सामाजिक-न्याय
के बिना कल्याण नहीं.
धन की विषमता तो संसार के दूसरे देशों में भी है। संसार के अन्य देश इसे अपने ढँग से ही हल कर रहे हैं। रूस ने इस समस्या को अपने ही ढंग से हल कर डाला है। वहाँ गरीब अमीर का उतना भेद नहीं जितना संसार के अन्य देशों में है। परन्तु इससे समाज में अधिक संतोष बढ़ा यह सन्देहास्पद है। धन की विषमता का स्थान वहाँ अधिकार की विषमताओं ने ले लिया है। देश की सामान्य जनता को स्वतंत्र सोचने का अधिकार ही नहीं है। फिर उस देश में एक ही विचार के लोगों का राज्य है दूसरे विचार का स्थान नहीं है। इंग्लैंड में धन की विषमता होते हुए भी जनता संतोष से जीवन व्यतीत कर रही है। वह राष्ट्र के सभी कामों में अपार सहयोग देती है। इससे यह स्पष्ट है कि यदि समाज में धन की विषमता नियंत्रित रूप से समाज की अवनति न होकर उन्नति की होती है।
भारतवर्ष में आर्थिक विषमता के अतिरिक्त दूसरे प्रकार की विषमतायें ही अधिक जटिल हैं। यह देश शास्त्रवादी है। ऐसे तो सभी देशों के समाज का संचालन वहाँ के धर्म गुरु करते हैं, परन्तु वर्ष में शास्त्रकार बनना पेशा बन गया है। इस कारण हमारे सामाजिक जीवन की प्रत्येक उस विधि से चल रही हैं जैसे वे चार-पाँच हजार वर्ष पहले चलती थीं। परन्तु आज समाज पाँच हजार वर्ष पहले का समाज नहीं है। समय के अनुसार अपने आप में परिवर्तन न कर सकने के कारण हम सदियों विदेशी लोगों के गुलाम रहे और आज भी स्वतन्त्रता प्राप्त करके सभी प्रकार से निकम्मे बने हुए हैं।
भारतवर्ष की जाति-पाँत की प्रथा के कारण ही मुसलमानों द्वारा भारतवर्ष की विजय इतनी हो गई कि यह एक संसार का आश्चर्य बन गया है। सत्रह बार महमूद गजनवी ने भारत को लूटा और ग्यारह बार गौरी ने, मोहम्मद बख्तियार के 15 घुड़सवारों ने बिहार पर कब्जा कर लिया अंडडडडडड ने बंगाल पर। क्या इतिहास की इन बातों से प्रमाणित नहीं होता कि हमारा समाज निकम्मा हो चुका है। जात-पाँत की प्रथा को थोड़ा भी ढीला करने से मुगल राज्य का अन्त हो गया। पंजाब के सिक्ख और दक्षिण के मराठों ने राष्ट्र की स्वतन्त्रता की लड़ाई में जात-पाँत के भेद को अलग कर दिया था। इसी के कारण मुसलमानी राज्य का अन्त हो गया। अँग्रेजों ने भी भारतवर्ष पर 150 वर्ष तक राज्य भारतवर्ष के सामाजिक भेद-भावों के कारण किया। महात्मा गाँधी के आन्दोलन से जात-पाँत की शृंखला ढीली हुई। सभी जाति के लोग राष्ट्रीय आन्दोलन में शामिल हुए। अतएव यह आन्दोलन मारकाट से वंचित रहकर भी सफल हो गया। परन्तु आज भी हमारा समाज सुदृढ़ नहीं है। जात-पाँत की विषमता मनुष्य-मनुष्य में भेद डाले हुए है और इसी के कारण भारतवर्ष में पाकिस्तान की उपस्थिति हुई। जात-पाँत के नियमों की अवहेलना करने के कारण जो लोग बहिष्कृत हुए वे मुसलमान बन गये। बहिष्कृत व्यक्ति उस समाज का कभी भी मित्र नहीं होता जो उसका बहिष्कार करता है। अतएव यहाँ के मुसलमान यहाँ की प्रधान जनता के शत्रु हैं और भारतवर्ष को अपना देश भी नहीं मानते। पाकिस्तान और भारत के युद्ध होने पर वे पाकिस्तान की विजय की ही इच्छा करेंगे।
भारतवर्ष के हरिजनों की आर्थिक और सामाजिक दशा लगभग वैसी ही बनी है जैसी आज से चार सौ वर्ष पहले थी। इस वर्ग के पास न तो धन है और न विद्या। अँग्रेजी काल में जिस प्रकार जनता की शिक्षा के लिये सरकार के पास पैसे न थे, वैसे आज भी इस कार्य के लिये सरकार के पास पैसा नहीं है। हमने अपने जनतन्त्रवादी शासनप्रणाली को अमेरिका और इंग्लैंड के आधार पर बना लिया है। हमारा शासन धनी देशों के शासन के समान खर्चीला बन गया है। अतएव शिक्षा के लिये अब पैसा ही नहीं है। क्या यही अच्छा होता कि कुछ सालों के लिये शासन का यह खर्च कम करके जनता की शिक्षा में लगा दिया जाता। क्या जन शिक्षा के बिना जनतन्त्रवाद का कोई अर्थ है। मूर्ख अनपढ़ लोगों में जनतन्त्रवाद सब प्रकार अत्याचार सहित निरंकुश साम्राज्यवाद बन जाता है। राजनैतिक चेतना का जिस जनता में सर्वथा अभाव है उससे अपने चुनाव के लिये वोट लेना जगत को धोखा देना है।
फिर चमार, भंगी, डोम आदि किसी ओर को वोट देकर करेंगे ही क्या, उनसे तो जबरदस्ती वोट लिया जा सकता है। उनके लिये अँग्रेजी राज्य काँग्रेसी राज्य एक ही बात है-
कोउ नृप होय हमें का हानी। चेरि छाँड़ि अब होब कि रानी॥
राष्ट्र के दलित वर्ग सदियों गुलामी करते-करते अपने स्वाभिमान को ही भूल गये हैं। इन लोगों की भारतवर्ष में वही स्थिति है, जो निग्रो जाति के लोगों की स्थिति अमेरिका में है। इन्हें भारतवर्ष की स्वाधीनता से लाभ ही क्या हुआ और यदि भारतवर्ष गुलाम हो जाय तो इससे हानि ही क्या होगी? समाज शिक्षा का एक उद्देश्य इस प्रकार की सामाजिक विषमताओं का अन्त कर देना होगा। मानवता के अधिकार समाज के सभी लोगों को मिलें तभी वे राष्ट्र के उपयोगी नागरिक बन सकते हैं। सभी लोगों को मानवता के न्याययुक्त अधिकार देना समाज शिक्षा का लक्ष्य होना चाहिये।
आज के भारत में एक वर्ग और दूसरे वर्ग के बीच न केवल धन की और जाति-पाँति की दीवारें हैं, वरन् विद्या की भी दीवारें बन गई हैं। आज का पढ़ा-लिखा युवक अपने आपको समाज का विशेष प्रकार का व्यक्ति मानने लगता है। वह अपने ज्ञान का जनता में अधिक से अधिक प्रसार न कर उसे सीमित संख्या में ही वितरित करना चाहता है। हमारे पढ़े-लिखे लोगों में यह मनोवृत्ति अंग्रेजों के सर्ग से आई। अँग्रेजों ने भारतवर्ष में अपने कुछ नकलची बना लिये। ये लोग अपने मालिक की बोलने-चालने, रहन-सहन में इतनी नकल करने लगे कि अपने आपके छोटे अँग्रेज समझने लगे और जिस प्रकार अँग्रेज भारतवर्ष के लोगों को, यहाँ की चाल ढाल, वेश-भूषा को, यहाँ की भाषा को हेय दृष्टि से देखते थे, पढ़े-लिखे लोग अभी अपने ही अनपढ़ देशवासियों को उसी दृष्टि से देखने लगे हैं। जो ज्ञान उन्होंने प्राप्त किया है वह अँग्रेजी भाषा में है, यदि इस ज्ञान को हिन्दी भाषा में रख दिया जाय तो वह ज्ञान सभी लोगों के लिये सुलभ हो जाय। परन्तु ऐसा करने से अँग्रेजी पढ़े-लिखे मुट्ठी भर विद्वानों की विद्या के ऊपर से ठेकेदारी चली जायगी। यही कारण है कि हिन्दी साहित्य की वृद्धि में और उसके विश्वविद्यालय की भाषा होने में इतनी कठिनाई हो रही है।
भारत के पतन का एक कारण हमारे देशी विद्वानों की पंडिताई का अभिमान था। पंडितों ने अपने ज्ञान को खूब छिपाया। उसे संस्कृत के अलंकृत श्लोकों में लिखा सामान्य जनता की भाषा में उत्तम ज्ञान को लिखना गँवारीपन कहा गया। इस प्रकार के प्रयास का दमन और निंदा हुई। इसी के परिणामस्वरूप जहाँ एक ओर हमारे देश में वाचस्पति मिश्र जैसे विद्वान हुये वहाँ देश की साधारण जनता मूर्ख बनी रही। इसके कारण ही हमारा देश सदियों विदेशियों का गुलाम रहा। आज भी हमारे अँग्रेजी के पंडित वही कर रहे हैं जो प्राचीन काल में संस्कृत के पंडितों ने किया। संसार के सभी ज्ञान को सामान्य जनता के लिये सुलभ बनाना प्रत्येक विद्वान का उद्देश्य होना चाहिये। जब तक विद्वान और अविद्वान के बीच की खाई नहीं मरेगी दूसरे प्रकार की सामाजिक विषमतायें ज्यों की त्यों बनी रहेंगी।
आज का भारतीय विद्वान जितना स्वार्थी अहंकारी और असामाजिक व्यक्ति है उतना देहात का साधारण नागरिक नहीं है। हमारे विद्वान समाज सेवा का पथ प्रदर्शन अशिक्षित जनता में न कर स्वार्थ परायणता का मार्ग दिखा रहें। विद्वानों में सामाजिकता लाने का पहला प्रयास उनके द्वारा साधारण जनता की विचारों द्वारा सेवा कराना होगा। यह सेवा विदेशी भाषा द्वारा नहीं स्वदेशी भाषा द्वारा ही हो सकती है।
जिस प्रकार के समाज की हम कल्पना करते हैं वैसा समाज आज से दो हजार वर्ष पूर्व भारतवर्ष में था। बौद्धकालीन भारतीय समाज मूलतः जनतंत्रवादी, जात पात विहीन और प्रेम के ऊपर आधारित था। भगवान बुद्ध ने अछूतों और स्त्रियों को ज्ञान का उतना ही अधिकारी माना है जितना ब्राह्मण को। भगवान बुद्ध ने अपना ज्ञान संस्कृत भाषा में न रखकर पाली में जो जनता की भाषा थी प्रसारित किया। उनका कथन था कि जो भाषा सबको सुलभ हो उसी भाषा में मनुष्य के कल्याण के योग्य ज्ञान रखना चाहिये। जब तक भगवान बुद्ध की शिक्षा का प्रभाव भारतवर्ष में रहा यह देश धन धान्य से सम्पन्न सुशिक्षित और स्वाधीन रहा। इस धर्म के प्रचार के कारण आज चीन भी दो हजार वर्ष से स्वाधीन है। सभी बौद्ध देश थोड़े ही काल तक विदेशियों के गुलाम बने। जहाँ प्रेम और सद्भावना की वृद्धि होती है और सामाजिक खाइयाँ पट जाती हैं वहीं सब प्रकार की भौतिक सम्पत्ति भी आ जाती है।
हमें केवल मजदूरों को अन्न-वस्त्र नहीं देना है। यह मसला केवल भौतिक मसला नहीं है। मेरी दृष्टि से तो कोई भी मसला केवल आर्थिक मसला हो ही नहीं सकता। यदि हम गहराई में पहुँचें, तो मालूम होता है कि भौतिक मसले वास्तव में आध्यात्मिक और नैतिक ही होते हैं। यदि हम कहें कि गरीब को समता चाहिये, न्याय चाहिये, तो जो हमारे विरुद्ध पक्ष में हैं, उनको भी हमारी बात मान लेनी पड़ती है। वे भी विषमता का समर्थन तो नहीं करते।
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