यज्ञकर्ता-ऋणी नहीं रहता.


यज्ञकर्ता-ऋणी नहीं रहता.

(तपोमूर्ति महात्मा प्रभु आश्रित जी महाराज)

वेद भगवान् की प्रतिज्ञा है कि जो यज्ञ करेगा-उसे ऋणी नहीं रहने दूँगा।
“सुन्वताम् ऋणं न”


इस प्रतिज्ञा के होते हुए भी देखा जाता है कि कई यज्ञ करने वाले भी ऋणी बने रहते हैं। इसका कारण भी आगे चलकर वेद भगवान् ने स्पष्ट कर दिया है।
“न नूनं ब्रह्मणामृणं प्रोशूनामस्ति सुन्वताम् न सोमाअप्रतापये।”

अर्थात्—निश्चय ही यज्ञकर्ता ब्रह्म परायण मनुष्य कभी ऋणी नहीं हो सकते। किन्तु इन्द्र जिनको जाँच कर चला जाता है, वह दरिद्र रह जाते हैं।

इन्द्र भगवान् समस्त ऐश्वर्य के देव तो हैं, वे सब को सुखी बनाना चाहते हैं, पर वे कंजूस और नीच स्वभाव वालों से खिन्न होकर उनके समीप नहीं रुकते और उन्हें बिना कुछ दिये ही लाँघ कर चले जाते हैं। यह बात निम्न मंत्र में स्पष्ट करदी गई है।

अतीहि मन्युषविणं सुपुवाँ समुपारणे। इनं रातं सुतं दिन॥ ऋ. 8।32।21

क्रोध से यज्ञ करने वाले को अन्धा समझ कर इन्द्र भी उसे नहीं देखता। ईर्ष्या से प्रेरित होकर जो यज्ञ करता है, उसे बहरा समझ कर इन्द्र भी उसकी पुकार नहीं सुनते। जो यश के लिए यज्ञ करता है, उसे धूर्त समझ कर इन्द्र भी उससे धूर्तता करते हैं। जिनके आचरण निकृष्ट हैं, उनके साथ इन्द्र भी स्वार्थी बन जाते हैं, कटुभाषियों को इन्द्र भी शाप देते हैं। दूसरों का अधिकार मारने वालों की पूजा को इन्द्र भी हजम कर जाते हैं।


इससे प्रकट है कि जो सच्चे यज्ञकर्ता हैं उन्हीं के ऊपर इन्द्र भगवान् सब प्रकार की भौतिक और आध्यात्मिक सुख सम्पदायें बरसाते हैं। भगवान् भावना के वश में है। जिनकी श्रद्धा सच्ची है, जिनका अन्तःकरण पवित्र है, जिनका चरित्र शुद्ध है, जो परमार्थ की दृष्टि से हवन करते हैं उनका थोड़ा सा सामान भी इन्द्र देवता सुदामा के तन्दुलों की भाँति प्रेम पूर्वक ग्रहण करते हैं और उसके बदलें में इतना देते हैं जिससे अग्निहोत्री को किसी प्रकार की कमी नहीं रहती, वह किसी का ऋणी नहीं रहता।

रुपये पैसे का ऋण न रहे सो बात ही नहीं। देवऋण, पितृऋण, ऋषिऋण आदि सामाजिक और आध्यात्मिक ऋणों से छुट्टी पाकर वह बंधन मुक्त होकर मुक्ति पद का सच्चा अधिकारी बनता है।

यज्ञ से तृप्त हुए इन्द्र की प्रसन्नता तीन प्रकार उपलब्ध होती है—(1)कर्मकाण्ड द्वारा आधि भौतिक रूप से भौतिक ऐश्वर्य की धन, वैभव देता है। (2) साधना द्वारा, पुरुषार्थियों को अधिदैविक रूप से राज नेतृत्व-शक्ति और कीर्ति प्रदान करता है (3) योगाभ्यासी, आध्यात्म हवन करने वाले को इन्द्रिय निष्ठा मन का, निरोध का, ब्रह्म का, साक्षात्कार मिलता है।

यज्ञ से सब कुछ मिलता है। ऋण से छुटकारा भी मिलता है पर याजक होना चाहिये सच्चा! क्योंकि सचाई और उदारता में ही इन्द्र भगवान् प्रसन्न होकर कुछ देने को तैयार होते हैं।

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