतिकता’। इस नैतिकता के प्रकट होते ही सब कुछ ठीक हो जाएगा। तीस साल के कांग्रेसी शासन ने देश की नैतिकता खत्म कर दी है। एक मुँहफट आदमी ने कहा - इन तीस में से बाइस साल आप भी कांग्रेस के मंत्री, मुख्यमंत्री और प्रधानमंत्री रहे हैं, तो तीन-चौथाई नैतिकता तो आपने ही खत्म की होगी! प्रधान मंत्री ने गुस्से से कहा - बको मत, तुम कीमतें घटवाने आए हो न! मैं व्यापारियों से अपील कर दूँगा। एक ने कहा - साहब, कुछ प्रशासकीय कदम नहीं उठाएँगे? दूसरे ने कहा - साहब, कुछ अर्थशास्त्र के भी नियम होते हैं।

प्रधानमंत्री ने कहा - मेरा विश्वास न अर्थशास्त्र में है, न प्रशासकीय कार्यवाही में, यह गांधी का देश है, यहाँ हृदय परिवर्तन से काम होता है। मैं अपील से उनके दिलों में लोभ की जगह त्याग फिट कर दूँगा। मैं सर्जरी भी जानता हूँ। रेडियो से प्रधानमंत्री ने व्यापारियों से अपील कर दी - व्यापारियों को नैतिकता का पालन करना चाहिए। उन्हें अपने हृदय में मानवीयता को जगाना चाहिए। इस देश में बहुत गरीब लोग हैं। उन पर दया करनी चाहिए। अपील से जादू हो गया। दूसरे दिन शहर के बड़े बाजार में बड़े-बड़े बैनर लगे थे - व्यापारी नैतिकता का पालन करेंगे। मानवता हमारा सिद्धांत है। कीमतें एकदम घटा दी गई हैं। जगह-जगह व्यापारी नारे लगा रहे थे - नैतिकता! मानवीयता! वे इतने जोर से और आक्रामक ढंग से ये नारे लगा रहे थे कि लगता था, चिल्ला रहे हैं -हरामजादे! सूअर के बच्चे!

गल्ले की दुकान पर तख्ती लगी थी - गेहूँ सौ रुपए क्विंटल! ग्राहक ने आँखें मल, फिर पढ़ा। फिर आँखें मलीं फिर पढ़ा। वह आँखें मलता जाता। उसकी आँखें सूज गईं, तब उसे भरोसा हुआ कि यही लिखा है। उसने दुकानदार से कहा - क्या गेहूँ सौ रुपए क्विंटल कर दिया? परसों तक दो सौ रुपए था। सेठ ने कहा - हाँ, अब सौ रुपए के भाव देंगे। ग्राहक ने कहा - ऐसा गजब मत कीजिए। आपके बच्चे भूखे मर जाएँगे। सेठ ने कहा - चाहे जो हो जाए, मैं अपना और परिवार का बलिदान कर दूँगा, पर कीमत नहीं बढ़ाऊँगा। नैतिकता, मानवीयता का तकाजा है।

ग्राहक गिड़गिड़ाने लगा - सेठजी, मेरी लाज रख लो। दो सौ पर ही दो। मैं पत्नी से दो सौ के हिसाब से लेकर आया हूँ, सौ के भाव से ले जाऊँगा, तो वह समझेगी कि मैंने पैसे उड़ा दिए और गेहूँ चुरा कर लाया हूँ। सेठ ने कहा - मैं किसी भी तरह सौ से ऊपर नहीं बढ़ाऊँगा। लेना हो तो लो, वरना भूखों मरो। दूसरा ग्राहक आया। वह अक्खड़ था। उसने कहा - ऐ सेठ, यह क्या अंधेर मचा रखा है, भाव बढ़ाओ वरना ठीक कर दिए जाओगे। सेठ ने जवाब दिया - मैं धमकी से डरने वाला नहीं हूँ। तुम मुझे काट डालो; पर मैं भाव नहीं बढ़ाऊँगा। नैतिकता, मानवीयता भी कोई चीज है। एक गरीब आदमी झोला लिए दुकान के सामने खड़ा था। दुकानदार आया और उसे गले लगाने लगा। गरीब आदमी डर से चिल्लाया - अरे, मार डाला! बचाओ! बचाओ! सेठ ने कहा - तू इतना डरता क्यों है?

गरीब ने कहा - तुम मुझे दबोच जो रहे हो! मैंने तुम्हारा क्या बिगाड़ा है? सेठ ने कहा - अरे भाई, मैं तो तुझसे प्यार कर रहा हूँ। प्रधान मंत्री ने मानवीयता की अपील की है न! एक दुकान पर ढेर सारे चाय के पैकेट रखे थे। दुकान के सामने लगी भीड़ चिल्ला रही थी - चाय को छिपाओ। हमें इतनी खुली चाय देखने की आदत नहीं है। हमारी आँखें खराब हो जाएँगी। उधर से सेठ चिल्लाया - मैं नैतिकता में विश्वास करता हूँ। चाय खुली बेचूँगा और सस्ती बेचूँगा। कालाबाजार बंद हो गया है।

एक मध्यमवर्गीय आदमी बाजार से निकला। एक दुकानदार ने उसका हाथ पकड़ लिया। उस आदमी ने कहा - सेठजी, इस तरह बाजार से बेइज्जत क्यों करते हो! मैंने कह तो दिया कि दस तारीख को आपकी उधारी चुका दूँगा। सेठ ने कहा - अरे भैया, पैसे कौन माँगता है? जब मर्जी हो, दे देना। चलो, दुकान पर चलो। कुछ शक्कर लेते जाओ। दो रुपए किलो।

क्षमताओं को जानें.


      क्षमताओं को जानें.
(सुधांशु जी महाराज)

जीवन यात्रा है और सब से सुन्दर मांगलिक यात्रा है। जिन्दगी भर व्यक्ति भीड़ के पीछे भागता रहता है और एक दिन जीवन यात्रा समाप्त हो जाती है। जरा सोचिए इस जीवन यात्रा में, क्या पाया-क्या खोया? कौन अपना- कौन पराया? क्या कर रहे हैं-कहां जा रहे हैं? क्या जोड़ा और क्या साथ जाएगा? जिन्दगी में जिम्मेदारियां निभाएं, लेकिन जीवन का महत्व भी समझें।

भेड़-बकरियों की तरह जीवन न जीएं, जीवन जीने की कला भी सीखें। व्यक्ति का स्वभाव बदला जा सकता है, क्षमताएं विकसित की जा सकती हैं। आयु आपके लिए, आपके कार्य के लिए बाधक नहीं है। जैसे यात्री अपना रास्ता खोजता चला जाता है, आप भी आगे बढ़ते जाओ तो रास्ता दिखाई देता जाएगा। जैसे-जैसे आगे बढ़ते जाएंगे, सीखते जाएंगे आपकी क्षमता बढ़ती जाएगी। व्यक्ति में समस्या से पार जाने की कला स्वतः आती है। सीखने से आप बड़े होते हैं, जीवन में संतुलन आता है।

जिस व्यक्ति का मस्तिष्क सन्तुलित हो वह स्वयं पर नियंत्रण लगा लेता है, ऐसा व्यक्ति दुःख की घडि़यों में भी घबराता नहीं। विपरीत समय में भी दिल पर पत्थर रखकर आगे बढ़ने के बारे में विचार कर सकता है, विचार ही ज्ञान है। ज्ञान जब होश बनता है, उस स्थिति में विचार ही काम करते हैं। विचार आपको करना है कि जीवन क्या है, मैं कौन हूं, मेरी शक्ति क्या है?

स्वयं से बार-बार प्रश्न करो मैं कौन हूं? मेरी शक्ति क्या है? क्या शक्ति लेकर दुनिया में आया हूं? बन्द मुठ्ठी में हमारा भाग्य है, शक्ति है, हौसला है, हिम्मत है। जिन्दगी की यात्रा में विवेक का सहारा ही काम करेगा। यह यात्रा पंछी की उड़ान की तरह है, आसमान में कोई पगडंडी नहीं होती, हर पंछी अपने विवेक से उड़ता है।

अपनी महिमा को जानो, अपनी कद्र करना सीखो। अपनी तस्वीर खुद ही सजाओ, कोई दूसरा आपको संवारेगा ऐसा नहीं। स्वयं को स्वयं प्रशिक्षित करो, अपने व्यक्तित्व का निर्माण करो। तुम परमात्मा के हस्ताक्षर हो, तुम्हारे जैसा परमात्मा ने किसी अन्य को नहीं बनाया। अपने पर मान करो, अपने होने का आनन्द लो।

इच्छा शक्ति की प्रचण्ड क्षमता.


इच्छा शक्ति की प्रचण्ड क्षमता.


जीवन की सफलता-असफलता, उत्कर्ष, अपकर्ष, उन्नति, अवनति, उत्थान-पतन सब मनुष्य की इच्छाशक्ति की सबलता और निर्बलता के ही परिणाम हैं। सबल, दृढ़ इच्छा शक्ति सम्पन्न लोगों को अभद्र, विचार, कुकल्पनायें, भयानक परिस्थितियाँ उलझने भी विचलित नहीं कर सकती। वे अपने निश्चय पर दृढ़ रहते हैं। उनके विचार स्थिर और निश्चित होते हैं। उन्हें बार-बार नहीं बदलते। प्रबल इच्छाशक्ति से शारीरिक कष्ट भी उन्हें अस्थिर नहीं कर सकते। ऐसे व्यक्ति हर परिस्थितियों में अपना रास्ता निकाल कर आगे बढ़ते रहते हैं। अपने व्यक्तिगत हानि लाभ से भी प्रभावित नहीं होते।

दृढ़ इच्छाशक्ति मानसिक क्षेत्र का वह दुर्ग है जिसमें किसी भी बाह्य परिस्थिति, कल्पना, कुविचारों का प्रभाव नहीं हो सकता। दृढ़ इच्छाशक्ति सम्पन्न व्यक्ति जीवन के भयंकर झंझावातों में भी अजेय चट्टान की तरह अटल और स्थिर रहता है। ऐसा मनुष्य सदैव प्रसन्न और शान्त रहता है। जीवन का सुख स्वास्थ्य, सौंदर्य, प्रसन्नता, शान्ति उसके साथ रहते हैं।

पितामह भीष्म अपनी दृढ़ इच्छा शक्ति के बल पर सारे शरीर के बाणों से छिदे रहने पर भी छह माह तक शरशैय्या पर पड़े रहे और चेतन बने रहे। दूसरे इस तरह के व्यक्ति भी होते हैं जो अपने तनिक से घाव-चोट में चिल्लाने लगते हैं, बेहोश हो जाते हैं कई तो भय के कारण मर तक जाते हैं। सत्यव्रती हरिश्चन्द्र अपने जीवन की कठिन परिस्थितियों की परीक्षा की घड़ी में अपनी दृढ़ इच्छा शक्ति के कारण ही निभा सके थे। दूसरी ओर कई लोग जीवन की सामान्य सी परिस्थितियों में रो देते हैं। हार बैठते हैं। जीवन की सम्भावनाओं का अन्त कर डालते हैं।

महाराणा प्रताप जिन्होंने वर्षों जंगलों की खोहों में जीवन बिताया, बच्चों सहित नंगे भूखे प्यासे भटकते रहे, किन्तु इसके बावजूद भी दृढ़ इच्छाशक्ति के सहारे वह अजेय वीर शक्तिशाली मुगल सल्तनत को चुनौती देता रहा और झुका नहीं। थोड़ी ही संख्या में दुबले पतले क्रान्तिकारियों ने भारतीय स्वतन्त्रता आन्दोलन को जो तूल दिया और विश्व-व्यापी ब्रिटिश सत्ता को चुनौती दी वह उन वीरों की दृढ़ इच्छा शक्ति का ही परिणाम था। फाँसी की सजा सुनने पर भी जिनका वजन बढ़ा, फाँसी के तख्ते पर पहुँचकर जिन्होंने अपनी मुस्कराहट से मौत के भावयुक्त स्वाँग का गर्व चूर कर दिया, यह सब उनकी दृढ़ इच्छा शक्ति की ही करामात थी।

संसार में जितने भी महान कार्य हुए, वे मनुष्य की प्रबल इच्छाशक्ति का संयोग पाकर ही हुए। दृढ़ इच्छाशक्ति सम्पन्न व्यक्ति ही महान कार्यों का संचालन करता है। वहीं नवसृजन, नवनिर्माण, नवचेतना का शुभारम्भ करता है। अपने और दूसरों के कल्याण विकास एवं उत्थान का मार्ग खोजता है।

निर्बल इच्छाशक्ति वाले मनुष्य अपने या दूसरों के लिए कोई उपयोगी कार्य नहीं कर सकते। ऐसे लोगों के मन में अनेकों सन्देह, कुकल्पनायें, कुविचार पैदा होने लगते हैं। उनके निश्चय बार-बार बदलते हैं। एक काम को अधूरा छोड़कर, दूसरे को हाथ में लेते हैं फिर दूसरे को छोड़कर तीसरे को करने लगते हैं। छोटी-छोटी कठिनाइयों में उलझ कर ही परेशान होने लगते हैं। निर्बल इच्छाशक्ति से अपने और दूसरों के अकल्याण की भावनाएं निर्बाध गति से आने-जाने लगती है। परीक्षा में बैठने पर असफलता का भय सताने लगता है। व्यापार करने पर घाटे के भय से चिन्तित एवं परेशान होने लगते हैं। अंधेरे में चलने पर भूत, चोर, गुण्डे का डर खाने लगता है। घर में कोई बीमार पड़ जाय तो सोचा जाता है कही मर नहीं जाय। इस तरह दुर्बल इच्छाशक्ति के कारण मनुष्य तरह-तरह की आशंका, शंका कल्पित भय, चिता परेशानियों से परेशान दुखी उद्विग्न एवं अशान्त रहता है। हीन भावनाओं से ग्रस्त हो निराशा, अवसाद, ईर्ष्या, घृणा, द्वेष से युक्त हो जाता है।

इच्छाशक्ति की दुर्बलता से कई लोग अपने आपको कल्पित रोगों से त्रस्त समझकर परेशान होने लगते हैं। और हर उपचार में कोई न कोई मीनमेख निकालते हैं। रोग घट रहा हो तो भी उन्हें कही फिर न बढ़ जाय यह डर लगा रहता है। यदि परीक्षण किया जाय तो वास्तविक रोगियों की संख्या कम मिलेगी और इस तरह के कल्पित रोगों से ग्रस्त लोग अधिक मिलेंगे। इसमें कोई सन्देह नहीं कि इच्छा शक्ति की दुर्बलता से आज कल प्रत्येक व्यक्ति अपने आप को किसी न किसी रोग से ग्रस्त ही समझता हैं। कई तो इतने परेशान रहते हैं मानो वे किसी भयंकर रोग से पीड़ित हैं और वस्तुतः बात ऐसी नहीं होती। दृढ़ इच्छाशक्ति के सहारे बड़े-बड़े रोगों के आक्रमण में से भी बचा जा सकता है और अपने स्वास्थ्य को सुरक्षित रखा जा सकता है।

मनुष्य के सभी विचार भाव क्रिया स्वयं उसी तक सीमित नहीं रहते। इनका प्रभाव समस्त वातावरण पर भी पड़ता है। रेडियो-स्टेशन के ट्रान्समीटर से छोड़ी हुई ध्वनि तरंगें सर्वत्र फैल जाती हैं ठीक इसी तरह व्यक्ति के क्रिया-कलाप, हाव-भावों का भी प्रसार होकर वातावरण पर प्रभाव पड़ता है। ये संक्रामक होते हैं और दृश्य या अदृश्य रूप में एक व्यक्ति से चलकर दूसरों तक फैल जाते हैं। दृढ़ इच्छाशक्ति सम्पन्न व्यक्ति जिस समाज में होंगे वह समाज भी शक्तिशाली, दृढ़ और महत्वपूर्ण होगा। कायर डरपोक, दुर्बल इच्छाशक्ति वाले व्यक्ति समाज में अपनी दुर्बलताओं का संचार करते हैं।

नेपोलियन बोनापार्ट के सिपाही अपने आपको नेपोलियन समझकर लड़ते थे। प्रत्येक सिपाही में नेपोलियन की इच्छाशक्ति काम करती थी। नेता जी सुभाषचन्द्र बोस के नेतृत्व में आजाद हिन्द फौज के तनिक से सैनिकों ने हथेली पर जान रखकर अंग्रेजी शासन से लड़ाई की। लोकमान्य तिलक ने भारत वर्ष को स्वराज्य मन्त्र की दीक्षा दी- “स्वतन्त्रता हमारा जन्म सिद्ध अधिकार है और हम उसे लेकर रहेंगे।” और यही नारा प्रत्येक भारतीय का प्रेरक मन्त्र बन गया। एक दिन इसी मन्त्र ने हमें स्वतन्त्रता रूपी सिद्धि प्रदान की। यह मन्त्र कोई शाब्दिक व्याख्या मात्र नहीं था वरन् इसमें तिलक की दृढ़ इच्छाशक्ति का अपार चैतन्य सन्निहित था। मनुष्य की इच्छाशक्ति का प्रभाव चेतन जगत पर ही नहीं वरन् अचेतन पदार्थों पर भी पड़ता है। अपनी इच्छाशक्ति के बल पर ही मनुष्य पत्थर, धातु आदि की मूर्ति में भगवान का साक्षात्कार करता है। प्रबल इच्छाशक्ति के द्वारा मनुष्य जड़ चेतन, प्रकृति को भी प्रभावित कर सकता है।

निर्बल इच्छा शक्ति वाले व्यक्ति समाज में भीरुता, कायरता, सन्देह, कुकल्पनाओं का संचार करते हैं। जिस देश के कर्णधार नेताओं की इच्छाशक्ति दुर्बल होगी तो वह वहाँ तक की प्रशासनिक मशीनरी और फिर जनता तक में फैल जायगी। जैसे अपने बारे में अहितकर बातें सोचने पर दुष्परिणाम पैदा होते हैं उसी तरह जिसके लिए बुरी बात सोची जायगी वह भी बुराई से प्रभावित हुए बिना नहीं रहेगा। यदि उसकी इच्छाशक्ति दुर्बल होगी तो वह सहज ही दूसरे द्वारा कुकल्पित दुर्भावनाओं का शिकार हो जायेगा। भूतों के भय से डरने वाले अपने संक्रामक विचारों से दूसरों में भी भूत के भय की भावना पैदा कर देते हैं। घृणा करने वाले दूसरों में भी घृणित विचारों का प्रसार कर देते हैं। लड़ाई के मैदान से भाग जाने वाला एक सिपाही कई सिपाहियों में मैदान छोड़ने की भावना पैदा कर देता है। इच्छाशक्ति की दुर्बलता भी उतनी ही संक्रामक है जितनी सबलता। जहाँ सबल इच्छाशक्ति के व्यक्तियों का बाहुल्य होगा वह समाज उन्नति-प्रगति की ओर सहज ही उठ जायेगा। जहाँ दुर्बल इच्छाशक्ति के लोग होंगे वह समाज पतन की ओर भी अग्रसर हो जायेगा।

हमें अपनी इच्छाशक्ति बढ़ाने का प्रयत्न करना चाहिए। साहस और धैर्य का अभ्यास करने से बड़ी बड़ी कठिनाइयाँ भी सहज हो जाती हैं और पराक्रमी व्यक्ति आसानी से उन पर विजय प्राप्त कर लेते है। भीरु पुरुष तो कठिनाइयों में जितने त्रस्त होते है उससे अधिक उनकी आन्तरिक दुर्बलता ही कष्ट देती रहती है। मानव जीवन में दृढ़ इच्छाशक्ति एक अत्यन्त मूल्यवान सम्पत्ति है और इसे हम अधिकाधिक मात्रा में सम्पादित करें यही उचित है।

(अखंड ज्योति-2/1964)


महान पराक्रमी वानर द्विविद.

महान पराक्रमी  वानर द्विविद.

श्रीराम और रावण के मध्य होने वाले भयंकर और अतिविनाशकारी युद्ध के परिप्रेक्ष्य में ब्रम्हाजी ने समस्त देवता, महर्षि, गरुण, गंधर्व, यक्ष, नाग, किंपुरुष, सिद्ध, विद्याधर आदि आदि समस्त दिव्योनिजों से कहा कि अब समय आ गया है, जब वह सभी लोग अपने दिव्य अंश से पृथ्वी पर रीक्ष, वानर तथा अन्य वनचरों की स्त्रियों के गर्भ से उत्पन्न हों।

ब्रम्हाजी के आदेशानुसार ही ऐसे पुत्र उत्पन्न हुए जो बलवान, इच्छानुसार रुप धारण करने में समर्थ, माया जानने वाले, शूरवीर, वायु तुल्य वेगशाली, नीतिज्ञ, बुद्धिमान, विष्णुतुल्य पराक्रमी, किसी से भी परास्त न होने वाले, तरह तरह के युद्ध उपायों के जानकार, दिव्य शरीरधारी तथा अमृतभोजी देवताओं के समान सब प्रकार की अस्त्रविद्या के गुणों से सम्पन्न थे।

उसी क्रम में अन्यों समेत देव अश्विनीकुमारों से मैंद और द्विविद नामक अतिबलशाली वानरों का जन्म हुआ। द्विविद वानर महान पराक्रमी योद्धा थे। उन्होंने श्रीराम की सेना में रहते हुए अनवरत बिना थके हुए रावण की सेना के साथ भीषण युद्ध किया और असंख्य बलाबली राक्षसों का वध किया। राक्षस सेना को अपने पैरों नीचे कुचल कुचल कर नष्ट करते। भुजाओं में इतना बल था कि किसी भी राक्षस को हथेली बीच रखकर अनारदानों की तरह मसलकर पीस डालते। अजेय होकर रावण की सेना में द्विविद ने चारों ओर हाहाकार मचा रखा था।

उनके इस अथक परिश्रम और युद्धकौशल को देख श्रीरामजी उन्हें दीर्घायु होकर द्वापर युग तक की आयु प्रदान की। अति दीर्घायु होकर द्विविद वानर अत्यंत मदान्ध हो गया और कृष्णावतार के दौरान उन्होंने राजा पौंड्रक के अधीन रहते हुए प्राणियों को बहुत कष्ट देना शुरू किया।

राजा पौंड्रक ने श्रीकृष्ण के समान ही मोरपंख, शंख, चक्र और गदा धारण करके स्वयं को कृष्ण भगवान घोषित कर दिया था। उसके इस कृत्य के बाद जो भी उन्हें भगवान श्रीकृष्ण नहीं मानता और उनकी पूजा नहीं करता उसको राजा पौंड्रक द्विविद वानर की मदद से प्रताड़ित करवाया करते। इस प्रकार अपने बल के घमण्ड में द्विविद वानर क्रूर अत्याचारी हो गया।

श्रीकृष्ण के बढ़ते प्रभाव से सहमें राजा पौंड्रक ने द्विविद वानर को द्वारका भेजकर उसका और बलराम सहित श्रीकृष्ण का विनाश करने भेजा। बलाभिमानी किन्तु मृत्यु के पाश में बंधे द्विविद द्वारका पहुंचते ही उसका विनाश करने लगे। अपनी बलिष्ठ भुजाओं से समस्त उपवन, वाटिका और भवन उजाड़ कर नष्ट कर दिया। ऐसा करते हुए वह उस उद्यान में पहुंचे जहां शेषावतारी बलरामजी आराम कर रहे थे।

द्विविद ने कठोर वाणी में, आराम करते हुए बलराम को मल्लयुद्ध हेतु ललकारा। दोनों के बीच में भीषण युद्ध हुआ। तब क्रोधित हुए बलराम ने द्विविद वानर को अपने एक ही मुष्टिक प्रहार से यमलोक भेज दिया। बलराम के हाथों पराजित होकर द्विविद मोक्ष को प्राप्त हुए।

इस प्रकार शतायु होने का वर प्राप्त मैंद और द्विविद नामक अति विशालकाय और महापराक्रमी वानर त्रेता युग में जन्म लेकर द्वापर युग में भगवान कृष्ण के हाथों मोक्ष को प्राप्त हुए थे।

ईर्ष्या-क्यों पैदा होती है, और कैसे बचें इससे?


       ईर्ष्या-क्यों पैदा होती है,
और कैसे बचें इससे?

प्रश्न: मैं अपने भीतर पैदा होने वाली ईर्ष्या से कैसे बच सकता हूँ?

सद्‌गुरु: जब तक आप भीतर से अधूरापन महसूस करते रहेंगे, तब तक किसी इंसान के पास आपके अनुसार अपने से थोड़ा सा भी ज्यादा दिखने पर जलन महसूस होगी। जब आप बहुत ख़ुश होते हैं, तब क्या आपके भीतर कोई जलन होती है? नहीं। जब आप नाख़ुश होते हैं, तभी आपके भीतर ईर्ष्या जन्म लेती है। आप ईर्ष्या की चिंता मत कीजिए। अगर जीवन के हर पल में, आपके भीतर की ऊर्जा परम आनंद से भरी है, तो जलन कैसे टिक सकती है? जलन से लड़ने से बेहतर होगा कि अपने जीवन के अनुभव को संपूर्ण बना लीजिए।

ईर्ष्या आपका स्वभाव नहीं है.

किसी चीज को छोड़ने से आजादी नहीं मिलेगी, क्योंकि छोड़ने के लिए है ही क्या? इस समय, आपके भीतर कोई ईर्ष्या नहीं है। यह आपके स्वभाव का अंग नहीं है। आप इसे समय-समय पर पैदा करते हैं। अगर आपने इसे इसलिए पैदा किया होता कि आप ऐसा करना चाहते थे, तो यह आपके लिए आनंददायक होता। अगर आपको गुस्से, जलन और नफरत से खुशी होती है तो उसे पैदा कीजिए। पर ऐसा नहीं है, वे आपके लिए ख़ुशी देने वाले अनुभव नहीं हैं। तो आपने उन्हें क्यों रचा है? आपने उन्हें रचा है क्योंकि आपके भीतर जरुरी जागरूकता की कमी है।

इस समय, आपके भीतर कोई ईर्ष्या नहीं है। यह आपके स्वभाव का अंग नहीं है। आप इसे समय-समय पर पैदा करते हैं।

अगर आप सही मायने में मुक्त होना चाहते हैं, तो आपको समझना चाहिए कि बंधन कहाँ है – आपने किस चीज से अपनी पहचान जोड़ रखी है। जिस क्षण आप किसी पहचान से जुड़ेंगे, इस अस्तित्व से आपका टकराव होने लगेगा। यह सारा आध्यात्मिक सिलसिला इसलिए ही बना है कि आप अपनी पहचान को तोड़ सकें, ताकि आपका अस्तित्व से कोई टकराव न रहे। आप हर चीज को वैसे ही अनुभव कर रहे हैं, जैसी वह है, आप उसे अच्छे या बुरे – किसी तरह का तमग़ा नहीं दे रहे, या उसे दैवीय या शैतानी बनाने की कोशिश नहीं कर रहे।

बदबूदार कचरे को सुगंध में बदलें.

आप जो हैं, अगर आप अपने भयानक पहलुओं को खाद की तरह इस्तेमाल में ला सकें, तो आपके जो ख़ूबसूरत पहलू हैं, वे खिल सकते हैं। यह ‘भयानक’ क्या है और इसका मतलब क्या है? जब आप किसी इंसान को बहुत ज्यादा पक्षपाती, ईर्ष्यालु, गुस्सैल, नफरत से भरा और भयभीत पाते हैं तो यही वो भयंकर रूप हैं जो इन्सान ले सकता है।

इन दिनों लोग आर्गेनिक सब्जियों की बात करने लगे हैं। इसका मतलब है कि आपको ऐसी सब्जी पसंद है जिसे थैले में बंद रासायनिक उर्वरक(पेस्टिसाइड) नहीं, बल्कि मल और कचरे की खाद दी गई है। आप समझते हैं कि इस तरह की खाद से बेहतरीन फल, फूल और सब्जी पैदा कर सकते हैं – यह सबसे बढ़िया खाद है।

यही जीवन का तर्क है। आपको इसे ही समझना होगा, इसे प्रतीक के तौर पर, मनोवैज्ञानिक टूल के तौर पर और आध्यात्मिक तौर पर भी समझना होगा। आपके मन का सादा सा तर्क कहता है कि अगर आप बाग में अच्छे फूल उगाना चाहते हैं, तो मिट्टी में बहुत सारे फूल डालें, कई सारे सुंदर फूल खिलेंगे। अस्तित्व ऐसे काम नहीं करता। यह तार्किक है पर अस्तित्व तर्क पर नहीं टिका है। मिट्टी को बदबूदार कचरा चाहिए, उसे खुशबू वाले फूल नहीं चाहिए। बदबूदार कचरा सिर्फ ‘ठीक’ नहीं है, यही मिट्टी की मांग है। अगर आप इसे जड़ों में डालते हैं तो आपको खुशबूदार फूल मिलेंगे। अस्तित्व ऐसे ही काम करता है।

अपने स्वभाव के साथ चलें

आपके जितने भी भयंकर रूप हैं – पक्षपात, ईर्ष्या, गुस्सा, नफरत आदि – कृपया देखें कि ये कितनी तीव्रता के साथ आपके भीतर घटते हैं। अगर उतनी ही गहराई से ध्यान हो पाता, तो यह सब कितना अद्भुत होता?

अगर आपमें ये जागरूकता नहीं होगी तो आप जड़ों को सुगंध देने की कोशिश में पौधे को मार सकते हैं। आपको जड़ों में कचरा डालना होगा, सुगंध नहीं।

वे सभी चीज़ें जो इन्सान को भयंकर बनाती हैं, वे सभी तीव्रता पर सवार होती हैं। अगर आपकी ईर्ष्या, गुस्सा, नफरत आदि दुर्बल होते, तो इनका कोई मतलब नहीं होता। जब वे आपके भीतर जलते हैं, तभी वे कुछ मायने रखते हैं। और वे आपके भीतर हमेशा पूरी तीव्रता से जलते हैं। आध्यात्मिकता का एक तत्व आपमें है, अब आपको बस इसका इस्तेमाल करना सीखना है। अगर आप कचरे को उठा कर जड़ों में डालें तो यह ठीक है। अगर आप इसे चेहरे पर मलें तो इसे सही नहीं माना जाएगा। अगर आपमें ये जागरूकता नहीं होगी तो आप जड़ों को सुगंध देने की कोशिश में पौधे को मार सकते हैं। आपको जड़ों में कचरा डालना होगा, सुगंध नहीं। पूरा विश्व इसी तरह काम करता है, और आपको भी ऐसे ही काम करना चाहिए।

आग बुझानी होगी, धुआँ से लड़ना छोड़ना होगा.

बाई-प्रॉडक्ट्स पर काम करने की कोशिश न करें। आप ख़ुद को अधूरा मानते हैं क्योंकि आप अपने भीतर से खुशहाल नहीं हैं। जो आदमी आनंदित महसूस नहीं करता, वह दरअसल बीमार है। हो सकता है कि सामाजिक रूप से आपको ठीक माना जाए – क्योंकि आपके साथ बहुत सारे लोग हैं, और यह लोकतंत्र है – पर आप जीवन के लिहाज़ से बीमार हैं। ऐसी कोई कोशिश नहीं की गई जिससे आप ख़ुद को सावधानी से देखते हुए यह समझ सकें कि अनुभव का स्थान आपके भीतर है। अगर आपके अनुभव का स्थान आपके भीतर है और आपको तय करना है कि आप यहाँ कितनी अच्छी तरह रह सकते हैं, तो सबसे पहले अपने भीतर देखें और यह जानें कि आप कौन हैं।

अगर ऐसा नहीं होता तो आपका कल्याण एक संयोग मात्र ही होगा। जब यह संयोग ही होगा तो ईर्ष्या, गुस्सा, नफरत व असुरक्षा स्वाभाविक तौर पर जीवन के अंग होंगे। यह कुछ ऐसा ही है कि हम जल रहे हों और उससे धुआँ पैदा हो रहा हो। तो आप इस धुएँ से न जूझें, आपको आग से लड़ना होगा।

कर्मबंधन.


कर्मबंधन.

एक राजा बड़ा धर्मात्मा, न्यायकारी और परमेश्वर का भक्त था। उसने ठाकुरजी का मंदिर बनवाया और एक ब्राह्मण को उसका पुजारी नियुक्त किया।

वह ब्राह्मण बड़ा सदाचारी, धर्मात्मा और संतोषी था। वह राजा से कभी कोई याचना नहीं करता था, राजा भी उसके स्वभाव पर बहुत प्रसन्न था।

उसे, राजा के मंदिर में पूजा करते हुए बीस वर्ष गुजर गये। उसने कभी भी राजा से किसी प्रकार का कोई प्रश्न नहीं किया।

राजा के यहाँ एक लड़का पैदा हुआ। राजा ने उसे पढ़ा लिखाकर विद्वान बनाया और बड़ा होने पर उसकी शादी एक सुंदर राजकन्या के साथ करा दी।

शादी करके जिस दिन राजकन्या को अपने राजमहल में लाये उस रात्रि में राजकुमारी को नींद न आयी।

वह इधर-उधर घूमने लगी जब अपने पति के पलंग के पास आयी तो क्या देखती है कि हीरे जवाहरात जड़ित मूठेवाली एक तलवार पड़ी है।

जब उस राजकन्या ने देखने के लिए वह तलवार म्यान में से बाहर निकाली, तब तीक्ष्ण धारवाली और बिजली के समान प्रकाशवाली तलवार देखकर वह डर गयी व डर के मारे उसके हाथ से तलवार गिर पड़ी और राजकुमार की गर्दन पर जा लगी।

राजकुमार का सिर कट गया और वह मर गया। राजकन्या पति के मरने का बहुत शोक करने लगी। उसने परमेश्वर से प्रार्थना की कि ‘हे प्रभु ! मुझसे अचानक यह पाप कैसे हो गया?

पति की मृत्यु मेरे ही हाथों हो गयी। आप तो जानते ही हैं, परंतु सभा में, मैं सत्य न कहूँगी क्योंकि इससे मेरे माता-पिता और सास-ससुर को कलंक लगेगा और इस बात पर कोई विश्वास भी न करेगा।’

प्रातःकाल जब पुजारी कुएँ पर स्नान करने आया तो राजकन्या ने उसको देखकर विलाप करना शुरु किया और इस प्रकार कहने लगीः

“मेरे पति को कोई मार गया।” लोग इकट्ठे हो गये और राजा साहब आकर पूछने लगेः “किसने मारा है?”

वह कहने लगीः “मैं जानती तो नहीं कि कौन था। परंतु उसे ठाकुरजी के मंदिर में जाते देखा था”

राजा समेत सब लोग ठाकुरजी के मंदिर में आये तो ब्राह्मण को पूजा करते हुए देखा। उन्होंने उसको पकड़ लिया और पूछाः “तूने राजकुमार को क्यों मारा?”

ब्राह्मण ने कहाः “मैंने राजकुमार को नहीं मारा। मैंने तो उनका राजमहल भी नहीं देखा है। इसमें ईश्वर साक्षी हैं। बिना देखे किसी पर अपराध का दोष लगाना ठीक नहीं।”

ब्राह्मण की तो कोई बात ही नहीं सुनता था। कोई कुछ कहता था, तो कोई कुछ।

राजा के दिल में बार-बार विचार आता था कि यह ब्राह्मण निर्दोष है, परंतु बहुतों के कहने पर राजा ने ब्राह्मण से कहाः

“मैं तुम्हें प्राणदण्ड तो नहीं देता लेकिन जिस हाथ से तुमने मेरे पुत्र को तलवार से मारा है, तेरा वह हाथ काटने का आदेश देता हूँ।”

ऐसा कहकर राजा ने उसका हाथ कटवा दिया।

इस पर ब्राह्मण बड़ा दुःखी हुआ और राजा को अधर्मी जान, उस देश को छोड़कर चला गया। वहाँ वह खोज करने लगा कि कोई विद्वान ज्योतिषी मिले तो बिना किसी अपराध के हाथ कटने का कारण उससे पूछूँ।

किसी ने उसे बताया कि काशी में एक विद्वान ज्योतिषी रहते हैं।

तब वह उनके घर पर पहुँचा। ज्योतिषी कहीं बाहर गये थे, उसने उनकी धर्मपत्नी से पूछाः “माताजी! आपके पति, ज्योतिषी जी महाराज कहाँ गये हैं?”

तब उस स्त्री ने अपने मुख से अयोग्य, असह्य दुर्वचन कहे, जिनको सुनकर वह ब्राह्मण हैरान हुआ और मन ही मन कहने लगा कि “मैं तो अपना हाथ कटने का कारण पूछने आया था, परंतु अब इनका ही हाल पहले पूछूँगा।”

इतने में ज्योतिषी आ गये। घर में प्रवेश करते ही ब्राह्मणी ने अनेक दुर्वचन कहकर उनका तिरस्कार किया। परंतु ज्योतिषी जी चुप रहे और अपनी स्त्री को कुछ भी नहीं कहा।

तदनंतर वे अपनी गद्दी पर आ बैठे। ब्राह्मण को देखकर ज्योतिषी ने उनसे कहाः “कहिये, ब्राह्मण देवता ! कैसे आना हुआ?”

“आया तो था, अपने बारे में पूछने के लिए परंतु पहले आप अपना हाल बताइये कि आपकी पत्नी अपनी जुबान से आपका इतना तिरस्कार क्यों करती है?

जो किसी से भी नहीं सहा जाता और आप सहन कर लेते हैं, इसका कारण है?”

“यह मेरी स्त्री नहीं, मेरा कर्म है। दुनिया में जिसको भी देखते हो अर्थात् भाई, पुत्र, शिष्य, पिता, गुरु, सम्बंधी – जो कुछ भी है, सब अपना कर्म ही है।

यह स्त्री नहीं, मेरा किया हुआ कर्म ही है और यह भोगे बिना कटेगा नहीं।

अवश्यमेव भोक्तव्यं कृतं कर्म शुभाशुभम्।

नाभुक्तं क्षीयते कर्म कल्पकोटिशतेरपि॥

‘अपना किया हुआ जो भी कुछ शुभ-अशुभ कर्म है, वह अवश्य ही भोगना पड़ता है। बिना भोगे तो सैंकड़ों-करोड़ों कल्पों के गुजरने पर भी कर्म नहीं टल सकता।’

इसलिए मैं अपने कर्म खुशी से भोग रहा हूँ और अपनी स्त्री की ताड़ना भी नहीं करता, ताकि आगे इस कर्म का फल न भोगना पड़े।”

“महाराज ! आपने क्या कर्म किया था?”

“सुनिये, पूर्वजन्म में मैं कौआ था और मेरी स्त्री गधी थी। इसकी पीठ पर फोड़ा था, फोड़े की पीड़ा से यह बड़ी दुःखी थी और कमजोर भी हो गयी थी।

मेरा स्वभाव बड़ा दुष्ट था, इसलिए मैं इसके फोड़े में चोंच मारकर इसे ज्यादा दुःखी करता था।

जब दर्द के कारण यह कूदती थी, तो इसकी फजीहत देखकर मैं खुश होता था। मेरे डर के कारण यह सहसा बाहर नहीं निकलती थी, किंतु मैं इसको ढूँढता फिरता था।

यह जहाँ मिले, वहीं इसे दुःखी करता था। आखिर मेरे द्वारा बहुत सताये जाने पर त्रस्त होकर यह गाँव से दस-बारह मील दूर जंगल में चली गयी।

वहाँ गंगा जी के किनारे सघन वन में हरा-हरा घास खाकर और मेरी चोटों से बचकर सुखपूर्वक रहने लगी।

लेकिन मैं इसके बिना नहीं रह सकता था। इसको ढूँढते-ढूँढते मैं उसी वन में जा पहुँचा और वहाँ इसे देखते ही मैं इसकी पीठ पर जोर-से चोंच मारी तो मेरी चोंच इसकी हड्डी में चुभ गयी।

इस पर इसने अनेक प्रयास किये, फिर भी चोंच न छूटी। मैंने भी चोंच निकालने का बड़ा प्रयत्न किया मगर न निकली।

‘पानी के भय से ही यह दुष्ट मुझे छोड़ेगा।’ ऐसा सोचकर यह गंगाजी में प्रवेश कर गयी परंतु वहाँ भी मैं अपनी चोंच निकाल न पाया।

आखिर में यह बड़े प्रवाह में प्रवेश कर गयी। गंगा का प्रवाह तेज होने के कारण हम दोनों बह गये और बीच में ही मर गये।

तब गंगा जी के प्रभाव से यह तो ब्राह्मणी बनी और मैं बड़ा भारी ज्योतिषी बना। अब वही मेरी स्त्री हुई।

जो मेरे मरणपर्यन्त अपने मुख से गाली निकालकर मुझे दुःख देगी और मैं भी अपने पूर्वकर्मों का फल समझकर सहन करता रहूँगा,

इसका दोष नहीं मानूँगा क्योंकि यह किये हुए कर्मों का ही फल है। इसलिए मैं शांत रहता हूँ। अब अपना प्रश्न पूछो।”

ब्राह्मण ने अपना सब समाचार सुनाया और पूछाः “अधर्मी पापी राजा ने मुझ निरपराध का हाथ क्यों कटवाया?”

ज्योतिषीः “राजा ने आपका हाथ नहीं कटवाया, आपके कर्म ने ही आपका हाथ कटवाया है।”

“किस प्रकार?”

“पूर्वजन्म में आप एक तपस्वी थे और राजकन्या गौ थी तथा राजकुमार कसाई था।

वह कसाई जब गौ को मारने लगा, तब गौ बेचारी जान बचाकर आपके सामने से जंगल में भाग गयी।

पीछे से कसाई आया और आप से पूछा कि “इधर कोई गाय तो नहीं गई है?”

आपने प्रण कर रखा था कि ‘झूठ नहीं बोलूँगा।’ अतः जिस तरफ गौ गयी थी, उस तरफ आपने हाथ से इशारा किया तो उस कसाई ने जाकर गौ को मार डाला।

गंगा के किनारे वह उसकी चमड़ी निकाल रहा था, इतने में ही उस जंगल से शेर आया और गौ एवं कसाई दोनों को खाकर चला गया। गंगाजी के किनारे हड्डियाँ उसमें बह गयीं।

गंगाजी के प्रताप से कसाई को राजकुमार और गौ को राजकन्या का जन्म मिला एवं पूर्वजन्म के किये हुए, उस कर्म ने एक रात्रि के लिए उन दोनों को इकट्ठा किया।

क्योंकि कसाई ने गौ को हंसिये से मारा था, इसी कारण राजकन्या के हाथों अनायास ही तलवार गिरने से राजकुमार का सिर कट गया और वह मर गया।

इस तरह अपना फल देकर कर्म निवृत्त हो गया। तुमने जो हाथ का इशारा रूप कर्म किया था, उस पापकर्म ने तुम्हारा हाथ कटवा दिया है।

इसमें तुम्हारा ही दोष है, किसी अन्य का नहीं, ऐसा निश्चय कर सुखपूर्वक रहो।”

कितना सहज है ज्ञानसंयुक्त जीवन ! यदि हम इस कर्मसिद्धान्त को मान लें और जान लें तो पूर्वकृत घोर से घोर कर्म का फल भोगते हुए भी हम दुःखी नहीं होंगे बल्कि अपने चित्त की समता बनाये रखने में सफल होंगे।

भगवान श्रीकृष्ण इस समत्व के अभ्यास को ही ‘समत्व योग’ संबोधित करते हैं, जिसमें दृढ़ स्थिति प्राप्त होने पर मनुष्य कर्मबंधन से मुक्त हो जाता है।